Tuesday, June 2, 2020

Fantastic History of india 1

Fantastic History of india 1

#मध्यकालीन_भारत_का_इतिहास :
#मराठा_साम्राज्य_1674_1818_ई...

मराठा राज्य का निर्माण एक क्रान्तिकारी घटना है। विजयनगर के उत्थान से भारतीय राजनीति में एक महत्वपूर्ण तत्व आया था। मराठा संघ एवं मराठा साम्राज्य एक भारतीय शक्ति थी जिन्होंने 18 वी शताब्दी में भारतीय उपमहाद्वीप पर अपना प्रभुत्व जमाया हुआ था। इस साम्राज्य की शुरुआत सामान्यतः 1674 में छत्रपति शिवाजी महाराज के राज्याभिषेक के साथ हुई और इसका अंत 1818 में पेशवा बाजीराव द्वितीय की हार के साथ हुआ। भारत में मुग़ल साम्राज्य को समाप्त करने के ज्यादातर श्रेय मराठा साम्राज्य को ही दिया जाता है।

#छत्रपति_शिवाजी

शिवाजी का जन्म पूना के निकट शिवनेर के किले में 20 अप्रैल, 1627 को हुआ था। शिवाजी शाहजी भोंसले और जीजाबाई के पुत्र थे। शिवाजी को मराठा साम्राज्य का संस्थापक कहा जाता है। शिवाजी महाराज ने बीजापुर सल्तनत से मराठा लोगो को रिहा करने का बीड़ा उठा रखा था और मुगलों की कैद से उन्होंने लाखो मराठाओ को आज़ादी दिलवाई। इसके बाद उन्होंने धीरे-धीरे मुग़ल साम्राज्य को ख़त्म करना शुरू किया और हिंदवी स्वराज्य की स्थापना करने लगे।

1656 ई. में रायगढ़ को उन्होंने अपने साम्राज्य की राजधानी घोषित की और एक आज़ाद मराठा साम्राज्य की स्थापना की। इसके बाद अपने साम्राज्य को मुग़ल से बचाने के लिए वे लगातार लड़ते रहे। और अपने राज्य के विस्तार का आरंभ 1643 ई. में बीजापुर के सिंहगढ़ किले को जीतकर किया। इसके पश्चात 1646 ई. में तोरण के किले पर भी शिवाजी ने अपना अधिपत्य स्थापित कर लिया। शिवाजी की शक्ति को दबाने के लिए बीजापुर के शासक ने सरदार अफजल खां को भेजा। शिवाजी ने 1659 ई. में अफजल खां को पराजित कर उसकी हत्या कर दी। शिवाजी की बढती शक्ति से घबराकर औरंगजेब ने शाइस्ता खां को दक्षिण का गवर्नर नियुक्त किया। शिवाजी ने 1663 ई. में शाइस्ता खां को पराजित किया। जयसिंह के नेतृत्व में पुरंदर के किले पर मुगलों की विजय तथा रायगढ़ की घेराबंदी के बाद जून 1665 में मुगलों और शिवाजी के बीच पुरंदर की संधि हुई। 1670 ई.  में शिवाजी ने मुगलों के विरुद्ध अभियान छेड़कर पुरंदर की संधि द्वारा खोये हुए किले को पुनः जीत लिया। 1670 ई. में ही शिवाजी ने सूरत को लूटा तथा मुगलों से चौथ की मांग की।

1674 में स्थापित नव मराठा साम्राज्य के छत्रपति के रूप में उनका राज्याभिषेक किया गया। अपने राज्याभिषेक के बाद शिवाजी का अंतिम महत्वपूर्ण अभियान 1676 ई. में कर्नाटक अभियान था।

12 अप्रैल, 1680 को शिवाजी की मृत्यु हो गई। उनकी मृत्यु के समय उन्होंने 300 किले साथ, तक़रीबन 40,000 की घुड़सवार सेना और 50000 पैदल सैनिको की फ़ौज बना रखी थी और साथ पश्चिमी समुद्री तट तक एक विशाल नौसेना का प्रतिष्ठान भी कर रखा था। समय के साथ-साथ इस साम्राज्य का विस्तार भी होता गया और इसी के साथ इसके शासक भी बदलते गये, शिवाजी महाराज के बाद उनके पोतो ने मराठा साम्राज्य को संभाला और फिर उनके बाद 18 वी शताब्दी के शुरू में पेशवा मराठा साम्राज्य को सँभालने लगे।

#शंभाजी (1680 ई. से 1689 ई.)

शिवाजी महाराज के दो बेटे थे : संभाजी और राजाराम। संभाजी महाराज उनका बड़ा बेटा था, जो दरबारियों के बीच काफी प्रसिद्ध था।  1681 में संभाजी महाराज ने मराठा साम्राज्य का ताज पहना और अपने पिता की नीतियों को अपनाकर वे उन्ही की राह में आगे चल पड़े। संभाजी महाराज ने शुरू में ही पुर्तगाल और मैसूर के चिक्का देवा राया को पराजित कर दिया था।

इसके बाद किसी भी राजपूत-मराठा गठबंधन को हटाने के लिए 1681 में औरंगजेब ने खुद दक्षिण की कमान अपने हात में ले ली। अपने महान दरबार और 5,000,00 की विशाल सेना के साथ उन्होंने मराठा साम्राज्य के विस्तार की शुरुआत की और बीजापुर और गोलकोंडा की सल्तनत पर भी मराठा साम्राज्य का ध्वज लहराया। अपने 8 साल के शासनकाल में उन्होंने मराठाओ को औरंगजेब के खिलाफ एक भी युद्ध या गढ़ हारने नही दिया।

1689 के आस-पास संभाजी महाराज ने अपने सहकारियो को रणनीतिक बैठक के लिए संगमेश्वर में आमंत्रित किया, ताकि मुग़ल साम्राज्य को हमेशा के लिए हटा सके। लेकिन गनोजी शिर्के और औरंगजेब  के कमांडर मुकर्रब खान ने संगमेश्वर में जब संभाजी महाराज बहुत कम लोगो के साथ होंगे तब आक्रमण करने की बारीकी से योजना बन रखी थी। इससे पहले औरंगजेब कभी भी संभाजी महाराज को पकड़ने में सफल नही हुआ था।

लेकिन इस बार अंततः उसे सफलता मिल ही गयी और 1 फरवरी 1689 को उन्होंने संगमेश्वर में आक्रमण कर मुग़ल सेना ने संभाजी महाराज को कैदी बना लिया। उनके और उनके सलाहकार कविकलाश को बहादुरगढ़ ले जाया गया, जहाँ औरंगजेब ने मुग़लों के खिलाफ विद्रोह करने के लिए मार डाला। 11 मार्च 1689 को उन्होंने संभाजी महाराज को मार दिया था।

#राजाराम (1689 ई. से 1700 ई.)

शंभाजी की मृत्यु के बाद राजाराम को मराठा साम्राज्य का छत्रपति घोषित किया गया। राजाराम मुग़लोँ के आक्रमण के भय से अपनी राजधानी रायगढ़ से जिंजी  ले गया। 1698 तक जिंजी मुगलोँ के विरुद्ध मराठा गतिविधियो का केंद्र रहा। 1699 में सतारा, मराठों की राजधानी बना। राजाराम स्वयं को शंभाजी के पुत्र शाहू का प्रतिनिधि मानकर गद्दी पर कभी नहीँ बैठा। राजा राम के नेतृत्व में मराठों ने मुगलोँ के विरुद्ध स्वतंत्रता के लिए अभियान शुरु किया जो 1700 ई. तक चलता रहा। राजा राम की मृत्यु के बाद 1700 ई. में उसकी विधवा पत्नी तारा बाई ने अपने चार वर्षीय पुत्र शिवाजी द्वितीय को गद्दी पर बैठाया और मुगलो के विरुद्ध संघर्ष जारी रखा।

#शिवाजी_द्वितीय (1700 ई. से  1707 ई.)

राजाराम की विधवा पत्नी तारा बाई ने अपने चार वर्षीय पुत्र शिवाजी द्वितीय को गद्दी पर बैठाया और मुगलो के विरुद्ध संघर्ष जारी रखा। उन्होंने ही कुछ समय तक मुग़लों के खिलाफ मराठा साम्राज्य की कमान संभाली और 1705 से उन्होंने नर्मदा नदी भी पार कर दी और मालवा में प्रवेश कर लिया, ताकि मुग़ल साम्राज्य पर अपना प्रभुत्व जमा सके।

#छत्रपति_शाहू_महाराज (1707 ई. से )

1707 में औरंगजेब की मृत्यु के बाद, संभाजी महाराज के बेटे (शिवाजी के पोते) को मराठा साम्राज्य के नए शासक बहादुर शाह प्रथम को रिहा कर दिया लेकिन उन्हें इस परिस्थिति में ही रिहा किया गया था की वे मुग़ल  कानून का पालन करेंगे। रिहा होते ही शाहू ने तुरंत मराठा सिंहासन की मांग की और अपनी चाची ताराबाई और उनके बेटे को चुनौती दी। इसके चलते एक और मुग़ल-मराठा युद्ध की शुरुआत हो गयी।

1707 में सतारा और कोल्हापुर राज्य की स्थापना की गयी क्योकि उत्तराधिकारी के चलते मराठा साम्राज्य में ही वाद-विवाद होने लगे थे। लेकिन अंत में शाहू को ही मराठा साम्राज्य का नया छत्रपति बनाया गया। लेकिन उनकी माता अभी भी मुग़लों के ही कब्जे में थी लेकिन अंततः जब मराठा साम्राज्य पूरी तरह से सशक्त हो गया तब शाहू अपनी माँ को भी रिहा करने में सफल हुए।

शाहू ने 1713 ई.  में बालाजी को पेशवा के पद पर नियुक्त किया। बालाजी विश्वनाथ की नियुक्ति के साथ ही पेशवा पद शक्तिशाली हो गया। छत्रपति नाममात्र का शासक रह गया। शाहू के शासनकाल में, रघुजी भोसले ने पूर्व (वर्तमान बंगाल) में मराठा साम्राज्य का विस्तार किया। सेनापति धाबडे ने पश्चिम में विस्तार किया। पेशवा बाजीराव और उनके तीन मुख्य पवार (धार), होलकर (इंदौर) और सिंधिया (ग्वालियर) ने उत्तर में विस्तार किया। ये सभी राज्य उस समय मराठा साम्राज्य का ही हिस्सा थे।

#पेशवाओं_के_अधीन_मराठा_साम्राज्य

इस युग में, पेशवा चित्पावन परिवार से संबंध रखते थे, जो मराठा सेनाओ का नियंत्रण करते थे और बाद में वही मराठा साम्राज्य के शासक बने। अपने शासनकाल में पेशवाओ ने भारतीय उपमहाद्वीप के ज्यादातर भागो पर अपना प्रभुत्व बनाए रखा था।

#बालाजी_विश्वनाथ (1713 ई. से 1720 ई.)

बालाजी विश्वनाथ एक ब्राहमण थे। बालाजी विश्वनाथ ने अपना राजनीतिक जीवन एक छोटे से राजस्व अधिकारी के रुप में शुरु किया था। 1713 में शाहू ने पेशवा बालाजी विश्वनाथ की नियुक्ती की थी। उसी समय से पेशवा का कार्यालय ही सुप्रीम बन गए और शाहूजी महाराज मुख्य व्यक्ति बने। उनकी पहली सबसे बड़ी उपलब्धि 1714 में कन्होजो अंग्रे के साथ लानावल की संधि का समापन करना थी, जो की पश्चिमी समुद्र तट के सबसे शक्तिशाली नौसेना मुखिया में से एक थे। बाद में वे मराठा में ही शामिल हो गये। 1719 में मराठाओ की सेना ने दिल्ली पर हल्ला बोला और डेक्कन के मुग़ल गवर्नर सईद हुसैन हाली के मुग़ल साम्राज्य को परास्त किया। तभी उस समय पहली बार मुग़ल साम्राज्य को अपनी कमजोर ताकत का अहसास हुआ।

#बाजीराव_प्रथम (1720 ई. – 1740 ई.)

बालाजी विश्वनाथ की 1720 में मृत्यु के बाद उसके पुत्र बाजीराव प्रथम को शाहू ने पेशवा नियुक्त किया। बाजीराव प्रथम के पेशवा काल में मराठा साम्राज्य की शक्ति चरमोत्कर्ष पर पहुँच गई। 1724 में शूकर खेड़ा के युद्ध में मराठोँ की मदद से निजाम-उल-मुल्क ने दक्कन में मुगल सूबेदार मुबारिज खान को परास्त कर एक स्वतंत्र राज्य की स्थापना की। निजाम-उल-मुल्क ने अपनी स्थिति मजबूत करने के बाद मराठोँ के विरुद्ध कार्रवाई शुरु कर दी। बाजीराव प्रथम ने 1728  में पालखेड़ा के युद्ध में निजाम-उल-मुल्क को पराजित किया। 1728 में ही निजाम-उल-मुल्क बाजीराव प्रथम के बीच एक मुंशी शिवगांव की संधि  हुई जिसमे निजाम ने मराठोँ को चौथ एवं सरदेशमुखी देना स्वीकार किया। बाजीराव प्रथम ने शिवाजी की गुरिल्ला युद्ध प्रणाली को अपनाया। 1739 ई. में बाजीराव प्रथम ने पुर्तगालियों से सालसीट तथा बेसीन छीन लिया। बालाजी बाजीराव प्रथम ने ग्वालियर के सिंधिया, गायकवाड़, इंदौर के होलकर और नागपुर के भोंसले शासकों को सम्मिलित कर एक मराठा मंडल की स्थापना की। 1740 तक अपनी मृत्यु से पहले उन्होंने कुल 41 युद्ध में लढाई की और उनमे से वे एक भी युद्ध नही हारे।

#बालाजी_बाजीराव (1740 ई. – 1761 ई.)

बाजीराव प्रथम की मृत्यु के बाद बालाजी बाजीराव  नया पेशवा बना। नाना साहेब के नाम से भी जाना जाता है। 1750 में रघुजी भोंसले की मध्यस्थता से राजाराम द्वितीय के मध्य संगौला की संधि हुई। इस संधि के द्वारा पेशवा मराठा साम्राज्य का वास्तविक प्रधान बन गया। छत्रपति नाममात्र का राजा रह गया। बालाजी बाजीराव पेशवा काल में पूना मराठा राजनीति का केंद्र हो गया। बालाजी बाजीराव के शासनकाल में 1761 ई. पानीपत का तृतीय युद्ध हुआ। यह युद्ध मराठों अहमद शाह अब्दाली के बीच हुआ।

#पानीपत_का_तृतीय_युद्ध_दो_कारण –

▪️प्रथम नादिरशाह की भांति अहमद शाह अब्दाली भी भारत को लूटना चाहता था।
▪️दूसरा, मराठे हिंदू पद पादशाही की भावना से प्रेरित होकर दिल्ली पर अपना प्रभाव स्थापित करना चाहते थे।

पानीपत के युद्ध में बालाजी बाजीराव ने अपने नाबालिग बेटे विश्वास राव के नेतृत्व में एक शक्तिशाली सेना भेजी किन्तु वास्तविक सेनापति विश्वास राव का चचेरा भाई सदाशिवराव भाऊ था। इस युद्ध में मराठोँ की पराजय हुई और विश्वास राव और सदाशिवराव सहित 28 हजार सैनिक मारे गए।

#माधव_राव (1761 ई. – 1772 ई.)

पानीपत के तीसरे युद्ध में मराठोँ की पराजय के बाद माधवराव पेशवा बनाया गया। माधवराव की सबसे बड़ी सफलता मालवा और बुंदेलखंड की विजय थी। माधव ने 1763 में उद्गीर के युद्ध में हैदराबाद के निजाम को पराजित किया। माधवराव और निजाम के बीच राक्षस भवन की संधि हुई। 1771 ई. में मैसूर के हैदर अली को पराजित कर उसे नजराना देने के लिए बाध्य किया। माधवराव ने रुहेलों, राजपूतों और जाटों को अधीन लाकर उत्तर भारत पर मराठोँ का वर्चस्व स्थापित किया। 1771 में माधवराव के शासनकाल में मराठों निर्वासित मुग़ल बादशाह शाहआलम को दिल्ली की गद्दी पर बैठाकर पेंशन भोगी बना दिया। नवंबर 1772 में माधवराव की छय रोग से मृत्यु हो गई।

#नारायण_राव (1772 ई. – 1774 ई.)

माधवराव की अपनी कोई संतान नहीँ थी। अतः माधवराव की मृत्यु के उपरांत उसके छोटे भाई नारायणराव पेशवा बना। नारायणराव का अपने चाचा राघोबा से गद्दी को लेकर लंबे समय तक संघर्ष चला जिसमें अंततः राघोबा ने 1774 में नारायणराव की हत्या कर दी।

#माधव_नारायण (1774 ई. – 1796 ई.)

1774 ई. में पेशवा नारायणराव की हत्या के बाद उसके पुत्र माधवराव नारायण को पेशवा की गद्दी पर बैठाया गया। इसके समय में नाना फड़नवीस के नेतृत्व में एक काउंसिल ऑफ रीजेंसी का गठन किया गया था, जिसके हाथों में वास्तविक प्रशासन था। इसके काल में प्रथम आंग्ल–मराठा युद्ध हुआ। 17 मई 1782 को सालबाई की संधि द्वारा प्रथम आंग्ल मराठा युद्ध समाप्त हो गया। यह संधि ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी और मराठा साम्राज्य के बीच हुई थी। टीपू सुल्तान को 1792 में तथा हैदराबाद के निजाम को 1795 में परास्त करने के बाद मराठा शक्ति एक बार फिर पुनः स्थापित हो गई।

#बाजीराव_द्वितीय (1796 ई. से- 1818 ई.)

माधवराव नारायण की मृत्यु के बाद राघोबा का पुत्र बाजीराव द्वितीय पेशवा बना। इसकी अकुशल नीतियोँ के कारण मराठा संघ में आपसी मतभेद उत्पन्न हो गया। 1802 ई. बाजीराव द्वितीय के बेसीन की संधि के द्वारा अंग्रेजो की सहायक संधि स्वीकार कर लेने के बाद मराठोँ का आपसी विवाद पटल पर आ गया। सिंधिया तथा भोंसले ने अंग्रेजो के साथ की गई इस संधि का कड़ा विरोध किया। द्वितीय औरतृतीय आंग्ल मराठा युद्ध बाजीराव द्वितीय के शासन काल में हुआ। द्वितीय आंग्ल मराठा युद्ध में सिंधिया और भोंसले को पराजित कर अंग्रेजो ने सिंधिया और भोंसले को अलग-अलग संधि करने के लिए विवश किया। 1803 में अंग्रेजो और भोंसले के साथ देवगांव की संधि कर कटक और वर्धा नदी के पश्चिम का क्षेत्र ले लिया। अंग्रेजो ने 1803 में ही सिन्धयों से सुरजी-अर्जनगांव की संधि कर उसे गंगा तथा यमुना के क्षेत्र को ईस्ट इंडिया कंपनी को देने के लिए बाध्य किया। 1804 में अंग्रेजों तथा होलकर के बीच तृतीय आंग्ल-मराठा युद्ध हुआ, जिसमें पराजित होकर होलकर ने अंग्रेजो के साथ राजपुर पर घाट की संधि की। मराठा शक्ति का पतन 1817-1818 ई. में हो गया जब स्वयं पेशवा बाजीराव द्वितीय ने अपने को पूरी तरह अंग्रेजो के अधीन कर लिया। बाजीराव द्वितीय द्वारा पूना प्रदेश को अंग्रेजी राज्य में विलय कर पेशवा पद को समाप्त कर दिया गया।


#मध्यकालीन_भारत_का_इतिहास :
#शाहजहां_1628_1658_ई...

शाहजहां जहांगीर का पुत्र तथा अकबर का पोता था, इसका जन्म 5 जनवरी 1592 लाहौर में हुआ था। इसके बचपन का नाम खुर्रम था। अहमदनगर और मुग़ल साम्राज्य के बीच 1617 ई. में संधि हुई थी, जिसमें जहांगीर के पुत्र खुर्रम ने अहम् भूमिका निभाई थी, जिससे प्रसन्न होकर जहांगीर ने खुर्रम को शाहजहां  की उपाधि से नवाजा था।

24 फरवरी, 1682 ई. को जहांगीर की मृत्यु के पश्चात शाहजहां मुग़ल साम्राज्य का नया बादशाह बना। मुग़ल शासक बनने के बाद पहले तीन वर्ष बुन्देल  के जुझार सिंह और अफगान सरदार ख़ानेजहाँ लोदी  के विद्रोह को दबाने में गुजरे। शाहजहां का मुकाबला सिक्खों के छठे गुरु हरगोविंद से भी हुआ था, जिसमें सिक्ख सेना की हार हुई थी।

शाहजहाँ का विवाह 1612 ई. में आसफ खाँ की पुत्री ‘अर्जुमन्द बानू बेगम‘ से हुआ था, जो जहांगीर की पत्नी नूरजहां की भतीजी थी।  अर्जुमन्द बानू बेगम को ही आगे चलकर मुमताज महल के नाम से जाना गया। शाहजहां और मुमताज महल के चार पुत्र और तीन पुत्रियां थी। पुत्रों के नाम औरंगजेब, मुरादबख्श, दाराशिकोह और शुजा थे। 1631 ई. में मुमताज की मृत्यु के पश्चात शाहजहां ने आगरा में यमुना नदी के किनारे मुमताज की याद में ताजमहल की नींव रखी, जो 1653 ई. में जाकर पूर्ण हुआ था। ताजमहल में ही मुमताज को दफनाया गया था।

1633 ई. में शाहजहां ने दक्षिण भारत के अहमदनगर  पर आक्रमण कर उसे मुग़ल साम्राज्य का हिस्सा बनाया था। इसके कुछ वर्ष पश्चात 1636 ई. में गोलकुण्डा पर आक्रमण किया, जहां का तत्कालीन सुल्तान अब्दुलाशाह था। अब्दुलाशाह को पराजय का सामना करना पड़ा और उसने मुगलों की अधीनता स्वीकार कर ली। इसी दौरान अब्दुलाशाह के वजीर मीर जुमला ने शाहजहाँ को भेट स्वरूप बेशकीमती कोहिनूर हिरा  दिया था। इसी वर्ष शाहजहां ने बीजापुर पर आक्रमण कर वहां के तत्कालीन शासक मुहम्मद आदिल शाह  को संधि करने के लिए मजबूर कर दिया था।

1639 ई. में शाहजहाँ ने दिल्ली के नजदीक शाहजहाँनामाबाद नामक नयी राजधानी की नींव रखी थी। 1645 ई. में शाहजहां ने मध्य एशिया पर अपना साम्राज्य स्थापित करने के लिए अपने पुत्र मुरादबख्श को भेजा, पर वह इसमें कामयाब न हो सका। इसीलिए 1647 ई. में अपने दूसरे पुत्र औरंगजेब को यह काम पूर्ण करने भेजा परन्तु वह भी सफल न हो सका।

शाहजहां के शासन काल को स्थापत्य कला और सांस्कृतिक दृष्टि से स्वर्णिम युग कहा गया है। शाहजहाँ ने अपने शासन काल में कई प्रसिद्ध इमारतें बनवायी थी। जिनमें आगरा में स्थित ताजमहल, दिल्ली का लाल किला और जामा मस्जिद, आगरा की मोती मस्जिद, आगरा के किले में स्थित दीवाने खास, दीवाने आम और मुसम्मन बुर्ज, लाहौर में स्थित शालीमार बाग़, शालामार गांव में स्थित शीशमहल, और काबुल, कंधार, कश्मीर और अजमेर आदि में कई महल, बगीचे आदि कई इमारतें बनवायी थी। शाहजहां ने लाहौर तक रावी नहर का निर्माण भी करवाया था।

शाहजहां के दरबार में पंडित जगन्नाथ राजकवि हुआ करते थे, जिन्हें जगन्नाथ पण्डितराज के नाम से भी जाना जाता था। जो ‘गंगा लहरी‘ और ‘रस गंगाधर‘ के रचनाकार हैं। यह उच्चकोटि के कवि, समालोचक  व साहित्यकार थे। इसके दरबार में संगीतकार सुरसेन, सुखसेन आदि दरबारी थे। शाहजहां के सबसे बड़े पुत्र दाराशिकोह ने ‘भगवत गीता‘ और ‘योगवशिष्ठ‘ का फ़ारसी भाषा में अनुवाद करवाया था, साथ ही वेदों का संकलन भी करवाया था। इसीलिए शाहजहां ने दाराशिकोह को ‘शाहबुलंद इक़बाल‘ की उपाधि से सम्मानित किया था।

शाहजहाँ के शासन काल में ही फ़्रांसिसी यात्री बर्नियरऔर ट्रेवर्नियर तथा इटेलियन यात्री मनुची भारत आये थे। इन्होने शाहजहां के शासन काल का वर्णन किया है। शाहजहां ने अपने  शासन काल में सिक्का चलाया था जिसे ‘आना‘ कहा जाता था। शाहजहां एक बेशकीमती तख़्त पर आसीन होता था जिसे ‘तख्त-ए-ताऊस‘ कहा जाता था।

1657 ई. में शाहजहां के बीमार होते ही उसके पुत्रों के मध्य सुल्तान बनने की होड़ सी शुरू हो गयी और आपसी संघर्ष शुरू हो गया। जिस घटना को इतिहास में ‘उत्तराधिकार का युद्ध‘ नाम से जाना जाता है। शाहजहां दाराशिकोह को अपने बाद मुग़ल साम्राज्य का शासक बनाना चाहता था परन्तु औरंगजेब खुद मुगलों का शासक बनना चाहता था। जिस कारण शाहजहां की सभी सातों संतानों के बीच सुल्तान बनने की जंग प्रारम्भ हो गयी। जिस कारण इनके बीच धरमट (धर्मत) का युद्ध (1658 ई. में), सामूगढ़ का युद्ध  और देवराई का युद्ध आदि कुछ प्रमुख युद्ध हुए थे।

जिनमें औरंगजेब की विजय हुई थी और वो मुग़ल साम्राज्य का शासक बन बैठा। औरंगजेब इतने में ही नहीं रुका उसने मुरादबख्श को हराकर उसकी मृत्यु करवा दी। साथ ही अपने पिता शाहजहाँ को बंदी बनाकर आगरा के किले शाहबुर्ज में बंद करवा दिया। जहाँ शाहजहाँ ने आठ वर्ष बंदी के रूप में व्यतीत किये और 1666 ई. में उसकी मृत्यु हो गयी। शाहजहां के शव को उसकी पत्नी मुमताज महल की कब्र के पास ताजमहल में ही दफनाया गया। शाहजहाँ एक मात्र ऐसा मुग़ल शासक था, जिसे उसके पुत्र ने ही बंदी बनाया था।


#आधुनिक_भारत_का_इतिहास :
#भारतीय_राष्ट्रीय_कांग्रेस...

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना 28 से 30 दिसंबर 1885 के मध्य बम्बई में तब हुई जब भारत की विभिन्न प्रेसीडेंसियों और प्रान्तों के 72 सदस्य बम्बई में एकत्र हुए| भारत के सेवानिवृत्त ब्रिटिश अधिकारी एलेन ओक्टोवियन ह्युम ने कांग्रेस के गठन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी| उन्होंने पुरे भारत के कुछ महत्वपूर्ण नेताओं से संपर्क स्थापित किया और कांग्रेस के गठन में उनका सहयोग प्राप्त किया| दादाभाई नैरोजी, काशीनाथ त्रयम्बक तैलंग,फिरोजशाह मेहता,एस. सुब्रमण्यम अय्यर, एम. वीराराघवाचारी,एन.जी.चंद्रावरकर ,रह्मत्तुल्ला एम.सयानी, और व्योमेश चन्द्र बनर्जी उन कुछ महत्वपूर्ण नेताओं में शामिल थे जो गोकुलदास तेजपाल संस्कृत कॉलेज में आयोजित कांग्रेस के प्रथम अधिवेशन में शामिल हुए थे| महत्वपूर्ण नेता सुरेन्द्र नाथ बनर्जी इसमें शामिल नहीं हुए क्योकि उन्होंने लगभग इसी समय कलकत्ता में नेशनल कांफ्रेंस का आयोजन किया था|

भारत में प्रथम राष्ट्रीय राजनीतिक संगठन के गठन का महत्व महसूस किया गया| अधिवेशन समाप्त होने के लगभग एक हफ्ते बाद ही कलकत्ता के समाचारपत्र  द इंडियन मिरर  ने लिखा कि “बम्बई में हुए प्रथम राष्ट्रीय कांग्रेस ने भारत में ब्रिटिश शासन के इतिहास में एक नया अध्याय जोड़ दिया है| 28 दिसंबर 1885 अर्थात जिस दिन इसका गठन किया गया था, को भारत के निवासियों की उन्नति के लिए एक महत्वपूर्ण दिवस के रूप में मान्य जायेगा| यह हमारे देश के भविष्य की संसद का केंद्रबिंदु है जो हमारे देशवासियों की बेहतरी के लिए कार्य करेगा| यह एक ऐसा दिन था जब हम पहली बार अपने मद्रास, बम्बई,उत्तर पश्चिमी सीमा प्रान्त और पंजाब के भाइयों से गोकुलदास तेजपाल संस्कृत कॉलेज की छत के नीचे मिल सके|इस अधिवेशन की तारीख से हम भविष्य में भारत के राष्ट्रीय विकास की दर को तेजी से बढ़ते हुए देख सकेंगे”|

कांग्रेस के प्रथम अध्यक्ष व्योमेश चन्द्र बनर्जी थे |कांग्रेस के गठन का उद्देश्य,जैसा कि उसके द्वारा कहा गया,जाति, धर्म और क्षेत्र की बाधाओं को यथासंभव हटाते हुए देश के विभिन्न भागों के नेताओं को एक साथ लाना था ताकि देश के सामने उपस्थित महत्वपूर्ण समस्याओं पर विचार विमर्श किया जा सके| कांग्रेस ने नौ प्रस्ताव पारित किये,जिनमें ब्रिटिश नीतियों में बदलाव और प्रशासन में सुधार की मांग की गयी|

#भारतीय_राष्ट्रीय_कांग्रेस_के_लक्ष्य_और_उद्देश्य

• देशवासियों के मध्य मैत्री को प्रोत्साहित करना
• जाति,धर्म प्रजाति और प्रांतीय भेदभाव से ऊपर उठकर राष्ट्रीय एकता की भावना का विकास करना
• लोकप्रिय मांगों को याचिकाओं के माध्यम से सरकार के सामने प्रस्तुत करना
• राष्ट्रीय एकता की भावना को संगठित करना
• भविष्य के जनहित कार्यक्रमों की रुपरेखा तैयार करना
• जनमत को संगठित व प्रशिक्षित करना
• जटिल समस्याओं पर शिक्षित वर्ग की राय को जानना


#मध्यकालीन_भारत_का_इतिहास :
#जहाँगीर_1605_1627_ई...

जहांगीर का जन्म 30 अगस्त, 1569 को फतेहपुर सीकरी में हुआ था। इसके पिता अकबर तथा माता जयपुर की राजकुमारी जोधाबाई थी। जहांगीर के बचपन का नाम ‘मुहम्मद सलीम‘ था। आगे चलकर सलीम को जहांगीर के नाम से जाना जाने लगा।

अकबर की मृत्यु के पश्चात आगरा में 3 नवम्बर, 1605  को जहांगीर का राज्याभिषेक हुआ, और उसने मुग़ल साम्राज्य की शासन व्यवस्था को संभाला। गद्दी पर आसीन होते ही जहांगीर को अपने पुत्र खुसरो का विद्रोह झेलना पड़ा। खुसरो ने आगरा के हसन बेग  और लाहौर के दीवान अब्दुल रहीम की मदद से विद्रोह किया था। खुसरो और जहांगीर के बीच भेरवाल नामक स्थान पर युद्ध हुआ था, जिसमें खुसरो को पराजय का सामना करना पड़ा और उसने सिक्खों के पांचवें गुरु अर्जुन देव के वहाँ जाकर शरण ली। इससे नाराज होकर जहांगीर ने अर्जुनदेव पर राजद्रोह का आरोप लगाकर अर्जुनदेव को मृत्युदण्ड देते हुए फांसी की सजा सुना दी।

जहांगीर का विवाह 1585 ई. में आमेर के राजा भगवान दास की पुत्री मानबाई से हुआ था। खुसरो मानबाई की ही संतान थी। जहांगीर का दूसरा विवाह ‘गोसाई‘ से हुआ था जोकि राजा उदय सिंह की पुत्री थी। गोसाई ने एक पुत्र को जन्म दिया था, जिसका नाम शाहजादा खुर्रम रखा गया, जिसे आगे चलकर शाहजहां के नाम से जाना गया। जहांगीर का तीसरा विवाह 1611 ई. में फारस के मिर्जा गयास बेग की पुत्री मेहरुन्निसा हुआ था, जोकि एक विधवा थी। जहांगीर ने मेहरुन्निसा को नूर-ए-महल और नूर-ए-जहां की उपाधि दी थी। जहांगीर ने नूर-ए-जहां (नूरजहां) के पिता गयास बेग को वजीर का पद दिया था तथा एत्मादुद्दौला की उपाधि से नवाजा था। साथ ही नूरजहाँ के भाई आसफ खाँ को खान-ए-सामा का पद भी दिया था।

जहांगीर और मेवाड़ के तत्कालीन राजा राणा अमर सिंह के मध्य 1605 ई. से 1615 ई. तक लगभग 18 युद्ध लड़ने के पश्चात संधि हुई, जिसे जहांगीर की बड़ी उपलब्धि माना जाता है। जहांगीर की उल्लेखनीय सफलता 1620 ई. में कई दिनों तक घेरा डाल के रखने के बाद उत्तरी पूर्वी पंजाब की पहाड़ियों पर स्थित कांगड़ा के दुर्ग को जीतना था, जिसे उसने 1620 ई.  में प्राप्त किया था। 1626 ई. में महावत खां ने विद्रोह कर जहांगीर को बंदी बना लिया था। परन्तु महावत खां की यह योजना नूरजहां की बुद्धिमानी के कारण असफल सिद्ध हुई। महावत खां मुगल राज्य का एक दरबारी था।

जहांगीर को फ़ारसी और तुर्की भाषा का अच्छा ज्ञान था। जहांगीर ने अपने दादा बाबर की भांति अपनी आत्मकथा ‘तुजुक-ए-जहांगीरी‘ लिखी थी। जिसे फ़ारसी भाषा में लिखा गया है। साथ ही जहांगीर ने ब्रजभाषा के प्रसिद्ध कवि सूरदास को अपने दरबार में आश्रय दिया था जिन्होंने सूरसागर की रचना की थी।

जहांगीर भी अपने पिता अकबर की तरह सभी धर्मों के प्रति सहिष्णु था। वह भी अकबर की तरह हिन्दू धर्म से खासा प्रभावित था इसी वजह से वह भी मंदिरों और पुरोहितों को दान दिया करता था। यहाँ तक कि जहांगीर ने पहली बार 1612 ई. में रक्षा बंधन का त्यौहार भी मनाया था। साथ ही जहांगीर ने तम्बाकू के सेवन पर प्रतिबन्ध भी लगाया था।

जहांगीर के शासन काल में इंग्लैंड के शासक जेम्स प्रथम ने 1608 ई. में विलियम हॉकिन्स, 1612 ई. में पॉल कैनिंग व विलियम एडवर्ड और 1615 ई. में सर टॉमस रो आदि विदेशी राजदूत भारत आये थे। जिस कारण अंग्रेजों को कई व्यापारिक सुविधायें प्राप्त हुई थी।

जहांगीर के शासन में सबसे अधिक चित्रकला की प्रगति हुई थी क्यूंकि खुद जहांगीर को भी चित्रकला का अच्छा ज्ञान था। इसीलिए जहांगीर के शासन काल को चित्रकला का स्वर्णिम युग कहा जाता है। जहांगीर ने आगरा के नजदीक सिकंदरा में ‘अकबर का मकबरा‘ बनवाया था, जिसका निर्माण कार्य अकबर ने शुरू करवाया था परन्तु निर्माण पूर्ण होने से पहले ही अकबर की मृत्यु हो गयी, जिसे उसके बाद जहांगीर ने पूरा करवाया। जहांगीर ने लाहौर की मस्जिद का निर्माण भी करवाया था। साथ ही जहांगीर ने कश्मीर में  शालीमार बाग़ का निर्माण करवाया था। साथ ही लाहौर और बहुत सी अन्य जगहों पर सुन्दर बाग़ भी लगवाए थे।

जहांगीर के शासन काल में ही उसकी पत्नी नूरजहां ने अपने पिता की याद में एत्मादुद्दौला का मक़बर  बनवाया था। जो जहांगीर के समय में बनी प्रसिद्ध इमारतों में से एक है।

07 नवम्बर, 1627 ई. को कश्मीर से लाहौर वापस जाते समय भीमवार नामक स्थान पर जहांगीर की मृत्यु हुई थी। जहांगीर के शव को लाहौर के शाहदरा में बहने वाली रावी नदी के तट पर दफनाया गया। जहांगीर की मृत्यु के बाद उसके पुत्र खुर्रम जिसे शाहजहां के नाम से भी जाना जाता है ने मुग़ल साम्राज्य की बागडोर संभाली।


#आधुनिक_भारत_का_इतिहास :
#रौलट_विरोधी_सत्याग्रह...

महात्मा गाँधी ने रौलट एक्ट के विरुद्ध अभियान चलाया और बम्बई में 24 फ़रवरी 1919 ई. को सत्याग्रह सभा की स्थापना की| रौलट विरोधी सत्याग्रह के दौरान,महात्मा गाँधी ने कहा कि “यह मेरा दृढ़ विश्वास है कि हम मुक्ति केवल संघर्ष के द्वारा ही प्राप्त करेंगे न कि अंग्रेजों द्वारा हमें प्रदान किये जा रहे सुधारों से”| 13अप्रैल,1919 को घटित जलियांवाला बाग हत्याकांड के बाद ,रौलट विरोधी सत्याग्रह ने अपनी गति खो दी| यह आन्दोलन प्रेस की स्वतंत्रता पर प्रतिबंधों और बिना ट्रायल के कैद में रखने के विरोध में था|

रौलट एक्ट ब्रिटिशों को बंदी प्रत्यक्षीकरण के अधिकार को स्थगित करने सम्बन्धी शक्तियां प्रदान करता था| इसने राष्ट्रीय नेताओं को चिंतित कर दिया और उन्होंने इस दमनकारी एक्ट के विरुद्ध विरोध प्रदर्शन प्रारंभ कर दिए| मार्च-अप्रैल 1919 के दौरान देश एक अद्भुत राजनीतिक जागरण का साक्षी बना| हड़तालों,धरनों,विरोध प्रदर्शनों का आयोजन किया गया | अमृतसर में  9 अप्रैल को स्थानीय नेता सत्यपाल व किचलू को कैद कर लिया गया | इन स्थानीय नेताओं की गिरफ़्तारी के कारन ब्रिटिश शासन के प्रतीकों पर हमले किये गए और 11अप्रैल को जनरल डायर के में नेतृत्व में मार्शल लॉ लगा दिया गया|
13 अप्रैल,1919 को शांतिपूर्ण व निहत्थी भीड़ (जिसमें अधिकतर वे ग्रामीण शामिल थे जो आस-पास के गावों से बैशाखी उत्सव मानाने आये थे) एक लगभग बंद मैदान(जलियांवाला बाग़) में जनसभा को सुनने के लिए,जनसभाओं पर पाबन्दी के बावजूद,एकत्रित हुए,जिनकी  बिना किसी चेतावनी के क्रूरतापूर्वक हत्या कर दी गयी| जलियांवाला बाग़ हत्याकांड ने पूरे देश को स्तब्ध कर दिया और देशभक्तों के मष्तिष्क को उग्र प्रतिशोध के लिए भड़का दिया| हिंसक माहौल के कारण गाँधी जी ने इसे हिमालय के समान गलती मानी और 18 अप्रैल को आन्दोलन को वापस ले लिया|

#निष्कर्ष

13अप्रैल,1919 को घटित जलियांवाला बाग हत्याकांड के बाद ,रौलट विरोधी सत्याग्रह ने अपनी गति खो दी| इसके अलावा पंजाब,बंगाल और गुजरात में हुई हिंसा ने गांधी जी को आहत किया|अतः महात्मा गाँधी ने आन्दोलन को वापस ले लिया|

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