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Saturday, July 4, 2020

नदियों की रोचक जानकारी~भूगोल...

नदियों की रोचक जानकारी~भूगोल... 

🌸. भागीरथी नाम से गंगा को कहां बुलाया जाता है ?
►-गंगोत्री के पास ( यह हिमानी गंगा का उद्गम स्थल है )

🌸. गंगोत्री कहां स्थित है और इसकी ऊंचाई कितनी है ?
►-उत्तराखंड के उत्तरकाशी जिले में 3900 किमी की ऊंचाई पर गोमुख के निकट गंगोत्री हिमानी गंगा का उद्गम स्त्रोत है ।

🌸. अलकनंदा का उद्गम स्त्रोत क्या है ?
►-बद्रीनाथ के ऊपर सतोपंथ हिमानी (अलकापुरी हिमनद)

🌸. गंगा नदी को गंगा कहकर कहां से बुलाया जाता है ?
►-देवप्रयाग के बाद । जहां अलकनंदा और भागीरथी आपस में मिलती है । और
हरिद्वार के निकट मैदानी भाग में पहुंचती है ।

🌸. गंगा को पद्मा नाम से कहां पुकारा जाता है ?
►-बांग्लादेश

🌸 सिंधु भारत में किस राज्य से होकर बहती है ?
►-जम्मू-कश्मीर

🌸. भारत और पाकिस्तान के बीच संधि जलसंधि कब हुआ था ?
►-1960 ई. (भारत इस नदी का 20 प्रतिशत पानी ही इस्तेमाल कर सकता है)

🌸. नदियां ➨और उनके उदगम स्थल ➨संगम/मुहाना?
►-सिंधु ➨ सानोख्याबाब हिमनद (तिब्बत के मानसरोवर झील के पास)➨अरब सागर
गंगा ➨ गंगोत्री ➨ बंगाल की खाड़ी

🌸-यमुना ➨ यमुनोत्री हिमानी (बंदरपूंछ के पश्चिमी ढाल पर स्थित) ➨ प्रयाग (इलाहाबाद)

🌸-चंबल ➨ जाना पाव पहाड़ी (मध्यप्रदेश के मऊ के नजदीक) ➨ इटावा (उ.प्र)

🌸-सतलज ➨ राकस ताल (मानसरोवर झील के नजदीक) ➨ चिनाब नदी

🌸-रावी ➨ कांगड़ा जिले में रोहतांग दर्रे के नजदीक ➨ चिनाब नदी

🌸-झेलम ➨ शेषनाग झील {बेरीनाग(कश्मीर) के नजदीक} ➨ चिनाब नदी

🌸-व्यास ➨ व्यास कुंड (रोहतांग दर्रा) ➨ कपूरथला (सतलज नदी)

🌸-कोसी ➨ गोसाईथान चोटी के उत्तर में ➨ गंगा नदी (कारागोला के दक्षिण-पश्चिम में)

🌸-गंडक ➨ नेपाल ➨ गंगा (पटना के नजदीक)

🌸-रामगंगा ➨ नैनीताल के नजदीक हिमालय श्रेणी का दक्षिणी भाग ➨ कन्नौज के निकट गंगा नदी

🌸 शारदा (काली गंगा) ➨ कुमायूं हिमालय ➨ घाघरा नदी (बहराम घाट के निकट)

🌸-घाघरा या करनाली या कौरियाला ➨ नेपाल में तकलाकोट से ➨ गंगा नदी (सारण तथा बलिया जिले की सीमा पर)

🌸-बेतवा या वेत्रवती ➨ विंध्याचल पर्वत (मध्यप्रदेश के रायसेन जिले के कुमारगांव के निकट) ➨ हमीरपुर (यमुना नदी में)

🌸-सोन ➨ अमरकंटक की पहाड़ियां ➨ पटना के नजदीक गंगा नदी में

🌸-ब्रह्मपुत्र ➨ तिब्बत के मानसरोवर झील से ➨ बंगाल खाड़ी

🌸-नर्मदा ➨ अमरकंटक (विध्याचल श्रेणी) ➨ खंभात की खाड़ी

🌸-ताप्ती ➨ मध्यप्रदेश के बैतुल जिले के मुल्ताई के निकट ➨ खंभात की खाड़ी (सूरत के पास)

🌸-महानदी ➨ सिहावा (छत्तीसगढ़ के रायपुर जिले के निकट) ➨ बंगाल की खाड़ी (कटक के निकट)

🌸-क्षिप्रा ➨ काकरी बरडी नामक पहाड़ी (इंदौर) ➨ चंबल नदी

🌸-माही ➨ मध्यप्रदेश के धार जिला के अमझोरा में मेहद झील ➨ खंभात की खाड़ी
🌸लूनी ➨ अजमेर जिले में स्थित नाग पहाड़ (अरावली पर्वत) ➨ कच्छ की रन

🌸हुगली ➨ यह गंगा की शाखा है, जो धुलिया(पं बंगाल) के दक्षिण गंगा से अलग होती है.. ➨ बंगाल की खाड़ी

🌸-कृष्णा ➨ महाबलेश्वर के निकट पश्चिम पहाड़ ➨ बंगाल की खाड़ी

🌸-गोदावरी ➨ महाराष्ट्र के नासिल जिले त्र्यंबक गांव की एक पहाड़ी ➨ बंगाल की खाड़ी

🌸-कावेरी ➨ ब्रह्मगिरी पहाड़ी (कर्नाटक के कुर्ग जिले में) ➨ बंगाल की खाड़ी

🌸-तुंगभद्रा ➨ गंगामूल चोटी से तुंगा और काडूर से भद्रा (कर्नाटक) ➨ कृष्णा नदी

🌸-साबरमती ➨ जयसमुद्र झील (उदयपुर जिले में अरावली पर्वत पर स्थित) ➨ खंभात की खाड़ी

🌸-सोम ➨ बीछा मेंडा (उदयपुर जिला) ➨ माही नदी (बपेश्वर के निकट)

🌸-पेन्नार ➨ नंदीदुर्ग पहाड़ी (कर्नाटक) ➨ बंगाल की खाड़ी

🌸-पेरियार (यह नदी केरल में बहती है) ➨ परियार झील

🌸-उमियम ➨ उमियम झील (मेघालय)

🌸-बैगाई ➨ कण्डन मणिकन्यूर में मदुरै के निकट (तमिलनाडु) ➨ बंगाल की खाड़ी

🌸-दक्षिणी टोंस ➨ तमसाकुंड जलाशय (कैमर की पहाड़ियों में स्थित) ➨ सिरसा के निकट गंगा में

🌸-आयड़ या बेडच ➨ गोमुंडा पहाड़ी (उदयपुर के उत्तर में) ➨ बनास नदी

Monday, June 29, 2020

मैग्मा, लावा, आग्नेय चट्टान तथा ज्वालामुखी के बीच अंतर

मैग्मा, लावा, आग्नेय चट्टान तथा ज्वालामुखी के बीच अंतर

मैग्मा....मैग्मा चट्टानों का पिघला हुआ रूप है जिसकी रचना ठोस, आधी पिघली अथवा पूरी तरह पिघली चट्टानों के द्वारा होती है और जो पृथ्वी के सतह के नीचे निर्मित होता है। इससे ही आग्नेय चट्टानों का निर्माण  होता है।

आग्नेय चट्टान….. मैग्मा जब कठोर रूप धारण कर लेता है तब उसे आग्नेय चट्टान कहते हैं।

लावा…..तरल मैग्मा जब पृथ्वी के धरातल पर पहुंच जाता है तो उसका गैस अंस वायुमंडल में विलीन हो जाता है इस गैस रहित मैग्मा को लावा कहते हैं।

ज्वालामुखी…... मैग्मा जब क्रस्ट को तोड़कर धरातल पर पहुंच जाता है तब उसे ज्वालामुखी कहते हैं।
ज्वालामुखी का तात्पर्य उस क्षेत्र अथवा दरार से होता है जिससे होकर गरम लावा गैस पत्थर के टुकड़े तथा धूल आदि निकलते हैं

ज्वालामुखी चट्टान…... जब लावा क्रस्ट पर ठंडा होकर ठोस रूप धारण कर लेता है तब इसे बाहर भेदी (extrusive igneous rock) चट्टान कहते हैं इसे ही ज्वालामुखी चट्टान भी कहते।

विश्व के सात महाद्वीप

विश्व के सात महाद्वीप

❣️एशिया

👉एशिया सबसे बड़ा महाद्वीप है।

👉इस महाद्वीप का कुल क्षेत्रफल 29.50% है।

👉एशिया का सबसे बड़ा देश चीन है।

👉इस महाद्वीप का सबसे छोटा देश मालद्वीप है।

👉इस महाद्वीप की सबसे लम्बी नदी यांगटिसीक्यांग है।

👉इस महाद्वीप का सबसे ऊँचा पर्वत माउंट एवरेस्ट (8848 मी) है।

👉इस महाद्वीप पर कुल 48 देश हैं।

👉एशिया महाद्वीप की सबसे बड़ी झील कैस्पियसन सागर है।

👉एशिया महाद्वीप का सबसे गहरा बिन्दु मृतसागर (395 मी) है।

👉यह विश्व के कुल स्थल क्षेत्र के 1/3 भाग पर स्थित है।

👉यहां की 3/4 जनसख्या अपने भरण-पोषण के लिए कृषि पर निर्भर है।

👉एशिया चावल, मक्का, जूट, कपास, सिल्क इत्यादि के उत्पादन के मामले में पहले स्थान पर है।

💟👉अफ्रीका

👉अफ्रीका दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा महाद्वीप है।

👉इस महाद्वीप का कुल क्षेत्रफल 20.20% है।

👉अफ्रीका का सबसे बड़ा देश अल्जीरिया है।

👉इस महाद्वीप का सबसे छोटा देश मेओटी है।

👉इस महाद्वीप की सबसे लम्बी नदी नील है।

👉अफ्रीका महाद्वीप का सबसे ऊँचा पर्वत माउंट किलीमंजारो (5895 मी) है।

👉अफ्रीका महाद्वीप की सबसे बड़ी झील विक्टोरिया है।
इस महाद्वीप पर कुल 54 देश हैं।

👉इस महाद्वीप का सबसे गहरा बिन्दु असाई झील (156 मी) है।

👉अफ्रीका का 1/3 हिस्सा मरुस्थल है।

👉यहां की मात्र 10% भूमि ही कृषि योग्य है।

👉हीरे व सोने के उत्पादन में अफ्रीका सबसे ऊपर है।

💟👉उत्तरी अमेरिका

👉यह दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा महाद्वीप है।

👉इस महाद्वीप का कुल क्षेत्रफल 16.05% है।

👉उत्तरी अमेरिका का सबसे बड़ा देश कनाडा है।

👉इस महाद्वीप का सबसे छोटा देश सेण्ट पीरे है।

👉इस महाद्वीप की सबसे लम्बी नदी मिसीसिपी मिसौ है।

👉उत्तरी अमेरिका महाद्वीप का सबसे ऊँचा पर्वत माउंट माउंट मैकिल्ले (6194 मी) है।

👉इस महाद्वीप की सबसे बड़ी झील सुपीरियर है।

👉उत्तरी अमेरिका महाद्वीप का सबसे गहरा बिन्दु डैथ वैली  (86 मी) है।

👉यह दुनिया के 16% भाग पर स्थित है।

👉इस महाद्वीप पर कुल 23 देश हैं।

👉कृषीय संसाधनों की दृष्टिकोण से यह काफ़ी धनी क्षेत्र है।

👉विश्व के कुल मक्का उत्पादन का आधा उत्पादन यहीं होता है।

👉वन, खनिज व ऊर्जा संसाधनों के दृष्टिकोण से यह काफ़ी समृद्ध क्षेत्र है।

💟👉दक्षिण अमेरिका

👉यह दुनिया का चौथा सबसे बड़ा महाद्वीप है।

👉इस महाद्वीप का कुल क्षेत्रफल 11.80% है।

👉दक्षिण अमेरिका का सबसे बड़ा देश ब्राजील है।

👉इस महाद्वीप का सबसे छोटा देश फॉकलैंड द्वीप है।

👉इस महाद्वीप की सबसे लम्बी नदी अमेजन है।

👉इस महाद्वीप का सबसे ऊँचा पर्वत माउंट एन्काकागुआ (6906 मी) है।

👉दक्षिण अमेरिका महाद्वीप का सबसे गहरा बिन्दु बाल्डस प्रायद्वीप (40 मी) है।

👉इस महाद्वीप का 2/3 हिस्सा विषुवत रेखा के दक्षिण में स्थित है।

👉इसके बहुत बड़े हिस्से में वन हैं

💟👉अंटार्कटिका

👉यह विश्व का पांचवा सबसे बड़ा महाद्वीप है।

👉इस महाद्वीप का कुल क्षेत्रफल 9.60% है

👉इस महाद्वीप का सबसे ऊँचा पर्वत विंसन मौसिफ़ है।

👉इस महाद्वीप का सबसे गहरा बिन्दु बेन्द्रल बैंच (2853 मी) है।

👉यह पूरी तरह दक्षिणी गोलार्द्ध में स्थित है और दक्षिण ध्रुव इसके मध्य में स्थित है।

👉इस महाद्वीप का 99% हिस्सा वर्षपर्यन्त बर्फ़ से ढंका रहता है।

👉यहां की भूमि पूरी तरह बंजर है।

💟👉यूरोप

👉यूरोप एकमात्र ऐसा महाद्वीप है जहां जनसंख्या घनत्व अधिक होने के साथ-साथ समृद्धता भी है।

👉इस महाद्वीप का कुल क्षेत्रफल 6.50% है।

👉इस महाद्वीप पर कुल 50 देश हैं।

👉यूरोप का सबसे बड़ा देश रूस है।

👉इस महाद्वीप का सबसे छोटा देश वेटिकन सिटी है।
इस महाद्वीप की सबसे लम्बी नदी वोल्गा है।

👉यूरोप महाद्वीप का सबसे ऊँचा पर्वत माउंट एल्ब्रुस है।
इस महाद्वीप की सबसे बड़ी झील लैडोगा है।

👉यहां वन, खनिज, उपजाऊ मिट्टी व जल बहुतायत में है।

👉यूरोप के महत्त्वपूर्ण खनिज संसाधन कोयला, लौह अयस्क, पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस है।

💟👉ऑस्ट्रेलिया

👉ऑस्ट्रेलिया एकमात्र देश है जो सम्पूर्ण महाद्वीप पर स्थित है।

👉इस महाद्वीप का कुल क्षेत्रफल 5.03% है।

👉ऑस्ट्रेलिया का सबसे बड़ा देश ऑस्ट्रेलिया है।

👉इस महाद्वीप का सबसे छोटा देश नौरु है।

👉इस महाद्वीप की सबसे लम्बी नदी मर्रे-डार्लिंग है।

👉ऑस्ट्रेलिया महाद्वीप का सबसे ऊँचा पर्वत माउंट कोस्यूूस्को है।

👉इस महाद्वीप की सबसे बड़ी झील आयर है।

👉ऑस्ट्रेलिया महाद्वीप का सबसे गहरा बिन्दु आयर झील  (16 मी) है।

👉यह देश पादपों, वन्यजीवों व खनिजों के मामल में समृद्ध है लेकिन जल की यहां काफ़ी कमी है।

Thursday, June 18, 2020

विश्व_का_भूगोल

विश्व_का_भूगोल  Special 

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प्लेट_विवर्तनिकी_सिद्धान्त

भौतिक भूगोल, भू-आकृति विज्ञान एवं भू-विज्ञान में प्लेट विवर्तनिकी का विचार नवीन है जिसके आधार पर महाद्वीपों व महासागरों की उत्पत्ति, ज्वालामुखी एवं भूकम्प की क्रिया तथा वलित पर्वतों के निर्माण आदि का वैज्ञानिक स्पष्टीकरण दिया जा सकता है। प्लेट विवर्तनिकी का सिद्धान्त बीसवीं शताब्दी के 60वें दशक में प्रस्तुत किया गया जिसका प्रभाव समस्त भू-विज्ञानों पर पड़ा। इसके आधार पर महाद्वीपों एवं महासागरों के वितरण को भी एक नवीन दिशा मिली। इससे पूर्व 1948 में एविंग नामक वैज्ञानिक ने अटलांटिक महासागर में स्थित अटलांटिक कटक की जानकारी दी। इस कटक के दोनों और की चट्टानों के चुम्बकन के अध्ययन के आधार पर वैज्ञानिकों ने उत्तर दक्षिण दिशा में चुम्बकीय पेटियों का स्पष्ट एवं समरूप प्रारूप पाया। इसके आधार पर निष्कर्ष निकाला गया कि मध्य महासागरीय कटक के सहारे नवीन बेसाल्ट परत का निर्माण होता है।

सर्वप्रथम हेस ने 1960 में विभिन्न साक्ष्यों द्वारा प्रतिपादित किया कि महाद्वीप तथा महासागर विभिन्न प्लेटों पर टिके हैं। प्लेट विवर्तनिकी की अवधारणा को 1967 में डीपी मेकेन्जी, आरएल पारकर तथा डब्ल्यू जे मॉर्गन आदि विद्वानों ने स्वतंत्र रूप से उपलब्ध विचारों के आधार पर प्रस्तुत किया। यद्यपि इससे पहले टूजो विल्सन ने प्लेट शब्द का प्रयोग किया था, जो व्यवहार में नहीं आ पाया था।

पृथ्वी का बाह्य भाग दृढ़ खण्डों से बना है जिसे प्लेट कहा जाता है। प्लेटल विवर्तनिकी लैटिन शब्द (Tectonicus) टेक्टोनिक्स से बना है। प्लेट विवर्तनिकी एक वैज्ञानिक सिद्धान्त है, जो स्थलमण्डल गति को बड़े पैमाने पर वर्णित करता है। यह मॉडल महाद्वीपीय विस्थापन सिद्धान्त की परिकल्पना पर आधारित है। पृथ्वी का ऊपरी भाग स्थलमण्डल कहलाता है, जो कि तीन परतों में विभाजित है। ऊपरी भूपृष्ठ जिसकी औसत गहराई 25 किलोमीटर है, नीचला भूपृष्ठ जिसकी औसत गहराई 10 किलोमीटर है। ऊपरी मैटल जिसकी औसत गहराई 65 किलोमीटर है। यह भाग कठोर है जिसका औसत घनत्व 2.7 से 3.0 है। इस स्थलमण्डल के ठीक नीचे दुर्बलतामण्डल है जिसकी औसत मोटाई 250 किलोमीटर है। इस मंडल का घनत्व 3.5 से 4.0 तक है। स्थलमण्डल अधिक ठंडा एवं अधिक कठोर है, जबकि गर्म एक कठोर है एवं सरलता से प्रवाह करता है।

स्थलमण्डलीय प्लेटों की संख्या के सम्बन्ध में विद्वान एकमत नहीं है। डीट्ज एवं हेराल्ड ने इनकी संख्या 10 बताई। डब्ल्यू जे मॉरगन ने इसकी संख्या 20 बताई। सामान्यतः भूपटल पर सात बड़ी व 14 छोटी प्लेटें हैं, जो दुर्बलतामण्डल पर टिकी हुई हैं, ये प्लेटें तीन प्रकार की हैं, महाद्वीपीय, महासागरीय एवं महाद्वीपीय व महासागरीय।

#महत्वपूर्ण_प्लेटें :

#उत्तरी_अमेरीकन_प्लेट : इसका विस्तार उत्तरी अमरीका तथा मध्य अटलांटिक कटक तक अटलांटिक के पश्चिमी भाग पर है। कैरेबियन तथा कोकोस छोटी प्लेटें दक्षिणी अमरीकी प्लेट से पृथक करती है।

#दक्षिणी_अमेरीकन_प्लेट : यह दक्षिणी अमरीका महाद्वीप तथा दक्षिणी अटलांटिक के पश्चिमी भाग में मध्य अटलांटिक कटक तक विस्तृत है।

#प्रशान्त_महासागरीय_प्लेट : यह महासागरीय प्लेट है जिसका विस्तार अलास्का क्यूराइल द्वीप समूह से प्रारम्भ होकर दक्षिण में अंटार्कटिक रिज तक सम्पूर्ण प्रशान्त महासागर पर है। इसके किनारों पर फिलीपींस, नजका तथा कोकोस लघु प्लेटें स्थित हैं। यह प्लेट सबसे बड़ी हैं।

#यूरेशियाई_प्लेट : यह प्लेट मुख्यरूप से महाद्वीपीय है जिसका विस्तार यूरोप एवं एशिया पर है। इसमें कई छोटी प्लेटें भी संलग्न हैं जैसे पर्शियन प्लेट तथा चीन प्लेट। इसकी दिशा पश्चिम से पूर्व है।

#इंडो_आस्ट्रेलियाई_प्लेट : यह महाद्वीपीय व महासागरीय दोनों प्रकार की प्लेट हैं। परन्तु इसमें सागरीय क्षेत्र अधिक है। इसका विस्तार भारतीय प्रायद्वीप अरब प्रायद्वीप, आस्ट्रेलिया तथा हिन्द महासागर के अधिकांश भाग पर है। इसकी दिशा दक्षिण-पश्चिम से उत्तर पूर्व है।

#अफ्रीकन_प्लेट : यह समस्त अफ्रीका, दक्षिण अटलांटिक महासागर के पूर्वी भाग तथा हिन्द महासागर के पश्चिमी भाग पर विस्तृत है। इसकी दिशा उत्तर-पूर्व है।

#अंटार्कटिक_प्लेट : इसका विस्तार अंटार्कटिक महाद्वीप तथा इसके चारों ओर विस्तृत सागर पर है। यह महाद्वीप व महासागरीय प्लेट है। इन प्लेटों के अतिरिक्त महत्त्वपूर्ण छोटी प्लेटें निम्नलिखित हैं-

#कोकस_प्लेट : यह प्लेट मध्यवर्ती अमरीका और प्रशान्त महासागरीय प्लेट के मध्य स्थित है।

#नजका_प्लेट : इसका विस्तार दक्षिणी अमरीकी प्लेट तथा प्रशान्त महासागरीय प्लेट के मध्य है।

#अरेबियन_प्लेट : इस प्लेट में अधिकतर अरब प्रायद्वीप का भाग सम्मिलित है।

#फिलीपाइन_प्लेट : यह प्लेट एशिया महाद्वीप एवं प्रशान्त महासागरीय प्लेट के मध्य स्थित है।

#कैरोलिन_प्लेट : यह न्यूगिनी के उत्तर में स्थित है।

#प्लेटों_की_सीमाएँ

प्लेटों में तीन प्रकार की गतियां होती हैं। जिनके आधार पर ये तीन प्रकार की सीमाएँ बनाती हैं, जो निम्नानुसार हैं-

#अपसारी_सीमाएँ

पृथ्वी के आन्तरिक भाग में संवहन तरंगों की उत्पत्ति के कारण जब दो प्लेटें विपरीत (एक-दूसरे से दूर) दिशा में गतिशील होती हैं तो ये अपसारी किनारों का निर्माण करती हैं। इन सीमाओं के मध्य बनी दरार में भूगर्भ का तरल मैग्मा ऊपर आता है तथा दोनों प्लेटों के मध्य तीन नवीन ठोस तली का निर्माण होता है। इसे रचनात्मक किनारा भी कहा जाता है। इस प्रकार का नवीन तली का निर्माण महासागरीय कटक व बेसिन में पाया जाता है। इसका सर्वोत्तम उदाहरण मध्य अटलांटिक कटक है जहाँ अमरीकी प्लेटें यूरेशियन प्लेट तथा अफ्रीकन प्लेट से अलग हो रही हैं। इन सीमाओं पर ज्वालामुखी क्रिया भी देखने को मिलती है।

पृथ्वी पर पाई जाने वाली प्लेटें दुर्बलतामण्डल पर अस्थिर रूप से स्थित है, जिनमें निरन्तर परिवर्तन होता रहता है। वेगनर के महाद्वीपीय विस्थापन सिद्धान्त को स्वीकार करने में सबसे बड़ी बाधा यह समझाने की थी कि सियाल के बने महाद्वीप सीमा पर कैसे तैरते हैं तथा उसे विस्थापित करते हैं। 1928 में आर्थर होम्स ने बताया कि पृथ्वी के आन्तरिक भाग में रेडियोधर्मी तत्वों से निकली गर्मी से ऊर्ध्वाधर संवहन धाराएँ उत्पन्न होती हैं। अधोपर्पटी संवहन धाराएँ तापीय संवहन की क्रियाविधि प्रारम्भ करती हैं, जो प्लेटों के संचालन के लिये प्रेरक बल का काम करती हैं। संवहन धाराओं द्वारा ऊष्मा की उत्पत्ति की खोज रमफोर्ड ने 1997 में की थी। भूपटल के नीचे संवहन धाराओं का संकल्पना हॉपकिन्स ने 1849 में प्रस्तावित की थी। उष्ण धाराएँ ऊपर उठकर भूपृष्ठ पर पहुँचकर ठंडी हो जाती हैं, जिससे पुनः नीचे की ओर चलना प्रारम्भ कर देती हैं। इससे प्लेटों में गति होती है।

संवहन धाराएँ स्थलमण्डल की प्लेटों को अपने साथ प्रवाहित करती हैं। महासागरीय घटकों में संवहन धाराओं के साथ तरल मैग्मा बाहर आ जाता है। मैटल में लचीलापन आन्तरिक तापमान व दबाव पर निर्भर करता है। संवहन धाराओं के साथ तप्त पिघला हुआ मैग्मा ऊपर उठता है। भूपटल के नीचे संवहन धाराएँ विपरीत दिशा में अपसरित होती हैं जिससे मैग्मा भी दोनों दिशाओं में फैल जाता है और ठंडा होने लगता है। जहाँ दो विपरीत दिशाओं से संवहन धाराएँ मिलती हैं वहाँ ये मुड़कर पुनः केन्द्र की ओर चल पड़ती हैं। अतः ठंडा मैग्मा भी नीचे धँसता है एवं गर्म होने लगता है। जैसे-जैसे यह केन्द्र की और बढ़ता है, उसके आयतन में विस्तार होता है।

जहाँ संवहन तरंगे विपरीत दिशा में अपसरित होती हैं, वहाँ भूपृष्ठ पर प्लेटें एक दूसरे से दूर खिसकती हैं तथा जहाँ संवहन तरंगे मिलकर मिलकर पुनः केन्द्र की तरफ संचालित होती हैं। उस स्थान पर प्लेटें एक-दूसरे के समीप आती हैं।

प्लेटें एक दूसरे के सापेक्ष में निरन्तर गतिशील रहती हैं। जब एक प्लेट गतिशील होती है तो दूसरी का गतिशील होना स्वाभाविक होता है। प्लेटों का घूर्णन यूलर के ज्यामितीय सिद्धान्त के आधार पर गोले की सतह पर किसी प्लेट की गति एक सामान्य घूर्णन के रूप में होती है, जो एक घूर्णन अक्ष के सहारे सम्पादित होता है।

प्लेट के रचनात्मक एवं बिना किसी किनारे के सापेक्षिक संचलन का वेग उसके अक्ष के सहारे कोणिक वेग तथा घूर्णन अक्ष से प्लेट किनारे के बिन्दु की कोणिक दूरी के समानुपातिक होता है। घूर्णन अक्ष गोले के केन्द्र से होकर गुजरती है। जब प्लेट गतिमान होती है तो उसके सभी भाग घूर्णन अक्ष के सहारे लघु चक्रीय मार्ग के सहारे गतिशील होते हैं। प्लेटों की गति व दिशा का अध्ययन उपग्रहों पर स्थापित लेसर परावर्तकों के माध्यम से किया जाता है।

#महाद्वीप_विस्थापन

प्लेट विर्वतनिकी सिद्धान्त के आधार पर महाद्वीपीय विस्थापन का कारण स्पष्ट हो जाता है। वेलेन्टाइन तथा मूर्स एवं हालम ने 1973 में इस तथ्य को प्लेटों की गति को सागरीय तली के प्रसार तथा पुराचुम्बकत्व के प्रमाणों के आधार पर प्रमाणित किया है।

पुराचुम्बकीय सर्वेक्षण के आधार पर महासागरों के खुलने एवं बन्द होने के प्रमाण मिले हैं। भूमध्यसागर वृहद महासागर का अवशिष्ट भाग है। इसका सकुंचन का कारण अफ्रीकन प्लेट के उत्तर की ओर सरकना है। वर्तमान में लाल सागर का भी विस्तार हो रहा है। स्थलीय या महासागरीय प्लेट एक-दूसरे के सापेक्ष में गतिमान हैं। हिमालय की भी ऊँचाई बढ़ी है।

#पर्वत_निर्माण

प्लेट विर्वर्तनिकी सिद्धान्त के आधार पर भूपृष्ठ पर पाये जाने वाले विशाल वलित (मोड़दार) पर्वतों का निर्माण हुआ। प्लेटों के विस्थापन से संकुचलन एवं टकराहट के कारण विनाशकारी किनारे पर निक्षेपित अवसादों में मोड़ पड़ने से वलित पर्वतों का निर्माण हुआ। प्रशान्त प्लेट से अमरीकन प्लेट के विनाशात्मक किनारे क्रस्ट के नीचे दबने से सम्पीडनात्मक बल का जन्म हुआ व उत्तरी तथा दक्षिणी किनारे के पदार्थ वलित हो गए एवं एंडीज तथा रॉकी पर्वतों का निर्माण हुआ।

भारतीय प्लेट एवं यूरेशियन प्लेट के एक-दूसरे की ओर अग्रसर होने से अंगारालैंड व गोंडवानालैंड के मध्य स्थित टैथिस सागर में निक्षेपित अवसाद वलित हो गए। इससे हिमालय जैसे विशाल वलित पर्वतों का निर्माण हुआ।

यूरोप व अफ्रीका प्लेट के टकराने से आल्पस पर्वतों का निर्माण हुआ। इस विस्थापन से भारतीय प्लेट एशिया प्लेट के नीचे दब गई जिसके भूगर्भ में पिघलने से हिमालय का उत्थान हुआ।

#ज्वालामुखी

प्लेट विवर्तनिकी ज्वालामुखी की उत्पत्ति तथा वितरण पर भी पूर्ण वैज्ञानिक व्याख्या करती है। जहाँ दो प्लेटें एक-दूसरे से दूर जाती हैं, वहाँ दबाव कम होने से दरारों से लावा प्रवाह होने लगता है। इसी प्रकार सागर तली में कटक का निर्माण होता है व नवीन बेसाल्ट तली का निर्माण निरन्तर होता रहता है। जहाँ प्लेट के दो किनारे मिलते हैं, वहाँ उठती हुई संवहन धाराओं के कारण ज्वालामुखी विस्फोट हो जाता है। जब प्लेट के विनाशात्मक किनारे टकराते हैं तब भी प्लेट के दबने से व मैटल के पिघलने से निकटवर्ती क्षेत्र में दबाव बढ़ जाता है और ज्वालामुखी विस्फोट हो जाता है। विश्व के सर्वाधिक सक्रिय ज्वालामुखी प्लेट सीमाओं के सहारे ही पाये जाते हैं। इसमें प्रशान्त प्लेट के अग्नि वृत्त पर सर्वाधिक है। इन्हीं क्षेत्रों में भूकम्प के झटके भी महसूस किये जाते हैं। संरक्षी किनारों पर तीव्र भूकम्प आते हैं।

उपर्युक्त प्रभावों के साथ-साथ पृथ्वी पर कार्बोनीफरस युग के हिमावरण एवं जलवायु परिवर्तन को भी सिद्धान्त द्वारा आसानी से समझा जा सकता है। अंटार्कटिक में कोयला भण्डारों का पाया जाना वहाँ के जलवायु परिवर्तनों को प्रमाणित करता है। प्लेट विवर्तनिकी के आधार से हिन्द महासागर का अस्तित्व क्रिटेशय युग से पहले नहीं था। दक्षिणी पेंजिया में अंटार्कटिका, अफ्रीका, आस्ट्रेलिया तथा भारत आदि सम्मिलित थे। इस युग के अन्तिम चरण में भारतीय प्लेट उत्तर की ओर सरकी जिससे आस्ट्रेलिया एवं अंटार्कटिक अफ्रीका से अलग होने लगे। इयोसीन युग में आस्ट्रेलिया अंटार्कटिका से अलग हुआ तथा इसका प्रवाह दक्षिण की ओर हुआ। अतः यहाँ ठंडी जलवायु पाई जाती है।

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विश्व_का_भूगोल

अन्तर्जात_और_बहिर्जात_बल

पृथ्वी की सतह पर दो प्रकार के बल कार्य करते हैं। एक अन्तर्जात बल तथा दूसरा बहिर्जात बल। अन्तर्जात बल पृथ्वी के आन्तरिक भागों से उत्पन्न होता है। यह बल भू-तल पर विषमताओं का सृजन करता है। तथा बहिर्जात बल पृथ्वी की सतह पर उत्पन्न होता है। यह बल भू-तल पर समतल की स्थापना करता है।

#अन्तर्जात_बल (Endogenetic Force)---
अन्तर्जात बलों को कार्य की तीव्रता के आधार पर दो प्रकारों में बांटा गया है।
▪️1- आकस्मिक बल---
इस बल से भूपटल पर विनाशकारी घटनाओं का आकस्मिक आगमन होता है। जैसे भूकम्प, ज्वालामुखी व भू-स्खलन
▪️2  दीर्घकालिक बल---
इसे पटल विरूपणी बल (Diastrophic force) भी कहा जाता है। इसके अन्तर्गत लम्बवत तथा क्षैतिज संचलन आते हैं। इन संचलनों को क्रमशः महाद्वीप निर्माण कारी लम्बवत संचलन तथा पर्वत निर्माण कारी क्षैतिज संचलन कहते हैं।
▪️a- महाद्वीप निर्माणकारी लम्बवत संचलन---
इस संचलन से महाद्वीपीय भागों का निर्माण एवं उत्थान या निर्गमन होता है। लम्बवत संचलन भी दो प्रकार के होते हैं--उपरिमुखी और अधोमुखी। जब महाद्वीपीय भाग या उसका कोई क्षेत्र अपनी सतह से ऊपर उठ जाता है। तो उस पर लगने वाले बल को उपरिमुखी बल तथा इस क्रिया को उपरिमुखी संचलन कहते हैं। जैसे कच्छ की खाड़ी के निकट लगभग 24 km लंबी भूमि कई km ऊपर उठ गयी है। जिसे अल्लाह का बाँध कहते हैं। इसके विपरीत जब महाद्वीपीय भागों में धंसाव हो जाता है। तो उस पर लगने वाले बल को अधोमुखी बल तथा इस क्रिया को अवतलन या अधोमुखी संचलन कहते हैं। जैसे मुम्बई प्रिंस डॉक यार्ड क्षेत्र के जलमग्न वन।
▪️b- पर्वत निर्माणकारीव क्षैतिज संचलन---
पृथ्वी के आन्तरिक भाग से क्षैतिज रूप में पर्वतों के निर्माण में सहायक संचलन बल को पर्वत निर्माणकारी संचलन कहा जाता है। इस संचलन में दो प्रकार के बल कार्य करते हैं---संपीडन बल व तनाव बल। जब क्षैतिज संचलन बल विपरीत दिशाओं में क्रियाशील होता है। तो तनाव की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। जिससे धरातल में भ्रंश, चटकनें व दरार आदि का निर्माण होता है। अतः इसे तनाव बल कहते हैं। और जब क्षैतिज संचलन बल आमने सामने क्रियाशील होता है तो चट्टानें संपीडित हो जाती हैं। जिससे धरातल में संवलन व वलन पड़ जाते हैं। अतः इसे संपीडन बल कहते हैं।

#वलन (Folding)
पृथ्वी के आन्तरिक भागों में उत्पन्न अन्तर्जात बलों के क्षैतिज संचलन द्वारा धरातलीय चट्टानों में संपीडन के कारण लहरों के रूप में पड़ने वाले मोड़ों को वलन कहते हैं। वलन के कारण चट्टानों के ऊपर उठे हुए भाग को अपनति (Anticline) तथा नीचे धँसे हुए भाग को अभिनति (Syncline) कहते हैं।
#वलनों_के_प्रकार (Types of Folds)---
संपीडन बल में भिन्नता के कारण वलन के प्रकारों में भी अन्तर होता है।
▪️1- सममित वलन (Symmetrical Fold)---
इसमें वलन की दोनों भुजाओं की लम्बाई व ढलान समान होती है। इसे सरल वलन या खुले प्रकार का वलन भी कहते हैं। जब दबाव शक्ति की तीव्रता कम एवं दोनों दिशाओं में समान हो, तो इस प्रकार के वलन का निर्माण होता है। जैसे-स्विट्जरलैंड का जूरा पर्वत
▪️2- असममित वलन (Asymmetrical Fold)---
इसमें वलन की दोनों भुजाओं की लम्बाई व ढाल असमान होती है। कम झुकाव वाली भुजा अपेक्षाकृत बड़ी तथा अधिक झुकाव वाली भुजा छोटी होती है। जैसे-ब्रिटेन का दक्षिणी पेनाइन पर्वत
▪️3- एकदिग्नत वलन (Monoclinal Fold)---
जब किसी वलन की एक भुजा सामान्य झुकाव व ढाल वाली तथा दूसरी भुजा उस पर समकोण बनाती है एवं उसका ढाल खड़ा होता है। इस प्रकार के वलन को एकदिग्नत वलन कहते हैं। जैसे-आस्ट्रेलिया का ग्रेट डिवाइडिंग रेंज
▪️4- समनत वलन (Isoclinal Fold)---
समनत वलन में वलन की दोनों भुजाएँ समानान्तर होती हैं। लेकिन क्षैतिज दिशा में नहीं होती हैं। इस वलन में आगे का भाग लटकता हुआ प्रतीत होता है। ऐसे वलन में संपीडन की तीव्रता स्पष्ट दिखाई देती है। जैसे-पाकिस्तान का काला चित्ता पर्वत
▪️5- परिवलित वलन (Recumbent Fold)---
अत्यधिक तीव्र क्षैतिज संचलन के कारण जब वलन की दोनों भुजाएँ एक दूसरे के समानान्तर और क्षैतिज दिशा में होती जाती हैं। तो उसे परिवलित वलन कहते हैं। इसे दोहरा मोड़ भी कहा जाता है। जैसे-ब्रिटेन का कौरिक कैसल पर्वत
▪️6-अधिवलन (Over Fold)---
इस वलन में वलन की एक भुजा बिल्कुल खड़ी न रहकर कुछ आगे की ओर निकली हुई रहती है एवं तीव्र ढाल बनाती है। जबकि दूसरी भुजा अपेक्षाकृत लम्बी होती है और कम झुकी होने के कारण धीमी ढाल बनाती है। इस वलन का निर्माण तब होता है जब दबाव शक्ति एक दिशा में तीव्र होती है। जैसे-कश्मीर की पीर पंजाल श्रेणी
▪️7- अधिक्षिप्त या प्रतिवलन (Overthrust or Overturned Fold)---
जब अत्यधिक संपीडन बल के कारण परिवलित वलन की एक भुजा टूट कर दूर विस्थापित हो जाती है, तब उस विस्थापित भुजा को ग्रीवाखण्ड कहते हैं। जिस तल पर भुजा का विस्थापन होता है उसे व्युत्क्रम भ्रंश तल कहते हैं। वहीं जब परिवलित वलन में अत्यधिक संपीडन के कारण वलन के नीचे की भुजा, ऊपरी भुजा के ऊपर विस्थापित हो जाती है। तब उसे प्रतिवलन कहते हैं। जैसे-कश्मीर घाटी एक ग्रीवा खण्ड पर अवस्थित है।
▪️8- पंखा वलन (Fan Fold)---
क्षैतिज संचलन का समान रूप से क्रियाशील न होने के कारण विभिन्न स्थानों में संपीडन की भिन्नता के साथ ही पंखे के आकार की वलित आकृति का निर्माण होता है। जिसे पंखा वलन कहते हैं। जैसे-पाकिस्तान स्थित पोटवार,

#भ्रंशन (Fault)
इसके अन्तर्गत दरारें, विभंग व भ्रंशन को शामिल किया जाता है। भू-पटल में एक तल के सहारे चट्टानों के स्थानान्तरण से उत्पन्न संरचना को भ्रंश कहते हैं। भ्रंशन की उत्पत्ति क्षैतिज संचलन के दोनों बलों ( संपीडन व तनाव बल) से होती है। परन्तु तनाव बल का स्थान अधिक महत्वपूर्ण है क्योंकि अधिकतर भ्रंश इसी के कारण उत्पन्न हुए हैं।
#भ्रंशन_के_प्रकार (Kinds of Faults)---
भ्रंश निम्नलिखित प्रकार के होते हैं।
▪️1-सामान्य भ्रंश (Normal Faults)---
जब चट्टानों में दरार पड़ जाने के कारण उसके दोनों खण्ड विपरीत दिशा में खिसक जाते हैं, तो उसे सामान्य भ्रंशन कहते हैं। इसमें भूपटल में प्रसार होता है। सामान्य भ्रंश का निर्माण तनाव बल के कारण होता है।
▪️2- व्युत्क्रम या उत्क्रम भ्रंश (Reverse Fault)---
जब चट्टानों में दरार पड़ जाने के कारण उसके दोनों खण्ड एक दूसरे की ओर खिसकते हैं और एक दूसरे के ऊपर आरूढ़ हो जाते हैं। इस प्रकार निर्मित भ्रंश को व्युत्क्रम भ्रंश कहते हैं। इसे आरूढ़ भ्रंश भी कहा जाता है। ये भ्रंश संपीडन बल के कारण निर्मित होते हैं। इस भ्रंशन से कगारों का निर्माण होता है। जैसे-पश्चिमी घाट कगार, विंध्यन कगार क्षेत्र में लटकती घाटियाँ एवं जलप्रपात का विकास। इस प्रकार के भ्रंशन में सतह का फैलाव पहले की अपेक्षा घट जाता है।
▪️3- सोपानी भ्रंश (Step Fault)---
जब किसी क्षेत्र में एक दूसरे के समानान्तर कई भ्रंश होते हैं एवं सभी भ्रंश तलों की ढाल एक ही दिशा में होती है। तो इसे सोपानी या सीढ़ीदार भ्रंश कहते हैं। इस भ्रंशन में अधक्षेपित खण्ड का अधोगमन एक ही दिशा में होता है। जैसे-यूरोप की राइन घाटी
▪️4-Transcurrent Fault or Strike slip Fault---
जब स्थल पर दो विपरीत दिशाओं से दबाव पड़ता है तो दोनों ओर के भू-खण्ड भ्रंश तल के सहारे आगे पीछे खिसक जाते हैं। इस प्रकार के भ्रंश को ट्रांसकरेन्ट भ्रंश कहते हैं। जैसे-कैलिफोर्निया का एंड्रियास भ्रंश,

#भ्रंशन_के_कारण_निर्मित_स्थलाकृतियां---

भ्रंशन के कारण पृथ्वी पर कई प्रकार की भू-आकृतियां निर्मित होती हैं।

▪️a-भ्रंश घाटी (Rift Valley)---
जब दो समानान्तर भ्रंशों का मध्यवर्ती भाग नीचे धँस जाता है तो उसे द्रोणी या भ्रंश घाटी कहते हैं। जर्मन भाषा में इसे "ग्राबेन (Graben)" कहा जाता है। जैसे-जॉर्डन भ्रंश घाटी, (जिसमें मृतसागर स्थित है) कैलिफोर्निया क्षेत्र में स्थित मृत घाटी,(यह समुद्र तल से भी नीची है।) अफ्रीका की न्यासा, रूडोल्फ, तांगानिका, अल्बर्ट व एडवर्ड झीलें भू-भ्रंश घाटी में ही स्थित है। भारत में नर्वदा, ताप्ती व दामोदर नदी घाटियाँ भ्रंश घाटियों के प्रमुख उदाहरण हैं।
▪️b-रैम्प घाटी (Ramp Valley)---
रैम्प घाटी का निर्माण उस स्थिति में होता है जब दो भ्रंश रेखाओं के बीच स्तम्भ यथा स्थिति में ही रहे परन्तु संपीडनात्मक बल के कारण किनारे के दोनों स्तम्भ ऊपर उठ जाये। जैसे-असम की ब्रह्मपुत्र घाटी
▪️c-भ्रंशोत्थ पर्वत (Block Mountain)---
जब दो भ्रंशों के बीच का स्तम्भ यथावत रहे एवं किनारे के स्तम्भ नीचे धँस जाये तो ब्लॉक पर्वत का निर्माण होता है। जैसे-भारत का सतपुड़ा पर्वत, जर्मनी का ब्लैक फॉरेस्ट व वास्जेस पर्वत, पाकिस्तान का साल्ट रेंज ब्लॉक पर्वत, अमेरिका का स्कीन्स माउंटेन, वासाच रेंज ब्लॉक पर्वत आदि कैलिफोर्निया में स्थित सियरा नेवादा विश्व का सबसे विस्तृत ब्लॉक पर्वत है।
▪️d-हॉर्स्ट पर्वत (Horst Mountain)---
जब दो भ्रंशों के किनारों के स्तम्भ यथावत रहे एवं बीच का स्तम्भ ऊपर उठ जाये तो हॉर्स्ट पर्वत का निर्माण होता है। जैसे- जर्मनी का हॉर्ज पर्वत

#बहिर्जात_बल (Exogenetic Force)---
पृथ्वी की सतह पर उत्पन्न होने वाले बल को बहिर्जात बल कहते हैं। बहिर्जात बल को "भूमि विघर्षण बल" भी कहा जाता है। बहिर्जात बल का भू-पटल पर प्रमुख कार्य अनाच्छादन (Denudation) होता है। अनाच्छादन के अन्तर्गत अपक्षय, वृहदक्षरण, संचरण, अपरदन व निक्षेपण आदि क्रियाएँ आती हैं। अनाच्छादन स्थैतिक तथा गतिशील दोनों क्रियाओं का योग है। अपक्षय में स्थैतिक क्रिया होती है जबकि अपरदन में गतिशील क्रिया होती है। भौतिक अपक्षय को विघटन (Disintegration) तथा रासायनिक अपक्षय को वियोजन (Decomposition) कहते हैं। उष्ण कटिबंधीय आद्र भागों में रासायनिक अपक्षय होता है जबकि उष्ण व शुष्क मरूस्थलीय भागों में भौतिक अपक्षय होता है। वे सभी क्रियाएँ जो धरातल को सामान्य तल पर लाने का प्रयास करती हैं, उन्हें "प्रवणता संतुलन की क्रियाएँ" कहते हैं। बाह्म कारकों द्वारा स्थलीय धरातल के अपरदन को निम्नीकरण कहते हैं। धरातल की नीची जगहों को भरकर ऊँचा करना अभिवृद्धि कहलाती है।

1-#अपक्षय (Weathering)--->
ताप, जल, वायु तथा प्राणियों के कार्यों के प्रभाव, जिनके द्वारा यांत्रिक व रासायनिक परिवर्तनों से चट्टानों के अपने ही स्थान पर कमजोर होने, टूटने, सड़ने एवं विखंडित होने को "अपक्षय" को अपक्षय कहते हैं। जैसे ही चट्टान धरातल पर अनावृत होकर मौसमी प्रभावों से प्रभावित होते हैं, यह प्रक्रिया शुरू हो जाती है। कारकों के आधार पर अपक्षय को तीन प्रकारों में विभक्त किया गया है।
▪️क-भौतिक या यांत्रिक अपक्षय---
¡-ताप के कारण छोटे-बड़े टुकड़ो में विघटन
¡¡-तुषार-चीरण अर्थात चट्टानों में जल का प्रवेश
¡¡¡-घर्षण
¡v-दबाव
▪️ख-रासायनिक अपक्षय---
¡-ऑक्सीकरण
¡¡-कार्बोनेटिकरण
¡¡¡-जलयोजन
ग-प्राणिवर्गीय अपक्षय---
¡-वानस्पतिक अपक्षय
¡¡-जैविक अपक्षय
¡¡¡-मानवीय क्रियाओं द्वारा अपक्षय

2-#अपरदन (Erosion)---->
अपक्षयित पदार्थों का अन्यत्र स्थानान्तरण "अपरदन" कहलाता है। अपरदन में भाग लेने वाली प्रमुख क्रियाएँ निम्नलिखित हैं।
▪️a-अपघर्षण (Abrasion)---
वह प्रक्रिया जिसमें कोई जल प्रवाह अपने साथ कंकड़, पत्थर व बालू आदि पदार्थों के साथ आगे बढ़ता है तो इन पदार्थों के सम्पर्क आने वाली चट्टानों एवं किनारों का क्षरण होने लगता है। इस क्रिया को अपघर्षण कहते हैं।
▪️b-सन्निघर्षण (Attrition)---
जब किसी प्रवाह में प्रवाहित होने वाले पदार्थ आपस में घर्षण कर छोटे होने की प्रक्रिया को सन्निघर्षण कहते हैं।
▪️c-संक्षारण (Corosion)---
घुलनशील चट्टानों जैसे-डोलोमाइट, चुना पत्थर आदि का जल क्रिया द्वारा घुलकर शैल से अलग होना संक्षारण कहलाता है। यह भूमिगत जल एवं बहते जल द्वारा होता है। इससे कार्स्ट स्थलाकृतियों का निर्माण होता है।
▪️d-जलीय क्रिया (Hydraulic Action)---
जब जल प्रवाह की गति के कारण चट्टानें टूट-फुटकर अलग हो जाती हैं। तो उसे जलीय क्रिया कहते हैं। यह क्रिया सागरीय तरंगों, हिमानियों एवं नदियों द्वारा होती है।
▪️e-जल दाब क्रिया (Water Pressure)---
जब किसी चट्टान में जल के दबाव के कारण अपरदन क्रिया होती है तो उसे जल दबाव क्रिया कहा जाता है। यह मुख्यतः सागरीय तरंगों द्वारा होती है।
▪️f-उत्पाटन (Plucking)---
इस प्रकार का अपरदन हिमानी क्षेत्रों में होता है। वर्षा तथा हिम पिघलने से प्राप्त जल चट्टानों की सन्धियों में प्रविष्ट हो जाता है तथा ताप की कमी के कारण जमकर हिम रूप धारण कर लेता है, जिस कारण चट्टान कमजोर हो जाती हैं और इनसे बड़े बड़े टुकड़े टूट कर अलग होते रहते हैं। यह प्रक्रिया उत्पाटन कहलाती है।
▪️g-अपवहन (Deflation)---
यह पवन के द्वारा शुष्क या अर्ध-शुष्क प्रदेशों में अवसादों की उड़ाव की क्रिया है।

3-#वृहद_संचलन (Mass Movement)---
गुरुत्वाकर्षण के सीधे प्रभाव के कारण शैलों के मलवा का चट्टान की ढाल के अनुरूप रूपान्तरण हो जाता है। इस क्रिया को वृहद संचलन कहते हैं। वृहद संचलन अपरदन के अन्तर्गत नहीं आता है।
4-#निक्षेपण (Deposition)---
निक्षेपण अपरदन का परिणाम होता है। ढाल में कमी के कारण जब अपरदन के कारकों का वेग कम हो जाता है तो अवसादों का निक्षेपण प्रारम्भ हो जाता है। अर्थात निक्षेपण किसी कारक का कार्य नहीं है।

#अपरदन_चक्र (Erosion Cycle)
अपरदन चक्र अन्तर्जात व बहिर्जात बलों का सम्मिलित परिणाम होता है। अन्तर्जात बल धरातल पर विषमताओं का सृजन करते हैं तथा बहिर्जात बल समतल स्थापक बल के रूप में कार्य करते हैं। जैसे ही अन्तर्जात बलों द्वारा धरातल पर विषमताओं का निर्माण होता है, बहिर्जात बल इन विषमताओं को दूर करने में प्रयत्नशील हो जाते हैं। जिससे विशिष्ट स्थलाकृतियों का निर्माण होता है। सर्वप्रथम स्कॉटिश भू-गर्भशास्त्री जेम्स हटन ने भू-आकृतियों के सम्बन्ध में 'एकरूपतावाद' की अवधारणा दी और बताया कि "वर्तमान भूत की कुंजी है"
अमेरिका के भूगोलवेत्ता विलियम मोरिस डेविस ने अपरदन चक्र की परिकल्पना का प्रतिपादन 1899 में किया था। डेविस के अनुसार किसी भी स्थलाकृति का निर्माण तथा विकास ऐतिहासिक क्रम में होता है, जिसके अन्तर्गत उसे तरुण (Young), प्रौढ़ एवं जीर्ण अवस्थाओं से होकर गुजरना पड़ता है। डेविस की इस विचार धारा पर डार्विन की "जैविक विकासवादी अवधारणा" का प्रभाव है। डेविस के अनुसार स्थलाकृतियाँ मुख्य रूप से तीन कारकों  का परिणाम होती हैं। 1-चट्टानों की संरचना , 2-अपरदन के प्रक्रम, 3-समय की अवधि या विभिन्न अवस्थायें। इन्हें "डेविस के त्रिकूट ( Trio of Davis)" के नाम से जाना जाता है। डेविस के अनुसार अपरदन चक्र समय की वह अवधि है, जिसमें एक उत्थित भू-खण्ड अपरदन की विभिन्न अवस्थाओं से गुजरते हुए अंततः समतल प्राय मैदान में बदल जाता है तथा इसमें कहीं-कहीं थोड़े उठे हुए भाग "मोनाडनॉक" के रूप में शेष बचे रहते हैं। इस अपरदन चक्र को डेविस ने भौगोलिक चक्र का नाम दिया। जर्मन वैज्ञानिक वाल्टर पेंक ने डेविस के सिद्धान्त की आलोचना की तथा मॉर्फोलॉजिकल सिस्टम की अवधारणा प्रस्तुत की। जिसके अनुसार, स्थलाकृतियाँ उत्थान एवं निम्नीकरण की दर तथा दोनों की प्रवस्थाओं के परस्पर सम्बन्धों का प्रतिफल होती हैं। उन्होंने उठते हुए स्थल खण्डों को प्राइमारम्प कहा तथा अपरदन के पश्चात बने समतल प्राय मैदान को इंड्रम्प कहा।

अपरदन चक्र से सम्बन्धित अन्य सिद्धान्त निम्नलिखित हैं।
▪️पेडीप्लनेशन चक्र------------एल. सी. किंग
▪️कार्स्ट अपरदन चक्र------------बीदी

#अपरदन_के_प्रक्रम---
इसके अन्तर्गत बहता जल, भूमिगत जल, सागरीय तरंग, हिमानी तथा पवन आदि आते हैं।
1-#नदी_प्रक्रम---
कोई नदी अपनी सहायक नदियों समेत जिस क्षेत्र का जल लेकर आगे बढ़ती है, वह स्थान प्रवाह क्षेत्र या नदी द्रोणी  या जल ग्रहण क्षेत्र कहलाता है। एक नदी द्रोणी दूसरी नदी द्रोणी से जिस उच्च भूमि द्वारा अलग होती है, उस जल विभाजक क्षेत्र कहते हैं। जैसे अरावली पर्वत श्रेणी और इसके उत्तर की उच्च भूमि सिन्धु तथा गंगा द्रोणियों के जल को विभाजित करती है। नदियां अपने ढालों के अनुरूप बहती है। बहते हुए जल द्वारा निम्न प्रकार की स्थलाकृतियों का निर्माण होता है।
▪️a-V-आकार की घाटी---
नदी द्वारा पर्वतीय क्षेत्रों में की गई ऊर्ध्वाधर काट के कारण गहरी, संकीर्ण और V-आकार की घाटी का निर्माण होता है। इनमें दीवारों का ढाल तीव्र व उत्तल होता है। आकार के अनुसार ये घाटी दो प्रकार की होती हैं।
▪️ (कन्दरा)----
जहाँ शैलें कठोर होती हैं। वहाँ पर V- आकार गहरी व सँकरी होती है। नदी की ऐसी गहरी व संकरी घाटी, जिसके दोनों किनारे खड़े होते हैं। कन्दरा व गॉर्ज कहलाती है। जैसे-सिन्धु नदी द्वारा निर्मित सिन्धु गॉर्ज, सतलज नदी द्वारा निर्मित शिपकीला गॉर्ज तथा ब्रह्मपुत्र नदी द्वारा निर्मित दिहांग गॉर्ज
▪️कैनियन---
जब किसी पठारीय भाग में शैलें आड़ी तिरछी हों और वर्षा भी कम हो तो उस स्थान पर बहने वाली नदी की घाटी बहुत गहरी और तंग होती है। ऐसी गहरी तंग घाटी को कैनियन या आई-आकार की घाटी कहते हैं। जैसे-अमेरिका में कोलोरैडो नदी पर स्थित "ग्रैंड कैनियन"
▪️b-जल प्रपात (Water Fall)---
जब नदियों का जल ऊँचाई से खड़े ढाल से अत्यधिक वेग से नीचे की ओर गिरता है तो उसे जल प्रपात कहते हैं। इसका निर्माण असमान अपरदन, भूखण्ड में उत्थान व भ्रंश कगारों के निर्माण आदि के कारण होता है। जैसे-विश्व का सर्वाधिक ऊँचा वेनुजुऐला का साल्टो एंजेल प्रपात, उत्तरी अमेरिका एवं कनाडा का नियाग्रा जलप्रपात,दक्षिण अफ्रीका में जिम्बाब्वे की जाम्बेजी नदी पर स्थित विक्टोरिया जल प्रपात, लुआलाबा नदी पर स्थित स्टेनली जल प्रपात,सांगपो नदी पर स्थित हिंडेन प्रपात, पोटोमेक नदी पर स्थित ग्रेट प्रपात, न्यू नदी पर सैंड स्टोन प्रपात तथा कोलम्बिया नदी पर स्थित सेलिलो प्रपात। भारत में कर्नाटक राज्य में शरावती नदी पर स्थित जोग या गरसोप्पा जल प्रपात (260 मीटर), नर्वदा नदी का धुँआधार जल प्रपात (9 मीटर), सुवर्णरेखा नदी का हुण्डरू जल प्रपात (97 मीटर) आदि।
▪️c-जलोढ़ शंकु (Alluvial Cone)---
जब नदियाँ पर्वतीय भाग से निकलकर समतल प्रदेश में प्रवेश करती हैं। तो चट्टानों के बड़े बड़े अवसाद पीछे छूट जाते हैं इन अवसादों से बनी आकृति जलोढ़ शंकु कहलाती है। विभिन्न जलोढ़ शंकुओं के मिलने से भाबर प्रदेश का निर्माण होता है।
▪️d-जलोढ़ पंख (Alluvial Fans)---
पर्वतीय भाग से निकलने के पश्चात् नदियों के अवसाद दूर-दूर तक फैल जाते हैं। जिससे पंखनुमा मैदान का निर्माण होता है। जिसे जलोढ़ पंख कहते हैं। कई जलोढ़ पंखों के मिलने से गिरिपाद मैदान या तराई क्षेत्र का निर्माण होता हैजलोढ़ पंख की चोटी के पास नदी कई शाखाओं में विभक्त हो जाती हैं, जो गुम्फित नदी कहलाती है। नदी द्वारा जलोढ़ पंख का निर्माण नदी की तरुणावस्था के अन्तिम चरण तथा प्रौढ़वस्था के प्रथम चरण का परिचायक है।
▪️e-नदी विसर्प (River meanders)---
मैदानी क्षेत्रों में नदियों का क्षैतिज अपरदन अधिक सक्रिय होने के कारण नदी की धारा दाएँ-बाएँ, बल खाती हुई प्रवाहित होती है जिसके कारण नदी के मार्ग में छोटे बड़े मोड़ बन जाते हैं। इन मोड़ो को नदी का विसर्प कहते हैं। विसर्प "S" आकार के होते हैं। नदियों का विसर्प बनाने का कारण अधिक अवसादी बोझ होता है।
▪️f-गोखुर झील (Oxbow Lake)---
जब नदी अपने विसर्प को त्याग कर सीधा रास्ता पकड़ लेती है। तब नदी का अवशिष्ट भाग गोखुर झील या छाड़न झील कहलाता है।
▪️g-तटबन्ध (Levees)---
प्रवाह के दौरान नदियाँ अपरदन के साथ-साथ बड़े-बड़े अवसादों का किनारों पर निक्षेपण भी करती हैं, जिससे किनारों पर बांधनुमा आकृति का निर्माण हो जाता है। इसे प्राकृतिक तटबन्ध कहते हैं।
▪️h-बाढ़ का मैदान (Flood plain)---
मैदानी भाग में भूमि समतल होती है। अतः जब नदी में बाढ़ आती है तो बाढ़ का जल नदी के समीपवर्ती समतल भाग में फैल जाता है। इस जल में बालू तथा मिट्टी मिली हुई रहती है। बाढ़ के हटने के बाद यह मिट्टी वहीं जमा हो जाती है। मिट्टी के निक्षेपण से सम्पूर्ण मैदान समतल और लहरदार प्रतीत होता है। इस प्रकार के मैदान जलोढ़ मिट्टी के मैदान कहलाते हैं। उत्तरी भारत का मैदान इसका उत्तम उदाहरण है।
▪️i-डेल्टा (Delta)----
निम्नवर्ती मैदानों में ढाल कम होने तथा अवसादों का अधिकता में होने से नदी की परिवहन शक्ति कम होने लगती है जिससे वह अवसादी का जमाव करने लगती है। जिससे डेल्टा का निर्माण होता है।

2-#भूमिगत_जल_प्रक्रम (Under Ground Water System)----
धरातल के नीचे चट्टानों के छिद्रों और दरारों में स्थित जल को भूमिगत जल कहते हैं। भूमिगत जल से बनी स्थलाकृतियों को कार्स्ट स्थलाकृतियाँ कहते हैं। भूमिगत जल द्वारा निर्मित स्थल रूप निम्नलिखित प्रकार के होते हैं।
▪️a-घोलरंध्र (Sink Holes)----
जल की घुलनशील क्रिया के कारण सतह पर अनेक छोटे-छोटे छिद्रों का विकास हो जाता है। जिन्हें घोल रन्ध्र कहते हैं। गहरे घोलरंध्रों को विलयन रंध्र कहते हैं। तथा विस्तृत आकार वाले छिद्रों को "डोलाइन" कहते हैं, जो कई घोलरंध्रों के मिलने से बनता है। जब निरन्तर घोलीकरण के फलस्वरूप कई डोलाइन एक वृहदाकार गर्त का निर्माण करते हैं। तब उसे यूवाला कहते हैं। कई यूवाला के मिलने से अत्यन्त गहरी खाइयों का निर्माण होता है। इन विस्तृत खाइयों को पोल्जे या राजकुण्ड कहते हैं। विश्व का सबसे बड़ा पोल्जे पश्चिमी वालकन क्षेत्र (यूरोप) में स्थित "लिवनो पोल्जे" है।
▪️b-लैपीज (Lappies)----
जब घुलनशील क्रिया के फलस्वरूप ऊपरी सतह अत्यधिक ऊबड़-खाबड़ तथा पतली शिखरिकाओं वाली हो जाती है। तो इस तरह की स्थलाकृति को अवकूट या लैपीज कहते हैं।
▪️c-गुफा (Caverns)----
 भूमिगत जल के अपरदन द्वारा निर्मित स्थलाकृतियों में सबसे महत्वपूर्ण स्थलाकृति गुफा या कन्दरा है। इनका निर्माण घुलनशील क्रिया तथा अपघर्षण द्वारा होता है। कन्दराएँ ऊपरी सतह से नीचे एक रिक्त स्थान के रूप में होती हैं। इनके अन्दर निरन्तर जल प्रवाह होता रहता है। जैसे-अमेरिका की कार्ल्सबाद तथा मैमथ कन्दरा। और भारत में देहरादून में स्थित गुप्तदाम कन्दरा। कन्दराओं में जल के टपकने से कन्दरा की छत के सहारे चुने का जमाव लटकता रहता है, जिसे "स्टैलेक्टाइट" कहते हैं। तथा कन्दरा के फर्श पर चुने के जमाव से निर्मित स्तम्भ को "स्टैलेग्माइट" कहते हैं। इन दोनों के मिल जाने से कन्दरा स्तम्भ का निर्माण होता है।
▪️d-अन्धी घाटी (Blind Valley)----
जब विलयन रन्ध्र नदी के प्रवाह मार्ग के बीच में आ जाता है। तो नदी उसमें गिरकर विलीन हो जाती है। जिससे नदी की आगे की घाटी शुष्क हो जाती है। जिसे अन्धी घाटी कहते हैं।


3

विश्व_का_भूगोल :

चट्टाने_शैलें

पृथ्वी की ऊपरी परत या भू-पटल (क्रस्ट) में मिलने वाले पदार्थ चाहे वे ग्रेनाइट तथा बालुका पत्थर की भांति कठोर प्रकृति के हो या चाक या रेत की भांति कोमल; चाक एवं लाइमस्टोन की भांति प्रवेश्य हों या स्लेट की भांति अप्रवेश्य हों, चट्टान अथवा शैल (रॉक) कहे जाते हैं। इनकी रचना विभिन्न प्रकार के खनिजों का सम्मिश्रण हैं। चट्टान कई बार केवल एक ही खनिज द्वारा निर्मित होती है, किन्तु सामान्यतः यह दो या अधिक खनिजों का योग होती हैं।

#चट्टानों_के_प्रकार:

(1.) #आग्नेय_चट्टाने: आग्नेय चट्टान (जर्मन: Magmatisches Gestein, अंग्रेज़ी: Igneous rock) की रचना धरातल के नीचे स्थित तप्त एवं तरल चट्टानी पदार्थ, अर्थात् मैग्मा, के सतह के ऊपर आकार लावा प्रवाह के रूप में निकल कर अथवा ऊपर उठने के क्रम में बाहर निकल पाने से पहले ही, सतह के नीचे ही ठंढे होकर इन पिघले पदार्थों के ठोस रूप में जम जाने से होती है।

▪️आग्नेय शब्द लैटिन भाषा के ‘इग्निस’ से लिया गया है, जिसका सामान्य अर्थ अग्नि होता है।
▪️आग्नेय चट्टान स्थूल परतरहित, कठोर संघनन एवं जीवाश्मरहित होती हैं।
▪️ये चट्टानें आर्थिक रूप से बहुत ही सम्पन्न मानी गई हैं।
▪️इन चट्टानों में चुम्बकीय लोहा, निकिल, ताँबा, सीसा, जस्ता, क्रोमाइट, मैंगनीज, सोना तथा प्लेटिनम आदि पाए जाते हैं।
▪️झारखण्ड, भारत में पाया जाने वाला अभ्रक इन्हीं शैलों में मिलता है।
▪️आग्नेय चट्टान कठोर चट्टानें हैं, जो रवेदार तथा दानेदार भी होती है।
▪️इन चट्टानों पर रासायनिक अपक्षय का बहुत कम प्रभाव पड़ता है।
▪️इनमें किसी भी प्रकार के जीवाश्म नहीं पाए जाते हैं।
▪️आग्नेय चट्टानों का अधिकांश विस्तार ज्वालामुखी क्षेत्रों में पाया जाता है।
▪️आग्नेय चट्टानों में लोहा, निकिल, सोना, शीशा, प्लेटिनम भरपूर मात्रा में पाया जाता है।
▪️बेसाल्ट चट्टान में लोहे की मात्रा अधिक होती है।
▪️काली मिटटी बेसाल्ट चट्टान के टूटने से बनती है।
▪️बिटुमिनस कोयला आग्नेय चट्टान है।
▪️कोयला, ग्रेफाइट और हीरे को कार्बन का अपररूप कहा जाता है।
▪️ग्रेफाइट को पेंसिल लैड भी कहा जाता है।
▪️ताप, दवाब, और रासायनिक क्रियाओं के कारण ये चट्टाने आगे चलकर कायांतरित होती है।

#आग्नेय_चट्टानों_के_कुछ_उदाहरण:-

▪️ग्रेनाइट – नीस
▪️ग्रेवो – सरपेंटाइट
▪️बेसाल्ट – सिस्ट
▪️बिटुमिनस – ग्रेफाइट

(2). #अवसादी_चट्टाने: अवसादी चट्टान से तात्पर्य है कि, प्रकृति के कारकों द्वारा निर्मित छोटी-छोटी चट्टानें किसी स्थान पर जमा हो जाती हैं, और बाद के काल में दबाव या रासायनिक प्रतिक्रिया या अन्य कारकों के द्वारा परत जैसी ठोस रूप में निर्मित हो जाती हैं। इन्हें ही ‘अवसादी चट्टान’ कहते हैं। अवसादी शैलों का निर्माण जल, वायु या हिमानी, किसी भी कारक द्वारा हो सकता है। इसी आधार पर अवसादी शैलें ‘जलज’, ‘वायूढ़’ तथा ‘हिमनदीय’ प्रकार की होती हैं। बलुआ पत्थर, चुना पत्थर, स्लेट, संगमरमर, लिग्नाइट, एन्थ्रासाइट ये अवसादी चट्टाने है।

▪️अवसादी चट्टान परतदार होती है।
▪️अवसादी चट्टानों में जीवाश्म पाया जाता है।
▪️अवसादी चट्टानों में खनिज तेल पाया जाता है।
▪️एन्थ्रासाइट कोयले में 90 % से ज्यादा कार्बन होता है।
▪️लिग्नाइट को कोयले की सबसे उत्तम किस्म माना जाता है।
▪️अवसादी चट्टानें अधिकांशत: परतदार रूप में पाई जाती हैं।
▪️इनमें वनस्पति एवं जीव-जन्तुओं के जीवाश्म बड़ी मात्रा में पाये जाते हैं।
▪️इन चट्टानों में लौह अयस्क, फ़ॉस्फ़ेट, कोयला, पीट, बालुका पत्थर एवं सीमेन्ट बनाने की चट्टान पाई जाती हैं।
▪️खनिज तेल अवसादी चट्टानों में पाया जाता है।
▪️अप्रवेश्य चट्टानों की दो परतों के बीच यदि प्रवेश्य शैल की परत आ जाए, तो खनिज तेल के लिए अनुकूल स्थिति पैदा हो जाती है।
▪️दामोदर, महानदी तथा गोदावरी नदी बेसिनों की अवसादी चट्टानों में कोयला पाया जाता है।
▪️आगरा क़िला तथा दिल्ली का लाल क़िला बलुआ पत्थर नामक अवसादी चट्टानों से ही बना है।प्रमुख अवसादी शैलें हैं- बालुका पत्थर, चीका शेल, चूना पत्थर, खड़िया, नमक आदि।

अवसादी चट्टाने कायांतरित होकर क्वार्टजाइट बनती है।

3. #कायांतरित_चट्टाने (शैल):

आग्नेय एवं अवसादी शैलों में ताप और दाब के कारण परिर्वतन या रूपान्तरण हो जाने से कायांतरित शैल (metamorphic rock) का निमार्ण होता हैं। रूपांतरित चट्टानों (कायांतरित शैल) पृथ्वी की पपड़ी के एक बड़े हिस्सा से बनी होती है और बनावट, रासायनिक और खनिज संयोजन द्वारा इनको वर्गीकृत किया जाता है|

#कायांतरित_चट्टानों_के_कुछ_उदाहरण

▪️शैल – स्लेट
▪️चुना पत्थर – संगमरमर
▪️लिग्नाइट-एन्थ्रासाइट
▪️स्लेट – फाइलाइट
▪️फाइलाइट – सिस्ट

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विश्व_का_भूगोल :


पर्वत

पर्वत किसी भी पहाड़ी से ऊंचा व सीधी चढ़ाई वाला मिट्टी व चट्टानों का ढांचा होता है। सामान्यतः पर्वत धरती के एक निश्चित स्थान पर लगभग 600 मीटर ऊंचा धरती का उभार होता है। पर्वतों की परिभाषा यह हो सकती है कि वह खड़ी व सीधी ढलान, ऊपरी चपटा भाग तथा गोलाई लिये हुए या नुकीली चोटियों वाले उभार होते है। भूविज्ञानी किसी सीधे खड़े क्षेत्र को तभी पर्वत मानते है जब वहां विभिन्न ऊंचाईयों पर दो या अधिक प्रकार की जलवायु तथा वनस्पति की विविधता हो।

अनेक पर्वतों की पारस्परिक निकटतम स्थिति पर्वत श्रृंखला का निर्माण करती है। ऐसी ही अनेक समानान्तर पर्वत श्रृंखलाएं और बडी पर्वत श्रृंखलाओं का निर्माण करती हैं। उत्तरी अमेरीकी काडीलेरा, हिमालय, एल्प्स आदि विशाल पर्वतीय श्रृंखलाओं के उदाहरण हैं।

#विभिन्न_आधार_पर_पर्वतों_का_वर्गीकरण

भू-स्थल पर अनेक प्रकार के पर्वत पाए जाते हैं. ये पर्वत अपनी आयु, ऊंचाई, स्थिति, निर्माणकारी प्रक्रिया, बनावट आदि की दृष्टि से एक-दूसरे से इतने भिन्न होते हैं कि कोई भी दो पर्वत एक-दूसरे जैसे नहीं होते हैं. विद्वानों ने अलग-अलग आधार पर पर्वतों का वर्गीकरण किया है जो निम्नलिखित हैं:-

1. #आयु_के_आधार_पर_पर्वतों_का_वर्गीकरण

आयु के आधार पर पर्वतों को 4 भागों में वर्गीकृत किया गया है:

▪️(i) चर्नियन पर्वत: ये विश्व के प्राचीनतम पर्वत हैं. इनका निर्माण कैम्ब्रियन तथा पूर्व कैम्ब्रियन युग में लगभग 40 करोड़ वर्ष पहले हुआ था. भारत के धारवाड़, छोटानागपुर, अरावली तथा कुड़प्पा के पर्वत इसी श्रेणी में आते हैं.

▪️(ii) केलिडोनियन पर्वत: इन पर्वतों का निर्माण डेविनियन तथा सिलूरियन युग में लगभग 32 करोड़ वर्ष पहले हुआ था. उत्तरी अमेरिका के अप्लेशियन पर्वत तथा यूरोप में स्कॉटलैंड, स्कैण्डनेविया तथा उत्तरी आयरलैंड के पर्वत इस श्रेणी में आते हैं.

▪️(iii) हरसीनियन पर्वत: इन पर्वतों का निर्माण आज से लगभग 22 करोड़ वर्ष पूर्व कार्बन और परमियन कल्पों के बीच हुआ था. एशिया के टयानशान, नामशान, अल्टाई, जुगेरिया, ऑस्ट्रेलिया का पूर्वी कार्डिलेरा, यूरोप का पेनाइन, हार्ज वास्जेस, ब्लैक फॉरेस्ट पर्वत आदि इस श्रेणी में आते हैं.

▪️(iv) अल्पाइन पर्वत: इन पर्वतों का निर्माण आज से लगभग 3 करोड़ वर्ष पूर्व हुआ था. इस श्रेणी में अधिकांश नवीन वलित पर्वत आते हैं, जिनमें हिमालय, आल्प्स, रॉकीज, एण्डीज, पेरेनीज प्रमुख हैं.

2. #ऊंचाई_के_आधार_पर_पर्वतों_का_वर्गीकरण

प्रोफेसर फिंच ने पर्वतों को उनकी ऊंचाई के आधार पर 4 भागों में वर्गीकृत किया गया है:

▪️(i) निम्न पर्वत (Low Mountains): इन पर्वतों की ऊंचाई 2,000 फुट से 3,000 फुट तक होती है.

▪️(ii) कम ऊंचे पर्वत (Rough Mountains):  इन पर्वतों की ऊंचाई 3,000 से 4,500 फुट तक होती है.

▪️(iii) साधारण ऊंचे पर्वत (Rugged Mountains): इन पर्वतों की ऊंचाई 4,500 फुट से 6,000 फुट तक होती है.

▪️(iv) अधिक ऊंचे पर्वत (Siessan Mountains): इन पर्वतों की ऊंचाई 6,000 फुट से अधिक होती है.

3. #भौगोलिक_व्यवस्था_के_आधार_पर_पर्वतों_का #वर्गीकरण

प्रोफेसर पी.जी. वौरसेस्टर ने भौगोलिक व्यवस्था के आधार पर पर्वतों को 7 भागों में विभाजित किया है:

▪️(i) पर्वत समूह (Mountain Cluster):  इसके अन्तर्गत विभिन्न काल की और विभिन्न विधियों से बनी पर्वतमालाएं, पर्वत क्रम एवं पर्वत श्रेणियां आती हैं. ब्रिटिश कोलम्बिया का कार्डिलेरा पर्वत समूह इसका उदाहरण है.

▪️(ii) पर्वत तंत्र (Mountain System): एक ही काल और एक ही पर्वत से निर्मित अनेक पर्वत-श्रेणियों एवं पर्वत वर्गों के समूह को पर्वत तंत्र कहते हैं. संयुक्त राज्य अमेरिका का अप्लेशियन पर्वत इसका उत्तम उदाहरण है.

▪️(iii) पर्वत-श्रेणी (Mountain Range): जब एक ही प्रकार से बने हुए समान आयु के अनेक पर्वत एक लम्बी तथा संकरी पट्टी में व्यवस्थित होते हैं तो उसे पर्वत-श्रेणी कहा जाता है. हिमालय पर्वत श्रेणी इसका उदाहरण है.

▪️(iv) पर्वत वर्ग (Mountain Group): ये कई पर्वतों से मिलकर बनते हैं, किन्तु इसमें पर्वतों की कोई निश्चित व्यवस्था नहीं होती है. संयुक्त राज्य अमेरिका के कोलोरोडो राज्य में स्थित सान जुआन पर्वत इसका अच्छा उदाहरण है.

▪️(v) पर्वत कटक (Mountain Ridge): जब कोई स्थलखंड वलन अथवा भ्रंशन क्रिया के कारण एक मेहराब के रूप में ऊपर उठ जाता है तो उसे पर्वत कटक कहते हैं. सामान्यतः पर्वत कटक लम्बे और संकरे होते हैं. अप्लेशियन पर्वत की नीली पर्वत, पर्वत कटक का उदाहरण है.

▪️(vi) पर्वत श्रृंखला (Mountain Chain):  उत्पत्ति एवं आयु की दृष्टि से असमान पर्वत जब लम्बी और संकरी पट्टियों में पाये जाते हैं तो उन्हें पर्वत श्रृंखला कहा जाता है.

▪️(vii) एकाकी पर्वत (Individual Mountain): कभी-कभी किसी स्थल भाग के अत्यधिक अपरदन के कारण अथवा ज्वालामुखीय क्रिया के कारण एकाकी पर्वतों की रचना हो जाती है. ये पर्वत अपवादस्वरूप ही मिलते हैं.

4. #उत्पत्ति_के_आधार_पर_पर्वतों_का_वर्गीकरण

उत्पत्ति के आधार पर पर्वतों को 4 भागों में विभाजित किया गया है:

▪️(i) वलित पर्वत (Fold Mountains): वलित पर्वतों का निर्माण तलछटी चट्टानों में मोड़ पड़ने के कारण होता है. विद्वानों के अनुसार अब से तीन करोड़ वर्ष पहले पृथ्वी के विस्तृत निचले भागों में तलछटी चट्टानों का जमाव हो गया था, जिन्हें भू-अभिनति (Geosyncline) कहते हैं. समय के साथ पृथ्वी की अन्तर्जात शक्तियों के कारण इन चट्टानों पर पार्श्वीय सम्पीड़न होने लगा, जिसके कारण इन चट्टानों के कुछ भाग नीचे धंस गए और कुछ ऊपर की ओर उठ गए. नीचे धंसे हुए भाग को अभिनति (Syncline) तथा ऊपर उठे हुए भाग को अपनति (Anticline) कहते हैं. अपनति के रूप में ऊपर उठे हुए भाग को ही वलित पर्वत कहते हैं.
वर्तमान युग में सभी बड़े पर्वत वलित पर्वत हैं. एशिया में हिमालय, यूरोप में आल्प्स, उत्तरी अमेरिका में रॉकी तथा दक्षिणी अमेरिका में एण्डीज सभी वलित पर्वत के उदाहरण हैं.

▪️(ii) भ्रंश अथवा खंड पर्वत (Block Mountains): पृथ्वी की आंतरिक शक्तियों के कारण पृथ्वी की पपड़ी पर दरारें पड़ जाती हैं. ये दरारें भू-गर्भ में काम कर रही तनाव की शक्तियों के लम्बवत दिशा में कार्य करने से पड़ती हैं. इन शक्तियों के कारण यदि पृथ्वी के एक ओर का भाग ऊपर उठ जाए अथवा किसी क्षेत्र के आस-पास का भाग नीचे धंस जाए तो ऊपर उठे हुए भाग को भ्रंश पर्वत कहते हैं. फ्रांस का “वास्जेस”, जर्मनी का “ब्लैक फॉरेस्ट”, भारत का “विंध्याचल” एवं “सतपुड़ा” तथा पाकिस्तान का “साल्ट रेंज” भ्रंश पर्वत के उदाहरण हैं.

▪️(iii) ज्वालामुखी पर्वत (Volcanic Mountains): जब ज्वालामुखी से निकलने वाला गाढ़ा होता है तो वह अधिक दूर तक नहीं फैल पता है और ज्वालामुखी के मुख के पास ही जम कर एक पर्वत का निर्माण करता है, जिसे ज्वालामुखी पर्वत कहते हैं. जापान का फ्यूजियामा तथा म्यांमार का पोपा अम्लीय लावा से बना ज्वालामुखीय पर्वत है जबकि हवाई द्वीप समूह का मोनालोआ पर्वत क्षारीय लावा से बना ज्वालामुखीय पर्वत है.

▪️(iv) अवशिष्ट पर्वत (Residual Mountains or Reliet Mountains): इन पर्वतों का निर्माण के कारण होता है. नदी, वायु, हिमनदी जैसे अपरदन के कारक प्राचीनकालीन उच्च भूभाग को अपरदन के द्वारा कुरेद देते हैं. इसके बाद बाकी बचे हुए भाग को अवशिष्ट पर्वत अथवा घर्षित पर्वत कहते हैं. भारत में नीलगिरी, पारसनाथ तथा राजमहल की पहाड़ियां तथा मध्य स्पेन के सीयरा तथा अमेरिका के मैसा एवं बूटे की पहाड़ियां अवशिष्ट पर्वत के उदाहरण हैं.

#विश्व_के_पर्वत_श्रृंखलाओं_की_सूची

1. कॉर्डिलेरा डी लॉस एन्डिस
▪️स्थान: पश्चिमी दक्षिण अमेरिका
▪️सर्वोच्च चोटी: आकोंकागुआ या आकोंकाग्वा

2. रॉकी पर्वत
▪️स्थान: पश्चिमी दक्षिण अमेरिका
▪️सर्वोच्च चोटी: माउंट अल्बर्ट

3. हिमालय-काराकोरम-हिंदूकुश
▪️स्थान: दक्षिण मध्य एशिया
▪️सर्वोच्च चोटी: माउंट एवेरेस्ट

4. ग्रेट डिविडिंग रेंज
▪️स्थान: पूर्वी ऑस्ट्रेलिया
▪️सर्वोच्च चोटी: माउंट कोस्सिउसको

5. ट्रांस अंटार्कटिका पर्वत
▪️स्थान: अंटार्कटिका
▪️सर्वोच्च चोटी: माउंट विन्सन मासिफ

6. तिएन शान
▪️स्थान: दक्षिण मध्य एशिया
▪️सर्वोच्च चोटी: माउंट पाइक पोवेदा

7. अल्ताई
▪️स्थान: मध्य एशिया
▪️सर्वोच्च चोटी: माउंट गोरा वेलुखा

8. यूराल
▪️स्थान: मध्य रूस
▪️सर्वोच्च चोटी: माउंट गोरा नॉर्डनया

9. कमचटका
▪️स्थान: पूर्वी रूस
▪️सर्वोच्च चोटी: माउंट क्लेचशेकाया सोपका

10. एटलस
▪️स्थान: उत्तर-पश्चिम अफ्रीका
▪️सर्वोच्च चोटी: माउंट जेबेल टौक्काल

11. वेर्खोयांस्क
▪️स्थान: पूर्वी रूस
▪️सर्वोच्च चोटी: माउंट गोरा मास खाया

12. पश्चिमी घाट
▪️स्थान: पश्चिमी भारत
▪️सर्वोच्च चोटी: माउंट अनामुड़ी

13. सिएरा मेड्रे ओरिएंटल
▪️स्थान: मेक्सिको
▪️सर्वोच्च चोटी: माउंट ओरिजावा

14. जाग्रोस
▪️स्थान: ईरान
▪️सर्वोच्च चोटी: माउंट ज़द कुह

15. अलबुर्ज़
▪️स्थान: ईरान
▪️सर्वोच्च चोटी: माउंट दमावंद

16. स्कैंडिनेवियन रेंज
▪️स्थान: पश्चिमी नॉर्वे
▪️सर्वोच्च चोटी: माउंट गल्धोपिजें

17. पश्चिमी सिएरा माद्री
▪️स्थान: मेक्सिको
▪️सर्वोच्च चोटी: माउंट नेवादो डे कोलिमा

18. ड्रैकेंसबर्ग
▪️स्थान: दक्षिण पूर्व अफ्रीका
▪️सर्वोच्च चोटी: माउंट द्वानायेंतालेंयाना

19. काकेशस
▪️स्थान: रूस
▪️सर्वोच्च चोटी: माउंट एल्ब्रस (पश्चिमी चोटी)

20. अलास्का रेंज
▪️स्थान: अलास्का, अमेरिका
▪️सर्वोच्च चोटी: माउंट मैककिनले (दक्षिणी चोटी)

21. कैसकेड रेंज
▪️स्थान: अमेरिका-कनाडा
▪️सर्वोच्च चोटी: माउंट रेनियर

22. अपेंनिने
▪️स्थान: इटली
▪️सर्वोच्च चोटी: माउंट कॉर्न ग्रांडे

23. अप्पलाचियन
▪️स्थान: पूर्वी अमेरिका-कनाडा
▪️सर्वोच्च चोटी: माउंट मिशेल

24. ऐल्प्स
▪️स्थान: मध्य यूरोप
▪️सर्वोच्च चोटी: माउंट ब्लैंक

25. सिएरा मेड्रे डेल सुर
▪️स्थान: मेक्सिको
▪️सर्वोच्च चोटी: माउंट तिओपेक

विश्व के प्रमुख पर्वत श्रृंखलाओं की उपरोक्त सूची में विश्व के प्रमुख पर्वत तथा उनकी सर्वोच्च चोटी के नाम शामिल किये गए हैं जो परीक्षार्थियों, पर्वतारोही और यात्रियों की सामान्य जागरूकता में सहायक होंगे।

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विश्व_का_भूगोल :

भूकंप_व_ज्वालामुखी

#भूकंप

भूकम्प का साधारण अर्थ है भूमि का काँपना अर्थात पृथ्वी का हिलना । दूसरे शब्दो में अचानक झटके से प्रारंभ हुए पृथ्वी के कंपन को भूकंप कहते हैं। यदि किसी तालाब के शांत जल मे एक पत्थर फेका जाए तो जल के तल पर सभी दिशाओं में तरंगे फैल जाएँगी । इसी प्रकार से जब चट्टानों मे कोई आकस्मिक हलचल होती है तो उससे कंपन पैदा होता है उसी प्रकार भू- पर्पटी में आकस्मिक कंपन पैदा होता है जिससे तरंगें उत्पन होती है। तरंगे अपनी उत्पत्ति केंन्द्र से चारो ओर आगे बढ़ती हैं.

#भूकंप_का_केंद्र_तथा_अभिकेंद्र

विश्व के अधिकांश भूकंप भूतल से 50 से 100 कि. मी. की गहराई पर उत्पन्न होते हैं। जिस स्थान पर ये उत्पन्न होते है।

उसे उद्गम केंद्र (Focus) कहते हैं। इस उद्गम केंद्र के ठीक ऊपर पृथ्वी के धरातल पर स्थित स्थान को अधिकेंद्र (Epicentre) कहते हैं। भूकम्पीय तरंगें उद्गम केंद्र से सभी दिशाओं में चलती हैं।

भूकंपलेखी (Seismograph) यह एक बहुत ही संवेदनशील यंत्रा है जो हजारो कि0 मी0 दूर उत्पन्न हुए इतने कम शक्ति वाले छोटे भूकंपो का भी अभिलेख कर सकता है जिनकी पहचान सामान्यतः मानव अनुभूतियों द्वारा नही की जा सकती। इसकी रचना जड़त्व के सिद्धांत (Principle of Inertia) पर आधारित है। यह किसी भी द्रव्यमान जो या तो स्थिर है या एक सीधे मार्ग मे एक समान गति की अवस्था मे है, के परिवर्तन का प्रतिरोध करने की प्रवृति है। किसी पदार्थ का द्रव्यमान जितना अधिक होगा प्रतिरोध की प्रवृति भी उतनी ही अधिक होगी । इसमे क्षैतिज गति वाला यंत्रा प्रदर्शित किया गया है। एक भारी ठोस एक उध्र्व स्तम्भ से एक तार द्वारा लटकाया जाता है इसे क्षैतिज रखने के लिए तथा इसकी ऊध्र्वाधर गति रोकने के लिए एक छड़ (Beam) का उपयोग करते हैं। भारी ठोस से एक दर्पण लगा होता है। इस पर प्रकाश की तीव्र किरणे डाली जाती है जो परावर्तित होकर एक घुमने वाले ड्रम (Drum) पर पड़ती है इस ड्रम पर फिल्म लगी होती है। यदि भूकंप न आए तो ड्रम पर किरणे एक सीधा रेखा बनाती है। भूकंप आने पर यह रेखा टेढ़ी मेढ़ी हो जाती है । ऊध्र्व स्तम्भ पृथ्वी की गहरी आधार शैल पर मजबूती से गडा़ रहता है जिसमे भूकंप के समय यह स्तम्भ भी शैल के साथ गति कर सके।

भूकंपलेखी द्वारा प्रत्यक्ष रूप से दो माप किए जाते हैं:

▪️अभिलेखित की गई सबसे विशाल तरंग का आयाम
▪️पी एवं एस तरंगो के आगमन समय मे अंतर।

#भूकंप_की_भविष्यवाणी: यद्यपि भूकंप की भविष्यवाणी करना बहुत ही कठिन कार्य है तथापि इसके लिए दो विधियाँ प्रयोग की जाती हैं: (i) भूकंप के आने से ठीक पहले होने वाले विभिन्न प्रकार के भौतिक परिर्वतनों का मापन तथा (ii) भूकंप के ऐतिहासिक पृष्ठभूमि अर्थात प्रभावित क्षेत्रा का दीर्घकालीन भूकंपी इतिहास। भूकंप के समय होने वाले भौतिक परिर्वतन निम्नलिखित है:

1. #पी_तरंग_वेग: बहुत से छोटे छोटे भूकंप पी तरंगो के वेग मे परिर्वतन कर देते है जो कि किसी बड़े भूकंप के ठीक पहले सामान्य हो जाते है। इन परिर्वतन को भूकंपलेखी पर अभिलेखीत किया जाता है।

2. #भूमि_उत्थान: भूकंप से पहले भूखंड के धीमी गति से खिसकने से एक बड़ क्षेत्रा की शैलो मे असंख्य छोटी छोटी दरारें पड़ जाती है। इन नवनिर्मित दरारों मे भूमि गत जल प्रवेश कर जाता है। जल की उपस्थिति द्रवचालित जैक की भाँति कार्य करती है। जिससे शैलों मे उभार उत्पन्न हो जाते है। अतः बड़े भूकंप के आने से पहले भूमि गुंबदाकार आकृति मे फूल जाती है अथवा ऊपर उठ जाती है। इस परिर्वतन को दाबखादिता (क्पसंजंदबल) कहते है।

3. #रैडन_निकास (Rodon Emission): रैडन गैस का निकास किसी बड़े भूकंप के आने से पूर्व बढ़ जाता है । अतः रैडन गैस के निकास पर दृष्टि रखने से किसी बड़े भूकंप के आने की चेतावनी मिल सकती है।

4. #पशुओं_का_आचरण: प्रायः देखने मे आया है कि किसी बड़े भूकंप के आने से पहले जीव जन्तु विशेषतया बिलों मे रहने वाले जीव जन्तु असाधारण ढं़ग से व्यवहार करने लगते है। चीटिंयाँ दीमक तथा अन्य बिलों मे रहने वाले जीव अपने छिपने के स्थान से बाहर निकल आते है । चिड़ियाँ जोर जोर से चहचहाती है तथा कुत्ते एक नियत प्रकार से भौंकते तथा रोते हैं।

#प्रेरित_भूकंप (Induced Earthquake): ये भूकंप मनुष्य के कार्य कलाप द्वारा आते है । उदाहरणतया बम के धमाके से, रेलो के चलने से अथवा कारखानों मे भारी मशींनो के चलने से भी पृथ्वी मे कंपन होता रहता है । तेल के क्षेत्रो में द्रवस्थेैतिक दाब को बढ़ाने तथा तेल प्राप्ति मे वृद्धि करने के लिए तरल पदार्थो का पंपन किया जाता हैं । इससे छोटेे भूकंप पैदा होते है बड़े बड़े बाँध बनाने से भी भूकंप आते है । बाँधो के पीछे अथाह जलराशी की झील बन जाती है। इससे समस्थितिक संतुलन बिगड़ जाता है । और भूकंप आता है । महाराष्ट्र मे 11-12-1967 के दिन कोयना का भूकंप कोयना बाँध द्वारा अपार जलराशि जमा करने से ही आया था ।
भूकम्पो का वितरण (Distribution of Earthquakes)

भूकम्पों का विश्व - वितरण ज्वालामुखीयों के वितरण से मिलता - जुलता है। भूकम्प विश्व के कमजोर भागों मे ही अधिक आते है।

1. #प्रशान्त_महासागरीय_पेटी - विश्व के 68% भूकम्प प्रशान्त महासागर के तटीय भागों में आते हैं । इसे अग्निवलय (Ring of fire) कहते है। यहाँ पर ज्वालामुखी भी सबसे अधिक है। चिली कैलीफोर्निया ,अलास्का जापान, फिलीपाइन, न्यूजीलैंण्ड तथा मध्य माहासागरीय भागों मे हल्के तथा भीषण भूकम्प आते रहते है। यहाँ पर उच्च स्थलीय पर्वत तथा गहरी महासागरीय खाइयाँ एक दूसरे के लगभग समानान्तर चली गई है। इससे तीव्र ढ़ाल उत्पन्न होता हैं । जो भूकम्पो को आने का महत्वपूर्ण कारण बनता है।

2. #मध्य_विश्व_पेटी (Mid World Belt) - इस पेटी में विश्व के 21% भूकम्प आते हैं। यह पेटी मैक्सिको से शुरू होकर अटलांटिक महासागर भूमध्यसागर आल्प्स तथा काकेसस से होती हुई हिमालय पर्वत तथा उसके समीपवर्ती क्षेत्रों तक फैली हुई है।

3. #अन्य_क्षेत्रा- शेष 11% भूकम्प विश्व के अन्य भागों में आते है । कुछ भूकम्प अफ्रीकी झीलों लाल सागर तथा मृत सागर वाली पट्टी में आते है।

#ज्वालामुखी (Volcanoes)

ज्वालामुखी पृथ्वी पर होने वाली एक आकस्मिक घटना है। इससे भू - पटल पर अचानक विस्फोट होता है , जिसके द्वारा लावा गैस, धुआँ, राख, कंकड, पत्थर आदि बाहर निकलते हैं। इन सभी वस्तुओं का निकास एक प्राकृतिक नली द्वारा होता है जिसे निकास नालिका (Ventor Neck) कहते हैं। लावा धरातल पर आने के लिए एक छिद्र बनाता है जिसे विवर या क्रेटर (Crater) कहते है। लावा अपने विवर के आस पास जम जाता है और एक शंकु के आकार का पर्वत बनाता है। इसे ज्वालामुखी पर्वत कहते हैं। कई बार लावा मंुख्य नली के दोनो ओर के रन्ध्रों मे से होकर निकलता हैं। और छोटे -छोटे शंकुओं का निर्माण करता है। जिन्हे गौण शंकु (Secondary Cone) कहते है। सभी ज्वालामुखी मैग्मा से बनते है । मैग्मा धरातल के नीचे गर्म पिघला हुआ पदार्थ है जो धरातल पर लावा या ज्वालामुखी चट्टानी टुकड़ो के रूप मे बाहर आता हैं । लावा का तापमान बहुत अधिक अर्थात 800व से 1300व से0 तक होता है तथा इसमें भाप तथा कई अन्य गैसें मिली होती हैं।

#ज्वालामुखी_से_निःसृत_पदार्थ (Materials Ejected by Volcanoes)

ज्वालामुखी से गैस, तरल तथा ठोस तीनों प्रकार के पदार्थ निकलते है।

1. #गैसें - ज्वालामुखी उद्गार के समय कई प्रकार की गैसें निकलती है जिनमे बहुत ही प्रज्वलित गैसें (हाईड्रोजन सल्फाइड व कार्बन डाई सल्फाइड) जहरीली गैसें (कार्बन मोनो- आक्साइड व सल्फर डाई आक्साइड) तथा अन्य गैसे हाइड्रोक्लोरिक एसिड व आमोनिया क्लोराइड आदि) सम्मिलित हैं । गैसें मे जल वाष्प का महत्व सबसे अधिक है। ज्वालामुखी से बाहर निकलने वाली गैसें मे 60 से 90% अंश जलवाष्प का ही होता है। जलवाष्प वायुमण्डल के सम्पर्क मे आते ही ठण्डा हो जाता है और मुसलाधार वर्षा करता है।

2. #तरल_पदार्थ- ज्वालामुखी से निकलने वाले तरल पदार्थ को लावा कहते है। यह बहुत ही गर्म होता है। ताजा निष्कासित लावे का तापमान 600से 1200 डिग्री सेल्सियस तक होता है। कई बार लावे के साथ जल भी निकलता है। लावे की गति उसकी रासायनिक संरचना तथा भूमि के ढ़ाल पर निर्भर करती है। इसकी गति अधिकतर धीमी होती है। परन्तु कभी - कभी यह 15 कि0 मी0 प्रति घण्टा की गति से भी बहता है । जब लावा अधिक तरल हो तथा भूमि का ढ़ाल अति तीव्र हो तो यह 80 कि0 मी0 प्रति घण्टा की गति से भी बहता है।

3. #ठोस_पदार्थ - ज्वालामुखी विस्फोट के समय गैसें तथा तरल पदार्थो के साथ - साथ ठोस पदार्थ भी बड़ी मात्रा में निःसृत होते है ये बारीक धूल कणों तथा राख से लेकर कई टन भार वाले शिला खण्ड होते हैं। मटर के दाने जितने शिला-खण्डों को लैंपिली (Lapillus) तथा छह-सात सेंटीमीटर से लेकर एक मीटर व्यास वाले शिला - खण्डों को ज्वालामुखी बम्ब (Volcanic Bomb) कहते है। कभी कभी बहुत छोटे-छोटे नुकीले शिला खण्ड लावा से चिपककर संगठित हो जाते हैं। इन्हे ज्वालामुखी संकोणश्म (Volcanic Breecia) कहते है।

#ज्वालामुखी_के_प्रकार (Types of volcanoes)

ज्वालामुखी मुख्यतः निम्नलिखित प्रकार के होते हैं:

1. #सक्रिय_ज्वालामुखी (Active Volcanoes) इस प्रकार के ज्वालामुखी मे प्रायः विस्फोट तथा उद्भेदन होता ही रहता है इनका मुख सर्वदा खुला रहता है और समय समय पर लावा, धुआँ तथा अन्य पदार्थ बाहर निकलते रहते हैं और शंकु का निर्माण होता रहता है। इटली मे पाया जाने वाला एटना ज्वालामुखी इसका प्रमुख उदाहरण है जो कि 2500 वर्षो से सक्रिय है। सिसली द्वीप का स्ट्राम्बोली ज्वालामुखी प्रत्येक 15 मिनट बाद फटता है और भूमध्य सागर का प्रकाश मीनार कहलाता है।

2. #प्रसुप्त_ज्वालामुखी (Dorment Volcanoes) - इस प्रकार के ज्वालामुखी मे दीर्घकाल से उद्भेदन (विस्फोट) नही हुआ होता किन्तु इसकी सम्भावनाएँ बनी रहती है। ये जब कभी अचानक क्रियाशील हो जाते है तो जन धन की अपार क्षति होती है। इसके मुख से वाष्प तथा गैसें निकला करती है। इटली का विसूवियस ज्वालामुखी कई वर्ष तक प्रसुप्त रहने के पश्चात् सन् 1931 में अचानक फूट पड़ा जो इसका प्रमुख उदाहरण है।

3. #विलुप्त_ज्वालामुखी (Extinct Volcanoes) इस प्रकार के ज्वालामुखी में विस्फोट प्रायः बन्द हो जाते हैं। और भविष्य मे भी कोई विस्फोट होने की सम्भावना नही होती । इसका मुख, मिट्टी लावा आदि पदार्थो से बन्द हो जाता है और मुख का गहरा क्षेत्रा कालान्तर में झील के रूप मे बदल जाता है जिसके ऊपर पेड़ पौधे उग आते है। मयनमार का पोपा ज्वालामुखी इसका प्रमुख उदाहरण है।



Wednesday, June 17, 2020

Geography GK

Geography GK


1. महाद्वीप किसे कहते हैं ?
समुद्र तल से ऊपर उठे हुए पृथ्वी के विशाल भूखंडों को महाद्वीप कहते हैं ।
2. महाद्वीपों की संख्या कितनी है ?
सात ( एशिया, यूरोप, उत्तरी अमेरिका, दक्षिणी अमेरिका, अफ्रीका,ऑस्ट्रेलिया और अंटार्कटिका)
3. कौन से महाद्वीप उत्तरी गोलार्ध में स्थित हैं ?
एशिया, यूरोप और उत्तरी अमेरिका ।
4. कौन-से महाद्वीप दक्षिणी गोलार्द्ध में हैं ?
ऑस्ट्रेलिया एवं अंटार्कटिका ।
5. क्षेत्रफल के घटते क्रम में महादेशों का क्रम क्या है ?
एशिया > अफ्रीका > उत्तरी अमेरिका > दक्षिणी अमेरिका > अंटार्कटिका > यूरोप >ऑस्ट्रेलिया
6. एशिया और यूरोप को मिलाकर क्या कहते हैं ?
यूरेशिया
7. कौन-से महाद्वीप भूमध्यरेखा दोनों ओर फैले हुए हैं
दक्षिण अमेरिका और अफ्रीका
8. महाद्वीपीय विस्थापन संकल्पना का सिद्धांत किसने दिया ?
ए वेगनर
9. विश्व का सबसे बड़ा महादेश कौन-सा है ?
एशिया
10. एशिया महादेश का क्षेत्रफल संसार के भू-भाग का करीब कितना प्रतिशत है?
29.5 प्रतिशत
11. महाद्विपों का महाद्वीप तथा विषमताओं का महाद्वीप तथा मानव घर किसे कहा जाता है ?
एशिया
12. एशिया महाद्विप की चौहद्दी क्या है ?
उत्तर में ऑर्कटिक सागर, दक्षिण में हिंद महासागर, पूरब प्रशांत महासागर तथा पश्चिम में यूराल पर्वत ।
13. एशिया में विश्व की करीब कितनी प्रतिशत जनसंख्या निवास करती है ?
60 प्रतिशत
14. विश्व की सबसे ऊंची चोटी माऊंट एवरेस्ट कहां है?
एशिया
15. एवरेस्ट की चोटी को नेपाल में किस नाम से जानते है?
सागरमाथा
16. एशिया में विश्व का सबसे ऊंचा पठार कौन-सा है ?
पामीर (5000 मीटर)
17. विश्व की छत के नाम से कौन मशहूर है ?
पामीर पठार
18. विश्व का सबसे बड़ा प्रायद्वीप कहां स्थित है ?
एशिया (अरब का प्रायद्वीप)
19. एशिया के प्रमुख बंदरगाहकौन-से हैं ?
कोलकाला, मुंबई, चेन्नई, जकार्ता, कराची, मनीला, सिंगापुर, याकोहामा, शंघाई इत्यादि ।
20. एशिया में क्षेत्रफल की दृष्टि से सबसे बड़ा देश कौन-सा है ?
चीन
21. एशिया में क्षेत्रफल की दृष्टि से सबसे छोटा देश कौन-सा है ?
मालदीव
22. एशिया में सबसे लंबी नंदी कौन-सी है ?
यांगटिसीक्यांग
23. एशिया में सबसे अधिक गहरा कौन-सा सागर है ?
मृत सागर
24. विश्व का सबसे गहरा गर्त कहां है ?
एशिया के प्रशांत महासागर (मेरिया गर्त)
25. एशिया में विश्व की सबसे गहरी झील का क्या नाम है ?
बैकाल झील (रूस)
26. विश्व में सबसे अधिक ऊंचाई पर स्थित खारे पानी की झील का क्या नाम ह?
पैगांग झील (लद्दाख व तिब्बत)
27. विश्व की सबसे बड़ी झील का क्या नाम है ?
कैस्पियन सागर
28. सर्वाधिक लंबी तटीय सीमाकिस महाद्वीप की है ?
एशिया
29. एशिया में सर्वाधिक वर्षा वाला क्षेत्र कहां है ?
मासिनराम (मेघायलय,भारत)
30. एशिया का सबसे बड़ा रेलवे स्टेशन कहां है ?
पेइचिंग (चीन)
32. विश्व का सर्वाधिक डाकघरवाला देश कौन-सा है ?
भारत
33. संसार में सर्वाधिक प्राकृतिक रबड़ उत्पादित करने वाला देश कौन-सा है ?
थाईलैंड
34. विश्व का सर्वाधिक अभ्रक उत्पादन करने वाला देश कौन सा है ?
भारत (कोडरमा, झारखंड)
35. एशिया में विश्व का सर्वाधिक चाय उत्पादन करने वाला देश कौन-सा है ?
भारत
36. विश्व का सर्वाधिक टिन उत्खनित करने वाला देश कौन-सा है ?
चीन
37. पृथ्वी का शीत ध्रुव किसे कहा जाता है ?
एशिया महाद्वीप में स्थित बर्खोयांस्क
38. एशिया में सबसे घना बसा द्वीप कौन-सा है ?
जावा
39. एशिया का सबसे लंबा रेलमार्ग कौन-सा है ?
ट्रांस साइबेरियन रेलमार्ग
40. एशिया में विश्व का सर्वाधिक जलयान बनाने वाला देश कौन-सा है ?
जापान.

दुनिया के महत्वपूर्ण जलडरुमध्य

दुनिया के महत्वपूर्ण जलडरुमध्य

1) पॉल्क जलडरुमध्य
यह बंगाल की खाड़ी को मन्नार की खाड़ी से जोड़ता है।
2) जिब्राल्टर का जलडमरूमध्‍य
यह अटलांटिक महासागर को भूमध्य सागर से जोड़ता है और दक्षिण में मोरक्को से उत्तर में जिब्राल्टर और स्पेन को अलग करता है।
3) डंकन मार्ग
यह उत्तर और लिटिल अंडमान के दक्षिण में रटलैंड को अलग करने वाला एक जलडमरूमध्‍य है।
4) नौ डिग्री चैनल
यह चैनल कालापेनी, सुहेली पार एवं मलिकू एटोल के लैकाडिव द्वीप समूह को जोड़ता है।
5) दस डिग्री चैनल
यह बंगाल की खाड़ी में निकोबार द्वीप समूह से अंडमान द्वीप समूह को अलग करता है।
6) होरमुज का जलडरुमध्य
यह दक्षिण-पश्चिम में यू.ए.ई और ओमान के बीच और उत्तर-पूर्व में ईरान के बीच स्थित है। यह फ़ारस की खाड़ी को ओमान की खाड़ी से जोड़ता है। यह रणनीतिक रूप से बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि यह खाड़ी देशों के तेल व्यापार को नियंत्रित करता है।
7) बाब-अल–मंदाब का जलडरुमध्य
यह लाल सागर को एडेन की खाड़ी से जोड़ता है, और एशिया को अफ्रीका से अलग करता है।
8) मलक्का जलडरुमध्य
यह प्रायद्वीपीय मलेशिया को इंडोनेशिया के सुमात्रा द्वीप से अलग करता है। यह प्रशांत महासागर को हिंद महासागर से जोड़ता है। यह अंडमान सागर से दक्षिण चीन सागर के लिए एक छोटा मार्ग प्रदान करता है और इसलिए यह दुनिया का सबसे व्यस्त जलमार्ग है।
9) सुंदा जलडमरूमध्‍य
यह जावा सागर को हिंद महासागर से जोड़ता है और इंडोनेशिया के जावा द्वीप को इसके सुमात्रा द्वीप से अलग करता है।
10) बेरिंग जलडमरूमध्‍य
यह रूस और अलास्का को अलग करता है, और आर्कटिक महासागर में पूर्वी साइबेरियाई सागर को प्रशांत महासागर में बेरिंग सागर से जोड़ता है।
11) ओरान्तो जलडमरूमध्‍य
एड्रियाटिक सागर को आयोनियन सागर से जोड़ता है तथा इटली को अल्बानिया से अलग करता है।
12) बोस्फोरस जलडमरूमध्‍य
काला सागर को मर्मारा सागर से जोड़ता है। यह दुनिया का सबसे संकीर्ण नौगम्य जलडरुमध्य है।
13) डारडेनेल्‍लेस जलडमरूमध्‍य
यह एशियाई तुर्की और यूरोपीय तुर्की के बीच स्थित है, और एजियन सागर को मर्मरा सागर से जोड़ता है। यह काला सागर और भूमध्य सागर के बीच परिवहन की एक महत्वपूर्ण कड़ी है।
14) ला परौसेस जलडमरूमध्‍य
यह जापान के सखालिन द्वीप और होक्काइडो द्वीप के बीच स्थित है और सी ऑफ जापान के साथ ओखोत्‍स्क के सागर को जोड़ता है।
15) टर्टरी/टार्टर का जलडरुमध्य
यह रूसी द्वीप सखालिन को मुख्यभूमि एशिया से अलग करता है। यह उत्तर में ओखोटस्क सागर को दक्षिण में जापान के सागर से जोड़ता है।
16) सुगारु जलडमरूमध्‍य
यह उत्तरी जापान में होक्काइडो और होन्शू के बीच स्थित है और जापान सागर को प्रशांत महासागर से जोड़ता है।
17) ताइवान जलडमरूमध्‍य या फोरमोसा जलडमरूमध्‍य
यह ताइवान (चीन गणराज्य) और मुख्यभूमि चीन (पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ़ चाइना) के बीच स्थित है। यह दक्षिण चीन सागर को पूर्वी चीन सागर से जोड़ता है।
18) मोज़ाम्बीक जलडमरूमध्‍य
यह मेडागास्कर से मोजाम्बिक के बीच हिंद महासागर में स्थित है।
19) यूकातान जलडमरूमध्‍य
यह मेक्सिको और क्यूबा के बीच स्थित है, और मैक्सिको की खाड़ी को कैरेबियन सागर से जोड़ता है।
20) फ्लॉरिडा जलडमरूमध्‍य
यह संयुक्त राज्य अमेरिका के फ्लोरिडा राज्य और क्यूबा के बीच स्थित है।
21) हडसन जलडमरूमध्‍य
यह लैब्राडोर सागर के साथ हडसन की खाड़ी (कनाडा) को जोड़ता है।
22) डेविस जलडमरूमध्‍य
यह बाफिन की खाड़ी को अटलांटिक महासागर से जोड़ता है।
23) कुक जलडमरूमध्‍य
यह न्यूजीलैंड के उत्तर और दक्षिण द्वीपों के बीच स्थित है, और तस्मान सागर को दक्षिण प्रशांत महासागर से जोड़ता है।
24) बास जलडमरूमध्‍य
यह तस्मानिया को ऑस्ट्रेलियाई मुख्य भूमि से अलग करता है।
25) टोर्रेस जलडमरूमध्‍य
यह प्रशांत महासागर में, ऑस्ट्रेलिया के केप यॉर्क प्रायद्वीप और पापुआ न्यू गिनी के बीच स्थित है
26) मैगलन जलडमरूमध्‍य
यह मुख्य भूमि दक्षिण अमेरिका को टिएरा डेल फ्यूगो से अलग करता है (दक्षिण मुख्यभूमि के सबसे दक्षिणीसिरे पर स्थित एक द्वीपसमूह)
27) डोवर जलडमरूमध्‍य
यह इंग्लिश चैनल के सबसे संकरे हिस्से में स्थित है, जो इसे उत्तरी सागर से जोड़ता है। यह ब्रिटेन को महाद्वीपीय यूरोप से अलग करता है।
28) नॉर्थ चैनल
यह आयरलैंड को स्कॉटलैंड से अलग करता है, और आयरिश सागर को अटलांटिक महासागर से जोड़ता है।
जलडमरूमध्‍य के संदर्भ में महत्वपूर्ण तथ्य:
सबसे लंबा जलडरुमध्य: मलक्का जलडरुमध्य (800 कि.मी) अंडमान सागर को दक्षिण चीन सागर (प्रशांत महासागर) से जोड़ता है।
सबसे संकीर्ण जलडरुमध्य: काले सागर (ब्लैक सी) को मर्मारा सागर से जोड़ने वाला बोस्फोरस का जलडरुमध्य।
बेरिंग जलडमरूमध्‍य एशिया को अमेरिका से अलग करता है।
बॉस जलडमरूमध्‍य ऑस्ट्रेलिया को तस्मानिया से अलग करता है।
जिब्राल्टर जलडरुमध्य अफ्रीका को यूरोप से अलग करता है।

Monday, June 15, 2020

नदियों की रोचक जानकारी

नदियों की रोचक जानकारी

भूगोल GK

1. भागीरथी नाम से गंगा को कहां बुलाया जाता है ?
►-गंगोत्री के पास ( यह हिमानी गंगा का उद्गम स्थल है )
2. गंगोत्री कहां स्थित है और इसकी ऊंचाई कितनी है ?
►-उत्तराखंड के उत्तरकाशी जिले में 3900 किमी की ऊंचाई पर गोमुख के निकट गंगोत्री हिमानी गंगा का उद्गम स्त्रोत है ।
3. अलकनंदा का उद्गम स्त्रोत क्या है ?
►-बद्रीनाथ के ऊपर सतोपंथ हिमानी (अलकापुरी हिमनद)
4. गंगा नदी को गंगा कहकर कहां से बुलाया जाता है ?
►-देवप्रयाग के बाद । जहां अलकनंदा और भागीरथी आपस में मिलती है । और
हरिद्वार के निकट मैदानी भाग में पहुंचती है ।
5. गंगा को पद्मा नाम से कहां पुकारा जाता है ?
►-बांग्लादेश
6. सिंधु भारत में किस राज्य से होकर बहती है ?
►-जम्मू-कश्मीर
7. भारत और पाकिस्तान के बीच संधि जलसंधि कब हुआ था ?
►-1960 ई. (भारत इस नदी का 20 प्रतिशत पानी ही इस्तेमाल कर सकता है)
8. नदियां ➨और उनके उदगम स्थल ➨संगम/मुहाना?
►-सिंधु ➨ सानोख्याबाब हिमनद (तिब्बत के मानसरोवर झील के पास)➨अरब सागर
गंगा ➨ गंगोत्री ➨ बंगाल की खाड़ी
►-यमुना ➨ यमुनोत्री हिमानी (बंदरपूंछ के पश्चिमी ढाल पर स्थित) ➨ प्रयाग (इलाहाबाद)
►-चंबल ➨ जाना पाव पहाड़ी (मध्यप्रदेश के मऊ के नजदीक) ➨ इटावा (उ.प्र)
►-सतलज ➨ राकस ताल (मानसरोवर झील के नजदीक) ➨ चिनाब नदी
►-रावी ➨ कांगड़ा जिले में रोहतांग दर्रे के नजदीक ➨ चिनाब नदी
►-झेलम ➨ शेषनाग झील {बेरीनाग(कश्मीर) के नजदीक} ➨ चिनाब नदी
►-व्यास ➨ व्यास कुंड (रोहतांग दर्रा) ➨ कपूरथला (सतलज नदी)
►-कोसी ➨ गोसाईथान चोटी के उत्तर में ➨ गंगा नदी (कारागोला के दक्षिण-पश्चिम में)
►-गंडक ➨ नेपाल ➨ गंगा (पटना के नजदीक)
►-रामगंगा ➨ नैनीताल के नजदीक हिमालय श्रेणी का दक्षिणी भाग ➨ कन्नौज के निकट गंगा नदी
►-शारदा (काली गंगा) ➨ कुमायूं हिमालय ➨ घाघरा नदी (बहराम घाट के निकट)
►-घाघरा या करनाली या कौरियाला ➨ नेपाल में तकलाकोट से ➨ गंगा नदी (सारण तथा बलिया जिले की सीमा पर)
►-बेतवा या वेत्रवती ➨ विंध्याचल पर्वत (मध्यप्रदेश के रायसेन जिले के कुमारगांव के निकट) ➨ हमीरपुर (यमुना नदी में)
►-सोन ➨ अमरकंटक की पहाड़ियां ➨ पटना के नजदीक गंगा नदी में
►-ब्रह्मपुत्र ➨ तिब्बत के मानसरोवर झील से ➨ बंगाल खाड़ी
►-नर्मदा ➨ अमरकंटक (विध्याचल श्रेणी) ➨ खंभात की खाड़ी
►-ताप्ती ➨ मध्यप्रदेश के बैतुल जिले के मुल्ताई के निकट ➨ खंभात की खाड़ी (सूरत के पास)
►-महानदी ➨ सिहावा (छत्तीसगढ़ के रायपुर जिले के निकट) ➨ बंगाल की खाड़ी (कटक के निकट)
►-क्षिप्रा ➨ काकरी बरडी नामक पहाड़ी (इंदौर) ➨ चंबल नदी
►-माही ➨ मध्यप्रदेश के धार जिला के अमझोरा में मेहद झील ➨ खंभात की खाड़ी
►-लूनी ➨ अजमेर जिले में स्थित नाग पहाड़ (अरावली पर्वत) ➨ कच्छ की रन
►-हुगली ➨ यह गंगा की शाखा है, जो धुलिया(पं बंगाल) के दक्षिण गंगा से अलग होती है.. ➨ बंगाल की खाड़ी
►-कृष्णा ➨ महाबलेश्वर के निकट पश्चिम पहाड़ ➨ बंगाल की खाड़ी
►-गोदावरी ➨ महाराष्ट्र के नासिल जिले त्र्यंबक गांव की एक पहाड़ी ➨ बंगाल की खाड़ी
►-कावेरी ➨ ब्रह्मगिरी पहाड़ी (कर्नाटक के कुर्ग जिले में) ➨ बंगाल की खाड़ी
►-तुंगभद्रा ➨ गंगामूल चोटी से तुंगा और काडूर से भद्रा (कर्नाटक) ➨ कृष्णा नदी
►-साबरमती ➨ जयसमुद्र झील (उदयपुर जिले में अरावली पर्वत पर स्थित) ➨ खंभात की खाड़ी
►-सोम ➨ बीछा मेंडा (उदयपुर जिला) ➨ माही नदी (बपेश्वर के निकट)
►-पेन्नार ➨ नंदीदुर्ग पहाड़ी (कर्नाटक) ➨ बंगाल की खाड़ी
►-पेरियार (यह नदी केरल में बहती है) ➨ परियार झील
►-उमियम ➨ उमियम झील (मेघालय)
►-बैगाई ➨ कण्डन मणिकन्यूर में मदुरै के निकट (तमिलनाडु) ➨ बंगाल की खाड़ी
►-दक्षिणी टोंस ➨ तमसाकुंड जलाशय (कैमर की पहाड़ियों में स्थित) ➨ सिरसा के निकट गंगा में
►-आयड़ या बेडच ➨ गोमुंडा पहाड़ी (उदयपुर के उत्तर में) ➨ बनास नदी

Friday, June 12, 2020

विश्व_का_भूगोल SPECIAL

विश्व_का_भूगोल :

#पृथ्वी_का_भूगर्भिक_इतिहास

उल्का पिंडों एवं चन्द्रमा के चट्‌टानों के नमूनों के अध्ययन से स्पष्ट होता है कि हमारी पृथ्वी की आयु 4.6 अरब वर्ष है । पृथ्वी पर सबसे प्राचीन पत्थर नमूनों के रेडियोधर्मी तत्वों के परीक्षण से उसके 3.9 बिलियन वर्ष पुराना होने का पता चला है ।

रेडियोसक्रिय पदार्थों के अध्ययन के द्वारा पृथ्वी के आयु की सबसे विश्वसनीय व्याख्या हो सकी है । पियरे क्यूरी एवं रदरफोर्ड ने इनके आधार पर पृथ्वी की आयु दो से तीन अरब वर्ष अनुमानित की है

पृथ्वी के भूगर्भिक इतिहास की व्याख्या का सर्वप्रथम प्रयास फ्रांसीसी वैज्ञानिक कास्ते-द-बफन ने किया । वर्तमान समय में पृथ्वी के इतिहास को कई कल्प (Era) में विभाजित किया गया है । ये कल्प पुनः क्रमिक रूप से युगों (Epoch) में व्यवस्थित किए गए हैं ।

प्रत्येक युग पुनः छोटे उपविभागों में विभक्त किया गया है, जिन्हें ‘शक’ (Period) कहा जाता है । प्रत्येक शक की कालावधि निर्धारित की गई है तथा जीवों और वनस्पतियों के विकास पर भी प्रकाश डाला गया है ।

#पृथ्वी_के_भूगर्भिक_इतिहास_से_सम्बंधित_प्रमुख_तथ्य:

1. #आद्य_कल्प (Pre-Paleozoic Era):

इसे आर्कियन व प्री-कैम्ब्रियन दो भागों में बाँटा गया है:

i. #आर्कियन_काल (Archean Era):

इस काल के शैलों में जीवाश्मों का पूर्णतः अभाव है । इसलिए इसे प्राग्जैविक (Azoic) काल भी कहते हैं । इन चट्‌टानों में ग्रेनाइट और नीस की प्रधानता है, जिनमें सोना और लोहा पाया जाता है । इसी काल में कनाडियन व फेनोस्केंडिया शील्ड निर्मित हुए हैं ।

ii. #प्री_कैम्ब्रियन_काल (Pre-Cambrian Period):

इस काल में रीढ़विहीन जीव का प्रादुर्भाव हो गया था । इस काल में गर्म सागरों में मुख्यतः नर्म त्वचा वाले रीढ़विहीन जीव थे । यद्यपि समुद्रों में रीढ़युक्त जीवों का भी प्रादुर्भाव हो गया, परंतु स्थलभाग जीवरहित था । भारत में प्री-कैम्ब्रियन काल में ही अरावली पर्वत व धारवाड़ क्रम की चट्‌टानों का निर्माण हुआ ।

2. #पुराजीवी_महाकल्प (Paleozoic Era):

इसे प्राथमिक युग भी कहा जाता है ।

इसके निम्न उपभाग हैं:

i. #कैम्ब्रियन_काल (Cambrian Period):

इस काल में प्रथम बार स्थल भागों पर समुद्रों का अतिक्रमण हुआ । प्राचीनतम अवसादी शैलों (Sedimentary Rocks) का निर्माण कैम्ब्रियन काल में ही हुआ था । भारत में विंध्याचल पर्वतमाला का निर्माण इसी काल में हुआ था ।

पृथ्वी पर इसी काल में सर्वप्रथम वनस्पति एवं जीवों की उत्पत्ति हुई । ये जीव बिना रीढ़ की हड्‌डी वाले थे । इसी समय समुद्रों में घास की उत्पत्ति हुई ।

ii. #आर्डोविसियन_काल (Ordovician Period):

इस काल में समुद्र के विस्तार ने उत्तरी अमेरिका का आधा भाग डुबो दिया, जबकि पूर्वी अमेरिका टैकोनियन पर्वत निर्माणकारी गतिविधियों से प्रभावित हुआ । इस काल में वनस्पतियों का विस्तार हुआ तथा समुद्र में रेंगने वाले जीव भी उत्पन्न हुए । स्थल भाग अभी भी जीवविहीन था ।

iii. #सिल्यूरियन_काल (Silurian Period):

इस काल में सभी महाद्वीप पृथ्वी की कैलीडोनियन हलचल से प्रभावित हुए तथा इस काल में रीढ़ वाले जीवों का सर्वप्रथम आविर्भाव हुआ एवं समुद्रों में मछलियों की उत्पत्ति हुई । सिल्यूरियन काल में रीढ़ वाले जीवों का विस्तार मिलता है, इसलिए इसे ‘रीढ़ वाले जीवों का काल’ (Age of Vertebrates) कहते हैं ।

इस काल में प्रवाल जीवों का विस्तार मिलता है । स्थल पर पहली बार पौधों का उद्‌भव इसी समय हुआ । ये पौधे पत्ती विहीन थे तथा आस्ट्रेलिया में उत्पन्न हुए थे । यह काल व्यापक कैलिडोनियन पर्वतीय हलचलों का काल भी है । इसी समय स्कैंडिनेविया व स्कॉटलैंड के पर्वतों का निर्माण हुआ ।

iv. #डिवोनियन_काल (Devonian Period):

इस काल में कैलीडोनियन हलचल के परिणामस्वरूप सभी महाद्वीपों पर ऊँची पर्वत शृंखलाएँ विकसित हुई, जिसके प्रमाण स्कैंडिनेविया, दक्षिण-पश्चिम स्कॉटलैण्ड, उत्तरी आयरलैण्ड एवं पूर्वी अमेरिका में देखे जा सकते हैं । इस काल में पृथ्वी की जलवायु समुद्री जीवों विशेषकर मछलियों के सर्वाधिक अनुकूल थी । इसी समय शार्क मछली का भी आविर्भाव हुआ ।

अतः इसे ‘मत्स्य युग’ (Fish Age) के रूप में जाना जाता है । इसी समय उभयचर जीवों (Amphibians) की उत्पत्ति हुई तथा फर्न वनस्पतियों की भी उत्पत्ति हुई । पौधों की ऊँचाई 40 फीट तक पहुँच गई थी । इस समय कैलिडोनियन पर्वतीकरण भी बड़े पैमाने पर हुआ तथा ज्वालामुखी क्रियाएँ भी सक्रिय हुईं ।

v. #कार्बोनीफेरस_काल (Carboniferous Period):

इस काल में कैलीडोनियन हलचलों का स्थान आर्मेरिकन हलचलों ने ले लिया, जिससे ब्रिटेन एवं फ्रांस सर्वाधिक प्रभावित हुए तथा इस युग में उभयचरों का विकास व विस्तार बढ़ता गया । रेंगने वाले जीव (Raptiles) का भी स्थल पर आविर्भाव हुआ।

इस काल में 100 फीट ऊँचे पेड़ भी उत्पन्न हुए । यह ‘बड़े वृक्षों (ग्लोसोप्टिरस वनस्पतियों) का काल’ कहलाता है । इस समय बने भ्रंशों में पेड़ों के दब जाने से गोंडवाना क्रम के चट्‌टानों का निर्माण हुआ, जिसमें कोयले के व्यापक निक्षेप मिलते हैं ।

vi. #पर्मियन_काल (Permian Age):

इस काल में वैरीसन हलचल हुई, जिसने मुख्य रूप से यूरोप को प्रभावित किया । जलवायु धीरे-धीरे शुष्क होने लगी तथा इस समय वैरीसन हलचल के फलस्वरूप भ्रंशों के निर्माण के कारण ब्लैक फॉरेस्ट व वास्जेज जैसे भ्रंशोत्थ पर्वतों का निर्माण हुआ ।

स्पेनिश मेसेटा, अल्ताई, तिएनशान, अप्लेशियन जैसे पर्वत भी इसी काल में निर्मित हुए । इस समय स्थल पर जीवों व वनस्पतियों की अनेक प्रजातियों का विकास देखा गया । भ्रंशन के कारण उत्पन्न आंतरिक झीलों के वाष्पीकरण से पृथ्वी पर पोटाश भंडारों का निर्माण हुआ ।

3. #मध्यजीवी_महाकल्प (Mesozoic Era):

इसे द्वितीयक युग भी कहा जाता है ।

इसे ट्रियासिक, जुरैसिक व क्रिटेशियस कालों में बाँटा गया है:

i. #ट्रियासिक_काल (Triassic Period):

इस काल में स्थल पर बड़े-बड़े रेंगने वाले जीव का विकास हुआ । इसीलिए इसे ‘रेंगने वाले जीवों का काल’ (Age of Reptiles) कहा जाता है । यह काल आर्कियोप्टेरिक्स की उत्पत्ति का काल था । ये स्थल एवं आकाश दोनों में चल सकते थे ।

इस समय तीव्र गति से तैरने वाले लॉबस्टर (केकड़ा समूह का प्राणी) का उद्‌भव भी हुआ । स्तनधारी भी उत्पन्न होने लगे थे । मांसाहारी मत्स्यतुल्य रेप्टाइल्स सागरों में उत्पन्न हुए । रेप्टाइल्स में भी स्तनधारियों की उत्पत्ति हो गई थी ।

ii. #जुरैसिक_काल (Jurassic Period):

इस काल में मगरमच्छ के समान मुख और मछली के समान धड़ वाले जीव, डायनासोर रेप्टाइल्स का विस्तार हुआ एवं लॉबस्टर प्राणी बढ़ते चले गए तथा इस काल में जलचर, स्थलचर व नभचर तीनों का आविर्भाव हो गया था । जूरा पर्वत का सम्बंध इसी काल से जोड़ा जाता है । पुष्पयुक्त वनस्पतियाँ इसी काल में आई थीं ।

iii. #क्रिटेशियस_काल (Cretaceous Period):

इस काल में एंजियोस्पर्म (आवृत्तबीजी) पौधों का विकास प्रारंभ हुआ । बड़े-बड़े कछुओं का उद्‌भव भी इस काल में देखा गया । मैग्नेलिया व पोपनार जैसे शीतोष्ण पतझड़ वन के वृक्ष विकसित हुए । उत्तरी-पश्चिमी अलास्का, कनाडा, मैक्सिको, ब्रिटेन के डोबर क्षेत्र व आस्ट्रेलिया आदि में खड़िया मिट्‌टी का जमाव हुआ ।

पर्वतीकरण अत्यधिक सक्रिय था । रॉकी व एंडीज की उत्पत्ति आरंभ हो गई । भारत के पठारी भाग में क्रिटेशियस काल में ही ज्वालामुखी लावा का दरारी उद्‌भेदन हुआ, जिससे ‘दक्कन ट्रैप’ व काली मिट्‌टी का निर्माण हुआ है ।

4. #नवजीवी_महाकल्प (Cenozoic Era):

इस कल्प को तृतीयक या ‘टर्शियरी युग’ भी कहा जाता है । इसे पैल्योसीन, इओसीन, ओलीगोसीन, मायोसीन व प्लायोसीन कालों में बाँटा गया है । इसी कल्प के विभिन्न कालों में अल्पाइन पर्वतीकरण हुए तथा विश्व के सभी नवीन मोड़दार पर्वतों आल्प्स, हिमालय, रॉकी, एंडीज आदि की उत्पत्ति हुई ।

i. #पैल्योसीन_काल (Paleocene Period):

इस युग के दौरान हुई लैरामाइड हलचल के फलस्वरूप उत्तरी अमेरिका में रॉकी पर्वतमाला का निर्माण हुआ तथा स्थल पर स्तनपाइयों का विस्तार हुआ । इसी कल्प में सर्वप्रथम स्तनपाई (Mammalians) जीवों व पुच्छहीन बंदरों (Ape) का आविर्भाव हुआ ।

ii. #इओसीन_काल (Eocene Period):

इस युग में भूतल पर विभिन्न दरारों के माध्यम से ज्वालामुखी का उद्‌गार हुआ तथा स्थल पर रेंगने वाले जीव प्रायः विलुप्त हो गए । प्राचीन बंदर व गिब्बन म्यांमार में उत्पन्न हुए । हाथी, घोड़ा, रेनोसेरस (गैंडा), सूअर के पूर्वजों का आविर्भाव हुआ ।

iii. #ओलीगोसीन_काल (Oligocene Period):

इस काल में ‘अल्पाइन पर्वतीकरण’ प्रारंभ हुआ एवं इसी काल में बिल्ली, कुत्ता, भालू आदि की उत्पत्ति हुई । इसी काल में पुच्छहीन बंदर का आविर्भाव हुआ, जिसे मानव का पूर्वज कहा जा सकता है । ‘वृहत् हिमालय’ की उत्पत्ति का मुख्यकाल यही है ।

iv. #मायोसीन_काल (Miocene Period):

इस काल में अल्पाइन पर्वत निर्माणकारी गतिविधियों द्वारा सम्पूर्ण यूरोप एवं एशिया में वलनों का विकास हुआ, जिनके विस्तार की दिशा पूर्व-पश्चिम था ।

इस काल में बड़े आकार के (60 फीट) शार्क मछली, प्रोकानसल (पुच्छहीन बंदर), जल पक्षी (हंस, बत्तख) पेंग्विन आदि उत्पन्न हुए । हाथी का भी विकास इसी काल में हुआ । मध्य या लघु हिमालय की उत्पत्ति का मुख्य काल यही है ।

v. #प्लायोसीन_काल:

इस काल में समुद्रों के निरन्तर अवसादीकरण से यूरोप, मेसोपोटामिया, उत्तरी भारत, सिन्ध एवं उत्तरी अमेरिका में विस्तृत मैदानों का विकास हुआ तथा इस काल में बड़े स्तनपाई प्राणियों की संख्या में कमी आई । शार्क का विनाश हो गया, मानव के पूर्वज का विकास हुआ तथाआधुनिक स्तनपाइयों का आविर्भाव हुआ ।

शिवालिक की उत्पत्ति इसी काल में हुई । हिमालय पर्वतमाला एवं दक्षिण के प्रायद्वीपीय भाग के बीच स्थित जलपूर्ण द्रोणी टेथिस भू-सन्नति में अवसादों के जमाव से उत्तरी विशाल मैदान का आविर्भाव इसी काल में होने लगा था ।

5. #नूतन_महाकल्प (Neozoic Era):

इसे चतुर्थक युग भी कहा जाता है ।

प्लीस्टोसीन व होलोसीन इसके दो उपभाग हैं:

i. #प्लीस्टोसीन_काल (Pleistocene Period):

इस युग में तापमान का स्तर नीचे आ गया, जिसके कारण यूरोप ने क्रमशः चार हिमयुग देखा । जो इस प्रकार हैं- गुंज (Gunz), मिन्डेल (Mindel), रिस (Riss) एवं वुर्म (Wurm) । विभिन्न हिमकालों के बीच में अंतर्हिम काल (Inter Glacial Age) देखे गए जो तुलनात्मक रूप से उष्णकाल था । मिन्हेल व रिस के बीच का अंतर्हिम काल सर्वाधिक लम्बी अवधि का था ।

उत्तरी अमेरिका में इस समय नेब्रास्कन, कन्सान, इलीनोइन या आयोवा व विंस्कासिन हिमकाल देखे गए । नेब्रास्कन व कन्सान के बीच अफ्टोनियन, कन्सान व इलीनोइन के बीच यारमाउथ, इलीनोइन व विंस्कासिन के बीच संगमन अंतर्हिम काल था ।

इस युग के अंत में हिम चादर पिघलते चले गए एवं स्कैंडिनेवियन क्षेत्र की ऊँचाई में निरंतर वृद्धि हुई । पृथ्वी पर उड़ने वाले ‘पक्षियों का आविर्भाव’ प्लीस्टोसीन काल में ही माना जाता है । मानव तथा अन्य स्तनपाई जीव वर्तमान स्वरूप में इसी काल में विकसित हुए ।

ii. #होलोसीन_या_अभिनव_काल (Holocene or Innovative Period):

इस काल में तापमान वृद्धि के कारण प्लीस्टोसीन काल के हिम की समाप्ति हो गई तथा विश्व की वर्तमान दशा प्राप्त हुई जो अभी भी जारी है । इसी समय सागरीय जीव वर्तमान अवस्था को प्राप्त हुए । स्थल पर मनुष्य ने कृषि कार्य तथा पशुपालन प्रारंभ कर दिया ।

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#विश्व_का_भूगोल :
#पृथ्वी_की_गतियां

पृथ्वी की गति दो प्रकार की है

▪️घूर्णन अथवा दैनिक गति – पृथ्वी का अपने अक्ष पर घूमना घूर्णन कहलाता है।
▪️परिक्रमण अथवा वार्षिक गति– सूर्य के चारों ओर एक स्थिर कक्ष में पृथ्वी की गति को परिक्रमण कहते हैं।

#घूर्णन_अथवा_दैनिक_गति:

पृथ्वी सदैव अपने अक्ष पर पश्चिम से पूर्व लट्‌टू की भांति घूमती रहती है, जिसे ‘पृथ्वी का घूर्णन या परिभ्रमण’ कहते हैं । इसके कारण दिन व रात होते हैं । अतः इस गति को ‘दैनिक गति’ भी कहते हैं ।

i. #नक्षत्र_दिवस :

एक मध्याह्न रेखा के ऊपर किसी निश्चित नक्षत्र के उत्तरोत्तर दो बार गुजरने के बीच की अवधि को नक्षत्र दिवस कहते हैं । यह 23 घंटे व 56 मिनट अवधि की होती है ।

ii. #सौर_दिवस :

जब सूर्य को गतिहीन मानकर पृथ्वी द्वारा उसके परिक्रमण की गणना दिवसों के रूप में की जाती है तब सौर दिवस ज्ञात होता है । इसकी अवधि पूरे 24 घंटे की होती है ।

#परिक्रमण_अथवा_वार्षिक_गति:

पृथ्वी अपने अक्ष पर घूमने के साथ-साथ सूर्य के चारों ओर एक अंडाकार मार्ग (Geoid) पर 365 दिन तथा 6 घंटे में एक चक्कर पूरा करती है । पृथ्वी के इस अंडाकार मार्ग को ‘भू-कक्षा’ (Earth Orbit) कहते हैं । पृथ्वी की इस गति को परिक्रमण या वार्षिक गति कहते हैं ।

i. #उपसौर :

पृथ्वी जब सूर्य के अत्यधिक पास होती है तो इसे उपसौर कहते हैं । ऐसी स्थिति 3 जनवरी को होती है ।

ii. #अपसौर :

पृथ्वी जब सूर्य से अधिकतम दूरी पर होती है तो इसे अपसौर कहते हैं । ऐसी स्थिति 4 जुलाई को होती है ।

#दिन_रात_का_छोटा_व_बड़ा_होना:

यदि पृथ्वी अपनी धुरी पर झुकी हुई न होती तो सर्वत्र दिन-रात बराबर होते । इसी प्रकार यदि पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा न करती तो एक गोलार्द्ध में दिन सदा ही बड़े और रातें छोटी रहती जबकि दूसरे गोलार्द्ध में रातें बड़ी और दिन छोटे होते । परंतु विषुवतरेखीय भाग को छोड़कर विश्व के अन्य सभी भागों में विभिन्न ऋतुओं में दिन-रात की लम्बाई में अंतर पाया जाता है ।

विषुवत रेखा पर सदैव दिन-रात बराबर होते हैं, क्योंकि इसे प्रकाश वृत्त हमेशा दो बराबर भागों में बाँटता है । अतः विषुवत रेखा का आधा भाग प्रत्येक स्थिति में प्रकाश प्राप्त करता है ।

#पृथ्वी_पर_दिन_और_रात_की_स्थिति :

21 मार्च से 23 सितम्बर की अवधि में उत्तरी गोलार्द्ध सूर्य का प्रकाश 12 घंटे या अधिक समय तक प्राप्त करता है । अतः यहाँ दिन बड़े एवं रातें छोटी होती हैं । जैसे-जैसे उत्तरी ध्रुव की ओर बढ़ते जाते हैं, दिन की अवधि भी बढ़ती जाती है ।

उत्तरी ध्रुव पर तो दिन की अवधि छः महीने की होती है । 23 सितम्बर से 21 मार्च तक सूर्य का प्रकाश दक्षिणी गोलार्द्ध में 12 घंटे या अधिक समय तक प्राप्त होता है ।

जैसे-जैसे दक्षिणी ध्रुव की ओर बढ़ते हैं, दिन की अवधि भी बढ़ती है । दक्षिणी ध्रुव पर इसी कारण छः महीने तक दिन रहता है । इस प्रकार उत्तरी ध्रुव एवं दक्षिणी ध्रुव दोनों पर ही छः महीने तक दिन व छः महीने तक रात रहती है ।

#ऋतु_परिवर्तन :

चूंकि पृथ्वी न सिर्फ अपने अक्ष पर घूमती है वरन् सूर्य की परिक्रमा भी करती है । अतः पृथ्वी की सूर्य से सापेक्ष स्थितियाँ बदलती रहती हैं ।

पृथ्वी के परिक्रमण में चार मुख्य अवस्थाएँ आती हैं तथा इन अवस्थाओं में ऋतु परिवर्तन होते हैं:

i. #21_जून_की_स्थिति :

इस समय सूर्य कर्क रेखा पर लम्बवत् चमकता है । इस स्थिति को ग्रीष्म अयनांत (Summer Solistice) कहते हैं । वस्तुतः 21 मार्च के बाद सूर्य उत्तरायण होने लगता है तथा उत्तरी गोलार्द्ध में दिन की अवधि बढ़ने लगती है, जिससे वहाँ ग्रीष्म ऋतु का आगमन होता है ।

21 जून को उत्तरी गोलार्द्ध में दिन की लम्बाई सबसे अधिक रहती है । दक्षिणी गोलार्द्ध में इस समय शीत ऋतु होती है । 21 जून के पश्चात् 23 सितम्बर तक सूर्य पुनः विषुवत रेखा की ओर उन्मुख होता है । परिणामस्वरूप धीरे-धीरे उत्तरी गोलार्द्ध में गर्मी कम होने लगती है ।

ii. #22_दिसम्बर_की_स्थिति :

इस समय सूर्य मकर रेखा पर लम्बवत् चमकता है । इस स्थिति को शीत अयनांत (Winter Solistice) कहते हैं । इस समय दक्षिणी गोलार्द्ध में दिन की अवधि लम्बी व रात छोटी होती हैं ।

वस्तुतः सूर्य के दक्षिणायन होने अर्थात् दक्षिणी गोलार्द्ध में उन्मुख होने की प्रक्रिया 23 सितम्बर के बाद प्रारंभ हो जाती है, जिससे दक्षिणी गोलार्द्ध में दिन बड़े व रातें छोटी होने लगती हैं ।

इस समय उत्तरी गोलार्द्ध में ठीक विपरीत स्थिति देखी जाती है । 22 दिसम्बर के उपरान्त 21 मार्च तक सूर्य पुनः विषुवत रेखा की ओर उन्मुख होता है तथा दक्षिणी गोलार्द्ध में धीरे-धीरे ग्रीष्म ऋतु की समाप्ति हो जाती है ।

iii. #21_मार्च_व_23_सितम्बर_की_स्थितियाँ :

इन दोनों स्थितियों में सूर्य विषुवत रेखा पर लम्बवत चमकता है । अतः इस समय समस्त अक्षांश रेखाओं का आधा भाग सूर्य का प्रकाश प्राप्त करता है । अतः सर्वत्र दिन व रात की अवधि बराबर होती है ।

इस समय दिन व रात की अवधि के बराबर रहने एवं ऋतु की समानता के कारण इन दोनों स्थितियों को ‘विषुव’ अथवा ‘सम रात-दिन’ (Equinox) कहा जाता है । 21 मार्च की स्थिति को ‘बसंत विषुव’ (Spring Equinox) एवं 23 सितम्बर वाली स्थिति को ‘शरद विषुव’ (Autumn Equinox) कहा जाता है ।

#ज्वार_भाटा :

सूर्य व चन्द्रमा की आकर्षण शक्तियों के कारण सागरीय जल के ऊपर उठने तथा गिरने को ‘ज्वार भाटा’ कहा जाता है । इससे उत्पन्न तरंगों को ज्वारीय तरंग कहते हैं । विभिन्न स्थानों पर ज्वार-भाटा की ऊँचाई में पर्याप्त भिन्नता होती है, जो सागर में जल की गहराई, सागरीय तट की रूपरेखा तथा सागर के खुले होने या बंद होने पर आधारित होती है ।

यद्यपि सूर्य चन्द्रमा से बहुत बड़ा है, तथापि सूर्य की अपेक्षा चन्द्रमा की आकर्षण शक्ति का प्रभाव दोगुना है । इसका कारण सूर्य का चन्द्रमा की तुलना में पृथ्वी से दूर होना है ।

24 घंटे में प्रत्येक स्थान पर दो बार ज्वार भाटा आता है । जब सूर्य, पृथ्वी तथा चन्द्रमा एक सीधी रेखा में होते हैं तो इस समय उनकी सम्मिलित शक्ति के परिणामस्वरूप दीर्घ ज्वार का अनुभव किया जाता है । यह स्थिति सिजिगी (Syzygy) कहलाती है । ऐसा पूर्णमासी व अमावस्या को होता है ।

इसके विपरीत जब सूर्य, पृथ्वी व चन्द्रमा मिलकर समकोण बनाते हैं तो चन्द्रमा व सूर्य का आकर्षण बल एक दूसरे के विपरीत कार्य करते हैं । फलस्वरूप निम्न ज्वार का अनुभव किया जाता है । ऐसी स्थिति कृष्ण पक्ष एवं शुक्ल पक्ष के सप्तमी या अष्टमी को देखा जाता है । लघु ज्वार सामान्य ज्वार से 20% नीचा व दीर्घ ज्वार सामान्य ज्वार से 20% ऊँचा होता है ।

पृथ्वी पर चन्द्रमा के सम्मुख स्थित भाग पर चन्द्रमा की आकर्षण शक्ति के कारण ज्वार आता है, किन्तु इसी समय पृथ्वी पर चन्द्राविमुखी भाग पर ज्वार आता है । इसका कारण पृथ्वी के घूर्णन को संतुलित करने के लिए अपकेन्द्री बल (Centrifugal Force) का शक्तिशाली होना है ।

उपरोक्त बलों के प्रभाव के कारण प्रत्येक स्थान पर 12 घंटे के बाद ज्वार आना चाहिए किन्तु यह प्रति दिन लगभग 26 मिनट की देरी से आता है । इसका कारण चन्द्रमा का पृथ्वी के सापेक्ष गतिशील होना है ।

कनाडा के न्यू ब्रंसविक तथा नोवा स्कोशिया के मध्य स्थित फंडी की खाड़ी में ज्वार की ऊँचाई सर्वाधिक (15 से 18 मी.) होती है, जबकि भारत के ओखा तट पर मात्र 2.7 मी. होती है ।

इंग्लैंड के दक्षिणी तट पर स्थित साउथैम्पटन में प्रतिदिन चार बार ज्वार आते हैं । ऐसा इसलिए होता है क्योंकि ये दो बार इंग्लिश चैनल होकर एवं दो बार उत्तरी सागर से होकर विभिन्न अंतरालों पर वहाँ पहुँचते हैं ।

नदियों को बड़े जलयानों के लिए नौ संचालन योग्य बनाने में ज्वार सहायक होतेहैं । टेम्स और हुगली नदियों में प्रवेश करने वाले ज्वारीय धाराओं के कारण ही क्रमशः लंदन व कोलकाता महत्वपूर्ण पत्तन बन सके हैं । नदियों द्वारा लाए गए अवसाद भाटा के साथ बहकर समुद्र में चले जाते हैं तथा इस प्रकार डेल्टा निर्माण की प्रक्रिया में बाधा पहुँचती है ।

जल विद्युत के उत्पादन हेतु भी ज्वारीय ऊर्जा का प्रयोग किया जाता है । फ्रांस व जापान में ज्वारीय ऊर्जा पर आधारित कुछ विद्युत केन्द्र विकसित किए गए हैं । भारत में खंभात की खाड़ी व कच्छ की खाड़ी में इसके विकास की अच्छी संभावना है ।

#ज्वार_भाटा_के_उत्पत्ति_की_संकल्पनाएँ :

i. न्यूटन का गुरूत्वाकर्षण बल सिद्धान्त (1687 ई.)
ii. लाप्लास का गतिक सिद्धान्त (1755 ई.)
iii. ह्वैवेल का प्रगामी तरंग सिद्धांत (1833 ई.)
iv. एयरी का नहर सिद्धांत (1842 ई.)
v. हैरिस का स्थैतिक तरंग सिद्धान्त

#सूर्यग्रहण_और_चन्द्रग्रहण :

पृथ्वी और चन्द्रमा दोनों को प्रकाश सूर्य से मिलता है । पृथ्वी पर से चन्द्रमा का एक भाग ही दिखता है, क्योंकि पृथ्वी और चन्द्रमा की घूर्णन गति समान है । पृथ्वी पर चन्द्रमा का सम्पूर्ण प्रकाशित भाग महीने में केवल एक बार अर्थात् पूर्णिमा (Full Moon) को दिखाई देता है ।

इसी प्रकार महीने में एक बार चन्द्रमा का सम्पूर्ण अप्रकाशित भाग पृथ्वी के सामने होता है तथा तब चन्द्रमा दिखाई नहीं देता; इसे अमावस्या (New Moon) कहते हैं ।

जब सूर्य, पृथ्वी और चन्द्रमा एक सरल रेखा में होते हैं तो इस स्थिति को युति-वियुति (Conjuction) या सिजिगी (Syzygy) कहते हैं, जिसमें युति सूर्यग्रहण की स्थिति में व वियुति (Opposition) चन्द्रग्रहण की स्थिति में बनते हैं ।

जब पृथ्वी, सूर्य और चन्द्रमा के बीच आ जाता है तो सूर्य की रोशनी चन्द्रमा तक नहीं पहुँच पाती तथा पृथ्वी की छाया के कारण उस पर अंधेरा छा जाता है । इस स्थिति को चन्द्रग्रहण (Lunar Eclipse) कहते हैं । चन्द्रग्रहण हमेशा पूर्णिमा की रात को होता है ।

सूर्यग्रहण की स्थिति तब बनती है, जब सूर्य एवं पृथ्वी के बीच चन्द्रमा आ जाए तथा पृथ्वी पर सूर्य का प्रकाश न पड़कर चन्द्रमा की परछाईं पड़े । सूर्यग्रहण (Solar Eclipse) हमेशा अमावस्या को होता है । प्रत्येक अमावस्या को सूर्यग्रहण एवं प्रत्येक पूर्णिमा को चन्द्रग्रहण लगना चाहिए, परंतु ऐसा नहीं होता क्योंकि चन्द्रमा अपने अक्ष पर 50 झुकाव लिए हुए है ।

जब चन्द्रमा और पृथ्वी एक ही बिंदु पर परिक्रमण पथ में पहुँचती हैं तो उस समय चन्द्रमा अपने अक्षीय झुकाव के कारण थोड़ा आगे निकल जाता है ।

इसी कारण प्रत्येक पूर्णिमा और अमावस्या की स्थिति में ग्रहण नहीं लगता एक वर्ष में अधिकतम सात चन्द्रग्रहण एवं सूर्यग्रहण की स्थिति हो सकती है पूर्ण सूर्यग्रहण देखे जाते हैं, परंतु पूर्ण चन्द्र ग्रहण प्रायः नहीं देखा जाता, क्योंकि सूर्य, चन्द्रमा एवं पृथ्वी के आकार में पर्याप्त अंतर है ।

22 जुलाई, 2009 को 21वीं सदी का सबसे लंबा पूर्ण सूर्यग्रहण देखा गया । सूर्यग्रहण के समय बड़ी मात्रा में पराबैंगनी (Ultra Violet) किरणें उत्सर्जित होती हैं इसीलिए नंगी आँखों से सूर्य ग्रहण देखने से मना किया जाता है । पूर्ण सूर्यग्रहण के समय सूर्य के परिधीय क्षेत्रों में हीरक वलय (Diamond Ring) की स्थिति बनती है ।


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#विश्व_का_भूगोल :
#अक्षांश_और_देशांतर_रेखाएं

पृथ्वी में किसी स्थान की भौगोलिक स्थिति का निर्धारण अक्षांश (latitude) और देशांतर (Longitude) रेखाओं द्वारा किया जाता है।

किसी स्थान का अक्षांश (latitude), धरातल पर उस स्थान की  “उत्तर से दक्षिण” की स्थिति को तथा किसी स्थान का देशांतर (Longitude), धरातल पर उस स्थान की “पूर्व से पश्चिम” की स्थिति को प्रदर्शित करता है। उत्तरी ध्रुवों (North Pole) व दक्षिणी ध्रुवों (South Pole) के अक्षांश (latitude) क्रमशः 90° उत्तर तथा 90° दक्षिण है।

नोट : किसी भी स्थान के देशांतर (Longitude) को प्रधान याम्योत्तर (Prime Mediterranean) के सापेक्ष अभिव्यक्त किया जाता है।

#अक्षांश_रेखाएँ (Latitude lines)

भूमध्य रेखा (Equator) के समानांतर से किसी भी स्थान की उत्तरी अथवा दक्षिणी ध्रुव की ओर की ओर खींची गई रेखाओं को अक्षांश (latitude) रेखा कहते है। भूमध्य रेखा (Equator) को (0°) की अक्षांश रेखा माना गया है। भूमध्य रेखा (Equator) से उत्तरी ध्रुव की ओर की सभी दूरियाँ उत्तरी अक्षांश और दक्षिणी ध्रुव की ओर की सभी दूरियाँ दक्षिणी अक्षांश में मापी जाती है। ध्रुवों की ओर बढ़ने पर भूमध्य रेखा (Equator) से अक्षांश (latitude) की दूरी बढ़ने लगती है। इसके अतिरिक्त सभी अक्षांश रेखाएँ (Latitude lines) परस्पर समानांतर और पूर्ण वृत्त होती हैं। ध्रुवों की ओर जाने से वृत्त छोटे होने लगते हैं। 90° का अक्षांश ध्रुव पर एक बिंदु में परिवर्तित हो जाता है।

#महत्वपूर्ण_वृत्त

▪️विषुवत् वृत्त (0°) (E)
▪️उत्तर ध्रुव (90°)
▪️दक्षिण ध्रुव (90°)

#महत्त्वपूर्ण_अक्षांश_रेखाएँ

▪️विषुवत्  रेखा (0°) (Equator Line)
▪️उत्तरी गोलार्ध में कर्क रेखा (23.5°) (Cancer Line)
▪️दक्षिणी गोलार्ध में मकर रेखा (23.5°)  (Capcorian line)

#पृथ्वी_के_ताप_कटिबंध

#उष्ण_कटिबंध – कर्क रेखा एवं मकर रेखा के बीच के सभी अक्षांशों पर सूर्य वर्ष में एक बार दोपहर में सिर के ठीक ऊपर होता है। इसलिए इस क्षेत्र में सबसे अधिक ऊष्मा प्राप्त होती है तथा इसे उष्ण कटिबंध कहा जाता है। कर्क रेखा तथा मकर रेखा के बाद किसी भी अक्षांश पर दोपहर का सूर्य कभी भी सिर के ऊपर नहीं होता है। ध्रुव की तरफ सूर्य की किरणें तिरछी होती जाती हैं।

#शीतोष्ण_कटिबंध – उत्तरी गोलार्ध में कर्क रेखा एवं उत्तर ध्रुव वृत्त तथा दक्षिणी गोलार्ध में मकर रेखा एवं दक्षिण ध्रुव वृत्त के बीच वाले क्षेत्र का तापमान मध्यम रहता है। इसलिए इन्हें, शीतोष्ण कटिबंध कहा जाता है।

#शीत_कटिबंध – उत्तरी गोलार्ध में उत्तर ध्रुव वृत्त एव  उत्तरी ध्रुव तथा दक्षिणी गोलार्ध में दक्षिण ध्रुव वृत्त एव  दक्षिणी ध्रुव  के बीच के क्षेत्र में ठडं बहतु होती है। क्योंकि, यहाँ सूर्य क्षितिज से ज़्यादा ऊपर नहीं आ पाता है। इसलिए ये शीत कटिबंध कहलाते हैं।

#देशांतर_रेखाएँ (Longitudes lines)

उत्तरी ध्रुव से दक्षिणी ध्रुव को मिलाने वाली 360 डिग्री रेखाओं को देशांतर रेखाएं कहा जाता है, यह ग्‍लोब पर उत्तर से दक्षिण  दोनों भूगोलीय ध्रुवों (उत्तरी ध्रुव से दक्षिणी ध्रुव ) के बीच खींची हुई काल्पनिक मध्याह्न रेखाओं को देशांतर रेखाएं कहा जाता है । जो मध्याह्न रेखा जिस बिंदु या स्थान से गुजरती है उसका कोणीय मान उस स्थान का देशांतर होता है। सभी देशांतर रेखाएं अर्ध-वृत्ताकार होती हैं। ये समांनांतर नहीं होती हैं व उत्तरी व दक्षिणी ध्रुवों पर अभिसरित होकर मिल जाती हैं।

ग्रीनविच , जहाँ ब्रिटिश राजकीय वेधशाला स्थित है, से गुजरने वाली याम्योत्तर से पूर्व और पश्चिम की ओर गिनती शुरू की जाए। इस याम्योत्तर को प्रमुख याम्योत्तर (Prime Mediterranean)  कहते हैं। इसका मान 0° देशांतर है तथा यहाँ से हम 180° पूर्व या 180° पश्चिम तक गणना करते हैं। प्रधान याम्योत्तर (Prime Mediterranean) तथा 180° याम्योत्तर मिलकर पृथ्वी को दो समान भागों, पूर्वी गोलार्ध एवं पश्चिमी गोलार्ध में विभक्त करती है। इसलिए किसी स्थान के देशांतर के आगे पूर्व के लिए अक्षर पू. तथा पश्चिम के लिए अक्षर प. का उपयोग करते हैं।  180° पूर्व और 180° पश्चिम याम्योत्तर एक ही रेखा पर स्थित हैं।

#देशांतर_और_समय (Longitude & Time)

समय को मापने का सबसे अच्छा साधन पृथ्वी, चंद्रमा एवं ग्रहों की गति है। सूर्योदय एवं सूर्यास्त प्रतिदिन होता है। अतः स्वाभाविक ही है कि यह पूरे विश्व में समय निर्धारण का सबसे अच्छा साधन है। स्थानीय समय का अनुमान सूर्य के द्वारा बनने वाली परछाईं से लगाया जा सकता है, जो दोपहर में सबसे छोटी एवं सूर्योदय तथा सूर्यास्त केसमय सबसे लंबी होती है।

ग्रीनविच  पर स्थित प्रमुख याम्योत्तर पर सूर्य जिस समय आकाश के सबसे ऊँचे बिंदु पर होगा, उस समय याम्योत्तर पर स्थित सभी स्थानों
पर दोपहर होगी। चूँकि, पृथ्वी पश्चिम से पूर्व की ओर चक्कर लगाती है, अतः वे स्थान जो  ग्रीनविच  के पूर्व में हैं, उनका समय ग्रीनविच समय से आगे होगा तथा जो पश्चिम में हैं, उनका समय पीछे होगा ।

भारत के मध्य भाग इलाहाबाद के मिर्जापुर के नैनी से होकर गुजरने वाली  याम्योत्तर रेखा (82,1/2°) (Standard Mediterranean Line) के स्थानीय समय को देश का मानक समय माना जाता है।
पृथ्वी लगभग 24 घंटे में अपने अक्ष पर 360° घूम जाती है अर्थात्  1 घंटे में (360/24) 15°  एवं 4 मिनट में 1° घूमती है। अर्थात डिग्री देशांतर दुरी तय करने में 4 Minute का समय लगता है
भारत में गुजरात के द्वारका तथा असम के डिब्रूगढ़ वेफ स्थानीय समय में लगभग 1 घंटा 45 मिनट का अंतर है।
भारत और ग्रीनविच (लंदन) के समय में 5:30 घंटे का अंतर  है , इसलिए जब लंदन में दोपहर के 2 बजे होंगे, तब भारत में शाम के 7ः30 बजे होंगे।
कुछ देशों का देशांतरीय विस्तार अधिक होता है, जिसके कारण वहाँ एक से अधिक मानक समय अपनाए गए हैं। उदाहरण के लिए, रूस में 11 मानक समयों को अपनाया गया है।
विषुवत रेखा पर इसके बीच की दूरी अधिकतम 111.32 Km होती है।