विश्व_का_भूगोल Special
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प्लेट_विवर्तनिकी_सिद्धान्त
भौतिक भूगोल, भू-आकृति विज्ञान एवं भू-विज्ञान में प्लेट विवर्तनिकी का विचार नवीन है जिसके आधार पर महाद्वीपों व महासागरों की उत्पत्ति, ज्वालामुखी एवं भूकम्प की क्रिया तथा वलित पर्वतों के निर्माण आदि का वैज्ञानिक स्पष्टीकरण दिया जा सकता है। प्लेट विवर्तनिकी का सिद्धान्त बीसवीं शताब्दी के 60वें दशक में प्रस्तुत किया गया जिसका प्रभाव समस्त भू-विज्ञानों पर पड़ा। इसके आधार पर महाद्वीपों एवं महासागरों के वितरण को भी एक नवीन दिशा मिली। इससे पूर्व 1948 में एविंग नामक वैज्ञानिक ने अटलांटिक महासागर में स्थित अटलांटिक कटक की जानकारी दी। इस कटक के दोनों और की चट्टानों के चुम्बकन के अध्ययन के आधार पर वैज्ञानिकों ने उत्तर दक्षिण दिशा में चुम्बकीय पेटियों का स्पष्ट एवं समरूप प्रारूप पाया। इसके आधार पर निष्कर्ष निकाला गया कि मध्य महासागरीय कटक के सहारे नवीन बेसाल्ट परत का निर्माण होता है।
सर्वप्रथम हेस ने 1960 में विभिन्न साक्ष्यों द्वारा प्रतिपादित किया कि महाद्वीप तथा महासागर विभिन्न प्लेटों पर टिके हैं। प्लेट विवर्तनिकी की अवधारणा को 1967 में डीपी मेकेन्जी, आरएल पारकर तथा डब्ल्यू जे मॉर्गन आदि विद्वानों ने स्वतंत्र रूप से उपलब्ध विचारों के आधार पर प्रस्तुत किया। यद्यपि इससे पहले टूजो विल्सन ने प्लेट शब्द का प्रयोग किया था, जो व्यवहार में नहीं आ पाया था।
पृथ्वी का बाह्य भाग दृढ़ खण्डों से बना है जिसे प्लेट कहा जाता है। प्लेटल विवर्तनिकी लैटिन शब्द (Tectonicus) टेक्टोनिक्स से बना है। प्लेट विवर्तनिकी एक वैज्ञानिक सिद्धान्त है, जो स्थलमण्डल गति को बड़े पैमाने पर वर्णित करता है। यह मॉडल महाद्वीपीय विस्थापन सिद्धान्त की परिकल्पना पर आधारित है। पृथ्वी का ऊपरी भाग स्थलमण्डल कहलाता है, जो कि तीन परतों में विभाजित है। ऊपरी भूपृष्ठ जिसकी औसत गहराई 25 किलोमीटर है, नीचला भूपृष्ठ जिसकी औसत गहराई 10 किलोमीटर है। ऊपरी मैटल जिसकी औसत गहराई 65 किलोमीटर है। यह भाग कठोर है जिसका औसत घनत्व 2.7 से 3.0 है। इस स्थलमण्डल के ठीक नीचे दुर्बलतामण्डल है जिसकी औसत मोटाई 250 किलोमीटर है। इस मंडल का घनत्व 3.5 से 4.0 तक है। स्थलमण्डल अधिक ठंडा एवं अधिक कठोर है, जबकि गर्म एक कठोर है एवं सरलता से प्रवाह करता है।
स्थलमण्डलीय प्लेटों की संख्या के सम्बन्ध में विद्वान एकमत नहीं है। डीट्ज एवं हेराल्ड ने इनकी संख्या 10 बताई। डब्ल्यू जे मॉरगन ने इसकी संख्या 20 बताई। सामान्यतः भूपटल पर सात बड़ी व 14 छोटी प्लेटें हैं, जो दुर्बलतामण्डल पर टिकी हुई हैं, ये प्लेटें तीन प्रकार की हैं, महाद्वीपीय, महासागरीय एवं महाद्वीपीय व महासागरीय।
#महत्वपूर्ण_प्लेटें :
#उत्तरी_अमेरीकन_प्लेट : इसका विस्तार उत्तरी अमरीका तथा मध्य अटलांटिक कटक तक अटलांटिक के पश्चिमी भाग पर है। कैरेबियन तथा कोकोस छोटी प्लेटें दक्षिणी अमरीकी प्लेट से पृथक करती है।
#दक्षिणी_अमेरीकन_प्लेट : यह दक्षिणी अमरीका महाद्वीप तथा दक्षिणी अटलांटिक के पश्चिमी भाग में मध्य अटलांटिक कटक तक विस्तृत है।
#प्रशान्त_महासागरीय_प्लेट : यह महासागरीय प्लेट है जिसका विस्तार अलास्का क्यूराइल द्वीप समूह से प्रारम्भ होकर दक्षिण में अंटार्कटिक रिज तक सम्पूर्ण प्रशान्त महासागर पर है। इसके किनारों पर फिलीपींस, नजका तथा कोकोस लघु प्लेटें स्थित हैं। यह प्लेट सबसे बड़ी हैं।
#यूरेशियाई_प्लेट : यह प्लेट मुख्यरूप से महाद्वीपीय है जिसका विस्तार यूरोप एवं एशिया पर है। इसमें कई छोटी प्लेटें भी संलग्न हैं जैसे पर्शियन प्लेट तथा चीन प्लेट। इसकी दिशा पश्चिम से पूर्व है।
#इंडो_आस्ट्रेलियाई_प्लेट : यह महाद्वीपीय व महासागरीय दोनों प्रकार की प्लेट हैं। परन्तु इसमें सागरीय क्षेत्र अधिक है। इसका विस्तार भारतीय प्रायद्वीप अरब प्रायद्वीप, आस्ट्रेलिया तथा हिन्द महासागर के अधिकांश भाग पर है। इसकी दिशा दक्षिण-पश्चिम से उत्तर पूर्व है।
#अफ्रीकन_प्लेट : यह समस्त अफ्रीका, दक्षिण अटलांटिक महासागर के पूर्वी भाग तथा हिन्द महासागर के पश्चिमी भाग पर विस्तृत है। इसकी दिशा उत्तर-पूर्व है।
#अंटार्कटिक_प्लेट : इसका विस्तार अंटार्कटिक महाद्वीप तथा इसके चारों ओर विस्तृत सागर पर है। यह महाद्वीप व महासागरीय प्लेट है। इन प्लेटों के अतिरिक्त महत्त्वपूर्ण छोटी प्लेटें निम्नलिखित हैं-
#कोकस_प्लेट : यह प्लेट मध्यवर्ती अमरीका और प्रशान्त महासागरीय प्लेट के मध्य स्थित है।
#नजका_प्लेट : इसका विस्तार दक्षिणी अमरीकी प्लेट तथा प्रशान्त महासागरीय प्लेट के मध्य है।
#अरेबियन_प्लेट : इस प्लेट में अधिकतर अरब प्रायद्वीप का भाग सम्मिलित है।
#फिलीपाइन_प्लेट : यह प्लेट एशिया महाद्वीप एवं प्रशान्त महासागरीय प्लेट के मध्य स्थित है।
#कैरोलिन_प्लेट : यह न्यूगिनी के उत्तर में स्थित है।
#प्लेटों_की_सीमाएँ
प्लेटों में तीन प्रकार की गतियां होती हैं। जिनके आधार पर ये तीन प्रकार की सीमाएँ बनाती हैं, जो निम्नानुसार हैं-
#अपसारी_सीमाएँ
पृथ्वी के आन्तरिक भाग में संवहन तरंगों की उत्पत्ति के कारण जब दो प्लेटें विपरीत (एक-दूसरे से दूर) दिशा में गतिशील होती हैं तो ये अपसारी किनारों का निर्माण करती हैं। इन सीमाओं के मध्य बनी दरार में भूगर्भ का तरल मैग्मा ऊपर आता है तथा दोनों प्लेटों के मध्य तीन नवीन ठोस तली का निर्माण होता है। इसे रचनात्मक किनारा भी कहा जाता है। इस प्रकार का नवीन तली का निर्माण महासागरीय कटक व बेसिन में पाया जाता है। इसका सर्वोत्तम उदाहरण मध्य अटलांटिक कटक है जहाँ अमरीकी प्लेटें यूरेशियन प्लेट तथा अफ्रीकन प्लेट से अलग हो रही हैं। इन सीमाओं पर ज्वालामुखी क्रिया भी देखने को मिलती है।
पृथ्वी पर पाई जाने वाली प्लेटें दुर्बलतामण्डल पर अस्थिर रूप से स्थित है, जिनमें निरन्तर परिवर्तन होता रहता है। वेगनर के महाद्वीपीय विस्थापन सिद्धान्त को स्वीकार करने में सबसे बड़ी बाधा यह समझाने की थी कि सियाल के बने महाद्वीप सीमा पर कैसे तैरते हैं तथा उसे विस्थापित करते हैं। 1928 में आर्थर होम्स ने बताया कि पृथ्वी के आन्तरिक भाग में रेडियोधर्मी तत्वों से निकली गर्मी से ऊर्ध्वाधर संवहन धाराएँ उत्पन्न होती हैं। अधोपर्पटी संवहन धाराएँ तापीय संवहन की क्रियाविधि प्रारम्भ करती हैं, जो प्लेटों के संचालन के लिये प्रेरक बल का काम करती हैं। संवहन धाराओं द्वारा ऊष्मा की उत्पत्ति की खोज रमफोर्ड ने 1997 में की थी। भूपटल के नीचे संवहन धाराओं का संकल्पना हॉपकिन्स ने 1849 में प्रस्तावित की थी। उष्ण धाराएँ ऊपर उठकर भूपृष्ठ पर पहुँचकर ठंडी हो जाती हैं, जिससे पुनः नीचे की ओर चलना प्रारम्भ कर देती हैं। इससे प्लेटों में गति होती है।
संवहन धाराएँ स्थलमण्डल की प्लेटों को अपने साथ प्रवाहित करती हैं। महासागरीय घटकों में संवहन धाराओं के साथ तरल मैग्मा बाहर आ जाता है। मैटल में लचीलापन आन्तरिक तापमान व दबाव पर निर्भर करता है। संवहन धाराओं के साथ तप्त पिघला हुआ मैग्मा ऊपर उठता है। भूपटल के नीचे संवहन धाराएँ विपरीत दिशा में अपसरित होती हैं जिससे मैग्मा भी दोनों दिशाओं में फैल जाता है और ठंडा होने लगता है। जहाँ दो विपरीत दिशाओं से संवहन धाराएँ मिलती हैं वहाँ ये मुड़कर पुनः केन्द्र की ओर चल पड़ती हैं। अतः ठंडा मैग्मा भी नीचे धँसता है एवं गर्म होने लगता है। जैसे-जैसे यह केन्द्र की और बढ़ता है, उसके आयतन में विस्तार होता है।
जहाँ संवहन तरंगे विपरीत दिशा में अपसरित होती हैं, वहाँ भूपृष्ठ पर प्लेटें एक दूसरे से दूर खिसकती हैं तथा जहाँ संवहन तरंगे मिलकर मिलकर पुनः केन्द्र की तरफ संचालित होती हैं। उस स्थान पर प्लेटें एक-दूसरे के समीप आती हैं।
प्लेटें एक दूसरे के सापेक्ष में निरन्तर गतिशील रहती हैं। जब एक प्लेट गतिशील होती है तो दूसरी का गतिशील होना स्वाभाविक होता है। प्लेटों का घूर्णन यूलर के ज्यामितीय सिद्धान्त के आधार पर गोले की सतह पर किसी प्लेट की गति एक सामान्य घूर्णन के रूप में होती है, जो एक घूर्णन अक्ष के सहारे सम्पादित होता है।
प्लेट के रचनात्मक एवं बिना किसी किनारे के सापेक्षिक संचलन का वेग उसके अक्ष के सहारे कोणिक वेग तथा घूर्णन अक्ष से प्लेट किनारे के बिन्दु की कोणिक दूरी के समानुपातिक होता है। घूर्णन अक्ष गोले के केन्द्र से होकर गुजरती है। जब प्लेट गतिमान होती है तो उसके सभी भाग घूर्णन अक्ष के सहारे लघु चक्रीय मार्ग के सहारे गतिशील होते हैं। प्लेटों की गति व दिशा का अध्ययन उपग्रहों पर स्थापित लेसर परावर्तकों के माध्यम से किया जाता है।
#महाद्वीप_विस्थापन
प्लेट विर्वतनिकी सिद्धान्त के आधार पर महाद्वीपीय विस्थापन का कारण स्पष्ट हो जाता है। वेलेन्टाइन तथा मूर्स एवं हालम ने 1973 में इस तथ्य को प्लेटों की गति को सागरीय तली के प्रसार तथा पुराचुम्बकत्व के प्रमाणों के आधार पर प्रमाणित किया है।
पुराचुम्बकीय सर्वेक्षण के आधार पर महासागरों के खुलने एवं बन्द होने के प्रमाण मिले हैं। भूमध्यसागर वृहद महासागर का अवशिष्ट भाग है। इसका सकुंचन का कारण अफ्रीकन प्लेट के उत्तर की ओर सरकना है। वर्तमान में लाल सागर का भी विस्तार हो रहा है। स्थलीय या महासागरीय प्लेट एक-दूसरे के सापेक्ष में गतिमान हैं। हिमालय की भी ऊँचाई बढ़ी है।
#पर्वत_निर्माण
प्लेट विर्वर्तनिकी सिद्धान्त के आधार पर भूपृष्ठ पर पाये जाने वाले विशाल वलित (मोड़दार) पर्वतों का निर्माण हुआ। प्लेटों के विस्थापन से संकुचलन एवं टकराहट के कारण विनाशकारी किनारे पर निक्षेपित अवसादों में मोड़ पड़ने से वलित पर्वतों का निर्माण हुआ। प्रशान्त प्लेट से अमरीकन प्लेट के विनाशात्मक किनारे क्रस्ट के नीचे दबने से सम्पीडनात्मक बल का जन्म हुआ व उत्तरी तथा दक्षिणी किनारे के पदार्थ वलित हो गए एवं एंडीज तथा रॉकी पर्वतों का निर्माण हुआ।
भारतीय प्लेट एवं यूरेशियन प्लेट के एक-दूसरे की ओर अग्रसर होने से अंगारालैंड व गोंडवानालैंड के मध्य स्थित टैथिस सागर में निक्षेपित अवसाद वलित हो गए। इससे हिमालय जैसे विशाल वलित पर्वतों का निर्माण हुआ।
यूरोप व अफ्रीका प्लेट के टकराने से आल्पस पर्वतों का निर्माण हुआ। इस विस्थापन से भारतीय प्लेट एशिया प्लेट के नीचे दब गई जिसके भूगर्भ में पिघलने से हिमालय का उत्थान हुआ।
#ज्वालामुखी
प्लेट विवर्तनिकी ज्वालामुखी की उत्पत्ति तथा वितरण पर भी पूर्ण वैज्ञानिक व्याख्या करती है। जहाँ दो प्लेटें एक-दूसरे से दूर जाती हैं, वहाँ दबाव कम होने से दरारों से लावा प्रवाह होने लगता है। इसी प्रकार सागर तली में कटक का निर्माण होता है व नवीन बेसाल्ट तली का निर्माण निरन्तर होता रहता है। जहाँ प्लेट के दो किनारे मिलते हैं, वहाँ उठती हुई संवहन धाराओं के कारण ज्वालामुखी विस्फोट हो जाता है। जब प्लेट के विनाशात्मक किनारे टकराते हैं तब भी प्लेट के दबने से व मैटल के पिघलने से निकटवर्ती क्षेत्र में दबाव बढ़ जाता है और ज्वालामुखी विस्फोट हो जाता है। विश्व के सर्वाधिक सक्रिय ज्वालामुखी प्लेट सीमाओं के सहारे ही पाये जाते हैं। इसमें प्रशान्त प्लेट के अग्नि वृत्त पर सर्वाधिक है। इन्हीं क्षेत्रों में भूकम्प के झटके भी महसूस किये जाते हैं। संरक्षी किनारों पर तीव्र भूकम्प आते हैं।
उपर्युक्त प्रभावों के साथ-साथ पृथ्वी पर कार्बोनीफरस युग के हिमावरण एवं जलवायु परिवर्तन को भी सिद्धान्त द्वारा आसानी से समझा जा सकता है। अंटार्कटिक में कोयला भण्डारों का पाया जाना वहाँ के जलवायु परिवर्तनों को प्रमाणित करता है। प्लेट विवर्तनिकी के आधार से हिन्द महासागर का अस्तित्व क्रिटेशय युग से पहले नहीं था। दक्षिणी पेंजिया में अंटार्कटिका, अफ्रीका, आस्ट्रेलिया तथा भारत आदि सम्मिलित थे। इस युग के अन्तिम चरण में भारतीय प्लेट उत्तर की ओर सरकी जिससे आस्ट्रेलिया एवं अंटार्कटिक अफ्रीका से अलग होने लगे। इयोसीन युग में आस्ट्रेलिया अंटार्कटिका से अलग हुआ तथा इसका प्रवाह दक्षिण की ओर हुआ। अतः यहाँ ठंडी जलवायु पाई जाती है।
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विश्व_का_भूगोल
अन्तर्जात_और_बहिर्जात_बल
पृथ्वी की सतह पर दो प्रकार के बल कार्य करते हैं। एक अन्तर्जात बल तथा दूसरा बहिर्जात बल। अन्तर्जात बल पृथ्वी के आन्तरिक भागों से उत्पन्न होता है। यह बल भू-तल पर विषमताओं का सृजन करता है। तथा बहिर्जात बल पृथ्वी की सतह पर उत्पन्न होता है। यह बल भू-तल पर समतल की स्थापना करता है।
#अन्तर्जात_बल (Endogenetic Force)---
अन्तर्जात बलों को कार्य की तीव्रता के आधार पर दो प्रकारों में बांटा गया है।
▪️1- आकस्मिक बल---
इस बल से भूपटल पर विनाशकारी घटनाओं का आकस्मिक आगमन होता है। जैसे भूकम्प, ज्वालामुखी व भू-स्खलन
▪️2 दीर्घकालिक बल---
इसे पटल विरूपणी बल (Diastrophic force) भी कहा जाता है। इसके अन्तर्गत लम्बवत तथा क्षैतिज संचलन आते हैं। इन संचलनों को क्रमशः महाद्वीप निर्माण कारी लम्बवत संचलन तथा पर्वत निर्माण कारी क्षैतिज संचलन कहते हैं।
▪️a- महाद्वीप निर्माणकारी लम्बवत संचलन---
इस संचलन से महाद्वीपीय भागों का निर्माण एवं उत्थान या निर्गमन होता है। लम्बवत संचलन भी दो प्रकार के होते हैं--उपरिमुखी और अधोमुखी। जब महाद्वीपीय भाग या उसका कोई क्षेत्र अपनी सतह से ऊपर उठ जाता है। तो उस पर लगने वाले बल को उपरिमुखी बल तथा इस क्रिया को उपरिमुखी संचलन कहते हैं। जैसे कच्छ की खाड़ी के निकट लगभग 24 km लंबी भूमि कई km ऊपर उठ गयी है। जिसे अल्लाह का बाँध कहते हैं। इसके विपरीत जब महाद्वीपीय भागों में धंसाव हो जाता है। तो उस पर लगने वाले बल को अधोमुखी बल तथा इस क्रिया को अवतलन या अधोमुखी संचलन कहते हैं। जैसे मुम्बई प्रिंस डॉक यार्ड क्षेत्र के जलमग्न वन।
▪️b- पर्वत निर्माणकारीव क्षैतिज संचलन---
पृथ्वी के आन्तरिक भाग से क्षैतिज रूप में पर्वतों के निर्माण में सहायक संचलन बल को पर्वत निर्माणकारी संचलन कहा जाता है। इस संचलन में दो प्रकार के बल कार्य करते हैं---संपीडन बल व तनाव बल। जब क्षैतिज संचलन बल विपरीत दिशाओं में क्रियाशील होता है। तो तनाव की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। जिससे धरातल में भ्रंश, चटकनें व दरार आदि का निर्माण होता है। अतः इसे तनाव बल कहते हैं। और जब क्षैतिज संचलन बल आमने सामने क्रियाशील होता है तो चट्टानें संपीडित हो जाती हैं। जिससे धरातल में संवलन व वलन पड़ जाते हैं। अतः इसे संपीडन बल कहते हैं।
#वलन (Folding)
पृथ्वी के आन्तरिक भागों में उत्पन्न अन्तर्जात बलों के क्षैतिज संचलन द्वारा धरातलीय चट्टानों में संपीडन के कारण लहरों के रूप में पड़ने वाले मोड़ों को वलन कहते हैं। वलन के कारण चट्टानों के ऊपर उठे हुए भाग को अपनति (Anticline) तथा नीचे धँसे हुए भाग को अभिनति (Syncline) कहते हैं।
#वलनों_के_प्रकार (Types of Folds)---
संपीडन बल में भिन्नता के कारण वलन के प्रकारों में भी अन्तर होता है।
▪️1- सममित वलन (Symmetrical Fold)---
इसमें वलन की दोनों भुजाओं की लम्बाई व ढलान समान होती है। इसे सरल वलन या खुले प्रकार का वलन भी कहते हैं। जब दबाव शक्ति की तीव्रता कम एवं दोनों दिशाओं में समान हो, तो इस प्रकार के वलन का निर्माण होता है। जैसे-स्विट्जरलैंड का जूरा पर्वत
▪️2- असममित वलन (Asymmetrical Fold)---
इसमें वलन की दोनों भुजाओं की लम्बाई व ढाल असमान होती है। कम झुकाव वाली भुजा अपेक्षाकृत बड़ी तथा अधिक झुकाव वाली भुजा छोटी होती है। जैसे-ब्रिटेन का दक्षिणी पेनाइन पर्वत
▪️3- एकदिग्नत वलन (Monoclinal Fold)---
जब किसी वलन की एक भुजा सामान्य झुकाव व ढाल वाली तथा दूसरी भुजा उस पर समकोण बनाती है एवं उसका ढाल खड़ा होता है। इस प्रकार के वलन को एकदिग्नत वलन कहते हैं। जैसे-आस्ट्रेलिया का ग्रेट डिवाइडिंग रेंज
▪️4- समनत वलन (Isoclinal Fold)---
समनत वलन में वलन की दोनों भुजाएँ समानान्तर होती हैं। लेकिन क्षैतिज दिशा में नहीं होती हैं। इस वलन में आगे का भाग लटकता हुआ प्रतीत होता है। ऐसे वलन में संपीडन की तीव्रता स्पष्ट दिखाई देती है। जैसे-पाकिस्तान का काला चित्ता पर्वत
▪️5- परिवलित वलन (Recumbent Fold)---
अत्यधिक तीव्र क्षैतिज संचलन के कारण जब वलन की दोनों भुजाएँ एक दूसरे के समानान्तर और क्षैतिज दिशा में होती जाती हैं। तो उसे परिवलित वलन कहते हैं। इसे दोहरा मोड़ भी कहा जाता है। जैसे-ब्रिटेन का कौरिक कैसल पर्वत
▪️6-अधिवलन (Over Fold)---
इस वलन में वलन की एक भुजा बिल्कुल खड़ी न रहकर कुछ आगे की ओर निकली हुई रहती है एवं तीव्र ढाल बनाती है। जबकि दूसरी भुजा अपेक्षाकृत लम्बी होती है और कम झुकी होने के कारण धीमी ढाल बनाती है। इस वलन का निर्माण तब होता है जब दबाव शक्ति एक दिशा में तीव्र होती है। जैसे-कश्मीर की पीर पंजाल श्रेणी
▪️7- अधिक्षिप्त या प्रतिवलन (Overthrust or Overturned Fold)---
जब अत्यधिक संपीडन बल के कारण परिवलित वलन की एक भुजा टूट कर दूर विस्थापित हो जाती है, तब उस विस्थापित भुजा को ग्रीवाखण्ड कहते हैं। जिस तल पर भुजा का विस्थापन होता है उसे व्युत्क्रम भ्रंश तल कहते हैं। वहीं जब परिवलित वलन में अत्यधिक संपीडन के कारण वलन के नीचे की भुजा, ऊपरी भुजा के ऊपर विस्थापित हो जाती है। तब उसे प्रतिवलन कहते हैं। जैसे-कश्मीर घाटी एक ग्रीवा खण्ड पर अवस्थित है।
▪️8- पंखा वलन (Fan Fold)---
क्षैतिज संचलन का समान रूप से क्रियाशील न होने के कारण विभिन्न स्थानों में संपीडन की भिन्नता के साथ ही पंखे के आकार की वलित आकृति का निर्माण होता है। जिसे पंखा वलन कहते हैं। जैसे-पाकिस्तान स्थित पोटवार,
#भ्रंशन (Fault)
इसके अन्तर्गत दरारें, विभंग व भ्रंशन को शामिल किया जाता है। भू-पटल में एक तल के सहारे चट्टानों के स्थानान्तरण से उत्पन्न संरचना को भ्रंश कहते हैं। भ्रंशन की उत्पत्ति क्षैतिज संचलन के दोनों बलों ( संपीडन व तनाव बल) से होती है। परन्तु तनाव बल का स्थान अधिक महत्वपूर्ण है क्योंकि अधिकतर भ्रंश इसी के कारण उत्पन्न हुए हैं।
#भ्रंशन_के_प्रकार (Kinds of Faults)---
भ्रंश निम्नलिखित प्रकार के होते हैं।
▪️1-सामान्य भ्रंश (Normal Faults)---
जब चट्टानों में दरार पड़ जाने के कारण उसके दोनों खण्ड विपरीत दिशा में खिसक जाते हैं, तो उसे सामान्य भ्रंशन कहते हैं। इसमें भूपटल में प्रसार होता है। सामान्य भ्रंश का निर्माण तनाव बल के कारण होता है।
▪️2- व्युत्क्रम या उत्क्रम भ्रंश (Reverse Fault)---
जब चट्टानों में दरार पड़ जाने के कारण उसके दोनों खण्ड एक दूसरे की ओर खिसकते हैं और एक दूसरे के ऊपर आरूढ़ हो जाते हैं। इस प्रकार निर्मित भ्रंश को व्युत्क्रम भ्रंश कहते हैं। इसे आरूढ़ भ्रंश भी कहा जाता है। ये भ्रंश संपीडन बल के कारण निर्मित होते हैं। इस भ्रंशन से कगारों का निर्माण होता है। जैसे-पश्चिमी घाट कगार, विंध्यन कगार क्षेत्र में लटकती घाटियाँ एवं जलप्रपात का विकास। इस प्रकार के भ्रंशन में सतह का फैलाव पहले की अपेक्षा घट जाता है।
▪️3- सोपानी भ्रंश (Step Fault)---
जब किसी क्षेत्र में एक दूसरे के समानान्तर कई भ्रंश होते हैं एवं सभी भ्रंश तलों की ढाल एक ही दिशा में होती है। तो इसे सोपानी या सीढ़ीदार भ्रंश कहते हैं। इस भ्रंशन में अधक्षेपित खण्ड का अधोगमन एक ही दिशा में होता है। जैसे-यूरोप की राइन घाटी
▪️4-Transcurrent Fault or Strike slip Fault---
जब स्थल पर दो विपरीत दिशाओं से दबाव पड़ता है तो दोनों ओर के भू-खण्ड भ्रंश तल के सहारे आगे पीछे खिसक जाते हैं। इस प्रकार के भ्रंश को ट्रांसकरेन्ट भ्रंश कहते हैं। जैसे-कैलिफोर्निया का एंड्रियास भ्रंश,
#भ्रंशन_के_कारण_निर्मित_स्थलाकृतियां---
भ्रंशन के कारण पृथ्वी पर कई प्रकार की भू-आकृतियां निर्मित होती हैं।
▪️a-भ्रंश घाटी (Rift Valley)---
जब दो समानान्तर भ्रंशों का मध्यवर्ती भाग नीचे धँस जाता है तो उसे द्रोणी या भ्रंश घाटी कहते हैं। जर्मन भाषा में इसे "ग्राबेन (Graben)" कहा जाता है। जैसे-जॉर्डन भ्रंश घाटी, (जिसमें मृतसागर स्थित है) कैलिफोर्निया क्षेत्र में स्थित मृत घाटी,(यह समुद्र तल से भी नीची है।) अफ्रीका की न्यासा, रूडोल्फ, तांगानिका, अल्बर्ट व एडवर्ड झीलें भू-भ्रंश घाटी में ही स्थित है। भारत में नर्वदा, ताप्ती व दामोदर नदी घाटियाँ भ्रंश घाटियों के प्रमुख उदाहरण हैं।
▪️b-रैम्प घाटी (Ramp Valley)---
रैम्प घाटी का निर्माण उस स्थिति में होता है जब दो भ्रंश रेखाओं के बीच स्तम्भ यथा स्थिति में ही रहे परन्तु संपीडनात्मक बल के कारण किनारे के दोनों स्तम्भ ऊपर उठ जाये। जैसे-असम की ब्रह्मपुत्र घाटी
▪️c-भ्रंशोत्थ पर्वत (Block Mountain)---
जब दो भ्रंशों के बीच का स्तम्भ यथावत रहे एवं किनारे के स्तम्भ नीचे धँस जाये तो ब्लॉक पर्वत का निर्माण होता है। जैसे-भारत का सतपुड़ा पर्वत, जर्मनी का ब्लैक फॉरेस्ट व वास्जेस पर्वत, पाकिस्तान का साल्ट रेंज ब्लॉक पर्वत, अमेरिका का स्कीन्स माउंटेन, वासाच रेंज ब्लॉक पर्वत आदि कैलिफोर्निया में स्थित सियरा नेवादा विश्व का सबसे विस्तृत ब्लॉक पर्वत है।
▪️d-हॉर्स्ट पर्वत (Horst Mountain)---
जब दो भ्रंशों के किनारों के स्तम्भ यथावत रहे एवं बीच का स्तम्भ ऊपर उठ जाये तो हॉर्स्ट पर्वत का निर्माण होता है। जैसे- जर्मनी का हॉर्ज पर्वत
#बहिर्जात_बल (Exogenetic Force)---
पृथ्वी की सतह पर उत्पन्न होने वाले बल को बहिर्जात बल कहते हैं। बहिर्जात बल को "भूमि विघर्षण बल" भी कहा जाता है। बहिर्जात बल का भू-पटल पर प्रमुख कार्य अनाच्छादन (Denudation) होता है। अनाच्छादन के अन्तर्गत अपक्षय, वृहदक्षरण, संचरण, अपरदन व निक्षेपण आदि क्रियाएँ आती हैं। अनाच्छादन स्थैतिक तथा गतिशील दोनों क्रियाओं का योग है। अपक्षय में स्थैतिक क्रिया होती है जबकि अपरदन में गतिशील क्रिया होती है। भौतिक अपक्षय को विघटन (Disintegration) तथा रासायनिक अपक्षय को वियोजन (Decomposition) कहते हैं। उष्ण कटिबंधीय आद्र भागों में रासायनिक अपक्षय होता है जबकि उष्ण व शुष्क मरूस्थलीय भागों में भौतिक अपक्षय होता है। वे सभी क्रियाएँ जो धरातल को सामान्य तल पर लाने का प्रयास करती हैं, उन्हें "प्रवणता संतुलन की क्रियाएँ" कहते हैं। बाह्म कारकों द्वारा स्थलीय धरातल के अपरदन को निम्नीकरण कहते हैं। धरातल की नीची जगहों को भरकर ऊँचा करना अभिवृद्धि कहलाती है।
1-#अपक्षय (Weathering)--->
ताप, जल, वायु तथा प्राणियों के कार्यों के प्रभाव, जिनके द्वारा यांत्रिक व रासायनिक परिवर्तनों से चट्टानों के अपने ही स्थान पर कमजोर होने, टूटने, सड़ने एवं विखंडित होने को "अपक्षय" को अपक्षय कहते हैं। जैसे ही चट्टान धरातल पर अनावृत होकर मौसमी प्रभावों से प्रभावित होते हैं, यह प्रक्रिया शुरू हो जाती है। कारकों के आधार पर अपक्षय को तीन प्रकारों में विभक्त किया गया है।
▪️क-भौतिक या यांत्रिक अपक्षय---
¡-ताप के कारण छोटे-बड़े टुकड़ो में विघटन
¡¡-तुषार-चीरण अर्थात चट्टानों में जल का प्रवेश
¡¡¡-घर्षण
¡v-दबाव
▪️ख-रासायनिक अपक्षय---
¡-ऑक्सीकरण
¡¡-कार्बोनेटिकरण
¡¡¡-जलयोजन
ग-प्राणिवर्गीय अपक्षय---
¡-वानस्पतिक अपक्षय
¡¡-जैविक अपक्षय
¡¡¡-मानवीय क्रियाओं द्वारा अपक्षय
2-#अपरदन (Erosion)---->
अपक्षयित पदार्थों का अन्यत्र स्थानान्तरण "अपरदन" कहलाता है। अपरदन में भाग लेने वाली प्रमुख क्रियाएँ निम्नलिखित हैं।
▪️a-अपघर्षण (Abrasion)---
वह प्रक्रिया जिसमें कोई जल प्रवाह अपने साथ कंकड़, पत्थर व बालू आदि पदार्थों के साथ आगे बढ़ता है तो इन पदार्थों के सम्पर्क आने वाली चट्टानों एवं किनारों का क्षरण होने लगता है। इस क्रिया को अपघर्षण कहते हैं।
▪️b-सन्निघर्षण (Attrition)---
जब किसी प्रवाह में प्रवाहित होने वाले पदार्थ आपस में घर्षण कर छोटे होने की प्रक्रिया को सन्निघर्षण कहते हैं।
▪️c-संक्षारण (Corosion)---
घुलनशील चट्टानों जैसे-डोलोमाइट, चुना पत्थर आदि का जल क्रिया द्वारा घुलकर शैल से अलग होना संक्षारण कहलाता है। यह भूमिगत जल एवं बहते जल द्वारा होता है। इससे कार्स्ट स्थलाकृतियों का निर्माण होता है।
▪️d-जलीय क्रिया (Hydraulic Action)---
जब जल प्रवाह की गति के कारण चट्टानें टूट-फुटकर अलग हो जाती हैं। तो उसे जलीय क्रिया कहते हैं। यह क्रिया सागरीय तरंगों, हिमानियों एवं नदियों द्वारा होती है।
▪️e-जल दाब क्रिया (Water Pressure)---
जब किसी चट्टान में जल के दबाव के कारण अपरदन क्रिया होती है तो उसे जल दबाव क्रिया कहा जाता है। यह मुख्यतः सागरीय तरंगों द्वारा होती है।
▪️f-उत्पाटन (Plucking)---
इस प्रकार का अपरदन हिमानी क्षेत्रों में होता है। वर्षा तथा हिम पिघलने से प्राप्त जल चट्टानों की सन्धियों में प्रविष्ट हो जाता है तथा ताप की कमी के कारण जमकर हिम रूप धारण कर लेता है, जिस कारण चट्टान कमजोर हो जाती हैं और इनसे बड़े बड़े टुकड़े टूट कर अलग होते रहते हैं। यह प्रक्रिया उत्पाटन कहलाती है।
▪️g-अपवहन (Deflation)---
यह पवन के द्वारा शुष्क या अर्ध-शुष्क प्रदेशों में अवसादों की उड़ाव की क्रिया है।
3-#वृहद_संचलन (Mass Movement)---
गुरुत्वाकर्षण के सीधे प्रभाव के कारण शैलों के मलवा का चट्टान की ढाल के अनुरूप रूपान्तरण हो जाता है। इस क्रिया को वृहद संचलन कहते हैं। वृहद संचलन अपरदन के अन्तर्गत नहीं आता है।
4-#निक्षेपण (Deposition)---
निक्षेपण अपरदन का परिणाम होता है। ढाल में कमी के कारण जब अपरदन के कारकों का वेग कम हो जाता है तो अवसादों का निक्षेपण प्रारम्भ हो जाता है। अर्थात निक्षेपण किसी कारक का कार्य नहीं है।
#अपरदन_चक्र (Erosion Cycle)
अपरदन चक्र अन्तर्जात व बहिर्जात बलों का सम्मिलित परिणाम होता है। अन्तर्जात बल धरातल पर विषमताओं का सृजन करते हैं तथा बहिर्जात बल समतल स्थापक बल के रूप में कार्य करते हैं। जैसे ही अन्तर्जात बलों द्वारा धरातल पर विषमताओं का निर्माण होता है, बहिर्जात बल इन विषमताओं को दूर करने में प्रयत्नशील हो जाते हैं। जिससे विशिष्ट स्थलाकृतियों का निर्माण होता है। सर्वप्रथम स्कॉटिश भू-गर्भशास्त्री जेम्स हटन ने भू-आकृतियों के सम्बन्ध में 'एकरूपतावाद' की अवधारणा दी और बताया कि "वर्तमान भूत की कुंजी है"
अमेरिका के भूगोलवेत्ता विलियम मोरिस डेविस ने अपरदन चक्र की परिकल्पना का प्रतिपादन 1899 में किया था। डेविस के अनुसार किसी भी स्थलाकृति का निर्माण तथा विकास ऐतिहासिक क्रम में होता है, जिसके अन्तर्गत उसे तरुण (Young), प्रौढ़ एवं जीर्ण अवस्थाओं से होकर गुजरना पड़ता है। डेविस की इस विचार धारा पर डार्विन की "जैविक विकासवादी अवधारणा" का प्रभाव है। डेविस के अनुसार स्थलाकृतियाँ मुख्य रूप से तीन कारकों का परिणाम होती हैं। 1-चट्टानों की संरचना , 2-अपरदन के प्रक्रम, 3-समय की अवधि या विभिन्न अवस्थायें। इन्हें "डेविस के त्रिकूट ( Trio of Davis)" के नाम से जाना जाता है। डेविस के अनुसार अपरदन चक्र समय की वह अवधि है, जिसमें एक उत्थित भू-खण्ड अपरदन की विभिन्न अवस्थाओं से गुजरते हुए अंततः समतल प्राय मैदान में बदल जाता है तथा इसमें कहीं-कहीं थोड़े उठे हुए भाग "मोनाडनॉक" के रूप में शेष बचे रहते हैं। इस अपरदन चक्र को डेविस ने भौगोलिक चक्र का नाम दिया। जर्मन वैज्ञानिक वाल्टर पेंक ने डेविस के सिद्धान्त की आलोचना की तथा मॉर्फोलॉजिकल सिस्टम की अवधारणा प्रस्तुत की। जिसके अनुसार, स्थलाकृतियाँ उत्थान एवं निम्नीकरण की दर तथा दोनों की प्रवस्थाओं के परस्पर सम्बन्धों का प्रतिफल होती हैं। उन्होंने उठते हुए स्थल खण्डों को प्राइमारम्प कहा तथा अपरदन के पश्चात बने समतल प्राय मैदान को इंड्रम्प कहा।
अपरदन चक्र से सम्बन्धित अन्य सिद्धान्त निम्नलिखित हैं।
▪️पेडीप्लनेशन चक्र------------एल. सी. किंग
▪️कार्स्ट अपरदन चक्र------------बीदी
#अपरदन_के_प्रक्रम---
इसके अन्तर्गत बहता जल, भूमिगत जल, सागरीय तरंग, हिमानी तथा पवन आदि आते हैं।
1-#नदी_प्रक्रम---
कोई नदी अपनी सहायक नदियों समेत जिस क्षेत्र का जल लेकर आगे बढ़ती है, वह स्थान प्रवाह क्षेत्र या नदी द्रोणी या जल ग्रहण क्षेत्र कहलाता है। एक नदी द्रोणी दूसरी नदी द्रोणी से जिस उच्च भूमि द्वारा अलग होती है, उस जल विभाजक क्षेत्र कहते हैं। जैसे अरावली पर्वत श्रेणी और इसके उत्तर की उच्च भूमि सिन्धु तथा गंगा द्रोणियों के जल को विभाजित करती है। नदियां अपने ढालों के अनुरूप बहती है। बहते हुए जल द्वारा निम्न प्रकार की स्थलाकृतियों का निर्माण होता है।
▪️a-V-आकार की घाटी---
नदी द्वारा पर्वतीय क्षेत्रों में की गई ऊर्ध्वाधर काट के कारण गहरी, संकीर्ण और V-आकार की घाटी का निर्माण होता है। इनमें दीवारों का ढाल तीव्र व उत्तल होता है। आकार के अनुसार ये घाटी दो प्रकार की होती हैं।
▪️ (कन्दरा)----
जहाँ शैलें कठोर होती हैं। वहाँ पर V- आकार गहरी व सँकरी होती है। नदी की ऐसी गहरी व संकरी घाटी, जिसके दोनों किनारे खड़े होते हैं। कन्दरा व गॉर्ज कहलाती है। जैसे-सिन्धु नदी द्वारा निर्मित सिन्धु गॉर्ज, सतलज नदी द्वारा निर्मित शिपकीला गॉर्ज तथा ब्रह्मपुत्र नदी द्वारा निर्मित दिहांग गॉर्ज
▪️कैनियन---
जब किसी पठारीय भाग में शैलें आड़ी तिरछी हों और वर्षा भी कम हो तो उस स्थान पर बहने वाली नदी की घाटी बहुत गहरी और तंग होती है। ऐसी गहरी तंग घाटी को कैनियन या आई-आकार की घाटी कहते हैं। जैसे-अमेरिका में कोलोरैडो नदी पर स्थित "ग्रैंड कैनियन"
▪️b-जल प्रपात (Water Fall)---
जब नदियों का जल ऊँचाई से खड़े ढाल से अत्यधिक वेग से नीचे की ओर गिरता है तो उसे जल प्रपात कहते हैं। इसका निर्माण असमान अपरदन, भूखण्ड में उत्थान व भ्रंश कगारों के निर्माण आदि के कारण होता है। जैसे-विश्व का सर्वाधिक ऊँचा वेनुजुऐला का साल्टो एंजेल प्रपात, उत्तरी अमेरिका एवं कनाडा का नियाग्रा जलप्रपात,दक्षिण अफ्रीका में जिम्बाब्वे की जाम्बेजी नदी पर स्थित विक्टोरिया जल प्रपात, लुआलाबा नदी पर स्थित स्टेनली जल प्रपात,सांगपो नदी पर स्थित हिंडेन प्रपात, पोटोमेक नदी पर स्थित ग्रेट प्रपात, न्यू नदी पर सैंड स्टोन प्रपात तथा कोलम्बिया नदी पर स्थित सेलिलो प्रपात। भारत में कर्नाटक राज्य में शरावती नदी पर स्थित जोग या गरसोप्पा जल प्रपात (260 मीटर), नर्वदा नदी का धुँआधार जल प्रपात (9 मीटर), सुवर्णरेखा नदी का हुण्डरू जल प्रपात (97 मीटर) आदि।
▪️c-जलोढ़ शंकु (Alluvial Cone)---
जब नदियाँ पर्वतीय भाग से निकलकर समतल प्रदेश में प्रवेश करती हैं। तो चट्टानों के बड़े बड़े अवसाद पीछे छूट जाते हैं इन अवसादों से बनी आकृति जलोढ़ शंकु कहलाती है। विभिन्न जलोढ़ शंकुओं के मिलने से भाबर प्रदेश का निर्माण होता है।
▪️d-जलोढ़ पंख (Alluvial Fans)---
पर्वतीय भाग से निकलने के पश्चात् नदियों के अवसाद दूर-दूर तक फैल जाते हैं। जिससे पंखनुमा मैदान का निर्माण होता है। जिसे जलोढ़ पंख कहते हैं। कई जलोढ़ पंखों के मिलने से गिरिपाद मैदान या तराई क्षेत्र का निर्माण होता हैजलोढ़ पंख की चोटी के पास नदी कई शाखाओं में विभक्त हो जाती हैं, जो गुम्फित नदी कहलाती है। नदी द्वारा जलोढ़ पंख का निर्माण नदी की तरुणावस्था के अन्तिम चरण तथा प्रौढ़वस्था के प्रथम चरण का परिचायक है।
▪️e-नदी विसर्प (River meanders)---
मैदानी क्षेत्रों में नदियों का क्षैतिज अपरदन अधिक सक्रिय होने के कारण नदी की धारा दाएँ-बाएँ, बल खाती हुई प्रवाहित होती है जिसके कारण नदी के मार्ग में छोटे बड़े मोड़ बन जाते हैं। इन मोड़ो को नदी का विसर्प कहते हैं। विसर्प "S" आकार के होते हैं। नदियों का विसर्प बनाने का कारण अधिक अवसादी बोझ होता है।
▪️f-गोखुर झील (Oxbow Lake)---
जब नदी अपने विसर्प को त्याग कर सीधा रास्ता पकड़ लेती है। तब नदी का अवशिष्ट भाग गोखुर झील या छाड़न झील कहलाता है।
▪️g-तटबन्ध (Levees)---
प्रवाह के दौरान नदियाँ अपरदन के साथ-साथ बड़े-बड़े अवसादों का किनारों पर निक्षेपण भी करती हैं, जिससे किनारों पर बांधनुमा आकृति का निर्माण हो जाता है। इसे प्राकृतिक तटबन्ध कहते हैं।
▪️h-बाढ़ का मैदान (Flood plain)---
मैदानी भाग में भूमि समतल होती है। अतः जब नदी में बाढ़ आती है तो बाढ़ का जल नदी के समीपवर्ती समतल भाग में फैल जाता है। इस जल में बालू तथा मिट्टी मिली हुई रहती है। बाढ़ के हटने के बाद यह मिट्टी वहीं जमा हो जाती है। मिट्टी के निक्षेपण से सम्पूर्ण मैदान समतल और लहरदार प्रतीत होता है। इस प्रकार के मैदान जलोढ़ मिट्टी के मैदान कहलाते हैं। उत्तरी भारत का मैदान इसका उत्तम उदाहरण है।
▪️i-डेल्टा (Delta)----
निम्नवर्ती मैदानों में ढाल कम होने तथा अवसादों का अधिकता में होने से नदी की परिवहन शक्ति कम होने लगती है जिससे वह अवसादी का जमाव करने लगती है। जिससे डेल्टा का निर्माण होता है।
2-#भूमिगत_जल_प्रक्रम (Under Ground Water System)----
धरातल के नीचे चट्टानों के छिद्रों और दरारों में स्थित जल को भूमिगत जल कहते हैं। भूमिगत जल से बनी स्थलाकृतियों को कार्स्ट स्थलाकृतियाँ कहते हैं। भूमिगत जल द्वारा निर्मित स्थल रूप निम्नलिखित प्रकार के होते हैं।
▪️a-घोलरंध्र (Sink Holes)----
जल की घुलनशील क्रिया के कारण सतह पर अनेक छोटे-छोटे छिद्रों का विकास हो जाता है। जिन्हें घोल रन्ध्र कहते हैं। गहरे घोलरंध्रों को विलयन रंध्र कहते हैं। तथा विस्तृत आकार वाले छिद्रों को "डोलाइन" कहते हैं, जो कई घोलरंध्रों के मिलने से बनता है। जब निरन्तर घोलीकरण के फलस्वरूप कई डोलाइन एक वृहदाकार गर्त का निर्माण करते हैं। तब उसे यूवाला कहते हैं। कई यूवाला के मिलने से अत्यन्त गहरी खाइयों का निर्माण होता है। इन विस्तृत खाइयों को पोल्जे या राजकुण्ड कहते हैं। विश्व का सबसे बड़ा पोल्जे पश्चिमी वालकन क्षेत्र (यूरोप) में स्थित "लिवनो पोल्जे" है।
▪️b-लैपीज (Lappies)----
जब घुलनशील क्रिया के फलस्वरूप ऊपरी सतह अत्यधिक ऊबड़-खाबड़ तथा पतली शिखरिकाओं वाली हो जाती है। तो इस तरह की स्थलाकृति को अवकूट या लैपीज कहते हैं।
▪️c-गुफा (Caverns)----
भूमिगत जल के अपरदन द्वारा निर्मित स्थलाकृतियों में सबसे महत्वपूर्ण स्थलाकृति गुफा या कन्दरा है। इनका निर्माण घुलनशील क्रिया तथा अपघर्षण द्वारा होता है। कन्दराएँ ऊपरी सतह से नीचे एक रिक्त स्थान के रूप में होती हैं। इनके अन्दर निरन्तर जल प्रवाह होता रहता है। जैसे-अमेरिका की कार्ल्सबाद तथा मैमथ कन्दरा। और भारत में देहरादून में स्थित गुप्तदाम कन्दरा। कन्दराओं में जल के टपकने से कन्दरा की छत के सहारे चुने का जमाव लटकता रहता है, जिसे "स्टैलेक्टाइट" कहते हैं। तथा कन्दरा के फर्श पर चुने के जमाव से निर्मित स्तम्भ को "स्टैलेग्माइट" कहते हैं। इन दोनों के मिल जाने से कन्दरा स्तम्भ का निर्माण होता है।
▪️d-अन्धी घाटी (Blind Valley)----
जब विलयन रन्ध्र नदी के प्रवाह मार्ग के बीच में आ जाता है। तो नदी उसमें गिरकर विलीन हो जाती है। जिससे नदी की आगे की घाटी शुष्क हो जाती है। जिसे अन्धी घाटी कहते हैं।
3
विश्व_का_भूगोल :
चट्टाने_शैलें
पृथ्वी की ऊपरी परत या भू-पटल (क्रस्ट) में मिलने वाले पदार्थ चाहे वे ग्रेनाइट तथा बालुका पत्थर की भांति कठोर प्रकृति के हो या चाक या रेत की भांति कोमल; चाक एवं लाइमस्टोन की भांति प्रवेश्य हों या स्लेट की भांति अप्रवेश्य हों, चट्टान अथवा शैल (रॉक) कहे जाते हैं। इनकी रचना विभिन्न प्रकार के खनिजों का सम्मिश्रण हैं। चट्टान कई बार केवल एक ही खनिज द्वारा निर्मित होती है, किन्तु सामान्यतः यह दो या अधिक खनिजों का योग होती हैं।
#चट्टानों_के_प्रकार:
(1.) #आग्नेय_चट्टाने: आग्नेय चट्टान (जर्मन: Magmatisches Gestein, अंग्रेज़ी: Igneous rock) की रचना धरातल के नीचे स्थित तप्त एवं तरल चट्टानी पदार्थ, अर्थात् मैग्मा, के सतह के ऊपर आकार लावा प्रवाह के रूप में निकल कर अथवा ऊपर उठने के क्रम में बाहर निकल पाने से पहले ही, सतह के नीचे ही ठंढे होकर इन पिघले पदार्थों के ठोस रूप में जम जाने से होती है।
▪️आग्नेय शब्द लैटिन भाषा के ‘इग्निस’ से लिया गया है, जिसका सामान्य अर्थ अग्नि होता है।
▪️आग्नेय चट्टान स्थूल परतरहित, कठोर संघनन एवं जीवाश्मरहित होती हैं।
▪️ये चट्टानें आर्थिक रूप से बहुत ही सम्पन्न मानी गई हैं।
▪️इन चट्टानों में चुम्बकीय लोहा, निकिल, ताँबा, सीसा, जस्ता, क्रोमाइट, मैंगनीज, सोना तथा प्लेटिनम आदि पाए जाते हैं।
▪️झारखण्ड, भारत में पाया जाने वाला अभ्रक इन्हीं शैलों में मिलता है।
▪️आग्नेय चट्टान कठोर चट्टानें हैं, जो रवेदार तथा दानेदार भी होती है।
▪️इन चट्टानों पर रासायनिक अपक्षय का बहुत कम प्रभाव पड़ता है।
▪️इनमें किसी भी प्रकार के जीवाश्म नहीं पाए जाते हैं।
▪️आग्नेय चट्टानों का अधिकांश विस्तार ज्वालामुखी क्षेत्रों में पाया जाता है।
▪️आग्नेय चट्टानों में लोहा, निकिल, सोना, शीशा, प्लेटिनम भरपूर मात्रा में पाया जाता है।
▪️बेसाल्ट चट्टान में लोहे की मात्रा अधिक होती है।
▪️काली मिटटी बेसाल्ट चट्टान के टूटने से बनती है।
▪️बिटुमिनस कोयला आग्नेय चट्टान है।
▪️कोयला, ग्रेफाइट और हीरे को कार्बन का अपररूप कहा जाता है।
▪️ग्रेफाइट को पेंसिल लैड भी कहा जाता है।
▪️ताप, दवाब, और रासायनिक क्रियाओं के कारण ये चट्टाने आगे चलकर कायांतरित होती है।
#आग्नेय_चट्टानों_के_कुछ_उदाहरण:-
▪️ग्रेनाइट – नीस
▪️ग्रेवो – सरपेंटाइट
▪️बेसाल्ट – सिस्ट
▪️बिटुमिनस – ग्रेफाइट
(2). #अवसादी_चट्टाने: अवसादी चट्टान से तात्पर्य है कि, प्रकृति के कारकों द्वारा निर्मित छोटी-छोटी चट्टानें किसी स्थान पर जमा हो जाती हैं, और बाद के काल में दबाव या रासायनिक प्रतिक्रिया या अन्य कारकों के द्वारा परत जैसी ठोस रूप में निर्मित हो जाती हैं। इन्हें ही ‘अवसादी चट्टान’ कहते हैं। अवसादी शैलों का निर्माण जल, वायु या हिमानी, किसी भी कारक द्वारा हो सकता है। इसी आधार पर अवसादी शैलें ‘जलज’, ‘वायूढ़’ तथा ‘हिमनदीय’ प्रकार की होती हैं। बलुआ पत्थर, चुना पत्थर, स्लेट, संगमरमर, लिग्नाइट, एन्थ्रासाइट ये अवसादी चट्टाने है।
▪️अवसादी चट्टान परतदार होती है।
▪️अवसादी चट्टानों में जीवाश्म पाया जाता है।
▪️अवसादी चट्टानों में खनिज तेल पाया जाता है।
▪️एन्थ्रासाइट कोयले में 90 % से ज्यादा कार्बन होता है।
▪️लिग्नाइट को कोयले की सबसे उत्तम किस्म माना जाता है।
▪️अवसादी चट्टानें अधिकांशत: परतदार रूप में पाई जाती हैं।
▪️इनमें वनस्पति एवं जीव-जन्तुओं के जीवाश्म बड़ी मात्रा में पाये जाते हैं।
▪️इन चट्टानों में लौह अयस्क, फ़ॉस्फ़ेट, कोयला, पीट, बालुका पत्थर एवं सीमेन्ट बनाने की चट्टान पाई जाती हैं।
▪️खनिज तेल अवसादी चट्टानों में पाया जाता है।
▪️अप्रवेश्य चट्टानों की दो परतों के बीच यदि प्रवेश्य शैल की परत आ जाए, तो खनिज तेल के लिए अनुकूल स्थिति पैदा हो जाती है।
▪️दामोदर, महानदी तथा गोदावरी नदी बेसिनों की अवसादी चट्टानों में कोयला पाया जाता है।
▪️आगरा क़िला तथा दिल्ली का लाल क़िला बलुआ पत्थर नामक अवसादी चट्टानों से ही बना है।प्रमुख अवसादी शैलें हैं- बालुका पत्थर, चीका शेल, चूना पत्थर, खड़िया, नमक आदि।
अवसादी चट्टाने कायांतरित होकर क्वार्टजाइट बनती है।
3. #कायांतरित_चट्टाने (शैल):
आग्नेय एवं अवसादी शैलों में ताप और दाब के कारण परिर्वतन या रूपान्तरण हो जाने से कायांतरित शैल (metamorphic rock) का निमार्ण होता हैं। रूपांतरित चट्टानों (कायांतरित शैल) पृथ्वी की पपड़ी के एक बड़े हिस्सा से बनी होती है और बनावट, रासायनिक और खनिज संयोजन द्वारा इनको वर्गीकृत किया जाता है|
#कायांतरित_चट्टानों_के_कुछ_उदाहरण
▪️शैल – स्लेट
▪️चुना पत्थर – संगमरमर
▪️लिग्नाइट-एन्थ्रासाइट
▪️स्लेट – फाइलाइट
▪️फाइलाइट – सिस्ट
4
विश्व_का_भूगोल :
पर्वत
पर्वत किसी भी पहाड़ी से ऊंचा व सीधी चढ़ाई वाला मिट्टी व चट्टानों का ढांचा होता है। सामान्यतः पर्वत धरती के एक निश्चित स्थान पर लगभग 600 मीटर ऊंचा धरती का उभार होता है। पर्वतों की परिभाषा यह हो सकती है कि वह खड़ी व सीधी ढलान, ऊपरी चपटा भाग तथा गोलाई लिये हुए या नुकीली चोटियों वाले उभार होते है। भूविज्ञानी किसी सीधे खड़े क्षेत्र को तभी पर्वत मानते है जब वहां विभिन्न ऊंचाईयों पर दो या अधिक प्रकार की जलवायु तथा वनस्पति की विविधता हो।
अनेक पर्वतों की पारस्परिक निकटतम स्थिति पर्वत श्रृंखला का निर्माण करती है। ऐसी ही अनेक समानान्तर पर्वत श्रृंखलाएं और बडी पर्वत श्रृंखलाओं का निर्माण करती हैं। उत्तरी अमेरीकी काडीलेरा, हिमालय, एल्प्स आदि विशाल पर्वतीय श्रृंखलाओं के उदाहरण हैं।
#विभिन्न_आधार_पर_पर्वतों_का_वर्गीकरण
भू-स्थल पर अनेक प्रकार के पर्वत पाए जाते हैं. ये पर्वत अपनी आयु, ऊंचाई, स्थिति, निर्माणकारी प्रक्रिया, बनावट आदि की दृष्टि से एक-दूसरे से इतने भिन्न होते हैं कि कोई भी दो पर्वत एक-दूसरे जैसे नहीं होते हैं. विद्वानों ने अलग-अलग आधार पर पर्वतों का वर्गीकरण किया है जो निम्नलिखित हैं:-
1. #आयु_के_आधार_पर_पर्वतों_का_वर्गीकरण
आयु के आधार पर पर्वतों को 4 भागों में वर्गीकृत किया गया है:
▪️(i) चर्नियन पर्वत: ये विश्व के प्राचीनतम पर्वत हैं. इनका निर्माण कैम्ब्रियन तथा पूर्व कैम्ब्रियन युग में लगभग 40 करोड़ वर्ष पहले हुआ था. भारत के धारवाड़, छोटानागपुर, अरावली तथा कुड़प्पा के पर्वत इसी श्रेणी में आते हैं.
▪️(ii) केलिडोनियन पर्वत: इन पर्वतों का निर्माण डेविनियन तथा सिलूरियन युग में लगभग 32 करोड़ वर्ष पहले हुआ था. उत्तरी अमेरिका के अप्लेशियन पर्वत तथा यूरोप में स्कॉटलैंड, स्कैण्डनेविया तथा उत्तरी आयरलैंड के पर्वत इस श्रेणी में आते हैं.
▪️(iii) हरसीनियन पर्वत: इन पर्वतों का निर्माण आज से लगभग 22 करोड़ वर्ष पूर्व कार्बन और परमियन कल्पों के बीच हुआ था. एशिया के टयानशान, नामशान, अल्टाई, जुगेरिया, ऑस्ट्रेलिया का पूर्वी कार्डिलेरा, यूरोप का पेनाइन, हार्ज वास्जेस, ब्लैक फॉरेस्ट पर्वत आदि इस श्रेणी में आते हैं.
▪️(iv) अल्पाइन पर्वत: इन पर्वतों का निर्माण आज से लगभग 3 करोड़ वर्ष पूर्व हुआ था. इस श्रेणी में अधिकांश नवीन वलित पर्वत आते हैं, जिनमें हिमालय, आल्प्स, रॉकीज, एण्डीज, पेरेनीज प्रमुख हैं.
2. #ऊंचाई_के_आधार_पर_पर्वतों_का_वर्गीकरण
प्रोफेसर फिंच ने पर्वतों को उनकी ऊंचाई के आधार पर 4 भागों में वर्गीकृत किया गया है:
▪️(i) निम्न पर्वत (Low Mountains): इन पर्वतों की ऊंचाई 2,000 फुट से 3,000 फुट तक होती है.
▪️(ii) कम ऊंचे पर्वत (Rough Mountains): इन पर्वतों की ऊंचाई 3,000 से 4,500 फुट तक होती है.
▪️(iii) साधारण ऊंचे पर्वत (Rugged Mountains): इन पर्वतों की ऊंचाई 4,500 फुट से 6,000 फुट तक होती है.
▪️(iv) अधिक ऊंचे पर्वत (Siessan Mountains): इन पर्वतों की ऊंचाई 6,000 फुट से अधिक होती है.
3. #भौगोलिक_व्यवस्था_के_आधार_पर_पर्वतों_का #वर्गीकरण
प्रोफेसर पी.जी. वौरसेस्टर ने भौगोलिक व्यवस्था के आधार पर पर्वतों को 7 भागों में विभाजित किया है:
▪️(i) पर्वत समूह (Mountain Cluster): इसके अन्तर्गत विभिन्न काल की और विभिन्न विधियों से बनी पर्वतमालाएं, पर्वत क्रम एवं पर्वत श्रेणियां आती हैं. ब्रिटिश कोलम्बिया का कार्डिलेरा पर्वत समूह इसका उदाहरण है.
▪️(ii) पर्वत तंत्र (Mountain System): एक ही काल और एक ही पर्वत से निर्मित अनेक पर्वत-श्रेणियों एवं पर्वत वर्गों के समूह को पर्वत तंत्र कहते हैं. संयुक्त राज्य अमेरिका का अप्लेशियन पर्वत इसका उत्तम उदाहरण है.
▪️(iii) पर्वत-श्रेणी (Mountain Range): जब एक ही प्रकार से बने हुए समान आयु के अनेक पर्वत एक लम्बी तथा संकरी पट्टी में व्यवस्थित होते हैं तो उसे पर्वत-श्रेणी कहा जाता है. हिमालय पर्वत श्रेणी इसका उदाहरण है.
▪️(iv) पर्वत वर्ग (Mountain Group): ये कई पर्वतों से मिलकर बनते हैं, किन्तु इसमें पर्वतों की कोई निश्चित व्यवस्था नहीं होती है. संयुक्त राज्य अमेरिका के कोलोरोडो राज्य में स्थित सान जुआन पर्वत इसका अच्छा उदाहरण है.
▪️(v) पर्वत कटक (Mountain Ridge): जब कोई स्थलखंड वलन अथवा भ्रंशन क्रिया के कारण एक मेहराब के रूप में ऊपर उठ जाता है तो उसे पर्वत कटक कहते हैं. सामान्यतः पर्वत कटक लम्बे और संकरे होते हैं. अप्लेशियन पर्वत की नीली पर्वत, पर्वत कटक का उदाहरण है.
▪️(vi) पर्वत श्रृंखला (Mountain Chain): उत्पत्ति एवं आयु की दृष्टि से असमान पर्वत जब लम्बी और संकरी पट्टियों में पाये जाते हैं तो उन्हें पर्वत श्रृंखला कहा जाता है.
▪️(vii) एकाकी पर्वत (Individual Mountain): कभी-कभी किसी स्थल भाग के अत्यधिक अपरदन के कारण अथवा ज्वालामुखीय क्रिया के कारण एकाकी पर्वतों की रचना हो जाती है. ये पर्वत अपवादस्वरूप ही मिलते हैं.
4. #उत्पत्ति_के_आधार_पर_पर्वतों_का_वर्गीकरण
उत्पत्ति के आधार पर पर्वतों को 4 भागों में विभाजित किया गया है:
▪️(i) वलित पर्वत (Fold Mountains): वलित पर्वतों का निर्माण तलछटी चट्टानों में मोड़ पड़ने के कारण होता है. विद्वानों के अनुसार अब से तीन करोड़ वर्ष पहले पृथ्वी के विस्तृत निचले भागों में तलछटी चट्टानों का जमाव हो गया था, जिन्हें भू-अभिनति (Geosyncline) कहते हैं. समय के साथ पृथ्वी की अन्तर्जात शक्तियों के कारण इन चट्टानों पर पार्श्वीय सम्पीड़न होने लगा, जिसके कारण इन चट्टानों के कुछ भाग नीचे धंस गए और कुछ ऊपर की ओर उठ गए. नीचे धंसे हुए भाग को अभिनति (Syncline) तथा ऊपर उठे हुए भाग को अपनति (Anticline) कहते हैं. अपनति के रूप में ऊपर उठे हुए भाग को ही वलित पर्वत कहते हैं.
वर्तमान युग में सभी बड़े पर्वत वलित पर्वत हैं. एशिया में हिमालय, यूरोप में आल्प्स, उत्तरी अमेरिका में रॉकी तथा दक्षिणी अमेरिका में एण्डीज सभी वलित पर्वत के उदाहरण हैं.
▪️(ii) भ्रंश अथवा खंड पर्वत (Block Mountains): पृथ्वी की आंतरिक शक्तियों के कारण पृथ्वी की पपड़ी पर दरारें पड़ जाती हैं. ये दरारें भू-गर्भ में काम कर रही तनाव की शक्तियों के लम्बवत दिशा में कार्य करने से पड़ती हैं. इन शक्तियों के कारण यदि पृथ्वी के एक ओर का भाग ऊपर उठ जाए अथवा किसी क्षेत्र के आस-पास का भाग नीचे धंस जाए तो ऊपर उठे हुए भाग को भ्रंश पर्वत कहते हैं. फ्रांस का “वास्जेस”, जर्मनी का “ब्लैक फॉरेस्ट”, भारत का “विंध्याचल” एवं “सतपुड़ा” तथा पाकिस्तान का “साल्ट रेंज” भ्रंश पर्वत के उदाहरण हैं.
▪️(iii) ज्वालामुखी पर्वत (Volcanic Mountains): जब ज्वालामुखी से निकलने वाला गाढ़ा होता है तो वह अधिक दूर तक नहीं फैल पता है और ज्वालामुखी के मुख के पास ही जम कर एक पर्वत का निर्माण करता है, जिसे ज्वालामुखी पर्वत कहते हैं. जापान का फ्यूजियामा तथा म्यांमार का पोपा अम्लीय लावा से बना ज्वालामुखीय पर्वत है जबकि हवाई द्वीप समूह का मोनालोआ पर्वत क्षारीय लावा से बना ज्वालामुखीय पर्वत है.
▪️(iv) अवशिष्ट पर्वत (Residual Mountains or Reliet Mountains): इन पर्वतों का निर्माण के कारण होता है. नदी, वायु, हिमनदी जैसे अपरदन के कारक प्राचीनकालीन उच्च भूभाग को अपरदन के द्वारा कुरेद देते हैं. इसके बाद बाकी बचे हुए भाग को अवशिष्ट पर्वत अथवा घर्षित पर्वत कहते हैं. भारत में नीलगिरी, पारसनाथ तथा राजमहल की पहाड़ियां तथा मध्य स्पेन के सीयरा तथा अमेरिका के मैसा एवं बूटे की पहाड़ियां अवशिष्ट पर्वत के उदाहरण हैं.
#विश्व_के_पर्वत_श्रृंखलाओं_की_सूची
1. कॉर्डिलेरा डी लॉस एन्डिस
▪️स्थान: पश्चिमी दक्षिण अमेरिका
▪️सर्वोच्च चोटी: आकोंकागुआ या आकोंकाग्वा
2. रॉकी पर्वत
▪️स्थान: पश्चिमी दक्षिण अमेरिका
▪️सर्वोच्च चोटी: माउंट अल्बर्ट
3. हिमालय-काराकोरम-हिंदूकुश
▪️स्थान: दक्षिण मध्य एशिया
▪️सर्वोच्च चोटी: माउंट एवेरेस्ट
4. ग्रेट डिविडिंग रेंज
▪️स्थान: पूर्वी ऑस्ट्रेलिया
▪️सर्वोच्च चोटी: माउंट कोस्सिउसको
5. ट्रांस अंटार्कटिका पर्वत
▪️स्थान: अंटार्कटिका
▪️सर्वोच्च चोटी: माउंट विन्सन मासिफ
6. तिएन शान
▪️स्थान: दक्षिण मध्य एशिया
▪️सर्वोच्च चोटी: माउंट पाइक पोवेदा
7. अल्ताई
▪️स्थान: मध्य एशिया
▪️सर्वोच्च चोटी: माउंट गोरा वेलुखा
8. यूराल
▪️स्थान: मध्य रूस
▪️सर्वोच्च चोटी: माउंट गोरा नॉर्डनया
9. कमचटका
▪️स्थान: पूर्वी रूस
▪️सर्वोच्च चोटी: माउंट क्लेचशेकाया सोपका
10. एटलस
▪️स्थान: उत्तर-पश्चिम अफ्रीका
▪️सर्वोच्च चोटी: माउंट जेबेल टौक्काल
11. वेर्खोयांस्क
▪️स्थान: पूर्वी रूस
▪️सर्वोच्च चोटी: माउंट गोरा मास खाया
12. पश्चिमी घाट
▪️स्थान: पश्चिमी भारत
▪️सर्वोच्च चोटी: माउंट अनामुड़ी
13. सिएरा मेड्रे ओरिएंटल
▪️स्थान: मेक्सिको
▪️सर्वोच्च चोटी: माउंट ओरिजावा
14. जाग्रोस
▪️स्थान: ईरान
▪️सर्वोच्च चोटी: माउंट ज़द कुह
15. अलबुर्ज़
▪️स्थान: ईरान
▪️सर्वोच्च चोटी: माउंट दमावंद
16. स्कैंडिनेवियन रेंज
▪️स्थान: पश्चिमी नॉर्वे
▪️सर्वोच्च चोटी: माउंट गल्धोपिजें
17. पश्चिमी सिएरा माद्री
▪️स्थान: मेक्सिको
▪️सर्वोच्च चोटी: माउंट नेवादो डे कोलिमा
18. ड्रैकेंसबर्ग
▪️स्थान: दक्षिण पूर्व अफ्रीका
▪️सर्वोच्च चोटी: माउंट द्वानायेंतालेंयाना
19. काकेशस
▪️स्थान: रूस
▪️सर्वोच्च चोटी: माउंट एल्ब्रस (पश्चिमी चोटी)
20. अलास्का रेंज
▪️स्थान: अलास्का, अमेरिका
▪️सर्वोच्च चोटी: माउंट मैककिनले (दक्षिणी चोटी)
21. कैसकेड रेंज
▪️स्थान: अमेरिका-कनाडा
▪️सर्वोच्च चोटी: माउंट रेनियर
22. अपेंनिने
▪️स्थान: इटली
▪️सर्वोच्च चोटी: माउंट कॉर्न ग्रांडे
23. अप्पलाचियन
▪️स्थान: पूर्वी अमेरिका-कनाडा
▪️सर्वोच्च चोटी: माउंट मिशेल
24. ऐल्प्स
▪️स्थान: मध्य यूरोप
▪️सर्वोच्च चोटी: माउंट ब्लैंक
25. सिएरा मेड्रे डेल सुर
▪️स्थान: मेक्सिको
▪️सर्वोच्च चोटी: माउंट तिओपेक
विश्व के प्रमुख पर्वत श्रृंखलाओं की उपरोक्त सूची में विश्व के प्रमुख पर्वत तथा उनकी सर्वोच्च चोटी के नाम शामिल किये गए हैं जो परीक्षार्थियों, पर्वतारोही और यात्रियों की सामान्य जागरूकता में सहायक होंगे।
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विश्व_का_भूगोल :
भूकंप_व_ज्वालामुखी
#भूकंप
भूकम्प का साधारण अर्थ है भूमि का काँपना अर्थात पृथ्वी का हिलना । दूसरे शब्दो में अचानक झटके से प्रारंभ हुए पृथ्वी के कंपन को भूकंप कहते हैं। यदि किसी तालाब के शांत जल मे एक पत्थर फेका जाए तो जल के तल पर सभी दिशाओं में तरंगे फैल जाएँगी । इसी प्रकार से जब चट्टानों मे कोई आकस्मिक हलचल होती है तो उससे कंपन पैदा होता है उसी प्रकार भू- पर्पटी में आकस्मिक कंपन पैदा होता है जिससे तरंगें उत्पन होती है। तरंगे अपनी उत्पत्ति केंन्द्र से चारो ओर आगे बढ़ती हैं.
#भूकंप_का_केंद्र_तथा_अभिकेंद्र
विश्व के अधिकांश भूकंप भूतल से 50 से 100 कि. मी. की गहराई पर उत्पन्न होते हैं। जिस स्थान पर ये उत्पन्न होते है।
उसे उद्गम केंद्र (Focus) कहते हैं। इस उद्गम केंद्र के ठीक ऊपर पृथ्वी के धरातल पर स्थित स्थान को अधिकेंद्र (Epicentre) कहते हैं। भूकम्पीय तरंगें उद्गम केंद्र से सभी दिशाओं में चलती हैं।
भूकंपलेखी (Seismograph) यह एक बहुत ही संवेदनशील यंत्रा है जो हजारो कि0 मी0 दूर उत्पन्न हुए इतने कम शक्ति वाले छोटे भूकंपो का भी अभिलेख कर सकता है जिनकी पहचान सामान्यतः मानव अनुभूतियों द्वारा नही की जा सकती। इसकी रचना जड़त्व के सिद्धांत (Principle of Inertia) पर आधारित है। यह किसी भी द्रव्यमान जो या तो स्थिर है या एक सीधे मार्ग मे एक समान गति की अवस्था मे है, के परिवर्तन का प्रतिरोध करने की प्रवृति है। किसी पदार्थ का द्रव्यमान जितना अधिक होगा प्रतिरोध की प्रवृति भी उतनी ही अधिक होगी । इसमे क्षैतिज गति वाला यंत्रा प्रदर्शित किया गया है। एक भारी ठोस एक उध्र्व स्तम्भ से एक तार द्वारा लटकाया जाता है इसे क्षैतिज रखने के लिए तथा इसकी ऊध्र्वाधर गति रोकने के लिए एक छड़ (Beam) का उपयोग करते हैं। भारी ठोस से एक दर्पण लगा होता है। इस पर प्रकाश की तीव्र किरणे डाली जाती है जो परावर्तित होकर एक घुमने वाले ड्रम (Drum) पर पड़ती है इस ड्रम पर फिल्म लगी होती है। यदि भूकंप न आए तो ड्रम पर किरणे एक सीधा रेखा बनाती है। भूकंप आने पर यह रेखा टेढ़ी मेढ़ी हो जाती है । ऊध्र्व स्तम्भ पृथ्वी की गहरी आधार शैल पर मजबूती से गडा़ रहता है जिसमे भूकंप के समय यह स्तम्भ भी शैल के साथ गति कर सके।
भूकंपलेखी द्वारा प्रत्यक्ष रूप से दो माप किए जाते हैं:
▪️अभिलेखित की गई सबसे विशाल तरंग का आयाम
▪️पी एवं एस तरंगो के आगमन समय मे अंतर।
#भूकंप_की_भविष्यवाणी: यद्यपि भूकंप की भविष्यवाणी करना बहुत ही कठिन कार्य है तथापि इसके लिए दो विधियाँ प्रयोग की जाती हैं: (i) भूकंप के आने से ठीक पहले होने वाले विभिन्न प्रकार के भौतिक परिर्वतनों का मापन तथा (ii) भूकंप के ऐतिहासिक पृष्ठभूमि अर्थात प्रभावित क्षेत्रा का दीर्घकालीन भूकंपी इतिहास। भूकंप के समय होने वाले भौतिक परिर्वतन निम्नलिखित है:
1. #पी_तरंग_वेग: बहुत से छोटे छोटे भूकंप पी तरंगो के वेग मे परिर्वतन कर देते है जो कि किसी बड़े भूकंप के ठीक पहले सामान्य हो जाते है। इन परिर्वतन को भूकंपलेखी पर अभिलेखीत किया जाता है।
2. #भूमि_उत्थान: भूकंप से पहले भूखंड के धीमी गति से खिसकने से एक बड़ क्षेत्रा की शैलो मे असंख्य छोटी छोटी दरारें पड़ जाती है। इन नवनिर्मित दरारों मे भूमि गत जल प्रवेश कर जाता है। जल की उपस्थिति द्रवचालित जैक की भाँति कार्य करती है। जिससे शैलों मे उभार उत्पन्न हो जाते है। अतः बड़े भूकंप के आने से पहले भूमि गुंबदाकार आकृति मे फूल जाती है अथवा ऊपर उठ जाती है। इस परिर्वतन को दाबखादिता (क्पसंजंदबल) कहते है।
3. #रैडन_निकास (Rodon Emission): रैडन गैस का निकास किसी बड़े भूकंप के आने से पूर्व बढ़ जाता है । अतः रैडन गैस के निकास पर दृष्टि रखने से किसी बड़े भूकंप के आने की चेतावनी मिल सकती है।
4. #पशुओं_का_आचरण: प्रायः देखने मे आया है कि किसी बड़े भूकंप के आने से पहले जीव जन्तु विशेषतया बिलों मे रहने वाले जीव जन्तु असाधारण ढं़ग से व्यवहार करने लगते है। चीटिंयाँ दीमक तथा अन्य बिलों मे रहने वाले जीव अपने छिपने के स्थान से बाहर निकल आते है । चिड़ियाँ जोर जोर से चहचहाती है तथा कुत्ते एक नियत प्रकार से भौंकते तथा रोते हैं।
#प्रेरित_भूकंप (Induced Earthquake): ये भूकंप मनुष्य के कार्य कलाप द्वारा आते है । उदाहरणतया बम के धमाके से, रेलो के चलने से अथवा कारखानों मे भारी मशींनो के चलने से भी पृथ्वी मे कंपन होता रहता है । तेल के क्षेत्रो में द्रवस्थेैतिक दाब को बढ़ाने तथा तेल प्राप्ति मे वृद्धि करने के लिए तरल पदार्थो का पंपन किया जाता हैं । इससे छोटेे भूकंप पैदा होते है बड़े बड़े बाँध बनाने से भी भूकंप आते है । बाँधो के पीछे अथाह जलराशी की झील बन जाती है। इससे समस्थितिक संतुलन बिगड़ जाता है । और भूकंप आता है । महाराष्ट्र मे 11-12-1967 के दिन कोयना का भूकंप कोयना बाँध द्वारा अपार जलराशि जमा करने से ही आया था ।
भूकम्पो का वितरण (Distribution of Earthquakes)
भूकम्पों का विश्व - वितरण ज्वालामुखीयों के वितरण से मिलता - जुलता है। भूकम्प विश्व के कमजोर भागों मे ही अधिक आते है।
1. #प्रशान्त_महासागरीय_पेटी - विश्व के 68% भूकम्प प्रशान्त महासागर के तटीय भागों में आते हैं । इसे अग्निवलय (Ring of fire) कहते है। यहाँ पर ज्वालामुखी भी सबसे अधिक है। चिली कैलीफोर्निया ,अलास्का जापान, फिलीपाइन, न्यूजीलैंण्ड तथा मध्य माहासागरीय भागों मे हल्के तथा भीषण भूकम्प आते रहते है। यहाँ पर उच्च स्थलीय पर्वत तथा गहरी महासागरीय खाइयाँ एक दूसरे के लगभग समानान्तर चली गई है। इससे तीव्र ढ़ाल उत्पन्न होता हैं । जो भूकम्पो को आने का महत्वपूर्ण कारण बनता है।
2. #मध्य_विश्व_पेटी (Mid World Belt) - इस पेटी में विश्व के 21% भूकम्प आते हैं। यह पेटी मैक्सिको से शुरू होकर अटलांटिक महासागर भूमध्यसागर आल्प्स तथा काकेसस से होती हुई हिमालय पर्वत तथा उसके समीपवर्ती क्षेत्रों तक फैली हुई है।
3. #अन्य_क्षेत्रा- शेष 11% भूकम्प विश्व के अन्य भागों में आते है । कुछ भूकम्प अफ्रीकी झीलों लाल सागर तथा मृत सागर वाली पट्टी में आते है।
#ज्वालामुखी (Volcanoes)
ज्वालामुखी पृथ्वी पर होने वाली एक आकस्मिक घटना है। इससे भू - पटल पर अचानक विस्फोट होता है , जिसके द्वारा लावा गैस, धुआँ, राख, कंकड, पत्थर आदि बाहर निकलते हैं। इन सभी वस्तुओं का निकास एक प्राकृतिक नली द्वारा होता है जिसे निकास नालिका (Ventor Neck) कहते हैं। लावा धरातल पर आने के लिए एक छिद्र बनाता है जिसे विवर या क्रेटर (Crater) कहते है। लावा अपने विवर के आस पास जम जाता है और एक शंकु के आकार का पर्वत बनाता है। इसे ज्वालामुखी पर्वत कहते हैं। कई बार लावा मंुख्य नली के दोनो ओर के रन्ध्रों मे से होकर निकलता हैं। और छोटे -छोटे शंकुओं का निर्माण करता है। जिन्हे गौण शंकु (Secondary Cone) कहते है। सभी ज्वालामुखी मैग्मा से बनते है । मैग्मा धरातल के नीचे गर्म पिघला हुआ पदार्थ है जो धरातल पर लावा या ज्वालामुखी चट्टानी टुकड़ो के रूप मे बाहर आता हैं । लावा का तापमान बहुत अधिक अर्थात 800व से 1300व से0 तक होता है तथा इसमें भाप तथा कई अन्य गैसें मिली होती हैं।
#ज्वालामुखी_से_निःसृत_पदार्थ (Materials Ejected by Volcanoes)
ज्वालामुखी से गैस, तरल तथा ठोस तीनों प्रकार के पदार्थ निकलते है।
1. #गैसें - ज्वालामुखी उद्गार के समय कई प्रकार की गैसें निकलती है जिनमे बहुत ही प्रज्वलित गैसें (हाईड्रोजन सल्फाइड व कार्बन डाई सल्फाइड) जहरीली गैसें (कार्बन मोनो- आक्साइड व सल्फर डाई आक्साइड) तथा अन्य गैसे हाइड्रोक्लोरिक एसिड व आमोनिया क्लोराइड आदि) सम्मिलित हैं । गैसें मे जल वाष्प का महत्व सबसे अधिक है। ज्वालामुखी से बाहर निकलने वाली गैसें मे 60 से 90% अंश जलवाष्प का ही होता है। जलवाष्प वायुमण्डल के सम्पर्क मे आते ही ठण्डा हो जाता है और मुसलाधार वर्षा करता है।
2. #तरल_पदार्थ- ज्वालामुखी से निकलने वाले तरल पदार्थ को लावा कहते है। यह बहुत ही गर्म होता है। ताजा निष्कासित लावे का तापमान 600से 1200 डिग्री सेल्सियस तक होता है। कई बार लावे के साथ जल भी निकलता है। लावे की गति उसकी रासायनिक संरचना तथा भूमि के ढ़ाल पर निर्भर करती है। इसकी गति अधिकतर धीमी होती है। परन्तु कभी - कभी यह 15 कि0 मी0 प्रति घण्टा की गति से भी बहता है । जब लावा अधिक तरल हो तथा भूमि का ढ़ाल अति तीव्र हो तो यह 80 कि0 मी0 प्रति घण्टा की गति से भी बहता है।
3. #ठोस_पदार्थ - ज्वालामुखी विस्फोट के समय गैसें तथा तरल पदार्थो के साथ - साथ ठोस पदार्थ भी बड़ी मात्रा में निःसृत होते है ये बारीक धूल कणों तथा राख से लेकर कई टन भार वाले शिला खण्ड होते हैं। मटर के दाने जितने शिला-खण्डों को लैंपिली (Lapillus) तथा छह-सात सेंटीमीटर से लेकर एक मीटर व्यास वाले शिला - खण्डों को ज्वालामुखी बम्ब (Volcanic Bomb) कहते है। कभी कभी बहुत छोटे-छोटे नुकीले शिला खण्ड लावा से चिपककर संगठित हो जाते हैं। इन्हे ज्वालामुखी संकोणश्म (Volcanic Breecia) कहते है।
#ज्वालामुखी_के_प्रकार (Types of volcanoes)
ज्वालामुखी मुख्यतः निम्नलिखित प्रकार के होते हैं:
1. #सक्रिय_ज्वालामुखी (Active Volcanoes) इस प्रकार के ज्वालामुखी मे प्रायः विस्फोट तथा उद्भेदन होता ही रहता है इनका मुख सर्वदा खुला रहता है और समय समय पर लावा, धुआँ तथा अन्य पदार्थ बाहर निकलते रहते हैं और शंकु का निर्माण होता रहता है। इटली मे पाया जाने वाला एटना ज्वालामुखी इसका प्रमुख उदाहरण है जो कि 2500 वर्षो से सक्रिय है। सिसली द्वीप का स्ट्राम्बोली ज्वालामुखी प्रत्येक 15 मिनट बाद फटता है और भूमध्य सागर का प्रकाश मीनार कहलाता है।
2. #प्रसुप्त_ज्वालामुखी (Dorment Volcanoes) - इस प्रकार के ज्वालामुखी मे दीर्घकाल से उद्भेदन (विस्फोट) नही हुआ होता किन्तु इसकी सम्भावनाएँ बनी रहती है। ये जब कभी अचानक क्रियाशील हो जाते है तो जन धन की अपार क्षति होती है। इसके मुख से वाष्प तथा गैसें निकला करती है। इटली का विसूवियस ज्वालामुखी कई वर्ष तक प्रसुप्त रहने के पश्चात् सन् 1931 में अचानक फूट पड़ा जो इसका प्रमुख उदाहरण है।
3. #विलुप्त_ज्वालामुखी (Extinct Volcanoes) इस प्रकार के ज्वालामुखी में विस्फोट प्रायः बन्द हो जाते हैं। और भविष्य मे भी कोई विस्फोट होने की सम्भावना नही होती । इसका मुख, मिट्टी लावा आदि पदार्थो से बन्द हो जाता है और मुख का गहरा क्षेत्रा कालान्तर में झील के रूप मे बदल जाता है जिसके ऊपर पेड़ पौधे उग आते है। मयनमार का पोपा ज्वालामुखी इसका प्रमुख उदाहरण है।
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प्लेट_विवर्तनिकी_सिद्धान्त
भौतिक भूगोल, भू-आकृति विज्ञान एवं भू-विज्ञान में प्लेट विवर्तनिकी का विचार नवीन है जिसके आधार पर महाद्वीपों व महासागरों की उत्पत्ति, ज्वालामुखी एवं भूकम्प की क्रिया तथा वलित पर्वतों के निर्माण आदि का वैज्ञानिक स्पष्टीकरण दिया जा सकता है। प्लेट विवर्तनिकी का सिद्धान्त बीसवीं शताब्दी के 60वें दशक में प्रस्तुत किया गया जिसका प्रभाव समस्त भू-विज्ञानों पर पड़ा। इसके आधार पर महाद्वीपों एवं महासागरों के वितरण को भी एक नवीन दिशा मिली। इससे पूर्व 1948 में एविंग नामक वैज्ञानिक ने अटलांटिक महासागर में स्थित अटलांटिक कटक की जानकारी दी। इस कटक के दोनों और की चट्टानों के चुम्बकन के अध्ययन के आधार पर वैज्ञानिकों ने उत्तर दक्षिण दिशा में चुम्बकीय पेटियों का स्पष्ट एवं समरूप प्रारूप पाया। इसके आधार पर निष्कर्ष निकाला गया कि मध्य महासागरीय कटक के सहारे नवीन बेसाल्ट परत का निर्माण होता है।
सर्वप्रथम हेस ने 1960 में विभिन्न साक्ष्यों द्वारा प्रतिपादित किया कि महाद्वीप तथा महासागर विभिन्न प्लेटों पर टिके हैं। प्लेट विवर्तनिकी की अवधारणा को 1967 में डीपी मेकेन्जी, आरएल पारकर तथा डब्ल्यू जे मॉर्गन आदि विद्वानों ने स्वतंत्र रूप से उपलब्ध विचारों के आधार पर प्रस्तुत किया। यद्यपि इससे पहले टूजो विल्सन ने प्लेट शब्द का प्रयोग किया था, जो व्यवहार में नहीं आ पाया था।
पृथ्वी का बाह्य भाग दृढ़ खण्डों से बना है जिसे प्लेट कहा जाता है। प्लेटल विवर्तनिकी लैटिन शब्द (Tectonicus) टेक्टोनिक्स से बना है। प्लेट विवर्तनिकी एक वैज्ञानिक सिद्धान्त है, जो स्थलमण्डल गति को बड़े पैमाने पर वर्णित करता है। यह मॉडल महाद्वीपीय विस्थापन सिद्धान्त की परिकल्पना पर आधारित है। पृथ्वी का ऊपरी भाग स्थलमण्डल कहलाता है, जो कि तीन परतों में विभाजित है। ऊपरी भूपृष्ठ जिसकी औसत गहराई 25 किलोमीटर है, नीचला भूपृष्ठ जिसकी औसत गहराई 10 किलोमीटर है। ऊपरी मैटल जिसकी औसत गहराई 65 किलोमीटर है। यह भाग कठोर है जिसका औसत घनत्व 2.7 से 3.0 है। इस स्थलमण्डल के ठीक नीचे दुर्बलतामण्डल है जिसकी औसत मोटाई 250 किलोमीटर है। इस मंडल का घनत्व 3.5 से 4.0 तक है। स्थलमण्डल अधिक ठंडा एवं अधिक कठोर है, जबकि गर्म एक कठोर है एवं सरलता से प्रवाह करता है।
स्थलमण्डलीय प्लेटों की संख्या के सम्बन्ध में विद्वान एकमत नहीं है। डीट्ज एवं हेराल्ड ने इनकी संख्या 10 बताई। डब्ल्यू जे मॉरगन ने इसकी संख्या 20 बताई। सामान्यतः भूपटल पर सात बड़ी व 14 छोटी प्लेटें हैं, जो दुर्बलतामण्डल पर टिकी हुई हैं, ये प्लेटें तीन प्रकार की हैं, महाद्वीपीय, महासागरीय एवं महाद्वीपीय व महासागरीय।
#महत्वपूर्ण_प्लेटें :
#उत्तरी_अमेरीकन_प्लेट : इसका विस्तार उत्तरी अमरीका तथा मध्य अटलांटिक कटक तक अटलांटिक के पश्चिमी भाग पर है। कैरेबियन तथा कोकोस छोटी प्लेटें दक्षिणी अमरीकी प्लेट से पृथक करती है।
#दक्षिणी_अमेरीकन_प्लेट : यह दक्षिणी अमरीका महाद्वीप तथा दक्षिणी अटलांटिक के पश्चिमी भाग में मध्य अटलांटिक कटक तक विस्तृत है।
#प्रशान्त_महासागरीय_प्लेट : यह महासागरीय प्लेट है जिसका विस्तार अलास्का क्यूराइल द्वीप समूह से प्रारम्भ होकर दक्षिण में अंटार्कटिक रिज तक सम्पूर्ण प्रशान्त महासागर पर है। इसके किनारों पर फिलीपींस, नजका तथा कोकोस लघु प्लेटें स्थित हैं। यह प्लेट सबसे बड़ी हैं।
#यूरेशियाई_प्लेट : यह प्लेट मुख्यरूप से महाद्वीपीय है जिसका विस्तार यूरोप एवं एशिया पर है। इसमें कई छोटी प्लेटें भी संलग्न हैं जैसे पर्शियन प्लेट तथा चीन प्लेट। इसकी दिशा पश्चिम से पूर्व है।
#इंडो_आस्ट्रेलियाई_प्लेट : यह महाद्वीपीय व महासागरीय दोनों प्रकार की प्लेट हैं। परन्तु इसमें सागरीय क्षेत्र अधिक है। इसका विस्तार भारतीय प्रायद्वीप अरब प्रायद्वीप, आस्ट्रेलिया तथा हिन्द महासागर के अधिकांश भाग पर है। इसकी दिशा दक्षिण-पश्चिम से उत्तर पूर्व है।
#अफ्रीकन_प्लेट : यह समस्त अफ्रीका, दक्षिण अटलांटिक महासागर के पूर्वी भाग तथा हिन्द महासागर के पश्चिमी भाग पर विस्तृत है। इसकी दिशा उत्तर-पूर्व है।
#अंटार्कटिक_प्लेट : इसका विस्तार अंटार्कटिक महाद्वीप तथा इसके चारों ओर विस्तृत सागर पर है। यह महाद्वीप व महासागरीय प्लेट है। इन प्लेटों के अतिरिक्त महत्त्वपूर्ण छोटी प्लेटें निम्नलिखित हैं-
#कोकस_प्लेट : यह प्लेट मध्यवर्ती अमरीका और प्रशान्त महासागरीय प्लेट के मध्य स्थित है।
#नजका_प्लेट : इसका विस्तार दक्षिणी अमरीकी प्लेट तथा प्रशान्त महासागरीय प्लेट के मध्य है।
#अरेबियन_प्लेट : इस प्लेट में अधिकतर अरब प्रायद्वीप का भाग सम्मिलित है।
#फिलीपाइन_प्लेट : यह प्लेट एशिया महाद्वीप एवं प्रशान्त महासागरीय प्लेट के मध्य स्थित है।
#कैरोलिन_प्लेट : यह न्यूगिनी के उत्तर में स्थित है।
#प्लेटों_की_सीमाएँ
प्लेटों में तीन प्रकार की गतियां होती हैं। जिनके आधार पर ये तीन प्रकार की सीमाएँ बनाती हैं, जो निम्नानुसार हैं-
#अपसारी_सीमाएँ
पृथ्वी के आन्तरिक भाग में संवहन तरंगों की उत्पत्ति के कारण जब दो प्लेटें विपरीत (एक-दूसरे से दूर) दिशा में गतिशील होती हैं तो ये अपसारी किनारों का निर्माण करती हैं। इन सीमाओं के मध्य बनी दरार में भूगर्भ का तरल मैग्मा ऊपर आता है तथा दोनों प्लेटों के मध्य तीन नवीन ठोस तली का निर्माण होता है। इसे रचनात्मक किनारा भी कहा जाता है। इस प्रकार का नवीन तली का निर्माण महासागरीय कटक व बेसिन में पाया जाता है। इसका सर्वोत्तम उदाहरण मध्य अटलांटिक कटक है जहाँ अमरीकी प्लेटें यूरेशियन प्लेट तथा अफ्रीकन प्लेट से अलग हो रही हैं। इन सीमाओं पर ज्वालामुखी क्रिया भी देखने को मिलती है।
पृथ्वी पर पाई जाने वाली प्लेटें दुर्बलतामण्डल पर अस्थिर रूप से स्थित है, जिनमें निरन्तर परिवर्तन होता रहता है। वेगनर के महाद्वीपीय विस्थापन सिद्धान्त को स्वीकार करने में सबसे बड़ी बाधा यह समझाने की थी कि सियाल के बने महाद्वीप सीमा पर कैसे तैरते हैं तथा उसे विस्थापित करते हैं। 1928 में आर्थर होम्स ने बताया कि पृथ्वी के आन्तरिक भाग में रेडियोधर्मी तत्वों से निकली गर्मी से ऊर्ध्वाधर संवहन धाराएँ उत्पन्न होती हैं। अधोपर्पटी संवहन धाराएँ तापीय संवहन की क्रियाविधि प्रारम्भ करती हैं, जो प्लेटों के संचालन के लिये प्रेरक बल का काम करती हैं। संवहन धाराओं द्वारा ऊष्मा की उत्पत्ति की खोज रमफोर्ड ने 1997 में की थी। भूपटल के नीचे संवहन धाराओं का संकल्पना हॉपकिन्स ने 1849 में प्रस्तावित की थी। उष्ण धाराएँ ऊपर उठकर भूपृष्ठ पर पहुँचकर ठंडी हो जाती हैं, जिससे पुनः नीचे की ओर चलना प्रारम्भ कर देती हैं। इससे प्लेटों में गति होती है।
संवहन धाराएँ स्थलमण्डल की प्लेटों को अपने साथ प्रवाहित करती हैं। महासागरीय घटकों में संवहन धाराओं के साथ तरल मैग्मा बाहर आ जाता है। मैटल में लचीलापन आन्तरिक तापमान व दबाव पर निर्भर करता है। संवहन धाराओं के साथ तप्त पिघला हुआ मैग्मा ऊपर उठता है। भूपटल के नीचे संवहन धाराएँ विपरीत दिशा में अपसरित होती हैं जिससे मैग्मा भी दोनों दिशाओं में फैल जाता है और ठंडा होने लगता है। जहाँ दो विपरीत दिशाओं से संवहन धाराएँ मिलती हैं वहाँ ये मुड़कर पुनः केन्द्र की ओर चल पड़ती हैं। अतः ठंडा मैग्मा भी नीचे धँसता है एवं गर्म होने लगता है। जैसे-जैसे यह केन्द्र की और बढ़ता है, उसके आयतन में विस्तार होता है।
जहाँ संवहन तरंगे विपरीत दिशा में अपसरित होती हैं, वहाँ भूपृष्ठ पर प्लेटें एक दूसरे से दूर खिसकती हैं तथा जहाँ संवहन तरंगे मिलकर मिलकर पुनः केन्द्र की तरफ संचालित होती हैं। उस स्थान पर प्लेटें एक-दूसरे के समीप आती हैं।
प्लेटें एक दूसरे के सापेक्ष में निरन्तर गतिशील रहती हैं। जब एक प्लेट गतिशील होती है तो दूसरी का गतिशील होना स्वाभाविक होता है। प्लेटों का घूर्णन यूलर के ज्यामितीय सिद्धान्त के आधार पर गोले की सतह पर किसी प्लेट की गति एक सामान्य घूर्णन के रूप में होती है, जो एक घूर्णन अक्ष के सहारे सम्पादित होता है।
प्लेट के रचनात्मक एवं बिना किसी किनारे के सापेक्षिक संचलन का वेग उसके अक्ष के सहारे कोणिक वेग तथा घूर्णन अक्ष से प्लेट किनारे के बिन्दु की कोणिक दूरी के समानुपातिक होता है। घूर्णन अक्ष गोले के केन्द्र से होकर गुजरती है। जब प्लेट गतिमान होती है तो उसके सभी भाग घूर्णन अक्ष के सहारे लघु चक्रीय मार्ग के सहारे गतिशील होते हैं। प्लेटों की गति व दिशा का अध्ययन उपग्रहों पर स्थापित लेसर परावर्तकों के माध्यम से किया जाता है।
#महाद्वीप_विस्थापन
प्लेट विर्वतनिकी सिद्धान्त के आधार पर महाद्वीपीय विस्थापन का कारण स्पष्ट हो जाता है। वेलेन्टाइन तथा मूर्स एवं हालम ने 1973 में इस तथ्य को प्लेटों की गति को सागरीय तली के प्रसार तथा पुराचुम्बकत्व के प्रमाणों के आधार पर प्रमाणित किया है।
पुराचुम्बकीय सर्वेक्षण के आधार पर महासागरों के खुलने एवं बन्द होने के प्रमाण मिले हैं। भूमध्यसागर वृहद महासागर का अवशिष्ट भाग है। इसका सकुंचन का कारण अफ्रीकन प्लेट के उत्तर की ओर सरकना है। वर्तमान में लाल सागर का भी विस्तार हो रहा है। स्थलीय या महासागरीय प्लेट एक-दूसरे के सापेक्ष में गतिमान हैं। हिमालय की भी ऊँचाई बढ़ी है।
#पर्वत_निर्माण
प्लेट विर्वर्तनिकी सिद्धान्त के आधार पर भूपृष्ठ पर पाये जाने वाले विशाल वलित (मोड़दार) पर्वतों का निर्माण हुआ। प्लेटों के विस्थापन से संकुचलन एवं टकराहट के कारण विनाशकारी किनारे पर निक्षेपित अवसादों में मोड़ पड़ने से वलित पर्वतों का निर्माण हुआ। प्रशान्त प्लेट से अमरीकन प्लेट के विनाशात्मक किनारे क्रस्ट के नीचे दबने से सम्पीडनात्मक बल का जन्म हुआ व उत्तरी तथा दक्षिणी किनारे के पदार्थ वलित हो गए एवं एंडीज तथा रॉकी पर्वतों का निर्माण हुआ।
भारतीय प्लेट एवं यूरेशियन प्लेट के एक-दूसरे की ओर अग्रसर होने से अंगारालैंड व गोंडवानालैंड के मध्य स्थित टैथिस सागर में निक्षेपित अवसाद वलित हो गए। इससे हिमालय जैसे विशाल वलित पर्वतों का निर्माण हुआ।
यूरोप व अफ्रीका प्लेट के टकराने से आल्पस पर्वतों का निर्माण हुआ। इस विस्थापन से भारतीय प्लेट एशिया प्लेट के नीचे दब गई जिसके भूगर्भ में पिघलने से हिमालय का उत्थान हुआ।
#ज्वालामुखी
प्लेट विवर्तनिकी ज्वालामुखी की उत्पत्ति तथा वितरण पर भी पूर्ण वैज्ञानिक व्याख्या करती है। जहाँ दो प्लेटें एक-दूसरे से दूर जाती हैं, वहाँ दबाव कम होने से दरारों से लावा प्रवाह होने लगता है। इसी प्रकार सागर तली में कटक का निर्माण होता है व नवीन बेसाल्ट तली का निर्माण निरन्तर होता रहता है। जहाँ प्लेट के दो किनारे मिलते हैं, वहाँ उठती हुई संवहन धाराओं के कारण ज्वालामुखी विस्फोट हो जाता है। जब प्लेट के विनाशात्मक किनारे टकराते हैं तब भी प्लेट के दबने से व मैटल के पिघलने से निकटवर्ती क्षेत्र में दबाव बढ़ जाता है और ज्वालामुखी विस्फोट हो जाता है। विश्व के सर्वाधिक सक्रिय ज्वालामुखी प्लेट सीमाओं के सहारे ही पाये जाते हैं। इसमें प्रशान्त प्लेट के अग्नि वृत्त पर सर्वाधिक है। इन्हीं क्षेत्रों में भूकम्प के झटके भी महसूस किये जाते हैं। संरक्षी किनारों पर तीव्र भूकम्प आते हैं।
उपर्युक्त प्रभावों के साथ-साथ पृथ्वी पर कार्बोनीफरस युग के हिमावरण एवं जलवायु परिवर्तन को भी सिद्धान्त द्वारा आसानी से समझा जा सकता है। अंटार्कटिक में कोयला भण्डारों का पाया जाना वहाँ के जलवायु परिवर्तनों को प्रमाणित करता है। प्लेट विवर्तनिकी के आधार से हिन्द महासागर का अस्तित्व क्रिटेशय युग से पहले नहीं था। दक्षिणी पेंजिया में अंटार्कटिका, अफ्रीका, आस्ट्रेलिया तथा भारत आदि सम्मिलित थे। इस युग के अन्तिम चरण में भारतीय प्लेट उत्तर की ओर सरकी जिससे आस्ट्रेलिया एवं अंटार्कटिक अफ्रीका से अलग होने लगे। इयोसीन युग में आस्ट्रेलिया अंटार्कटिका से अलग हुआ तथा इसका प्रवाह दक्षिण की ओर हुआ। अतः यहाँ ठंडी जलवायु पाई जाती है।
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विश्व_का_भूगोल
अन्तर्जात_और_बहिर्जात_बल
पृथ्वी की सतह पर दो प्रकार के बल कार्य करते हैं। एक अन्तर्जात बल तथा दूसरा बहिर्जात बल। अन्तर्जात बल पृथ्वी के आन्तरिक भागों से उत्पन्न होता है। यह बल भू-तल पर विषमताओं का सृजन करता है। तथा बहिर्जात बल पृथ्वी की सतह पर उत्पन्न होता है। यह बल भू-तल पर समतल की स्थापना करता है।
#अन्तर्जात_बल (Endogenetic Force)---
अन्तर्जात बलों को कार्य की तीव्रता के आधार पर दो प्रकारों में बांटा गया है।
▪️1- आकस्मिक बल---
इस बल से भूपटल पर विनाशकारी घटनाओं का आकस्मिक आगमन होता है। जैसे भूकम्प, ज्वालामुखी व भू-स्खलन
▪️2 दीर्घकालिक बल---
इसे पटल विरूपणी बल (Diastrophic force) भी कहा जाता है। इसके अन्तर्गत लम्बवत तथा क्षैतिज संचलन आते हैं। इन संचलनों को क्रमशः महाद्वीप निर्माण कारी लम्बवत संचलन तथा पर्वत निर्माण कारी क्षैतिज संचलन कहते हैं।
▪️a- महाद्वीप निर्माणकारी लम्बवत संचलन---
इस संचलन से महाद्वीपीय भागों का निर्माण एवं उत्थान या निर्गमन होता है। लम्बवत संचलन भी दो प्रकार के होते हैं--उपरिमुखी और अधोमुखी। जब महाद्वीपीय भाग या उसका कोई क्षेत्र अपनी सतह से ऊपर उठ जाता है। तो उस पर लगने वाले बल को उपरिमुखी बल तथा इस क्रिया को उपरिमुखी संचलन कहते हैं। जैसे कच्छ की खाड़ी के निकट लगभग 24 km लंबी भूमि कई km ऊपर उठ गयी है। जिसे अल्लाह का बाँध कहते हैं। इसके विपरीत जब महाद्वीपीय भागों में धंसाव हो जाता है। तो उस पर लगने वाले बल को अधोमुखी बल तथा इस क्रिया को अवतलन या अधोमुखी संचलन कहते हैं। जैसे मुम्बई प्रिंस डॉक यार्ड क्षेत्र के जलमग्न वन।
▪️b- पर्वत निर्माणकारीव क्षैतिज संचलन---
पृथ्वी के आन्तरिक भाग से क्षैतिज रूप में पर्वतों के निर्माण में सहायक संचलन बल को पर्वत निर्माणकारी संचलन कहा जाता है। इस संचलन में दो प्रकार के बल कार्य करते हैं---संपीडन बल व तनाव बल। जब क्षैतिज संचलन बल विपरीत दिशाओं में क्रियाशील होता है। तो तनाव की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। जिससे धरातल में भ्रंश, चटकनें व दरार आदि का निर्माण होता है। अतः इसे तनाव बल कहते हैं। और जब क्षैतिज संचलन बल आमने सामने क्रियाशील होता है तो चट्टानें संपीडित हो जाती हैं। जिससे धरातल में संवलन व वलन पड़ जाते हैं। अतः इसे संपीडन बल कहते हैं।
#वलन (Folding)
पृथ्वी के आन्तरिक भागों में उत्पन्न अन्तर्जात बलों के क्षैतिज संचलन द्वारा धरातलीय चट्टानों में संपीडन के कारण लहरों के रूप में पड़ने वाले मोड़ों को वलन कहते हैं। वलन के कारण चट्टानों के ऊपर उठे हुए भाग को अपनति (Anticline) तथा नीचे धँसे हुए भाग को अभिनति (Syncline) कहते हैं।
#वलनों_के_प्रकार (Types of Folds)---
संपीडन बल में भिन्नता के कारण वलन के प्रकारों में भी अन्तर होता है।
▪️1- सममित वलन (Symmetrical Fold)---
इसमें वलन की दोनों भुजाओं की लम्बाई व ढलान समान होती है। इसे सरल वलन या खुले प्रकार का वलन भी कहते हैं। जब दबाव शक्ति की तीव्रता कम एवं दोनों दिशाओं में समान हो, तो इस प्रकार के वलन का निर्माण होता है। जैसे-स्विट्जरलैंड का जूरा पर्वत
▪️2- असममित वलन (Asymmetrical Fold)---
इसमें वलन की दोनों भुजाओं की लम्बाई व ढाल असमान होती है। कम झुकाव वाली भुजा अपेक्षाकृत बड़ी तथा अधिक झुकाव वाली भुजा छोटी होती है। जैसे-ब्रिटेन का दक्षिणी पेनाइन पर्वत
▪️3- एकदिग्नत वलन (Monoclinal Fold)---
जब किसी वलन की एक भुजा सामान्य झुकाव व ढाल वाली तथा दूसरी भुजा उस पर समकोण बनाती है एवं उसका ढाल खड़ा होता है। इस प्रकार के वलन को एकदिग्नत वलन कहते हैं। जैसे-आस्ट्रेलिया का ग्रेट डिवाइडिंग रेंज
▪️4- समनत वलन (Isoclinal Fold)---
समनत वलन में वलन की दोनों भुजाएँ समानान्तर होती हैं। लेकिन क्षैतिज दिशा में नहीं होती हैं। इस वलन में आगे का भाग लटकता हुआ प्रतीत होता है। ऐसे वलन में संपीडन की तीव्रता स्पष्ट दिखाई देती है। जैसे-पाकिस्तान का काला चित्ता पर्वत
▪️5- परिवलित वलन (Recumbent Fold)---
अत्यधिक तीव्र क्षैतिज संचलन के कारण जब वलन की दोनों भुजाएँ एक दूसरे के समानान्तर और क्षैतिज दिशा में होती जाती हैं। तो उसे परिवलित वलन कहते हैं। इसे दोहरा मोड़ भी कहा जाता है। जैसे-ब्रिटेन का कौरिक कैसल पर्वत
▪️6-अधिवलन (Over Fold)---
इस वलन में वलन की एक भुजा बिल्कुल खड़ी न रहकर कुछ आगे की ओर निकली हुई रहती है एवं तीव्र ढाल बनाती है। जबकि दूसरी भुजा अपेक्षाकृत लम्बी होती है और कम झुकी होने के कारण धीमी ढाल बनाती है। इस वलन का निर्माण तब होता है जब दबाव शक्ति एक दिशा में तीव्र होती है। जैसे-कश्मीर की पीर पंजाल श्रेणी
▪️7- अधिक्षिप्त या प्रतिवलन (Overthrust or Overturned Fold)---
जब अत्यधिक संपीडन बल के कारण परिवलित वलन की एक भुजा टूट कर दूर विस्थापित हो जाती है, तब उस विस्थापित भुजा को ग्रीवाखण्ड कहते हैं। जिस तल पर भुजा का विस्थापन होता है उसे व्युत्क्रम भ्रंश तल कहते हैं। वहीं जब परिवलित वलन में अत्यधिक संपीडन के कारण वलन के नीचे की भुजा, ऊपरी भुजा के ऊपर विस्थापित हो जाती है। तब उसे प्रतिवलन कहते हैं। जैसे-कश्मीर घाटी एक ग्रीवा खण्ड पर अवस्थित है।
▪️8- पंखा वलन (Fan Fold)---
क्षैतिज संचलन का समान रूप से क्रियाशील न होने के कारण विभिन्न स्थानों में संपीडन की भिन्नता के साथ ही पंखे के आकार की वलित आकृति का निर्माण होता है। जिसे पंखा वलन कहते हैं। जैसे-पाकिस्तान स्थित पोटवार,
#भ्रंशन (Fault)
इसके अन्तर्गत दरारें, विभंग व भ्रंशन को शामिल किया जाता है। भू-पटल में एक तल के सहारे चट्टानों के स्थानान्तरण से उत्पन्न संरचना को भ्रंश कहते हैं। भ्रंशन की उत्पत्ति क्षैतिज संचलन के दोनों बलों ( संपीडन व तनाव बल) से होती है। परन्तु तनाव बल का स्थान अधिक महत्वपूर्ण है क्योंकि अधिकतर भ्रंश इसी के कारण उत्पन्न हुए हैं।
#भ्रंशन_के_प्रकार (Kinds of Faults)---
भ्रंश निम्नलिखित प्रकार के होते हैं।
▪️1-सामान्य भ्रंश (Normal Faults)---
जब चट्टानों में दरार पड़ जाने के कारण उसके दोनों खण्ड विपरीत दिशा में खिसक जाते हैं, तो उसे सामान्य भ्रंशन कहते हैं। इसमें भूपटल में प्रसार होता है। सामान्य भ्रंश का निर्माण तनाव बल के कारण होता है।
▪️2- व्युत्क्रम या उत्क्रम भ्रंश (Reverse Fault)---
जब चट्टानों में दरार पड़ जाने के कारण उसके दोनों खण्ड एक दूसरे की ओर खिसकते हैं और एक दूसरे के ऊपर आरूढ़ हो जाते हैं। इस प्रकार निर्मित भ्रंश को व्युत्क्रम भ्रंश कहते हैं। इसे आरूढ़ भ्रंश भी कहा जाता है। ये भ्रंश संपीडन बल के कारण निर्मित होते हैं। इस भ्रंशन से कगारों का निर्माण होता है। जैसे-पश्चिमी घाट कगार, विंध्यन कगार क्षेत्र में लटकती घाटियाँ एवं जलप्रपात का विकास। इस प्रकार के भ्रंशन में सतह का फैलाव पहले की अपेक्षा घट जाता है।
▪️3- सोपानी भ्रंश (Step Fault)---
जब किसी क्षेत्र में एक दूसरे के समानान्तर कई भ्रंश होते हैं एवं सभी भ्रंश तलों की ढाल एक ही दिशा में होती है। तो इसे सोपानी या सीढ़ीदार भ्रंश कहते हैं। इस भ्रंशन में अधक्षेपित खण्ड का अधोगमन एक ही दिशा में होता है। जैसे-यूरोप की राइन घाटी
▪️4-Transcurrent Fault or Strike slip Fault---
जब स्थल पर दो विपरीत दिशाओं से दबाव पड़ता है तो दोनों ओर के भू-खण्ड भ्रंश तल के सहारे आगे पीछे खिसक जाते हैं। इस प्रकार के भ्रंश को ट्रांसकरेन्ट भ्रंश कहते हैं। जैसे-कैलिफोर्निया का एंड्रियास भ्रंश,
#भ्रंशन_के_कारण_निर्मित_स्थलाकृतियां---
भ्रंशन के कारण पृथ्वी पर कई प्रकार की भू-आकृतियां निर्मित होती हैं।
▪️a-भ्रंश घाटी (Rift Valley)---
जब दो समानान्तर भ्रंशों का मध्यवर्ती भाग नीचे धँस जाता है तो उसे द्रोणी या भ्रंश घाटी कहते हैं। जर्मन भाषा में इसे "ग्राबेन (Graben)" कहा जाता है। जैसे-जॉर्डन भ्रंश घाटी, (जिसमें मृतसागर स्थित है) कैलिफोर्निया क्षेत्र में स्थित मृत घाटी,(यह समुद्र तल से भी नीची है।) अफ्रीका की न्यासा, रूडोल्फ, तांगानिका, अल्बर्ट व एडवर्ड झीलें भू-भ्रंश घाटी में ही स्थित है। भारत में नर्वदा, ताप्ती व दामोदर नदी घाटियाँ भ्रंश घाटियों के प्रमुख उदाहरण हैं।
▪️b-रैम्प घाटी (Ramp Valley)---
रैम्प घाटी का निर्माण उस स्थिति में होता है जब दो भ्रंश रेखाओं के बीच स्तम्भ यथा स्थिति में ही रहे परन्तु संपीडनात्मक बल के कारण किनारे के दोनों स्तम्भ ऊपर उठ जाये। जैसे-असम की ब्रह्मपुत्र घाटी
▪️c-भ्रंशोत्थ पर्वत (Block Mountain)---
जब दो भ्रंशों के बीच का स्तम्भ यथावत रहे एवं किनारे के स्तम्भ नीचे धँस जाये तो ब्लॉक पर्वत का निर्माण होता है। जैसे-भारत का सतपुड़ा पर्वत, जर्मनी का ब्लैक फॉरेस्ट व वास्जेस पर्वत, पाकिस्तान का साल्ट रेंज ब्लॉक पर्वत, अमेरिका का स्कीन्स माउंटेन, वासाच रेंज ब्लॉक पर्वत आदि कैलिफोर्निया में स्थित सियरा नेवादा विश्व का सबसे विस्तृत ब्लॉक पर्वत है।
▪️d-हॉर्स्ट पर्वत (Horst Mountain)---
जब दो भ्रंशों के किनारों के स्तम्भ यथावत रहे एवं बीच का स्तम्भ ऊपर उठ जाये तो हॉर्स्ट पर्वत का निर्माण होता है। जैसे- जर्मनी का हॉर्ज पर्वत
#बहिर्जात_बल (Exogenetic Force)---
पृथ्वी की सतह पर उत्पन्न होने वाले बल को बहिर्जात बल कहते हैं। बहिर्जात बल को "भूमि विघर्षण बल" भी कहा जाता है। बहिर्जात बल का भू-पटल पर प्रमुख कार्य अनाच्छादन (Denudation) होता है। अनाच्छादन के अन्तर्गत अपक्षय, वृहदक्षरण, संचरण, अपरदन व निक्षेपण आदि क्रियाएँ आती हैं। अनाच्छादन स्थैतिक तथा गतिशील दोनों क्रियाओं का योग है। अपक्षय में स्थैतिक क्रिया होती है जबकि अपरदन में गतिशील क्रिया होती है। भौतिक अपक्षय को विघटन (Disintegration) तथा रासायनिक अपक्षय को वियोजन (Decomposition) कहते हैं। उष्ण कटिबंधीय आद्र भागों में रासायनिक अपक्षय होता है जबकि उष्ण व शुष्क मरूस्थलीय भागों में भौतिक अपक्षय होता है। वे सभी क्रियाएँ जो धरातल को सामान्य तल पर लाने का प्रयास करती हैं, उन्हें "प्रवणता संतुलन की क्रियाएँ" कहते हैं। बाह्म कारकों द्वारा स्थलीय धरातल के अपरदन को निम्नीकरण कहते हैं। धरातल की नीची जगहों को भरकर ऊँचा करना अभिवृद्धि कहलाती है।
1-#अपक्षय (Weathering)--->
ताप, जल, वायु तथा प्राणियों के कार्यों के प्रभाव, जिनके द्वारा यांत्रिक व रासायनिक परिवर्तनों से चट्टानों के अपने ही स्थान पर कमजोर होने, टूटने, सड़ने एवं विखंडित होने को "अपक्षय" को अपक्षय कहते हैं। जैसे ही चट्टान धरातल पर अनावृत होकर मौसमी प्रभावों से प्रभावित होते हैं, यह प्रक्रिया शुरू हो जाती है। कारकों के आधार पर अपक्षय को तीन प्रकारों में विभक्त किया गया है।
▪️क-भौतिक या यांत्रिक अपक्षय---
¡-ताप के कारण छोटे-बड़े टुकड़ो में विघटन
¡¡-तुषार-चीरण अर्थात चट्टानों में जल का प्रवेश
¡¡¡-घर्षण
¡v-दबाव
▪️ख-रासायनिक अपक्षय---
¡-ऑक्सीकरण
¡¡-कार्बोनेटिकरण
¡¡¡-जलयोजन
ग-प्राणिवर्गीय अपक्षय---
¡-वानस्पतिक अपक्षय
¡¡-जैविक अपक्षय
¡¡¡-मानवीय क्रियाओं द्वारा अपक्षय
2-#अपरदन (Erosion)---->
अपक्षयित पदार्थों का अन्यत्र स्थानान्तरण "अपरदन" कहलाता है। अपरदन में भाग लेने वाली प्रमुख क्रियाएँ निम्नलिखित हैं।
▪️a-अपघर्षण (Abrasion)---
वह प्रक्रिया जिसमें कोई जल प्रवाह अपने साथ कंकड़, पत्थर व बालू आदि पदार्थों के साथ आगे बढ़ता है तो इन पदार्थों के सम्पर्क आने वाली चट्टानों एवं किनारों का क्षरण होने लगता है। इस क्रिया को अपघर्षण कहते हैं।
▪️b-सन्निघर्षण (Attrition)---
जब किसी प्रवाह में प्रवाहित होने वाले पदार्थ आपस में घर्षण कर छोटे होने की प्रक्रिया को सन्निघर्षण कहते हैं।
▪️c-संक्षारण (Corosion)---
घुलनशील चट्टानों जैसे-डोलोमाइट, चुना पत्थर आदि का जल क्रिया द्वारा घुलकर शैल से अलग होना संक्षारण कहलाता है। यह भूमिगत जल एवं बहते जल द्वारा होता है। इससे कार्स्ट स्थलाकृतियों का निर्माण होता है।
▪️d-जलीय क्रिया (Hydraulic Action)---
जब जल प्रवाह की गति के कारण चट्टानें टूट-फुटकर अलग हो जाती हैं। तो उसे जलीय क्रिया कहते हैं। यह क्रिया सागरीय तरंगों, हिमानियों एवं नदियों द्वारा होती है।
▪️e-जल दाब क्रिया (Water Pressure)---
जब किसी चट्टान में जल के दबाव के कारण अपरदन क्रिया होती है तो उसे जल दबाव क्रिया कहा जाता है। यह मुख्यतः सागरीय तरंगों द्वारा होती है।
▪️f-उत्पाटन (Plucking)---
इस प्रकार का अपरदन हिमानी क्षेत्रों में होता है। वर्षा तथा हिम पिघलने से प्राप्त जल चट्टानों की सन्धियों में प्रविष्ट हो जाता है तथा ताप की कमी के कारण जमकर हिम रूप धारण कर लेता है, जिस कारण चट्टान कमजोर हो जाती हैं और इनसे बड़े बड़े टुकड़े टूट कर अलग होते रहते हैं। यह प्रक्रिया उत्पाटन कहलाती है।
▪️g-अपवहन (Deflation)---
यह पवन के द्वारा शुष्क या अर्ध-शुष्क प्रदेशों में अवसादों की उड़ाव की क्रिया है।
3-#वृहद_संचलन (Mass Movement)---
गुरुत्वाकर्षण के सीधे प्रभाव के कारण शैलों के मलवा का चट्टान की ढाल के अनुरूप रूपान्तरण हो जाता है। इस क्रिया को वृहद संचलन कहते हैं। वृहद संचलन अपरदन के अन्तर्गत नहीं आता है।
4-#निक्षेपण (Deposition)---
निक्षेपण अपरदन का परिणाम होता है। ढाल में कमी के कारण जब अपरदन के कारकों का वेग कम हो जाता है तो अवसादों का निक्षेपण प्रारम्भ हो जाता है। अर्थात निक्षेपण किसी कारक का कार्य नहीं है।
#अपरदन_चक्र (Erosion Cycle)
अपरदन चक्र अन्तर्जात व बहिर्जात बलों का सम्मिलित परिणाम होता है। अन्तर्जात बल धरातल पर विषमताओं का सृजन करते हैं तथा बहिर्जात बल समतल स्थापक बल के रूप में कार्य करते हैं। जैसे ही अन्तर्जात बलों द्वारा धरातल पर विषमताओं का निर्माण होता है, बहिर्जात बल इन विषमताओं को दूर करने में प्रयत्नशील हो जाते हैं। जिससे विशिष्ट स्थलाकृतियों का निर्माण होता है। सर्वप्रथम स्कॉटिश भू-गर्भशास्त्री जेम्स हटन ने भू-आकृतियों के सम्बन्ध में 'एकरूपतावाद' की अवधारणा दी और बताया कि "वर्तमान भूत की कुंजी है"
अमेरिका के भूगोलवेत्ता विलियम मोरिस डेविस ने अपरदन चक्र की परिकल्पना का प्रतिपादन 1899 में किया था। डेविस के अनुसार किसी भी स्थलाकृति का निर्माण तथा विकास ऐतिहासिक क्रम में होता है, जिसके अन्तर्गत उसे तरुण (Young), प्रौढ़ एवं जीर्ण अवस्थाओं से होकर गुजरना पड़ता है। डेविस की इस विचार धारा पर डार्विन की "जैविक विकासवादी अवधारणा" का प्रभाव है। डेविस के अनुसार स्थलाकृतियाँ मुख्य रूप से तीन कारकों का परिणाम होती हैं। 1-चट्टानों की संरचना , 2-अपरदन के प्रक्रम, 3-समय की अवधि या विभिन्न अवस्थायें। इन्हें "डेविस के त्रिकूट ( Trio of Davis)" के नाम से जाना जाता है। डेविस के अनुसार अपरदन चक्र समय की वह अवधि है, जिसमें एक उत्थित भू-खण्ड अपरदन की विभिन्न अवस्थाओं से गुजरते हुए अंततः समतल प्राय मैदान में बदल जाता है तथा इसमें कहीं-कहीं थोड़े उठे हुए भाग "मोनाडनॉक" के रूप में शेष बचे रहते हैं। इस अपरदन चक्र को डेविस ने भौगोलिक चक्र का नाम दिया। जर्मन वैज्ञानिक वाल्टर पेंक ने डेविस के सिद्धान्त की आलोचना की तथा मॉर्फोलॉजिकल सिस्टम की अवधारणा प्रस्तुत की। जिसके अनुसार, स्थलाकृतियाँ उत्थान एवं निम्नीकरण की दर तथा दोनों की प्रवस्थाओं के परस्पर सम्बन्धों का प्रतिफल होती हैं। उन्होंने उठते हुए स्थल खण्डों को प्राइमारम्प कहा तथा अपरदन के पश्चात बने समतल प्राय मैदान को इंड्रम्प कहा।
अपरदन चक्र से सम्बन्धित अन्य सिद्धान्त निम्नलिखित हैं।
▪️पेडीप्लनेशन चक्र------------एल. सी. किंग
▪️कार्स्ट अपरदन चक्र------------बीदी
#अपरदन_के_प्रक्रम---
इसके अन्तर्गत बहता जल, भूमिगत जल, सागरीय तरंग, हिमानी तथा पवन आदि आते हैं।
1-#नदी_प्रक्रम---
कोई नदी अपनी सहायक नदियों समेत जिस क्षेत्र का जल लेकर आगे बढ़ती है, वह स्थान प्रवाह क्षेत्र या नदी द्रोणी या जल ग्रहण क्षेत्र कहलाता है। एक नदी द्रोणी दूसरी नदी द्रोणी से जिस उच्च भूमि द्वारा अलग होती है, उस जल विभाजक क्षेत्र कहते हैं। जैसे अरावली पर्वत श्रेणी और इसके उत्तर की उच्च भूमि सिन्धु तथा गंगा द्रोणियों के जल को विभाजित करती है। नदियां अपने ढालों के अनुरूप बहती है। बहते हुए जल द्वारा निम्न प्रकार की स्थलाकृतियों का निर्माण होता है।
▪️a-V-आकार की घाटी---
नदी द्वारा पर्वतीय क्षेत्रों में की गई ऊर्ध्वाधर काट के कारण गहरी, संकीर्ण और V-आकार की घाटी का निर्माण होता है। इनमें दीवारों का ढाल तीव्र व उत्तल होता है। आकार के अनुसार ये घाटी दो प्रकार की होती हैं।
▪️ (कन्दरा)----
जहाँ शैलें कठोर होती हैं। वहाँ पर V- आकार गहरी व सँकरी होती है। नदी की ऐसी गहरी व संकरी घाटी, जिसके दोनों किनारे खड़े होते हैं। कन्दरा व गॉर्ज कहलाती है। जैसे-सिन्धु नदी द्वारा निर्मित सिन्धु गॉर्ज, सतलज नदी द्वारा निर्मित शिपकीला गॉर्ज तथा ब्रह्मपुत्र नदी द्वारा निर्मित दिहांग गॉर्ज
▪️कैनियन---
जब किसी पठारीय भाग में शैलें आड़ी तिरछी हों और वर्षा भी कम हो तो उस स्थान पर बहने वाली नदी की घाटी बहुत गहरी और तंग होती है। ऐसी गहरी तंग घाटी को कैनियन या आई-आकार की घाटी कहते हैं। जैसे-अमेरिका में कोलोरैडो नदी पर स्थित "ग्रैंड कैनियन"
▪️b-जल प्रपात (Water Fall)---
जब नदियों का जल ऊँचाई से खड़े ढाल से अत्यधिक वेग से नीचे की ओर गिरता है तो उसे जल प्रपात कहते हैं। इसका निर्माण असमान अपरदन, भूखण्ड में उत्थान व भ्रंश कगारों के निर्माण आदि के कारण होता है। जैसे-विश्व का सर्वाधिक ऊँचा वेनुजुऐला का साल्टो एंजेल प्रपात, उत्तरी अमेरिका एवं कनाडा का नियाग्रा जलप्रपात,दक्षिण अफ्रीका में जिम्बाब्वे की जाम्बेजी नदी पर स्थित विक्टोरिया जल प्रपात, लुआलाबा नदी पर स्थित स्टेनली जल प्रपात,सांगपो नदी पर स्थित हिंडेन प्रपात, पोटोमेक नदी पर स्थित ग्रेट प्रपात, न्यू नदी पर सैंड स्टोन प्रपात तथा कोलम्बिया नदी पर स्थित सेलिलो प्रपात। भारत में कर्नाटक राज्य में शरावती नदी पर स्थित जोग या गरसोप्पा जल प्रपात (260 मीटर), नर्वदा नदी का धुँआधार जल प्रपात (9 मीटर), सुवर्णरेखा नदी का हुण्डरू जल प्रपात (97 मीटर) आदि।
▪️c-जलोढ़ शंकु (Alluvial Cone)---
जब नदियाँ पर्वतीय भाग से निकलकर समतल प्रदेश में प्रवेश करती हैं। तो चट्टानों के बड़े बड़े अवसाद पीछे छूट जाते हैं इन अवसादों से बनी आकृति जलोढ़ शंकु कहलाती है। विभिन्न जलोढ़ शंकुओं के मिलने से भाबर प्रदेश का निर्माण होता है।
▪️d-जलोढ़ पंख (Alluvial Fans)---
पर्वतीय भाग से निकलने के पश्चात् नदियों के अवसाद दूर-दूर तक फैल जाते हैं। जिससे पंखनुमा मैदान का निर्माण होता है। जिसे जलोढ़ पंख कहते हैं। कई जलोढ़ पंखों के मिलने से गिरिपाद मैदान या तराई क्षेत्र का निर्माण होता हैजलोढ़ पंख की चोटी के पास नदी कई शाखाओं में विभक्त हो जाती हैं, जो गुम्फित नदी कहलाती है। नदी द्वारा जलोढ़ पंख का निर्माण नदी की तरुणावस्था के अन्तिम चरण तथा प्रौढ़वस्था के प्रथम चरण का परिचायक है।
▪️e-नदी विसर्प (River meanders)---
मैदानी क्षेत्रों में नदियों का क्षैतिज अपरदन अधिक सक्रिय होने के कारण नदी की धारा दाएँ-बाएँ, बल खाती हुई प्रवाहित होती है जिसके कारण नदी के मार्ग में छोटे बड़े मोड़ बन जाते हैं। इन मोड़ो को नदी का विसर्प कहते हैं। विसर्प "S" आकार के होते हैं। नदियों का विसर्प बनाने का कारण अधिक अवसादी बोझ होता है।
▪️f-गोखुर झील (Oxbow Lake)---
जब नदी अपने विसर्प को त्याग कर सीधा रास्ता पकड़ लेती है। तब नदी का अवशिष्ट भाग गोखुर झील या छाड़न झील कहलाता है।
▪️g-तटबन्ध (Levees)---
प्रवाह के दौरान नदियाँ अपरदन के साथ-साथ बड़े-बड़े अवसादों का किनारों पर निक्षेपण भी करती हैं, जिससे किनारों पर बांधनुमा आकृति का निर्माण हो जाता है। इसे प्राकृतिक तटबन्ध कहते हैं।
▪️h-बाढ़ का मैदान (Flood plain)---
मैदानी भाग में भूमि समतल होती है। अतः जब नदी में बाढ़ आती है तो बाढ़ का जल नदी के समीपवर्ती समतल भाग में फैल जाता है। इस जल में बालू तथा मिट्टी मिली हुई रहती है। बाढ़ के हटने के बाद यह मिट्टी वहीं जमा हो जाती है। मिट्टी के निक्षेपण से सम्पूर्ण मैदान समतल और लहरदार प्रतीत होता है। इस प्रकार के मैदान जलोढ़ मिट्टी के मैदान कहलाते हैं। उत्तरी भारत का मैदान इसका उत्तम उदाहरण है।
▪️i-डेल्टा (Delta)----
निम्नवर्ती मैदानों में ढाल कम होने तथा अवसादों का अधिकता में होने से नदी की परिवहन शक्ति कम होने लगती है जिससे वह अवसादी का जमाव करने लगती है। जिससे डेल्टा का निर्माण होता है।
2-#भूमिगत_जल_प्रक्रम (Under Ground Water System)----
धरातल के नीचे चट्टानों के छिद्रों और दरारों में स्थित जल को भूमिगत जल कहते हैं। भूमिगत जल से बनी स्थलाकृतियों को कार्स्ट स्थलाकृतियाँ कहते हैं। भूमिगत जल द्वारा निर्मित स्थल रूप निम्नलिखित प्रकार के होते हैं।
▪️a-घोलरंध्र (Sink Holes)----
जल की घुलनशील क्रिया के कारण सतह पर अनेक छोटे-छोटे छिद्रों का विकास हो जाता है। जिन्हें घोल रन्ध्र कहते हैं। गहरे घोलरंध्रों को विलयन रंध्र कहते हैं। तथा विस्तृत आकार वाले छिद्रों को "डोलाइन" कहते हैं, जो कई घोलरंध्रों के मिलने से बनता है। जब निरन्तर घोलीकरण के फलस्वरूप कई डोलाइन एक वृहदाकार गर्त का निर्माण करते हैं। तब उसे यूवाला कहते हैं। कई यूवाला के मिलने से अत्यन्त गहरी खाइयों का निर्माण होता है। इन विस्तृत खाइयों को पोल्जे या राजकुण्ड कहते हैं। विश्व का सबसे बड़ा पोल्जे पश्चिमी वालकन क्षेत्र (यूरोप) में स्थित "लिवनो पोल्जे" है।
▪️b-लैपीज (Lappies)----
जब घुलनशील क्रिया के फलस्वरूप ऊपरी सतह अत्यधिक ऊबड़-खाबड़ तथा पतली शिखरिकाओं वाली हो जाती है। तो इस तरह की स्थलाकृति को अवकूट या लैपीज कहते हैं।
▪️c-गुफा (Caverns)----
भूमिगत जल के अपरदन द्वारा निर्मित स्थलाकृतियों में सबसे महत्वपूर्ण स्थलाकृति गुफा या कन्दरा है। इनका निर्माण घुलनशील क्रिया तथा अपघर्षण द्वारा होता है। कन्दराएँ ऊपरी सतह से नीचे एक रिक्त स्थान के रूप में होती हैं। इनके अन्दर निरन्तर जल प्रवाह होता रहता है। जैसे-अमेरिका की कार्ल्सबाद तथा मैमथ कन्दरा। और भारत में देहरादून में स्थित गुप्तदाम कन्दरा। कन्दराओं में जल के टपकने से कन्दरा की छत के सहारे चुने का जमाव लटकता रहता है, जिसे "स्टैलेक्टाइट" कहते हैं। तथा कन्दरा के फर्श पर चुने के जमाव से निर्मित स्तम्भ को "स्टैलेग्माइट" कहते हैं। इन दोनों के मिल जाने से कन्दरा स्तम्भ का निर्माण होता है।
▪️d-अन्धी घाटी (Blind Valley)----
जब विलयन रन्ध्र नदी के प्रवाह मार्ग के बीच में आ जाता है। तो नदी उसमें गिरकर विलीन हो जाती है। जिससे नदी की आगे की घाटी शुष्क हो जाती है। जिसे अन्धी घाटी कहते हैं।
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विश्व_का_भूगोल :
चट्टाने_शैलें
पृथ्वी की ऊपरी परत या भू-पटल (क्रस्ट) में मिलने वाले पदार्थ चाहे वे ग्रेनाइट तथा बालुका पत्थर की भांति कठोर प्रकृति के हो या चाक या रेत की भांति कोमल; चाक एवं लाइमस्टोन की भांति प्रवेश्य हों या स्लेट की भांति अप्रवेश्य हों, चट्टान अथवा शैल (रॉक) कहे जाते हैं। इनकी रचना विभिन्न प्रकार के खनिजों का सम्मिश्रण हैं। चट्टान कई बार केवल एक ही खनिज द्वारा निर्मित होती है, किन्तु सामान्यतः यह दो या अधिक खनिजों का योग होती हैं।
#चट्टानों_के_प्रकार:
(1.) #आग्नेय_चट्टाने: आग्नेय चट्टान (जर्मन: Magmatisches Gestein, अंग्रेज़ी: Igneous rock) की रचना धरातल के नीचे स्थित तप्त एवं तरल चट्टानी पदार्थ, अर्थात् मैग्मा, के सतह के ऊपर आकार लावा प्रवाह के रूप में निकल कर अथवा ऊपर उठने के क्रम में बाहर निकल पाने से पहले ही, सतह के नीचे ही ठंढे होकर इन पिघले पदार्थों के ठोस रूप में जम जाने से होती है।
▪️आग्नेय शब्द लैटिन भाषा के ‘इग्निस’ से लिया गया है, जिसका सामान्य अर्थ अग्नि होता है।
▪️आग्नेय चट्टान स्थूल परतरहित, कठोर संघनन एवं जीवाश्मरहित होती हैं।
▪️ये चट्टानें आर्थिक रूप से बहुत ही सम्पन्न मानी गई हैं।
▪️इन चट्टानों में चुम्बकीय लोहा, निकिल, ताँबा, सीसा, जस्ता, क्रोमाइट, मैंगनीज, सोना तथा प्लेटिनम आदि पाए जाते हैं।
▪️झारखण्ड, भारत में पाया जाने वाला अभ्रक इन्हीं शैलों में मिलता है।
▪️आग्नेय चट्टान कठोर चट्टानें हैं, जो रवेदार तथा दानेदार भी होती है।
▪️इन चट्टानों पर रासायनिक अपक्षय का बहुत कम प्रभाव पड़ता है।
▪️इनमें किसी भी प्रकार के जीवाश्म नहीं पाए जाते हैं।
▪️आग्नेय चट्टानों का अधिकांश विस्तार ज्वालामुखी क्षेत्रों में पाया जाता है।
▪️आग्नेय चट्टानों में लोहा, निकिल, सोना, शीशा, प्लेटिनम भरपूर मात्रा में पाया जाता है।
▪️बेसाल्ट चट्टान में लोहे की मात्रा अधिक होती है।
▪️काली मिटटी बेसाल्ट चट्टान के टूटने से बनती है।
▪️बिटुमिनस कोयला आग्नेय चट्टान है।
▪️कोयला, ग्रेफाइट और हीरे को कार्बन का अपररूप कहा जाता है।
▪️ग्रेफाइट को पेंसिल लैड भी कहा जाता है।
▪️ताप, दवाब, और रासायनिक क्रियाओं के कारण ये चट्टाने आगे चलकर कायांतरित होती है।
#आग्नेय_चट्टानों_के_कुछ_उदाहरण:-
▪️ग्रेनाइट – नीस
▪️ग्रेवो – सरपेंटाइट
▪️बेसाल्ट – सिस्ट
▪️बिटुमिनस – ग्रेफाइट
(2). #अवसादी_चट्टाने: अवसादी चट्टान से तात्पर्य है कि, प्रकृति के कारकों द्वारा निर्मित छोटी-छोटी चट्टानें किसी स्थान पर जमा हो जाती हैं, और बाद के काल में दबाव या रासायनिक प्रतिक्रिया या अन्य कारकों के द्वारा परत जैसी ठोस रूप में निर्मित हो जाती हैं। इन्हें ही ‘अवसादी चट्टान’ कहते हैं। अवसादी शैलों का निर्माण जल, वायु या हिमानी, किसी भी कारक द्वारा हो सकता है। इसी आधार पर अवसादी शैलें ‘जलज’, ‘वायूढ़’ तथा ‘हिमनदीय’ प्रकार की होती हैं। बलुआ पत्थर, चुना पत्थर, स्लेट, संगमरमर, लिग्नाइट, एन्थ्रासाइट ये अवसादी चट्टाने है।
▪️अवसादी चट्टान परतदार होती है।
▪️अवसादी चट्टानों में जीवाश्म पाया जाता है।
▪️अवसादी चट्टानों में खनिज तेल पाया जाता है।
▪️एन्थ्रासाइट कोयले में 90 % से ज्यादा कार्बन होता है।
▪️लिग्नाइट को कोयले की सबसे उत्तम किस्म माना जाता है।
▪️अवसादी चट्टानें अधिकांशत: परतदार रूप में पाई जाती हैं।
▪️इनमें वनस्पति एवं जीव-जन्तुओं के जीवाश्म बड़ी मात्रा में पाये जाते हैं।
▪️इन चट्टानों में लौह अयस्क, फ़ॉस्फ़ेट, कोयला, पीट, बालुका पत्थर एवं सीमेन्ट बनाने की चट्टान पाई जाती हैं।
▪️खनिज तेल अवसादी चट्टानों में पाया जाता है।
▪️अप्रवेश्य चट्टानों की दो परतों के बीच यदि प्रवेश्य शैल की परत आ जाए, तो खनिज तेल के लिए अनुकूल स्थिति पैदा हो जाती है।
▪️दामोदर, महानदी तथा गोदावरी नदी बेसिनों की अवसादी चट्टानों में कोयला पाया जाता है।
▪️आगरा क़िला तथा दिल्ली का लाल क़िला बलुआ पत्थर नामक अवसादी चट्टानों से ही बना है।प्रमुख अवसादी शैलें हैं- बालुका पत्थर, चीका शेल, चूना पत्थर, खड़िया, नमक आदि।
अवसादी चट्टाने कायांतरित होकर क्वार्टजाइट बनती है।
3. #कायांतरित_चट्टाने (शैल):
आग्नेय एवं अवसादी शैलों में ताप और दाब के कारण परिर्वतन या रूपान्तरण हो जाने से कायांतरित शैल (metamorphic rock) का निमार्ण होता हैं। रूपांतरित चट्टानों (कायांतरित शैल) पृथ्वी की पपड़ी के एक बड़े हिस्सा से बनी होती है और बनावट, रासायनिक और खनिज संयोजन द्वारा इनको वर्गीकृत किया जाता है|
#कायांतरित_चट्टानों_के_कुछ_उदाहरण
▪️शैल – स्लेट
▪️चुना पत्थर – संगमरमर
▪️लिग्नाइट-एन्थ्रासाइट
▪️स्लेट – फाइलाइट
▪️फाइलाइट – सिस्ट
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विश्व_का_भूगोल :
पर्वत
पर्वत किसी भी पहाड़ी से ऊंचा व सीधी चढ़ाई वाला मिट्टी व चट्टानों का ढांचा होता है। सामान्यतः पर्वत धरती के एक निश्चित स्थान पर लगभग 600 मीटर ऊंचा धरती का उभार होता है। पर्वतों की परिभाषा यह हो सकती है कि वह खड़ी व सीधी ढलान, ऊपरी चपटा भाग तथा गोलाई लिये हुए या नुकीली चोटियों वाले उभार होते है। भूविज्ञानी किसी सीधे खड़े क्षेत्र को तभी पर्वत मानते है जब वहां विभिन्न ऊंचाईयों पर दो या अधिक प्रकार की जलवायु तथा वनस्पति की विविधता हो।
अनेक पर्वतों की पारस्परिक निकटतम स्थिति पर्वत श्रृंखला का निर्माण करती है। ऐसी ही अनेक समानान्तर पर्वत श्रृंखलाएं और बडी पर्वत श्रृंखलाओं का निर्माण करती हैं। उत्तरी अमेरीकी काडीलेरा, हिमालय, एल्प्स आदि विशाल पर्वतीय श्रृंखलाओं के उदाहरण हैं।
#विभिन्न_आधार_पर_पर्वतों_का_वर्गीकरण
भू-स्थल पर अनेक प्रकार के पर्वत पाए जाते हैं. ये पर्वत अपनी आयु, ऊंचाई, स्थिति, निर्माणकारी प्रक्रिया, बनावट आदि की दृष्टि से एक-दूसरे से इतने भिन्न होते हैं कि कोई भी दो पर्वत एक-दूसरे जैसे नहीं होते हैं. विद्वानों ने अलग-अलग आधार पर पर्वतों का वर्गीकरण किया है जो निम्नलिखित हैं:-
1. #आयु_के_आधार_पर_पर्वतों_का_वर्गीकरण
आयु के आधार पर पर्वतों को 4 भागों में वर्गीकृत किया गया है:
▪️(i) चर्नियन पर्वत: ये विश्व के प्राचीनतम पर्वत हैं. इनका निर्माण कैम्ब्रियन तथा पूर्व कैम्ब्रियन युग में लगभग 40 करोड़ वर्ष पहले हुआ था. भारत के धारवाड़, छोटानागपुर, अरावली तथा कुड़प्पा के पर्वत इसी श्रेणी में आते हैं.
▪️(ii) केलिडोनियन पर्वत: इन पर्वतों का निर्माण डेविनियन तथा सिलूरियन युग में लगभग 32 करोड़ वर्ष पहले हुआ था. उत्तरी अमेरिका के अप्लेशियन पर्वत तथा यूरोप में स्कॉटलैंड, स्कैण्डनेविया तथा उत्तरी आयरलैंड के पर्वत इस श्रेणी में आते हैं.
▪️(iii) हरसीनियन पर्वत: इन पर्वतों का निर्माण आज से लगभग 22 करोड़ वर्ष पूर्व कार्बन और परमियन कल्पों के बीच हुआ था. एशिया के टयानशान, नामशान, अल्टाई, जुगेरिया, ऑस्ट्रेलिया का पूर्वी कार्डिलेरा, यूरोप का पेनाइन, हार्ज वास्जेस, ब्लैक फॉरेस्ट पर्वत आदि इस श्रेणी में आते हैं.
▪️(iv) अल्पाइन पर्वत: इन पर्वतों का निर्माण आज से लगभग 3 करोड़ वर्ष पूर्व हुआ था. इस श्रेणी में अधिकांश नवीन वलित पर्वत आते हैं, जिनमें हिमालय, आल्प्स, रॉकीज, एण्डीज, पेरेनीज प्रमुख हैं.
2. #ऊंचाई_के_आधार_पर_पर्वतों_का_वर्गीकरण
प्रोफेसर फिंच ने पर्वतों को उनकी ऊंचाई के आधार पर 4 भागों में वर्गीकृत किया गया है:
▪️(i) निम्न पर्वत (Low Mountains): इन पर्वतों की ऊंचाई 2,000 फुट से 3,000 फुट तक होती है.
▪️(ii) कम ऊंचे पर्वत (Rough Mountains): इन पर्वतों की ऊंचाई 3,000 से 4,500 फुट तक होती है.
▪️(iii) साधारण ऊंचे पर्वत (Rugged Mountains): इन पर्वतों की ऊंचाई 4,500 फुट से 6,000 फुट तक होती है.
▪️(iv) अधिक ऊंचे पर्वत (Siessan Mountains): इन पर्वतों की ऊंचाई 6,000 फुट से अधिक होती है.
3. #भौगोलिक_व्यवस्था_के_आधार_पर_पर्वतों_का #वर्गीकरण
प्रोफेसर पी.जी. वौरसेस्टर ने भौगोलिक व्यवस्था के आधार पर पर्वतों को 7 भागों में विभाजित किया है:
▪️(i) पर्वत समूह (Mountain Cluster): इसके अन्तर्गत विभिन्न काल की और विभिन्न विधियों से बनी पर्वतमालाएं, पर्वत क्रम एवं पर्वत श्रेणियां आती हैं. ब्रिटिश कोलम्बिया का कार्डिलेरा पर्वत समूह इसका उदाहरण है.
▪️(ii) पर्वत तंत्र (Mountain System): एक ही काल और एक ही पर्वत से निर्मित अनेक पर्वत-श्रेणियों एवं पर्वत वर्गों के समूह को पर्वत तंत्र कहते हैं. संयुक्त राज्य अमेरिका का अप्लेशियन पर्वत इसका उत्तम उदाहरण है.
▪️(iii) पर्वत-श्रेणी (Mountain Range): जब एक ही प्रकार से बने हुए समान आयु के अनेक पर्वत एक लम्बी तथा संकरी पट्टी में व्यवस्थित होते हैं तो उसे पर्वत-श्रेणी कहा जाता है. हिमालय पर्वत श्रेणी इसका उदाहरण है.
▪️(iv) पर्वत वर्ग (Mountain Group): ये कई पर्वतों से मिलकर बनते हैं, किन्तु इसमें पर्वतों की कोई निश्चित व्यवस्था नहीं होती है. संयुक्त राज्य अमेरिका के कोलोरोडो राज्य में स्थित सान जुआन पर्वत इसका अच्छा उदाहरण है.
▪️(v) पर्वत कटक (Mountain Ridge): जब कोई स्थलखंड वलन अथवा भ्रंशन क्रिया के कारण एक मेहराब के रूप में ऊपर उठ जाता है तो उसे पर्वत कटक कहते हैं. सामान्यतः पर्वत कटक लम्बे और संकरे होते हैं. अप्लेशियन पर्वत की नीली पर्वत, पर्वत कटक का उदाहरण है.
▪️(vi) पर्वत श्रृंखला (Mountain Chain): उत्पत्ति एवं आयु की दृष्टि से असमान पर्वत जब लम्बी और संकरी पट्टियों में पाये जाते हैं तो उन्हें पर्वत श्रृंखला कहा जाता है.
▪️(vii) एकाकी पर्वत (Individual Mountain): कभी-कभी किसी स्थल भाग के अत्यधिक अपरदन के कारण अथवा ज्वालामुखीय क्रिया के कारण एकाकी पर्वतों की रचना हो जाती है. ये पर्वत अपवादस्वरूप ही मिलते हैं.
4. #उत्पत्ति_के_आधार_पर_पर्वतों_का_वर्गीकरण
उत्पत्ति के आधार पर पर्वतों को 4 भागों में विभाजित किया गया है:
▪️(i) वलित पर्वत (Fold Mountains): वलित पर्वतों का निर्माण तलछटी चट्टानों में मोड़ पड़ने के कारण होता है. विद्वानों के अनुसार अब से तीन करोड़ वर्ष पहले पृथ्वी के विस्तृत निचले भागों में तलछटी चट्टानों का जमाव हो गया था, जिन्हें भू-अभिनति (Geosyncline) कहते हैं. समय के साथ पृथ्वी की अन्तर्जात शक्तियों के कारण इन चट्टानों पर पार्श्वीय सम्पीड़न होने लगा, जिसके कारण इन चट्टानों के कुछ भाग नीचे धंस गए और कुछ ऊपर की ओर उठ गए. नीचे धंसे हुए भाग को अभिनति (Syncline) तथा ऊपर उठे हुए भाग को अपनति (Anticline) कहते हैं. अपनति के रूप में ऊपर उठे हुए भाग को ही वलित पर्वत कहते हैं.
वर्तमान युग में सभी बड़े पर्वत वलित पर्वत हैं. एशिया में हिमालय, यूरोप में आल्प्स, उत्तरी अमेरिका में रॉकी तथा दक्षिणी अमेरिका में एण्डीज सभी वलित पर्वत के उदाहरण हैं.
▪️(ii) भ्रंश अथवा खंड पर्वत (Block Mountains): पृथ्वी की आंतरिक शक्तियों के कारण पृथ्वी की पपड़ी पर दरारें पड़ जाती हैं. ये दरारें भू-गर्भ में काम कर रही तनाव की शक्तियों के लम्बवत दिशा में कार्य करने से पड़ती हैं. इन शक्तियों के कारण यदि पृथ्वी के एक ओर का भाग ऊपर उठ जाए अथवा किसी क्षेत्र के आस-पास का भाग नीचे धंस जाए तो ऊपर उठे हुए भाग को भ्रंश पर्वत कहते हैं. फ्रांस का “वास्जेस”, जर्मनी का “ब्लैक फॉरेस्ट”, भारत का “विंध्याचल” एवं “सतपुड़ा” तथा पाकिस्तान का “साल्ट रेंज” भ्रंश पर्वत के उदाहरण हैं.
▪️(iii) ज्वालामुखी पर्वत (Volcanic Mountains): जब ज्वालामुखी से निकलने वाला गाढ़ा होता है तो वह अधिक दूर तक नहीं फैल पता है और ज्वालामुखी के मुख के पास ही जम कर एक पर्वत का निर्माण करता है, जिसे ज्वालामुखी पर्वत कहते हैं. जापान का फ्यूजियामा तथा म्यांमार का पोपा अम्लीय लावा से बना ज्वालामुखीय पर्वत है जबकि हवाई द्वीप समूह का मोनालोआ पर्वत क्षारीय लावा से बना ज्वालामुखीय पर्वत है.
▪️(iv) अवशिष्ट पर्वत (Residual Mountains or Reliet Mountains): इन पर्वतों का निर्माण के कारण होता है. नदी, वायु, हिमनदी जैसे अपरदन के कारक प्राचीनकालीन उच्च भूभाग को अपरदन के द्वारा कुरेद देते हैं. इसके बाद बाकी बचे हुए भाग को अवशिष्ट पर्वत अथवा घर्षित पर्वत कहते हैं. भारत में नीलगिरी, पारसनाथ तथा राजमहल की पहाड़ियां तथा मध्य स्पेन के सीयरा तथा अमेरिका के मैसा एवं बूटे की पहाड़ियां अवशिष्ट पर्वत के उदाहरण हैं.
#विश्व_के_पर्वत_श्रृंखलाओं_की_सूची
1. कॉर्डिलेरा डी लॉस एन्डिस
▪️स्थान: पश्चिमी दक्षिण अमेरिका
▪️सर्वोच्च चोटी: आकोंकागुआ या आकोंकाग्वा
2. रॉकी पर्वत
▪️स्थान: पश्चिमी दक्षिण अमेरिका
▪️सर्वोच्च चोटी: माउंट अल्बर्ट
3. हिमालय-काराकोरम-हिंदूकुश
▪️स्थान: दक्षिण मध्य एशिया
▪️सर्वोच्च चोटी: माउंट एवेरेस्ट
4. ग्रेट डिविडिंग रेंज
▪️स्थान: पूर्वी ऑस्ट्रेलिया
▪️सर्वोच्च चोटी: माउंट कोस्सिउसको
5. ट्रांस अंटार्कटिका पर्वत
▪️स्थान: अंटार्कटिका
▪️सर्वोच्च चोटी: माउंट विन्सन मासिफ
6. तिएन शान
▪️स्थान: दक्षिण मध्य एशिया
▪️सर्वोच्च चोटी: माउंट पाइक पोवेदा
7. अल्ताई
▪️स्थान: मध्य एशिया
▪️सर्वोच्च चोटी: माउंट गोरा वेलुखा
8. यूराल
▪️स्थान: मध्य रूस
▪️सर्वोच्च चोटी: माउंट गोरा नॉर्डनया
9. कमचटका
▪️स्थान: पूर्वी रूस
▪️सर्वोच्च चोटी: माउंट क्लेचशेकाया सोपका
10. एटलस
▪️स्थान: उत्तर-पश्चिम अफ्रीका
▪️सर्वोच्च चोटी: माउंट जेबेल टौक्काल
11. वेर्खोयांस्क
▪️स्थान: पूर्वी रूस
▪️सर्वोच्च चोटी: माउंट गोरा मास खाया
12. पश्चिमी घाट
▪️स्थान: पश्चिमी भारत
▪️सर्वोच्च चोटी: माउंट अनामुड़ी
13. सिएरा मेड्रे ओरिएंटल
▪️स्थान: मेक्सिको
▪️सर्वोच्च चोटी: माउंट ओरिजावा
14. जाग्रोस
▪️स्थान: ईरान
▪️सर्वोच्च चोटी: माउंट ज़द कुह
15. अलबुर्ज़
▪️स्थान: ईरान
▪️सर्वोच्च चोटी: माउंट दमावंद
16. स्कैंडिनेवियन रेंज
▪️स्थान: पश्चिमी नॉर्वे
▪️सर्वोच्च चोटी: माउंट गल्धोपिजें
17. पश्चिमी सिएरा माद्री
▪️स्थान: मेक्सिको
▪️सर्वोच्च चोटी: माउंट नेवादो डे कोलिमा
18. ड्रैकेंसबर्ग
▪️स्थान: दक्षिण पूर्व अफ्रीका
▪️सर्वोच्च चोटी: माउंट द्वानायेंतालेंयाना
19. काकेशस
▪️स्थान: रूस
▪️सर्वोच्च चोटी: माउंट एल्ब्रस (पश्चिमी चोटी)
20. अलास्का रेंज
▪️स्थान: अलास्का, अमेरिका
▪️सर्वोच्च चोटी: माउंट मैककिनले (दक्षिणी चोटी)
21. कैसकेड रेंज
▪️स्थान: अमेरिका-कनाडा
▪️सर्वोच्च चोटी: माउंट रेनियर
22. अपेंनिने
▪️स्थान: इटली
▪️सर्वोच्च चोटी: माउंट कॉर्न ग्रांडे
23. अप्पलाचियन
▪️स्थान: पूर्वी अमेरिका-कनाडा
▪️सर्वोच्च चोटी: माउंट मिशेल
24. ऐल्प्स
▪️स्थान: मध्य यूरोप
▪️सर्वोच्च चोटी: माउंट ब्लैंक
25. सिएरा मेड्रे डेल सुर
▪️स्थान: मेक्सिको
▪️सर्वोच्च चोटी: माउंट तिओपेक
विश्व के प्रमुख पर्वत श्रृंखलाओं की उपरोक्त सूची में विश्व के प्रमुख पर्वत तथा उनकी सर्वोच्च चोटी के नाम शामिल किये गए हैं जो परीक्षार्थियों, पर्वतारोही और यात्रियों की सामान्य जागरूकता में सहायक होंगे।
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विश्व_का_भूगोल :
भूकंप_व_ज्वालामुखी
#भूकंप
भूकम्प का साधारण अर्थ है भूमि का काँपना अर्थात पृथ्वी का हिलना । दूसरे शब्दो में अचानक झटके से प्रारंभ हुए पृथ्वी के कंपन को भूकंप कहते हैं। यदि किसी तालाब के शांत जल मे एक पत्थर फेका जाए तो जल के तल पर सभी दिशाओं में तरंगे फैल जाएँगी । इसी प्रकार से जब चट्टानों मे कोई आकस्मिक हलचल होती है तो उससे कंपन पैदा होता है उसी प्रकार भू- पर्पटी में आकस्मिक कंपन पैदा होता है जिससे तरंगें उत्पन होती है। तरंगे अपनी उत्पत्ति केंन्द्र से चारो ओर आगे बढ़ती हैं.
#भूकंप_का_केंद्र_तथा_अभिकेंद्र
विश्व के अधिकांश भूकंप भूतल से 50 से 100 कि. मी. की गहराई पर उत्पन्न होते हैं। जिस स्थान पर ये उत्पन्न होते है।
उसे उद्गम केंद्र (Focus) कहते हैं। इस उद्गम केंद्र के ठीक ऊपर पृथ्वी के धरातल पर स्थित स्थान को अधिकेंद्र (Epicentre) कहते हैं। भूकम्पीय तरंगें उद्गम केंद्र से सभी दिशाओं में चलती हैं।
भूकंपलेखी (Seismograph) यह एक बहुत ही संवेदनशील यंत्रा है जो हजारो कि0 मी0 दूर उत्पन्न हुए इतने कम शक्ति वाले छोटे भूकंपो का भी अभिलेख कर सकता है जिनकी पहचान सामान्यतः मानव अनुभूतियों द्वारा नही की जा सकती। इसकी रचना जड़त्व के सिद्धांत (Principle of Inertia) पर आधारित है। यह किसी भी द्रव्यमान जो या तो स्थिर है या एक सीधे मार्ग मे एक समान गति की अवस्था मे है, के परिवर्तन का प्रतिरोध करने की प्रवृति है। किसी पदार्थ का द्रव्यमान जितना अधिक होगा प्रतिरोध की प्रवृति भी उतनी ही अधिक होगी । इसमे क्षैतिज गति वाला यंत्रा प्रदर्शित किया गया है। एक भारी ठोस एक उध्र्व स्तम्भ से एक तार द्वारा लटकाया जाता है इसे क्षैतिज रखने के लिए तथा इसकी ऊध्र्वाधर गति रोकने के लिए एक छड़ (Beam) का उपयोग करते हैं। भारी ठोस से एक दर्पण लगा होता है। इस पर प्रकाश की तीव्र किरणे डाली जाती है जो परावर्तित होकर एक घुमने वाले ड्रम (Drum) पर पड़ती है इस ड्रम पर फिल्म लगी होती है। यदि भूकंप न आए तो ड्रम पर किरणे एक सीधा रेखा बनाती है। भूकंप आने पर यह रेखा टेढ़ी मेढ़ी हो जाती है । ऊध्र्व स्तम्भ पृथ्वी की गहरी आधार शैल पर मजबूती से गडा़ रहता है जिसमे भूकंप के समय यह स्तम्भ भी शैल के साथ गति कर सके।
भूकंपलेखी द्वारा प्रत्यक्ष रूप से दो माप किए जाते हैं:
▪️अभिलेखित की गई सबसे विशाल तरंग का आयाम
▪️पी एवं एस तरंगो के आगमन समय मे अंतर।
#भूकंप_की_भविष्यवाणी: यद्यपि भूकंप की भविष्यवाणी करना बहुत ही कठिन कार्य है तथापि इसके लिए दो विधियाँ प्रयोग की जाती हैं: (i) भूकंप के आने से ठीक पहले होने वाले विभिन्न प्रकार के भौतिक परिर्वतनों का मापन तथा (ii) भूकंप के ऐतिहासिक पृष्ठभूमि अर्थात प्रभावित क्षेत्रा का दीर्घकालीन भूकंपी इतिहास। भूकंप के समय होने वाले भौतिक परिर्वतन निम्नलिखित है:
1. #पी_तरंग_वेग: बहुत से छोटे छोटे भूकंप पी तरंगो के वेग मे परिर्वतन कर देते है जो कि किसी बड़े भूकंप के ठीक पहले सामान्य हो जाते है। इन परिर्वतन को भूकंपलेखी पर अभिलेखीत किया जाता है।
2. #भूमि_उत्थान: भूकंप से पहले भूखंड के धीमी गति से खिसकने से एक बड़ क्षेत्रा की शैलो मे असंख्य छोटी छोटी दरारें पड़ जाती है। इन नवनिर्मित दरारों मे भूमि गत जल प्रवेश कर जाता है। जल की उपस्थिति द्रवचालित जैक की भाँति कार्य करती है। जिससे शैलों मे उभार उत्पन्न हो जाते है। अतः बड़े भूकंप के आने से पहले भूमि गुंबदाकार आकृति मे फूल जाती है अथवा ऊपर उठ जाती है। इस परिर्वतन को दाबखादिता (क्पसंजंदबल) कहते है।
3. #रैडन_निकास (Rodon Emission): रैडन गैस का निकास किसी बड़े भूकंप के आने से पूर्व बढ़ जाता है । अतः रैडन गैस के निकास पर दृष्टि रखने से किसी बड़े भूकंप के आने की चेतावनी मिल सकती है।
4. #पशुओं_का_आचरण: प्रायः देखने मे आया है कि किसी बड़े भूकंप के आने से पहले जीव जन्तु विशेषतया बिलों मे रहने वाले जीव जन्तु असाधारण ढं़ग से व्यवहार करने लगते है। चीटिंयाँ दीमक तथा अन्य बिलों मे रहने वाले जीव अपने छिपने के स्थान से बाहर निकल आते है । चिड़ियाँ जोर जोर से चहचहाती है तथा कुत्ते एक नियत प्रकार से भौंकते तथा रोते हैं।
#प्रेरित_भूकंप (Induced Earthquake): ये भूकंप मनुष्य के कार्य कलाप द्वारा आते है । उदाहरणतया बम के धमाके से, रेलो के चलने से अथवा कारखानों मे भारी मशींनो के चलने से भी पृथ्वी मे कंपन होता रहता है । तेल के क्षेत्रो में द्रवस्थेैतिक दाब को बढ़ाने तथा तेल प्राप्ति मे वृद्धि करने के लिए तरल पदार्थो का पंपन किया जाता हैं । इससे छोटेे भूकंप पैदा होते है बड़े बड़े बाँध बनाने से भी भूकंप आते है । बाँधो के पीछे अथाह जलराशी की झील बन जाती है। इससे समस्थितिक संतुलन बिगड़ जाता है । और भूकंप आता है । महाराष्ट्र मे 11-12-1967 के दिन कोयना का भूकंप कोयना बाँध द्वारा अपार जलराशि जमा करने से ही आया था ।
भूकम्पो का वितरण (Distribution of Earthquakes)
भूकम्पों का विश्व - वितरण ज्वालामुखीयों के वितरण से मिलता - जुलता है। भूकम्प विश्व के कमजोर भागों मे ही अधिक आते है।
1. #प्रशान्त_महासागरीय_पेटी - विश्व के 68% भूकम्प प्रशान्त महासागर के तटीय भागों में आते हैं । इसे अग्निवलय (Ring of fire) कहते है। यहाँ पर ज्वालामुखी भी सबसे अधिक है। चिली कैलीफोर्निया ,अलास्का जापान, फिलीपाइन, न्यूजीलैंण्ड तथा मध्य माहासागरीय भागों मे हल्के तथा भीषण भूकम्प आते रहते है। यहाँ पर उच्च स्थलीय पर्वत तथा गहरी महासागरीय खाइयाँ एक दूसरे के लगभग समानान्तर चली गई है। इससे तीव्र ढ़ाल उत्पन्न होता हैं । जो भूकम्पो को आने का महत्वपूर्ण कारण बनता है।
2. #मध्य_विश्व_पेटी (Mid World Belt) - इस पेटी में विश्व के 21% भूकम्प आते हैं। यह पेटी मैक्सिको से शुरू होकर अटलांटिक महासागर भूमध्यसागर आल्प्स तथा काकेसस से होती हुई हिमालय पर्वत तथा उसके समीपवर्ती क्षेत्रों तक फैली हुई है।
3. #अन्य_क्षेत्रा- शेष 11% भूकम्प विश्व के अन्य भागों में आते है । कुछ भूकम्प अफ्रीकी झीलों लाल सागर तथा मृत सागर वाली पट्टी में आते है।
#ज्वालामुखी (Volcanoes)
ज्वालामुखी पृथ्वी पर होने वाली एक आकस्मिक घटना है। इससे भू - पटल पर अचानक विस्फोट होता है , जिसके द्वारा लावा गैस, धुआँ, राख, कंकड, पत्थर आदि बाहर निकलते हैं। इन सभी वस्तुओं का निकास एक प्राकृतिक नली द्वारा होता है जिसे निकास नालिका (Ventor Neck) कहते हैं। लावा धरातल पर आने के लिए एक छिद्र बनाता है जिसे विवर या क्रेटर (Crater) कहते है। लावा अपने विवर के आस पास जम जाता है और एक शंकु के आकार का पर्वत बनाता है। इसे ज्वालामुखी पर्वत कहते हैं। कई बार लावा मंुख्य नली के दोनो ओर के रन्ध्रों मे से होकर निकलता हैं। और छोटे -छोटे शंकुओं का निर्माण करता है। जिन्हे गौण शंकु (Secondary Cone) कहते है। सभी ज्वालामुखी मैग्मा से बनते है । मैग्मा धरातल के नीचे गर्म पिघला हुआ पदार्थ है जो धरातल पर लावा या ज्वालामुखी चट्टानी टुकड़ो के रूप मे बाहर आता हैं । लावा का तापमान बहुत अधिक अर्थात 800व से 1300व से0 तक होता है तथा इसमें भाप तथा कई अन्य गैसें मिली होती हैं।
#ज्वालामुखी_से_निःसृत_पदार्थ (Materials Ejected by Volcanoes)
ज्वालामुखी से गैस, तरल तथा ठोस तीनों प्रकार के पदार्थ निकलते है।
1. #गैसें - ज्वालामुखी उद्गार के समय कई प्रकार की गैसें निकलती है जिनमे बहुत ही प्रज्वलित गैसें (हाईड्रोजन सल्फाइड व कार्बन डाई सल्फाइड) जहरीली गैसें (कार्बन मोनो- आक्साइड व सल्फर डाई आक्साइड) तथा अन्य गैसे हाइड्रोक्लोरिक एसिड व आमोनिया क्लोराइड आदि) सम्मिलित हैं । गैसें मे जल वाष्प का महत्व सबसे अधिक है। ज्वालामुखी से बाहर निकलने वाली गैसें मे 60 से 90% अंश जलवाष्प का ही होता है। जलवाष्प वायुमण्डल के सम्पर्क मे आते ही ठण्डा हो जाता है और मुसलाधार वर्षा करता है।
2. #तरल_पदार्थ- ज्वालामुखी से निकलने वाले तरल पदार्थ को लावा कहते है। यह बहुत ही गर्म होता है। ताजा निष्कासित लावे का तापमान 600से 1200 डिग्री सेल्सियस तक होता है। कई बार लावे के साथ जल भी निकलता है। लावे की गति उसकी रासायनिक संरचना तथा भूमि के ढ़ाल पर निर्भर करती है। इसकी गति अधिकतर धीमी होती है। परन्तु कभी - कभी यह 15 कि0 मी0 प्रति घण्टा की गति से भी बहता है । जब लावा अधिक तरल हो तथा भूमि का ढ़ाल अति तीव्र हो तो यह 80 कि0 मी0 प्रति घण्टा की गति से भी बहता है।
3. #ठोस_पदार्थ - ज्वालामुखी विस्फोट के समय गैसें तथा तरल पदार्थो के साथ - साथ ठोस पदार्थ भी बड़ी मात्रा में निःसृत होते है ये बारीक धूल कणों तथा राख से लेकर कई टन भार वाले शिला खण्ड होते हैं। मटर के दाने जितने शिला-खण्डों को लैंपिली (Lapillus) तथा छह-सात सेंटीमीटर से लेकर एक मीटर व्यास वाले शिला - खण्डों को ज्वालामुखी बम्ब (Volcanic Bomb) कहते है। कभी कभी बहुत छोटे-छोटे नुकीले शिला खण्ड लावा से चिपककर संगठित हो जाते हैं। इन्हे ज्वालामुखी संकोणश्म (Volcanic Breecia) कहते है।
#ज्वालामुखी_के_प्रकार (Types of volcanoes)
ज्वालामुखी मुख्यतः निम्नलिखित प्रकार के होते हैं:
1. #सक्रिय_ज्वालामुखी (Active Volcanoes) इस प्रकार के ज्वालामुखी मे प्रायः विस्फोट तथा उद्भेदन होता ही रहता है इनका मुख सर्वदा खुला रहता है और समय समय पर लावा, धुआँ तथा अन्य पदार्थ बाहर निकलते रहते हैं और शंकु का निर्माण होता रहता है। इटली मे पाया जाने वाला एटना ज्वालामुखी इसका प्रमुख उदाहरण है जो कि 2500 वर्षो से सक्रिय है। सिसली द्वीप का स्ट्राम्बोली ज्वालामुखी प्रत्येक 15 मिनट बाद फटता है और भूमध्य सागर का प्रकाश मीनार कहलाता है।
2. #प्रसुप्त_ज्वालामुखी (Dorment Volcanoes) - इस प्रकार के ज्वालामुखी मे दीर्घकाल से उद्भेदन (विस्फोट) नही हुआ होता किन्तु इसकी सम्भावनाएँ बनी रहती है। ये जब कभी अचानक क्रियाशील हो जाते है तो जन धन की अपार क्षति होती है। इसके मुख से वाष्प तथा गैसें निकला करती है। इटली का विसूवियस ज्वालामुखी कई वर्ष तक प्रसुप्त रहने के पश्चात् सन् 1931 में अचानक फूट पड़ा जो इसका प्रमुख उदाहरण है।
3. #विलुप्त_ज्वालामुखी (Extinct Volcanoes) इस प्रकार के ज्वालामुखी में विस्फोट प्रायः बन्द हो जाते हैं। और भविष्य मे भी कोई विस्फोट होने की सम्भावना नही होती । इसका मुख, मिट्टी लावा आदि पदार्थो से बन्द हो जाता है और मुख का गहरा क्षेत्रा कालान्तर में झील के रूप मे बदल जाता है जिसके ऊपर पेड़ पौधे उग आते है। मयनमार का पोपा ज्वालामुखी इसका प्रमुख उदाहरण है।
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