विश्व_का_भूगोल :
#पृथ्वी_का_भूगर्भिक_इतिहास
उल्का पिंडों एवं चन्द्रमा के चट्टानों के नमूनों के अध्ययन से स्पष्ट होता है कि हमारी पृथ्वी की आयु 4.6 अरब वर्ष है । पृथ्वी पर सबसे प्राचीन पत्थर नमूनों के रेडियोधर्मी तत्वों के परीक्षण से उसके 3.9 बिलियन वर्ष पुराना होने का पता चला है ।
रेडियोसक्रिय पदार्थों के अध्ययन के द्वारा पृथ्वी के आयु की सबसे विश्वसनीय व्याख्या हो सकी है । पियरे क्यूरी एवं रदरफोर्ड ने इनके आधार पर पृथ्वी की आयु दो से तीन अरब वर्ष अनुमानित की है
पृथ्वी के भूगर्भिक इतिहास की व्याख्या का सर्वप्रथम प्रयास फ्रांसीसी वैज्ञानिक कास्ते-द-बफन ने किया । वर्तमान समय में पृथ्वी के इतिहास को कई कल्प (Era) में विभाजित किया गया है । ये कल्प पुनः क्रमिक रूप से युगों (Epoch) में व्यवस्थित किए गए हैं ।
प्रत्येक युग पुनः छोटे उपविभागों में विभक्त किया गया है, जिन्हें ‘शक’ (Period) कहा जाता है । प्रत्येक शक की कालावधि निर्धारित की गई है तथा जीवों और वनस्पतियों के विकास पर भी प्रकाश डाला गया है ।
#पृथ्वी_के_भूगर्भिक_इतिहास_से_सम्बंधित_प्रमुख_तथ्य:
1. #आद्य_कल्प (Pre-Paleozoic Era):
इसे आर्कियन व प्री-कैम्ब्रियन दो भागों में बाँटा गया है:
i. #आर्कियन_काल (Archean Era):
इस काल के शैलों में जीवाश्मों का पूर्णतः अभाव है । इसलिए इसे प्राग्जैविक (Azoic) काल भी कहते हैं । इन चट्टानों में ग्रेनाइट और नीस की प्रधानता है, जिनमें सोना और लोहा पाया जाता है । इसी काल में कनाडियन व फेनोस्केंडिया शील्ड निर्मित हुए हैं ।
ii. #प्री_कैम्ब्रियन_काल (Pre-Cambrian Period):
इस काल में रीढ़विहीन जीव का प्रादुर्भाव हो गया था । इस काल में गर्म सागरों में मुख्यतः नर्म त्वचा वाले रीढ़विहीन जीव थे । यद्यपि समुद्रों में रीढ़युक्त जीवों का भी प्रादुर्भाव हो गया, परंतु स्थलभाग जीवरहित था । भारत में प्री-कैम्ब्रियन काल में ही अरावली पर्वत व धारवाड़ क्रम की चट्टानों का निर्माण हुआ ।
2. #पुराजीवी_महाकल्प (Paleozoic Era):
इसे प्राथमिक युग भी कहा जाता है ।
इसके निम्न उपभाग हैं:
i. #कैम्ब्रियन_काल (Cambrian Period):
इस काल में प्रथम बार स्थल भागों पर समुद्रों का अतिक्रमण हुआ । प्राचीनतम अवसादी शैलों (Sedimentary Rocks) का निर्माण कैम्ब्रियन काल में ही हुआ था । भारत में विंध्याचल पर्वतमाला का निर्माण इसी काल में हुआ था ।
पृथ्वी पर इसी काल में सर्वप्रथम वनस्पति एवं जीवों की उत्पत्ति हुई । ये जीव बिना रीढ़ की हड्डी वाले थे । इसी समय समुद्रों में घास की उत्पत्ति हुई ।
ii. #आर्डोविसियन_काल (Ordovician Period):
इस काल में समुद्र के विस्तार ने उत्तरी अमेरिका का आधा भाग डुबो दिया, जबकि पूर्वी अमेरिका टैकोनियन पर्वत निर्माणकारी गतिविधियों से प्रभावित हुआ । इस काल में वनस्पतियों का विस्तार हुआ तथा समुद्र में रेंगने वाले जीव भी उत्पन्न हुए । स्थल भाग अभी भी जीवविहीन था ।
iii. #सिल्यूरियन_काल (Silurian Period):
इस काल में सभी महाद्वीप पृथ्वी की कैलीडोनियन हलचल से प्रभावित हुए तथा इस काल में रीढ़ वाले जीवों का सर्वप्रथम आविर्भाव हुआ एवं समुद्रों में मछलियों की उत्पत्ति हुई । सिल्यूरियन काल में रीढ़ वाले जीवों का विस्तार मिलता है, इसलिए इसे ‘रीढ़ वाले जीवों का काल’ (Age of Vertebrates) कहते हैं ।
इस काल में प्रवाल जीवों का विस्तार मिलता है । स्थल पर पहली बार पौधों का उद्भव इसी समय हुआ । ये पौधे पत्ती विहीन थे तथा आस्ट्रेलिया में उत्पन्न हुए थे । यह काल व्यापक कैलिडोनियन पर्वतीय हलचलों का काल भी है । इसी समय स्कैंडिनेविया व स्कॉटलैंड के पर्वतों का निर्माण हुआ ।
iv. #डिवोनियन_काल (Devonian Period):
इस काल में कैलीडोनियन हलचल के परिणामस्वरूप सभी महाद्वीपों पर ऊँची पर्वत शृंखलाएँ विकसित हुई, जिसके प्रमाण स्कैंडिनेविया, दक्षिण-पश्चिम स्कॉटलैण्ड, उत्तरी आयरलैण्ड एवं पूर्वी अमेरिका में देखे जा सकते हैं । इस काल में पृथ्वी की जलवायु समुद्री जीवों विशेषकर मछलियों के सर्वाधिक अनुकूल थी । इसी समय शार्क मछली का भी आविर्भाव हुआ ।
अतः इसे ‘मत्स्य युग’ (Fish Age) के रूप में जाना जाता है । इसी समय उभयचर जीवों (Amphibians) की उत्पत्ति हुई तथा फर्न वनस्पतियों की भी उत्पत्ति हुई । पौधों की ऊँचाई 40 फीट तक पहुँच गई थी । इस समय कैलिडोनियन पर्वतीकरण भी बड़े पैमाने पर हुआ तथा ज्वालामुखी क्रियाएँ भी सक्रिय हुईं ।
v. #कार्बोनीफेरस_काल (Carboniferous Period):
इस काल में कैलीडोनियन हलचलों का स्थान आर्मेरिकन हलचलों ने ले लिया, जिससे ब्रिटेन एवं फ्रांस सर्वाधिक प्रभावित हुए तथा इस युग में उभयचरों का विकास व विस्तार बढ़ता गया । रेंगने वाले जीव (Raptiles) का भी स्थल पर आविर्भाव हुआ।
इस काल में 100 फीट ऊँचे पेड़ भी उत्पन्न हुए । यह ‘बड़े वृक्षों (ग्लोसोप्टिरस वनस्पतियों) का काल’ कहलाता है । इस समय बने भ्रंशों में पेड़ों के दब जाने से गोंडवाना क्रम के चट्टानों का निर्माण हुआ, जिसमें कोयले के व्यापक निक्षेप मिलते हैं ।
vi. #पर्मियन_काल (Permian Age):
इस काल में वैरीसन हलचल हुई, जिसने मुख्य रूप से यूरोप को प्रभावित किया । जलवायु धीरे-धीरे शुष्क होने लगी तथा इस समय वैरीसन हलचल के फलस्वरूप भ्रंशों के निर्माण के कारण ब्लैक फॉरेस्ट व वास्जेज जैसे भ्रंशोत्थ पर्वतों का निर्माण हुआ ।
स्पेनिश मेसेटा, अल्ताई, तिएनशान, अप्लेशियन जैसे पर्वत भी इसी काल में निर्मित हुए । इस समय स्थल पर जीवों व वनस्पतियों की अनेक प्रजातियों का विकास देखा गया । भ्रंशन के कारण उत्पन्न आंतरिक झीलों के वाष्पीकरण से पृथ्वी पर पोटाश भंडारों का निर्माण हुआ ।
3. #मध्यजीवी_महाकल्प (Mesozoic Era):
इसे द्वितीयक युग भी कहा जाता है ।
इसे ट्रियासिक, जुरैसिक व क्रिटेशियस कालों में बाँटा गया है:
i. #ट्रियासिक_काल (Triassic Period):
इस काल में स्थल पर बड़े-बड़े रेंगने वाले जीव का विकास हुआ । इसीलिए इसे ‘रेंगने वाले जीवों का काल’ (Age of Reptiles) कहा जाता है । यह काल आर्कियोप्टेरिक्स की उत्पत्ति का काल था । ये स्थल एवं आकाश दोनों में चल सकते थे ।
इस समय तीव्र गति से तैरने वाले लॉबस्टर (केकड़ा समूह का प्राणी) का उद्भव भी हुआ । स्तनधारी भी उत्पन्न होने लगे थे । मांसाहारी मत्स्यतुल्य रेप्टाइल्स सागरों में उत्पन्न हुए । रेप्टाइल्स में भी स्तनधारियों की उत्पत्ति हो गई थी ।
ii. #जुरैसिक_काल (Jurassic Period):
इस काल में मगरमच्छ के समान मुख और मछली के समान धड़ वाले जीव, डायनासोर रेप्टाइल्स का विस्तार हुआ एवं लॉबस्टर प्राणी बढ़ते चले गए तथा इस काल में जलचर, स्थलचर व नभचर तीनों का आविर्भाव हो गया था । जूरा पर्वत का सम्बंध इसी काल से जोड़ा जाता है । पुष्पयुक्त वनस्पतियाँ इसी काल में आई थीं ।
iii. #क्रिटेशियस_काल (Cretaceous Period):
इस काल में एंजियोस्पर्म (आवृत्तबीजी) पौधों का विकास प्रारंभ हुआ । बड़े-बड़े कछुओं का उद्भव भी इस काल में देखा गया । मैग्नेलिया व पोपनार जैसे शीतोष्ण पतझड़ वन के वृक्ष विकसित हुए । उत्तरी-पश्चिमी अलास्का, कनाडा, मैक्सिको, ब्रिटेन के डोबर क्षेत्र व आस्ट्रेलिया आदि में खड़िया मिट्टी का जमाव हुआ ।
पर्वतीकरण अत्यधिक सक्रिय था । रॉकी व एंडीज की उत्पत्ति आरंभ हो गई । भारत के पठारी भाग में क्रिटेशियस काल में ही ज्वालामुखी लावा का दरारी उद्भेदन हुआ, जिससे ‘दक्कन ट्रैप’ व काली मिट्टी का निर्माण हुआ है ।
4. #नवजीवी_महाकल्प (Cenozoic Era):
इस कल्प को तृतीयक या ‘टर्शियरी युग’ भी कहा जाता है । इसे पैल्योसीन, इओसीन, ओलीगोसीन, मायोसीन व प्लायोसीन कालों में बाँटा गया है । इसी कल्प के विभिन्न कालों में अल्पाइन पर्वतीकरण हुए तथा विश्व के सभी नवीन मोड़दार पर्वतों आल्प्स, हिमालय, रॉकी, एंडीज आदि की उत्पत्ति हुई ।
i. #पैल्योसीन_काल (Paleocene Period):
इस युग के दौरान हुई लैरामाइड हलचल के फलस्वरूप उत्तरी अमेरिका में रॉकी पर्वतमाला का निर्माण हुआ तथा स्थल पर स्तनपाइयों का विस्तार हुआ । इसी कल्प में सर्वप्रथम स्तनपाई (Mammalians) जीवों व पुच्छहीन बंदरों (Ape) का आविर्भाव हुआ ।
ii. #इओसीन_काल (Eocene Period):
इस युग में भूतल पर विभिन्न दरारों के माध्यम से ज्वालामुखी का उद्गार हुआ तथा स्थल पर रेंगने वाले जीव प्रायः विलुप्त हो गए । प्राचीन बंदर व गिब्बन म्यांमार में उत्पन्न हुए । हाथी, घोड़ा, रेनोसेरस (गैंडा), सूअर के पूर्वजों का आविर्भाव हुआ ।
iii. #ओलीगोसीन_काल (Oligocene Period):
इस काल में ‘अल्पाइन पर्वतीकरण’ प्रारंभ हुआ एवं इसी काल में बिल्ली, कुत्ता, भालू आदि की उत्पत्ति हुई । इसी काल में पुच्छहीन बंदर का आविर्भाव हुआ, जिसे मानव का पूर्वज कहा जा सकता है । ‘वृहत् हिमालय’ की उत्पत्ति का मुख्यकाल यही है ।
iv. #मायोसीन_काल (Miocene Period):
इस काल में अल्पाइन पर्वत निर्माणकारी गतिविधियों द्वारा सम्पूर्ण यूरोप एवं एशिया में वलनों का विकास हुआ, जिनके विस्तार की दिशा पूर्व-पश्चिम था ।
इस काल में बड़े आकार के (60 फीट) शार्क मछली, प्रोकानसल (पुच्छहीन बंदर), जल पक्षी (हंस, बत्तख) पेंग्विन आदि उत्पन्न हुए । हाथी का भी विकास इसी काल में हुआ । मध्य या लघु हिमालय की उत्पत्ति का मुख्य काल यही है ।
v. #प्लायोसीन_काल:
इस काल में समुद्रों के निरन्तर अवसादीकरण से यूरोप, मेसोपोटामिया, उत्तरी भारत, सिन्ध एवं उत्तरी अमेरिका में विस्तृत मैदानों का विकास हुआ तथा इस काल में बड़े स्तनपाई प्राणियों की संख्या में कमी आई । शार्क का विनाश हो गया, मानव के पूर्वज का विकास हुआ तथाआधुनिक स्तनपाइयों का आविर्भाव हुआ ।
शिवालिक की उत्पत्ति इसी काल में हुई । हिमालय पर्वतमाला एवं दक्षिण के प्रायद्वीपीय भाग के बीच स्थित जलपूर्ण द्रोणी टेथिस भू-सन्नति में अवसादों के जमाव से उत्तरी विशाल मैदान का आविर्भाव इसी काल में होने लगा था ।
5. #नूतन_महाकल्प (Neozoic Era):
इसे चतुर्थक युग भी कहा जाता है ।
प्लीस्टोसीन व होलोसीन इसके दो उपभाग हैं:
i. #प्लीस्टोसीन_काल (Pleistocene Period):
इस युग में तापमान का स्तर नीचे आ गया, जिसके कारण यूरोप ने क्रमशः चार हिमयुग देखा । जो इस प्रकार हैं- गुंज (Gunz), मिन्डेल (Mindel), रिस (Riss) एवं वुर्म (Wurm) । विभिन्न हिमकालों के बीच में अंतर्हिम काल (Inter Glacial Age) देखे गए जो तुलनात्मक रूप से उष्णकाल था । मिन्हेल व रिस के बीच का अंतर्हिम काल सर्वाधिक लम्बी अवधि का था ।
उत्तरी अमेरिका में इस समय नेब्रास्कन, कन्सान, इलीनोइन या आयोवा व विंस्कासिन हिमकाल देखे गए । नेब्रास्कन व कन्सान के बीच अफ्टोनियन, कन्सान व इलीनोइन के बीच यारमाउथ, इलीनोइन व विंस्कासिन के बीच संगमन अंतर्हिम काल था ।
इस युग के अंत में हिम चादर पिघलते चले गए एवं स्कैंडिनेवियन क्षेत्र की ऊँचाई में निरंतर वृद्धि हुई । पृथ्वी पर उड़ने वाले ‘पक्षियों का आविर्भाव’ प्लीस्टोसीन काल में ही माना जाता है । मानव तथा अन्य स्तनपाई जीव वर्तमान स्वरूप में इसी काल में विकसित हुए ।
ii. #होलोसीन_या_अभिनव_काल (Holocene or Innovative Period):
इस काल में तापमान वृद्धि के कारण प्लीस्टोसीन काल के हिम की समाप्ति हो गई तथा विश्व की वर्तमान दशा प्राप्त हुई जो अभी भी जारी है । इसी समय सागरीय जीव वर्तमान अवस्था को प्राप्त हुए । स्थल पर मनुष्य ने कृषि कार्य तथा पशुपालन प्रारंभ कर दिया ।
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#विश्व_का_भूगोल :
#पृथ्वी_की_गतियां
पृथ्वी की गति दो प्रकार की है
▪️घूर्णन अथवा दैनिक गति – पृथ्वी का अपने अक्ष पर घूमना घूर्णन कहलाता है।
▪️परिक्रमण अथवा वार्षिक गति– सूर्य के चारों ओर एक स्थिर कक्ष में पृथ्वी की गति को परिक्रमण कहते हैं।
#घूर्णन_अथवा_दैनिक_गति:
पृथ्वी सदैव अपने अक्ष पर पश्चिम से पूर्व लट्टू की भांति घूमती रहती है, जिसे ‘पृथ्वी का घूर्णन या परिभ्रमण’ कहते हैं । इसके कारण दिन व रात होते हैं । अतः इस गति को ‘दैनिक गति’ भी कहते हैं ।
i. #नक्षत्र_दिवस :
एक मध्याह्न रेखा के ऊपर किसी निश्चित नक्षत्र के उत्तरोत्तर दो बार गुजरने के बीच की अवधि को नक्षत्र दिवस कहते हैं । यह 23 घंटे व 56 मिनट अवधि की होती है ।
ii. #सौर_दिवस :
जब सूर्य को गतिहीन मानकर पृथ्वी द्वारा उसके परिक्रमण की गणना दिवसों के रूप में की जाती है तब सौर दिवस ज्ञात होता है । इसकी अवधि पूरे 24 घंटे की होती है ।
#परिक्रमण_अथवा_वार्षिक_गति:
पृथ्वी अपने अक्ष पर घूमने के साथ-साथ सूर्य के चारों ओर एक अंडाकार मार्ग (Geoid) पर 365 दिन तथा 6 घंटे में एक चक्कर पूरा करती है । पृथ्वी के इस अंडाकार मार्ग को ‘भू-कक्षा’ (Earth Orbit) कहते हैं । पृथ्वी की इस गति को परिक्रमण या वार्षिक गति कहते हैं ।
i. #उपसौर :
पृथ्वी जब सूर्य के अत्यधिक पास होती है तो इसे उपसौर कहते हैं । ऐसी स्थिति 3 जनवरी को होती है ।
ii. #अपसौर :
पृथ्वी जब सूर्य से अधिकतम दूरी पर होती है तो इसे अपसौर कहते हैं । ऐसी स्थिति 4 जुलाई को होती है ।
#दिन_रात_का_छोटा_व_बड़ा_होना:
यदि पृथ्वी अपनी धुरी पर झुकी हुई न होती तो सर्वत्र दिन-रात बराबर होते । इसी प्रकार यदि पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा न करती तो एक गोलार्द्ध में दिन सदा ही बड़े और रातें छोटी रहती जबकि दूसरे गोलार्द्ध में रातें बड़ी और दिन छोटे होते । परंतु विषुवतरेखीय भाग को छोड़कर विश्व के अन्य सभी भागों में विभिन्न ऋतुओं में दिन-रात की लम्बाई में अंतर पाया जाता है ।
विषुवत रेखा पर सदैव दिन-रात बराबर होते हैं, क्योंकि इसे प्रकाश वृत्त हमेशा दो बराबर भागों में बाँटता है । अतः विषुवत रेखा का आधा भाग प्रत्येक स्थिति में प्रकाश प्राप्त करता है ।
#पृथ्वी_पर_दिन_और_रात_की_स्थिति :
21 मार्च से 23 सितम्बर की अवधि में उत्तरी गोलार्द्ध सूर्य का प्रकाश 12 घंटे या अधिक समय तक प्राप्त करता है । अतः यहाँ दिन बड़े एवं रातें छोटी होती हैं । जैसे-जैसे उत्तरी ध्रुव की ओर बढ़ते जाते हैं, दिन की अवधि भी बढ़ती जाती है ।
उत्तरी ध्रुव पर तो दिन की अवधि छः महीने की होती है । 23 सितम्बर से 21 मार्च तक सूर्य का प्रकाश दक्षिणी गोलार्द्ध में 12 घंटे या अधिक समय तक प्राप्त होता है ।
जैसे-जैसे दक्षिणी ध्रुव की ओर बढ़ते हैं, दिन की अवधि भी बढ़ती है । दक्षिणी ध्रुव पर इसी कारण छः महीने तक दिन रहता है । इस प्रकार उत्तरी ध्रुव एवं दक्षिणी ध्रुव दोनों पर ही छः महीने तक दिन व छः महीने तक रात रहती है ।
#ऋतु_परिवर्तन :
चूंकि पृथ्वी न सिर्फ अपने अक्ष पर घूमती है वरन् सूर्य की परिक्रमा भी करती है । अतः पृथ्वी की सूर्य से सापेक्ष स्थितियाँ बदलती रहती हैं ।
पृथ्वी के परिक्रमण में चार मुख्य अवस्थाएँ आती हैं तथा इन अवस्थाओं में ऋतु परिवर्तन होते हैं:
i. #21_जून_की_स्थिति :
इस समय सूर्य कर्क रेखा पर लम्बवत् चमकता है । इस स्थिति को ग्रीष्म अयनांत (Summer Solistice) कहते हैं । वस्तुतः 21 मार्च के बाद सूर्य उत्तरायण होने लगता है तथा उत्तरी गोलार्द्ध में दिन की अवधि बढ़ने लगती है, जिससे वहाँ ग्रीष्म ऋतु का आगमन होता है ।
21 जून को उत्तरी गोलार्द्ध में दिन की लम्बाई सबसे अधिक रहती है । दक्षिणी गोलार्द्ध में इस समय शीत ऋतु होती है । 21 जून के पश्चात् 23 सितम्बर तक सूर्य पुनः विषुवत रेखा की ओर उन्मुख होता है । परिणामस्वरूप धीरे-धीरे उत्तरी गोलार्द्ध में गर्मी कम होने लगती है ।
ii. #22_दिसम्बर_की_स्थिति :
इस समय सूर्य मकर रेखा पर लम्बवत् चमकता है । इस स्थिति को शीत अयनांत (Winter Solistice) कहते हैं । इस समय दक्षिणी गोलार्द्ध में दिन की अवधि लम्बी व रात छोटी होती हैं ।
वस्तुतः सूर्य के दक्षिणायन होने अर्थात् दक्षिणी गोलार्द्ध में उन्मुख होने की प्रक्रिया 23 सितम्बर के बाद प्रारंभ हो जाती है, जिससे दक्षिणी गोलार्द्ध में दिन बड़े व रातें छोटी होने लगती हैं ।
इस समय उत्तरी गोलार्द्ध में ठीक विपरीत स्थिति देखी जाती है । 22 दिसम्बर के उपरान्त 21 मार्च तक सूर्य पुनः विषुवत रेखा की ओर उन्मुख होता है तथा दक्षिणी गोलार्द्ध में धीरे-धीरे ग्रीष्म ऋतु की समाप्ति हो जाती है ।
iii. #21_मार्च_व_23_सितम्बर_की_स्थितियाँ :
इन दोनों स्थितियों में सूर्य विषुवत रेखा पर लम्बवत चमकता है । अतः इस समय समस्त अक्षांश रेखाओं का आधा भाग सूर्य का प्रकाश प्राप्त करता है । अतः सर्वत्र दिन व रात की अवधि बराबर होती है ।
इस समय दिन व रात की अवधि के बराबर रहने एवं ऋतु की समानता के कारण इन दोनों स्थितियों को ‘विषुव’ अथवा ‘सम रात-दिन’ (Equinox) कहा जाता है । 21 मार्च की स्थिति को ‘बसंत विषुव’ (Spring Equinox) एवं 23 सितम्बर वाली स्थिति को ‘शरद विषुव’ (Autumn Equinox) कहा जाता है ।
#ज्वार_भाटा :
सूर्य व चन्द्रमा की आकर्षण शक्तियों के कारण सागरीय जल के ऊपर उठने तथा गिरने को ‘ज्वार भाटा’ कहा जाता है । इससे उत्पन्न तरंगों को ज्वारीय तरंग कहते हैं । विभिन्न स्थानों पर ज्वार-भाटा की ऊँचाई में पर्याप्त भिन्नता होती है, जो सागर में जल की गहराई, सागरीय तट की रूपरेखा तथा सागर के खुले होने या बंद होने पर आधारित होती है ।
यद्यपि सूर्य चन्द्रमा से बहुत बड़ा है, तथापि सूर्य की अपेक्षा चन्द्रमा की आकर्षण शक्ति का प्रभाव दोगुना है । इसका कारण सूर्य का चन्द्रमा की तुलना में पृथ्वी से दूर होना है ।
24 घंटे में प्रत्येक स्थान पर दो बार ज्वार भाटा आता है । जब सूर्य, पृथ्वी तथा चन्द्रमा एक सीधी रेखा में होते हैं तो इस समय उनकी सम्मिलित शक्ति के परिणामस्वरूप दीर्घ ज्वार का अनुभव किया जाता है । यह स्थिति सिजिगी (Syzygy) कहलाती है । ऐसा पूर्णमासी व अमावस्या को होता है ।
इसके विपरीत जब सूर्य, पृथ्वी व चन्द्रमा मिलकर समकोण बनाते हैं तो चन्द्रमा व सूर्य का आकर्षण बल एक दूसरे के विपरीत कार्य करते हैं । फलस्वरूप निम्न ज्वार का अनुभव किया जाता है । ऐसी स्थिति कृष्ण पक्ष एवं शुक्ल पक्ष के सप्तमी या अष्टमी को देखा जाता है । लघु ज्वार सामान्य ज्वार से 20% नीचा व दीर्घ ज्वार सामान्य ज्वार से 20% ऊँचा होता है ।
पृथ्वी पर चन्द्रमा के सम्मुख स्थित भाग पर चन्द्रमा की आकर्षण शक्ति के कारण ज्वार आता है, किन्तु इसी समय पृथ्वी पर चन्द्राविमुखी भाग पर ज्वार आता है । इसका कारण पृथ्वी के घूर्णन को संतुलित करने के लिए अपकेन्द्री बल (Centrifugal Force) का शक्तिशाली होना है ।
उपरोक्त बलों के प्रभाव के कारण प्रत्येक स्थान पर 12 घंटे के बाद ज्वार आना चाहिए किन्तु यह प्रति दिन लगभग 26 मिनट की देरी से आता है । इसका कारण चन्द्रमा का पृथ्वी के सापेक्ष गतिशील होना है ।
कनाडा के न्यू ब्रंसविक तथा नोवा स्कोशिया के मध्य स्थित फंडी की खाड़ी में ज्वार की ऊँचाई सर्वाधिक (15 से 18 मी.) होती है, जबकि भारत के ओखा तट पर मात्र 2.7 मी. होती है ।
इंग्लैंड के दक्षिणी तट पर स्थित साउथैम्पटन में प्रतिदिन चार बार ज्वार आते हैं । ऐसा इसलिए होता है क्योंकि ये दो बार इंग्लिश चैनल होकर एवं दो बार उत्तरी सागर से होकर विभिन्न अंतरालों पर वहाँ पहुँचते हैं ।
नदियों को बड़े जलयानों के लिए नौ संचालन योग्य बनाने में ज्वार सहायक होतेहैं । टेम्स और हुगली नदियों में प्रवेश करने वाले ज्वारीय धाराओं के कारण ही क्रमशः लंदन व कोलकाता महत्वपूर्ण पत्तन बन सके हैं । नदियों द्वारा लाए गए अवसाद भाटा के साथ बहकर समुद्र में चले जाते हैं तथा इस प्रकार डेल्टा निर्माण की प्रक्रिया में बाधा पहुँचती है ।
जल विद्युत के उत्पादन हेतु भी ज्वारीय ऊर्जा का प्रयोग किया जाता है । फ्रांस व जापान में ज्वारीय ऊर्जा पर आधारित कुछ विद्युत केन्द्र विकसित किए गए हैं । भारत में खंभात की खाड़ी व कच्छ की खाड़ी में इसके विकास की अच्छी संभावना है ।
#ज्वार_भाटा_के_उत्पत्ति_की_संकल्पनाएँ :
i. न्यूटन का गुरूत्वाकर्षण बल सिद्धान्त (1687 ई.)
ii. लाप्लास का गतिक सिद्धान्त (1755 ई.)
iii. ह्वैवेल का प्रगामी तरंग सिद्धांत (1833 ई.)
iv. एयरी का नहर सिद्धांत (1842 ई.)
v. हैरिस का स्थैतिक तरंग सिद्धान्त
#सूर्यग्रहण_और_चन्द्रग्रहण :
पृथ्वी और चन्द्रमा दोनों को प्रकाश सूर्य से मिलता है । पृथ्वी पर से चन्द्रमा का एक भाग ही दिखता है, क्योंकि पृथ्वी और चन्द्रमा की घूर्णन गति समान है । पृथ्वी पर चन्द्रमा का सम्पूर्ण प्रकाशित भाग महीने में केवल एक बार अर्थात् पूर्णिमा (Full Moon) को दिखाई देता है ।
इसी प्रकार महीने में एक बार चन्द्रमा का सम्पूर्ण अप्रकाशित भाग पृथ्वी के सामने होता है तथा तब चन्द्रमा दिखाई नहीं देता; इसे अमावस्या (New Moon) कहते हैं ।
जब सूर्य, पृथ्वी और चन्द्रमा एक सरल रेखा में होते हैं तो इस स्थिति को युति-वियुति (Conjuction) या सिजिगी (Syzygy) कहते हैं, जिसमें युति सूर्यग्रहण की स्थिति में व वियुति (Opposition) चन्द्रग्रहण की स्थिति में बनते हैं ।
जब पृथ्वी, सूर्य और चन्द्रमा के बीच आ जाता है तो सूर्य की रोशनी चन्द्रमा तक नहीं पहुँच पाती तथा पृथ्वी की छाया के कारण उस पर अंधेरा छा जाता है । इस स्थिति को चन्द्रग्रहण (Lunar Eclipse) कहते हैं । चन्द्रग्रहण हमेशा पूर्णिमा की रात को होता है ।
सूर्यग्रहण की स्थिति तब बनती है, जब सूर्य एवं पृथ्वी के बीच चन्द्रमा आ जाए तथा पृथ्वी पर सूर्य का प्रकाश न पड़कर चन्द्रमा की परछाईं पड़े । सूर्यग्रहण (Solar Eclipse) हमेशा अमावस्या को होता है । प्रत्येक अमावस्या को सूर्यग्रहण एवं प्रत्येक पूर्णिमा को चन्द्रग्रहण लगना चाहिए, परंतु ऐसा नहीं होता क्योंकि चन्द्रमा अपने अक्ष पर 50 झुकाव लिए हुए है ।
जब चन्द्रमा और पृथ्वी एक ही बिंदु पर परिक्रमण पथ में पहुँचती हैं तो उस समय चन्द्रमा अपने अक्षीय झुकाव के कारण थोड़ा आगे निकल जाता है ।
इसी कारण प्रत्येक पूर्णिमा और अमावस्या की स्थिति में ग्रहण नहीं लगता एक वर्ष में अधिकतम सात चन्द्रग्रहण एवं सूर्यग्रहण की स्थिति हो सकती है पूर्ण सूर्यग्रहण देखे जाते हैं, परंतु पूर्ण चन्द्र ग्रहण प्रायः नहीं देखा जाता, क्योंकि सूर्य, चन्द्रमा एवं पृथ्वी के आकार में पर्याप्त अंतर है ।
22 जुलाई, 2009 को 21वीं सदी का सबसे लंबा पूर्ण सूर्यग्रहण देखा गया । सूर्यग्रहण के समय बड़ी मात्रा में पराबैंगनी (Ultra Violet) किरणें उत्सर्जित होती हैं इसीलिए नंगी आँखों से सूर्य ग्रहण देखने से मना किया जाता है । पूर्ण सूर्यग्रहण के समय सूर्य के परिधीय क्षेत्रों में हीरक वलय (Diamond Ring) की स्थिति बनती है ।
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#विश्व_का_भूगोल :
#अक्षांश_और_देशांतर_रेखाएं
पृथ्वी में किसी स्थान की भौगोलिक स्थिति का निर्धारण अक्षांश (latitude) और देशांतर (Longitude) रेखाओं द्वारा किया जाता है।
किसी स्थान का अक्षांश (latitude), धरातल पर उस स्थान की “उत्तर से दक्षिण” की स्थिति को तथा किसी स्थान का देशांतर (Longitude), धरातल पर उस स्थान की “पूर्व से पश्चिम” की स्थिति को प्रदर्शित करता है। उत्तरी ध्रुवों (North Pole) व दक्षिणी ध्रुवों (South Pole) के अक्षांश (latitude) क्रमशः 90° उत्तर तथा 90° दक्षिण है।
नोट : किसी भी स्थान के देशांतर (Longitude) को प्रधान याम्योत्तर (Prime Mediterranean) के सापेक्ष अभिव्यक्त किया जाता है।
#अक्षांश_रेखाएँ (Latitude lines)
भूमध्य रेखा (Equator) के समानांतर से किसी भी स्थान की उत्तरी अथवा दक्षिणी ध्रुव की ओर की ओर खींची गई रेखाओं को अक्षांश (latitude) रेखा कहते है। भूमध्य रेखा (Equator) को (0°) की अक्षांश रेखा माना गया है। भूमध्य रेखा (Equator) से उत्तरी ध्रुव की ओर की सभी दूरियाँ उत्तरी अक्षांश और दक्षिणी ध्रुव की ओर की सभी दूरियाँ दक्षिणी अक्षांश में मापी जाती है। ध्रुवों की ओर बढ़ने पर भूमध्य रेखा (Equator) से अक्षांश (latitude) की दूरी बढ़ने लगती है। इसके अतिरिक्त सभी अक्षांश रेखाएँ (Latitude lines) परस्पर समानांतर और पूर्ण वृत्त होती हैं। ध्रुवों की ओर जाने से वृत्त छोटे होने लगते हैं। 90° का अक्षांश ध्रुव पर एक बिंदु में परिवर्तित हो जाता है।
#महत्वपूर्ण_वृत्त
▪️विषुवत् वृत्त (0°) (E)
▪️उत्तर ध्रुव (90°)
▪️दक्षिण ध्रुव (90°)
#महत्त्वपूर्ण_अक्षांश_रेखाएँ
▪️विषुवत् रेखा (0°) (Equator Line)
▪️उत्तरी गोलार्ध में कर्क रेखा (23.5°) (Cancer Line)
▪️दक्षिणी गोलार्ध में मकर रेखा (23.5°) (Capcorian line)
#पृथ्वी_के_ताप_कटिबंध
#उष्ण_कटिबंध – कर्क रेखा एवं मकर रेखा के बीच के सभी अक्षांशों पर सूर्य वर्ष में एक बार दोपहर में सिर के ठीक ऊपर होता है। इसलिए इस क्षेत्र में सबसे अधिक ऊष्मा प्राप्त होती है तथा इसे उष्ण कटिबंध कहा जाता है। कर्क रेखा तथा मकर रेखा के बाद किसी भी अक्षांश पर दोपहर का सूर्य कभी भी सिर के ऊपर नहीं होता है। ध्रुव की तरफ सूर्य की किरणें तिरछी होती जाती हैं।
#शीतोष्ण_कटिबंध – उत्तरी गोलार्ध में कर्क रेखा एवं उत्तर ध्रुव वृत्त तथा दक्षिणी गोलार्ध में मकर रेखा एवं दक्षिण ध्रुव वृत्त के बीच वाले क्षेत्र का तापमान मध्यम रहता है। इसलिए इन्हें, शीतोष्ण कटिबंध कहा जाता है।
#शीत_कटिबंध – उत्तरी गोलार्ध में उत्तर ध्रुव वृत्त एव उत्तरी ध्रुव तथा दक्षिणी गोलार्ध में दक्षिण ध्रुव वृत्त एव दक्षिणी ध्रुव के बीच के क्षेत्र में ठडं बहतु होती है। क्योंकि, यहाँ सूर्य क्षितिज से ज़्यादा ऊपर नहीं आ पाता है। इसलिए ये शीत कटिबंध कहलाते हैं।
#देशांतर_रेखाएँ (Longitudes lines)
उत्तरी ध्रुव से दक्षिणी ध्रुव को मिलाने वाली 360 डिग्री रेखाओं को देशांतर रेखाएं कहा जाता है, यह ग्लोब पर उत्तर से दक्षिण दोनों भूगोलीय ध्रुवों (उत्तरी ध्रुव से दक्षिणी ध्रुव ) के बीच खींची हुई काल्पनिक मध्याह्न रेखाओं को देशांतर रेखाएं कहा जाता है । जो मध्याह्न रेखा जिस बिंदु या स्थान से गुजरती है उसका कोणीय मान उस स्थान का देशांतर होता है। सभी देशांतर रेखाएं अर्ध-वृत्ताकार होती हैं। ये समांनांतर नहीं होती हैं व उत्तरी व दक्षिणी ध्रुवों पर अभिसरित होकर मिल जाती हैं।
ग्रीनविच , जहाँ ब्रिटिश राजकीय वेधशाला स्थित है, से गुजरने वाली याम्योत्तर से पूर्व और पश्चिम की ओर गिनती शुरू की जाए। इस याम्योत्तर को प्रमुख याम्योत्तर (Prime Mediterranean) कहते हैं। इसका मान 0° देशांतर है तथा यहाँ से हम 180° पूर्व या 180° पश्चिम तक गणना करते हैं। प्रधान याम्योत्तर (Prime Mediterranean) तथा 180° याम्योत्तर मिलकर पृथ्वी को दो समान भागों, पूर्वी गोलार्ध एवं पश्चिमी गोलार्ध में विभक्त करती है। इसलिए किसी स्थान के देशांतर के आगे पूर्व के लिए अक्षर पू. तथा पश्चिम के लिए अक्षर प. का उपयोग करते हैं। 180° पूर्व और 180° पश्चिम याम्योत्तर एक ही रेखा पर स्थित हैं।
#देशांतर_और_समय (Longitude & Time)
समय को मापने का सबसे अच्छा साधन पृथ्वी, चंद्रमा एवं ग्रहों की गति है। सूर्योदय एवं सूर्यास्त प्रतिदिन होता है। अतः स्वाभाविक ही है कि यह पूरे विश्व में समय निर्धारण का सबसे अच्छा साधन है। स्थानीय समय का अनुमान सूर्य के द्वारा बनने वाली परछाईं से लगाया जा सकता है, जो दोपहर में सबसे छोटी एवं सूर्योदय तथा सूर्यास्त केसमय सबसे लंबी होती है।
ग्रीनविच पर स्थित प्रमुख याम्योत्तर पर सूर्य जिस समय आकाश के सबसे ऊँचे बिंदु पर होगा, उस समय याम्योत्तर पर स्थित सभी स्थानों
पर दोपहर होगी। चूँकि, पृथ्वी पश्चिम से पूर्व की ओर चक्कर लगाती है, अतः वे स्थान जो ग्रीनविच के पूर्व में हैं, उनका समय ग्रीनविच समय से आगे होगा तथा जो पश्चिम में हैं, उनका समय पीछे होगा ।
भारत के मध्य भाग इलाहाबाद के मिर्जापुर के नैनी से होकर गुजरने वाली याम्योत्तर रेखा (82,1/2°) (Standard Mediterranean Line) के स्थानीय समय को देश का मानक समय माना जाता है।
पृथ्वी लगभग 24 घंटे में अपने अक्ष पर 360° घूम जाती है अर्थात् 1 घंटे में (360/24) 15° एवं 4 मिनट में 1° घूमती है। अर्थात डिग्री देशांतर दुरी तय करने में 4 Minute का समय लगता है
भारत में गुजरात के द्वारका तथा असम के डिब्रूगढ़ वेफ स्थानीय समय में लगभग 1 घंटा 45 मिनट का अंतर है।
भारत और ग्रीनविच (लंदन) के समय में 5:30 घंटे का अंतर है , इसलिए जब लंदन में दोपहर के 2 बजे होंगे, तब भारत में शाम के 7ः30 बजे होंगे।
कुछ देशों का देशांतरीय विस्तार अधिक होता है, जिसके कारण वहाँ एक से अधिक मानक समय अपनाए गए हैं। उदाहरण के लिए, रूस में 11 मानक समयों को अपनाया गया है।
विषुवत रेखा पर इसके बीच की दूरी अधिकतम 111.32 Km होती है।
#पृथ्वी_का_भूगर्भिक_इतिहास
उल्का पिंडों एवं चन्द्रमा के चट्टानों के नमूनों के अध्ययन से स्पष्ट होता है कि हमारी पृथ्वी की आयु 4.6 अरब वर्ष है । पृथ्वी पर सबसे प्राचीन पत्थर नमूनों के रेडियोधर्मी तत्वों के परीक्षण से उसके 3.9 बिलियन वर्ष पुराना होने का पता चला है ।
रेडियोसक्रिय पदार्थों के अध्ययन के द्वारा पृथ्वी के आयु की सबसे विश्वसनीय व्याख्या हो सकी है । पियरे क्यूरी एवं रदरफोर्ड ने इनके आधार पर पृथ्वी की आयु दो से तीन अरब वर्ष अनुमानित की है
पृथ्वी के भूगर्भिक इतिहास की व्याख्या का सर्वप्रथम प्रयास फ्रांसीसी वैज्ञानिक कास्ते-द-बफन ने किया । वर्तमान समय में पृथ्वी के इतिहास को कई कल्प (Era) में विभाजित किया गया है । ये कल्प पुनः क्रमिक रूप से युगों (Epoch) में व्यवस्थित किए गए हैं ।
प्रत्येक युग पुनः छोटे उपविभागों में विभक्त किया गया है, जिन्हें ‘शक’ (Period) कहा जाता है । प्रत्येक शक की कालावधि निर्धारित की गई है तथा जीवों और वनस्पतियों के विकास पर भी प्रकाश डाला गया है ।
#पृथ्वी_के_भूगर्भिक_इतिहास_से_सम्बंधित_प्रमुख_तथ्य:
1. #आद्य_कल्प (Pre-Paleozoic Era):
इसे आर्कियन व प्री-कैम्ब्रियन दो भागों में बाँटा गया है:
i. #आर्कियन_काल (Archean Era):
इस काल के शैलों में जीवाश्मों का पूर्णतः अभाव है । इसलिए इसे प्राग्जैविक (Azoic) काल भी कहते हैं । इन चट्टानों में ग्रेनाइट और नीस की प्रधानता है, जिनमें सोना और लोहा पाया जाता है । इसी काल में कनाडियन व फेनोस्केंडिया शील्ड निर्मित हुए हैं ।
ii. #प्री_कैम्ब्रियन_काल (Pre-Cambrian Period):
इस काल में रीढ़विहीन जीव का प्रादुर्भाव हो गया था । इस काल में गर्म सागरों में मुख्यतः नर्म त्वचा वाले रीढ़विहीन जीव थे । यद्यपि समुद्रों में रीढ़युक्त जीवों का भी प्रादुर्भाव हो गया, परंतु स्थलभाग जीवरहित था । भारत में प्री-कैम्ब्रियन काल में ही अरावली पर्वत व धारवाड़ क्रम की चट्टानों का निर्माण हुआ ।
2. #पुराजीवी_महाकल्प (Paleozoic Era):
इसे प्राथमिक युग भी कहा जाता है ।
इसके निम्न उपभाग हैं:
i. #कैम्ब्रियन_काल (Cambrian Period):
इस काल में प्रथम बार स्थल भागों पर समुद्रों का अतिक्रमण हुआ । प्राचीनतम अवसादी शैलों (Sedimentary Rocks) का निर्माण कैम्ब्रियन काल में ही हुआ था । भारत में विंध्याचल पर्वतमाला का निर्माण इसी काल में हुआ था ।
पृथ्वी पर इसी काल में सर्वप्रथम वनस्पति एवं जीवों की उत्पत्ति हुई । ये जीव बिना रीढ़ की हड्डी वाले थे । इसी समय समुद्रों में घास की उत्पत्ति हुई ।
ii. #आर्डोविसियन_काल (Ordovician Period):
इस काल में समुद्र के विस्तार ने उत्तरी अमेरिका का आधा भाग डुबो दिया, जबकि पूर्वी अमेरिका टैकोनियन पर्वत निर्माणकारी गतिविधियों से प्रभावित हुआ । इस काल में वनस्पतियों का विस्तार हुआ तथा समुद्र में रेंगने वाले जीव भी उत्पन्न हुए । स्थल भाग अभी भी जीवविहीन था ।
iii. #सिल्यूरियन_काल (Silurian Period):
इस काल में सभी महाद्वीप पृथ्वी की कैलीडोनियन हलचल से प्रभावित हुए तथा इस काल में रीढ़ वाले जीवों का सर्वप्रथम आविर्भाव हुआ एवं समुद्रों में मछलियों की उत्पत्ति हुई । सिल्यूरियन काल में रीढ़ वाले जीवों का विस्तार मिलता है, इसलिए इसे ‘रीढ़ वाले जीवों का काल’ (Age of Vertebrates) कहते हैं ।
इस काल में प्रवाल जीवों का विस्तार मिलता है । स्थल पर पहली बार पौधों का उद्भव इसी समय हुआ । ये पौधे पत्ती विहीन थे तथा आस्ट्रेलिया में उत्पन्न हुए थे । यह काल व्यापक कैलिडोनियन पर्वतीय हलचलों का काल भी है । इसी समय स्कैंडिनेविया व स्कॉटलैंड के पर्वतों का निर्माण हुआ ।
iv. #डिवोनियन_काल (Devonian Period):
इस काल में कैलीडोनियन हलचल के परिणामस्वरूप सभी महाद्वीपों पर ऊँची पर्वत शृंखलाएँ विकसित हुई, जिसके प्रमाण स्कैंडिनेविया, दक्षिण-पश्चिम स्कॉटलैण्ड, उत्तरी आयरलैण्ड एवं पूर्वी अमेरिका में देखे जा सकते हैं । इस काल में पृथ्वी की जलवायु समुद्री जीवों विशेषकर मछलियों के सर्वाधिक अनुकूल थी । इसी समय शार्क मछली का भी आविर्भाव हुआ ।
अतः इसे ‘मत्स्य युग’ (Fish Age) के रूप में जाना जाता है । इसी समय उभयचर जीवों (Amphibians) की उत्पत्ति हुई तथा फर्न वनस्पतियों की भी उत्पत्ति हुई । पौधों की ऊँचाई 40 फीट तक पहुँच गई थी । इस समय कैलिडोनियन पर्वतीकरण भी बड़े पैमाने पर हुआ तथा ज्वालामुखी क्रियाएँ भी सक्रिय हुईं ।
v. #कार्बोनीफेरस_काल (Carboniferous Period):
इस काल में कैलीडोनियन हलचलों का स्थान आर्मेरिकन हलचलों ने ले लिया, जिससे ब्रिटेन एवं फ्रांस सर्वाधिक प्रभावित हुए तथा इस युग में उभयचरों का विकास व विस्तार बढ़ता गया । रेंगने वाले जीव (Raptiles) का भी स्थल पर आविर्भाव हुआ।
इस काल में 100 फीट ऊँचे पेड़ भी उत्पन्न हुए । यह ‘बड़े वृक्षों (ग्लोसोप्टिरस वनस्पतियों) का काल’ कहलाता है । इस समय बने भ्रंशों में पेड़ों के दब जाने से गोंडवाना क्रम के चट्टानों का निर्माण हुआ, जिसमें कोयले के व्यापक निक्षेप मिलते हैं ।
vi. #पर्मियन_काल (Permian Age):
इस काल में वैरीसन हलचल हुई, जिसने मुख्य रूप से यूरोप को प्रभावित किया । जलवायु धीरे-धीरे शुष्क होने लगी तथा इस समय वैरीसन हलचल के फलस्वरूप भ्रंशों के निर्माण के कारण ब्लैक फॉरेस्ट व वास्जेज जैसे भ्रंशोत्थ पर्वतों का निर्माण हुआ ।
स्पेनिश मेसेटा, अल्ताई, तिएनशान, अप्लेशियन जैसे पर्वत भी इसी काल में निर्मित हुए । इस समय स्थल पर जीवों व वनस्पतियों की अनेक प्रजातियों का विकास देखा गया । भ्रंशन के कारण उत्पन्न आंतरिक झीलों के वाष्पीकरण से पृथ्वी पर पोटाश भंडारों का निर्माण हुआ ।
3. #मध्यजीवी_महाकल्प (Mesozoic Era):
इसे द्वितीयक युग भी कहा जाता है ।
इसे ट्रियासिक, जुरैसिक व क्रिटेशियस कालों में बाँटा गया है:
i. #ट्रियासिक_काल (Triassic Period):
इस काल में स्थल पर बड़े-बड़े रेंगने वाले जीव का विकास हुआ । इसीलिए इसे ‘रेंगने वाले जीवों का काल’ (Age of Reptiles) कहा जाता है । यह काल आर्कियोप्टेरिक्स की उत्पत्ति का काल था । ये स्थल एवं आकाश दोनों में चल सकते थे ।
इस समय तीव्र गति से तैरने वाले लॉबस्टर (केकड़ा समूह का प्राणी) का उद्भव भी हुआ । स्तनधारी भी उत्पन्न होने लगे थे । मांसाहारी मत्स्यतुल्य रेप्टाइल्स सागरों में उत्पन्न हुए । रेप्टाइल्स में भी स्तनधारियों की उत्पत्ति हो गई थी ।
ii. #जुरैसिक_काल (Jurassic Period):
इस काल में मगरमच्छ के समान मुख और मछली के समान धड़ वाले जीव, डायनासोर रेप्टाइल्स का विस्तार हुआ एवं लॉबस्टर प्राणी बढ़ते चले गए तथा इस काल में जलचर, स्थलचर व नभचर तीनों का आविर्भाव हो गया था । जूरा पर्वत का सम्बंध इसी काल से जोड़ा जाता है । पुष्पयुक्त वनस्पतियाँ इसी काल में आई थीं ।
iii. #क्रिटेशियस_काल (Cretaceous Period):
इस काल में एंजियोस्पर्म (आवृत्तबीजी) पौधों का विकास प्रारंभ हुआ । बड़े-बड़े कछुओं का उद्भव भी इस काल में देखा गया । मैग्नेलिया व पोपनार जैसे शीतोष्ण पतझड़ वन के वृक्ष विकसित हुए । उत्तरी-पश्चिमी अलास्का, कनाडा, मैक्सिको, ब्रिटेन के डोबर क्षेत्र व आस्ट्रेलिया आदि में खड़िया मिट्टी का जमाव हुआ ।
पर्वतीकरण अत्यधिक सक्रिय था । रॉकी व एंडीज की उत्पत्ति आरंभ हो गई । भारत के पठारी भाग में क्रिटेशियस काल में ही ज्वालामुखी लावा का दरारी उद्भेदन हुआ, जिससे ‘दक्कन ट्रैप’ व काली मिट्टी का निर्माण हुआ है ।
4. #नवजीवी_महाकल्प (Cenozoic Era):
इस कल्प को तृतीयक या ‘टर्शियरी युग’ भी कहा जाता है । इसे पैल्योसीन, इओसीन, ओलीगोसीन, मायोसीन व प्लायोसीन कालों में बाँटा गया है । इसी कल्प के विभिन्न कालों में अल्पाइन पर्वतीकरण हुए तथा विश्व के सभी नवीन मोड़दार पर्वतों आल्प्स, हिमालय, रॉकी, एंडीज आदि की उत्पत्ति हुई ।
i. #पैल्योसीन_काल (Paleocene Period):
इस युग के दौरान हुई लैरामाइड हलचल के फलस्वरूप उत्तरी अमेरिका में रॉकी पर्वतमाला का निर्माण हुआ तथा स्थल पर स्तनपाइयों का विस्तार हुआ । इसी कल्प में सर्वप्रथम स्तनपाई (Mammalians) जीवों व पुच्छहीन बंदरों (Ape) का आविर्भाव हुआ ।
ii. #इओसीन_काल (Eocene Period):
इस युग में भूतल पर विभिन्न दरारों के माध्यम से ज्वालामुखी का उद्गार हुआ तथा स्थल पर रेंगने वाले जीव प्रायः विलुप्त हो गए । प्राचीन बंदर व गिब्बन म्यांमार में उत्पन्न हुए । हाथी, घोड़ा, रेनोसेरस (गैंडा), सूअर के पूर्वजों का आविर्भाव हुआ ।
iii. #ओलीगोसीन_काल (Oligocene Period):
इस काल में ‘अल्पाइन पर्वतीकरण’ प्रारंभ हुआ एवं इसी काल में बिल्ली, कुत्ता, भालू आदि की उत्पत्ति हुई । इसी काल में पुच्छहीन बंदर का आविर्भाव हुआ, जिसे मानव का पूर्वज कहा जा सकता है । ‘वृहत् हिमालय’ की उत्पत्ति का मुख्यकाल यही है ।
iv. #मायोसीन_काल (Miocene Period):
इस काल में अल्पाइन पर्वत निर्माणकारी गतिविधियों द्वारा सम्पूर्ण यूरोप एवं एशिया में वलनों का विकास हुआ, जिनके विस्तार की दिशा पूर्व-पश्चिम था ।
इस काल में बड़े आकार के (60 फीट) शार्क मछली, प्रोकानसल (पुच्छहीन बंदर), जल पक्षी (हंस, बत्तख) पेंग्विन आदि उत्पन्न हुए । हाथी का भी विकास इसी काल में हुआ । मध्य या लघु हिमालय की उत्पत्ति का मुख्य काल यही है ।
v. #प्लायोसीन_काल:
इस काल में समुद्रों के निरन्तर अवसादीकरण से यूरोप, मेसोपोटामिया, उत्तरी भारत, सिन्ध एवं उत्तरी अमेरिका में विस्तृत मैदानों का विकास हुआ तथा इस काल में बड़े स्तनपाई प्राणियों की संख्या में कमी आई । शार्क का विनाश हो गया, मानव के पूर्वज का विकास हुआ तथाआधुनिक स्तनपाइयों का आविर्भाव हुआ ।
शिवालिक की उत्पत्ति इसी काल में हुई । हिमालय पर्वतमाला एवं दक्षिण के प्रायद्वीपीय भाग के बीच स्थित जलपूर्ण द्रोणी टेथिस भू-सन्नति में अवसादों के जमाव से उत्तरी विशाल मैदान का आविर्भाव इसी काल में होने लगा था ।
5. #नूतन_महाकल्प (Neozoic Era):
इसे चतुर्थक युग भी कहा जाता है ।
प्लीस्टोसीन व होलोसीन इसके दो उपभाग हैं:
i. #प्लीस्टोसीन_काल (Pleistocene Period):
इस युग में तापमान का स्तर नीचे आ गया, जिसके कारण यूरोप ने क्रमशः चार हिमयुग देखा । जो इस प्रकार हैं- गुंज (Gunz), मिन्डेल (Mindel), रिस (Riss) एवं वुर्म (Wurm) । विभिन्न हिमकालों के बीच में अंतर्हिम काल (Inter Glacial Age) देखे गए जो तुलनात्मक रूप से उष्णकाल था । मिन्हेल व रिस के बीच का अंतर्हिम काल सर्वाधिक लम्बी अवधि का था ।
उत्तरी अमेरिका में इस समय नेब्रास्कन, कन्सान, इलीनोइन या आयोवा व विंस्कासिन हिमकाल देखे गए । नेब्रास्कन व कन्सान के बीच अफ्टोनियन, कन्सान व इलीनोइन के बीच यारमाउथ, इलीनोइन व विंस्कासिन के बीच संगमन अंतर्हिम काल था ।
इस युग के अंत में हिम चादर पिघलते चले गए एवं स्कैंडिनेवियन क्षेत्र की ऊँचाई में निरंतर वृद्धि हुई । पृथ्वी पर उड़ने वाले ‘पक्षियों का आविर्भाव’ प्लीस्टोसीन काल में ही माना जाता है । मानव तथा अन्य स्तनपाई जीव वर्तमान स्वरूप में इसी काल में विकसित हुए ।
ii. #होलोसीन_या_अभिनव_काल (Holocene or Innovative Period):
इस काल में तापमान वृद्धि के कारण प्लीस्टोसीन काल के हिम की समाप्ति हो गई तथा विश्व की वर्तमान दशा प्राप्त हुई जो अभी भी जारी है । इसी समय सागरीय जीव वर्तमान अवस्था को प्राप्त हुए । स्थल पर मनुष्य ने कृषि कार्य तथा पशुपालन प्रारंभ कर दिया ।
2
#विश्व_का_भूगोल :
#पृथ्वी_की_गतियां
पृथ्वी की गति दो प्रकार की है
▪️घूर्णन अथवा दैनिक गति – पृथ्वी का अपने अक्ष पर घूमना घूर्णन कहलाता है।
▪️परिक्रमण अथवा वार्षिक गति– सूर्य के चारों ओर एक स्थिर कक्ष में पृथ्वी की गति को परिक्रमण कहते हैं।
#घूर्णन_अथवा_दैनिक_गति:
पृथ्वी सदैव अपने अक्ष पर पश्चिम से पूर्व लट्टू की भांति घूमती रहती है, जिसे ‘पृथ्वी का घूर्णन या परिभ्रमण’ कहते हैं । इसके कारण दिन व रात होते हैं । अतः इस गति को ‘दैनिक गति’ भी कहते हैं ।
i. #नक्षत्र_दिवस :
एक मध्याह्न रेखा के ऊपर किसी निश्चित नक्षत्र के उत्तरोत्तर दो बार गुजरने के बीच की अवधि को नक्षत्र दिवस कहते हैं । यह 23 घंटे व 56 मिनट अवधि की होती है ।
ii. #सौर_दिवस :
जब सूर्य को गतिहीन मानकर पृथ्वी द्वारा उसके परिक्रमण की गणना दिवसों के रूप में की जाती है तब सौर दिवस ज्ञात होता है । इसकी अवधि पूरे 24 घंटे की होती है ।
#परिक्रमण_अथवा_वार्षिक_गति:
पृथ्वी अपने अक्ष पर घूमने के साथ-साथ सूर्य के चारों ओर एक अंडाकार मार्ग (Geoid) पर 365 दिन तथा 6 घंटे में एक चक्कर पूरा करती है । पृथ्वी के इस अंडाकार मार्ग को ‘भू-कक्षा’ (Earth Orbit) कहते हैं । पृथ्वी की इस गति को परिक्रमण या वार्षिक गति कहते हैं ।
i. #उपसौर :
पृथ्वी जब सूर्य के अत्यधिक पास होती है तो इसे उपसौर कहते हैं । ऐसी स्थिति 3 जनवरी को होती है ।
ii. #अपसौर :
पृथ्वी जब सूर्य से अधिकतम दूरी पर होती है तो इसे अपसौर कहते हैं । ऐसी स्थिति 4 जुलाई को होती है ।
#दिन_रात_का_छोटा_व_बड़ा_होना:
यदि पृथ्वी अपनी धुरी पर झुकी हुई न होती तो सर्वत्र दिन-रात बराबर होते । इसी प्रकार यदि पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा न करती तो एक गोलार्द्ध में दिन सदा ही बड़े और रातें छोटी रहती जबकि दूसरे गोलार्द्ध में रातें बड़ी और दिन छोटे होते । परंतु विषुवतरेखीय भाग को छोड़कर विश्व के अन्य सभी भागों में विभिन्न ऋतुओं में दिन-रात की लम्बाई में अंतर पाया जाता है ।
विषुवत रेखा पर सदैव दिन-रात बराबर होते हैं, क्योंकि इसे प्रकाश वृत्त हमेशा दो बराबर भागों में बाँटता है । अतः विषुवत रेखा का आधा भाग प्रत्येक स्थिति में प्रकाश प्राप्त करता है ।
#पृथ्वी_पर_दिन_और_रात_की_स्थिति :
21 मार्च से 23 सितम्बर की अवधि में उत्तरी गोलार्द्ध सूर्य का प्रकाश 12 घंटे या अधिक समय तक प्राप्त करता है । अतः यहाँ दिन बड़े एवं रातें छोटी होती हैं । जैसे-जैसे उत्तरी ध्रुव की ओर बढ़ते जाते हैं, दिन की अवधि भी बढ़ती जाती है ।
उत्तरी ध्रुव पर तो दिन की अवधि छः महीने की होती है । 23 सितम्बर से 21 मार्च तक सूर्य का प्रकाश दक्षिणी गोलार्द्ध में 12 घंटे या अधिक समय तक प्राप्त होता है ।
जैसे-जैसे दक्षिणी ध्रुव की ओर बढ़ते हैं, दिन की अवधि भी बढ़ती है । दक्षिणी ध्रुव पर इसी कारण छः महीने तक दिन रहता है । इस प्रकार उत्तरी ध्रुव एवं दक्षिणी ध्रुव दोनों पर ही छः महीने तक दिन व छः महीने तक रात रहती है ।
#ऋतु_परिवर्तन :
चूंकि पृथ्वी न सिर्फ अपने अक्ष पर घूमती है वरन् सूर्य की परिक्रमा भी करती है । अतः पृथ्वी की सूर्य से सापेक्ष स्थितियाँ बदलती रहती हैं ।
पृथ्वी के परिक्रमण में चार मुख्य अवस्थाएँ आती हैं तथा इन अवस्थाओं में ऋतु परिवर्तन होते हैं:
i. #21_जून_की_स्थिति :
इस समय सूर्य कर्क रेखा पर लम्बवत् चमकता है । इस स्थिति को ग्रीष्म अयनांत (Summer Solistice) कहते हैं । वस्तुतः 21 मार्च के बाद सूर्य उत्तरायण होने लगता है तथा उत्तरी गोलार्द्ध में दिन की अवधि बढ़ने लगती है, जिससे वहाँ ग्रीष्म ऋतु का आगमन होता है ।
21 जून को उत्तरी गोलार्द्ध में दिन की लम्बाई सबसे अधिक रहती है । दक्षिणी गोलार्द्ध में इस समय शीत ऋतु होती है । 21 जून के पश्चात् 23 सितम्बर तक सूर्य पुनः विषुवत रेखा की ओर उन्मुख होता है । परिणामस्वरूप धीरे-धीरे उत्तरी गोलार्द्ध में गर्मी कम होने लगती है ।
ii. #22_दिसम्बर_की_स्थिति :
इस समय सूर्य मकर रेखा पर लम्बवत् चमकता है । इस स्थिति को शीत अयनांत (Winter Solistice) कहते हैं । इस समय दक्षिणी गोलार्द्ध में दिन की अवधि लम्बी व रात छोटी होती हैं ।
वस्तुतः सूर्य के दक्षिणायन होने अर्थात् दक्षिणी गोलार्द्ध में उन्मुख होने की प्रक्रिया 23 सितम्बर के बाद प्रारंभ हो जाती है, जिससे दक्षिणी गोलार्द्ध में दिन बड़े व रातें छोटी होने लगती हैं ।
इस समय उत्तरी गोलार्द्ध में ठीक विपरीत स्थिति देखी जाती है । 22 दिसम्बर के उपरान्त 21 मार्च तक सूर्य पुनः विषुवत रेखा की ओर उन्मुख होता है तथा दक्षिणी गोलार्द्ध में धीरे-धीरे ग्रीष्म ऋतु की समाप्ति हो जाती है ।
iii. #21_मार्च_व_23_सितम्बर_की_स्थितियाँ :
इन दोनों स्थितियों में सूर्य विषुवत रेखा पर लम्बवत चमकता है । अतः इस समय समस्त अक्षांश रेखाओं का आधा भाग सूर्य का प्रकाश प्राप्त करता है । अतः सर्वत्र दिन व रात की अवधि बराबर होती है ।
इस समय दिन व रात की अवधि के बराबर रहने एवं ऋतु की समानता के कारण इन दोनों स्थितियों को ‘विषुव’ अथवा ‘सम रात-दिन’ (Equinox) कहा जाता है । 21 मार्च की स्थिति को ‘बसंत विषुव’ (Spring Equinox) एवं 23 सितम्बर वाली स्थिति को ‘शरद विषुव’ (Autumn Equinox) कहा जाता है ।
#ज्वार_भाटा :
सूर्य व चन्द्रमा की आकर्षण शक्तियों के कारण सागरीय जल के ऊपर उठने तथा गिरने को ‘ज्वार भाटा’ कहा जाता है । इससे उत्पन्न तरंगों को ज्वारीय तरंग कहते हैं । विभिन्न स्थानों पर ज्वार-भाटा की ऊँचाई में पर्याप्त भिन्नता होती है, जो सागर में जल की गहराई, सागरीय तट की रूपरेखा तथा सागर के खुले होने या बंद होने पर आधारित होती है ।
यद्यपि सूर्य चन्द्रमा से बहुत बड़ा है, तथापि सूर्य की अपेक्षा चन्द्रमा की आकर्षण शक्ति का प्रभाव दोगुना है । इसका कारण सूर्य का चन्द्रमा की तुलना में पृथ्वी से दूर होना है ।
24 घंटे में प्रत्येक स्थान पर दो बार ज्वार भाटा आता है । जब सूर्य, पृथ्वी तथा चन्द्रमा एक सीधी रेखा में होते हैं तो इस समय उनकी सम्मिलित शक्ति के परिणामस्वरूप दीर्घ ज्वार का अनुभव किया जाता है । यह स्थिति सिजिगी (Syzygy) कहलाती है । ऐसा पूर्णमासी व अमावस्या को होता है ।
इसके विपरीत जब सूर्य, पृथ्वी व चन्द्रमा मिलकर समकोण बनाते हैं तो चन्द्रमा व सूर्य का आकर्षण बल एक दूसरे के विपरीत कार्य करते हैं । फलस्वरूप निम्न ज्वार का अनुभव किया जाता है । ऐसी स्थिति कृष्ण पक्ष एवं शुक्ल पक्ष के सप्तमी या अष्टमी को देखा जाता है । लघु ज्वार सामान्य ज्वार से 20% नीचा व दीर्घ ज्वार सामान्य ज्वार से 20% ऊँचा होता है ।
पृथ्वी पर चन्द्रमा के सम्मुख स्थित भाग पर चन्द्रमा की आकर्षण शक्ति के कारण ज्वार आता है, किन्तु इसी समय पृथ्वी पर चन्द्राविमुखी भाग पर ज्वार आता है । इसका कारण पृथ्वी के घूर्णन को संतुलित करने के लिए अपकेन्द्री बल (Centrifugal Force) का शक्तिशाली होना है ।
उपरोक्त बलों के प्रभाव के कारण प्रत्येक स्थान पर 12 घंटे के बाद ज्वार आना चाहिए किन्तु यह प्रति दिन लगभग 26 मिनट की देरी से आता है । इसका कारण चन्द्रमा का पृथ्वी के सापेक्ष गतिशील होना है ।
कनाडा के न्यू ब्रंसविक तथा नोवा स्कोशिया के मध्य स्थित फंडी की खाड़ी में ज्वार की ऊँचाई सर्वाधिक (15 से 18 मी.) होती है, जबकि भारत के ओखा तट पर मात्र 2.7 मी. होती है ।
इंग्लैंड के दक्षिणी तट पर स्थित साउथैम्पटन में प्रतिदिन चार बार ज्वार आते हैं । ऐसा इसलिए होता है क्योंकि ये दो बार इंग्लिश चैनल होकर एवं दो बार उत्तरी सागर से होकर विभिन्न अंतरालों पर वहाँ पहुँचते हैं ।
नदियों को बड़े जलयानों के लिए नौ संचालन योग्य बनाने में ज्वार सहायक होतेहैं । टेम्स और हुगली नदियों में प्रवेश करने वाले ज्वारीय धाराओं के कारण ही क्रमशः लंदन व कोलकाता महत्वपूर्ण पत्तन बन सके हैं । नदियों द्वारा लाए गए अवसाद भाटा के साथ बहकर समुद्र में चले जाते हैं तथा इस प्रकार डेल्टा निर्माण की प्रक्रिया में बाधा पहुँचती है ।
जल विद्युत के उत्पादन हेतु भी ज्वारीय ऊर्जा का प्रयोग किया जाता है । फ्रांस व जापान में ज्वारीय ऊर्जा पर आधारित कुछ विद्युत केन्द्र विकसित किए गए हैं । भारत में खंभात की खाड़ी व कच्छ की खाड़ी में इसके विकास की अच्छी संभावना है ।
#ज्वार_भाटा_के_उत्पत्ति_की_संकल्पनाएँ :
i. न्यूटन का गुरूत्वाकर्षण बल सिद्धान्त (1687 ई.)
ii. लाप्लास का गतिक सिद्धान्त (1755 ई.)
iii. ह्वैवेल का प्रगामी तरंग सिद्धांत (1833 ई.)
iv. एयरी का नहर सिद्धांत (1842 ई.)
v. हैरिस का स्थैतिक तरंग सिद्धान्त
#सूर्यग्रहण_और_चन्द्रग्रहण :
पृथ्वी और चन्द्रमा दोनों को प्रकाश सूर्य से मिलता है । पृथ्वी पर से चन्द्रमा का एक भाग ही दिखता है, क्योंकि पृथ्वी और चन्द्रमा की घूर्णन गति समान है । पृथ्वी पर चन्द्रमा का सम्पूर्ण प्रकाशित भाग महीने में केवल एक बार अर्थात् पूर्णिमा (Full Moon) को दिखाई देता है ।
इसी प्रकार महीने में एक बार चन्द्रमा का सम्पूर्ण अप्रकाशित भाग पृथ्वी के सामने होता है तथा तब चन्द्रमा दिखाई नहीं देता; इसे अमावस्या (New Moon) कहते हैं ।
जब सूर्य, पृथ्वी और चन्द्रमा एक सरल रेखा में होते हैं तो इस स्थिति को युति-वियुति (Conjuction) या सिजिगी (Syzygy) कहते हैं, जिसमें युति सूर्यग्रहण की स्थिति में व वियुति (Opposition) चन्द्रग्रहण की स्थिति में बनते हैं ।
जब पृथ्वी, सूर्य और चन्द्रमा के बीच आ जाता है तो सूर्य की रोशनी चन्द्रमा तक नहीं पहुँच पाती तथा पृथ्वी की छाया के कारण उस पर अंधेरा छा जाता है । इस स्थिति को चन्द्रग्रहण (Lunar Eclipse) कहते हैं । चन्द्रग्रहण हमेशा पूर्णिमा की रात को होता है ।
सूर्यग्रहण की स्थिति तब बनती है, जब सूर्य एवं पृथ्वी के बीच चन्द्रमा आ जाए तथा पृथ्वी पर सूर्य का प्रकाश न पड़कर चन्द्रमा की परछाईं पड़े । सूर्यग्रहण (Solar Eclipse) हमेशा अमावस्या को होता है । प्रत्येक अमावस्या को सूर्यग्रहण एवं प्रत्येक पूर्णिमा को चन्द्रग्रहण लगना चाहिए, परंतु ऐसा नहीं होता क्योंकि चन्द्रमा अपने अक्ष पर 50 झुकाव लिए हुए है ।
जब चन्द्रमा और पृथ्वी एक ही बिंदु पर परिक्रमण पथ में पहुँचती हैं तो उस समय चन्द्रमा अपने अक्षीय झुकाव के कारण थोड़ा आगे निकल जाता है ।
इसी कारण प्रत्येक पूर्णिमा और अमावस्या की स्थिति में ग्रहण नहीं लगता एक वर्ष में अधिकतम सात चन्द्रग्रहण एवं सूर्यग्रहण की स्थिति हो सकती है पूर्ण सूर्यग्रहण देखे जाते हैं, परंतु पूर्ण चन्द्र ग्रहण प्रायः नहीं देखा जाता, क्योंकि सूर्य, चन्द्रमा एवं पृथ्वी के आकार में पर्याप्त अंतर है ।
22 जुलाई, 2009 को 21वीं सदी का सबसे लंबा पूर्ण सूर्यग्रहण देखा गया । सूर्यग्रहण के समय बड़ी मात्रा में पराबैंगनी (Ultra Violet) किरणें उत्सर्जित होती हैं इसीलिए नंगी आँखों से सूर्य ग्रहण देखने से मना किया जाता है । पूर्ण सूर्यग्रहण के समय सूर्य के परिधीय क्षेत्रों में हीरक वलय (Diamond Ring) की स्थिति बनती है ।
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#विश्व_का_भूगोल :
#अक्षांश_और_देशांतर_रेखाएं
पृथ्वी में किसी स्थान की भौगोलिक स्थिति का निर्धारण अक्षांश (latitude) और देशांतर (Longitude) रेखाओं द्वारा किया जाता है।
किसी स्थान का अक्षांश (latitude), धरातल पर उस स्थान की “उत्तर से दक्षिण” की स्थिति को तथा किसी स्थान का देशांतर (Longitude), धरातल पर उस स्थान की “पूर्व से पश्चिम” की स्थिति को प्रदर्शित करता है। उत्तरी ध्रुवों (North Pole) व दक्षिणी ध्रुवों (South Pole) के अक्षांश (latitude) क्रमशः 90° उत्तर तथा 90° दक्षिण है।
नोट : किसी भी स्थान के देशांतर (Longitude) को प्रधान याम्योत्तर (Prime Mediterranean) के सापेक्ष अभिव्यक्त किया जाता है।
#अक्षांश_रेखाएँ (Latitude lines)
भूमध्य रेखा (Equator) के समानांतर से किसी भी स्थान की उत्तरी अथवा दक्षिणी ध्रुव की ओर की ओर खींची गई रेखाओं को अक्षांश (latitude) रेखा कहते है। भूमध्य रेखा (Equator) को (0°) की अक्षांश रेखा माना गया है। भूमध्य रेखा (Equator) से उत्तरी ध्रुव की ओर की सभी दूरियाँ उत्तरी अक्षांश और दक्षिणी ध्रुव की ओर की सभी दूरियाँ दक्षिणी अक्षांश में मापी जाती है। ध्रुवों की ओर बढ़ने पर भूमध्य रेखा (Equator) से अक्षांश (latitude) की दूरी बढ़ने लगती है। इसके अतिरिक्त सभी अक्षांश रेखाएँ (Latitude lines) परस्पर समानांतर और पूर्ण वृत्त होती हैं। ध्रुवों की ओर जाने से वृत्त छोटे होने लगते हैं। 90° का अक्षांश ध्रुव पर एक बिंदु में परिवर्तित हो जाता है।
#महत्वपूर्ण_वृत्त
▪️विषुवत् वृत्त (0°) (E)
▪️उत्तर ध्रुव (90°)
▪️दक्षिण ध्रुव (90°)
#महत्त्वपूर्ण_अक्षांश_रेखाएँ
▪️विषुवत् रेखा (0°) (Equator Line)
▪️उत्तरी गोलार्ध में कर्क रेखा (23.5°) (Cancer Line)
▪️दक्षिणी गोलार्ध में मकर रेखा (23.5°) (Capcorian line)
#पृथ्वी_के_ताप_कटिबंध
#उष्ण_कटिबंध – कर्क रेखा एवं मकर रेखा के बीच के सभी अक्षांशों पर सूर्य वर्ष में एक बार दोपहर में सिर के ठीक ऊपर होता है। इसलिए इस क्षेत्र में सबसे अधिक ऊष्मा प्राप्त होती है तथा इसे उष्ण कटिबंध कहा जाता है। कर्क रेखा तथा मकर रेखा के बाद किसी भी अक्षांश पर दोपहर का सूर्य कभी भी सिर के ऊपर नहीं होता है। ध्रुव की तरफ सूर्य की किरणें तिरछी होती जाती हैं।
#शीतोष्ण_कटिबंध – उत्तरी गोलार्ध में कर्क रेखा एवं उत्तर ध्रुव वृत्त तथा दक्षिणी गोलार्ध में मकर रेखा एवं दक्षिण ध्रुव वृत्त के बीच वाले क्षेत्र का तापमान मध्यम रहता है। इसलिए इन्हें, शीतोष्ण कटिबंध कहा जाता है।
#शीत_कटिबंध – उत्तरी गोलार्ध में उत्तर ध्रुव वृत्त एव उत्तरी ध्रुव तथा दक्षिणी गोलार्ध में दक्षिण ध्रुव वृत्त एव दक्षिणी ध्रुव के बीच के क्षेत्र में ठडं बहतु होती है। क्योंकि, यहाँ सूर्य क्षितिज से ज़्यादा ऊपर नहीं आ पाता है। इसलिए ये शीत कटिबंध कहलाते हैं।
#देशांतर_रेखाएँ (Longitudes lines)
उत्तरी ध्रुव से दक्षिणी ध्रुव को मिलाने वाली 360 डिग्री रेखाओं को देशांतर रेखाएं कहा जाता है, यह ग्लोब पर उत्तर से दक्षिण दोनों भूगोलीय ध्रुवों (उत्तरी ध्रुव से दक्षिणी ध्रुव ) के बीच खींची हुई काल्पनिक मध्याह्न रेखाओं को देशांतर रेखाएं कहा जाता है । जो मध्याह्न रेखा जिस बिंदु या स्थान से गुजरती है उसका कोणीय मान उस स्थान का देशांतर होता है। सभी देशांतर रेखाएं अर्ध-वृत्ताकार होती हैं। ये समांनांतर नहीं होती हैं व उत्तरी व दक्षिणी ध्रुवों पर अभिसरित होकर मिल जाती हैं।
ग्रीनविच , जहाँ ब्रिटिश राजकीय वेधशाला स्थित है, से गुजरने वाली याम्योत्तर से पूर्व और पश्चिम की ओर गिनती शुरू की जाए। इस याम्योत्तर को प्रमुख याम्योत्तर (Prime Mediterranean) कहते हैं। इसका मान 0° देशांतर है तथा यहाँ से हम 180° पूर्व या 180° पश्चिम तक गणना करते हैं। प्रधान याम्योत्तर (Prime Mediterranean) तथा 180° याम्योत्तर मिलकर पृथ्वी को दो समान भागों, पूर्वी गोलार्ध एवं पश्चिमी गोलार्ध में विभक्त करती है। इसलिए किसी स्थान के देशांतर के आगे पूर्व के लिए अक्षर पू. तथा पश्चिम के लिए अक्षर प. का उपयोग करते हैं। 180° पूर्व और 180° पश्चिम याम्योत्तर एक ही रेखा पर स्थित हैं।
#देशांतर_और_समय (Longitude & Time)
समय को मापने का सबसे अच्छा साधन पृथ्वी, चंद्रमा एवं ग्रहों की गति है। सूर्योदय एवं सूर्यास्त प्रतिदिन होता है। अतः स्वाभाविक ही है कि यह पूरे विश्व में समय निर्धारण का सबसे अच्छा साधन है। स्थानीय समय का अनुमान सूर्य के द्वारा बनने वाली परछाईं से लगाया जा सकता है, जो दोपहर में सबसे छोटी एवं सूर्योदय तथा सूर्यास्त केसमय सबसे लंबी होती है।
ग्रीनविच पर स्थित प्रमुख याम्योत्तर पर सूर्य जिस समय आकाश के सबसे ऊँचे बिंदु पर होगा, उस समय याम्योत्तर पर स्थित सभी स्थानों
पर दोपहर होगी। चूँकि, पृथ्वी पश्चिम से पूर्व की ओर चक्कर लगाती है, अतः वे स्थान जो ग्रीनविच के पूर्व में हैं, उनका समय ग्रीनविच समय से आगे होगा तथा जो पश्चिम में हैं, उनका समय पीछे होगा ।
भारत के मध्य भाग इलाहाबाद के मिर्जापुर के नैनी से होकर गुजरने वाली याम्योत्तर रेखा (82,1/2°) (Standard Mediterranean Line) के स्थानीय समय को देश का मानक समय माना जाता है।
पृथ्वी लगभग 24 घंटे में अपने अक्ष पर 360° घूम जाती है अर्थात् 1 घंटे में (360/24) 15° एवं 4 मिनट में 1° घूमती है। अर्थात डिग्री देशांतर दुरी तय करने में 4 Minute का समय लगता है
भारत में गुजरात के द्वारका तथा असम के डिब्रूगढ़ वेफ स्थानीय समय में लगभग 1 घंटा 45 मिनट का अंतर है।
भारत और ग्रीनविच (लंदन) के समय में 5:30 घंटे का अंतर है , इसलिए जब लंदन में दोपहर के 2 बजे होंगे, तब भारत में शाम के 7ः30 बजे होंगे।
कुछ देशों का देशांतरीय विस्तार अधिक होता है, जिसके कारण वहाँ एक से अधिक मानक समय अपनाए गए हैं। उदाहरण के लिए, रूस में 11 मानक समयों को अपनाया गया है।
विषुवत रेखा पर इसके बीच की दूरी अधिकतम 111.32 Km होती है।
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