Wednesday, February 24, 2021

आधुनिक_भारत_का_इतिहास : #1857_के_बाद_किसान_विद्रोह_व_आंदोलन

प्राचीन_भारत_का_इतिहास : #गुप्त_वंश_गुप्तकाल गुप्त साम्राज्य की नींव रखने वाला शासक श्री गुप्त था। श्री गुप्त ने ही 275 ई. में गुप्त वंश की स्थापना की थी। मौर्य काल के बाद गुप्त काल को भी भारतीय इतिहास का स्वर्णिम युग माना गया है। गुप्त वंश की जानकारी वायुपुराण से प्राप्त होती है। गुप्तकाल की राजकीय भाषा संस्कृत थी। ये भी माना जाता है कि दशमलव प्रणाली की शुरुआत भी गुप्तकाल में ही हुई थी। और मंदिरों का निर्माण कार्य भी गुप्तकाल में ही शुरू हुआ था। यह भी माना जाता है कि बाल विवाह की प्रथा सम्भवतः गुप्त काल से ही प्रारम्भ हुई थी। गुप्त कालीन स्वर्ण मुद्रा को दीनार कहा जाता था। गुप्त काल के सर्वाधिक सिक्के सोने के बनाये जाते थे। पंचतंत्र की रचना भी गुप्तकाल में ही हुई थी। गुप्त साम्राज्य में ब्राह्मणों को कर रहित कृषि भूमि दी जाती थी। जबकि अन्य लोगों को उनकी उपज का छठा भाग भूमि राजस्व के रूप में राजा को देना होता था। गुप्त राजवंश अपने साम्राज्यवाद के कारण प्रसिद्ध था। महान खगोल विज्ञानी और गणितज्ञ आर्यभट्ट और वराहमिहिर का सम्बन्ध गुप्त काल से ही था। वराहमिहिर ने ही खगोल विज्ञान के भारतीय महाग्रंथ ‘पञ्चसिद्धान्तिका‘ की रचना की थी। आयुर्विज्ञान सम्बन्धी रचना करने वाले रचनाकार सुश्रुत का सम्बन्ध भी गुप्त काल से ही था। #गुप्तवंश_का_उदय #श्रीगुप्त : श्रीगुप्त गुप्तवंश का प्रथम शासक और गुप्त वंश की स्थापना करने वाला शासक था। पूना से प्राप्त ताम्रपत्र में श्रीगुप्त को ‘आदिराज‘ नाम से सम्बोधित किया गया है। #घटोत्कच_गुप्त : श्रीगुप्त के बाद उसका पुत्र घटोत्कच गुप्त सिंहासन पर आसीन हुआ। कुछ अभिलेखों में घटोत्कच को गुप्त वंश का प्रथम राजा बताया गया है। #चन्द्रगुप्त_प्रथम : चन्द्रगुप्त घटोत्कच गुप्त का पुत्र था, जिसने घटोत्कच गुप्त के बाद सत्ता की बागडोर संभाली। चन्द्रगुप्त को महाराजाधिराज चन्द्रगुप्त के नाम से भी जाना जाता है, महाराजाधिराज एक उपाधि थी, जो चन्द्रगुप्त प्रथम को दी गयी थी। संभवतः यह उपाधि उसके महान कार्यों के कारण ही उसे दी गयी होगी। गुप्त वंश का प्रथम महान सम्राट चन्द्रगुप्त प्रथम को ही माना जाता है। गुप्त संवत शुरू करने का श्रेय चन्द्रगुप्त प्रथम को ही दिया जाता है। गुप्त काल में सर्वप्रथम सिक्कों का चलन भी चन्द्रगुप्त प्रथम ने ही किया था। #समुद्रगुप्त : चन्द्रगुप्त के पश्चात 350 ईसा पूर्व के आस-पास उसका पुत्र समुद्रगुप्त सिंहासन पर बैठा। समुद्रगुप्त ने एक विशाल साम्राज्य का निर्माण किया था जोकि पूर्व में बंगाल की खाड़ी से लेकर पश्चिम में स्थित पूर्वी मालवा तक तथा उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में विंध्य पर्वत तक फैला हुआ था। इलाहबाद शिलालेख के अनुसार समुद्रगुप्त एक महान कवि और संगीतकार था। समुद्र्गुप्त को उसकी राज्य प्रसार नीतियों के कारण ‘भारत का नेपोलियन‘ भी कहा गया है। #चन्द्रगुप्त_द्वितीय : गुप्त राजवंश का अगला शासक चन्द्रगुप्त द्वितीय था, जो समुद्रगुप्त का पुत्र था, जिसे विक्रमादित्य और देवगुप्त के नाम से भी जाना गया। विक्रमादित्य इसकी उपाधि थी। इसे ‘शक-विजेता‘ के नाम से भी पुकारा जाता है। चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य ने लगभग 40 वर्षों तक राज किया। विक्रमादित्य के शासन काल को भारतीय कला व साहित्य का स्वर्णिम युग कहा जाता है, साथ ही यह भारत के इतिहास का भी स्वर्णिम युग था। चन्द्रगुप्त द्वितीय का विशाल साम्राज्य उत्तर में हिमालय के तलहटी इलाकों से लेकर दक्षिण में नर्मदा नदी के तटों तक तथा पूर्व में बंगाल से लेकर पश्चिम में गुजरात तक फैला हुआ था। चन्द्रगुप्त द्वितीय की प्रथम राजधानी पाटलिपुत्र थी और द्वितीय राजधानी उज्जयिनी (उज्जैन) थी। प्रसिद्ध कवि कालिदास चन्द्रगुप्त द्वितीय का दरबारी था, जिसे दरबार में सम्मिलित नौरत्नों में प्रधान माना जाता था। जिनमें प्रसिद्ध चिकित्सक धन्वंतरि भी शामिल थे, जिन्हें आयुर्वेद के वैद्य ‘चिकित्सा का भगवान‘ मानते हैं। अन्य सात रत्न अमर सिंह, शंकु, क्षपणक (ज्योतिष), बेताल भट, वराहमिहिर, घटकर्पर और वररुचि थे। चीनी यात्री फह्यान या फाहियान चन्द्रगुप्त द्वितीय के शासन काल में ही भारत आया था। रजत (चाँदी) के सिक्के शुरू करने वाला प्रथम शासक चन्द्रगुप्त द्वितीय था, जिन्हें रूपक या रप्यक कहा जाता था। महरोली स्थित राजचन्द्र के लोहस्तम्भ को चन्द्रगुप्त द्वितीय ने बनवाया था। #कुमारगुप्त_प्रथम : चन्द्रगुप्त द्वितीय की मृत्यु के पश्चात उसका पुत्र कुमारगुप्त प्रथम सिंहासन पर आसीन हुआ। कुमारगुप्त प्रथम ने अश्वमेध यज्ञ करवाया था और महेन्द्रादित्य की उपाधि धारण की थी। कुमारगुप्त प्रथम के ही शासन काल में नालंदा विश्वविद्यालय की स्थापना की थी। कुमारगुप्त प्रथम ने अपने पिता चन्द्रगुप्त द्वितीय की ही भाँति राज्य को सुव्यवस्था और सुशासन से चलाया था और अपने पिता के दिये साम्राज्य को ज्यों का त्यों ही बनाये रखा था। #स्कंदगुप्त : कुमारगुप्त की मृत्यु के पश्चात उसका उत्तराधिकारी पुत्र स्कंदगुप्त राजसिहांसन पर विराजमान हुआ। उसे काफी लोक हितकारी सम्राट माना गया है। उसे क्रमादित्य और विक्रमादित्य आदि उपाधियाँ प्राप्त की थी। स्कंदगुप्त ने हूणों के आक्रमण से भी देश को बचाया था। स्कंदगुप्त के पश्चात कोई भी गुप्तवंश का राजा अपना प्रभुत्व इतना न बढ़ा सका जिसकी जानकारी इतिहास के पन्नों में दर्ज हो। जिस कारण स्कंदगुप्त के उत्तराधिकारियों की स्पष्ट जानकारी उपलब्ध नहीं है। गुप्त वंश का अंतिम शासक विष्णुगुप्त था। #गुप्त_वंश_के_पतन_का_कारण : गुप्तवंश के पतन का कारण पारिवारिक कलह और बार-बार होने वाले विदेशी आक्रमण माने जाते हैं। जिनमें हूणों द्वारा आक्रमण को मुख्य कारण माना जाता है। [01/12, 8:26 AM] Raj Kumar: #प्राचीन_भारत_का_इतिहास : #मौर्योत्तर_काल मौर्य साम्राज्य के पतन के साथ ही भारतीय इतिहास की राजनीतिक एकता कुछ समय के लिए विखंडित हो गई। अब ऐसा कोई राजवंश नहीं था जो हिंदुकुश से लेकर कर्नाटक एवं बंगाल तक आधिपत्य स्थापित कर सके। दक्षिण में स्थानीय शासक स्वतंत्र हो उठे। मगध का स्थान साकल, प्रतिष्ठान, विदिशा आदि कई नगरों ने ले लिया। #शुंग_वंश (184 ईसा पूर्व से 75 ईसा पूर्व तक) अन्तिम मौर्य शासक बृहद्रथ की हत्या कर पुष्यमित्र शुंग ने जिस नवीन राजवंश की नींव डाली, वह शुंग वंश के नाम से जाना जाता है। शुंग वंश के इतिहास के बारे में जानकारी साहित्यिक एवं पुरातात्विक दोनों साक्ष्यों से प्राप्त होती है, जिनका विवरण निम्नलिखित है- #साहित्यिक_स्रोत :- • पुराण (वायु और मत्स्य पुराण) – इससे पता चलता है कि शुगवंश का संस्थापक पुष्यमित्र शुंग था। • हर्षचरित – इसकी रचना बाणभट्ट ने की थी। इसमें अंतिम मौर्य शासक बृहद्रथ की चर्चा है। • पतंजलि का महाभाष्य – पतंजलि पुष्यमित्र शुंग के पुरोहित थे। इस ग्रंथ में यवनों के आक्रमण की चर्चा है। • गार्गी संहिता – इसमें भी यवन आक्रमण का उल्लेख मिलता है। • मालविकाग्निमित्र – यह कालिदास का नाटक है जिससे शुंगकालीन राजनीतिक गतिविधियों का ज्ञान प्राप्त होता है। • दिव्यावदान – इसमें पुष्यमित्र शुंग को अशोक के 84,000 स्तूपों को तोड़ने वाला बताया गया है। #पुरातात्विक_स्रोत : • अयोध्या अभिलेख – इस अभिलेख को पुष्यमित्र शुंग के उत्तराधिकारी धनदेव ने लिखवाया था। इसमें पुष्यमित्र शुंग द्वारा कराये गये दो अश्वमेध यज्ञ की चर्चा है। • बेसनगर का अभिलेख – यह यवन राजदूत हेलियोडोरस का है जो गरुड़-स्तंभ के ऊपर खुदा हुआ है। इससे भागवत धर्म की लोकप्रियता सूचित होती है। • भरहुत का लेख – इससे भी शुंगकाल के बारे में जानकारी प्राप्त होती है। उपर्युक्त साक्ष्यों के अतिरिक्त साँची, बेसनगर, बोधगया आदि स्थानों से प्राप्त स्तूप एवं स्मारक शुंगकालीन कला एवं स्थापत्य की विशिष्टता का ज्ञान कराते हैं। शुंगकाल की कुछ मुद्रायें-कौशाम्बी, अहिच्छत्र, अयोध्या तथा मथुरा से प्राप्त हुई हैं जिनसे तत्कालीन ऐतिहासिक जानकारी प्राप्त होती हैै। #पुष्यमित्र_शुंग : पुष्यमित्र मौर्य वंश के अन्तिम शासक बृहद्रथ का सेनापति था। इसके प्रारंभिक जीवन के बारे में जानकारी प्राप्त नहीं है। पुष्यमित्र शुंग ने दो अश्वमेध यज्ञ किये जिसे प्राचीन भारत में राजसत्ता का प्रतीक माना गया था। परवर्ती मौर्यों के कमजोर शासन में मगध का प्रशासन तंत्र शिथिल पड़ गया था तथा देश को आंतरिक एवं वाह्य संकटों का खतरा था। इसी समय पुष्यमित्र शुंग ने मगध साम्राज्य पर अपना अधिकार जमाकर न सिर्फ यवनों के आक्रमण से देश की रक्षा की बल्कि वैदिक धर्म के आदर्शों को, जो अशोक के शासन काल में उपेक्षित हो गये थे, पुनः प्रतिष्ठित किया। इसलिए पुष्यमित्र शुंग के काल को वैदिक पुनर्जागरण का काल भी कहा जाता है। बौद्ध रचनाओं से ज्ञात होता है कि पुष्यमित्र बौद्ध धर्म का उत्पीड़क था। पुष्यमित्र ने बौद्ध विहारों को नष्ट किया तथा बौद्ध भिक्षुओं की हत्या की थी। यद्यपि शुंगवशीय राजा ब्राह्मण धर्म के अनुयायी थे, तथापि उनके शासनकाल में भरहुत स्तूप का निर्माण और साँची स्तूप की वेदिकाएँ (रेलिंग) बनवाई गई। लगभग 36 वर्ष तक पुष्यमित्र शुंग ने राज्य किया। पुष्यमित्र की मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र अग्निमित्र शुंग वंश का राजा हुआ जो अपने पिता के शासनकाल में विदिशा का उपराजा था। पुराणों के अनुसार शुंगवंश का अंतिम शासक देवभूति था। #कण्व_वंश (75 ईसा पूर्व से 30 ईसापूर्व तक) शुंग वंश का अंतिम राजा देवभूति विलासी प्रवृत्ति का था। अपने शासन के अंतिम दिनों में अपने ही अमात्य वसुदेव के हाथों उसकी हत्या कर दी गई। इसकी जानकारी हर्षचरित से प्राप्त होती है। वसुदेव ने जिस नवीन वंश की स्थापना की वह कण्व वंश के नाम से जाना जाता है। इसमें केवल चार ही शासक हुए-वसुदेव, भूमिमित्र, नारायण और सुशर्मा। इन्होंने 300 ईसा पूर्व तक राज्य किया। 1. कण्व वंश के बाद मगध पर शासन करने वाले दो वंशों की जानकारी मिलती है। 2. पुराणों के अनुसार-आन्ध्रभितियों के शासन का उल्लेख है। 3. अन्य साक्ष्यों में-मित्रवंश का शासन। #चेदि_तथा_सातवाहन : प्रथम शताब्दी ईसा पूर्व में विन्घ्य पर्वत के दक्षिण में दो शक्तियों का उदय हुआ-कलिंग का चेदि तथा दक्कन का सातवाहन। #कलिंग_का_चेदि_या_महामेघवाहन_वंश : • इस वंश का सर्वाधिक शक्तिशाली शासक खारवेल हुआ जो इस वंश का तीसरा शासक था। • यह जैन धर्म का संरक्षक था। जैनियों के लिए उदयगिरि एवं खण्ड गिरि में पहाडि़यों का निर्माण करवाया। ख्गुफा-रानी व अनंतगुफा, • उदयगिरि पहाड़ी में स्थित हाथीगुंफा अभिलेख से खारवेल के बारे में विस्तार से जानकारी मिलती है एवं इसी अभिलेख से जनगणना का प्रथम साक्ष्य मिलता है। इसमें कलिंग की आबादी 35,000 बतायी गयी है। #आन्ध्र_सातवाहन_वंश : • सातवाहन वंश का शासन क्षेत्र मुख्यतः महाराष्ट्र, आंध्र और कर्नाटक था। पुराणों में इन्हें आंध्र भृत्य कहा गया है तथा अभिलेखों में सातवाहन कहा गया है। पुराणों में इस वंश का संस्थापक सिमुक (सिन्धुक) को माना गया है जिसने कण्व वंश के राजा सुशर्मा को मारकर सातवाहन वंश की नींव रखी। सातवाहन वंश से संबंधित जानकारी हमें अभिलेख, सिक्के तथा स्मारक तीनों से प्राप्त होते हैं। अभिलेखों में नागनिका का नानाघाट (महाराष्ट्र, पूना) अभिलेख, गौतमीपुत्र शातकर्णी के नासिक से प्राप्त दो गुहालेख गौतमी पुत्र बलश्री का नासिक गुहालेख, वशिष्ठीपुत्र पुलुमावी का नासिक गुहालेख, वसिष्ठीपुत्र पुलुमावी का कार्ले गुहालेख, यज्ञ श्री शातकर्णी का नासिक गुहालेख महत्वपूर्ण है। • उपर्युक्त लेखों के साथ-साथ विभिन्न स्थानों से सातवाहन राजाओं के बहुसंख्यक सिक्के भी मिले हैं। इससे राज्य विस्तार, धर्म तथा व्यापार-वाणिज्य की प्रगति के संबंध में विस्तृत जानकारी प्राप्त होती है। नासिक के जोगलथम्बी नामक स्थल से क्षहरात शासक नहपान के सिक्कों का ढेर मिलता है। इसमें अनेक सिक्के गौतमीपुत्र शातकर्णी द्वारा पुनः अंकित कराये गये हैं। इससे नहपान पर सातवाहन शासक के विजय की जानकारी मिलती है। यज्ञश्री शातकर्णी के एक सिक्के पर जलपोत के चिन्ह उत्कीर्ण हैं। इससे पता चलता है कि समुद्र के ऊपर उनका अधिकार था। सातवाहन सिक्के सीसा, ताँबा तथा पोटीन (ताँबा, जिंक, सीसा तथा टिन मिश्रित धातु) में ढलवाये गये थे। इन पर मुख्यतः अश्व, सिंह, वृष, गज, पर्वत, जहाज, चक्र, स्वास्तिक, कमल, त्रिरत्न, क्राॅस से जुड़े चार बाल (उज्जैन चिन्ह) आदि का अंकन मिलता है। • विदेशी विवरण से भी सातवाहन वंश पर प्रकाश पड़ता है। इनमें प्लिनी, टाॅलमी तथा पेरीप्लस आॅफ एरिथ्रियन सी क ेलेखक के विवरण महत्वपूर्ण है। पेरीप्लस के अज्ञात लेखक ने पश्चिमी भारत के बंदरगाहों का स्वंय निरीक्षण किया था तथा वहाँ के व्यापार-वाणिज्य के प्रत्यक्ष अनुभव के आधार पर जानकारी दी है। सातवाहन काल के अनेक चैत्य एवं विहार नासिक, भाजा, कार्ले आदि जगहों से प्राप्त हुए हैं। • अगला प्रमुख शासक शातकर्णी प्रथम था एवं इसने भी 18 वर्ष तक शासन किया। कालांतर में शकों की विजयों के फलस्वरूप सातवाहनों का अपने क्षेत्रों से अधिकार समाप्त हो गया। किन्तु, गौतमी पुत्र शातकर्णी ने सातवाहन वंश की प्रतिष्ठा पुनः स्थापित करने में सफलता प्राप्त की। गौतमी पुत्र शातकर्णी ने शकों, यवनों, पहलवों तथा क्षहरातों का नाशकर सातवाहन वंश की पुनः प्रतिष्ठा स्थापित की। शातकर्णी ने नहपान को हराकर उसके चाँदी के सिक्कों पर अपना नाम अंकित कराया। नासिक के जोगलथम्बी से प्राप्त सिक्कों के ढेर में चाँदी के बहुत से ऐसे सिक्के हैं जो नहपान ने चलाए थे और इस पर पुनः गौतमीपुत्र की मुद्रा अंकित है। • गौतमी पुत्र शातकर्णी के बाद उसका पुत्र वशिष्ठीपुत्र पुलुमावि राजगद्दी पर बैठा। उसके अभिलेख अमरावती, कार्ले और नासिक से मिले हैं। यज्ञश्री शातकर्णी सातवाहन वंश का अन्तिम शक्तिशाली राजा हुआ। इसकी मृत्यु के बाद सातवाहन साम्राज्य के विघटन की प्रक्रिया जारी हुई तथा यह अनेक छोटे-छोटे राज्यों में विभक्त हो गया। #विविध_तथ्य : • शातकर्णी प्रथम ने दो अश्वमेध तथा एक राजसूय यज्ञ का अनुष्ठान किया था। इसने गोदावरी तट पर स्थित प्रतिष्ठान को अपनी राजधानी बनायी। • सातवाहन शासक हाल स्वयं एक कवि तथा कवियों एवं विद्वानों का आश्रयदाता था। इसने ’गाथा सप्तशती’ नामक मुक्तक काव्य की रचना हाल ने प्राकृत भाषा में की। हाल की राजसभा में वृहत्कथा के रचयिता गुणाढ्य तथा ’कातंत्र’ नामक संस्कृत व्याकरण के लेखक शववर्मन निवास करते थे। • गौतमीपुत्र शातकर्णी ने वेणकटक स्वामी की उपाधि धारण की तथा वेणकटक नामक नगर की स्थापना की। • वशिष्ठी पुत्र पुलमावि ने अपने को प्रथम आंध्र सम्राट कहा। • गौतमीपुत्र शातकर्णी ने अपने वशिष्ठिपुत्र पुलमावि का विवाह रूद्रदामन की पुत्री से किया था। • पुलमावि को दक्षिणापथेश्वर कहा गया है। पुराणों में इसका नाम पुलोमा मिलता है। • ब्राह्मणों को भूमिदान या जागीर देने वाले प्रथम शासक सातवाहन ही थे, किन्तु उन्होंने अधिकतर भूमिदान बौद्ध भिक्षुओं को ही दिया। • भड़ौच सातवाहन काल का प्रमुख बंदरगाह एवं व्यापारिक केन्द्र था। • सातवाहन काल में व्यापार व्यवसाय में चाँदी एवं ताँबे के सिक्कों का प्रयोग होता था जिसे ’काषार्पण’ कहा जाता था। • सातवाहन काल में निर्मित दक्कन की सभी गुफाएँ बौद्ध धर्म से सम्बन्धित थीं। • सातवाहन राजाओं के नाम मातृप्रधान है लेकिन राजसिंहासन का उत्तराधिकारी पुत्र ही होता था। • सामंतवाद् का प्रथम लक्षण सातवाहन काल से ही दिखायी पड़ता है। • सातवाहनों की राजकीय भाषा प्राकृत तथा लिपि ब्राह्मी थी। • गौतमीपुत्र शातकर्णी ने स्वयं को कृष्ण, बलराम और संकर्षण का रूप स्वीकार किया। • गौतमीपुत्र शातकर्णी को ’वेदों का आश्रय’ दाता कहा गया है। #हिन्द_यवन_या_बैक्ट्रीयाई_आक्रमण : • मौर्यों के पतन के पश्चात् पश्मिोत्तर भारत में मौर्यों के स्थान पर मध्य एशिया से आयी कई वाह्यशक्तियों ने अपना साम्राज्य स्थापित किया। • मौर्योत्तर काल में भारत पर आक्रमण करने वालों में प्रथम सफल आक्रमण यूथीडेमस वंश के हिन्द-यवन (इंडो-ग्रीक) शासक ’डेमेट्रियस’ ने किया। उसने सिंध और पंजाब पर अपना आधिपत्य स्थापित किया। उसकी राजधानी ’साकल’ थी। साकल शिक्षा के प्रमुख केन्द्र के रूप में प्रसिद्ध था तथा इसकी तुलना पाटलिपुत्र से की जाती थी। हिन्द-यवन शासकों में सबसे प्रसिद्ध शासक मिनांडर था। वह डेªमेट्रियस का सेनापति था। उसकी राजधानी स्यालकोट या साकल थी। भारत में हिन्द-यवन शासकों ने लेखयुक्त सिक्के चलाये। महायान बौद्ध ग्रंथ मिलिन्दपन्हों में बौद्ध विद्वान नागसेन तथा मिनांडर के बीच दार्शनिक विवादों का उल्लेख है। मिनांडर ने बौद्ध धर्म को स्वीकार कर लिया था। • जिस समय डेमेट्रियस अपनी भारतीय विजयों में उलझा हुआ था, उसी वक्त यूक्रेटाइडीज नामक व्यक्ति ने बैक्ट्रिया में विद्रोह कर दिया। कालांतर में उसने भारत (सिंध प्रदेश) की भी विजय की और हिंद-यवन राज्य स्थापित किए। इस तरह पश्चिमोत्तर भारत में दो यवन-राज्य स्थापित हो गए-पहला, यूथीडेमस के वंशजों का तथा दूसरा यूक्रेटाइडीज के वंशजों का राज्य। यूक्रेटाइडीज वंश में दो शासक हुए-एंटिआल्किडस तथा हर्मियस इस वंश का अन्तिम हिन्द-यवन शासक था। उसके साथ ही पश्चिमोत्तर भारत से यवनों का शासन समाप्त हो गया। #शक_शासक : शक मूलतः मध्य एशिया की एक खानाबदोश तथा बर्बर जाति थी। लगभग 165 ईसा पूर्व में इन्हें मध्य एशिया से भगा दिया गया। वहाँ से हटाये जाने के कारण वे सिंध प्रदेश में आ गये। भारत में शक राजा अपने को क्षत्रप कहते थे। उनकी शक्ति का केन्द्र सिंध था। वहाँ से वे भारत के पंजाब, सौराष्ट्र आदि स्थानों पर फैल गये। इनकी पाँच शाखाएँ थी। कालांतर में शक शासकों की भारत में दो शाखाएँ हो गई थी। एक उत्तरी क्षत्रप जो पंजाब (तक्षशिला) एवं मथुरा में थे और दूसरा पश्चिमी क्षत्रप जो नासिक एवं उज्जैन में थे। पश्चिमी क्षत्रप अधिक प्रसिद्ध थे। उत्तरी क्षत्रप का भारत में प्रथम शासक मोयेज ;डवलमेद्ध या मोग था। नासिक के क्षत्रप (पश्चिमी क्षत्रप) क्षहरात वंश से संबंधित थे जिसका पहला शासक भूमक था। वे अपने को क्षहरात क्षत्रप कहते थे। भूमक के द्वारा चलाये गये सिक्कों पर ’क्षत्रप’ लिखा है। नहपान इस वंश का प्रसिद्ध शासक था। अभिलेखों के आधार पर कहा जा सकता है कि नहपान का राज्य उत्तर में राजपूताना तक था। नहपान के समय भड़ौच एक बंदरगाह था। यहीं से शक शासक वस्तुएँ पश्चिमी देशों को भेजते थे। उज्जैन के शक वंश (कार्दमक वंश) का संस्थापक चष्टण था। इसने अपने अभिलेखों में शक संवत् का प्रयोग किया है। उज्जैन के शक क्षत्रपों में सबसे प्रसिद्ध शासक रूद्रदामन (130 ई0 से 150 ई0) था। इसके जूनागढ़ अभिलेख से प्रतीत होता है कि पूर्वी और पश्चिमी मालवा, सौराष्ट्र, कच्छ (गुजरात), उत्तरी कोंकण, आदि प्रदेश उसके राज्य में सम्मिलित थे। रूद्रदामन ने वशिष्ठी पुत्र पुलुमावि को पराजित किया था। रूद्रदामन ने सुदर्शन झाील का पुर्ननिर्माण करवाया था जिसे चन्द्रगुप्त मौर्य ने बनवाया था और जिसकी मरम्मत अशोक ने करवाई थी। रूद्रदामन संस्कृत का प्रेमी था। इसी ने सबसे पहले विशुद्ध संस्कृत अभिलेख (जूनागढ़ अभिलेख) जारी किया। पहले इस क्षेत्र में जो भी अभिलेख पाए गए वे प्राकृत भाषा में थे। इस वंश का अंतिम राजा रूद्रसिंह तृतीय था। गुप्त शासक चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य ने उसे मारकर उसका राज्य गुप्त साम्राज्य में मिला लिया। #पह्लव_वंश_या_पार्थियन_साम्राज्य : उत्तर-पश्चिम भारत पर ईसा पूर्व पहली सदी के अंत में पार्थियन नाम के कुछ शासक शासन कर रहे थे जिन्हें भारतीय स्रोतों में पह्लव नाम से जाना गया है। पह्लव शक्ति का वास्तविक संस्थापक मिथ्रेडेट्स (मिथ्रदात) प्रथम था। मिश्रदात द्वितीय इस वंश का सबसे प्रतापी राजा था जिसने शकों को परास्त किया। पह्लव शासकों में सबसे शक्तिशाली शासक गोण्डोफर्नीज था। उसके शासनकाल के ’तख्तबही’ अभिलेख से ज्ञात होता है कि पेशावर जिले पर उसका अधिकार था। सेंट टाॅमस नामक पादरी इसाई प्रचार के लिए इसी समय भारत आया था। पार्थियन राजाओं के सिक्कों पर धर्मिय (धार्मिक) उपाधि उत्कीर्ण मिलती हैं। पह्लव राज्य का अंत कुषाणों ने किया। #कुषाण_वंश : • मौर्योत्तर कालीन विदेशी आक्रमणकारियों में कुषाण वंश सबसे महत्वपूर्ण है। पह्लवों के बाद भारतीय क्षेत्र में कुषाण आए जिन्हें यूची और तोखरी भी कहा जाता है। कुषाणों ने सर्वप्रथम बैक्ट्रिया और उत्तरी अफगानिस्तान पर अपना शासन स्थापित किया तथा वहाँ से शक् शासकों को भगा दिया। अन्ततः उन्होंने सिंधु घाटी (निचले) तथा गंगा के मैदान के अधिकांश क्षेत्र पर अधिकार कर लिया। • कुषाण वंश का संस्थापक कुजुल कडफिसेस था। इसने ताँबे का सिक्का चलाया था। सिक्कों के एक भाग पर यवन शासक हर्मियस का नाम उल्लिखित है तथा दूसरे भाग पर कुजुल का नाम खरोष्ठी लिपि में खुदा हुआ है। कुजुल कडफिसेस के बाद विम कडफिसेस शासक बना जिसने सर्वप्रथम सोने का सिक्का जारी किया। इसके सिक्कों पर शिव, नंदी तथा त्रिशूल की आकृति एवं महेश्वर की उपाधि उत्कीर्ण हैं। इसने अपना राज्य सिंधु नदी के पूरब में फैलाया एवं रोम के साथ इसके अच्छे व्यापारिक संबंध थे। विम कडफिसेस के बाद कनिष्क ने कुषाण साम्राज्य की सत्ता संभाली। कनिष्क कुषाण वंश का महानतम शासक था। इसके कार्यकाल का आरम्भ 78ई0 माना जाता है। क्योंकि इसी ने 78 ई0 में शक् संवत आरम्भ किया। इसके साम्राज्य में अफगानिस्तान, सिंध, बैक्ट्रिया तथा पार्थिया के क्षेत्र सम्मिलित थे। कनिष्क ने भारत में अपना साम्राज्य विस्तार मगध तक किया तथा यहीं से वह प्रसिद्ध विद्वान अश्वघोष को अपनी राजधानी पुरुषपुर ले गया। उसने कश्मीर को विजित कर वहाँ कनिष्कपुर नामक नगर बसाया। कनिष्क बौद्ध धर्म की महायान शाखा का संरक्षक था। उसने कश्मीर में चतुर्थ बौद्ध संगीति का आयोजन किया। कनिष्क कला और संस्कृत साहित्य का संरक्षक था। कनिष्क की राजसभा में पाश्र्व, वसुमित्र और अश्वघोष जैसे बौद्ध दार्शनिक विद्यमान थे। नागार्जुन और चरक भी (चिकित्सक) कनिष्क के राजदरबार में थे। • कनिष्क के बाद कुषाण साम्राज्य का पतन प्रारंभ हुआ। उसका उत्तराधिकारी हुविष्क के पश्चात् कनिष्क द्वितीय शासक बना जिसने ’सीजर’ की उपाधि ग्रहण की। कुषाण वंश का अंतिम शासक वासुदेव था जिसने अपना नाम भारतीय नाम पर रख लिया। वासुदेव शैव मतानुयायी था। इसके सिक्कों पर शिव के साथ गज की आकृति मिली हैं। [01/12, 8:26 AM] Raj Kumar: #आधुनिक_भारत_का_इतिहास : #1857_के_बाद_किसान_विद्रोह_व_आंदोलन किसानों के आंदोलन या उनके विद्रोह की शुरुआत सन् 1859 से हुई थी, लेकिन चूंकि अंग्रेजों की नीतियों पर सबसे ज्यादा किसान प्रभावित हुए, इसलिए आजादी के पहले भी इन नीतियों ने किसान आंदोलनों की नींव डाली। सन् 1857 के असफल विद्रोह के बाद विरोध का मोर्चा किसानों ने ही संभाला, क्योंकि अंग्रेजों और देशी रियासतों के सबसे बड़े आंदोलन उनके शोषण से उपजे थे। वास्तव में जितने भी 'किसान आंदोलन' हुए, उनमें अधिकांश आंदोलन अंग्रेजों के खिलाफ थे। उस समय के समाचार पत्रों ने भी किसानों के शोषण, उनके साथ होने वाले सरकारी अधिकारियों की ज्यादतियों का सबसे बड़ा संघर्ष, पक्षपातपूर्ण व्यवहार और किसानों के संघर्ष को प्रमुखता से प्रकाशित किया। सन् 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम को अंग्रेजों ने देशी रियासतों की मदद से दबा तो दिया, लेकिन देश में कई स्‍थानों पर संग्राम की ज्वाला लोगों के दिलों में धधकती रही। इसी बीच अनेकों स्थानों पर एक के बाद एक कई किसान आंदोलन हुए। आइए जानते हैं महत्वपूर्ण किसान विद्रोह व आंदोलन के बारे में - #नील_विद्रोह(1859-1860) : यूरोपीय बाजार के माँग की पूर्ति के लिए नील उत्पादकों के लिए भारतीय किसानों को नील की खेती के लिए बाध्य किया. दरअसल, नील उत्पादकों ने किसानों को जबरन नील की खेती करने पर मजबूर करके रखा था. जबकि किसान अपनी बढ़िया उपजाऊ जमीन चावल उगाना चाहते थे, जिसकी उन्हें बेहतर कीमत मिलती. ये नील उत्पादक किसानों को अग्रिम धन देकर करारनामा लिखवा लेते थे, जो कि बाजार भाव से बहुत कम दाम पर हुआ करता था. इसे ददनी प्रथा कहा जाता था. दिगंबर विश्वास एवं विष्णु विश्वास के नेतृत्व में किसानों ने विद्रोह करके इस आन्दोलन की शुरुआत की. इस आन्दोलन की सफलता का सबसे मुख्य कारण किसानों में अनुशासन, एकजुटता, सहयोग एवं संगठन का समावेश था. इस आन्दोलन को बुद्धिजीवी वर्ग का पूरा समर्थन प्राप्त था. “हिन्दू पैट्रियाट” के संपादक हरिश्चंद्र मुखर्जी भी इस आन्दोलन से जुड़े थे. दीनबंधु मित्र ने नाटक “नील दर्पण” में किसानों के शोषण तथा उत्पीड़न का उल्लेख किया है. इस आन्दोलन में ईसाई मिशनरियों ने भी किसानों का साथ दिया. #पाबना_विद्रोह(1873-76) : बंगाल में ज़मींदारों के द्वारा किसानों पर क़ानूनी सीमा से बहुत अधिक करारोपण किया जाता था और मनमानी कारगुजारियां बड़े पैमाने पर किया जाता था ।इसके विरोध में 1873 -76 के बीच में किसान आंदोलन हुआ जिसे पबना विद्रोह के नाम से जाना जाता है। पबना जिले के यूसुफशाही परगने में 1873 में किसान संघ कि स्थापना कि गई।इस संघ के अधीन किसान संगठित हुए और उन्होंने लगान हड़ताल कर दी और बढ़ी हुई दर पर लगान देने से मना कर दिया। किसानों कि यह लड़ाई मुख्यतः क़ानूनी मोर्चे पर ही लड़ी गई थी। सुरेन्द्रनाथ बनर्जी , आनंद मोहन बोस और द्वारका नाथ गांगुली ने इंडियन एसोसिएशन के मंच से आंदोलनकारियों की मांग का समर्थन किया। #दक्कन_का_विद्रोह(1875) : गौरतलब बात यह है कि यह एक-दो स्थानों तक सीमित नहीं रहा वरन देश के विभिन्न भागों में फलाफूला। यह आग दक्षिण में भी लगी, क्योंकि महाराष्ट्र के पूना एवं अहमदनगर जिलों में गुजराती एवं मारवाड़ी साहूकार सारे हथकंडे अपनाकर किसानों का शोषण कर रहे थे। दिसंबर सन् 1874 में एक सूदखोर कालूराम ने किसान (बाबा साहिब देशमुख) के खिलाफ अदालत से घर की नीलामी की डिक्री प्राप्त कर ली। इस पर किसानों ने साहूकारों के विरुद्ध आंदोलन शुरू कर दिया। इन साहूकारों के विरुद्ध आंदोलन की शुरुआत सन् 1874 में शिरूर तालुका के करडाह गांव से हुई। #मोपला_विद्रोह(1836,1921) : केरल के मालाबार क्षेत्र में मोपला किसानों द्वारा सन् 1920 में विद्रोह किया गया। प्रारम्भ में यह विद्रोह अंग्रेज़ हुकूमत के ख़िलाफ था। महात्मा गांधी, शौकत अली, मौलाना अबुल कलाम आजाद जैसे नेताओं का सहयोग इस आंदोलन को प्राप्त था। इस आन्दोलन के मुख्य नेता के रूप में 'अली मुसलियार' चर्चित थे। सन् 1920 में इस आन्दोलन ने हिन्दू-मुस्लिमों के मध्य साम्प्रदायिक आन्दोलन का रूप ले लिया और शीघ्र ही इस आन्दोलन को कुचल दिया गया। #रामोसी_किसानों_का_विद्रोह(1879) : महाराष्ट्र में वासुदेव बलवंत फड़के के नेतृत्व में रामोसी किसानों ने जमींदारों के अत्याचारों के विरुद्ध विद्रोह किया। इसी तरह आंध्रप्रदेश में सीताराम राजू के नेतृत्व में औपनिवेशिक शासन के विरुद्ध यह विद्रोह हुआ, जो सन् 1879 से लेकर सन् 1920-22 तक छिटपुट ढंग से चलता रहा। #ताना_भगत_आंदोलन(1914) : इस आन्दोलन की शुरुआत सन् 1914 में बिहार में हुई। यह आन्दोलन लगान की ऊंची दर तथा चौकीदारी कर के विरुद्ध किया गया था।. इस आन्दोलन के प्रवर्तक 'जतरा भगत' थे, जो कि इस आन्दोलन से सम्बद्ध थे। 'मुण्डा आन्दोलन' की समाप्ति के करीब 13 वर्ष बाद 'ताना भगत आन्दोलन' शुरू हुआ। यह ऐसा धार्मिक आन्दोलन था, जिसके राजनीतिक लक्ष्य थे। यह आदिवासी जनता को संगठित करने के लिए नए 'पंथ' के निर्माण का आन्दोलन था।. इस मायने में यह बिरसा मुण्डा आन्दोलन का ही विस्तार था। मुक्ति-संघर्ष के क्रम में बिरसा मुण्डा ने जनजातीय पंथ की स्थापना के लिए सामुदायिकता के आदर्श और मानदंड निर्धारित किए थे। #बिजोलिया_किसान_आंदोलन(1913-41) : यह 'किसान आन्दोलन' भारतभर में प्रसिद्ध रहा जो मशहूर क्रांतिकारी विजय सिंह पथिक के नेतृत्व में चला था। बिजोलिया किसान आन्दोलन सन् 1847 से प्रारंभ होकर करीब अर्द्ध शताब्दी तक चलता रहा। किसानों ने जिस प्रकार निरंकुश नौकरशाही एवं स्वेच्छाचारी सामंतों का संगठित होकर मुकाबला किया, वह इतिहास बन गया। #अखिल_भारतीय_किसान_सभा(1923) : सन् 1923 में स्वामी सहजानंद सरस्वती ने 'बिहार किसान सभा' का गठन किया।. सन् 1928 में 'आंध प्रान्तीय रैय्यत सभा' की स्थापना एनजी रंगा ने की। उड़ीसा में मालती चैधरी ने 'उत्‍कल प्रान्तीय किसान सभा' की स्थापना की। बंगाल में 'टेंनेंसी एक्ट' को लेकर सन् 1929 में 'कृषक प्रजा पार्टी' की स्थापना हुई। अप्रैल, 1935 में संयुक्त प्रांत में किसान संघ की स्थापना हुई।. इसी वर्ष एनजी रंगा एवं अन्य किसान नेताओं ने सभी प्रान्तीय किसान सभाओं को मिलाकर एक 'अखिल भारतीय किसान संगठन' बनाने की योजना बनाई। #चम्पारण_का_नील_सत्याग्रह(1917) : चम्पारण का मामला बहुत पुराना था। चम्पारण के किसानों से अंग्रेज बागान मालिकों ने एक अनुबंध करा लिया था, जिसके अंतर्गत किसानों को जमीन के 3/20वें हिस्से पर नील की खेती करना अनिवार्य था। इसे 'तिनकठिया पद्धति' कहते थे।. 19वीं शताब्दी के अंत में रासायनिक रंगों की खोज और उनके प्रचलन से नील के बाजार समाप्त हो गए। नील बागान के मालिकों ने अपने कारखाने बंद कर दिए और किसानों की नील की खेती से छुटकारा पाने की इच्छा भी पूरी हो गई। #खेड़ा_सत्याग्रह(1918) : चम्पारण के बाद गांधीजी ने सन् 1918 में खेड़ा किसानों की समस्याओं को लेकर आन्दोलन शुरू किया। खेड़ा गुजरात में स्थित है।. खेड़ा में गांधीजी ने अपने प्रथम वास्तविक 'किसान सत्याग्रह' की शुरुआत की। खेड़ा के कुनबी-पाटीदार किसानों ने सरकार से लगान में राहत की मांग की, लेकिन उन्‍हें कोई रियायत नहीं मिली। गांधीजी ने 22 मार्च, 1918 को खेड़ा आन्दोलन की बागडोर संभाली। अन्य सहयोगियों में सरदार वल्लभभाई पटेल और इन्दुलाल याज्ञनिक थे।. #एका_आंदोलन(1921-22) : 1921 में उत्तर प्रदेश के उत्तरी जिलों हरदोई ,बहराइच तथा सीतापुर में किसान एकजुट होकर आंदोलन पर उतर आए। इस बार आंदोलन के निम्न कारण थे — उच्च लगान दर। राजस्व वसूली में जमींदारों के द्वारा अपने गई दमनकारी नीतियां। बेगार की प्रथा। इस एका आंदोलन में किसानों को प्रतीकात्मक धार्मिक रीति रिवाज़ों का पालन करने का निर्देश दिया जाता था। इस आंदोलन का नेतृत्व निचले तबके के किसानों – मदारी पासी आदि ने किया। #बारदोली_सत्याग्रह(1928) : सूरत (गुजरात) के बारदोली तालुका में सन् 1928 में किसानों द्वारा 'लगान' न अदायगी का आन्दोलन चलाया गया। इस आन्दोलन में केवल 'कुनबी-पाटीदार' जातियों के भू-स्वामी किसानों ने ही नहीं, बल्कि सभी जनजाति के लोगों ने हिस्सा लिया। . फरवरी 1926 में बारदोली की महिलाओं ने बल्लभ भाई पटेल को सरदार की उपाधि से विभूषित किया। आंदोलन को संगठित करने के लिए बारदोली सत्याग्रह पत्रिका का प्रकाशन किया गया। आंदोलन के समर्थन में के एम मुंशी तथा लालजी नारंजी ने बम्बई विधानपरिषद की सदस्यता से त्यागपत्र दे दिया। बम्बई में रेलवे हड़ताल का आयोजन किया गया। सरकार ने ब्लूमफील्ड व मैक्सवेल के नेतृत्व में समिति बनाई ,जिन्होंने भू राजस्व को घटाकर 6.03% कर दिया। #तेभागा_आन्दोलन(1946-50) : किसान आन्दोलनों में सन् 1946 का बंगाल का तेभागा आन्दोलन सर्वाधिक सशक्त आन्दोलन था, जिसमें किसानों ने 'फ्लाइड कमीशन' की सिफारिश के अनुरूप लगान की दर घटाकर एक तिहाई करने के लिए संघर्ष शुरू किया था। बंगाल का 'तेभागा आंदोलन' फसल का दो-तिहाई हिस्सा उत्पीड़ित बटाईदार किसानों को दिलाने के लिए किया गया था।. यह बंगाल के 28 में से 15 जिलों में फैला, विशेषकर उत्तरी और तटवर्ती सुन्दरबन क्षेत्रों में। 'किसान सभा' के आह्वान पर लड़े गए इस आंदोलन में लगभग 50 लाख किसानों ने भाग लिया और इसे खेतिहर मजदूरों का भी व्यापक समर्थन प्राप्त हुआ। #तेलंगाना_आंदोलन : आंध्रप्रदेश में यह आन्दोलन जमींदारों एवं साहूकारों के शोषण की नीति के खिलाफ सन् 1946 में शुरू किया गया था। सन् 1858 के बाद हुए किसान आन्दोलनों का चरित्र पूर्व के आन्दोलन से अलग था।. अब किसान बगैर किसी मध्यस्थ के स्वयं ही अपनी लड़ाई लड़ने लगे। इनकी अधिकांश मांगें आर्थिक होती थीं। किसान आन्दोलन ने राजनीतिक शक्ति के अभाव में ब्रिटिश उपनिवेश का विरोध नहीं किया। किसानों की लड़ाई के पीछे उद्देश्य व्यवस्था-परिवर्तन नहीं था, लेकिन इन आन्दोलनों की असफलता के पीछे किसी ठोस विचारधारा, सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक कार्यक्रमों का अभाव था।. #19_वी_सदी_के_उत्तरार्द्ध_में_हुए_किसान_आंदोलन #का_स्वरूप : ▪️1858 के बाद के किसान आंदोलन की सबसे बङी शक्ति किसान थे, जिन्होंने अपनी मांगों के लिए सीधे लङाई शुरु की, इनके दुश्मन थे बागान मालिक, जमींदार तथा महाजन। ▪️इस समय का किसान आंदोलन निश्चय ही किसानों के सामाजिक उत्पीङन के विरुद्ध क्रोध का प्रस्फुटन मात्र था। अपनी पारंपरिक जीवन शैली पर जोर तथा उसे सुरक्षित रखने की उत्कट इच्छा ने किसानों के विद्रोह के लिए मजबूर किया। ▪️इस समय का किसान आंदोलन किसी बदलाव या परिवर्तन के लिए न होकर केवल यथास्थिति को बनाये रखने के लिए था।अधिकांश काश्तकार आंदोलन के पीछे बेदखली तथा लगान की अधिकता ही कारण था। ▪️1858 के बाद के किसान आंदोलन के प्रति सरकार का रवैया भी उदार था, 1858 से पूर्व हुए किसान आंदोलनों तथा आदिवासी विद्रोहों को सरकार ने प्रत्यक्ष चुनौती देकर कुचल दिया था लेकिन 1858 के बाद सरकार ने किसानों के प्रति समझौतावादी दृष्टिकोण अपना कर उनके आंदोलन की सफलता में आंशिक सहयोग दिया। ▪️इस समय के किसान आंदोलनों के प्रति सरकार इस लिए समझौता वादी थी क्योंकि इन आंदोलनों ने सरकार को चुनौती नहीं दी थी। [01/12, 8:26 AM] Raj Kumar: #प्राचीन_भारत_का_इतिहास : #संगम_काल • 1st शताब्दी ई.पू से 2nd शताब्दी ईसा तक के काल के दक्षिण भारत के इतिहास को संगम काल कहा जाता है | संगम साहित्य के कारण इस काल को संगम काल के नाम से जाना जाता है| • तमिल दन्त कथा के अनुसार संगम काल (कवियों) का संगम था जिसे मुच्चंगम के नाम से भी जाना जाता है |जिसे मदुरै के पांडे वंश ने संरक्षण दिया| • पहला संगम मदुरै में हुआ था ऐसा माना जाता है जिसका कोई भी साहित्य उपस्थित नही है| • द्वितीय संगम कपडपुरम में हुआ था|तोल्कापियम साहित्य की उत्पत्ति यही से हुई| • तीसरा संगम मदुरै में हुआ | जिसमे कुछ साहित्य का समागम हुआ जो इस काल के प्रमुख स्त्रोत है| #संगम_साहित्य : • मुख्य संगम साहित्य –तोल्कापियम,इटुतोगई,पट्टूपट्टू आदि है| • तोल्कापियम के लेखक तोल्कापियार थे| जिन्हें शुरुआती तमिल साहित्येकर मन जाता है| #संगम_काल_की_जानकारी_के_अन्य_स्त्रोत– • मेगास्थेनेस ने भी इसके बारे में लिखा था |आदि कई विदेशी लेखको ने इसके बारे में लिखा था | • अशोक के शीला लेखो में भी चेर ,चोल और पाण्डेय वंश का मौर्या के दक्षिण में होने की बात लिखी गयी है | • हाथी गुम्फा अभिलेख में भी कलिंग के खारवेल ने तमिल राज्यों का वर्णन किया है | #संगम_काल_में_राज्यों_की_स्थिति: • दक्षिण में कृष्णा नदी से लेकर तुंगभद्रा तक के क्षत्रे को दक्षिण भारत संगम काल में कहा जाता था |यहाँ तीन राज्य थे –चेर,चोल,पांडे • इसकी जानकारी संगम साहित्यों से प्राप्त होती है| #चेर: • चेर साम्राज्य आधुनिक केरल तथा मालाबार के तट के आस पास फैला था | • चेरो के राजधानी वनजी थी और दो मुक्य पतन तोंडी तथा मुसिरी थे| • ये पहले शासक थे जिन्होंने दक्षिण भारत से चीन राजदूत भेजा था | #चोल: • इनका भौगोलिक विस्तार उत्तरी तमिलनाडू से दक्षिणी अन्द्रप्रदेश तक था | • इनकी राजधानी उरैयुर थी जो बाद में परिवर्तित कर पुहर(तंजौर) हुई| • संगम काल में करिकला प्रसिद्ध चोल शासक था | उसके काल में व्यापार फुला फला| #पांडे: • इनका शासन दक्षिणी तमिलनाडु में था | • इसकी राजधानी मदुरै थी| • इनका प्रसिद्ध पतन कोर्कई था| #संगम_काल_का_प्रशासन: • इस काल में राजा का पद वंशानुगत होता था| • प्रत्येक राज्य का अपना राजकीय चिन्ह था| • राजा की सहयता के लिए मंत्री गण होते थे | • प्रत्येक राज्य की स्थाई सेना थी| • राज्य की प्रमुख आय का स्त्रोत भूमि कर था | तथा सीमा शुल्क भी लिया जाता था| #सामजिक_स्थिति • संगम साहित्य में समाज की स्तिथि के साथ महिलाओ की स्थिति को भी लिखा गया है| • प्रेम विवाह का प्रचलन था तथा महिलाओ को अपना जीवन साथी चुनने का अधिकार था| #आर्थिक_स्थिति: • कृषि प्रमुख व्यवसाय था| चावल सबसे अधिक उपयोग होने वाला अन्न| • इस काल में समस्त कला जैसे – कड़ाई,बुनाई,लोहे के काम,लड़की के काम ,जेवरात बनाने के कारीगर विकसित थे| • इस काल में सामान को निर्यात भी किया जाता था | • कपास से बने कपडे इनमे प्रमुख थे | • इसके साथ साथ मसालों का व्यापर भी उत्कृष्ट था | [01/12, 8:26 AM] Raj Kumar: #आधुनिक_भारत_का_इतिहास : #1857_की_क्रांति 1857 के संघर्ष को लेकर इतिहासकारों के विचार एक समान नहीं हैं। कुछ विद्वानों का यह मानना है कि 4 महीनों का यह उभार किसान विद्रोह था तो कुछ इस महान घटना को सैन्य विद्रोह मानते हैं। वी.डी. सावरकर की पुस्तक “द इंडियन वॉर ऑफ़ इंडिपेंडेंस” (1909 में प्रकाशित) में इसे प्रथम स्वतंत्रता संग्राम माना गया था। 20वीं सदी के शुरुआती दौर के इतिहास लेखन (राष्ट्रवादी इतिहासकार) में इसे वीर स्वतंत्रता सेनानियों का संघर्ष दिखाया गया है जो ग़दर के रूप में वर्णित भी है। मंगल पांडे के द्वारा कलकत्ता के निकट बैरकपुर छावनी में किए गए विद्रोह को एक महत्वपूर्ण घटना माना गया है जो स्वतन्त्रता की प्रथम लड़ाई में परिवर्तित हो गया। भारत में ईस्ट इंडिया कम्पनी काल में ब्रिटिश उपनिवेशवादी शासन की स्थापना के केंद्र में सेना की भूमिका महत्वपूर्ण थी। गवर्नर जनरल के तौर पर वारेन हैस्टिंग के शासन काल के दौरान ईस्ट इंडिया कम्पनी द्वारा राज्यों के क्रमश: अधिग्रहण से उसके क्षेत्र का, साथ ही सेना का लगातार विस्तार हो रहा था। ब्रिटिश सेना में 80 प्रतिशत से अधिक भारतीय मूल के लोग ही नियुक्त थे। यूरोपीय सैनिकों के विपरीत उन्हें सिपाही का दर्जा मिला था। अभी तक हम प्लासी और बक्सर की लड़ाई में इन सिपाहियों की भक्ति ईस्ट इंडिया कम्पनी के प्रति देख चुके हैं। 1857 के विद्रोह के तात्कालिक कारणों में यह अफवाह थी कि 1853 की राइफल के कारतूस की खोल पर सूअर और गाय की चर्बी लगी हुई है। यह अफवाह हिन्दू एवं मुस्लिम दोनों धर्म के लोगों की भावनाओं को ठेस पहुंचा रही थी। ये राइफलें 1853 के राइफल के जखीरे का हिस्सा थीं। 1857 का विद्रोह कोई आकस्मिक घटना नहीं थी, अपितु यह अनेक कारणों का परिणाम थी, जो इस प्रकार थे- #राजनीतिक_कारण #डलहौज़ी_की_साम्राज्यवादी_नीति :- लार्ड डलहौजी (1848 – 56) ने भारत में अपना साम्राज्य विस्तार करने के लिए विभिन्न अन्यायपूर्ण तरीके अपनाए। अतः देशी रियासतों एवं नवाबों में कंपनी के विरूद्ध गहरा असंतोष फैला। उसने लैप्स के सिद्धांत को अपनाया। इस सिद्धांत का तात्पर्य है, “जो देशी रियासतें कंपनी के अधीन हैं, उनको अपने उत्तराधिकारियों के बारे में ब्रिटिश सरकार के मान्यता व स्वीकृति लेनी होगी। यदि रियासतें ऐसा नहीं करेंगी, तो ब्रिटिश सरकार उत्तराधिकारियों को अपनी रियासतों का वैद्य शासक नहीं मानेंगी।” इस नीति के आधार पर डलहौजी ने निःसन्तान राजाओं के गोद लेने पर प्रतिबन्ध लगा दिया तथा इस आधार पर उसने सतारा, जैतपुर, सम्भलपुर, बाघट, उदयपुर, झाँसी, नागपुर आदि रियासतों को ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिया। उसने अवध के नवाब पर कुशासन का आरोप लगाते हुए 1856 ई. में अवध का ब्रिटिश साम्राज्य में विलय कर लिया। डलहौज़ी की साम्राज्यवादी नीति ने भारतीय नरेशों में ब्रिटिशों के प्रति गहरा असंतोष एवं घृणा की भावना उत्पन्न कर दी। इसके साथ ही राजभक्त लोगों को भी अपने अस्तित्व पर संदेह होने लगा। वस्तुतः डलहौज़ी की इस नीति ने भारतीयों पर बहुत गहरा प्रभाव डाला। इन परिस्थितियों में ब्रिटिश साम्राज्य के विरूद्ध विद्रोह एक मानवीय आवश्यकता बन गया था। #समकालीन_परिस्थितियाँ :- भारतीय लोग पहले ब्रिटिश सैनिकों को अपराजित मानते थे, किंतु क्रिमिया एवं अफ़ग़ानिस्तान के युद्धों में ब्रिटिशों की जो दुर्दशा हुई, उसने भारतीयों के इस भ्रम को मिटा दिया। इसी समय रूस द्वारा क्रीमिया की पराजय का बदला लेने के लिए भारत आक्रमण करने तथा भारत द्वारा उसका साथ देने की योजना की अफ़वाह फैली। इससे भारतीयों में विद्रोह की भावना को बल मिला। उन्होंने सोचा कि ब्रिटिशों के रूस के विरूद्ध व्यस्त होने के समय वे विद्रोह करके ब्रिटिशों को भारत से खदेड़ सकते हैं। #मुग़ल_सम्राट_बहादुरशाह_के_साथ_दुर्व्यवहार :- मुग़ल सम्राट बहादुरशाह भावुक एवं दयालु प्रकृति के थे। देशी राजा एवं भारतीय जनता अब भी उनके प्रति श्रद्धा रखते थे। ब्रिटिशों ने मुग़ल सम्राट बहादुरशाह के साथ बड़ा दुर्व्यवहार किया। अब ब्रिटिशों ने मुग़ल सम्राट को नज़राना देना एवं उनके प्रति सम्मान प्रदर्शित करना समाप्त कर दिया। मुद्रा पर से सम्राट का नाम हटा दिया गया। #नाना_साहब_के_साथ_अन्याय :- लार्ड डलहौज़ी ने बाजीराव द्वितीय के दत्तक पुत्र नाना साहब के साथ भी बड़ा दुर्व्यवहार किया। नाना साहब की 8 लाख रुपये की पेन्शन बंद कर दी गई। फलतः नाना साहब ब्रिटिशों के शत्रु बन गए और उन्होंने 1857 ई. के विप्लव का नेतृत्व किया। #आर्थिक_कारण: #व्यापार_का_विनाश :- ब्रिटिशों ने भारतीयों का जमकर आर्थिक शोषण किया था। ब्रिटिशों ने भारत में लूट-मार करके धन प्राप्त किया तथा उसे इंग्लैंड भेज दिया। ब्रिटिशों ने भारत से कच्चा माल इंग्लेण्ड भेजा तथा वहाँ से मशीनों द्वारा माल तैयार होकर भारत आने लगा। इसके फलस्वरूप भारत दिन-प्रतिदिन निर्धन होने लगा। इसके कारण भारतीयों के उद्योग धंधे नष्ट होने लगे। इस प्रकार ब्रिटिशों ने भारतीयों के व्यापार पर अपना नियंत्रण स्थापित कर भारतीयों का आर्थिक शोषण किया। #किसानों_का_शोषण :- ब्रिटिशों ने कृषकों की दशा सुधार करने के नाम पर स्थाई बंदोबस्त, रैय्यवाड़ी एवं महालवाड़ी प्रथा लागू की, किंतु इस सभी प्रथाओं में किसानों का शोषण किया गया तथा उनसे बहुत अधिक लगान वसूल किया गया। इससे किसानों की हालत बिगड़ती गई। समय पर कर न चुका पाने वाले किसानों की भूमि को नीलाम कर दिया जाता था। #अकाल :- अंग्रेजों के शासन काल में बार-बार अकाल पड़े, जिसने किसानों की स्थिति और ख़राब हो गई। #इनाम_की_जागीरे_छीनना :- बैन्टिक ने इनाम में दी गई जागीरें भी छीन ली, जिससे कुलीन वर्ग के गई लोग निर्धन हो गए और उन्हें दर-दर की ठोकरें खानी पडीं। बम्बई के विख्यानघ इमाम आयोग ने 1852 में 20,000 जागीरें जब्त कर लीं। अतः कुलीनों में असन्तोष बढ़ने लगा, जो विद्रोह से ही शान्त हो सकता था। #भारतीय_उद्योगों_का_नाश_तथा_बेरोजगारी :- ब्रिटिशों द्वारा अपनाईं गई आर्थिक शोषण की नीति के कारण भारत के घरेलू उद्योग नष्ट होने लगे तथा देश में व्यापक रूप से बेरोज़गारी फैली। #सामाजिक_कारण #ब्रिटिशों_द्वारा_भारतीयो_के_सामाजिक_जीवन_में #हस्तक्षेप :- ब्रिटिशों ने भारतीयों के सामाजिक जीवन में जो हस्तक्षेप किया, उनके कारण भारत की परम्परावादी एवं रूढ़िवादी जनता उनसे रूष्ट हो गई। लार्ड विलियम बैन्टिक ने सती प्रथा को गैर कानूनी घोषित कर दिया और लोर्ड कैनिंग ने विधवा विवाह की प्रथा को मान्यता दे दी। इसके फलस्वरूप जनता में गहरा रोष उत्पन्न हुआ। इसके अलावा 1856 ई. में पैतृतक सम्पति के सम्बन्ध मे एक कानुन बनाकर हिन्दुओं के उत्तराधिकार नियमों में परिवर्तन किया गया। इसके द्वारा यह निश्चित किया गया कि ईसाई धर्म ग्रहण करने वाले व्यक्ति का अपनी पैतृक सम्पति में हिस्सा बना रहेगा। रूढ़िवादी भारतीय अपने सामाजिक जीवन में ब्रिटिशों के इस प्रकार के हस्तक्षेप को पसन्द नहीं कर सकते थे। अतः उन्होंने विद्रोह का मार्ग अपनाने का निश्चय किया। #पाश्चात्य_संस्कृति_को_प्रोत्साहन :- ब्रिटिशों ने अपनी संस्कृति को प्रोत्साहन दिया तथा भारत में इसका प्रचार किया। उन्होंने युरोपीय चिकित्सा विज्ञान को प्रेरित किया, जो भारतीय चिकित्सा विज्ञान के विरूद्ध था। भारतीय जनता ने तार एवं रेल को अपनी सभ्यता के विरूद्ध समझा। ब्रिटिशों ने ईसाई धर्म को बहुत प्रोत्साहन दिया। स्कूल, अस्पताल, दफ़्तर एवं सेना ईसाई धर्म के प्रचार के केंद्र बन गए। अब भारतीयों को विश्वास हुआ कि ब्रिटिश उनकी संस्कृति को नष्ट करना चाहते हैं। अतः उनमें गहरा असंतोष उत्पन्न हुआ, जिसने क्रांति का रूप धारण कर लिया। #पाश्चात्य_शिक्षा_का_प्रभाव :- पाश्चात्य शिक्षा ने भारतीय समाज की मूल विशेषताओं को समाप्त कर दिया। आभार प्रदर्शन, कर्तव्यपालन, परस्पर सहयोग आदि भारतीय समाज की परम्परागत विशेषता थी, किन्तु ब्रिटिश शिक्षा ने इसे नष्ट कर दिया। पाश्चात्य सभ्यता ने भारतीयों के रहन-सहन, खान-पान, आचार-विचार, शिष्टाचार एवं व्यवहार में क्रान्तिकारी परिवर्तन किया। इससे भारतीय सामाजिक जीवन की मौलिकता समाप्त होने लगी। ब्रिटिशों द्वारा अपनी जागीरें छीन लेने से कुलीन नाराज थे, ब्रिटिशों द्वारा भारतीयों के सामाजिक जीवन में हस्तक्षेप करने से भारतीयों में यह आशंका उत्पन्न हो गई कि ब्रिटिश पाश्चात्य संस्कृति का प्रसार करना चाहते हैं। भारतीय रूढ़िवादी जनता ने रेल, तार आदि वैज्ञानिक प्रयोगों को अपनी सभ्यता के विरूद्ध माना। #भारतीयों_के_प्रति_भेद_भाव_नीति :- ब्रिटिश भारतीयों को निम्न कोटि का मानते थे तथा उनसे घृणा करते थे। उन्होंने भारतीयों के प्रति भेद-भाव पूर्ण नीति अपनायी। भारतीयों को रेलों में प्रथम श्रेणी के डब्बे में सफर करने का अधिकार नहीं था। ब्रिटिशों द्वारा संचालित क्लबों तथा होटलों में भारतीयों को प्रवेश नहीं दिया जाता था। #धार्मिक_कारण ▪️भारत में सर्वप्रथम ईसाई धर्म का प्रचार पुर्तगालियों ने किया था, किन्तु ब्रिटिशों ने इसे बहुत फैलाया। 1831 ई. में चार्टर एक्ट पारित किया गया, जिसके द्वारा ईसाई मिशनरियों को भारत में स्वतन्त्रापूर्वक अपने धर्म का प्रचार करने की स्वतन्त्रता दे दी गई। ईसाई धर्म के प्रचारकों ने खुलकर हिंदू धर्म एवं इस्लाम धर्म की निंदा की। वे हिंदुओं तथा मुसलामानों के अवतारों, पैग़ंबरों एवं महापुरुषों की खुलकर निंदा करते थे तथा उन्हें कुकर्मी कहते थे। वे इन धर्मों की बुराइयों को बढ़-चढ़ाकर बताते थे तथा अपने धर्म को इन धर्मो से श्रेष्ठ बताते थे। #प्रशासनिक_कारण: ▪️ब्रिटिशों की विविध त्रुटिपूर्ण नीतियों के कारण भारत में प्रचलित संस्थाओं एवं परंपराओं का समापन होता जा रहा था। प्रशासन जनता से पृथक हो रहा था। ब्रिटिशों ने भेद-भाव पूर्ण नीति अपनाते हुए भारतीयों को प्रशासनिक सेवाओं में सम्मिलित नहीं होने दिया। लार्ड कार्नवालिस भारतीयों को उच्च सेवाओं के अयोग्य मानता था। अतः उन्होंने उच्च पदों पर भारतीयों को हटाकर ब्रिटिशों को नियुक्त किया। ब्रिटिश न्याय के क्षेत्र में स्वयं को भारतीयों से उच्च व श्रेष्ठ समझते थे। भारतीय जज किसी ब्रिटिश के विरूद्ध मुकदमे की सुनवाई नहीं कर सकते थे। ▪️भारत में ब्रिटिशों की सत्ता स्थापित होने के पश्चात् देश में एक शक्तिशाली ब्रिटिश अधिकारी वर्ग का उदय हुआ। यह वर्ग भारतीयों से घृणा करता था एवं उससे मिलना पसन्द नहीं करता था। ब्रिटिशों की इस नीति से भारतीय क्रुध्द हो उठे और उनमें असन्तोष की ज्वाला धधकने लगी। #सैनिक_कारण: ▪️भारतीय सैनिक अनेक कारणों से ब्रिटिशों से रुष्ट थे। वेतन, भत्ते, पदोन्नति आदि के संबंध में उनके साथ पक्षपातपूर्ण व्यवहार किया जाता था। एक साधारण सैनिक का वेतन 7-8 रुपये मासिक होता था, जिसमें खाने तथा वर्दी का पैसा देने के बाद उनके पास एक या डेढ़ रुपया बचता था। भारतीयों के साथ ब्रिटिशों की तुलना में पक्षपात किया जाता था। जैसे भारतीय सूबेदार का वेतन 35 रुपये मासिक था, जबकि ब्रिटिश सूबेदार का वेतन 195 रुपये मासिक था। भारतीयों को सेना में उच्च पदों पर नियुक्त नहीं किया जाता था। उच्च पदों पर केवल ब्रिटिश ही नियुक्त होते थे। डॉ. आर. सी. मजूमदार ने भारतीय सैनिकों के रोष के तीन कारण बतलाए हैं – 1. बंगाल की सेना में अवध के अनेक सैनिक थे। अतः जब 1856 ई. में अवध को ब्रिटिश साम्राज्य में लिया गया, तो उनमें असंतोष उत्पन्न हुआ। 2. ब्रिटिशों ने सिक्ख सैनिकों को बाल कटाने के आदेश दिए तथा ऐसा न करने वालों को सेना से बाहर निकाल दिया। 3. ब्रिटिश सरकार द्वारा ईसाई धर्म का प्रचार करने से भी भारतीय रुष्ट थे। #तत्कालीन_कारण: ▪️1857 ई. तक भारत में विद्रोह का वातावरण पूरी तरह तैयार हो चूका था और अब बारूद के ढेर में आग लगाने वाली केवल एक चिंगारी की आवश्यकता थी। यह चिंगारी चर्बी वाले कारतूसों ने प्रदान की। इस समय ब्रिटेन में एनफील्ड राइफ़ल का आविष्कार हुआ। इन राइफ़लों के कारतूसों को गाय एवं सुअर की चर्बी द्वारा चिकना बनाया जाता था। सैनिकों को मुँह से इसकी टोपी को काटना पड़ता था, उसके बाद ही ये कारतूस राइफ़ल में डाले जाते थे।इन चर्बी लगे कारतूसों ने विद्रोह को भड़का दिया। #क्रांति_की_शुरूआत: 1857 की क्रांति का सूत्रपात मेरठ छावनी के स्वतंत्रता प्रेमी सैनिक मंगल पाण्डे ने किया। 29 मार्च, 1857 को नए कारतूसों के प्रयोग के विरुद्ध मंगल पाण्डे ने आवाज उठायी। ध्यातव्य है कि अंग्रेजी सरकार ने भारतीय सेना के उपयोग के लिए जिन नए कारतूसों को उपलब्ध कराया था, उनमें सूअर और गाय की चर्बी का प्रयोग किया गया था। छावनी के भीतर मंगल पाण्डे को पकड़ने के लिए जो अंग्रेज अधिकारी आगे बढ़े, उसे मौत के घाट उतार दिया। 8 अप्रैल, 1857 ई. को मंगल पाण्डे को फांसी की सजा दी गई। उसे दी गई फांसी की सजा की खबर सुनकर सम्पूर्ण देश में क्रांति का माहौल स्थापित हो गया। मेरठ के सैनिकों ने 10 मई, 1857 ई. को जेलखानों को तोड़ना,भारतीय सैनिकों को मुक्त करना और अंग्रेजो को मारना शुरू कर दिया। मेरठ में मिली सफलता से उत्साहित सैनिक दिल्ली की ओर बढ़े। दिल्ली आकर क्रांतिकारी सेनिकों ने कर्नल रिप्ले की हत्या कर दी और दिल्ली पर अपना अधिकार जमा लिया। इसी समय अलीगढ़, इटावा, आजमगढ़, गोरखपुर, बुलंदशहर आदि में भी स्वतंत्रता की घोषणा की जा चुकी थी। #विद्रोह_के_प्रमुख_केंद्र_और_केंद्र_के_प्रमुख_नेता • दिल्ली – जनरल बख्त खान • कानपुर – नाना साहब • लखनऊ – बेगम हज़रत महल • बरेली – खान बहादुर • बिहार – कुंवर सिंह • फैज़ाबाद – मौलवी अहमदउल्ला • झांसी – रानी लक्ष्मी बाई • इलाहाबाद – लियाकत अली • ग्वालियर – तात्या टोपे • गोरखपुर – गजाधर सिंह #विद्रोह_के_समय_प्रमुख_अंग्रेज_जनरल • दिल्ली – लेफ्टिनेंट विलोबी ,निकोलसन , हडसन • कानपुर – सर ह्यू रोज • बनारस – कर्नल जेम्स नील #क्रांति_का_दमन : ▪️क्रांति के राष्ट्रव्यापी स्वरूप और भारतीयों में अंग्रेजी सरकार के प्रति बढ़ते आक्रोश सरकार ने निर्ममतापूर्ण दमन की नीति अपनायी। तत्कालीन वायसराय लॉर्ड केनिंग ने बाहर से अंग्रेजी सेनाएं मंगवायीं। जनरल नील के नेतृत्व वाली सेना ने बनारस और इलाहाबाद में क्रांति को जिस प्रकार से कुचला, वह पूर्णतः अमानवीय था। निर्दोषों को भी फांसी की सजा दी गई। दिल्ली में बहादुरशाह को गिरफ्तार कर लेने के बाद नरसंहार शुरू हो गया था। फुलवर, अम्बाला आदि में निर्ममता के साथ लोगों की हत्या करवायी । सैनिक नियमों का उल्लंघन कर कैदी सिपाहियों में से अनेकों को तोप के मुंह पर लगाकर उड़ा दिया गया। पंजाब में सिपाहियों को घेरकर जिन्दा जला दिया गया। ▪️अंग्रेजों ने केवल अपनी सैन्य शक्ति के सहारे ही क्रांति का दमन नहीं किया बल्कि उन्होंने प्रलोभन देकर बहादुरशाह को गिरफ्तार करवा लिया, और उसके पुत्रों की हत्या करवादी, सिक्खों और मद्रासी सैनिकों को अपने पक्ष में कर लिया। वस्तुतः, क्रांति के दमन में सिक्ख रेजिमेण्ट ने यदि अंग्रेजी सरकार की सहायता नहीं की होती तो अंग्रेजी सरकार के लिए क्रांतिकारियों को रोक पाना टेढ़ी-खीर ही साबित होता। क्रांति के दमन में अंग्रेजों को इसलिए भी सहायता मिली कि विभिन्न क्षेत्रों में अलग-अलग समय में क्रांति ने जोर पकड़ा था। #क्रान्ति_की_असफलता_के_कारण : ▪️यह विद्रोह स्थानीय स्तर तक, असंगठित एवं सीमित था। बम्बई एवं मद्रासकी सेनायें तथा नर्मदा नदी के दक्षिण के राज्यों ने क्रान्ति के इस विद्रोह में अंग्रेज़ों का पूरा समर्थन किया। ▪️अच्छे साधन एवं धनाभाव के कारण भी विद्रोह असफल रहा। अंग्रेज़ी अस्त्र-शस्त्र के समक्ष भारतीय अस्त्र-शस्त्र बौने साबित हुए। ▪️1857 ई. के इस विद्रोह के प्रति ‘शिक्षित वर्ग’ पूर्ण रूप से उदासीन रहा। व्यापारियों एवं शिक्षित वर्ग ने कलकत्ता एवं बम्बई में सभाएँ कर अंग्रेज़ों की सफलता के लिए प्रार्थना भी की थी। यदि इस वर्ग ने अपने लेखों एवं भाषणों द्वारा लोगों में उत्साह का संचार किया होता, तो निःसंदेह ही क्रान्ति के इस विद्रोह का परिणाम कुछ ओर ही होता। ▪️इस विद्रोह में ‘राष्ट्रीय भावना’ का पूणतया अभाव था, क्योंकि भारतीय समाज के सभी वर्गों का सहयोग इस विद्रोह को नहीं मिल सका। सामन्तवादी वर्गों में एक वर्ग ने विद्रोह में सहयोग किया, परन्तु पटियाला, जीन्द, ग्वालियर एवं हैदराबाद के राजाओं ने विद्रोह को कुचलने में अंग्रेज़ों का पूरा सहयोग किया। संकट के समय लॉर्ड कैनिंग ने कहा था कि, “यदि सिन्धिया भी विद्रोह में सम्मिलित हो जाए तो मुझे कल ही भारत छोड़ना पड़ेगा”। विद्रोह दमन के पश्चात् भारतीय राजाओं को पुरस्कृत किया गया। निज़ाम को बरार का प्रान्त लौटा दिया गया और उसके ऋण माफ कर दिये गये। सिन्धिया, गायकवाड़ और राजपूत राजाओं को भी पुरस्कार मिले। ▪️विद्रोहियों में अनुभव, संगठन क्षमता व मिलकर कार्य करने की शक्ति की कमी थी। ▪️सैनिक दुर्बलता का विद्रोह की असफलता में महत्त्वपूर्ण योगदान रहा। बहादुरशाह ज़फ़र एवं नाना साहब एक कुशल संगठनकर्ता अवश्य थे, पर उनमें सैन्य नेतृत्व की क्षमता की कमी थी, जबकि अंग्रेज़ी सेना के पास लॉरेन्स बन्धु, निकोलसन, हेवलॉक, आउट्रम एवं एडवर्ड जैसे कुशल सेनानायक थे। ▪️क्रान्तिकारियों के पास उचित नेतृत्व का अभाव था। वृद्ध मुग़ल सम्राट बहादुरशाह ज़फ़र क्रान्तिकारियों का उस ढंग से नेतृत्व नहीं कर सका, जिस तरह के नेतृत्व की तत्कालीन परिस्थितियों में आवश्यकता थी। ▪️विद्रोही क्रान्तिकारियों के पास ठोस लक्ष्य एवं स्पष्ट योजना का अभाव था। उन्हें अगले क्षण क्या करना होगा और क्या नहीं, यह भी निश्चित नहीं था। वे मात्र भावावेश एवं परिस्थितिवश आगे बढ़े जा रहे थे। ▪️आवागमन एवं संचार के साधनों के उपयोग से अंग्रेज़ों को विद्रोह को दबाने मे काफ़ी सहायता मिली। इस प्रकार आवागमन एवं संचार के साधनों ने भी इस विद्रोह को असफल करने में सहयोग दिया। #परिणाम : ▪️विद्रोह के समाप्त होने के बाद 1858 ई. में ब्रिटिश संसद ने एक क़ानून पारित कर ईस्ट इंडिया कम्पनी के अस्तित्व को समाप्त कर दिया, और अब भारत पर शासन का पूरा अधिकार महारानी विक्टोरिया के हाथों में आ गया। इंग्लैण्ड में 1858 ई. के अधिनियम के तहत एक ‘भारतीय राज्य सचिव’ की व्यवस्था की गयी, जिसकी सहायता के लिए 15 सदस्यों की एक ‘मंत्रणा परिषद्’ बनाई गयी। इन 15 सदस्यों में 8 की नियुक्ति सरकार द्वारा करने तथा 7 की ‘कोर्ट ऑफ़ हाइरेक्टर्स’ द्वारा चुनने की व्यवस्था की गई। ▪️स्थानीय लोगों को उनके गौरव एवं अधिकारों को पुनः वापस करने की बात कही गई। भारतीय नरेशों को महारानी विक्टोरिया ने अपनी ओर से समस्त संधियों के पालन करने का आश्वासन दिया, लेकिन साथ ही नरेशों से भी उसी प्रकार के पालन की आशा की। अपने राज्य क्षेत्र के विस्तार की अनिच्छा की अभिव्यक्ति के साथ-साथ उन्होंने अपने राज्य क्षेत्र अथवा अधिकारों का अतिक्रमण सहन न करने तथा दूसरों पर अतिक्रमण न करने की बात कही, और साथ ही धार्मिक शोषण खत्म करने एवं सेवाओं में बिना भेदभाव के नियुक्ति की बात की गयी। ▪️सैन्य पुनर्गठन के आधार पर यूरोपीय सैनिकों की संख्या को बढ़ाया गया। उच्च सैनिक पदों पर भारतीयों की नियुक्ति को बंद कर दिया गया। तोपखाने पर पूर्णरूप से अंग्रेज़ी सेना का अधिकार हो गया। अब बंगाल प्रेसीडेन्सी के लिए सेना में भारतीय और अंग्रेज़ सैनिकों का अनुपात 2:1 का हो गया, जबकि मद्रास और बम्बई प्रसीडेन्सियों में यह अनुपात 3:1 का हो गया। उच्च जाति के लोगों में से सैनिकों की भर्ती बन्द कर दी गयी। ▪️1858 ई. के अधिनियम के अन्तर्गत ही भारत में गवर्नर-जनरल के पदनाम में परिवर्ततन कर उसे ‘वायसराय’ का पदनाम दिया गया। ▪️क्रान्ति के विद्रोह के फलस्वरूप सामन्तवादी ढाँचा चरमरा गया। आम भारतीयों में सामन्तवादियों की छवि गद्दारों की हो गई, क्योंकि इस वर्ग ने विद्रोह को दबाने में अंग्रेज़ों को सहयोग दिया था। ▪️विद्रोह के परिणामस्वरूप भारतीयों में राष्ट्रीय एकता की भावना का विकास हुआ और हिन्दू-मुस्लिम एकता ने ज़ोर पकड़ना शुरू किया, जिसका कालान्तर में राष्ट्रीय आंदोलन में महत्त्वपूर्ण योगदान रहा। ▪️1857 ई. की क्रान्ति के बाद साम्राज्य विस्तार की नीति का तो ख़ात्मा हो गया, परन्तु इसके स्थान पर अब आर्थिक शोषण के युग का आरम्भ हुआ। ▪️भारतीयों के प्रशासन में प्रतिनिधित्व के क्षेत्र में अल्प प्रयास के अन्तर्गत 1861 ई. में ‘भारतीय परिषद् अधिनियम’ को पारित किया गया। ▪️इसके अतिरिक्त ईसाई धर्म के प्रचार-प्रसार में कमी, श्वेत जाति की उच्चता के सिद्धान्त का प्रतिपादन और मुग़ल साम्राज्य के अस्तित्व का ख़त्म होना आदि 1857 ई. के विद्रोह के अन्य परिणाम थे। [01/12, 8:26 AM] Raj Kumar: #मध्यकालीन_भारत_का_इतिहास : #मराठा_साम्राज्य_1674_1818_ई. मराठा राज्य का निर्माण एक क्रान्तिकारी घटना है। विजयनगर के उत्थान से भारतीय राजनीति में एक महत्वपूर्ण तत्व आया था। मराठा संघ एवं मराठा साम्राज्य एक भारतीय शक्ति थी जिन्होंने 18 वी शताब्दी में भारतीय उपमहाद्वीप पर अपना प्रभुत्व जमाया हुआ था। इस साम्राज्य की शुरुआत सामान्यतः 1674 में छत्रपति शिवाजी महाराज के राज्याभिषेक के साथ हुई और इसका अंत 1818 में पेशवा बाजीराव द्वितीय की हार के साथ हुआ। भारत में मुग़ल साम्राज्य को समाप्त करने के ज्यादातर श्रेय मराठा साम्राज्य को ही दिया जाता है। #छत्रपति_शिवाजी शिवाजी का जन्म पूना के निकट शिवनेर के किले में 20 अप्रैल, 1627 को हुआ था। शिवाजी शाहजी भोंसले और जीजाबाई के पुत्र थे। शिवाजी को मराठा साम्राज्य का संस्थापक कहा जाता है। शिवाजी महाराज ने बीजापुर सल्तनत से मराठा लोगो को रिहा करने का बीड़ा उठा रखा था और मुगलों की कैद से उन्होंने लाखो मराठाओ को आज़ादी दिलवाई। इसके बाद उन्होंने धीरे-धीरे मुग़ल साम्राज्य को ख़त्म करना शुरू किया और हिंदवी स्वराज्य की स्थापना करने लगे। 1656 ई. में रायगढ़ को उन्होंने अपने साम्राज्य की राजधानी घोषित की और एक आज़ाद मराठा साम्राज्य की स्थापना की। इसके बाद अपने साम्राज्य को मुग़ल से बचाने के लिए वे लगातार लड़ते रहे। और अपने राज्य के विस्तार का आरंभ 1643 ई. में बीजापुर के सिंहगढ़ किले को जीतकर किया। इसके पश्चात 1646 ई. में तोरण के किले पर भी शिवाजी ने अपना अधिपत्य स्थापित कर लिया। शिवाजी की शक्ति को दबाने के लिए बीजापुर के शासक ने सरदार अफजल खां को भेजा। शिवाजी ने 1659 ई. में अफजल खां को पराजित कर उसकी हत्या कर दी। शिवाजी की बढती शक्ति से घबराकर औरंगजेब ने शाइस्ता खां को दक्षिण का गवर्नर नियुक्त किया। शिवाजी ने 1663 ई. में शाइस्ता खां को पराजित किया। जयसिंह के नेतृत्व में पुरंदर के किले पर मुगलों की विजय तथा रायगढ़ की घेराबंदी के बाद जून 1665 में मुगलों और शिवाजी के बीच पुरंदर की संधि हुई। 1670 ई. में शिवाजी ने मुगलों के विरुद्ध अभियान छेड़कर पुरंदर की संधि द्वारा खोये हुए किले को पुनः जीत लिया। 1670 ई. में ही शिवाजी ने सूरत को लूटा तथा मुगलों से चौथ की मांग की। 1674 में स्थापित नव मराठा साम्राज्य के छत्रपति के रूप में उनका राज्याभिषेक किया गया। अपने राज्याभिषेक के बाद शिवाजी का अंतिम महत्वपूर्ण अभियान 1676 ई. में कर्नाटक अभियान था। 12 अप्रैल, 1680 को शिवाजी की मृत्यु हो गई। उनकी मृत्यु के समय उन्होंने 300 किले साथ, तक़रीबन 40,000 की घुड़सवार सेना और 50000 पैदल सैनिको की फ़ौज बना रखी थी और साथ पश्चिमी समुद्री तट तक एक विशाल नौसेना का प्रतिष्ठान भी कर रखा था। समय के साथ-साथ इस साम्राज्य का विस्तार भी होता गया और इसी के साथ इसके शासक भी बदलते गये, शिवाजी महाराज के बाद उनके पोतो ने मराठा साम्राज्य को संभाला और फिर उनके बाद 18 वी शताब्दी के शुरू में पेशवा मराठा साम्राज्य को सँभालने लगे। #शंभाजी (1680 ई. से 1689 ई.) शिवाजी महाराज के दो बेटे थे : संभाजी और राजाराम। संभाजी महाराज उनका बड़ा बेटा था, जो दरबारियों के बीच काफी प्रसिद्ध था। 1681 में संभाजी महाराज ने मराठा साम्राज्य का ताज पहना और अपने पिता की नीतियों को अपनाकर वे उन्ही की राह में आगे चल पड़े। संभाजी महाराज ने शुरू में ही पुर्तगाल और मैसूर के चिक्का देवा राया को पराजित कर दिया था। इसके बाद किसी भी राजपूत-मराठा गठबंधन को हटाने के लिए 1681 में औरंगजेब ने खुद दक्षिण की कमान अपने हात में ले ली। अपने महान दरबार और 5,000,00 की विशाल सेना के साथ उन्होंने मराठा साम्राज्य के विस्तार की शुरुआत की और बीजापुर और गोलकोंडा की सल्तनत पर भी मराठा साम्राज्य का ध्वज लहराया। अपने 8 साल के शासनकाल में उन्होंने मराठाओ को औरंगजेब के खिलाफ एक भी युद्ध या गढ़ हारने नही दिया। 1689 के आस-पास संभाजी महाराज ने अपने सहकारियो को रणनीतिक बैठक के लिए संगमेश्वर में आमंत्रित किया, ताकि मुग़ल साम्राज्य को हमेशा के लिए हटा सके। लेकिन गनोजी शिर्के और औरंगजेब के कमांडर मुकर्रब खान ने संगमेश्वर में जब संभाजी महाराज बहुत कम लोगो के साथ होंगे तब आक्रमण करने की बारीकी से योजना बन रखी थी। इससे पहले औरंगजेब कभी भी संभाजी महाराज को पकड़ने में सफल नही हुआ था। लेकिन इस बार अंततः उसे सफलता मिल ही गयी और 1 फरवरी 1689 को उन्होंने संगमेश्वर में आक्रमण कर मुग़ल सेना ने संभाजी महाराज को कैदी बना लिया। उनके और उनके सलाहकार कविकलाश को बहादुरगढ़ ले जाया गया, जहाँ औरंगजेब ने मुग़लों के खिलाफ विद्रोह करने के लिए मार डाला। 11 मार्च 1689 को उन्होंने संभाजी महाराज को मार दिया था। #राजाराम (1689 ई. से 1700 ई.) शंभाजी की मृत्यु के बाद राजाराम को मराठा साम्राज्य का छत्रपति घोषित किया गया। राजाराम मुग़लोँ के आक्रमण के भय से अपनी राजधानी रायगढ़ से जिंजी ले गया। 1698 तक जिंजी मुगलोँ के विरुद्ध मराठा गतिविधियो का केंद्र रहा। 1699 में सतारा, मराठों की राजधानी बना। राजाराम स्वयं को शंभाजी के पुत्र शाहू का प्रतिनिधि मानकर गद्दी पर कभी नहीँ बैठा। राजा राम के नेतृत्व में मराठों ने मुगलोँ के विरुद्ध स्वतंत्रता के लिए अभियान शुरु किया जो 1700 ई. तक चलता रहा। राजा राम की मृत्यु के बाद 1700 ई. में उसकी विधवा पत्नी तारा बाई ने अपने चार वर्षीय पुत्र शिवाजी द्वितीय को गद्दी पर बैठाया और मुगलो के विरुद्ध संघर्ष जारी रखा। #शिवाजी_द्वितीय (1700 ई. से 1707 ई.) राजाराम की विधवा पत्नी तारा बाई ने अपने चार वर्षीय पुत्र शिवाजी द्वितीय को गद्दी पर बैठाया और मुगलो के विरुद्ध संघर्ष जारी रखा। उन्होंने ही कुछ समय तक मुग़लों के खिलाफ मराठा साम्राज्य की कमान संभाली और 1705 से उन्होंने नर्मदा नदी भी पार कर दी और मालवा में प्रवेश कर लिया, ताकि मुग़ल साम्राज्य पर अपना प्रभुत्व जमा सके। #छत्रपति_शाहू_महाराज (1707 ई. से ) 1707 में औरंगजेब की मृत्यु के बाद, संभाजी महाराज के बेटे (शिवाजी के पोते) को मराठा साम्राज्य के नए शासक बहादुर शाह प्रथम को रिहा कर दिया लेकिन उन्हें इस परिस्थिति में ही रिहा किया गया था की वे मुग़ल कानून का पालन करेंगे। रिहा होते ही शाहू ने तुरंत मराठा सिंहासन की मांग की और अपनी चाची ताराबाई और उनके बेटे को चुनौती दी। इसके चलते एक और मुग़ल-मराठा युद्ध की शुरुआत हो गयी। 1707 में सतारा और कोल्हापुर राज्य की स्थापना की गयी क्योकि उत्तराधिकारी के चलते मराठा साम्राज्य में ही वाद-विवाद होने लगे थे। लेकिन अंत में शाहू को ही मराठा साम्राज्य का नया छत्रपति बनाया गया। लेकिन उनकी माता अभी भी मुग़लों के ही कब्जे में थी लेकिन अंततः जब मराठा साम्राज्य पूरी तरह से सशक्त हो गया तब शाहू अपनी माँ को भी रिहा करने में सफल हुए। शाहू ने 1713 ई. में बालाजी को पेशवा के पद पर नियुक्त किया। बालाजी विश्वनाथ की नियुक्ति के साथ ही पेशवा पद शक्तिशाली हो गया। छत्रपति नाममात्र का शासक रह गया। शाहू के शासनकाल में, रघुजी भोसले ने पूर्व (वर्तमान बंगाल) में मराठा साम्राज्य का विस्तार किया। सेनापति धाबडे ने पश्चिम में विस्तार किया। पेशवा बाजीराव और उनके तीन मुख्य पवार (धार), होलकर (इंदौर) और सिंधिया (ग्वालियर) ने उत्तर में विस्तार किया। ये सभी राज्य उस समय मराठा साम्राज्य का ही हिस्सा थे। #पेशवाओं_के_अधीन_मराठा_साम्राज्य इस युग में, पेशवा चित्पावन परिवार से संबंध रखते थे, जो मराठा सेनाओ का नियंत्रण करते थे और बाद में वही मराठा साम्राज्य के शासक बने। अपने शासनकाल में पेशवाओ ने भारतीय उपमहाद्वीप के ज्यादातर भागो पर अपना प्रभुत्व बनाए रखा था। #बालाजी_विश्वनाथ (1713 ई. से 1720 ई.) बालाजी विश्वनाथ एक ब्राहमण थे। बालाजी विश्वनाथ ने अपना राजनीतिक जीवन एक छोटे से राजस्व अधिकारी के रुप में शुरु किया था। 1713 में शाहू ने पेशवा बालाजी विश्वनाथ की नियुक्ती की थी। उसी समय से पेशवा का कार्यालय ही सुप्रीम बन गए और शाहूजी महाराज मुख्य व्यक्ति बने। उनकी पहली सबसे बड़ी उपलब्धि 1714 में कन्होजो अंग्रे के साथ लानावल की संधि का समापन करना थी, जो की पश्चिमी समुद्र तट के सबसे शक्तिशाली नौसेना मुखिया में से एक थे। बाद में वे मराठा में ही शामिल हो गये। 1719 में मराठाओ की सेना ने दिल्ली पर हल्ला बोला और डेक्कन के मुग़ल गवर्नर सईद हुसैन हाली के मुग़ल साम्राज्य को परास्त किया। तभी उस समय पहली बार मुग़ल साम्राज्य को अपनी कमजोर ताकत का अहसास हुआ। #बाजीराव_प्रथम (1720 ई. – 1740 ई.) बालाजी विश्वनाथ की 1720 में मृत्यु के बाद उसके पुत्र बाजीराव प्रथम को शाहू ने पेशवा नियुक्त किया। बाजीराव प्रथम के पेशवा काल में मराठा साम्राज्य की शक्ति चरमोत्कर्ष पर पहुँच गई। 1724 में शूकर खेड़ा के युद्ध में मराठोँ की मदद से निजाम-उल-मुल्क ने दक्कन में मुगल सूबेदार मुबारिज खान को परास्त कर एक स्वतंत्र राज्य की स्थापना की। निजाम-उल-मुल्क ने अपनी स्थिति मजबूत करने के बाद मराठोँ के विरुद्ध कार्रवाई शुरु कर दी। बाजीराव प्रथम ने 1728 में पालखेड़ा के युद्ध में निजाम-उल-मुल्क को पराजित किया। 1728 में ही निजाम-उल-मुल्क बाजीराव प्रथम के बीच एक मुंशी शिवगांव की संधि हुई जिसमे निजाम ने मराठोँ को चौथ एवं सरदेशमुखी देना स्वीकार किया। बाजीराव प्रथम ने शिवाजी की गुरिल्ला युद्ध प्रणाली को अपनाया। 1739 ई. में बाजीराव प्रथम ने पुर्तगालियों से सालसीट तथा बेसीन छीन लिया। बालाजी बाजीराव प्रथम ने ग्वालियर के सिंधिया, गायकवाड़, इंदौर के होलकर और नागपुर के भोंसले शासकों को सम्मिलित कर एक मराठा मंडल की स्थापना की। 1740 तक अपनी मृत्यु से पहले उन्होंने कुल 41 युद्ध में लढाई की और उनमे से वे एक भी युद्ध नही हारे। #बालाजी_बाजीराव (1740 ई. – 1761 ई.) बाजीराव प्रथम की मृत्यु के बाद बालाजी बाजीराव नया पेशवा बना। नाना साहेब के नाम से भी जाना जाता है। 1750 में रघुजी भोंसले की मध्यस्थता से राजाराम द्वितीय के मध्य संगौला की संधि हुई। इस संधि के द्वारा पेशवा मराठा साम्राज्य का वास्तविक प्रधान बन गया। छत्रपति नाममात्र का राजा रह गया। बालाजी बाजीराव पेशवा काल में पूना मराठा राजनीति का केंद्र हो गया। बालाजी बाजीराव के शासनकाल में 1761 ई. पानीपत का तृतीय युद्ध हुआ। यह युद्ध मराठों अहमद शाह अब्दाली के बीच हुआ। #पानीपत_का_तृतीय_युद्ध_दो_कारण – ▪️प्रथम नादिरशाह की भांति अहमद शाह अब्दाली भी भारत को लूटना चाहता था। ▪️दूसरा, मराठे हिंदू पद पादशाही की भावना से प्रेरित होकर दिल्ली पर अपना प्रभाव स्थापित करना चाहते थे। पानीपत के युद्ध में बालाजी बाजीराव ने अपने नाबालिग बेटे विश्वास राव के नेतृत्व में एक शक्तिशाली सेना भेजी किन्तु वास्तविक सेनापति विश्वास राव का चचेरा भाई सदाशिवराव भाऊ था। इस युद्ध में मराठोँ की पराजय हुई और विश्वास राव और सदाशिवराव सहित 28 हजार सैनिक मारे गए। #माधव_राव (1761 ई. – 1772 ई.) पानीपत के तीसरे युद्ध में मराठोँ की पराजय के बाद माधवराव पेशवा बनाया गया। माधवराव की सबसे बड़ी सफलता मालवा और बुंदेलखंड की विजय थी। माधव ने 1763 में उद्गीर के युद्ध में हैदराबाद के निजाम को पराजित किया। माधवराव और निजाम के बीच राक्षस भवन की संधि हुई। 1771 ई. में मैसूर के हैदर अली को पराजित कर उसे नजराना देने के लिए बाध्य किया। माधवराव ने रुहेलों, राजपूतों और जाटों को अधीन लाकर उत्तर भारत पर मराठोँ का वर्चस्व स्थापित किया। 1771 में माधवराव के शासनकाल में मराठों निर्वासित मुग़ल बादशाह शाहआलम को दिल्ली की गद्दी पर बैठाकर पेंशन भोगी बना दिया। नवंबर 1772 में माधवराव की छय रोग से मृत्यु हो गई। #नारायण_राव (1772 ई. – 1774 ई.) माधवराव की अपनी कोई संतान नहीँ थी। अतः माधवराव की मृत्यु के उपरांत उसके छोटे भाई नारायणराव पेशवा बना। नारायणराव का अपने चाचा राघोबा से गद्दी को लेकर लंबे समय तक संघर्ष चला जिसमें अंततः राघोबा ने 1774 में नारायणराव की हत्या कर दी। #माधव_नारायण (1774 ई. – 1796 ई.) 1774 ई. में पेशवा नारायणराव की हत्या के बाद उसके पुत्र माधवराव नारायण को पेशवा की गद्दी पर बैठाया गया। इसके समय में नाना फड़नवीस के नेतृत्व में एक काउंसिल ऑफ रीजेंसी का गठन किया गया था, जिसके हाथों में वास्तविक प्रशासन था। इसके काल में प्रथम आंग्ल–मराठा युद्ध हुआ। 17 मई 1782 को सालबाई की संधि द्वारा प्रथम आंग्ल मराठा युद्ध समाप्त हो गया। यह संधि ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी और मराठा साम्राज्य के बीच हुई थी। टीपू सुल्तान को 1792 में तथा हैदराबाद के निजाम को 1795 में परास्त करने के बाद मराठा शक्ति एक बार फिर पुनः स्थापित हो गई। #बाजीराव_द्वितीय (1796 ई. से- 1818 ई.) माधवराव नारायण की मृत्यु के बाद राघोबा का पुत्र बाजीराव द्वितीय पेशवा बना। इसकी अकुशल नीतियोँ के कारण मराठा संघ में आपसी मतभेद उत्पन्न हो गया। 1802 ई. बाजीराव द्वितीय के बेसीन की संधि के द्वारा अंग्रेजो की सहायक संधि स्वीकार कर लेने के बाद मराठोँ का आपसी विवाद पटल पर आ गया। सिंधिया तथा भोंसले ने अंग्रेजो के साथ की गई इस संधि का कड़ा विरोध किया। द्वितीय औरतृतीय आंग्ल मराठा युद्ध बाजीराव द्वितीय के शासन काल में हुआ। द्वितीय आंग्ल मराठा युद्ध में सिंधिया और भोंसले को पराजित कर अंग्रेजो ने सिंधिया और भोंसले को अलग-अलग संधि करने के लिए विवश किया। 1803 में अंग्रेजो और भोंसले के साथ देवगांव की संधि कर कटक और वर्धा नदी के पश्चिम का क्षेत्र ले लिया। अंग्रेजो ने 1803 में ही सिन्धयों से सुरजी-अर्जनगांव की संधि कर उसे गंगा तथा यमुना के क्षेत्र को ईस्ट इंडिया कंपनी को देने के लिए बाध्य किया। 1804 में अंग्रेजों तथा होलकर के बीच तृतीय आंग्ल-मराठा युद्ध हुआ, जिसमें पराजित होकर होलकर ने अंग्रेजो के साथ राजपुर पर घाट की संधि की। मराठा शक्ति का पतन 1817-1818 ई. में हो गया जब स्वयं पेशवा बाजीराव द्वितीय ने अपने को पूरी तरह अंग्रेजो के अधीन कर लिया। बाजीराव द्वितीय द्वारा पूना प्रदेश को अंग्रेजी राज्य में विलय कर पेशवा पद को समाप्त कर दिया गया। [01/12, 8:26 AM] Raj Kumar: #आधुनिक_भारत_का_इतिहास : #व्यपगत_सिद्धांत_या_लार्ड_डलहौजी_की_राज्य #हड़प_नीति व्यपगत सिद्धांत या लार्ड डलहौजी की राज्य हड़प नीति या गोद प्रथा निषेध की नीति : व्यपगत सिद्धांत जिसे लार्ड डलहौजी की राज्य हड़प नीति या गोद प्रथा निषेध की नीति के नाम से भी जाना जाता है। इस निति का दुरप्रयोग कर अंग्रेजों ने भारतीय राज्यों और रियासतों को अपने अधीन किया था। वर्ष 1848 में लार्ड डलहौजी भारत का गवर्नर जनरल बनकर आया। लार्ड वेलेजली के बाद डलहौजी ही अगला महत्वपूर्ण गवर्नर जनरल था। इसे इसकी साम्राज्यवादी नीतियों के लिए याद किया जाता है। गवर्नर जनरल बनते ही उसने अंग्रेजी साम्राज्य की सीमाओं का विस्तार शुरू कर दिया। इसके लिए उसने मुख्यतः तीन नीतियां बनाई #युद्ध_की_नीति- युद्ध कर अपने सीमाओं का विस्तार करना। #कुप्रशासन_की_नीति- अपने सहयोगी राज्यों पर कुप्रशासन का आरोप लगाकर उन्हें अधीग्रहित कर लेना। #व्यपगत_का_सिद्धांत- उत्तराधिकारी न होने पर राज्य को अधीग्रहित करना। डलहौजी ने भारत के सभी प्रदेशों को अंग्रेजी अधिकार के अन्तर्गत लाने का प्रयास किया। लार्ड डलहौजी की तीनों नीतियों में से सबसे महत्वपूर्ण नीति थी “व्यपगत का सिद्धांत” या “डलहौजी की राज्य हड़प की नीति” या “गोद प्रथा निषेध की नीति”। उसके कार्यकाल को भी इसी नीति के कारण अधिक याद किया जाता है। #व्यपगत_के_सिद्धांत_नीति_की_विशेषताएं ▪️इस नीति की सबसे प्रमुख विशेषता यह थी कि जिन शासकों का उत्तराधिकारी नहीं होता था वे पुत्र को गोद नहीं ले सकते थे। ▪️इस नीति को लागू करने के लिए डलहौजी ने सभी भारतीय राज्यों/रियासतों को तीन श्रेणियों में विभाजित किया। #पहली_श्रेणी (अधीनस्थ राज्य)- इस श्रेणी में वे राज्य थे जोकि प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से ब्रिटिश सरकार के सहयोग से असतित्तव में आए, और ये राज्य पूर्णतः कंपनी पर ही आश्रित थे। इन राज्यों के शासकों को निःसंतान होने पर अपने उत्तराधिकारी को गोद लेने का अधिकार नहीं था। शासक की मृत्यु के बाद राज्य सीधे अंग्रेजों के अधीन हो जाएगा। जैसे- झाँसी, जैतपुर, संभलपुर। #द्वितीय_श्रेणी (आश्रित राज्य)- इस श्रेणी में वे राज्य थे जोकि प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से ब्रिटिश सरकार के सहयोग से असतित्तव में आए थे परन्तु ये कंपनी के आधीन नहीं थे कैवल बाह्य सुरक्षा हेतु कंपनी पर आश्रित थे। पहली श्रेणी से इतर इन्हे उत्तराधिकारी को गोद लेने की छूट थी परन्तु पहले ब्रिटिश सरकार से इजाजत लेनी थी। जैसे- अवध, ग्वालियार, नागपुर। #तृतीय_श्रेणी (स्वतंत्र राज्य)- इस श्रेणी के राज्य को अपने उत्तराधिकारी को गोद लेने की पूर्ण स्वतंत्रता थी। जैसे- जयपुर, उदयपुर, सतारा। #व्यपगत_के_सिद्धांत_नीति_के_द्वारा_अधीग्रहित #किए_गए_प्रमुख_राज्य डलहौजी ने अपने व्यपगत के सिद्धांत का पालन पूरी कठोरता के साथ किया और कुछ ही समय में कई प्रदेशों और देशी रियासतों को अपने अधिकार में ले लिया। ▪️सतारा (महाराष्ट्र)- 1848, ▪️जैतपुर/ संभलपुर/ बुन्देलखण्ड/ओडीसा- 1849, ▪️बाघाट- 1850, ▪️उदयपुर- 1852, ▪️झाँसी- 1853, ▪️नागपुर- 1854, ▪️अवध- 1856 इन सभी में से सतारा (महाराष्ट्र), झाँसी, अवध और नागपुर महत्वपूर्ण है – #सतारा– सतारा इस नीति से प्रभावित होने वाला सबसे पहला राज्य बना। यहां के शासक का कोई भी पुत्र नहीं था अतः उसने ब्रिटिश सरकार से पत्र के द्वारा अपने गोद लिए पुत्र मान्यता के लिए आग्रह किया परन्तु डलहौजी ने इसे अस्वीकार कर दिया। 1848 में सतारा के अंतिम शासक की मृत्यु के बाद इसे अंग्रेजी राज्य के अन्तर्गत मिला दिया गया। #झाँसी- झाँसी की रानी का असली नाम “मनू बाई” था और उनके पति का नाम “गंगाधर राव” था। इनकी संतान की मृत्यु हो गई थी, इसलिए इन्होंने एक पुत्र को गोद लिया था। जिसका नाम दामोधर राव था। 1853 में गंगाधर राव की मृत्यु हो जाने के उपरान्त अंग्रेजों ने आक्रमण कर झाँसी को अपने अधिकार में लेने की कोशिश शुरू कर दी। इसका सामना रानी लक्ष्मी बाई ने बहुत ही बहदुरी के साथ किया परन्तु अंततः अंग्रेजों की विजय हुई और वर्ष 1853 में झाँसी को अधीग्रहित किया गया। #अवध- 1856 में अवध का नावब वाजिद अली शाह था। अंग्रेजों ने इसके बेटे को देश निकाला दे दिया गया था, और फिर बाद में कुप्रशासन का आरोप लगा कर अवध को हड़प लिया। #नागपुर- यहां के शासक राघो जी ने भी पत्र के द्वारा अपने गोद लिए पुत्र की मान्यता के लिए ब्रिटिश सरकार से अग्रह किया परन्तु उनकी मृत्यु तक कंपनी ने इस विषय में कोई भी निर्णय नहीं लिया। उनकी मृत्यु के बाद डलहौजी ने उनके दत्तक पुत्र को मान्यता देने से मना कर दिया और राज्य को अपनी अधीनता में ले लिया। #व्यपगत_सिद्धांत_नीति_की_आलोचना ▪️भारत में पहले से ही उत्तराधिकार के लिए निसंतान राजाओं द्वारा गोद प्रथा का प्रयोग किया जाता था। इस प्रथा की पहले से ही सामाजिक और राजनीतिक स्वीकृती थी। अतः अंग्रेजों द्वारा इस प्रथा का हनन करना सर्वथा गलत था। ▪️1825 में कंपनी ने ये स्वीकार किया था कि वे सभी हिन्दु मान्यताओं को मान्यता देगी। परन्तु एकाएक इस नीति द्वारा कंपनी अपनी बातों से मुकर गई और इस दमनकारी नीति को लागु कर दिया। ▪️जिस समय इस नीति को लागू किया गया उस समय भारत की सर्वोच्च शक्ति मुगल शासक थे। अतः इस प्रकार की कोई भी राष्ट्रव्यापी नीति लागू करने का अधिकार भी उन्हीं को था न कि किसी विदेशी कंपनी को। ▪️सतारा राज्य का अधिग्रहण इस नीति में दिए गए नियमों के अनुरूप भी गलत था। सतारा राज्य न तो ब्रिटिश सरकार के अन्तर्गत था और न ही उसके निर्माण में कंपनी का किसी प्रकार का कोई सहयोग रहा था। अतः वह एक स्वतंत्र राज्य की श्रेणी में था। लार्ड डलहौजी की इस नीति से कंपनी की साम्राज्यवादी सोच का पता चलता है। यह नीति स्वार्थ और अनैतिकता से भरी थी। इससे कंपनी को आर्थिक और राजनीतिक रूप से तो काफी फायदा पहुँचा, परन्तु भारतीयों में कंपनी के प्रति विद्रोह के बीज भी इस नीति ने ही बोए । जोकि आगे चलकर 1857 की क्रांति में सामने आये। [01/12, 8:26 AM] Raj Kumar: #प्राचीन_भारत_का_इतिहास : #मौर्य_राजवंश चौथी सदी BC में नन्दा के राजाओं ने मगध राजवंश पर शासन किया और यह राजवंश उत्तर का सबसे ताकतवर राज्य था | एक ब्राह्मण मंत्री चाणक्य जिसे कौटिल्य / विष्णुगुप्त ने नाम से भी जाना गया ने मौर्य परिवार से चन्द्रगुप्त नामक नवयुवक को प्रशिक्षण दिया | चन्द्रगुप्त ने अपने सेना का अपने आप संगठन किया और 322 BC में नन्दा का तख़्ता पलट दिया | अतः चन्द्रगुप्त मौर्य को मौर्य राजवंश का प्रथम राजा और संस्थापक माना जाता है| इसकी माता का नाम मुर था, इसीलिए इसे संस्कृत में मौर्य कहा जाता था जिसका अर्थ है मुर का बेटा और इसके राजवंश को मौर्य राजवंश कहा गया | #मगध_साम्राज्य_के_कुछ_महत्वपूर्ण_शासक : #चन्द्रगुप्त_मौर्य_322_से_298_BC विद्वानों के अनुसार चन्द्रगुप्त मौर्य केवल 25 वर्ष का था जब उसने नन्दा के राजा धाना नन्द को पराजित कर पाटलीपुत्र पर कब्जा कर लिया था | सबसे पहले इसने अपनी शक्तियाँ भारत गंगा के मैदानो में स्थापित की और बाद में वह पश्चिमी उत्तर की तरफ बढ़ गया | चन्द्रगुप्त ने शीघ्र ही पंजाब के पूरे प्रांत पर विजय प्राप्त की | सेल्यूकस निकेटर, अलेक्जेंडर के यूनानी अधिकारी ने उत्तर के दूरत्तम में कुछ जमीन पर अपनी पकड़ बना ली | अतः, चन्द्रगुप्त मौर्य को उसके खिलाफ एक लंबा युद्ध करना पड़ा और अंत में 305 BC के लगभग उसे हरा दिया और एक संधि पर हस्ताक्षर किए गए | इस संधि के अनुसार, सेल्यूकस निकेटर ने सिंधु के पार के क्षेत्र सौंपे – नामतः आरिया(हृदय), अर्कोजिया (कंधार ), गेड्रोसिया(बालूचिस्तान ) और परोपनिशे (काबुल) को मौर्य साम्राज्य को दे दिया गया और बदले में चन्द्रगुप्त ने सेल्यूकस को 500 हाथी भेंट स्वरूप दिये | सेल्यूकस ने अपनी पुत्री भी मौर्य राजकुमार को दे दी या यह माना जाता है कि चन्द्रगुप्त ने सेलेकुस की पुत्री ( यूनानी मकेदोनियन राजकुमारी ) से विवाह किया ताकि इस गठबंधन को पक्का कर ;लिया जाये |इस तरह उसने सिंधु प्रांत पर नियंत्रण पा लिया जिसका कुछ भाग अब आधुनिक अफगानिस्तान में है | बाद में चन्द्रगुप्त मौर्य मध्य भारत की तरफ चला गया और नर्मदा नदी के उत्तर प्रांत पर कब्ज़ा कर लिया | इस संधि के अलावा, सेल्यूकस ने मगस्थेनेस को चन्द्रगुप्त मौर्य और दैमकोस को बिन्दुसार के सभा में यूनानी दूत बनाकर भेजा | चन्द्रगुप्त ने अपने जीवन के अंत में जैन धर्म को अपना लिया और अपने पुत्र बिन्दुसार के लिए राजगद्दी छोड़ दी | बाद में चन्द्रगुप्त, भद्रबाहु के नेतृत्व में जैन संतों के साथ मैसूर के निकट स्रवना बेल्गोला चले गए और अपने आप को भूखा रखकर जैन प्रथा के अनुसार मृत्यु ( संथारा) प्राप्त की | #बिन्दुसार_297_से_272_BC चन्द्रगुप्त ने 25 साल तक शासन किया और उसके बाद इसने अपने पुत्र बिन्दुसार के लिए राजगद्दी छोड़ दी |बिन्दुसार को यूनानियों द्वारा “अमित्रघटा “ कहा गया जिसका मतलब “दुश्मनों का कातिल” होता है | कुछ विद्वानों के अनुसार, बिन्दुसार ने दक्कन को मैसूर तक जीता | तारानाथ एक तिब्बत भिक्षु ने यह पुष्टि की है कि बिन्दुसार ने दो समुद्रों के बीच की भूमि जिसमे 16 राज्य थे को जीत लिया था | संगम साहित्य के अनुसार मौर्य ने दूरतम दक्षिण तक हमला किया | अतः यह कहा जा सकता है कि मौर्य राजवंश का विस्तार मैसूर में दूर तक हुआ और इसलिए इसमे पूरे भारत को शामिल किया परंतु कलिंग के निकट के पास बेरोजगार परीक्षण और वन क्षेत्रों और चरम दक्षिण के राज्यों में एक छोटे से हिस्से को साम्राज्य से बाहर रखा गया | बिन्दुसार के सेलेकुड सीरिया के राजा अंटिओचूस I के साथ संबंध थे, जिसने डैमचुस को दूत बनाकर इसकी (बिन्दुसार) सभा में भेजा था | बिन्दुसार ने अंटिओचूस को मदिरा, सूखे अंजीरों और कुतर्की देनी चाही | सब कुछ भेज दिया गया पर कुतर्की को नहीं भेजा गया क्यूंकि यूनानी कानून के अनुसार कुतर्की भेजने पर प्रतिबंध था | बिन्दुसार ने एक धर्म संप्रदाय, आजीविकास में अपनी रुचि बनाए रखी | बिन्दुसार ने अपने पुत्र अशोक को उज्जयिनी का राज्यपाल नियुक्त कर दिया जिसने बाद में तक्षिला के विद्रोह को दबा दिया | #महान_अशोक_268_से_232_BC अशोक के शासन में मौर्य साम्राज्य चरम पर पहुंचा | पहली बार पूरे उपमहाद्वीप, दूरतम दक्षिण को छोड़कर, शाही नियंत्रण में थे | अशोक के राजगद्दी पर बैठने (273 BC ) और उसके वास्तविक राजतिलक (269 (BC ) के बीच चार साल का अंतराल था | अतः उपलबद्ध साक्ष्यों से यह पता चलता है कि बिन्दुसार की मृत्यु के बाद राजगद्दी के लिए संघर्ष हुआ था | हालांकि, अशोक का उत्तराधिकारी बनना एक विवाद था | अशोक के शासन की सबसे महत्वपूर्ण घटना उसका कलिंग के साथ 261 BC में विजयी युद्ध था | युद्ध के असली कारणो का कोई साक्ष्य मौजूद नहीं था परंतु दोनों तरफ भारी हुआ था | अशोक इन घावों से दुखी था और उसने खुद युद्ध के परिणामों का उल्लेख शिलालेख XIII में किया था | युद्ध के समाप्त होने के ठीक बाद मौर्य समाज से कलिंग को जोड़ लिया और आगे कोई भी युद्ध न करने का निश्चय किया | कलिंग युद्ध का एक अन्य सबसे महत्वपूर्ण परिणाम था अशोक का बौद्ध भिक्षु उपगुप्ता से प्रभावित होकर बौद्ध धर्म को अपना लेना | अशोक ने जबकि एक बड़ी और ताकतवर सेना को शांति और सत्ता के लिए बनाए रखा, उसने अपने दोस्ताना रिश्ते एशिया और यूरोपे के पार भी बनाए और बौद्ध धर्म के प्रचारक मंडलों को आर्थिक संरक्षण भी दिया | अशोक ने चोल और पाण्ड्य के राज्यों और यूनानी राजाओं द्वारा शासित पाँच प्रदेशों में धर्म प्रचारक मण्डल भेजे | इसने सीलोन और सुवर्णभूमि (बर्मा) और दक्षिण पूर्व एशिया के हिस्सों में भी धर्म प्रचारक मण्डल भेजे | महेंद्र , तिवरा/ तिवला ( केवल एक जिसका अभिलेखों में उल्लेख किया गया है ) कुनाल और तालुक अशोक के पुत्रों में विशिष्ट थे | इसकी दो पुत्रियाँ संघमित्रा और चारुमति थीं | #बाद_के_मौर्य_232_से_184_BC 232 BC में अशोक की मृत्यु के बाद मौर्य साम्राज्य दो भागों में विभाजित हो गया | ये दो भाग थे पूर्वी और पश्चिमी | अशोक के पुत्र कुणाल ने पश्चिमी भाग पर शासन किया जबकि पूर्वी भाग पर अशोक के पोते दसरथ ने शासन किया और बाद में समराती, सलिसुक, देवरमन, सतधनवान और अंत में बृहदरथ ने शासन किया | बृहदरथ, (अंतिम मौर्य शासक), की पुष्यमित्रा शुंग के द्वारा 184 BC में हत्या कर दी गई |पुष्यमित्रा शुंग ने बाद में शुंग राजवंश’ वंश की स्थापना की ‘| [01/12, 8:26 AM] Raj Kumar: #आधुनिक_भारत_का_इतिहास : #सहायक_संधि ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने हस्तक्षेप की नीति को प्रारंभ किया और और पूर्व में अपने अधीन किये गये शासकों के क्षेत्रों का प्रयोग अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं अर्थात भारतीय राज्यों को ब्रिटिश शक्ति के अधीन लाने के लिए किया| सहायक संधि हस्तक्षेप की नीति थी जिसका प्रयोग भारत के गवर्नर जनरल लॉर्ड वेलेजली (1798-1805 ई.) द्वारा भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की स्थापना के लिए किया गया| इस प्रणाली में यह कहा गया की प्रत्येक भारतीय शासक को अपने राज्य में ब्रिटिश सेना के रख-रखाव के लिए धन का भुगतान करना होगा और इसके बदले में ब्रिटिश उनकी उनके विरोधियों से सुरक्षा करेंगे |इस संधि ने ब्रिटिश साम्राज्य का अत्यधिक विस्तार किया | इसका सर्वप्रथम प्रयोग लॉर्ड वेलेजली द्वारा किया गया जिसने हस्तक्षेप की नीति को सहायक संधि के रूप में संस्थागत रूप प्रदान किया| उसने ऐसी लगभग सौ संधियों पर हस्ताक्षर के द्वारा नवाबों व निजामों को अपना सहायक बना लिया| इस प्रणाली के मुख्य बिंदु निम्नलिखित हैं- • सहायक संधि पर हस्ताक्षर करने वाले राज्यों को अपने राज्य में ब्रिटिश सेना की एक स्थायी रेजीमेंट को रखना पड़ता था और उसके रख-रखाव हेतु धन देना पड़ता था| • ब्रिटिशों की पूर्व अनुमति प्राप्त किये बगैर कोई भी भारतीय शासक किसी भी यूरोपीय को अपनी सेवा में नियुक्त नहीं नहीं कर सकता था| • भारतीय शासक गवर्नर जनरल से सलाह किये बगैर किसी भी दूसरे भारतीय शासक से कोई समझौता नहीं करेगा| #संधि_को_स्वीकार_करने_वाले_राज्य • सर्वप्रथम इस संधि पर हस्ताक्षर हैदराबाद के निज़ाम ने किये थे| 1798 ई. में निज़ाम के फ्रांसीसी संबंधों को समाप्त कर दिया और ब्रिटिश अनुमति के बिना वे मराठों से कोई संधि नहीं कर सकते थे| • मैसूर दूसरा राज्य था जिसने 1799 ई. में इस संधि पर हस्ताक्षर किये| • 1801 ई. में वेलेज़ली ने अवध के नवाब को इस संधि पर हस्ताक्षर करने के लिया बाध्य किया| • 1802 ई. में पेशवा बाजीराव द्वितीय भी अपने राज्य को इस संधि के तहत ले आये |बहुत से अन्य मराठा राज्यों,जैसे 1803 ई. में सिंधिया व भोसले ने भी इस संधि पर हस्ताक्षर किये| अंतिम मराठा संघ जैसे होल्कर ने भी इस संधि की शर्तों को स्वीकार कर लिया| #निष्कर्ष सहायक संधि वास्तव में किसी भी राज्य की संप्रुभता को छीनने वाला दस्तावेज था जिसके तहत राज्य को स्वयं अपनी रक्षा करने का, कूटनीतिक सम्बन्ध स्थापित करने का ,विदेशियों को नियुक्त करने का और यहाँ तक कि अपने पड़ोसी के साथ विवादों का समाधान करने का भी अधिकार प्राप्त नहीं था | [01/12, 8:26 AM] Raj Kumar: #मध्यकालीन_भारत_का_इतिहास #सिख_साम्राज्य_का_उदय सिखों के दसवें व अंतिम गुरू गोविंदसिंह(1675-1699) ने खालसा पंथ की स्थापना की और गुरू प्रथा को समाप्त कर पांचवे गुरु अर्जुन देव द्वारा स्थापित “गुरू ग्रंथ साहिब” को ही अगला गुरू बताया। गुरू गोविंद सिंह की हत्या गुल खां नामक पठान ने 07 अक्तूबर 1708 को की थी। मृत्यु से पूर्व इनके द्वारा बंदा सिंह बहादुर को एक हुकमनामा के साथ पंजाब भेजा। इस हुकमनामा में लिखा था कि आज से आपका (सिखों) नेता बंदा सिंह बहादुर होगा। #बंदा_सिंह_बहादुर ▪️बंदा सिंह बहादुर को सिखों का राजनैतिक गुरू भी कहा जाता है। ▪️बंदा सिंह बहादुर का जन्म कश्मीर में 27 अक्तूबर 1670 ई० में पूंछ जिले के राजोरी गाँव में हुआ था। ▪️बंदा सिंह बहादुर का वास्तविक नाम लक्ष्मण देव था। ▪️लक्ष्मण देव को बचपन से ही कुश्ती और शिकार आदि का शौक था। ▪️15 वर्ष की आयु में एक गर्भवती हिरन का उनके हाथों शिकार हो जाने से वह बहुत शोक में पड़ गये और इस घटना से अपना घर-बार छोड़ कर बैरागी हो गये। ▪️वह जानकी दास नामक एक बैरागी के शिष्य बने। अपना नाम बदल कर माधोदास कर लिया। ▪️कुछ समय पश्चात वह नांदेड क्षेत्र को चले गए जहाँ गोदावरी के तट पर उन्होंने एक आश्रम की स्थापना की। ▪️03 सितंबर 1708 को नांदेड में सिखों के दसवें गुरू गोविंद सिंह जी इस आश्रम में पधारे और उन्हें सिख बनाकर उनका नाम बंदा सिंह बहादुर रख दिया। ▪️गुरूगोविंद सिंह जी की मृत्यु के बाद उनकी इच्छानुरूप बंदा सिंह बहादुर पंजाब गए और सिखों के अगले नेता बने। ▪️बंदा सिंह बहादुर और उनकी फौज ने सबसे पहले सोनीपत और फिर कैथल पर हमला किया। ▪️12 मई 1710 को छोटे साहिबजादों (गुरू गोविंद सिंह के दोनों छोटे बेटे बाबा जोरावर सिंह व फतेह सिंह) को शहीद करने वाले वजीर खां की हत्या कर दी और सरहिंद पर कब्जा कर लिया। ▪️बंदा सिंह बहादुर का उद्देश्य पंजाब में सिख राज्य स्थापित करना था। इन्होंने लोहगढ़ को अपनी राजधानी बनाया। ▪️इन्होंने गुरूनानक और गुरू गोविंद सिंह के नाम के सिक्के भी चलवाये। ▪️मुगल बादशाह फारूख सियर की फौज ने अब्दुल समद खां के नेतृत्व में इन्हें गुरूदासपुर जिले के धारीवाल क्षेत्र के निकट गुरूदास नंगल गाँव में कई महीनों तक घेरे रखा। ▪️खाने-पीने की सामग्री के आभाव के कारण उन्होंने 07 दिसंबर 1715 को आत्मसमर्पण कर दिया। ▪️फरवरी 1716 को 794 सिखों के साथ बांदा सिंह बहादुर को दिल्ली लाया गया। ▪️जहां 5 मार्च से 13 मार्च तक रोज 100 सिखों को फांसी दी गयी। ▪️16 जून 1716 को फरूखसियर के आदेश पर बंदा सिंह तथा उनके मुख्य सैन्य अधिकारी के शरीर के टुकडे-टुकडे कर दिए गए। ▪️मरने से पूर्व बंदा सिंह बहादुर द्वारा किए गए कार्य – — कृषकों को बड़े जमींदारों की दासता से मुक्ति दिलाई। — इनके राज में मुसलमानों को पूर्ण धार्मिक स्वतंत्रता थी। — इनकी स्वंय की सेना में 5000 मुस्लिम सैनिक थे। #बंदा_सिंह_बहादुर_के_पश्चात_और_राजा_रणजीत #सिंह_से_पूर्व ▪️बंदा सिंह बहादुर के पश्चात अच्छे नेतृत्व की कमी के कारण सिख कई छोटे-छोटे टुकड़ों में बट गए। ▪️1748 में नवाब कर्तुर सिंह की पहल से सभी सिख टुकडियों का दल खालसा में विलय हुआ। ▪️इस दल खालसा का नेतृत्व जस्सा सिंह आहलुवालिया को सौंपा गया। ▪️बाद में इसे 12 दलों में विभाजित कर हर दल को मिसल(अरबी शब्द, अर्थ “बराबर”) कहा गया। ▪️सभी मिसल में से सबसे प्रमुख था सुकरचकिया। इसके मुखिया महारसिंह थे। महाराजा रणजीत सिंह का जन्म वर्ष 13 नवंबर 1780 में गुजरांवाला (वर्तमान पाकिस्तान) में इन्ही महासिंह के घर में हुआ था। #महाराजा_रणजीत_सिंह ▪️1798-1799 में रणजीत सिंह लाहौर के शासक बने 12-अप्रैल 1801 को रणजीत सिंह ने महाराजा की उपाधि धारण की। ▪️गुरूनानक देव जी के वंशज ने इनकी ताज पोशी की। ▪️इन्होंने लाहौर को अपनी राजधानी बनाया और 1802 में अमृतसर की ओर रूख किया। ▪️महाराजा रणजीत सिंह ने अफगानों के खिलाफ कई लड़ाई लड़ी और उन्हें पश्चिम पंजाब की ओर खदेड़ दिया। ▪️महाराजा रणजीत सिंह का राज्य सूबों में बटा हुआ था । जिसमें से प्रमुख सूबे थे- — पेशावर — कश्मीर — मुल्तान — लाहौर ▪️अंग्रेज सिखों के बड़ते राज्य से भयभीत थे तथा जिस कारण सिखों से संधि कर अपने क्षेत्रों को सुरक्षित करना चाहते थे। अमृतसर की संधि 25 अप्रैल 1809 को रणजीत सिंह और अंग्रेजी ईस्ट इण्डिया कंपनी के बीच हुई थी। — उस समय गवर्नर जनरल लार्ड मिन्टो था परन्तु संधि चार्ल्स मेटकाफ के नेतृत्व में हुई थी तथा संधि पर हस्ताक्षर भी चार्ल्स मेटकाफ के द्वारा ही किए गए । — इस संधि से सतलज के पूर्व का भाग अंग्रेजों के हाथों में आया तथा सतलज रणजीत सिंह के राज्य की पूर्वी सीमा बन गई। ▪️महाराजा रणजीत सिंह के दो प्रमुख मंत्री फ़कीर अजीजुद्दीन(विदेश मंत्री) एवं दीनानाथ(वित्त मंत्री) थे। ▪️शाहशूजा जोकि एक अफगानी अमीर था, दोस्त मुहम्मद से हारकर कश्मीर में पनाह लेकर रह रहा था को कश्मीर के सूबेदार आत्ममुहम्मद ने शेरगढ़ के किले में बंदी बना रखा था। ▪️कोहिनूर हीरा, महाराजा रणजीत सिंह को इसी शाहशूजा को रिहा कराने के ऐवज में शाहशूजा की पत्नी वफा बेगम द्वारा दिया गया था। ▪️27 जून 1839 में महाराजा रणजीत सिंह की मृत्यु हो गयी। ▪️रणजीत सिंह के उत्तराधिकारियों में तीन पुत्र मुख्य थे- — महाराजा खड़ग सिंह (1839-1840) — महाराजा शेर सिंह (1841-1843) — महाराजा दिलीप सिंह (1843-1849) #महाराजा_दिलीप_सिंह ▪️महाराजा दिलीप सिंह का जन्म 1838 ई0 में हुआ था। ▪️1843 ई0 में बहुत कम उम्र होने के कारण महाराजा दिलीप सिंह की माता जींद कौर को उनका संरक्षक बनाकर राज्य सौंपा गया। ▪️अंग्रेजी सरकार इस स्थिति का फायदा उठाना चाहती थी। इसके साथ ही महारानी जींद कौर ने ताकतवर सिख सेना के बल पर अंग्रेजों को कमजोर आकने की गलती कर बैठी और सिख साम्राज्य का विस्तार करने का हुक्म दे दिया। ▪️जींद कौर के इस फैसले से अंग्रेजों को मौका मिल गया और 1845 में प्रथम आंग्ल-सिख युद्ध प्रारम्भ हो गया। ▪️दिलीप सिंह के समय पर ही दोनों आंग्ल-सिख युद्ध हुए थे।

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