Wednesday, February 24, 2021

भारतीय_राजव्यवस्था_एवं_शासन : #योजना_आयोग

भारतीय_राजव्यवस्था_एवं_शासन : #योजना_आयोग योजना आयोग भारत सरकार की प्रमुख स्वतंत्र संस्थाओं में से एक था । भारत में योजना आयोग के संबंध में कोई संवैधानिक प्रावधान नहीं है। 15 मार्च 1950 को केंद्रीय मंत्रिमंडल द्वारा पारित प्रस्ताव के द्वारा योजना की स्थापना की गई थी। इसका मुख्य कार्य 'पंचवर्षीय योजनाएँ' बनाना था । इस आयोग की स्थापना 15 मार्च, 1950 को की गई थी। इस आयोग की बैठकों की अध्यक्षता प्रधानमंत्री ही करता था। #योजना_आयोग_का_गठन : योजना आयोग के पदेन अध्यक्ष प्रधानमंत्री होते थे । इसके बाद आयोग का उपाध्यक्ष संस्था के कामकाज को मुख्य रूप से देखता था। मा.नरेंद्र मोदी की सरकार बनने तक योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया थे, जिन्होंने बाद में इस्तीफ़ा दे दिया। कुछ महत्त्वपूर्ण विभागों के कैबिनेट मंत्री आयोग के अस्थायी सदस्य होते हैं, जबकि स्थायी सदस्यों में अर्थशास्त्री, उद्योगपति, वैज्ञानिक एवं सामान्य प्रशासन जैसे विभिन्न क्षेत्रों के विशेषज्ञ शामिल होते थे । ये विशेषज्ञ विभिन्न विषयों पर अपनी राय सरकार को देते थे । आयोग अपने विभिन्न प्रभागों के माध्यम से कार्य करता था । #आयोग_के_उपाध्यक्ष : अब तक आयोग के उपाध्यक्ष का पद निम्नलिखित लोगों ने संभाला- गुलजारीलाल नंदा, टी. कृष्णमाचारी, सी. सुब्रह्मण्यम, पी. एन. हक्सर, मनमोहन सिंह, प्रणब मुखर्जी, के. सी. पंत, जसवंत सिंह, मधु दंडवते, मोहन धारिया और आर. के. हेगड़े आदि । सन 1950 में एक संकल्प द्वारा योजना आयोग की स्थापना के समय इसके कार्यों को इस प्रकार परिभाषित किया गया- ▪️देश में उपलब्ध तकनीकी कर्मचारियों सहित सामग्री, पंजी और मानव संसाधनों का आकलन और राष्ट्र की आवश्यकताओं के अनुरूप इन संसाधनों की कमी को दूर करने हेतु उन्हें बढ़ाने की सम्भावनाओं का पता लगाना। ▪️देश के संसाधनों के सर्वाधिक प्रभावी तथा संतुलित उपयोग के लिए योजना बनाना। ▪️प्राथमिकताएँ निर्धारित करते ऐसे क्रमों को परिभाषित करना, जिनके अनुसार योजना को कार्यान्वित किया जाये और प्रत्येक क्रम को यथोचित पूरा करने के लिए संसाधन आवंटित करने का प्रस्ताव रखना। ▪️ऐसे कारकों के बारे में बताना, जो आर्थिक विकास में बाधक हैं और वर्तमान सामाजिक तथा राजनीतिक स्थिति के दृष्टिगत ऐसी परिस्थितियाँ पैदा करने की जानकारी देना, जिनसे योजना को सफलतापूर्वक निष्पादित किया जा सके। ▪️इस प्रकार के तंत्र का निर्धारण करना, जो योजना के प्रत्येक पहलू को एक चरण में कार्यान्वित करने हेतु ज़रूरी हो। ▪️योजना के प्रत्येक चरण में हुई प्रगति का समय-समय पर मूल्यांकन और उस नीति तथा उपायों के समायोजना की सिफारिश करना जो मूल्यांकन के दौरान ज़रूरी समझे जाएँ। ▪️ऐसी अंतरिम या अनुषंगी सिफारिशें करना, जो उसे सौंपे गए कर्तव्यों को पूरा करने के लिए उचित हों अथवा वर्तमान आर्थिक परिस्थितियों, चालू नीतियों उपायों और विकास कार्यक्रमों पर विचार करते हुए अथवा परामर्श के लिए केंद्रीय या राज्य सरकारों द्वारा उसे सौंपी गई विशिष्ट समस्याओं की जाँच के बाद उचित लगती हों। उल्लेखनीय है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2014 में अपने पहले स्वतंत्र दिवस के भाषण में यह कहा कि उनका इरादा योजना कमीशन को भंग करना है। 2014 में इस संस्था का नाम बदलकर नीति आयोग (राष्‍ट्रीय भारत परिवर्तन संस्‍थान) किया गया और परिणामस्वरूप 1 जनवरी 2015 को नीति आयोग का जन्म हुआ। [01/12, 8:26 AM] Raj Kumar: #आधुनिक_भारत_का_इतिहास : #प्रांतीय_चुनाव_और_मंत्रिमंडल_का_गठन [ 1937 ] ब्रिटिश सरकार द्वारा भारतीय जनता पर किए जा रहे सख्त नियंत्रण को कमजोर करने के लिए विभिन्न प्रकार के प्रयास और आंदोलन किए गए थे। इनमें से कुछ प्रयास कुछ देर सफल भी रहे जिनमें गांधी जी द्वारा चलाये गए नमक आंदोलन या सविनय अवज्ञा आंदोलन। लेकिन इन आंदोलनों की उम्र 2-3 वर्ष थी। इसके बाद इनका असर जनता पर खत्म होने लगा। इसके बाद उस समय की सबसे प्रभावशाली राजनैतिक पार्टी कांग्रेस ने एक दूसरा रास्ता अपनाने का प्रयास किया। यह रास्ता था संवैधानिक सुधारो और प्रयासों का जिसके माध्यम से यह दिखाने का प्रयास किया गया कि भारतीय जनता अपना शासन स्वयं निर्मित भी कर सकती है और नियंत्रित भी कर सकती है। आइए जानते हैं प्रांतीय चुनाव और मत्रिमंडल के गठन के बारे में विस्तार से - #चुनावी_बिगुल : 1936 में लखनऊ अधिवेशन में कांग्रेस द्वारा प्रांतीय चुनाव में हिस्सा लेना का निर्णय लिया गया । इस सभा में डॉ रजेंदर प्रसाद और वल्लभभाई पटेल ने गांधी जी की अव्यक्त सहमति से चुनावी दंगल के माध्यम से ब्रितानी सरकार का सामना करने का निश्चय किया। इसके साथ ही यह निर्णय भी लिया गया कि जब तक चुनाव पूरी तरह समाप्त न हो जाएँ, तब सत्ता की भागीदारी पर कोई भी विचार नहीं किया जाएगा। इसके साथ ही भारत में चुनाव की तैयारियां शुरू कर दी गईं। इसके साथ ही कांग्रेस ने 1935 के अधिनियम के अंतर्गत विधानसभा के चुनाव भी लड़ने का फैसला किया । भारत के 11 प्रांत जिनमें मद्रास, आसाम, बिहार, संघीय प्रांत, बंबई, बंगाल, उत्तर प्रदेश के सीमांत प्रांत, पंजाब, मध्य प्रांत, सिंध, और उड़ीसा आदि शामिल थे में कांग्रेस ने चुनाव लड़ा और जीत का झण्डा लहरा दिया। #कांग्रेस_का_इनामी_परिणाम: भारतीय संविधान अधिनियम 1935 के अंतर्गत ब्रिटिश अधीन भारत में पहली बार चुनाव करवाए गए और इसमें बड़ी संख्या में जनता ने खुशी से हिसा लिया। इस खुशी में भारत की लगभग 30.1 लाख लोगों ने जिसमें 15.5 लाख महिलाएं थीं, पहली बार वोट डालने के अपने अधिकार का इस्तेमाल किया। कुल 1585 सीटों में से कॉंग्रेस ने 707 सीट जीत कर भारतीय संसद में अपनी पहुँच सिद्ध कर दी। इसके साथ ही मुस्लिम लीग ने भी 106 सीटें जीत कर अपनी पहुँच को भी बरकरार रखा। इस चुनावी परिणाम से मुस्लिम लीग को थोड़ी हताशा भी हुई क्योंकि भारत के अनेक मुस्लिम बहुत क्षेत्रों में भी उसे हार का मुंह देखना पड़ा, जो उनकी उम्मीदों से परे था। इस चोट के मलहम के रूप में लीग ने कांग्रेस के सामने के प्रस्ताव रखा। जिसके अनुसार वे मंत्रिमंडल में तभी कांग्रेस को सहयोग देंगे जब कांग्रेस अपनी ओर से किसी भी मुस्लिम प्रतिनिधि को नियुक्त नहीं करेगी। कांग्रेस ने इस प्रस्ताव को नकार दिया और लीग ने कांग्रेस के सहयोग से हाथ खींच लिया। चुनाव में इन दोनों दिग्गजों के अलावा एक छोटी पार्टी और थी जिसने अपना खाता खोल दिया था। यह पार्टी थी यूनिनियस्ट (पंजाब) जिसने कुल सीटों में से 5% की सीटें जीत ली थीं। #मंत्रिमंडल_का_गठन : चुनावी मैदान में जीत कर कांग्रेस ने 1937 की जुलाई में भारत के छह प्रान्तों बम्बई, मद्रास, मध्य भारत, उड़ीसा, बिहार और संयुक्त प्रांत में अपने प्रतिनिधियों के द्वारा मंत्रिमंडल का गठन कर दिया। इसके कुछ समय बाद कांग्रेस की इस सूची में असम और पश्च्मिओत्तर प्रांत भी जुड़ गए। इस मंत्रिमंडल ने गांधी जी की उस सलाह को आत्मसात किया हुआ था जिसमें उन्होनें कहा था कि ब्रिटिश सरकार के बनाए हुए 1935 के अधिनियम को उनकी मर्ज़ी के अनुसार नहीं बल्कि राष्ट्रवादी लक्ष्य की पूर्ति के लिए इस्तेमाल करना है। इसके लिए अधिनियम की शक्तियों का उपयोग जनता के हितों के लिए किया जाएगा। हालांकि चुने हुए जनता के प्रतिनिधियों के पास अधिकार और वित्तीय संसाधन भी सीमित थे। #मंत्रिमंडल_के_लिए_निर्णय” कांग्रेस के चुनाव जीत कर संसद में आने से एक नयी समिति बनाई गई जिसे संसदीय समिति का नाम दिया गया। इस समिति में वल्लभ भाई पटेल, मौलाना अबुल कलाम आजाद और डॉ राजेन्द्र प्रसाद थे। कांग्रेस के जीते हुए सभी प्रान्तों के प्रमुख को प्रधानमंत्री नाम दिया गया था। इस समिति और कांग्रेस के मिले जुले कार्य और निर्णय प्रमुख रूप से जनता के हितों में थे। इन निर्णयों का उद्देश्य नागरिक आज़ादी, कृषि सुधार, जन-शिक्षा को प्रोत्साहन, सार्वजनिक न्याय व्यवस्था को सुदृढ़ करने के लिए कांग्रेस पुलिस स्टेशन की स्थापना और लोक शिकायतों को सरकार के सम्मुख प्रस्तुत करके उनका हल निकलवाना था। इसके लिए कांग्रेस मंत्रिमंडल द्वारा लिए गए निर्णयों में से कुछ इस प्रकार थे : ▪️किसानों को साहूकारों के कब्जे से छुटाने के लिए विभिन्न प्रकार के बिल पारित किए गए जिनसे किसानों और काश्तकारों की बुनियादी जरूरतें पूरी करने में मदद मिली। इसके अलावा पशुओं के चरागाह के रूप में जंगली जमीन उपलब्ध करवाना, भू-राजस्व की दरों में कमी और नज़राना व बेगारी को भी खत्म करने के प्रयास किए गए। ▪️बंबई में कपड़ा मिलों और कपड़ा मजदूरों की अवस्था में सुधार करने के लिए 1938 में औध्योगिक विवाद अधिनियम भी प्रस्तुत किया गया। ▪️गांवों में रहने वाले लोगों की बुनियादी आवशयकताएँ जैसे शिक्षा और स्वास्थ्य संबंधी कार्यों के लिए विशेष कार्यक्रम शुरू किए गए। ▪️बंबई में जिन लोगों ने सविनय अवज्ञा आंदोलन में योगदान के रूप में अपनी ज़मीन दान दी थी, उन्हें वह ज़मीन वापस कर दी गई। ▪️भारतीय प्रेस पर लगाए गए सभी आरोप वापस कर दिये गए। #कांग्रेस_का_मूल्यांकन : 1937 में चुन कर आई कांग्रेस सरकार का कार्यकाल लगभग 28 माह तक रहा। इस अवधि में उनके द्वारा किए कार्यों का मूल्यांकन करने से पता चलता है कि : ▪️चुना गया कांग्रेसी मंत्रिमंडल यह सिद्ध कर सका कि भारतीय जनता अपना शासन स्वयं बिना किसी बाहरी सहायता के चला सकती है। ▪️ब्रिटिश सरकार के अफसरों के मानसिक बलों में भारी कमी आई। ▪️जमींदारी प्रथा को समाप्त करने में कांग्रेसी मंत्रिमंडल बहुत हद तक सफल रहा। ▪️चुनाव और मंत्रिमंडल के कार्यों से भारतीय जनता को लंबे समय बाद अपने हाथों ही अपने शासन का स्वाद चखने को मिला। ▪️सम्पूर्ण प्रान्तों के मंत्रिमंडल ने यह सिद्ध कर दिया कि भारत के सम्पूर्ण विकास के लिए सामाजिक, राजनैतिक और सांस्कृतिक विकास का किया जाना बहुत जरूरी है। सम्पूर्ण विश्व पर द्वितीय विश्व युद्ध के संकट के कारण भारतीय मंत्रिमंडल को भी त्यागपत्र देकर पुनः ब्रिटिश सरकार के हाथों शासन को सौंपना पड़ा। [01/12, 8:26 AM] Raj Kumar: #भारतीय_राजव्यवस्था_एवं_शासन : #वित्त_आयोग भारतीय संविधान के अनुच्छेद 280 के अंतर्गत अर्द्ध न्यायिक निकाय के रूप में वित्त आयोग का प्रावधान किया गया है । इसका गठन राष्ट्रपति द्वारा हर पांचवें वर्ष या आवश्यकतानुसार उससे पहले किया जाता है। #गठन : ▪️वित्त आयोग में एक अध्यक्ष और 4 अन्य सदस्य होते हैं, जिनकी नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है । उनका कार्यकाल राष्ट्रपति के आदेश के तहत तय होता है उनकी पुनः नियुक्ति भी हो सकती है । ▪️संविधान ने संसद को इन सदस्यों की योग्यता और चयन विधि का निर्धारण करने का अधिकार दिया है । इसी के तहत संसद ने आयोग के अध्यक्ष एवं सदस्यों की विशेष योग्यताओं का निर्धारण किया है। अध्यक्ष को सार्वजनिक मामलों का अनुभव होना चाहिए और अन्य चार सदस्यों को निम्नलिखित में से चुना जाना चाहिए - ▪️किसी उच्च न्यायालय का न्यायाधीश या इस पद के लिए योग्य व्यक्ति, ▪️ऐसा व्यक्ति जिसे भारत की लेखा एवं वित्त मामलों का विशेष ज्ञान हो, ▪️ऐसा व्यक्ति जिसे प्रशासन और वित्तीय मामलों का व्यापक अनुभव हो, ▪️ऐसा व्यक्ति जो अर्थशास्त्र का विशेष ज्ञाता हो । #कार्य : वित आयोग भारत के राष्ट्रपति को निम्नांकित मामलों पर सिफारिश करता है- ▪️संघ और राज्यों के बीच करों कि शुद्ध आगमों का वितरण और राज्यों के बीच ऐसे आगमों का आवंटन, ▪️भारत की संचित निधि में से राज्यों के राजस्व में सहायता अनुदान को शासित करने वाले सिद्धांत, ▪️राज्य वित्त आयोग द्वारा की गई सिफारिशों के आधार पर राज्य में नगर पालिकाओं और पंचायतों के संसाधनों की अनुपूर्ति के लिए राज्य की संचित निधि के संवर्धन के लिए आवश्यक उपाय, ▪️राष्ट्रपति द्वारा आयोग को सुदृढ़ वित्त के हित में निर्दिष्ट कोई अन्य विषय । 1960 तक आयोग असम बिहार उड़ीसा एवं पश्चिम बंगाल को क्षतिग्रस्त जूट और जूट उत्पादों के निर्यात शुल्क में निवल प्राप्तियों के एवज में दी जाने वाली सहायता राशि के बारे में भी सुझाव देता था । संविधान के अनुसार यह सहायता राशि 10 वर्ष की स्थाई अवधि तक दी जाती रही । आयोग अपनी रिपोर्ट राष्ट्रपति को दे सकता है जो इसे संसद के दोनों सदनों में रखता है । रिपोर्ट के साथ उसका आकलन संबंधी ज्ञापन एवं इस संबंध में उठाए जा सकने वाले कदमों के बारे में विवरण भी रखा जाता है। गौरतलब है कि वित्त आयोग की सिफारिशों की प्रकृति सलाहकार की होती है और इनको मानने के लिए सरकार बाध्य नहीं होती । यह केंद्र सरकार पर निर्भर करता है कि वह राज्य सरकारों को दी जाने वाली सहायता के संबंध में आयोग की सिफारिशों को लागू करें या ना करें। #अब_तक_नियुक्त_आयोग : वित्त आयोग के अध्यक्षों की सूची : वित्त आयोग : अध्यक्ष का नाम : कार्यकाल अवधि ▪️पहला : क्षितिज चंद्र नियोगी : 1952 से 1957 तक ▪️दूसरा : कस्तुरीरंगा संथानम :1957 से 1962 तक ▪️तीसरा : ए.के.चंदा : 1962 से 1966 तक ▪️चौथा : पाकला वेंकटरामन राव राजामन्नर : 1966 से 1969 तक ▪️पॉचवां : महावीर त्‍यागी : 1969 से 1974 तक ▪️छठा : ब्रह्मानन्द रेड्डी : 1974 से 1979 तक ▪️सातवां : जे.एम.शैलट : 1979 से 1984 तक ▪️आठवां : वाई.वी. चव्हाण :1984 से 1989 तक ▪️नौवां : एन.के.पी.साल्‍वे : 1989 से 1995 तक ▪️दसवां : कृष्ण चंद्र पंत : 1995 से 2000 तक ▪️ग्‍यारहवां : डा. अली मोहम्मद खुसरो : 2000 से 2005 तक ▪️बारहवां : चक्रवर्ती रंगराजन : 2005 से 2010 तक ▪️तेरहवा : विजय.एल.केलकर : 2010 से 2015 तक ▪️चौदहवां : डॉ. यागा वेणुगोपाल रेड्डी : 2015 से 2020 तक ▪️पंद्रहवां : एनके सिंह : 2020 से 2025 तक [01/12, 8:26 AM] Raj Kumar: #आधुनिक_भारत_का_इतिहास : #कांग्रेस_समाजवादी_पार्टी [1934] इस समय पूरी दुनिया में समाजवाद का दौर चल रहा था. सन 1917 की रूसी क्रांति के बाद मार्क्सवाद तथा लेनिनवाद का प्रभाव यूरोप सहित उपनिवेशवाद से ग्रसित समस्त देशों में युवा वर्ग को अपनी तरफ आकर्षित कर रहा था. इसके प्रभाव में कांग्रेस भी अछूती नहीं बची थी. नेहरू भी इस समय समाजवाद के प्रभाव में थे. वे ब्रूसलेस में अंतरराष्ट्रीय दमित राष्ट्रीयता के सम्मेलन में फरवरी 1927, में शामिल हुए थे. अपने क्रांतिकारी और वामपंथी विचारों के कारण वह कांग्रेस के अंदर समाजवाद से प्रभावित युवा वर्ग के नेता बन चुके थे. इस बीच जयप्रकाश नारायण, फूलन प्रसाद वर्मा, तथा राहुल सांकृत्यायन के द्वारा जुलाई 1931 में बिहार सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना की गई. इसका उद्देश्य भारत में एक ऐसे समाजवादी राज्य की स्थापना करना था जिसमें निजी संपत्ति के लिए न कोई स्थान था न भूमि व पुंजी पर व्यक्ति के स्वामित्व का. इसी तर्ज पर प्रांत में समाजवादी दलों की स्थापना संपूर्णानंद, परिपूर्णानंद, कमल पति त्रिपाठी तथा तारक भट्टाचार्य जी ने और युसूफ मेहर अली, एम. आर मसानी, अच्युत पटवर्धन तथा कमलादेवी चट्टोपाध्याय ने मुंबई में जेल में बंद कांग्रेस के कई युवा समाजवादी ने कांग्रेस के अंदर सन 1933 में एक अखिल भारतीय समाज वादी संगठन बनाने का विचार किया. जयप्रकाश नारायण, अच्युत पटवर्धन, एम. आर. मसानी, एन. जी. गोरे, अशोक मेहता, एस. एम. दूषित का एम. एल. दांतवाला इस विचार को प्रारंभ करने वाले में प्रमुख थे. अखिल भारतीय कांग्रेस समिति के सदस्य संपूर्णानंद ने बनारस में अप्रैल 1934 मैं एक पर्चा लिखा तथा भारत के लिए एक प्रयोगिक समाजवादी दल निर्मित करने की आवश्यकता पर बल दिया. यह कांग्रेस में प्रभावशाली हो चुके पूंजीवादी और सामंतवादी तत्वों को चुनौती देने के लिए आवश्यकता था. इसमें यह बात भी स्पष्ट रूप से उल्लेखित थी कि जब समाजवादियों के हाथ में सता आएगी, उद्योगों, बैंकों में भूमि का राष्ट्रीयकरण कर दिया जाएगा तथा जमीदारी प्रथा का उन्मूलन कर दिया जाएगा. कांग्रेस में समाजवादियों ने सन 1934 में, कांग्रेस के एक समूह के द्वारा विधान परिषद में प्रवेश का समर्थन करने के बाद कांग्रेस अलग दल बनाने का मन बना लिया. आचार्य नरेंद्र देव की अध्यक्षता में पटना में 17 मई, 1934 को समाजवादियों का एक सम्मेलन आयोजित किया गया. कांग्रेस के अंदर नए समाजवादी दल की स्थापना की आलोचना करते हुए आचार्य जी ने अपने अध्यक्षीय भाषण में कांग्रेस समाजवादी दल की प्रसंगिकता को स्पष्ट किया. इस दल के सचिव की हैसियत से जयप्रकाश नारायण में अन्य प्रांतों में भी इसके प्रचार के लिए देश का दौरा प्रारंभ कर दिया. 21-22 अक्टूबर, 1934 को संपूर्णानंद की अध्यक्षता में मुंबई में कांग्रेस समाजवादी दल का प्रथम वार्षिक सम्मेलन हुआ. इसमें 13 प्रांतों के 150 प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया. इसकी राष्ट्रीय कार्यकारिणी में जयप्रकाश नारायण (मुख्य सचिव) एस. आर. मसानी, मोहनलाल गौतम, एनजी गोरे तथा ई. एम. एस. नंबूद्रीपाद (सहायक सचिव), आचार्य नरेंद्र देव, संपूर्णानंद, श्रीमती कमला चट्टोपाध्याय, पुरुषोत्तम दास, त्रिकक दास, पी.वी. देशपांडे, राम मनोहर लोहिया, एम. एस. जोशी अमरेंद्र प्रसाद मिश्रा, चार्ल्स मस्करीनास, नवकृष्ण चौधरी तथा अच्युत पटवर्धन, (सदस्य) निर्वाचित किए गए. इस सम्मेलन में दल का संविधान तथा कार्यक्रम भी तय किया गया. यद्यपि जवाहरलाल नेहरू तथा सुभाष चंद्र बोस ने कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना का समर्थन किया, परंतु दोनों में से किसी ने इसकी सदस्यता भी ग्रहण की. कांग्रेस के दक्षिणपंथी गुट इसका जमकर विरोध किया वल्लभ भाई पटेल ने इसे मूर्खतापूर्ण कार्य बताया. कृषको मजदूरों और छात्रों को आकर्षण कांग्रेस समाजवादी आंदोलन के प्रति तेजी से बढ़ने लगा. लखनऊ में सन 1936 में, प्रो० एन. जी. रंगा, इंदूलाल याग्निक, स्वामी सहजानंद आदि के प्रयासों से अखिल भारतीय किसान सम्मेलन का आयोजन किया गया. इस सम्मेलन में सामंतवाद के उन्मुलन तथा लगान और कर्ज के छुट की मांग रखी गई. इस प्रकार कांग्रेस के अंदर समाजवाद के प्रति आस्था रखने वालों की संख्या तेजी से बढ़ने लगी थी. इसके साथ ही स्पष्ट रूप से कांग्रेस वामपंथी और दक्षिणपंथी गुटों में लामबंद होने लगी. वामपंथियों का नेतृत्व यदि नेहरू कर रहे थे तो दक्षिणपंथीयों का पटेल. गांधी यद्यपि समाजवादियों की मार्क्सवादी और लेनिनवादी रुझान के कारण उनकी आलोचना कर रहे थे, परंतु वह दक्षिणपंथियों के साथ भी नहीं थे. यही कारण है कि उन्होंने कांग्रेस से त्यागपत्र दे देना ही उचित समझा था. ब्रिटिश संसद ने इसी बीच 2 अगस्त, 1935 को अधिनियम को मंजूरी दे दी. यद्यपि कांग्रेस ने सर्वसम्मति से इस अधिनियम को खारिज कर दिया, परंतु अब यह स्पष्ट हो चुका था कि कांग्रेस का दक्षिणपंथी गुट इसके अंतर्गत पदों को स्वीकार करने का मन बना बैठा था. जबकि कांग्रेस का वामपंथी गुट समाजवादियों के नेतृत्व में इस अधिनियम के विरोध आंदोलन चलाने तक ही बात कर रहा था. इसका वार्षिक सम्मेलन कांग्रेस के इसी गुट बंदी के दौर में अप्रैल, 1936 में लखनऊ में हुआ यद्यपि सन 1935 के अधिनियम में की जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में संपन्न इस सम्मेलन में कड़ी आलोचना की गई, परंतु इसके अंतर्गत चुनाव में हिस्सा लेने के बाद को भी इस ने स्वीकार कर लिया. कांग्रेस के अंदर समाजवादियों की यह एक करारी हार थी. [01/12, 8:26 AM] Raj Kumar: #भारतीय_राजव्यवस्था_एवं_शासन : #आपात_उपबंध सामान्‍य परिस्थितियों में भारतीय संविधान ससंघात्‍मक ढांचे का अनुसरण करता है परन्‍तु, हमारे संविधान निर्माताओं को इस बात का अहसास था कि यदि देश की सुरक्षा खतरे में हो या उसकी एकता और अखण्‍डता को खतरा हो, तो यह ढॉंचा परेशानी का कारण भी बन सकता है। ऐसी परिसस्‍थतियों में देश की रक्षा के लिये परिसंघ के सिद्धातों को त्‍याग दिया जाता है और जैसे ही देश की स्थितियां सामान्‍य होती हैं, संविधान पुन: अपने सामान्‍य रूप में कार्य करने लगता है। भारतीय संविधान निर्माताओं ने संविधान के भाग 18 के अनुच्छेद (352-360) में तीन प्रकार के आपातों का उल्‍लेख किया है – 1. युद्ध, बाह्य आक्रमण या सशस्‍त्र विद्रोह की स्थिति में उत्‍पन्‍न आपात जिसे आम-बोलचाल में #राष्ट्रीय_आपात कहा जाता है। हालॉंकि संविधान में इसके लिये ‘आपात की उद्घोषणा‘ शीर्षक का प्रयोग हुआ है। 2. राज्‍यों में संवैधानिक तंत्र के विफल हो जाने की स्थिति से उत्‍पन्‍न परिस्थिति। प्रचलित भाषा में इसे #राष्ट्रपति_शासन के नाम से जाना जाता है। संविधान में इसके लिये कहीं भी आपात या आपातकाल शब्द का उल्‍लेख नहीं मिलता है। 3. ऐसी स्थिति जिसमें भारत का वित्‍तीय स्‍थायित्‍व या साख संकट में हो, तो उसे #वित्तीय_आपात कहते हैं। संविधान में भी इसे ‘वित्‍तीय आपात‘ कहा गया है। 1. #राष्ट्रीय_आपातकाल : #वर्णन- अनुच्छेद 352 #कारण – बाहय आक्रमण , युद्ध एवं सशस्त्र विद्रोह | #क्षेत्र – संपूर्ण भारत तथा भारत के किसी भी भाग पर लगाया जा सकता है | #संशोधन- ▪️1976 के 42 वें संविधान संशोधन से राष्ट्रपति भारत के किसी विशेष भाग पर भी राष्ट्रपति आपातकाल लागू कर सकता है | ▪️अतः 1978 के 44 वे संशोधन अधिनियम द्वारा आंतरिक गड़बड़ी के स्थान पर सशस्त्र विद्रोह शब्द से स्थापित किया गया | ▪️44 वे संशोधन 1978 से प्रधानमंत्री को मंत्रिमंडल की सहमति लेना आवश्यक किया गया है | #संसदीय_अनुमोदन – ▪️आपातकाल जारी रखने के लिए दोनों पद से विशेष बहुमत (कुल सदस्यों का 50 प्रतिशत + 1 द्वारा अनुमोदित या कुल उपस्थित सदस्यों के दो तिहाई द्वारा अनुमोदित )। ▪️दोनों सदनों द्वारा विधयेक पारित होने पर एक माह के भीतर इसे अनुमोदित कर दिया जाता है। ▪️संसद द्वारा अनुमोदन हो जाने पर आपातकाल 6 माह तक जारी रहता है, तथा प्रत्येक 6 माह बाद इसे अनुमोदित कर के अनंत समय तक बढाया जा सकता है। ▪️बिना संसद के अनुमोदन के 7 माह तक चलाया जा सकता है। #समाप्ति – ▪️राष्ट्रपति द्वारा दूसरी उद्घोषणा से। ▪️लोकसभा की कुल सदस्य संख्या के 1/10 सदस्य स्पीकर अथवा राष्ट्रपति को लिखित नोटिस दे तो 14 दिन के अंदर उद्घोषणा के जारी रहने के प्रस्ताव को अस्वीकार करने के लिए संसद की विशेष बैठक/ मतदान होगा (साधारण बहुमत)। #आपातकाल_के_प्रभाव – #केंद्र_राज्य_संबंध_पर_प्रभाव ▪️कार्यपालक – केंद्र हर विषय पर राज्य को निर्देश दे सकता है | ▪️विधायी – राज्य सूची में केंद्र को कानून बनाने व राष्ट्रपति को अध्यादेश जारी करने का अधिकार | ( आपातकाल की समाप्ति के बाद कानून छह माह तक प्रभावी ) ▪️वितिय – राष्ट्रपति केंद्र एवं राज्यों के मध्य कर वितरण को संशोधित कर सकता है | #लोकसभा_व_राज्यसभा_के_कार्यकाल_पर_प्रभाव – दोनों का कार्यकाल, संसद विधि बनाकर 1 वर्ष के लिए बढ़ा सकता है (अनगिनत बार) | #मूल_अधिकारों_पर_प्रभाव – आपातकाल के समय अनुच्छेद 358-359 लागु हो जाते है | ▪️अनुच्छेद 358- अनुच्छेद 19 के समस्त अधिकार स्वत समाप्त ( युद्ध एवं बाह्य आक्रमण के समय, सशस्त्र विद्रोह के समय नहीं ) ▪️अनुच्छेद 358 संपूर्ण आपातकालीन समयावधि तक लागु रहता है | ▪️अनुच्छेद 359- (अनुच्छेद- 20, 21) को छोड़ अन्य अधिकार केंद्र नियम बनाकर नियंत्रित कर सकती है | #राष्ट्रीय_आपातकाल_को_अब_तक_तीन_बार #लगाया_गया_है – ▪️1962 ( भारत-चीन युद्ध : अरुणाचल प्रदेश ) ▪️1971 ( भारत-पाकिस्तान युद्ध : बांग्लादेश स्वतंत्रता ) ▪️1975( इंदिरा गांधी ) राष्ट्रीय आपातकाल के विषय में सुप्रीम कोर्ट को न्यायिक पुनर्विलोपन की शक्ति है | ____________________________________________ 2. #राष्ट्रपति_शासन : #कारण – ▪️अनुच्छेद 356 – राज्य में संवैधानिक तंत्र का विफल होना। ▪️अनुच्छेद 365 – केंद्र के निर्देशों के पालन में असफलता। #क्षेत्र – सम्पूर्ण भारत या भारत के किसी भी भाग पर। राष्ट्रपति शासन की घोषणा राष्ट्रपति द्वारा मंत्रिमंडल की सिफारिश पर की जाती है | घोषणा के पश्चात इसे संसदीय अनुमोदन की आवश्यकता होती है #संसदीय_अनुमोदन_की_समयाविधि – ▪️लोकसभा सत्र में है तो 2 माह के अंदर अनुमोदन लेना आवश्यक। ▪️अगर लोकसभा सत्र में नहीं है तो सत्र में आने पर 30 दिन के भीतर अनुमोदन लेना आवश्यक। ▪️बिना अनुमोदन के राष्ट्रपति शासन को maximum 8 माह तक लगाया जा सकता है। ▪️यह अनुमोदन सामान्य बहुमत से पारित किया जाता है। #अधिकतम_अवधि – 3 वर्ष ( प्रत्येक 6 माह में अनुमोदन करा कर) 44 ववे संविधान संशोधन के तहत संसद द्वारा राष्ट्रपति शासन को एक वर्ष के बाद भी जाती रखने की शक्ति पर प्रतिबन्ध लगाने हेतु एक उपबंध जोड़ा गया – #यह_तभी_संभव_है_जब- ▪️पूरे देश में या देश के किसी भाग में राष्ट्रीय आपात की घोषणा की गई हो | ▪️चुनाव आयोग द्वारा प्रमाणित करने पर की चुनाव नहीं हो सकते कठिनाई आ रही है | ▪️राष्ट्रपति किसी भी समय राष्ट्रपति शासन हटा सकता है | #प्रभाव – ▪️जिस राज्य में राष्ट्रपति शासन लागु होता है वहां राज्य सरकार के संपूर्ण अधिकार केंद्र के पास चले जाते है। ▪️राष्ट्रपति को राज्य के प्रति अध्यादेश जारी करने, बजट बनाने, राज्य की संचित निधि का प्रयोग करने का पूर्ण अधिकार होता है। ▪️उच्च न्यायलय की शक्तियों में कोई कटौती नहीं होती। ▪️यह सर्वप्रथम 1951 में पंजाब में लगा था सर्वाधिक बार केरल में लगाया गया है (9 बार)। #राष्ट्रपति_शासन_का_प्रयोग_उचित_होगा_जब – ▪️त्रिशंकु विधानसभा हो। ▪️बहुमत प्राप्त दल सरकार बनाने से इंकार कर दे और राज्यपाल के समक्ष विधानसभा में स्पष्ट बहुमत किसी के पास ना हो। ▪️मंत्री परिषद त्यागपत्र दे दे और अन्य सरकार बनाने का इच्छुक ना हो अथवा स्पष्ट बहुमत का अभाव हो। ▪️राज्य केंद्र के निर्देश को मानने से इंकार कर दे। ▪️राज्य की सुरक्षा खतरे में हो। यह न्यायिक समीक्षा योग्य है | डॉक्टर अंबेडकर के अनुसार “ यह उपबंध अंतिम साधन के रूप में प्रयोग किया जाना चाहिए “ | ____________________________________________ 3. #वित्तीय_आपातकाल : आधार – “अनुच्छेद 360” के तहत राष्ट्रपति मंत्रिमंडल की सिफारिश पर इसे लागु कर सकता है | ▪️बिना संसदीय अनुमोदन के इसे अधिकतम 8 माह तक लागु रखा जा सकता है | ▪️यह न्यायिक समीक्षा योग्य विषय है ( 44 वें संशोधन 1978 के तहत ) | ▪️एक बार अनुमोदन मिलने पर इसे अनिश्चितकाल तक प्रभावी रखा जा सकता है | ▪️संसद से इसे सामान्य बहुमत द्वारा पारित करवाया जा सकता है | ▪️वित्तीय आपातकाल को राष्ट्रपति घोषणा के माध्यम से समाप्त कर सकता है | #वित्तीय_आपातकाल_के_प्रभाव – ▪️भारत सरकार की अधिकारिक कार्यकारिणी में बढ़ोतरी होती है। ▪️केंद्र, राज्य को वित्तीय मामलों में निर्देशित करता है। ▪️केंद्र सरकार, राज्य सेवा में कार्यरत सेवकों की वेतन भत्तों में कटौती कर सकती है। ▪️वित्तीय आपातकाल के समय राज्य द्वारा लाये गए धन विधयेक या वित्तीय विधेयक को राष्ट्रपति की मंजूरी के बिना पारित नहीं किया जा सकता हैं। अब तक वित्तीय आपातकाल घोषित नहीं हुआ है। यद्यपि 1991 में वित्तीय संकट आया था। [01/12, 8:26 AM] Raj Kumar: #आधुनिक_भारत_का_इतिहास : #सांप्रदायिक_अधिनिर्णय_एवं_पूना_समझौता ब्रिटेन के प्रधानमंत्री रेम्जे मेकडोनाल्ड ने 16 अगस्त 1932 को ‘साम्प्रदायिक निर्णय’ की घोषणा की। साम्प्रदायिक निर्णय, उपनिवेशवादी शासन की ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति का एक और प्रमाण था। #साम्प्रदायिक_अधिनिर्णय_के_प्रावधान : ▪️मुसलमानों, सिखों एवं यूरोपियों को पृथक साम्प्रदायिक मताधिकार प्रदान किया गया। ▪️आंग्ल भारतीयों, भारतीय ईसाईयों तथा स्त्रियों को भी पृथक सांप्रदायिक मताधिकार प्रदान किया गया। ▪️प्रांतीय विधानमंडल में साम्प्रदायिक आधार पर स्थानों का वितरण किया गया। ▪️सभी प्रांतों को विभिन्न सम्प्रदायों के निर्वाचन क्षेत्रों में विभक्त कर दिया गया। ▪️अन्य शेष मतदाता, जिन्हें पृथक निर्वाचन क्षेत्रों में मताधिकार प्राप्त नहीं हो सका था उन्हें सामान्य निर्वाचन क्षेत्रों में मतदान का अधिकार प्रदान किया गया। ▪️बम्बई प्रांत में सामान्य निर्वाचन क्षेत्रों में से सात स्थान मराठों के लिये आरक्षित कर दिये गये। ▪️विशेष निर्वाचन क्षेत्रों में दलित जाति के मतदाताओं के लिये दोहरी व्यवस्था की गयी। उन्हें सामान्य निर्वाचन क्षेत्रों तथा विशेष निर्वाचन क्षेत्रों दोनों जगह मतदान का अधिकार दिया गया। ▪️सामान्य निर्वाचन क्षेत्रों में दलित जातियों के निर्वाचन का अधिकार बना रहा। ▪️दलित जातियों के लिये विशेष निर्वाचन की यह व्यवस्था बीस वर्षों के लिये की गयी। ▪️दलितों को अल्पसंख्यक के रूप में मान्यता दी गयी। कांग्रेस का पक्ष यद्यपि कांग्रेस साम्प्रदायिक निर्णय के विरुद्ध थी किंतु अल्पसंख्यकों से विचार-विमर्श किये बिना वह इसमें किसी भी प्रकार के परिवर्तन के पक्ष में नहीं थी। इस प्रकार साम्प्रदायिक निर्णय से गहरी असहमति रखते हुये कांग्रेस ने निर्णय किया कि वह न तो साम्प्रदायिक निर्णय को स्वीकार करेगी न ही इसे अस्वीकार करेगी। साम्प्रदायिक निर्णय द्वारा, दलितों को सामान्य हिन्दुओं से पृथक कर एक अल्पसंख्यक वर्ग के रूप मे मान्यता देने तथा पृथक प्रतिनिधित्व प्रदान करने का सभी राष्ट्रवादियों ने तीव्र विरोध किया। #गांधीजी_की_प्रतिक्रिया : गांधीजी ने साम्प्रदायिक निर्णय की राष्ट्रीय एकता एवं भारतीय राष्ट्रवाद पर प्रहार के रूप में देखा। उनका मत था कि यह हिन्दुओं एवं दलित वर्ग दोनों के लिये खतरनाक है। उनका कहना था कि दलित वर्ग की सामाजिक हालत सुधारने के लिये इसमें कोई व्यवस्था नहीं की गयी है। एक बार यदि पिछड़े एवं दलित वर्ग को पृथक समुदाय का दर्जा प्रदान कर दिया गया तो अश्पृश्यता को दूर करने का मुद्दा पिछड़ा जायेगा और हिन्दू समाज में सुधार की प्रक्रिया अवरुद्ध हो जायेगी। उन्होंने स्पष्ट किया कि पृथक निर्वाचक मंडल का सबसे खतरनाक पहलू यह है कि यह अछूतों के सदैव अछूत बने रहने की बात सुनिश्चित करता है। दलितों के हितों की सुरक्षा के नाम पर न ही विधानमंडलों या सरकारी सेवाओं में सीटें आरक्षित करने की आवश्यकता है और न ही उन्हें पृथक समुदाय बनाने की। अपितु सबसे मुख्य जरूरत समाज से अश्पृश्यता की कुरीति को जड़ से उखाड़ फेंकने की है। गांधीजी ने मांग की कि दलित वर्ग के प्रतिनिधियों का निर्वाचन आत्म-निर्वाचन मंडल के माध्यम से वयस्क मताधिकार के आधार पर होना चाहिए। तथापि उन्होंने दलित वर्ग के लिये बड़ी संख्या में सीटें आरक्षित करने की मांग का विरोध नहीं किया। अपनी मांगों को स्वीकार किये जाने के लिये 20 सितंबर 1932 से गांधी जी आमरण अनशन पर बैठ गये। कई राजनीतिज्ञों ने गांधीजी के अनशन को राजनीतिक आंदोलन की सही दिशा से भटकना कहा। इस बीच विभिन्न राजनीतिक विचारधाराओं के नेता, जिनमें एम.सी. रजा, मदनमोहन मालवीय तथा बी.आर. अम्बेडकर सम्मिलित थे, सक्रिय हो गये। अंततः एक समझौता हुआ, जिसे पूना समझौता या पूनापैक्ट के नाम से जाना जाता है। #पूना_समझौता : सितंबर 1932 में डा. अम्बेडकर तथा अन्य हिन्दू नेताओं के प्रयत्न से सवर्ण हिन्दुओं तथा दलितों के मध्य एक समझौता किया गया। इसे पूना समझौते के नाम से जाना जाता है। इस समझौते के अनुसार- ▪️दलित वर्ग के लिये पृथक निर्वाचक मंडल समाप्त कर दिया गया तथा व्यवस्थापिका सभा में अछूतों के स्थान हिन्दुओं के अंतर्गत ही सुरक्षित रखे गये। ▪️लेकिन प्रांतीय विधानमंडलों में दलितों के लिये आरक्षित सीटों की संख्या 47 से बढ़कर 147 कर दी गयी। ▪️मद्रास में 30, बंगाल में 30, मध्य प्रांत एवं संयुक्त प्रांत में 20-20, बिहार एवं उड़ीसा में 18-18, बम्बई एवं सिंध में 15-15, पंजाब में 8 तथा असम में 7 स्थान दलितों के लिये सुरक्षित किये गये। ▪️केंद्रीय विधानमंडल में दलित वर्ग को प्रतिनिधित्व देने के लिये संयुक्त व्यवस्था को मान्यता दी गयी। ▪️दलित वर्ग को सार्वजनिक सेवाओं तथा स्थानीय संस्थाओं में उनकी शैक्षणिक योग्यता के आधार पर उचित प्रतिनिधित्व देने की व्यवस्था की गयी। सरकार ने पूना समझौते को साम्प्रदायिक निर्णय का संशोधित रूप मानकर उसे स्वीकार कर लिया। #गांधीजी_का_हरिजन_अभियान : सांप्रदायिक निर्णय द्वारा भारतीयों को विभाजित करने तथा पुन पैक्ट के द्वारा हिन्दुओं से दलितों को पृथक करने की व्यवस्थाओं ने गांधीजी को बुरी तरह आहत कर दिया था। फिर भी गांधीजी ने पूना समझौते के प्रावधानों का पूरी तरह पालन किये जाने का वचन दिया। अपने वचन को पूरा करने के उद्देश्य से गांधीजी ने अपने अन्य कार्यों को छोड़ दिया तथा पूर्णरूपेण ‘अश्पृश्यता निवारण अभियान’ में जुट गये। उन्होंने अपना अभियान यरवदा जेल से ही प्रारंभ कर दिया था तत्पश्चात अगस्त 1933 में जेल से रिहा होने के उपरांत उनके आदोलन में और तेजी आ गयी। अपनी कारावास की अवधि में ही उन्होंने सितम्बर 1932 में ‘अखिल भारतीय अश्पृश्यता विरोधी लीग’ का गठन किया तथा जनवरी 1933 में उन्होंने हरिजन नामक साप्ताहिक पत्र का प्रकाशन प्रारंभ किया। जेल से रिहाई के उपरांत वे सत्याग्रह आश्रम वर्धा आ गये। साबरमती आश्रम, गांधीजी ने 1930 में ही छोड़ दिया था और प्रतिज्ञा की थी कि स्वराज्य मिलने के पश्चात ही वे साबरमती आश्रम (अहमदाबाद) में वापस लौटेंगे। 7 नवंबर 1933 को वर्धा से गांधीजी ने अपनी ‘हरिजन यात्रा‘ प्रारंभ की। नवंबर 1933 से जुलाई 1934 तक गांधीजी ने पूरे देश की यात्रा की तथा लगभग 20 हजार किलोमीटर का सफर तय किया। अपनी यात्रा के द्वारा गांधीजी ने स्वयं द्वारा स्थापित संगठन ‘हरिजन सेवक संघ’ जगह-जगह पर कोष एकत्रित करने का कार्य भी किया। गांधीजी की इस यात्रा का मुख्य उद्देश्य था-हर रूप में अश्पृश्यता को समाप्त करना। उन्होंने कांग्रेस कार्यकर्ताओं से आग्रह किया की गांवों का भ्रमण हरिजनों के सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक एवं सांस्कृतिक उत्थान का कार्य करें। दलितों को ‘हरिजन’ नाम सर्वप्रथम गांधीजी ने ही दिया था। हरिजन उत्थान के इस अभियान में गांधीजी 8 मई व 16 अगस्त 1933 को दो बार लंबे अनशन पर बैठे। उनके अनशन का उद्देश्य, अपने प्रयासों की गंभीरता एवं अहमियत से अपने समर्थकों को अवगत कराना था। अनशन की रणनीति ने राष्ट्रवादी खेमे को बहुत प्रभावित किया। बहुत से लोग भावुक हो गये। अपने हरिजन आंदोलन के दौरान गांधीजी को हर कदम पर सामाजिक प्रतिक्रियावादियों तथा कट्टरपंथियों के विरोध का सामना करना पड़ा। उनके खिलाफ प्रदर्शन किये तथा उन पर हिंदूवाद पर कुठाराघात करने का आरोप लगाया गया। सविनय अवज्ञा आदोलन तथा कांग्रेस का विरोध करने के निमित्त, सरकार ने इन प्रतिक्रियावादी तत्वों का भरपूर साथ दिया। अगस्त 1934 में लेजिस्लेटिव एसेंबली में ‘मंदिर प्रवेश विधेयक’ को गिराकर, सरकार ने इन्हें अनुग्रहित करने का प्रयत्न किया। बंगाल में कट्टरपंथी हिन्दू विचारकों ने पूना समझौते द्वारा हरिजनों को हिन्दू अल्पसंख्यक का दर्जा दिये जाने की अवधारणा को पूर्णतयाः खारिज कर दिया। #गांधी_जी_के_जाति_संबंधी_विचार : गांधीजी ने अपने पूरे हरिजन आंदोलन, सामाजिक कार्य एवं अनशनों में कुछ मूलभूत तथ्यों पर सर्वाधिक जोर दिया- ▪️हिन्दू समाज में हरिजनों पर किये जा रहे अत्याचार तथा भेदभाव की उन्होंने तीव्र भर्त्सना की। ▪️दूसरा प्रमुख मुद्दा था- छुआछूत को जड़ से समाप्त करना। उन्होंने अश्पृश्यता की कुरीति को समूल नष्ट करने तथा हरिजनों को मंदिर में प्रवेश का अधिकार दिये जाने की मांग की। ▪️उन्होंने इस बात की मांग उठायी कि हिन्दुओं द्वारा सदियों से हरिजनों पर जो अत्याचार किया जाता रहा है, उसे अतिशीघ्र बंद किया जाना चाहिए तथा इस बात का प्रायश्चित करना चाहिए। शायद यही वजह थी कि गांधीजी ने अम्बेडकर या अन्य हरिजन नेताओं की आलोचनाओं का कभी बुरा नहीं माना। उन्होंने हिन्दू समाज को चेतावनी दी कि “यदि अश्पृश्यता का रोग समाप्त नहीं हुआ तो हिन्दू समाज समाप्त हो जायेगा। यदि हिंदूवाद को जीवित रखना है तो अश्पृश्यता को समाप्त करना ही होगा”। ▪️गांधीजी का सम्पूर्ण हरिजन अभियान मानवता एवं तर्क के सिद्धांत पर अवलंबित था। उन्होंने कहा कि शास्त्र छुआछूत की इजाजत नहीं देते हैं। लेकिन यदि वे ऐसी अवधारणा प्रस्तुत करते हैं तो हमें उनकी उपेक्षा कर देनी चाहिए क्योंकि ऐसा करना मानवीय प्रतिष्ठा के विरुद्ध है। गांधीजी अस्पृश्यता निवारण के मुद्दे को अंतर्जातीय विवाह एवं अंतर्जातीय भोज जैसे मुद्दों के साथ जोड़ने के पक्षधर नहीं थे क्योंकि उनका मानना था कि ये चीजें स्वयं हिन्दू सवर्ण समाज एवं हरिजनों के बीच में भी हैं। उनका कहना था कि उनके हरिजन अभियान का मुख्य उद्देश्य, उन कठिनाइयों एवं कुरीतियों को दूर करना है, जिससे हरिजन समाज शोषित और पिछड़ा है। इसी तरह उन्होंने जाति निवारण तथा छुआछूत निवारण में भी भेद किया। इस मुद्दे पर वे डा. अम्बेडकर के इन विचारों से असहमत थे कि छुआछूत की बुराई जाति प्रथा की देन है तथा जब तक जाति प्रथा बनी रहेगी यह बुराई भी जीवित रहेगी। अतः जाति प्रथा को समाप्त किये बिना अछूतों का उद्धार संभव नहीं है। गांधीजी का कहना था कि वर्णाश्रम व्यवस्था के अपने कुछ दोष हो सकते हैं, लेकिन इसमें कोई पाप नहीं है। हां, छुआछूत अवश्य पाप है। उनका तर्क था कि छुआछूत, जाति प्रथा के कारण नहीं अपितु ऊच-नीच के कृत्रिम विभाजन के कारण है। यदि जातियां एक दूसरे की सहयोगी एवं पूरक बन कर रहें तो जाति प्रथा में कोई दोष नहीं है। कोई भी जाति न उच्च है न निम्न। उन्होंने वर्णाश्रम व्यवस्था के समर्थक एवं विरोधियों दोनों से आह्वान किया कि वे आपस में मिलकर काम करें क्योंकि दोनों ही छुआछूत के विरुद्ध हैं। गांधीजी का विचार था कि छुआछूत की बुराई का उन्मूलन करने से उसका साम्प्रदायिकता एवं ऐसे ही अन्य मुद्दों पर सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा, जबकि इसकी उपस्थिति का तात्पर्य होगा जाति प्रथा में उच्च एवं निम्न की अवधारणा को स्वीकार करना। गांधीजी ने छुआछूत के समर्थक दकियानूसी प्रतिक्रियावादी हिन्दुओं को ‘सेनापति‘ कहा। किंतु वे इन पर किसी प्रकार का दबाव डाले जाने के विरोधी थे। उनका कहना था कि इन्हें समझा-बुझाकर तथा इनके दिलों को जीतकर इन्हें सही रास्ते पर लाना होगा न कि इन पर दबाव डालकर। उन्होंने स्पष्ट किया कि उनके अनशन का उद्देश्य, उनके द्वारा चलाये जा रहे छुआछूत विरोधी आंदोलन के संबंध में उनके मित्रों एवं अनुयायियों के उत्साह को दुगना करना है। #अभियान_का_प्रभाव : गांधीजी ने बार-बार यह बात दुहराई कि उनके हरिजन अभियान का उद्देश्य राजनीतिक नहीं है अपितु यह हिन्दू समाज एवं हिन्दुत्व का शुद्धीकरण आंदोलन है। वास्तव में गांधीजी ने अपने हरिजन अभियान के दौरान केवल हरिजनों के लिये ही कार्य नहीं किया। उन्होंने कांग्रेस के कार्यकर्ताओं को बताया कि जनआंदोलन के निष्क्रिय या समाप्त हो जाने पर वे स्वयं को किस प्रकार के रचनात्मक कार्यों में लगा सकते हैं। उनके आंदोलन ने राष्ट्रवाद के संदेश को हरिजनों तक पहुंचाया। यह वह वर्ग था, जिसके अधिकांश सदस्य खेतिहर मजदूर थे तथा धीरे-धीरे किसान आंदोलन तथा राष्ट्रीय आंदोलन से जुड़ते जा रहे थे। [01/12, 8:26 AM] Raj Kumar: #भारतीय_राजव्यवस्था_एवं_शासन : #केंद्र_राज्य_संबंध संविधान में केंद्रीय व्यवस्था के अनुरूप केंद्र तथा राज्य संबंधों की विस्तृत विवेचना की गयी है अत: भारतीय एकता व अखंडता के लिए केंद्र को अधिक शक्तिशाली बनाया गया है | केंद्र व राज्य के मध्य संबंधो का अध्यनन तीन दृष्टिकोण से किया जाता है – ▪️विधायी संबंध अनुच्छेद : (245-255) ▪️प्रशासनिक संबंध अनुच्छेद : (256-263) ▪️वितीय संबंध अनुच्छेद : (268-293) #विधायी_संबंध : भारतीय संविधान के भाग -11 में अनुच्छेद 245 से 255 व अनुसूची 7 केंद्र व राज्य के मध्य विधायी संबंधों का उल्लेख किया गया है | 7 वीं अनुसूची के अंतर्गत केंद्र व् राज्य के मध्य विधायी संबंधो के लिए त्रिस्तरीय व्यवस्था की गयी है – ▪️राज्य सूची ▪️संघ सूची ▪️समवर्ती सूची #संघ_सूची – इसके अंतर्गत राष्ट्रीय व अन्तराष्ट्रीय महत्त्व के 100 विषय (मूलत: 97) सम्मिलित है जिन पर विधि बनाने का अधिकार केवल संसद के पास है। जैसे- रक्षा , बैंकिंग , मुद्रा , परमाण्विक ऊर्जा , सेना , बंदरगाह आदि। #राज्य_सूची – इसके अंतर्गत क्षेत्रीय व् स्थानीय महत्व के 61 विषय (मूलत: 66) शामिल है , राज्य विधानमंडल को सामान्य स्थिति में इन विषयों पर विधि निर्माण का अधिकार प्राप्त है | जैसे – कृषि , सार्वजनिक व्यवस्था , पुलिस , जेल , स्वास्थ्य आदि। #समवर्ती_सूची – इस सूची के अंतर्गत क्षेत्रीय व राष्ट्रीय महत्व के 52 विषय (मूलत: 47) शामिल है, जिन पर केंद्र व राज्य दोनों को विधि बनाने का अधिकार प्राप्त है। जैसे – शिक्षा , वन , बिजली , दवा , अखबार आदि। 42 वें संविधान संसोधन 1976 के द्वारा 5 विषयों को राज्य सूची से समवर्ती सूची में जोड़ा गया। ▪️शिक्षा ▪️वन ▪️मापतौल ▪️जंगली जानवरों व पक्षियों का संरक्षण ▪️उच्चतम व उच्च न्यायालयों के अतिरिक्त सभी का गठन अनुच्छेद : 248 के अंतर्गत ऐसे विषयों का वर्णन किया गया है जो किसी भी सूची में सम्मिलित नहीं है उनके संबंध में कानून बनाने का अधिकार संसद को प्राप्त है , भारतीय संविधान के अनुसार कुछ विशेष परिस्थितयों में राष्ट्रीय हित व एकता हेतु संसद को राज्यसूची के विषयों पर विधि बनाने का अधिकार प्राप्त है। जिसके लिए निम्न प्रावधान किये गए है — ▪️ अनुच्छेद : 249 के अनुसार यदि राज्यसभा द्वारा राज्यसूची के किसी विषय को विशेष बहुमत (2/3) से राष्ट्रीय महत्व का घोषित किया जा सकता है तो संसद को उस विषय पर विधि निर्माण की शक्ति प्राप्त हो जाती है किंतु यह विधि केवल 1 वर्ष तक प्रभावी रहती है इसे आगे भी बढ़ाया जा सकता है। ▪️आपातकाल की स्थिति में अनुच्छेद : 250 के अनुसार राज्य की समस्त विधायी शक्तियों पर संसद का अधिकार हो जाता है किंतु आपातकाल समाप्त होने के 6 माह बाद तक ही यह विधि प्रभावी रहती है। ▪️ अनुच्छेद : 252 के अनुसार यदि दो या दो से अधिक राज्यों के विधानमंडल प्रस्ताव पारित कर यह इच्छा व्यक्त करते है की उनके संबंध में राज्यसूची के विषय पर संसद द्वारा कानून बनाया जा सकता है तो उस विषय पर विधि बनाने का अधिकार संसद को प्राप्त हो जाता है। #राज्यों_के_विधान_मंडल_द्वारा_नियंत्रण ▪️राज्यपाल कुछ विधेयकों को राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए भेज सकता है व राष्ट्रपति को उन विधेयकों पर वीटो की शक्ति प्रदान है। ▪️राज्यसूची से संबंधित कुछ विधेयको को सिर्फ राष्ट्रपति की पूर्व सहमति से संसद में लाया जा सकता है। ▪️वित्तीय आपातकाल के समय में राष्ट्रपति विधानमंडल द्वारा पारित धन विधेयक को सुरक्षित रख सकता है। ____________________________________________ #प्रशासनिक_संबंध : संविधान के भाग – 11 में अनुच्छेद : (256 से 263) तक केंद्र व राज्य के मध्य प्रशासनिक संबंधो का उल्लेख किया गया है – संघीय शासन प्रणाली में सामान्यत: संघ व् राज्यों के मध्य प्रशासनिक संबंध सामान्यत: विवाद ग्रस्त रहते है अत: संविधान द्वारा ऐसे प्रावधान किए गए है ताकि केंद्र व राज्यों के मध्य सहज संबंध बने रहे | #कार्यकारी_शक्तियों_का_विभाजन – केंद्र व राज्य के मध्य कुछ विषयों को छोड़कर कार्यकारी व विधायी शक्तियों का विभाजन किया गया है , इस प्रकार केंद्र की शक्तियां संपूर्ण भारत में विस्तृत है – ▪️उन विषयों (संघ सूची) के संदर्भ में जिसमें संसद को विधायी शक्तियां प्राप्त है। ▪️किसी संधि या समझोते के अंतर्गत अधिकार प्राधिकरण व न्यायक्षेत्र का कार्य। ▪️इसी प्रकार राज्य की कार्यकारी शक्तियां राज्यसूची के विषयों पर राज्य की सीमा तक विस्तृत है। ▪️समवर्ती सूची के विषय पर केंद्र व राज्य दोनों को शक्तियां प्राप्त है किंतु विवाद की स्थिति में केंद्र द्वारा बनाई गयी विधि सर्वोच्च होगी। #राज्यों_व_केंद्र_के_दायित्व – राज्य की कार्यकारी शक्तियों निम्न दो प्रकार से उपयोग किया जा सकता है – ▪️संसद द्वारा निर्मित किसी विधि के अनुरूप कार्य करना तथा इस संबंध में कार्यपालिका को राज्यों को दिशा – निर्देश देने का अधिकार प्राप्त है। ▪️राज्य कि कार्यपालिका शक्ति का प्रयोग इस प्रकार किया जाना चाहिए कि वह संघ की कार्यपालिका शक्ति के प्रयोग में बाधक न हो। अत: किसी राज्य द्वारा संविधान के दिशा – निर्देशों के अनुसार कार्य ना करने पर अनुच्छेद : 365 के अंतर्गत राज्य पर राष्ट्रपति शासन लगाया जा सकता है। #केंद्र_व_राज्यों_के_मध्य_सहयोग – ▪️ अनुच्छेद : 258 के अनुसार केंद्र द्वारा राज्यों को कुछ प्रशासनिक कार्य सौंपे जा सकते है तथा राज्यों द्वारा केंद्र को कुछ प्रशासनिक कार्य सौंपे जा सकते है। ▪️ अनुच्छेद : 261 के अनुसार भारतीय राज्यक्षेत्र के सभी भागों में संघ तथा राज्यों के सार्वजनिक कार्यों अभिलेखों व् न्याय कार्यवाहियों को पूर्ण मान्यता प्रदान की जाएगी। ▪️ अनुच्छेद : 262 के अनुसार दो या दो से अधिक राज्यों के बीच में नदियों के पानी से संबंधित विवादों का निर्णय करने के लिए संसद को कानून बनाने का अधिकार प्राप्त है। अंतर्राज्यीय नदी घाटी के विकास के संबंध में सरकार को सलाह देने के लिए नदी बोर्ड की स्थापना (1956) में की गयी। अंतर्राज्यीय जल विवाद अधिनियम (1956) नदी विवाद को जल विवाद अधिकरण द्वारा मध्यस्थ के लिए निर्देश करने का उपबंध करता है। #अखिल_भारतीय_सेवा – भारत में भी किसी अन्य संघ की तरह केंद्र व राज्यों की सार्वजनिक सेवाएं विभाजित है , जिन्हें केंद्र या राज्य सेवाएं कहाँ जाता है। इसके अंतर्गत अखिल भारतीय सेवाएं (IAS, IPS, IFS) शामिल है। इन सेवाओं के अधिकारियों की नियुक्ति व प्रशिक्षण केंद्र द्वारा किया जाता है किंतु यह अधिकारी केंद्र व राज्यों के अंतर्गत उच्च पदों पर अपनी सेवाएं प्रदान करते है। #राज्य_लोक_सेवा_आयोग – इस संदर्भ में केंद्र व राज्यों के मध्य संबंध को निम्न प्रकार से उल्लेखित किया जा सकता है- ▪️राज्य लोकसेवा आयोग के अध्यक्ष व सदस्यों की नियुक्ति राज्यपाल द्वारा की जाती है लेकिन उन्हें केवल राष्ट्रपति दवा ही हटाया जा सकता है। ▪️दो या दो से अधित विधान मंडलों के अनुरोध पर संसद द्वारा संयुक्त राज्य लोक सेवा आयोग का गठन किया जा सकता है लेकिन इसके सदस्य व् अध्यक्षों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है। #आपातकालीन_उपबंध ▪️ अनुच्छेद : 352 राष्ट्रीय आपातकाल की स्थिति में राज्यों की समस्त शक्तियां केंद्र के पास आ जाती है। ▪️ अनुच्छेद : 356 राष्ट्रपति शासन की स्थिति में राज्यों की समस्त शक्तियां राष्ट्रपति के पास आ जाती है। ▪️ अनुच्छेद : 360 वित्तीय आपातकाल। ____________________________________________ #वित्तीय_संबंध : संविधान के भाग -12 में अनुच्छेद : 268 से 293 तक केंद्र व राज्यों के मध्य वित्तीय संबंधो का उल्लेख किया गया है जिसके अधिकांश प्रावधान भारत शासन अधिनियम -1935 से लिए गये है — ▪️संघ के राजस्व स्रोतो का उल्लेख संघ सूची में किया गया है जिसमे 15 विषय सम्मिलित है। ▪️राज्य के राजस्व स्रोतो का उल्लेख राज्य सूची में किया गया है जिसमे 20 विषय सम्मिलित है। ▪️समवर्ती सूची के अंतर्गत 3 विषय सम्मिलित है जिन पर केंद्र व राज्य दोनों को कर निर्धारण का अधिकार है। वर्तमान में संघ सूची व राज्य सूची के अंतर्गत निहित विषयों को समाप्त कर पूरे देश में एकीकृत कर व्यवस्था वस्तु और सेवा कर (GST- Goods & Services Tax) लागू कर दिया है। #आपातकालीन_स्थिति_में_वित्तीय_संबंध ▪️ अनुच्छेद : 352 के अंतर्गत राष्ट्रीय आपातकाल लागू होने की स्थिति में राष्ट्रपति केंद्र व राज्य के मध्य संवैधानिक राजस्व वितरण कम या रोक सकता है। ▪️अनुच्छेद : 356/365 के अंतर्गत राष्ट्रपति शासन लागू होने की स्थिति में संसद संबंधित राज्य संबंधित राज्य की विधायी शक्तियों का प्रयोग करती है , राज्य का मंत्रिमंडल समाप्त हो जाता है व संपूर्ण कार्यपालिका शक्ति राष्ट्रपति के पास आ जाती है। राष्ट्रपति द्वारा इस शक्ति का प्रयोग राज्यपाल या अन्य प्राधिकारी के माध्यम से किया जाता है। ▪️ अनुच्छेद : 360 के अंतर्गत वित्तीय आपातकाल की स्थिति में केंद्र राज्यों को निर्देश दे सकता है कि राज्य द्वारा राज्य की सेवा में लगे सभी लोगों के वेतन व भत्ते कम करे तथा सभी धन विधेयक व वित्त विधेयक राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए आरक्षित रखे जा सकते है। [01/12, 8:26 AM] Raj Kumar: #भारतीय_राजव्यवस्था_एवं_शासन #उच्च_न्यायालय भारतीय संविधान के अनुसार, उच्च न्यायालय राज्य न्यायपालिका का सर्वोच्च न्यायालय है । संविधान के अनुच्छेद 214 के अनुसार प्रत्येक राज्य के लिए एक उच्च न्यायालय की व्यवस्था की गयी है । यह आवश्यक नहीं की प्रत्येक राज्य के लिए एक पृथक उच्च न्यायालय हो। संविधान के अनुच्छेद 231 के अनुसार, संसद कानून द्वारा दो या दो से अधिक राज्यों या दो राज्यों और एक केन्द्र शासित प्रदेशों के लिए संयुक्त उच्च न्यायालय की व्यवस्था कर सकती है । उच्च न्यायालय राज्य का सबसे बड़ा न्यायालय है तथा राज्य के अन्य न्यायालय उसके अधीन होते है। #गठन : संविधान द्वारा सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की संख्या निश्चित की गयी है, परंतु राज्य उच्च न्यायालय के न्यायधीशों की संख्या निश्चित नहीं की गयी है । उनकी संख्या राष्ट्रपति पर निर्भर करती है । सभी उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की संख्या समान होती है। संविधान के अनुच्छेद 216 के अनुसार प्रत्येक उच्च न्यायालय में एक मुख्य न्यायाधीश और ऐसे अन्य न्यायाधीश होते है, जिनको राष्ट्रपति भिन्न भिन्न समय पर आवश्यकता के अनुसार नियुक्त करता है । साथ ही अनुच्छेद 224 में यह भी प्रावधान है कि नियमित न्यायाधीशों के अतिरिक्त कुछ अन्य अतिरिक्त न्यायाधीश भी दो वर्ष के लिए नियुक्त किये जा सकते है । इसके अतिरिक्त उच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश, राष्ट्रपति की स्वीकृति से उच्च न्यायालय के किसी सेवा-निवृत्त न्यायाधीश को उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में कार्य करने के लिए आग्रह कर सकता है । #नियुक्ति : संविधान के अनुच्छेद 216 के अनुसार उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश एवं अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है अनुच्छेद 317 के अनुसार मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति करते समय राष्ट्रपति सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश तथा संबंधित राज्य के राज्यपाल का परामर्श लेता है । अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति करते समय सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश तथा संबंधित राज्य के राज्यपाल के अतिरिक्त उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश का परामर्श लेना राष्ट्रपति के लिए अनिवार्य है, परंतु संविधान में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है कि उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति करते समय राष्ट्रपति के लिए सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश तथा संबंधित उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के परामर्श को मानना अनिवार्य है या नही 1993 के सर्वोच्च न्यायालय के एक महत्वपूर्ण निर्णय ने यह निश्चित कर दिया है कि भारत में मुख्य न्यायाधीश की सहमति के बिना किसी उच्च न्यायालय में किसी न्यायाधीश की नियुक्ति नहीं हो सकती है यदि उच्च न्यायालय में मुख्य न्यायाधीश का स्थान किसी कारणवश अस्थायी रूप से रिक्त हो जाए जो राष्ट्रपति उच्च न्यायालय के किसी भी न्यायाधीश को कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश नियुक्त कर सकता है । #योग्यताएं : संविधान के अनुच्छेद 217(2) के अनुसार उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के लिए निम्नलिखित योग्यताएं निर्धारित की गयी है - ▪️वह भारत का नागरिक हो। ▪️भारत में कम से कम 10 वर्ष तक किसी न्यायिक पद पर आसीन रहा हो। ▪️किसी भी राज्य के उच्च न्यायालय में या एक से अधिक राज्य के उच्च न्यायालयों में कम से कम 10 वर्ष तक अधिवक्ता रहा हो । #कार्यकाल : संविधान के अनुच्छेद 217 (1) के अनुसार उच्च न्यायालय के न्यायाधीश 62 वर्ष की आयु तक अपने पद पर आसीन रह सकते है । उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों का पद इस निश्चित आयु से पूर्व भी निम्नलिखित कारणों के आधार पर रिक्त हो सकता है- ▪️यदि वह स्वयं त्यागपत्र दे दे। ▪️यदि संसद के दोनों सदन पृथक पृथक अपनी सदस्य संख्या के बहुमत से उपस्थित एवं मतदान में भाग लेने वाले सदस्यों के दो तिहाई बहुमत से प्रस्ताव पारित करके राष्ट्रपति को भेज दे तथा राष्ट्रपति संबंधित न्यायाधीश को अपदस्थ करने का आदेश जारी कर दे , एवं ▪️यदि राष्ट्रपति उच्च न्यायालय के किसी न्यायाधीश को सर्वोच्च न्यायालय का न्यायाधीश नियुक्त कर दे या उसे किसी अन्य राज्य के उच्च न्यायालय में स्थानान्तरित कर दे। #वेतन_तथा_भत्ते : सर्वोच्च तथा उच्च न्यायालय (सेवा शर्ते) संशोधन अधिनियम 1998 के अनुसार उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को 2.50 लाख रूपये तथा न्यायाधीशों को 2.25 रूपये मासिक वेतन के रूप में मिलते है । इसके अतिरिक्त उन्हे कई प्रकार के भत्ते तथा सेवा निवृत्त के पश्चात पेंशन भी दी जाती है । उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के वेतन, भत्ते तथा नौकरी से संबंधित शर्ते संसद कानून द्वारा निश्चित करती है। न्यायाधीशों के वेतन तथा भत्ते राज्य की संचित निधि में से दिये जाते है और उनके कार्यकाल में उसे कम नहीं किया जा सकता है। #शपथ_ग्रहण : संविधान के अनुच्छेद 219 के अनुसार, उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को अपने पद पर आसीन होने से पूर्व राज्य के राज्यपाल या उसके द्वारा नियुक्त किये गये किसी अधिकारी के सम्मुख संविधान के प्रति निष्ठावान रहने तथा अपने कर्तव्य का ईमानदारी से पालन करकने की शपथ ग्रहण करनी पड़ती है। #स्थानांतरण : संविधान के अनुच्छेद 22 के अनुसार राष्ट्रपति भारत के मुख्य न्यायाधीश से परामर्श करने के पश्चात किसी न्यायाधीश का एक उच्च न्यायालय से दूसरे उच्च न्यायालय में स्थानांतरण कर सकता है। #न्यायाधीशों_की_स्वतंत्रता : संविधान में उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की स्वतंत्रता बनाये रखने के लिए कई प्रावधान किये गये है- ▪️संविधान के अनुच्छेद 218 के अनुसार न्यायाधीश अपने पद का कार्यकाल निश्चित किया हुआ है । अर्थात उच्च न्यायालय में नियुक्त न्यायाधीश के कार्यकाल को संवैधानिक गारंटी दी गई है। ▪️राज्य स्तर पर न्यायपालिका को वित्तीय मामलों में कुछ विशेष अधिकार प्राप्त है । इसका मूल उद्देश्य न्यायपालिका की स्वतंत्रता बनाए रखना है । उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के वेतन तथा भत्ते, अन्य अधिकारियों और कर्मचारियों के वेतन आदि तथा प्रशासनिक व्यय राज्य के संचित कोष से दिये जाते हैं। #उच्च_न्यायालय_का_क्षेत्राधिकार_शक्ति_तथा_कार्य : राज्य के उच्च न्यायालयों को कई प्रकार की शक्तियां प्रदान की गई है। संविधान को लागू होने के पूर्व ही उच्च न्यायालय अस्तित्व में थे । अतः उच्च न्यायालय अपने पहले के क्षेत्राधिकार बनाए हुए है। संविधान के अनुच्छेद 225 के अनुसार उच्च न्यायालय का क्षेत्राधिकार एवं शक्तियां वही होंगी जो संविधान के प्रारंभ होने से पहले थीं । #आरंभिक_या_मूल_अधिकार_क्षेत्र : संविधान में उच्च न्यायालय की शक्तियों का वर्णन विस्तारपूर्वक नहीं किया गया है बल्कि यह कहा गया है कि उच्च न्यायालय को वही अधिकार क्षेत्र प्राप्त होगा जो संविधान के लागू होने के पूर्व उच्च न्यायालय को प्राप्त था। इसका अभिप्राय यह हुआ कि उच्च न्यायालयों का मूल अधिकार क्षेत्र लगभग वही है जो वर्तमान संविधान लागू होने के पूर्व उन्हें प्राप्त था । निम्नलिखित अभियोगों में उच्च न्यायालय को आरंभिक क्षेत्र प्राप्त है- ▪️संविधान के अनुच्छेद-226 के अनुसार मौलिक अधिकार से संबंधित कोई भी अभियोग सीधा उच्च न्यायालय में लाया जा सकता है। मौलिक अधिकारों को लागू करवाने के लिए उच्च न्यायालय को निम्नलिखित पांच प्रकार के लेख जारी करने का अधिकार प्राप्त है। 1.बंदी प्रत्यक्षीकरण आदेश 2. परमादेश लेख 3. प्रतिषेध लेख 4.अधिकार पृच्छा आदेश 5. उत्प्रेषण लेख। ▪️उच्च न्यायालय न केवल मौलिक अधिकारों को लागू करने के लिए उपर्युक्त लेख जारी कर सकते है बल्कि अन्य कार्यो के लिए भी उन्हे ऐसे लेख जारी करने का अधिकार प्राप्त है। ▪️तलाक, वसीयत, जल सेना विभाग, न्यायालय का अपमान, कम्पनी कानून आदि से संबंधित अभियोग भी उच्च न्यायालय के अधिकार क्षेत्र में आते हैं। ▪️मुंबई, कलकत्ता तथा चेन्नई के उच्च न्यायालयों को दो हजार रूपये या इससे अधिक राशि या इस मूल्य की सम्पत्ति से संबंधित अभियोग सुनने का मूल अधिकार क्षेत्र प्राप्त है । परंतु अन्य राज्यों के उच्च न्यायालय को आरम्भिक अधिकार क्षेत्र प्राप्त नहीं है। #अपीलीय_अधिकार_क्षेत्र : उच्च न्यायालयों को निम्नलिखित दीवानी तथा फौजदारी मुकदमों में अधीनस्थ न्यायालयों के निर्णय के विरूद्व अपीलें सुनने का अधिकार प्राप्त है। ▪️उच्च न्यायालय निम्न न्यायालयों के निर्णय के विरूद्ध उन दीवानी मुकदमों की अपील सुन सकता है, जिसमें पांच हजार या इससे अधिक रकम या इतने मूल्य की सम्पत्ति का प्रश्न हो। ▪️उच्च न्यायालय निम्न न्यायालयों के निर्णय के विरूद्ध ऐसे फौजदरी मुकदमों की अपील सुन सकते हैं, जिनमें निम्न न्यायालयों ने अपराधी को चार वर्ष अथवा इससे अधिक समय के लिए कैद की सजा दी हो। ▪️जिले तथा सेशन जज हत्या के मुकदमों में दोषी को मृत्यु दण्ड दे सकते हैं परंतु जज द्वारा दिये गये मृत्युदण्ड की पुष्टि उच्च न्यायालयों की ओर से करवानी अनिवार्य है। उच्च न्यायालय की पुष्टि के बिना अपराधी को फांसी नहीं दी जा सकती है। ▪️कोई ऐसा मुकदमा जिसमें संविधान की व्याख्या का प्रश्न हो, उच्च न्यायालय में अपील की जा सकती है। #न्यायिक_पुनरावलोकन_का_अधिकार : सर्वोच्च न्यायालय की तरह राज्य के उच्च न्यायालयों को भी कानून संबंधी न्यायिक पुनरावलोकन का अधिकार प्राप्त है। उच्च न्यायालय संसद तथा राज्य विधानमंडल द्वारा बनाये गये किसी ऐसे कानून को असंवैधानिक घोषित कर सकती है, जो संविधान के किसी अनुच्छेद के विरूद्ध हों परंतु उच्च न्यायालय के ऐसे निर्णयों के विरूद्ध सर्वोच्च न्यायालय में अपील की जा सकती है। #प्रमाण_पत्र_देने_का_अधिकार : उच्च न्यायालय के निर्णय के विरूद्ध सर्वोच्च न्यायालय में अपील की जा सकती है। परंतु इसके लिए संबंधित उच्च न्यायालय की आज्ञा आवश्यक है। इसके बावजूद संविधान के अनुच्छेद 136 के अनुसार सर्वोच्च न्यायालय, उच्च न्यायालयों की आज्ञा के बिना उसके निर्णय के विरूद्ध स्वेच्छा से भी मुकदमें की अपील करने की आज्ञा दे सकता है। #निम्न_न्यायालय_से_मुकदमें_को_स्थानांतरित #करने_का_अधिकार : यदि उच्च न्यायालय के विचार में किसी निम्न न्यायालयों में चल रहे किसी मुकदमे में कानून की व्याख्या का कोई विशेष प्रश्न हो तो वह उस मुकदमे को अपने पास मंगवा सकता है । उच्च न्यायालय ऐसे मुकदमों का निर्णय स्वयं भी कर सकता है अथवा संबंधित कानून की व्याख्या करके निम्न न्यायालय को मुकदमा वापस भेज सकता है । यदि उच्च न्यायालय कानून की व्याख्या करके मुकदमा अधीनस्थ न्यायालय को वापस कर दे तो अधीनस्थ न्यायालय मुकदमें का निर्णय उच्च न्यायालय की व्याख्या के अनुसार ही करता है । #प्रशासनिक_शक्तियां : राज्यों के उच्च न्यायालय को अपने अधिकार क्षेत्र के अंतर्गत स्थापित सभी न्यायालयों पर नियंत्रण रखने का अधिकार प्राप्त है। इसके संबंध में उच्च न्यायालय निम्नलिखित प्रशासनिक कार्य करते है- ▪️अधीनस्थ न्यायालयों की कार्यवाही का विवरण मांग सकते हैं। ▪️अपने अधीनस्थ न्यायालयों की कार्यवाही के संबंध में नियम बना सकते हैं। ▪️अधीनस्थ न्यायालयों की कार्य प्रणाली रिकार्ड, रजिस्टर तथा हिसाब-किताब आदि रखने के सम्बंध में नियम निर्धरित कर सकते हैं। ▪️उच्च न्यायालय, किसी मुकदमें को अपने किसी अधीनस्थ न्यायालय से किसी दूसरे अधीनस्थ न्यायालय में स्थानांतरित कर सकते हैं। ▪️उच्च न्यायालय, अपने अधीनस्थ न्यायालयों के रिकार्ड, कागज-पत्र आदि निरीक्षण के लिए मंगवा सकते हैं। ▪️उच्च न्यायालय अपने अधीनस्थ न्यायालयों के कर्मचारियों के वेतन, भत्ते तथा सेवा आदि के नियम निर्धारित कर सकते हैं। ▪️उच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश, न्यायालय के कर्मचारियों की नियुक्ति कर सकता है। इस संबंध में राज्यपाल उसे लोकसेवा आयोग का परामर्श लेने के लिए कह सकता है। #अधिकार_क्षेत्र_का_विस्तार : संविधान के अनुच्छेद 230 के अनुसार संसद कानून द्वारा किसी राज्य के उच्च न्यायालय के अधिकार क्षेत्र में न्यायिक कार्यो के लिए किसी केंद्र शासित प्रदेश को सम्मिलित कर सकती है या उसको अधिकार क्षेत्र से बाहर निकाल सकती है। #अभिलेख_न्यायालय : संविधान के अनुच्छेद 215 के अनुसार प्रत्येक राज्य के उच्च न्यायालय को अभिलेख न्यायलय लेख न्यायालय में सभी निर्णय एवं कार्यवाहियों को प्रमाण के रूप में प्रकाशित किया जाता है और उसके निर्णय सम्बंधित राज्य के सभी न्यायालयों में भी माने जाते हैं। इसके निर्णय अन्य राज्यों के उच्च न्यायालयों में प्रमाण के रूप में प्रस्तुत किये जा सकते हैं परंतु अन्य राज्यों के उच्च न्यायालयों के लिए इस निर्णय को मानना अनिवार्य नहीं है। जब किसी न्यायालय को अभिलेख न्यायालय का स्तर प्रदान किया जाता है तो वह न्यायालय किसी भी व्यक्ति को न्यायालय का अपमान करने के अपराध में दण्ड दे सकता है। राज्यों के उच्च न्यायालयों को न्यायालय का अपमान करने के दोष में दण्ड देने का अधिकार प्राप्त है। अतः राज्यों के उच्च न्यायालय भारतीय न्यायपालिका के महत्वपूर्ण अंग है। राज्य का सबसे बडा न्यायालय होने के कारण राज्य के अन्य न्यायालय उसके अधीन कार्य करते हैं। राज्य की कार्यपालिका तथा विधायिका से सर्वोच्च न्यायालय की भांति राज्य के उच्च न्यायालयों को भी स्वतंत्रता प्रदान की गई है। राज्य के उच्च न्यायालयों के संबंध में वे सभी सिद्वांत अपनाये गये हैं जो स्वतंत्र न्यायपालिका के लिए अनिवार्य हैं। [01/12, 8:26 AM] Raj Kumar: #आधुनिक_भारत_का_इतिहास : #गोलमेज_सम्मेलन जिस दौरान पूरे भारत में सविनय अवज्ञा आन्दोलन प्रगति पर था और सरकार का दमन चक्र तेजी से चल रहा था, उसी समय वायसराय लॉर्ड इर्विन और मि. साइमन ने सरकार पर यह दबाव डाला कि वह भारतीय नेताओं तथा विभिन्न वर्गों के प्रतिनिधियों से सलाह लेकर भारत की संवैधानिक समस्याओं का निर्णय करे. इसी उद्देश्य से लन्दन में तीन गोलमेज सम्मेलनों का आयोजन किया गया. इन सम्मेलन का कोई आशाजनक परिणाम नहीं निकल कर सामने आया. उल्टे इससे भारत के विभिन्न वर्गों और संप्रदायों में मतभेद ही बढ़ा और सांप्रदायिकता के विकास में अत्यधिक वृद्धि हुई. आइए जानते हैं तीनों गोलमेज सम्मेलनों के बारे में विस्तार से - #प्रथम_गोलमेज_सम्मेलन : प्रथम गोलमेज सम्मेलन 12 नवम्बर 1930 से 19 जनवरी 1931 तक लॉर्ड इर्विन के प्रयास से हुआ. सम्मेलन में कुल 86 प्रतिनिधियों ने भाग लिया जिसमें तीन ग्रेट ब्रिटेन, 16 भारतीय देशी रियासतों और शेष 57 अन्य प्रतिनिधि थे. ब्रिटिश भारत और देशी रियासतों के प्रतिनिधियों में सर तेज बहादुर सप्रु, श्री निवास शास्त्री, डॉक्टर जयकर, सी. वाई. चिंतामणि और डा. अम्बडेकर जैसे व्यक्ति थे. सम्मेलन का उद्घाटन जॉर्ज पंचम ने किया एवं इसकी अध्यक्षता ब्रिटेन के प्रधानमंत्री रैम्से मैकडोनाल्ड ने की. प्रधानमंत्री मैकडोनाल्ड ने तीन आधारभूत सिद्धान्तों की चर्चा की – ▪️केन्द्रीय व्यवस्थापिका सभा का निर्माण संघ शासन के आधार पर होगा और ब्रिटिश भारतीय प्रांत तथा देशी राज्य संघ शासन की इकाई का रूप धारण करेंगे. ▪️केंद्र में उत्तरदायी शासन की स्थापना होगी, किन्तु सुरक्षा और विदेश विभाग भारत के गवर्नर जनरल के अधीन होंगे. ▪️अतिरिक्त काल में कुछ रक्षात्मक विधान अवश्य होंगे. ब्रिटिश प्रधानमंत्री के सुझावों के प्रति प्रतिनिधियों की भिन्न-भिन्न प्रतिक्रियाएं हुईं. संघ शासन के सिद्धांत को सभी प्रतिनिधियों ने स्वीकार कर लिया. देशी नरेशों ने भी संघ में सम्मिलित होना स्वीकार कर लिया. प्रांतीय स्वतंत्रता के संबंध में भी विचारों में मतभेद नहीं था. भारतीय प्रतिनिधियों ने इसका समर्थन किया. कवेल सरंक्षण और उत्तरदायी मंत्रियों पर नियंत्रण के सबंध में पारस्परिक मतभेद पाया गया. कुछ लोगों ने केन्द्र में आंशिक उत्तरदायित्व की जगह पूर्ण उत्तरदायित्व की माँग की. श्री जयकर और श्री सप्रु ने भारत के लिए आपैनिवेशिक स्वराज की माँग की. प्रथम गोलमेज सममेलन में साप्रंदायिकता की समस्या सर्वाधिक विवादपूर्ण रही. मुसलमान पृथक् तथा सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व के पक्ष में थे. जिन्ना ने अपने 14 सूत्र को सामने रखा, तो डा. अम्बेडकर ने अनुसूचित जातियों के लिए पृथक निवार्चक मडंल की माँग की. इस प्रकार प्रथम गोलमेज सम्मेलन असफल रहा और 19 जनवरी, 1931 को सम्मेलन अनिश्चित काल के लिए स्थगित हो गया. वस्तुतः कांग्रेस के बहिष्कार ने इस सममेलन को निरर्थक बना दिया था. ____________________________________________ #द्वितीय_गोलमेज_सम्मेलन : द्वितीय गोलमेज सम्मेलन 7 सितम्बर, 1931 से 1 दिसम्बर, 1931 तक चला. इस सम्मेलन में गाँधी जी आधिकारिक रूप से कांग्रेस के एकमात्र प्रतिनिधि थे. द्वितीय गोलमेज सम्मेलन शुरू होने के पूर्व इंग्लैण्ड की राजनीतिक स्थिति में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुए. मजदूर दल की सरकार के स्थान पर राष्ट्रीय सरकार का निर्माण हुआ जिसमें मजदूर, अनुदार तथा उदार तीनों दल सम्मिलित हुए. सर सेमुअल होर भारत सचिव नियुक्त हुआ, जो पक्का अनुदारवादी था. लार्ड इर्विन जैसे उदारवादी के स्थान पर लॉर्ड वेलिगंटन वायसराय नियुक्त हुआ. इसी बीच प्रथम गालमेज सम्मेलन के बाद ‘गांधी-इरविन पैक्ट’ हो चुका था और कांग्रेसी प्रतिनिधि के रूप में गांधीजी द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में भाग लेने के लिए तैयार थे. सम्मेलन में गांधीजी ने भारतीय हितों की रक्षा करने की भरपूर कोशिश की, परंतु अंत में वे असफल होकर ही लौटे. सम्मेलन में मुख्यतया भारतीय संघ के प्रस्तावित ढांचे और अल्पसंख्यकों के प्रश्नों पर बहस हुई. गांधीजी ने यह प्रमाणित करने की कोशिश की कि कांग्रेस पूरे राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करती है. उन्होंने भारत में पूर्ण उत्तरदायी सरकार की स्थापना और वायसराय के अनावश्यक अधिकारों में कटौती की बात की, परंतु प्रारंभ से ही अंग्रेजों की मंशा ठीक नहीं थी . अतः उन लोगों ने साप्रंदायिक प्रश्नों को ही प्राथमिकता दी. भारतीय सांप्रदायिक वर्ग भी गांधी की बात सुनने को तैयार नहीं थे. #गाँधी_जी_की_माँगें : उन्होंने निम्नलिखित माँगें रखीं – ▪️केंद्र और प्रान्तों में तुरंत और पूर्ण रूप से एक उत्तरदायी सरकार स्थापित की जानी चाहिए. ▪️केवल कांग्रेस ही राजनीतिक भारत का प्रतिनिधित्व करती है. ▪️अस्पृश्य भी हिन्दू हैं अतः उन्हें “अल्पसंख्यक” नहीं माना जाना चाहिए. ▪️मुसलामानों या अन्य अल्पसंख्यकों के लिए पृथक निर्वाचन या विशेष सुरक्षा उपायों को नहीं अपनाया जाना चाहिए. गाँधी जी की मांगों को सम्मेलन में स्वीकार नहीं किया गया. मुसलामानों, ईसाईयों, आंग्ल-भारतीयों एवं दलितों ने पृथक प्रतिनिधित्व की माँग प्रारम्भ कर दी. ये सभी एक “अल्पसंख्यक गठजोड़” के रूप में संगठित हो गये. गाँधी जी साम्प्रदायिक आधार पर किसी भी संवैधानिक प्रस्ताव के विरोध में अंत तक डटे रहे. #द्वितीय_गोलमेज_सम्मेलन_की_विफलता सम्मेलन की विफलता का लाभ उठाकर प्रधानमंत्री रैम्से मैकडोनाल्ड ने अपनी योजना रखी, जो स्वीकार्य नहीं हो सकती थी. सरकारी रुख से दु:खी और निराश होकर गांधीजी दिसम्बर 1931 में भारत लौटे. इस बीच लॉर्ड विलिगंटन कठारेतापवूर्क राष्ट्रीयता की भावना को दबाने में लगे हुए थे. जवाहर लाल नहेरू, पुरुषोत्तमदास टडंन, खान अब्दुल गफ्फार खां आदि प्रमुख नेताओं को गांधीजी के भारत लौटने के पूर्व ही गिरफ्तार कर लिया गया था. गांधीजी ने पुनः आन्दोलन करने की धमकी दी, अतः गाँधी सहित अनके अन्य नेताओं को भी गिरफ्तार कर लिया गया. कांग्रेस पुनः गैरकानूनी संस्था घोषित कर दी गयी. पुलिस अत्याचार बढ़ गये, प्रेस पर पाबंदियां बढ़ गयीं और कानून के बदले अध्यादेश द्वारा शासन चलाया जाने लगा. गांधीजी ने बदलती परिस्थितियों में ‘व्यक्तिगत अवज्ञा आन्दालेन’ की योजना बनायी. लेकिन सरकार के सांप्रदायिक निर्णय से वे हतोत्साहित हो उठे. फलतः मई 1933 में आन्दोलन को कांग्रेस ने स्थगित कर दिया तथा मई 1934 में इसे वापस ले लिया. सारे देश में उल्लास की जगह निराशा छा गयी. गांधीजी पुनः राजनीति से कटकर हरिजनों की तरफ ध्यान देने लगे. #प्रभाव सरकार भारतीयों की प्रमुख माँग “स्वराज” देने में असफल रही. गाँधी जी लौट गये और 29 दिसम्बर, 1931 को कांग्रेस कार्यसमिति ने सविनय अवज्ञा आन्दोलन फिर से शुरू करने का निर्णय लिया. भारतीय राजनीति में साम्प्रदायिता के तत्त्व और मजबूत हो गये. #निष्कर्ष सम्मेलन में साम्प्रदायिक मामले ही मुख्य विषय बन गये. मतभेद सम्पात होने के बजाय और बढ़ गये. सम्मेलन बिना किसी निष्कर्ष ने 1 दिसम्बर 1931 को समाप्त हो गया और भारत वापस आकार गाँधी जी ने सविनय अवज्ञा आन्दोलन को पुनः प्रारम्भ करने की घोषणा की. ____________________________________________ #तृतीय_गोलमेज_सम्मेलन : तृतीय गोलमेज सम्मेलन का आयोजन 17 नवम्बर 1932 से 24 दिसम्बर 1932 तक किया गया. इस सम्मेलन में केवल 46 प्रतिनिधियों ने भाग लिया. तृतीय गोलमेज सम्मेलन में मुख्यतः प्रतिक्रियावादी तत्वों ने ही भाग लिया. भारत की कांग्रेस तथा ब्रिटेन की लेबर पार्टी ने इस सम्मेलन में भाग नहीं लिया. इस सम्मेलन में भारतीयों के मूल अधिकारों की मांग की गयी तथा गवर्नर जनरल के अधिकारों को प्रतिबंधित करने की माँग रखी गयी, परंतु सरकार ने इस पर कोई ध्यान नहीं दिया. फलतः यह सम्मेलन भी विफल रहा. इन गोलमेज सम्मेलनों द्वारा भारत के संवैधानिक प्रश्नों का हल ढूंढ़ने का नाटक किया गया, लेकिन कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया. वर्ग विशेष के हितों और सरकारी नीतियों के चलते तीनों ही सम्मेलन विफल रहे. इनकी विपफलता के साथ-साथ साप्रंदायिकता का विकराल स्वरूप भी स्पष्ट रूप से उभरकर सामने आ गया, जिसने बाद की घटनाओं को प्रभावित किया. तीसरे गोलमेज सम्मलेन की समाप्ति के बाद एक श्वेत पत्र जारी किया गया जिस पर विचार करने के लिए लॉर्ड लिनलिथगो की अध्यक्षता में ब्रिटिश संसद द्वारा एक संयुक्त समिति गठित की गई. इसी समिति की रिपोर्ट के आधार पर “भारत सरकार अधिनियम, 1935” का निर्माण हुआ. #तृतीय_गोलमेज_सम्मेलन_में_शामिल_प्रतिनिधि : #भारतीय_प्रान्तों_के_प्रतिनिधि अकबर हैदरी (हैदराबाद के दीवान), मिर्जा इस्माइल (मैसूर के दीवान), वी.टी. कृष्णामचारी (बड़ौदा के दीवान), वजाहत हुसैन (जम्मू और कश्मीर), सर सुखदेव प्रसाद (उदयपुर, जयपुर, जोधपुर), जे.ए. सुर्वे (कोल्हापुर), रजा अवध नारायण बिसर्य (भोपाल), मनु भाई मेहता (बीकानेर), नवाब लियाकत हयात खान (पटियाला). #ब्रिटिश_भारत_के_प्रतिनिधि आगा खां तृतीय, डॉ. अम्बेडकर (दलित वर्ग), बोब्बिली के रामकृष्ण रंगा राव, सर हुबर्ट कार्र (यूरोपियन), नानक चंद पंडित, ऐ.एच. गजनवी, हनरी गिड़ने (आंग्ल-भारतीय), हाफ़िज़ हिदायात हुसैन, मोहम्मद इकबाल, एम.आर. जयकर, कोवासजी जहाँगीर, एन.एम. जोशी (मजदूर), ऐ.पी. पेट्रो, तेज बहादुर सप्रू, डॉ. सफाअत अहमद खां, सर सादिलाल, तारा सिंह मल्होत्रा, सर निर्पेंद्र नाथ सरकार, सर पुरुषोत्तम दास ठाकुर दास, मुहम्मद जफरुल्लाह खां. सितम्बर, 1931 से मार्च, 1933 तक, भारत सचिव सैमुअल होअर के पर्यवेक्षण में, प्रस्तावित सुधारों को लेकर प्रपत्र तैयार किया गया जो भारत सरकार अधिनियम 1935 का प्रमुख आधार बना. [01/12, 8:26 AM] Raj Kumar: #आधुनिक_भारत_का_इतिहास : #गांधी_इरविन_समझौता लंदन में आयोजित प्रथम गोलमेज सम्मेलन की असफलता और असहयोग आन्दोलन की व्यापकता ने सरकार के सामने यह स्पष्ट कर दिया कि कांग्रेस और गाँधी के बिना भारत की राजनीतिक समस्या का समाधान आसान नहीं है. इसलिए लॉर्ड इरविन ने मध्यस्थता द्वारा गाँधीजी से समझौते की बातचीत प्रारम्भ कर दी. गाँधीजी 26 जनवरी, 1931 को जेल से रिहा कर दिए गये. 17 फ़रवरी से दिल्ली में इरविन और गाँधी जी के बीच वार्ता चलने लगी. 5 मार्च, 1931 को गाँधी-इरविन समझौते (दिल्ली पैक्ट) के मसविदे पर हस्ताक्षर किये गये. #गाँधी_इरविन_पैक्ट (दिल्ली पैक्ट) : गाँधी-इरविन समझौते के अनुसार सरकार ने निम्नलिखित वायदे किये – ▪️सरकार सभी राजनीतिक बंदियों को रिहा कर देगी. जिन लोगों की संपत्ति आंदोलन के दौरान जब्त की गई थी, उसे वापस कर दिया जाएगा . ▪️सरकार दमन बंद कर आंदोलन के दौरान जारी किए गए सभी अध्यादेशों और उनसे संबंधित मुकदमों को वापस ले लेगी. ▪️भारतीयों को नमक बनाने की छूट दी जाएगी. ▪️जिन लोगों ने आंदोलन के दौरान सरकारी नौकरियों से त्याग-पत्र दे दिया था, उन्हें सरकार पुनः वापस लेने का विचार करेगी. ▪️इन आश्वासनों के बदले गाँधीजी सविनय अवज्ञा आंदोलन बंद कर लेने, दूसरे गोलमेज सम्मेलन में भाग लेने, पुलिस अत्याचारों की जाँच-पड़ताल नहीं करवाने, ब्रिटिश वस्तुओं के बहिष्कार नहीं करने और बहिष्कार की नीति को त्यागने पर सहमत हो गए. #गाँधी_इरविन_समझौते_पर_प्रतिक्रियाएँ : गाँधी-इरविन समझौते पर भिन्न-भिन्न प्रतिक्रियाएँ हुईं. ▪️काँग्रेस की स्वतंत्रता का प्रस्ताव और 26 जनवरी का वायदा, दोनों की समझौते की बातचीत के दौरान उपेक्षा की गई. इससे नेहरू और दूसरे वामपंथी नेता बहुत दुःखी हुए.” सरकार ने किसी भी महत्त्वपूर्ण माँग को स्वीकार नहीं किया, यहाँ तक कि भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु की फाँसी की सजा को कारावास में भी नहीं बदला. ▪️23 मार्च को इन तीनों वीरों को जेल में फाँसी पर लटका दिया गया. इसका तीव्र विरोध हुआ. ▪️केंद्रीय विधानसभा में विपक्ष के नेता सर अब्दुर रहीम तथा स्वतंत्र दल के उपाध्यक्ष कावसजी जहाँगीर ने विरोध प्रकट करने के लिए सभा से बहिर्गमन किया . ▪️दुःखी और क्षुब्ध जवाहरलाल ने घोषणा की, “भगत सिंह का शव हमारे और इंग्लैंड के बीच खड़ा रहेगा.” ▪️गाँधी और काँग्रेस की इससे कटु आलोचना हुई. श्री अयोध्या सिंह समझौते पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए लिखते हैं, “पूर्ण स्वाधीनता या डोमिनियन स्टेट्स / (अधिराज्य) की बात जाने दीजिए; न तो लगान कम किया गया, न कोई टैक्स, न नमक पर सरकार की इजारेदारी हटाई गई, सिर्फ बुजुर्आ वर्ग को नाममात्र के लिए एक-दो सुविधाएँ दी गई. बस इसी पर सारा जन-आंदोलन उस वक्त बंद कर दिया गया, जब वह चरम सीमा पर पहुँच रहा था और क्रांतिकारी रूप ले रहा था. एक बार फिर बुर्जुआ वर्ग के स्वार्थ के लिए सारे देश के स्वार्थ की बलि दे दी गई. 1922 ई० की पुनरावृत्ति व्यापक रूप में की गई.” इसके बावजूद इतना तो स्वीकार करना ही पड़ेगा कि सरकार को गाँधी-इरविन समझौता करने को बाध्य होना पड़ा. यह एक बड़ी विजय थी और आम जनता ने उसे इसी रूप में लिया.

भारतीय_राजव्यवस्था_एवं_शासन : #राज्य_विधानमंडल

भारतीय_राजव्यवस्था_एवं_शासन : #राज्य_विधानमंडल संविधान के छठे भाग में अनुच्छेद 168 से 212 तक राज्य विधान मंडल की संरचना, गठन, कार्यकाल, अधिकारियों, प्रक्रियाओं, विशेषाधिकार तथा शक्तियों के बारे में बताया गया है। संविधान के अनुच्छेद 168 के अनुसार प्रत्येक राज्य के लिए एक विधानमंडल होगा जो राज्यपाल और दो सदनों से मिलकर बनेगा। जहां किसी राज्य के विधान-मंडल के दो सदन हैं वहां एक का नाम विधान परिषद् और दूसरे का नाम विधान सभा होगा। विधान परिषद उच्च सदन है, जबकि विधानसभा निम्न सदन (पहला सदन) होता है। वर्तमान में भारत में केवल 6 राज्यों (उत्तर प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र, कर्नाटक, आन्ध्र प्रदेश और तेलंगाना) में द्विसदनीय(विधान सभा व विधान परिषद्) विधायिका है। जम्मू कश्मीर पुनर्गठन एक्ट की धारा 57 के तहत विधान परिषद को सरकार ने समाप्त कर दिया है। 7वें संविधान संशोधन अधिनियम(1956) द्वारा मध्य प्रदेश के लिए विधान परिषद के गठन का प्रावधान किया गया था किन्तु अभी तक वहां एकसदनीय विधायिका ही है। #विधानसभा (अनुच्छेद-170) : राज्य विधानमंडल के निचले सदन को विधानसभा कहा जाता है, इस सदन के सदस्यों का चुनाव जनता द्वारा प्रत्यक्ष रुप से किया जाता है। विधानसभा के सदस्यों को प्रत्यक्ष मतदान द्वारा वयस्क मताधिकार के आधार पर चुना जाता है। राज्यपाल आंग्ल-भारतीय समुदाय के एक व्यक्ति को विधानसभा में मनोनीत कर सकता है (अनुच्छेद 333) #सदस्य_संख्या : ▪️अधिकतम 500 तथा न्यूनतम 60 है। ▪️अरूणाचल प्रदेश, सिक्किम और गोवा के मामले में यह संख्या 30 तय की गई है। ▪️मिजोरम के मामले में 40 व नगालैण्ड के मामले में 46 सदस्य संख्या तय है। ▪️राजस्थान में विधानसभा की 200 सीटें हैं। #आरक्षण : ▪️अनुसूचित जाति/जनजाति को जनसंख्या के अनुपात में राज्य विधानसभा में आरक्षण प्रदान किया गया है।(अनुच्छेद 332) ▪️राज्यपाल, आंग्ल-भारतीय समुदाय से एक सदस्य को नामित कर सकता है। यदि इस समुदाय का प्रतिनिधि विधानसभा में पर्याप्त नहीं हो।(अनुच्छेद 333) #कार्यकाल : ▪️सामान्यतः 5 वर्ष(अस्थायी सदन) ▪️आपातकाल में विधानसभा का कार्यकाल एक बार में एक वर्ष तक बढ़ाया जा सकता है। ▪️मंत्रिपरिषद की सिफारिश पर राज्यपाल द्वारा विधानसभा को समय से पूर्व भंग किया जा सकता है। #विधानसभा_क्षेत्र_का_परिसीमन : ▪️अनुच्छेद 170 खण्ड-2(1) - प्रत्येक राज्य के भीतर सभी निर्वाचन क्षेत्रों की जनसंख्या यथासंभव समान होनी चाहिए। ▪️अनुच्छेद 170 खण्ड 3 - प्रत्येक जनगणना की समाप्ति पर प्रत्येक राज्य की विधानसभा में स्थानों की कुल संख्या और प्रत्येक राज्य के प्रादेशिक निर्वाचन क्षेत्रों का विभाजन ऐसे प्राधिकारी द्वारा और ऐसी रीति से किया जाएगा जो संसद विधि द्वारा निर्धारित करे। #विधानसभा_के_कार्य_एवं_शक्तियां : ▪️जिन राज्यों में विधान मंडल एक सदन है वहां पर विधानमंडल की सभी शक्तियों का प्रयोग विधानसभा द्वारा किया जाता है तथा जिन राज्यों में विधान मंडल दो सदनीय है वहां पर भी विधानसभा अधिक प्रभावशाली है।| #विधायिनी_शक्तियां : ▪️राज्य सूची तथा समवर्ती सूची के सभी विषयों पर कानून बनाने का अधिकार विधानसभा को प्राप्त है मूल रूप से राज्य सूची में 66 विषय तथा समवर्ती सूची में 47 विषय है | ▪️यदि विधानमंडल द्विसदनीय है तो विधेयक विधानसभा से पास होकर विधान परिषद के पास जाता है विधान परिषद यदि उसे रद्द कर दें या 3 महीने तक उस पर कोई कार्यवाही ना करें या उसमें ऐसे संशोधन कर दें जो विधानसभा को स्वीकृत ना हो, तो विधानसभा उस विधेयक को दोबारा पास कर सकती है और उसे दोबारा विधान परिषद के पास भेज सकता है | ▪️यदि विधान परिषद उस बिल पर दोबारा 1 महीने तक कोई कार्यवाही ना करें या दोबारा उसे दोबारा रद्द कर दें या उसमें ऐसे संशोधन कर दे जो विधान सभा को स्वीकृत ना हो, तो तीनों अवस्थाओं में यह बिल दोनों सदनों द्वारा पास समझा जाए | ▪️दोनों सदनों या एक सदन से पास होने के बाद बिल राज्यपाल के पास जाता है, वह उस पर अपनी स्वीकृति भी दे सकता है, उसे राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए भी भेज सकता है, उसे दोबारा विचार करने के लिए निर्देशों या बिना निर्देशों के सदन को वापस भी कर सकता है परंतु यदि विधान सभा या विधान मंडल इस बिल को दोबारा पास करके भेजें तो राज्यपाल को अपनी स्वीकृति देनी पड़ती है | #वित्तीय_शक्तियां : ▪️विधानसभा का राज्य के वित्त पर नियंत्रण होता है धन विधेयक केवल विधानसभा में पेश हो सकता है वित्तीय वर्ष के प्रारंभ होने से पहले राज्य का वार्षिक बजट भी इसी के सामने प्रस्तुत किया जाता है | ▪️विधानसभा की स्वीकृति के बिना राज्य सरकार न कोई कर लगा सकती है और ना ही कोई पैसा खर्च कर सकती है विधानसभा में पास होने के बाद धन विधेयक विधान परिषद के पास भेजा जाता है जो उसे अधिक से अधिक 14 दिन तक पास होने से रोक सकती है | ▪️विधान परिषद चाहे धन विधेयक को रद्द करें या 14 दिन तक उस पर कोई कार्यवाही ना करे तो भी वह दोनों सदनों द्वारा पास समझा जाता है और राज्यपाल की स्वीकृति के लिए भेज दिया जाता है जिसे धन विधेयक पर अपनी स्वीकृति देनी ही पड़ती है राज्यपाल धन विधेयक को पुनर्विचार के लिए नहीं लौटा सकता है। #कार्यपालिका_पर_नियंत्रण : ▪️विधान परिषद को कार्यकारी शक्तियां मिली हुई है विधानसभा का मंत्री परिषद पर पूर्ण नियंत्रण है मंत्री परिषद अपने समस्त कार्य व नीतियों के लिए विधानसभा के प्रति उत्तरदाई है विधानसभा के सदस्य मंत्रियों की आलोचना कर सकते हैं प्रश्न और पूरक प्रश्न पूछ सकते हैं। ▪️विधानसभा चाहे तो मंत्रिपरिषद को हटा भी सकती है विधानसभा मंत्रिपरिषद के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव पास करके अथवा धन विधेयक को अस्वीकृत करके तथा मंत्रियों के वेतन में कटौती करके अथवा सरकार के किसी महत्वपूर्ण विधेयक को अस्वीकृत करके मंत्रिपरिषद को त्यागपत्र देने के लिए मजबूर कर सकती है। #संवैधानिक_कार्य : ▪️राज्य विधानसभा को संविधान में संशोधन करने का कोई महत्वपूर्ण अधिकार प्राप्त नहीं है| संशोधन करने का अधिकार संसद को ही प्राप्त है, परंतु संविधान में कई ऐसे अनुच्छेद हैं जिनमें संसद अकेले संशोधन नहीं कर सकती है | ▪️ऐसे अनुच्छेदों में संशोधन करने के लिए आधे राज्यों के विधान मंडलों की स्वीकृति भी आवश्यक होती है अतः विधान परिषद के साथ मिलकर विधानसभा संविधान में भाग लेती है | #चुनाव_संबंधी_कार्य : ▪️विधानसभा के निर्वाचित सदस्यों को राष्ट्रपति के चुनाव में भाग लेने का अधिकार है या अधिकार विधान परिषद को प्राप्त नहीं है | ▪️विधान सभा के सदस्य विधान परिषद के ⅓ सदस्यों को चुनते हैं | ▪️विधानसभा के सदस्य की राज्यसभा में राज्य के प्रतिनिधियों को चुनकर भेजते हैं राज्य विधानसभा के सदस्य अपने में से एक को अध्यक्ष तथा किसी दूसरे को उपाध्यक्ष चुनते हैं | #विधान_परिषद (अनुच्छेद-171) : भारतीय संविधान में राज्यों को राज्य की भौगोलिक स्थिति, जनसंख्या एवं अन्य पहलुओं को ध्यान में रखते हुए राज्य विधानमंडल के अंतर्गत उच्च सदन के रूप में विधानपरिषद (वैकल्पिक) की स्थापना करने की अनुमति दी गई है। जहाँ विधानपरिषद के पक्षकार इसे विधानसभा की कार्यवाही और शासक दल की निरंकुशता पर नियंत्रण रखने के लिये महत्त्वपूर्ण मानते हैं, वहीं कई बार राज्य विधानमंडल के इस सदन को समय और पैसों के दुरुपयोग की वजह बता कर इसकी भूमिका और आवश्यकता पर प्रश्न उठते रहते हैं। राज्य विधानपरिषद की कार्यप्रणाली कई मायनों में राज्यसभा से मेल खाती है तथा इसके सदस्यों का कार्यकाल भी राज्यसभा सदस्यों की तरह ही 6 वर्षों का होता है। #संविधान_में_राज्य_विधानपरिषद_से_जुड़े_प्रावधान : ▪️संविधान के छठे भाग में अनुच्छेद 168-212 तक राज्य विधानमंडल (दोनों सदनों) के गठन, कार्यकाल, नियुक्तियों, चुनाव, विशेषाधिकार एवं शक्तियों की व्याख्या की गई है। ▪️इसके अनुसार, विधानपरिषद उच्च सदन के रूप में राज्य विधानमंडल का स्थायी अंग होता है। ▪️वर्तमान में देश के 6 राज्यों -आंध्र प्रदेश, बिहार, कर्नाटक, महाराष्ट्र, तेलंगाना और उत्तर प्रदेश में विधानपरिषद है, केन्द्रशासित प्रदेश बनने से पहले जम्मू-कश्मीर में भी विधानपरिषद थी। ▪️संविधान के अनुच्छेद 169, 171(1) और 171(2) में विधानपरिषद के गठन एवं संरचना से जुड़े प्रावधान हैं। ▪️संविधान का अनुच्छेद 169 किसी राज्य में विधानपरिषद के उत्सादन या सृजन का प्रावधान करता है, वहीं अनुच्छेद 171 विधानपरिषदों की संरचना से जुड़ा है। ▪️संविधान के अनुच्छेद 169 के अनुसार, राज्यों को विधानपरिषद के गठन अथवा विघटन करने का अधिकार है, परंतु इसके लिये प्रस्तुत विधेयक का विधानसभा में विशेष बहुमत (2/3) से पारित होना अनिवार्य है। ▪️विधानसभा के सुझावों पर विधानपरिषद के निर्माण व समाप्ति के संदर्भ में अंतिम निर्णय लेने का अधिकार संसद के पास होता है। ▪️विधानसभा से पारित विधेयक यदि संसद के दोनों सदनों में बहुमत से पास हो जाता है तब इस विधेयक को राष्ट्रपति के पास हस्ताक्षर के लिये भेजा जाता है। ▪️राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के बाद इस विधेयक (विधानपरिषद का गठन अथवा विघटन) को संवैधानिक मान्यता प्राप्त हो जाती है। ▪️इस प्रक्रिया के दौरान संविधान में आए परिवर्तनों को अनुच्छेद 368 के तहत संविधान का संशोधन नहीं माना जाता। #विधानपरिषद_की_संरचना : ▪️संविधान के अनुच्छेद 171 के अनुसार, विधानपरिषद के कुल सदस्यों की संख्या राज्य विधानसभा के सदस्यों की कुल संख्या के एक-तिहाई (1/3) से अधिक नहीं होगी, किंतु यह सदस्य संख्या 40 से कम नहीं होनी चाहिये। ▪️विधानपरिषद के सदस्यों का कार्यकाल राज्यसभा सदस्यों की ही तरह 6 वर्षों का होता है तथा कुल सदस्यों में से एक-तिहाई (1/3) सदस्य प्रति दो वर्ष में सेवानिवृत्त हो जाते हैं। ▪️राज्यसभा की तरह ही विधानपरिषद भी एक स्थायी सदन है जो कभी भंग नहीं होता है। ▪️राज्यसभा की ही तरह विधानपरिषद के सदस्यों का निर्वाचन प्रत्यक्ष चुनावों द्वारा नहीं होता है। #विधानपरिषद_के_गठन_की_प्रक्रिया : संविधान के अनुच्छेद 171 के तहत विधानपरिषद के गठन के लिये सदस्यों के चुनाव के संदर्भ में निम्नलिखित प्रावधान किये गए हैं- ▪️1/3 सदस्य राज्य की नगरपालिकाओं, ज़िला बोर्ड और अन्य स्थानीय संस्थाओं द्वारा निर्वाचित होते हैं। ▪️1/3 सदस्यों का चुनाव विधानसभा के निर्वाचित सदस्यों द्वारा किया जाता है। ▪️1/12 सदस्य ऐसे व्यक्तियों द्वारा चुने जाते हैं जिन्होंने कम-से-कम तीन वर्ष पूर्व स्नातक की डिग्री प्राप्त कर लिया हो एवं उस विधानसभा क्षेत्र के मतदाता हों। ▪️1/12 सदस्य उन अध्यापकों द्वारा निर्वाचित किया जाता है, जो 3 वर्ष से उच्च माध्यमिक (हायर सेकेंडरी) विद्यालय या उच्च शिक्षण संस्थानों में अध्यापन कर रहे हों। ▪️1/6 सदस्य राज्यपाल द्वारा मनोनीत होंगे, जो कि राज्य के साहित्य, कला, सहकारिता, विज्ञान और समाज सेवा का विशेष ज्ञान अथवा व्यावहारिक अनुभव रखते हों। ▪️सभी सदस्यों का चुनाव ‘अनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली’ के आधार पर एकल संक्रमणीय गुप्त मतदान प्रक्रिया से किया जाता है। #सदस्यता_हेतु_अर्हताएँ : संविधान के अनुच्छेद 173 के अनुसार, किसी भी व्यक्ति के राज्य विधानपरिषद में नामांकन के लिये निम्नलिखित अहर्ताएँ बताई गई हैं- ▪️वह भारत का नागरिक हो। ▪️उसकी आयु कम-से-कम 30 वर्ष होनी चाहिये। ▪️मानसिक रूप से असमर्थ और दिवालिया नहीं होना चाहिये। ▪️जिस क्षेत्र से वह चुनाव लड़ रहा हो वहाँ की मतदाता सूची में उसका नाम होना चाहिये। ▪️राज्यपाल द्वारा नामित होने के लिये व्यक्ति को संबंधित राज्य का निवासी होना अनिवार्य है। #विधानपरिषद_के_सत्र_सत्रावसान_एवं_विघटन : ▪️अनुच्छेद 174 में सत्र, सत्रावसान व विघटन संबंधी प्रावधान है | ▪️राज्य की विधानपरिषद् के संसद की भांति 3 सत्र होते हैं एक पत्र की अंतिम बैठक और दूसरे सत्र की प्रथम बैठक के बीच 6 माह से अधिक का अंतर नहीं होगा विधानपरिषद् का विघटन नहीं होता है | #विधानपरिषद_के_कार्य_एवं_शक्तियां : ▪️विधानपरिषद् धन विधेयक को केवल 14 दिन तक ही रोक सकती है। ▪️सामान्य विधेयक को विधान परिषद ने पेश किया जा सकता है परंतु सामान्य विधेयक पर अंतिम शक्ति विधानसभा के पास है। ▪️विधानसभा द्वारा पारित विधेयक को पहली बार में विधानपरिषद् 3 माह तक रोक सकती है यदि 3 माह बाद विधान सभा पुनः विधेयक को पारित कर दे तो सामान्य विधेयक को विधानपरिषद् 1 माह तक और रोक सकती है इस प्रकार विधानपरिषद् किसी विधेयक को अधिकतम 4 माह तक की रोक सकती है। ▪️जिन संशोधन विधेयक में राज्य विधानमंडल का समर्थन आवश्यक है एवं विधानपरिषद् भी भाग लेती है। [01/12, 8:26 AM] Raj Kumar: #आधुनिक_भारत_का_इतिहास : #सविनय_अवज्ञा_आंदोलन सविनय अवज्ञा आंदोलन की शुरुआत 1930 ई. में नमक कानून से हुए थी। दांडी यात्रा साबरमती में गाँधी जी के आश्रम से 240 किमी. दूर दांडी नामक गुजराती तटीय कस्बे में जाकर खत्म होनी थी। गाँधी जी की टोली ने 24 दिन रोज लगभग 10 मील सफर तय किया। गाँधी जी जहाँ भी रुकते हजारों लोग उन्हें सुनने आते थे। 6 अप्रैल को वे दांडी नामक स्थान पर पहुँचे और उन्होंने समुद्र का पानी उबालकर नमक बनाना शुरू कर दिया था। यह कानून का उल्लंघन था। हजारों लोगो ने नमक कानून तोड़कर सरकारी नमक कारखाने के सामने प्रदर्शन किये। सविनय अवज्ञा आंदोलन का अर्थ - अहिंसा या विनम्रता के साथ कानून का पालन ना करना। #सविनय_अवज्ञा_आन्दोलन_के_कारण : इस आन्दोलन को शुरू करने के कारणों को हम संक्षेप में निम्न रूप से रख सकते हैं- ▪️अंग्रेजी सरकार द्वारा नमक कानून बनाने के कारण भारत देश की गरीब जनता पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ा था। इसलिए भारतीय जनता में इस कानून के प्रति बहुत भारी गुस्सा था। ▪️ब्रिटिश सरकार ने नेहरू रिपोर्ट को अस्वीकृत कर भारतीयों के लिए संधर्ष के अतिरिक्त अन्य कोई मार्ग नहीं छोड़ा. उनके पास संघर्ष के अलावा और कोई चारा नहीं था. ▪️देश की आर्थिक स्थिति शोचनीय हो गयी थी. विश्वव्यापी आर्थिक मंदी से भारत भी अछूता नहीं रहा. एक तरफ विश्व की महान आर्थिक मंदी ने, तो दूसरी तरपफ सोवियत संघ की समाजवादी सफलता और चीन की क्रान्ति के प्रभाव ने दुनिया के विभिन्न देशों में क्रान्ति की स्थिति पैदा कर दी थी. किसानों और मजदूरों की स्थिति बहुत ही दयनीय हो गयी थी. फलस्वरूप देश का वातावरण तेजी से ब्रिटिश सरकार विरोधी होता गया. गांधीजी ने इस मौके का लाभ उठाकर इस विरोध को सविनय अवज्ञा आन्दोलन की तरफ मोड़ दिया. ▪️भारत की विप्लवकारी स्थिति ने भी आन्दालेन को शुरू करने को प्रेरित किया. आंतकवादी गतिविधियाँ बढ़ रही थीं. ‘मेरठ षड्यंत्र केस’ और ‘लाहौर षड्यंत्र केस’ ने सरकार विरोधी विचारधाराओं को उग्र बना दिया. किसानों, मजदूरों और आंतकवादियों के बीच समान दृष्टिकोण बनते जा रहे थे. इससे हिंसा और भय का वातावरण व्याप्त हो गया. हिंसात्मक संघर्ष की संभावना अधिक हो गयी थी. ▪️सरकार राष्ट्रीयता और देश प्रेम की भावना से त्रस्त हो चुकी थी. अतः वह नित्य दमन के नए-नए उपाय थी. इसी सदंर्भ में सरकार ने जनवरी 1929 में ‘पब्लिक सफ्तेय बिल’ या ‘काला काननू’ पेश किया, जिसे विधानमडंल पहले ही अस्वीकार कर चुका था. इससे भी जनता में असंतोष फैला. ▪️31 अक्टूबर, 1929 को वायसराय लार्ड इर्विन ने यह घोषणा की कि – “मुझे ब्रिटिश सरकार की ओर से घोषित करने का यह अधिकार मिला है कि सरकार के मतानुसार 1917 की घोषणा में यह बात अंतर्निहित है कि भारत को अन्त में औपनिवेशिक स्वराज प्रदान किया जायेगा.” लॉर्ड इर्विन की घोषणा से भारतीयों के बीच एक नयी आशा का संचार हुआ. फलतः वायसराय के निमंत्रण पर गाँधीजी, जिन्ना, तेज बहादुर सप्रु, विठ्ठल भाई पटेल इत्यादि कांग्रेसी नेताओं ने दिल्ली में उनसे मुलाक़ात की. वायसराय डोमिनियन स्टटे्स के विषय पर इन नेताओं को कोई निश्चित आश्वासन नहीं दे सके. दूसरी ओर, ब्रिटिश संसद में इर्विन की घोषणा (दिल्ली घोषणा पत्र) पर असंतोष व्यक्त किया गया. इससे भारतीय जनता को बड़ी निराशा हुई और सरकार के विरुद्ध घृणा की लहर सारे देश में फैल गयी. ▪️उत्तेजनापूर्ण वातावरण में कांग्रेस का अधिवेशन दिसम्बर 1929 में लाहौर में हुआ. अधिवेशन के अध्यक्ष जवाहर लाल नेहरू थे जो युवक आन्दोलन और उग्र राष्ट्रवाद के प्रतीक थे. इस बीच सरकार ने नेहरू रिपोर्ट को स्वीकार नहीं किया था. महात्मा गांधी ने राष्ट्र के नब्ज को पहचान लिया और यह अनुभव किया कि हिंसात्मक क्रान्ति का रोकने के लिए ‘सविनय अवज्ञा आन्दालेन’ को अपनाना होगा. अतः उन्होंने लाहौर अधिवेशन में प्रस्ताव पेश किया कि भारतीयों का लक्ष्य अब ‘पूर्ण स्वाधीनता’ है न कि औपनिवेशिक स्थिति की प्राप्ति, जो गत वर्ष कलकत्ता अधिवेशन में निश्चित किया गया था. #सविनय_अवज्ञा_आंदोलन_का_कार्यक्रम : महात्मा गाँधी द्वारा नमक कानून को भंग करना सारे देश के लिये सविनय अवज्ञा के प्रारंभ का संकेत था। अतः जगह-2 लोगों ने सरकारी कानूनों को तोङना शुरू कर दिया। महात्मा गाँधी ने सविनय अवज्ञा आंदोलन में निम्नलिखित कार्यक्रम सम्मिलित किये- ▪️गाँव-2 में नमक कानून तोङा गया। ▪️छात्र सरकारी स्कूलों और कर्मचारी सरकारी दफ्तरों को छोङ दें। ▪️स्त्रियाँ शराब, अफीम और विदेशी कपङों की दुकानों पर धरना दें। ▪️विदेशी कपङों को जलाया जाय। ▪️लोग सरकार को टैक्स न दें। #सविनय_अवज्ञा_आंदोलन_के_दमन_के_कारण : महात्मा गाँधी जी ने गाँधी-इरविन समझौता के तहत 1931 ई. में सविनय अवज्ञा आंदोलन को वापस लेने ला निर्णय लिया था, इसके निम्नलिखित कारण है। - ▪️सरकार राजनितिक कैदियों को रिहा करने पर राजी हो गयी थी। ▪️सरकार दमनकारी नीति चला रखी थी जिसके तहत शांतिपूर्ण सत्याग्रहियों पर हमले किये गए, महिलाओं और बच्चो को मारा-पीटा गया और लगभग 1 लाख लोग गिरफ्तार किये गए थे। ▪️ओद्योगिक मजदूरों ने अंग्रेजी शासन प्रतीक पुलिस चौकियों, नगरपालिका भवन, अदालतों और रेलवे स्टेशनों पर हमले शुरू कर दिए थे। #सविनय_अवज्ञा_आंदोलन_के_प्रभाव : ▪️सविनय अवज्ञा आंदोलन के दौरान लोगों का ब्रिटिश शासन से विश्वास जाता रहा और वे ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध लड़ने के लिए एकजुट होने लगे। ▪️सविनय अवज्ञा आंदोलन के चलाए जाने के साथ भारत में क्रांतिकारी आंदोलन फिर से जागृत हो गए। ▪️इस आंदोलन के दौरान भारतीयों को ब्रिटिश सरकार की कठोर यातनाओं सहना पड़ा था परन्तु अपने संघर्ष से उन्हें जो अनुभव मिला वह अमूल्य था। इस अनुभव ने आगे आने वाले स्वतत्रंता संघर्ष में उनका बड़ा मार्गदर्शन किया और एक सफल संघर्ष के दाँव-पेंच समझा दिए। #निष्कर्ष : इस आन्दोलन की एक प्रमुख विशेषता महिलाओं की भागीदारी थी. हजारों महिलाओं ने घरों से बाहर निकलकर आन्दोलन में सक्रिय सहयोग दिया. यहाँ यह उल्लेखनीय है कि मुस्लिम लीग को छोड़ भारत के सभी दलों और सभी वर्गों ने इस आन्दोलन का साथ दिया. अब सरकार भी गाँधीजी और कांग्रेस के महत्त्व को समझने लगी. वह समझ गयी कि आन्दालेन को केवल ताकत के बल पर नहीं दबाया जा सकता है. अतः संवैधानिक सुधारों की बात सोची जाने लगी. इसी उद्देश्य से लन्दन में प्रथम गालमेज सम्मलेन हुआ, परन्तु कांग्रेस के बहिष्कार के चलते वह असफल रहा. बाध्य होकर सरकार को गाँधी के साथ समझौता-वार्ता करनी पड़ी, जो ‘गांधी-इर्विन पैक्ट’ के नाम से विख्यात है. [01/12, 8:26 AM] Raj Kumar: #आधुनिक_भारत_का_इतिहास : #कांग्रेस_का_लाहौर_अधिवेशन, #पूर्ण_स्वराज्य_प्रस्ताव [ 1929 ] दिसम्बर 1929 में, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन तत्कालीन पंजाब प्रांत की राजधानी लाहौर में हुआ। इस ऐतिहासिक अधिवेशन में कांग्रेस के ‘पूर्ण स्वराज्य’ का घोषणा-पत्र तैयार किया तथा इसे कांग्रेस का मुख्य लक्ष्य घोषित किया। जवाहरलाल नेहरू, जिन्होंने पूर्ण स्वराज्य के विचार को लोकप्रिय बनाने में सर्वाधिक योगदान दिया था, इस अधिवेशन के अध्यक्ष चुने गये। जवाहरलाल नेहरू को अध्यक्ष बनाने में गांधी जी ने निर्णायक भूमिका निभाई। यद्यपि अठारह प्रांतीय कांग्रेस समितियों में से सिर्फ तीन का समर्थन ही नेहरू को प्राप्त था किंतु बहिष्कार की लहर में युवाओं के सराहनीय प्रयास को देखते हुये महात्मा गांधी ने इन चुनौतीपूर्ण क्षणों में कांग्रेस का सभापतित्व जवाहरलाल नेहरू को सौंपा। जवाहरलाल नेहरू के अध्यक्ष चुने जाने के दो महत्वपूर्ण कारण थे- 1. उनके पूर्ण स्वराज्य के प्रस्ताव को कांग्रेस ने अपना मुख्य लक्ष्य बनाने का निश्चय कर लिया था। 2. गांधी जी का उन्हें पूर्ण समर्थन प्राप्त था। #लाहौर_अधिवेशन_में_पास_किये_गये_प्रस्ताव #की_प्रमुख_मांगें_इस_प्रकार_थीं- ▪️गोलमेज सम्मेलन का बहिष्कार किया जायेगा। ▪️पूर्ण स्वराज्य को कांग्रेस ने अपना मुख्य लक्ष्य घोषित किया। ▪️कांग्रेस कार्यसमिति को सविनय अवज्ञा आंदोलन प्रारंभ करने का पूर्ण उत्तरदायित्व सौंपा गया, जिनमे करों का भुगतान नहीं करने जैसे कार्यक्रम सम्मिलित थे। ▪️सभी कांग्रेस सदस्यों को भविष्य में कौंसिल के चुनावों में भाग न लेने तथा कौंसिल के मौजूदा सदस्यों को अपने पदों से त्यागपत्र देने का आदेश दिया गया। ▪️26 जनवरी 1930 का दिन पूरे राष्ट्र में प्रथम स्वतंत्रता दिवस के रूप में मनाने का निश्चय किया गया। 31 दिसम्बर 1929 की अर्द्धरात्रि को इंकलाब जिंदाबाद के नारों के बीच रावी नदी के तट पर भारतीय स्वतंत्रता का प्रतीक तिरंगा झंडा फहराया गया। 26 जनवरी 1930 को पूरे राष्ट्र में जगह-जगह सभाओं का आयोजन किया गया, जिनमें सभी लोगों ने सामूहिक रूप से स्वतंत्रता प्राप्त करने की शपथ ली। इस कार्यक्रम को अभूतपूर्व सफलता मिली। गांवों तथा कस्बों में सभायें आयोजित की गयीं, जहां स्वतंत्रता की शपथ को स्थानीय भाषा में पढ़ा गया तथा तिरंगा झंडा फहराया गया। #इस_शपथ_में_निम्न_बिन्दु_थे- ▪️स्वतंत्रता का अधिकार भारतीय जनता का अहरणीय अधिकार है। ▪️भारत में ब्रिटिश उपनिवेशी सरकार ने जनता से स्वतंत्रता के अधिकार को छीनकर न केवल उसका शोषण किया है, बल्कि उसे आर्थिक, राजनैतिक सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक रूप से भी विनष्ट कर दिया है। ▪️भारत को आर्थिक रूप से नष्ट कर दिया गया है। ▪️राजस्व की वसूली हेतु उच्च दरें निर्धारित की गयी हैं, जो हमारी आमदनी से काफी अधिक हैं, ग्रामीण उद्योगों का विनाश कर दिया गया है तथा उसका विकल्प नहीं ढूंढ़ा गया है। सीमा शुल्क, मुद्रा और विनिमय दरें एक पक्षीय और भेदभावपूर्ण हैं तथा इससे भारत के किसान और उत्पादक बर्बाद हो गये हैं। ▪️हमें कोई भी वास्तविक राजनैतिक अधिकार नहीं दिये गये हैं- संघ एवं संगठनों के निर्माण की स्वतंत्रता के अधिकार से हमें वंचित कर दिया गया है तथा हमारी प्रशासनिक प्रतिभा की हत्या कर दी गयी है। ▪️सांस्कृतिक दृष्टि से-शिक्षा व्यवस्था ने हमें हमारी मातृभूमि से अलग कर दिया है तथा हमें ऐसा प्रशिक्षण दिया गया है कि हम सदैव गुलामी की बेड़ियों में जकडे रहें। ▪️आध्यात्मिक दृष्टि से-अनिवार्य रूप से शस्त्रविहीन कर हमें नपुंसक बना दिया गया है। ▪️अब हम यह मनाते हैं कि जिस विदेशी शासन ने चारों ओर से हमारे देश का सर्वनाश किया है, उसके शासन के सम्मुख समर्पण करना ईश्वर और मानवता के प्रति अपराध है। ▪️ब्रिटिश सरकार से अपने समस्त स्वैच्छिक संबंधों को समाप्त कर हम स्वयं को तैयार करेंगे। हम अपने को सविनय अवज्ञा आदोलन के लिये तैयार करेंगे; जिसमें करों की अदायगी न करने का मुद्दा भी शामिल होगा। यदि हम ब्रिटिश सरकार को सभी प्रकार का सहयोग बंद कर दें तथा किसी भी प्रकार की हिंसा न करें तो इस अमानवीय राज का अंत सुनिश्चित है। ▪️इसलिए हम संकल्प करते हैं कि पूर्ण स्वराज्य की स्थापना के लिये कांग्रेस समय-समय पर जो भी निर्देश देगी, हम उसका पूर्णतया पालन करेंगे। [01/12, 8:26 AM] Raj Kumar: #भारतीय_राजव्यवस्था_एवं_शासन : #राज्यपाल भारतीय संविधान द्वारा संघीय पद्धति अपनाई गई है. ऐसी पद्धति जिसमें दो तरह की सरकारें होती हैं. भारत में भी दो तरह की सरकारों की व्यवस्था है – एक केन्द्रीय सरकार तथा दूसरी राज्य सरकार. वर्तमान समय में भारत संघ में 28 राज्य और केंद्र द्वारा शासित 9 क्षेत्र हैं. राज्य का प्रधान राज्यपाल कहलाता है. आइए जानते हैं राज्यपाल के बारे में विस्तार से - #राज्यपाल_की_संवैधानिक_स्थिति : ▪️राज्यपाल की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा संविधान के अनुच्छेद 156 में प्रदत्त शक्ति के अंतर्गत की जाती है. ▪️राज्यपाल राज्य का एक सैद्धांतिक प्रमुख होता है क्योंकि वास्तविक शक्तियाँ किसी भी राज्य में वहाँ के मुख्यमंत्री के पास होती हैं. ▪️संविधान के सातवें संशोधन के द्वारा 1956 में यह व्यवस्था की गई थी कि एक ही व्यक्ति दो अथवा दो से अधिक राज्यों का राज्यपाल हो सकता है. ▪️संघीय क्षेत्रों में राज्यपाल के बदले उप-राज्यपाल होते हैं जिन्हें अंग्रेजी में लेफ्टिनेंट गवर्नर कहा जाता है. #नियुक्ति : संघ की तरह ही भारतीय संघ के राज्यों में संसदीय शासन पद्धति की स्थापना की गई है. संसदीय शासन पद्धति का आधारभूत सिद्धांत यह है कि राज्याध्क्ष शासन का प्रधान न होकर नाममात्र का प्रधान होता है. अतः, राज्यपाल एक सांविधानिक प्रधान है और वास्तविक कार्यपालिका शक्ति राज्य की मंत्रिपरिषद में ही निहित है. संविधान के अनुसार राज्यपाल को शासन-सम्बन्धी कार्यों में सहायता और मंत्रणा देने के लिए एक मंत्रिपरिषद होती है, जिसका नेता मुख्यमंत्री होता है. राज्यपाल की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा पाँच वर्षों के लिए होती है. राष्ट्रपति से अभिप्राय केन्द्रीय कार्यपालिका से है. अर्थात्, केन्द्रीय मंत्रिमंडल राष्ट्रपति की औपचारिक स्वीकृति से उसकी नियुक्ति करता है. सामान्यतः: उसकी नियुक्ति में सम्बद्ध राज्य के मुख्यमंत्री का परामर्श ले लिया जाता है. राष्ट्रपति पाँच वर्ष के भीतर भी राज्यपाल को पदच्युत कर सकता है अथवा उसका स्थानान्तरण कर सकता है. वह इस अवधि के भीतर भी राष्ट्रपति के पास त्यागपत्र भेजकर पदत्याग कर सकता है. राज्यपाल राष्ट्रपति के प्रसादपर्यंत अपने पद पर बना रहता है. यद्दपि उसका कार्यकाल पाँच वर्ष का है पर वह नए राज्यपाल के पद-ग्रहण करने के पूर्व तक अपने पद पर रहता है. #राज्यपाल_की_नियुक्ति_क्यों_होती_है_निर्वाचन_क्यों #नहीं? संविधान के निर्माताओं ने आरंभ में निर्वाचित राज्यपाल रखने का सुझाव दिया था. संभवतः उनका विचार था कि राज्यों को संघ की इकाई के रूप में अधिकतम स्वायत्तता होनी चाहिए. संयुक्त राज्य अमेरिका के राज्यों के राज्यपालों का पद निर्वाचित होता है. भारतीय संविधान के निर्माताओं ने इसी से प्रभावित होकर उपर्युक्त सुझाव दिया था. इस सम्बन्ध में अन्य प्रस्ताव यह भी था कि राज्य का विधानमंडल राज्यपाल पद के लिए चार व्यक्तियों को निर्वाचित करे और उनके नाम राष्ट्रपति के पास भेजे. राष्ट्रपति उनमें एक व्यक्ति को इस पद पर नियुक्त कर देगा. परन्तु, बाद में उन्होंने अपनी धारणा बदल दी और राज्यपाल के स्थान पर नियुक्ति का प्रावधान किया जिसके निम्नलिखित कारण थे – ▪️यदि राज्यपाल का निर्वाचन विधानमंडल द्वारा होता, तो राज्यपाल और मंत्रिमंडल दोनों एक ही विधानमंडल के प्रति उत्तरदायी होते. ऐसी स्थिति में वह उस राजनीतिक दल के हाथों की कठपुतली बन जाता, जो उसके निर्वाचन में समर्थन करता. इसके अतिरिक्त, पुनर्निर्वाचन के लिए विधानमंडलीय बहुमत के हाथों में खेलने की प्रवृत्ति उसमें होती. ▪️यदि वह जनता द्वारा निर्वाचित होता, तो राज्यपाल और मंत्रिपरिषद के मध्य प्रतिद्वन्द्विता उत्पन्न होने की आशंका बनी रहती, क्योंकि दोनों जनता के प्रतिनिधि होते. इस प्रकार शासनयंत्र का संचालन कठिन हो जाता. ▪️संविधान निर्माता यह चाहते थे कि यह पद एक ऐसा पद हो, जो राज्य की राजनीति में स्थायित्व रहने पर एक सांविधानिक अध्यक्ष के रूप में कार्य करे और उस स्थिति के अभाव में यह केन्द्रीय कार्यपालिका का अभिकर्ता बना रहे. इस उद्देश्य की पूर्ति राष्ट्रपति द्वारा राज्यपाल की नियुक्ति होने से ही संभव थी. इन्हीं कारणों से उसकी नियुक्ति होती है, उसका निर्वाचन नहीं होता है. ▪️उसके निर्वाचन का प्रस्ताव भारत के गरीब देश होने के कारण भी अस्वीकृत कर दिया गया. निर्वाचन के कारण देश को काफी खर्च का भार सहन करना पड़ता. अतः, आर्थिक बचत के लिए भी राज्यपाल की नियुक्ति का प्रबंध किया गया. #अनुच्छेद_158 : संविधान के अनुच्छेद 158 के तहत राज्यपाल नियुक्ति हेतु कुछ शर्तों का उल्लेख है, यह शर्ते हैं – ▪️राज्यपाल संसद अथवा किसी राज्य विधानमंडल का सदस्य नहीं हो सकता. यदि कोई व्यक्ति जो संसद या राज्य विधानमंडल का सदस्य है, राज्यपाल पद पर नियुक्त होता है तो वह राज्यपाल का पद ग्रहण करने की तिथि से संसद अथवा राज्य विधानमंडल में उसका पद रिक्त माना जाएगा. ▪️राज्यपाल कोई अन्य लाभ का पद धारण नहीं करेगा. ▪️राज्यपाल को निःशुल्क आवास, वेतन, भत्ते एवं उपलब्धियाँ तथा विशेषाधिकार प्राप्त होंगे जो संसद विधि द्वारा निर्धारित करे. वर्तमान में राज्यपाल का वेतन 3 लाख 50 हजार रूपये है. #राज्यपाल_के_लिए_योग्यताएँ : इस पद पर वही व्यक्ति नियुक्त हो सकता है जो – ▪️भारत का नागरिक हो. ▪️जिसकी आयु 35 वर्ष से अधिक हो. ▪️जो संसद या विधानमंडल का सदस्य नहीं है और यदि ऐसा व्यक्ति हो तो राज्यपाल के पदग्रहण के बाद उसकी सदस्यता का अंत हो जायेगा. अपनी नियुक्ति के बाद वह किसी अन्य लाभ के पद पर नहीं रह सकता. #राज्यपाल_के_कार्य : ▪️वह विधानमंडल के किसी भी सदन को जब चाहे तब सत्र बुला सकता है, सत्रावसान कर सकता है और विधान सभा को, यदि वह उचित समझे, तो विघटित कर सकता है. ▪️वह विधान परिषद् के 1/6 सदस्यों को मनोनीत भी करता है. वह दोनों सदनों को संबोधित कर सकता है या उनमें विधेयक-विषयक कोई सन्देश भेज सकता है, जिसपर सदन शीघ्र ही विचार करेगा. ▪️विधानमंडल के प्रत्येक सदस्य को राज्यपाल या उसके द्वारा नियुक्त किसी व्यक्ति के समक्ष शपथ लेना पड़ता है. ▪️वह प्रत्येक विक्तीय वर्ष के आरम्भ में उस वर्ष का वार्षिक वित्त-वितरण विधान सभा के सम्मुख प्रस्तुत करता है. ▪️विधान सभा में उसकी अनुमति के बिना किसी अनुदान की माँग नहीं की जा सकती. जब कोई विधेयक पारित होता है, तब वह उसकी स्वीकृति के लिए भेजा जाता है. राज्यपाल उसपर अपनी स्वीकृति दे सकता है, उसे अस्वीकृत भी कर सकता है या राष्ट्रपति के विचारार्थ रख सकता है. ▪️वह धन विधेयक को छोड़कर अन्य विधेयक को पुनः विचार करने के लिए विधानमंडल के पास भी भेज सकता है. लेकिन, यदि वह विधेयक पुनः संशोधनसहित या बिना किसी संशोधन के विधानमंडल द्वारा पारित हो जाए, तो उसे अपनी स्वीकृति देनी ही पड़ती है. स्थूल दृष्टि से इसकी वास्तविक स्थिति ठीक वैसी ही है जैसे राष्ट्रपति की है. अर्थात्, राज्यपाल राज्य का सांविधानिक अध्यक्ष जरुर है पर वास्तव में मंत्रिमंडल और मुख्यमंत्री ही राज्य के वास्तविक शासक होते हैं (The ministers decide and the Governor orders). सामान्तः, वह मंत्रिमंडल के परामर्श की अवहेलना नहीं कर सकता क्योंकि मंत्रिमंडल विधान सभा के प्रति उत्तरदायी होता है और वह त्यागपत्र दे कर राजनीतिक संकट उत्पन्न कर सकता है. #राज्यपाल_की_पदावधि : संविधान के अनुच्छेद 156 के अनुसार – ▪️राज्यपाल राष्ट्रपति के प्रसाद पर्यन्त पद धारण करता है. ▪️राज्यपाल राष्ट्रपति को संबोधित कर अपना त्यागपत्र दे सकता है. ▪️राज्यपाल अपने पदग्रहण की अवधि से पाँच वर्षों तक पद धारण करता रहेगा जब तक उसका उत्तराधिकारी पद ग्रहण न कर ले. सामान्यतः प्रत्येक राज्य हेतु एक राज्यपाल होता है. किन्तु एक ही राज्यपाल दो या अधिक राज्यों का राज्यपाल नियुक्त किया जा सकता है. राज्यपाल पद ग्रहण करने से पूर्व सम्बंधित राज्य के उच्च न्यायालय मुख्य न्यायाधीश अथवा वरिष्ठतम न्यायाधीश के समक्ष अपने पद की शपथ लेता है. #राष्ट्रपति_से_अलग_कैसे? राज्यपाल की स्थिति राष्ट्रपति से दो मामलों में भिन्न है – ▪️संविधान कुछ मामलों में राज्यपाल को विवेक के आधार पर कार्य करने की शक्ति देता है. जबकि राष्ट्रपति को ऐसी शक्ति नहीं है. ▪️42वें संविधान संशोधन द्वारा राष्ट्रपति पर मंत्रिपरिषद की सलाह बाध्यकारी बना दी गई है. जबकि राज्यपाल के सम्बन्ध में ऐसा नहीं है. #शक्तियां : ▪️राष्ट्रपति की भाँति राज्यपाल को भी कुछ कार्यकारी, विधायी और न्यायिक शक्तियाँ मिली हुई हैं. ▪️उसके पास कुछ विवेकाधीन अथवा आपातकालीन शक्तियां भी होती हैं. ▪️किन्तु राष्ट्रपति की भाँति राज्यपाल के पास कोई कूटनीतिक अथवा सैन्य शक्ति नहीं होती है. #राज्यपाल_की_विवेकाधीन_शक्तियां : ▪️राज्यपाल राष्ट्रपति को इस बात की सूचना अपने विवेक से दे सकता है कि राज्यपाल में संवैधानिक तन्त्र विफल हो गया है. ▪️विधानसभा द्वारा पारित विधेयक को राज्यपाल अपने विवेक से रोके रख सकता है. ▪️यदि विधानसभा में किसी भी दल को स्पष्ट बहुमत नहीं है तो राज्यपाल अपने विवेक से किसी को भी मुख्यमंत्री नियुक्त कर सकता है. ▪️असम, मेघालय, त्रिपुरा, मिजोरम के राज्यपाल द्वारा खनिज उत्खनन की रॉयल्टी के रूप में जनजातीय जिला परिषद् को देय राशि का निर्धारण करता है. ▪️राज्यपाल मुख्यमंत्री से राज्य के प्रशासनिक और विधायी विषयों के बारे में सूचना प्राप्त कर सकता है. ▪️राज्यपाल को यह अधिकार है कि वह अपने विवेक से विधान सभा द्वारा पारित साधारण विधेयक को हस्ताक्षरित करने से मना कर सकता है. ▪️इसके अतिरिक्त असम, नागालैंड, मणिपुर, सिक्किम, अरुणाचल प्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात तथा कर्नाटक के राज्यपाल को स्थानीय विकास, जनकल्याण तथा कानून व्यवस्था के संदर्भ में कुछ विशेष दायित्व सौंपे गये हैं जिनका निर्वहन वह स्वविवेक से करता है. [01/12, 8:26 AM] Raj Kumar: #आधुनिक_भारत_का_इतिहास : #नेहरु_रिपोर्ट [ 1928 ] साइमन कमीशन की नियुक्ति के साथ ही भारत सचिव लॉर्ड बर्केनहेड ने भारतीय नेताओं को यह चुनौती दी कि यदि वे विभिन्न दलों और सम्प्रदायों की सहमति से एक संविधान तैयार कर सकें तो इंग्लैंड सरकार उस पर गंभीरता से विचार करेगी. इस चुनौती को भारतीय नेताओं ने स्वीकार करके इस बात का प्रयास किया कि साथ में मिल-जुलकर संविधान का एक प्रारूप तैयार किया जाए. इसके लिए मोतीलाल नेहरु की अध्यक्षता में एक समिति को गठित किया गया, जिसका कार्य था संविधान का प्रारूप तैयार करना. इस समिति के सचिव् जवाहर लाल नेहरु थे. इसमें अन्य 9 सदस्य भी जिनमें से एक सुभाष चन्द्र बोस थे. समिति ने अपनी रिपोर्ट 28-30 अगस्त, 1928 को प्रस्तुत की जिसे नेहरु रिपोर्ट के नाम से जाना जाता है. #नेहरू_रिपोर्ट_के_प्रमुख_सुझाव : ▪️भारत को औपनिवेशिक स्वराज प्रदान किया जाना चाहिए और उसका स्थान ब्रिटिश शासन के अंतर्गत अन्य उपनिवेशों के समान होना चाहिए. ▪️केन्द्र में पूर्ण उत्तरदायी सरकार की स्थापना होनी चाहिए. भारत के गवर्नर जनरल को लोकप्रिय मंत्रियों के परामर्श पर और संवैधानिक प्रधान के रूप मे कार्य करना चाहिए. ▪️केन्द्रीय व्यवस्थापिका सभा द्वि-सदनीय (bi-camerial) हो और मंत्रिमंडल उसके प्रति उत्तरदायी हो. निम्न सदन का निर्वाचन, वयस्क मताधिकार के आधर पर प्रत्यक्ष रीति से तथा उच्च सदन का परोक्ष रीति से हो. ▪️प्रांतों में भी केन्द्र की भांति उत्तरदायी शासन की स्थापना हो. ▪️केन्द्र और प्रांतों के बीच शक्ति वितरण की एक योजना प्रस्तुत की गयी, जिसमें अवशिष्ट शक्तियां केन्द्र को प्रदान की गयीं. ▪️उत्तर-पश्चिम सीमा प्रांत को ब्रिटिश भारत के अन्य प्रान्तों के समान वैधानिक स्तर प्राप्त होना चाहिए. ▪️सिन्ध को बम्बई से अलग कर उसको एक पृथक प्रातं बनाया जाये. ▪️रिपोर्ट में मौलिक अधिकारों का उल्लेख किया गया और उन्हें संविधान में स्थान देने की सिफारिश की गयी.. ▪️रिपोर्ट में यह भी कहा गया कि देशी राज्यों के अधिकारों तथा विशेषाधिकारों की रक्षा की व्यवस्था की जाये. साथ-साथ उन्हें यह चतेावनी भी दी गयी कि भारतीय संघ में उन्हें तभी सम्मिलित किया जाए, जब उनके राज्य में उत्तरदायी शासन की व्यवस्था हो जाए. #नेहरु_रिपोर्ट_का_विरोध : नेहरु रिपोर्ट का जिन्ना और मुस्लिम लीग के अन्य नेताओं ने पुरजोर विरोध किया. इसके पीछे मूल कारण यह था कि इसमें साम्प्रदायिक आधार पर प्रतिनिधित्व का प्रावधान नहीं किया गया था. कांग्रेस में कुछ लोग डोमिनियन स्टेटस (dominion status) की बात से संतुष्ट नहीं थे. वे पूर्ण स्वराज को Nehru Report में शामिल किये जाने की माँग कर रहे थे. कांग्रेस, मुस्लिम लीग और अन्य राजनेताओं में नेहरु रिपोर्ट के सन्दर्भ में पूर्ण सहमति नहीं होने के कारण ब्रिटिश सरकार ने रिपोर्ट को अस्वीकृत कर दिया. #मूल्यांकन : नेहरू रिपोर्ट पर विचार करने के लिए 1928 में ही लखनऊ और दिल्ली में सर्वदलीय सम्मेलन हुए. इन सम्मेलनों में भारतीय नेताओं का विरोध उभरकर सामने आया. सम्मेलन में मोहम्मद अली ने रिपोर्ट की आलाचेना की, जिन्ना ने अधिक प्रतिनिधित्व की माँग की, तो आगा खां ने देश के हर प्रांत को स्वाधीनता दिए जाने की माँग की. मुसलमानों के अड़ंगा लगाने पर हिन्दू संप्रदायवादी भी अकड़ गये. सिक्खों ने पंजाब में विशेष प्रतिनिधित्व की माँग की. जिन्ना ने बाद में अपनी ‘14 सूत्री माँगें’ रखीं. इसके विपरित राष्ट्रवादी मुसलामानों का दल (डा. अंसारी, अली इमाम इत्यादि) ‘नेहरू रिपोर्ट’ को स्वीकार करने के पक्ष में थे. स्वयं कांग्रेस में भी इस रिपोर्ट पर मतभेद था. कांग्रेस का वामपंथी युवा वर्ग जिसका नेतृत्व जवाहर लाल नेहरू और सुभाष बोस कर रहे थे, और जो औपनिवेशिक स्वतंत्रता से संतुष्ट नहीं थे, ने पूर्ण स्वतंत्रता की माँग को कांग्रेस का उद्देश्य बनाना चाहा था. उन लोगों ने नवम्बर 1928 में ‘इंडिपेंडेन्स लीग’ की स्थापना भी की तथा युवा वर्ग में स्वतंत्रता के प्रति रुझान पैदा करने में सफल रहे. कलकत्ता अधिवेशन में भी इस वर्ग ने कांग्रेस नेतृत्व से अपने लक्ष्य में परिवर्तन करने की माँग ठुकरायी. गांधीजी के प्रयासों से विद्रोह दब गया, परंतु यह तय हुआ कि अगर एक वर्ष के अन्दर सरकार ने ‘डोमिनियन स्टेटस’ प्रदान नहीं किया तो कांग्रेस का लक्ष्य ‘पूर्ण स्वाधीनता’ की प्राप्ति बन जायेगा. कांग्रेस ने यह भी स्वीकार किया कि अगर सरकार नेहरू रिपोर्ट को अस्वीकृत कर देगी, तो पुनः असहयोग आन्दोलन प्रारंभ कर दिया जायेगा. यद्यपि नहेरू रिपोर्ट स्वीकृत नहीं हो सकी, लेकिन इसने अनके महत्त्वपूर्ण प्रवृत्तियों को जन्म दे दिया. सांप्रदायिकता की भावना जो अंदर-अंदर ही थी, अब उभर कर सामने आ गयी. मुस्लिम लीग और हिन्दू महासभा दोनों ने इसे फैलाने में कोई कसर नहीं छोड़ी. 1928 ई. की घटनाओं ने पुनः गांधीजी को देश और कांग्रेस की राजनीति के शीर्ष पर आसीन कर दिया. वे राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम के निर्विवाद नेता बनकर प्रकट हुए. [01/12, 8:26 AM] Raj Kumar: #भारतीय_राजव्यवस्था_एवं_शासन : #सर्वोच्च_न्यायालय उच्चतम न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय कानून का सर्वोच्च न्यायालय है । इसके द्वारा दिये गये निर्णय अंतिम होते है तथा इन निर्णयों के विरूद्ध किसी और न्यायालय में अपील नहीं की जा सकती है। संविधान के अनुच्छेद 124 से 147 तक के अनुच्छेदों का सम्बन्ध सर्वोच्च न्यायालय से है । संविधान के अनुच्छेद 124 (1) में सर्वोच्च न्यायालय की व्यवस्था की गई है। #गठन : भारतीय संविधान के अनुच्छेद 124(1) के अनुसार प्रारम्भ में सर्वोच्च न्यायालय के लिए एक मुख्य न्यायाधीश तथा सात अन्य न्यायाधीश निश्चित किये गये थे परंतु इसी अनुच्छेद में संसद को न्यायाधीशों की संख्या बढ़ाने की शक्ति प्रदान की गई । सर्वोच्च न्यायालय (न्यायाधीशों की संख्या) अधिनियम 1956 के अनुसार, न्यायाधीशों की संख्या मुख्य न्यायाधीश के अतिरिक्त 10 कर दी गयी थी । 1960 में संसद द्वारा न्यायाधीशों की संख्या मुख्य न्यायाधीश सहित 14 कर दी गयी । परंतु 1977 में भारतीय संसद ने एक कानून के द्वारा सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की कुल संख्या 18 कर दी 1986 में संसद ने एक अन्य कानून पारित करके सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की संख्या 18 से बढ़ाकर 25 कर दी। 2008 में संसद ने एक अन्य कानून पारित करके सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की संख्या 25 से बढ़ाकर 30 कर दी। वर्तमान समय में सर्वोच्च न्यायालय में नियुक्त न्यायाधीशों की संख्या 34 है।*(18 सितंबर 2019 के अनुसार)। संसद को यह शक्ति है कि वह विधि बनाकर न्यायाधीशों की संख्या विहित करे। #नियुक्ति : भारतीय संविधान के अनुच्छेद 124(2) के अनुसार, सर्वोच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति अपने पूर्ण अधिकारों के अन्तर्गत करता है और इसके लिए वह आवश्यकतानुसार सर्वोच्च न्यायालय के अन्य न्यायाधीशों का भी परामर्श ले सकता है। भारत के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति के मामले में भी वह सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय के चाहे जितने न्यायाधीशों की सलाह ले सकता है । संविधान में स्पष्ट प्रावधान के बावजूद भारत के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति राजनीतिक फैसले से प्रभावित होती है । पहले न्यायाधीशों की नियुक्ति के समय वरिष्ठता पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया जाता था परंतु विधि आयोग ने अपनी 80वीं रिपोर्ट में यह सिफारिश की है कि सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति के समय वरिष्ठता पर विशेष रूप से ध्यान दिया जाना चाहिए। #तदर्थ_न्यायाधीश : संविधान के अनुच्छेद 127 (1) के अनुसार यदि किसी कारणवश न्यायालय की बैठक करने के लिए निश्चित गणपूर्ति कोरम (गणपूर्ति-3 निश्चित की गई है) पूरी नहीं होती तो राष्ट्रपति की अग्रिम स्वीकृति द्वारा मुख्य न्यायाधीश तदर्थ न्यायाधीशों की नियुक्ति कर सकता है उस व्यक्ति को जो किसी उच्च न्यायालय का न्यायाधीश रह चुका हो या सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश की योग्यता रखता हो, तदर्थ न्यायाधीश नियुक्त किया जा सकता है । #योग्यताएं : संविधान के अनुच्छेद 124 (3) के अनुसार सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के लिए निम्नलिखित योग्यताएं निश्चित की गई हैः ▪️वह भारत का नागरिक हो, ▪️वह कम से कम लगातार 5 वर्ष तक किसी एक या दो या इससे अधिक उच्च न्यायालयों का न्यायाधीश रह चुका हो, ▪️उसने कम से कम 10 वर्ष तक लगातार किसी एक या दो या इससे अधिक उच्च न्यायालयों में वकालत की हो तथा ▪️राष्ट्रपति की राय में पारंगत विधिवेत्ता हो। #कार्यकाल : संविधान के अनुच्छेद 124(2) के अनुसार सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश 65 वर्ष की आयु तक अपने पद पर आसीन रहते है । 65 वर्ष की आयु से पहले कोई भी न्यायाधीश अपनी इच्छानुसार त्यागपत्र दे सकता है । इसके अतिरिक्त राष्ट्रपति किसी भी न्यायाधीश को बुरे व्यवहार या अयोग्यता के कारण 65 वर्ष की आयु से पहले भी पदच्युत कर सकता है । इसके लिए यह अनिवार्य है कि संसद के दोनों सदन अपने-अपने कुल सदस्यों की संख्या के बहुमत द्वारा तथा उपस्थित और मत देने वाले सदस्यों के दो-तिहाई बहुमत द्वारा प्रस्ताव पारित करके राष्ट्रपति किसी न्यायाधीश को पद से हटाने का आदेश जारी नहीं कर सकता है (अनुच्छेद 124 (4)) #शपथ_ग्रहण : अनुच्छेद 124(6) के अनुसार सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश अपना पद ग्रहण करने से पहले राष्ट्रपति या उसके द्वारा नियुक्त व्यक्ति के समक्ष शपथ लेते है । #वेतन_तथा_भत्ते : सवोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश तथा न्यायाधीशों के वेतन आदि संविधान की दूसरी अनुसूची में अंकित किए गए हैं। इसके अतिरिक्त निशुल्क निवास तथा अन्य भत्ते मिलते है। भारत के सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों वेतन भारत की संचित निधि से दिये जाते है । यह ऐसी निधि है जो संसद के मतदान के अधिकार क्षेत्र से बाहर है । सेवा निवृत्ति के पश्चात न्यायाधीशों को नियमानुसार पेंशन दी जाती है । इसके अतिरिक्त उनको आतिथ्य सत्कार भत्ता तथा यात्रा भत्ता दिया जाता है। #कार्य_स्थान : सर्वोच्च न्यायालय का कार्य स्थान दिल्ली में स्थापित किया गया है, परंतु मुख्य न्यायाधीश राष्ट्रपति की पूर्व स्वीकृति से उसकी बैठक किसी और स्थान पर भी कर सकता हैं। #सर्वोच्च_न्यायालय_के_निर्णय : किसी भी विषय पर राष्ट्रपति को कानूनी परामर्श देने के लिए 5 न्यायाधीशों की बेंच होना अनिवार्य है शेष मुकदमों की अपील सुनने के लिए वर्तमान नियमों के अनुसार कम से कम तीन न्यायाधीशों का होना आवश्यक है । सभी मुकदमों का निर्णय न्यायाधीशों की बहुमत से किया जाता है । जो न्यायाधीश बहुमत के निर्णय से सहमत नहीं होते वह अपनी असहमति तथा उसके कारण निर्णय के साथ प्रस्तुत करते हैं। #संवैधानिक_स्वतंत्रता : भारतीय संविधान ने सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की स्वतंत्रता को बनाए रखने के लिए अनेक प्रावधानों का निर्धारण किया है । ▪️उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति, मंत्रिपरिषद की सलाह से करता है, फिर भी राष्ट्रपति इस विषय में राष्ट्रपति भारत के मुख्य न्यायाधीश से परामर्श करता है। ▪️संविधान के अनुच्छेद 124(4) के अनुसार राष्ट्रपति किसी भी न्यायाधीश को बुरे आचरण या अयोग्यता के कारण पदच्युत कर सकता है परंतु इसके लिए आवश्यक है कि संसद के दोनों सदन अपने-अपने कुल सदस्यों की संख्या के बहुमत द्वारा तथा उपस्थित तथा मत देने वाले दो-तिहाई बहुमत द्वारा पारित प्रस्ताव राष्ट्रपति को ज्ञापित करें। ▪️संविधान के अनुच्छेद 125 (2) के अनुसार न्यायाधीशों के वेतन, भत्ते, छुट्टी तथा पेंशन में कोई परिवर्तन नहीं किया जा सकता है। परंतु अनुच्छेद 360 (4 क) के अनुसार वित्तीय आपातकाल के समय में राष्ट्रपति ऐसा कर सकता है। ▪️संविधान के अनुच्छेद 146 (3) के अनुसार सर्वोच्च न्यायालय के प्रशासनिक व्यय, सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों और अन्य कर्मचारियों के वेतन, भत्ते आदि भारत की संचित निधि से दिये जाते हैं अर्थात संसद् उन पर मतदान नहीं कर सकती । ▪️संविधान के अनुच्छेद 124(7) के अनुसार जो व्यक्ति सर्वोच्च न्यायालय में मुख्य न्यायाधीश के पद पर रह चुका है, वह भारतीय क्षेत्र में पुनः किसी भी न्यायालय या अन्य किसी अधिकारी क समक्ष वकालत नहीं कर सकता है। #सर्वोच्च_न्यायालय_के_क्षेत्राधिकार_तथा_कार्य : सर्वोच्च न्यायालय भारत का सबसे बड़ा तथा अंतिम न्यायालय है अर्थात सर्वोच्च न्यायालय एकीकृति न्यायिक व्यवस्था की सर्वोच्च संस्था है । संविधान के अनुच्छेद 141 में कहा गया है कि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा तय किये गये सिद्वांत भारतीय सीमा में आने वाले सभी न्यायालयों पर लागू होते है । भारत के सर्वोच्च न्यायालय के क्षेत्राधिकारों, शक्तियों तथा कार्यो को निम्नलिखित श्रेणियों में विभक्त कर सकते हैः #मूल_या_आरंभिक_अधिकार_क्षेत्र : संविधान के अनुच्छेद 131 में सर्वोच्च न्यायालय के मूल अधिकार क्षेत्र की व्याख्या की गई है । इस अधिकार क्षेत्र का अभिप्राय उन अभियोगों से है जिन्हें सीधे ही सर्वोच्च न्यायालय में आरंभ किया जा सकता है तथा जिन्हे अन्य निम्न न्यायालयों में आरंभ नहीं किया जा सकता । आरंभिक अधिकार क्षेत्र में निम्नलिखित अभियोग आते है- ▪️एक ओर भारत सरकार तथा दूसरी ओर एक या एक से अधिक राज्य हों, ▪️एक ओर भारत सरकार के साथ एक या एक से अधिक अन्य राज्य हों, ▪️दो या दो से अधिक राज्यों के बीच विवाद हो। #अपवाद : सर्वोच्च न्यायालय के आरंभिक अधिकार क्षेत्र में निम्नलिखित प्रकार के विवाद नहीं आते है- ▪️सरकारों के मध्य उत्पन्न विवाद किसी न्याय योग्य अधिकार पर आधारित होना अनिवार्य है अभिप्राय यह है कि विवाद के कारण राजनीतिक नहीं, बल्कि वैधानिक होना चाहिए। जिन सरकारों के मध्य विवाद का आधार वैधानिक न हो, वे सर्वोच्च न्यायालय के आरंभिक अधिकार क्षेत्र के अंतर्गत नहीं आते हैं। ▪️संविधान के सातवें संशोधन के अनुसार सर्वोच्च न्यायालय के आरंभिक अधिकार क्षेत्र में वे अभियोग नहीं आते है जिनका संबंध उन संधियों, समझौतो, अथवा सनदों से है जो संविधान के लागू होने के पूर्व की गई थी और जो अब भी जारी है अथवा जिनमें यह स्पष्ट रूप से कहा गया हो कि उनके संबंध में सर्वोच्च न्यायालय को ऐसा अधिकार प्राप्त नहीं होगा। ▪️नागरिकों के मौलिक अधिकार के संबंध में आरंभिक अधिकार क्षेत्र-संविधान के तीसरे खंड में दिये गये मौलिक अधिकारों की सुरक्षा के लिए नागरिकों को सर्वोच्च न्यायालय का आश्रय लेने का अधिकार प्राप्त है । नागरिकों के मौलिक अधिकारों से संबंधित अभियोग भी सर्वोच्च न्यायालय के आरंभिक क्षेत्र में आते है क्योंकि संविधान के अनुच्छेद 32 के अनुसार नागरिकों को, मौलिक अधिकारों की अवहेलना पर सर्वोच्च न्यायालय में याचिका रिट देने का अधिकार दिया गया है। अर्थात नागरिक अपने अधिकारों की रक्षा के लिए सीधे सर्वोच्च न्यायालय में रिट दायर कर सकता है। नागरिक अधिकारों को लागू करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय यथोचित निर्देश, आदेश या लेख जारी कर सकता हैः 1.बंदी प्रत्यक्षीकरण आदेश 2.परमादेश । 3.निषेध लेख । 4.उत्प्रेषण लेख । 5.अधिकार पृच्छा लेख। ▪️राष्ट्रपति तथा उपराष्ट्रपति के निर्वाचन सम्बंधी विवाद सर्वोच्च न्यायालय के मूलाधिकार क्षेत्र में आते है क्योंकि ऐसे विवादों की सुनवाई कोई अन्य न्यायालय नहीं कर सकता है। #अपीलीय_अधिकार_क्षेत्र : अपीलीय अधिकार क्षेत्र में ऐसे अभियोग आते है, जिनका आरंभ तो निम्न स्तरीय न्यायालयों में होता है, परंतु इनके निर्णय के प्रति सर्वोच्च न्यायालय में अपील की जा सकती है। अपीलीय अधिकार क्षेत्र को चार भागों में बांटा जा सकता है- 1.#संवैधानिक_अभियोगों_में_अपील संविधान के अनुच्छेद 132 के अनुसार किसी भी राज्य के उच्च न्यायालय के द्वारा दिये गये निर्णय, डिग्री या आदेश के विरूद्ध सर्वोच्च न्यायालय में अपील की जा सकती है, यदि संबंधित उच्च न्यायालय अभियोग के संबंध में यह प्रमाण-पत्र दे कि अभियोग में संवैधानिक व्याख्या का प्रश्न है। संवैधानिक व्याख्या से संबंधित किसी भी अभियोग में, चाहे वह दीवानी हो या फौजदारी, उच्च न्यायालय के निर्णय के विरूद्ध सर्वोच्च न्यायालय में अपील की जा सकती है। 2.#दीवानी_या_सिविल_अभियोगों_में_अपील संविधान के अनुच्छेद 133 के अनुसार सर्वोच्च न्यायालय को दीवानी अभियोगों के निर्णय के विरूद्ध भी अपील सुनने का अधिकार प्राप्त है। 3.#फौजदारी_या_दंडिक_अभियोगों_में_अपील संविधान के अनुच्छेद 134 के अनुसार उच्च न्यायालय के निर्णय के विरूद्ध निम्नलिखित फौजदारी अभियोगों में सर्वोच्च न्यायालय को अपील सुनने का अधिकार प्राप्त है। ▪️ऐसा अभियोग, जिसमें निम्न न्यायालयों ने व्यक्ति को रिहा कर दिया हो, परंतु अपील करने पर उच्च न्यायालय ने उसे मृत्यु दण्ड दिया हो। ▪️ऐसा अभियोग, जो निम्न न्यायालयों में चल रहा हो परंतु उच्च न्यायालय उस अभियोग को अपने हाथ में लेकर व्यक्ति को दोषी घोषित कर दे और मृत्यु दण्ड दे दे। ▪️उच्च न्यायालय यह प्रमाण-पत्र दे कि अभियोग सर्वोच्च न्यायालय में अपील करने योग्य है । यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि संसद कानून द्वारा सर्वोच्च न्यायालय का अपीलीय अधिकार क्षेत्र बढ़ा सकती है। 4.#विशेष_अपीलें_सुनने_का_अधिकार संविधान के अनुच्छेद 136 के अनुसार सर्वोच्च न्यायालय अपील करने की विशेष आज्ञा दे सकता है । अनुच्छेद 136 (1) में यह व्यवस्था है कि सर्वोच्च न्यायालय भारत की भूमि पर स्थित किसी भी न्यायालय या न्यायाधिकरण द्वारा किसी भी विषय संबंधी दिये गये निर्णय परिणाम, दण्ड या आदेश के विरूद्ध अपील करने की विशेष आज्ञा स्वेच्छानुसार दे सकता है । परंतु सैनिक कानून के अनुसार स्थापित किये गये किसी न्यायालय के निर्णय के विरूद्ध सर्वोच्च न्यायालय को अनुच्छेद 136 के अंतर्गत भी अपील करने की विशेष आज्ञा देने का अधिकार नहीं है। #परामर्शदात्री_अधिकार_क्षेत्र : संविधान के अनुच्छेद 143 के अनुसारभारत के राष्ट्रपति को किन्ही बैधानिक समस्याओं के संबंध में सर्वोच्च न्यायालय से परामर्श लेने का अधिकार है । जब कभी राष्ट्रपति यह अनुभव करे कि कोई वैधानिक समस्या उत्पन्न हो गयी है तो वह समस्या को, सर्वोच्च न्यायालय की वैधानिक राय लेने के लिए भेज सकता है। जब राष्ट्रपति की ओर से सर्वोच्च न्यायालय को वैधानिक परामर्श देने की लिए कोई विषय भेजा जाता है तो पांच न्यायाधीशों की जूरी द्वारा उस मामले के प्रति निर्णय करना अनिवार्य है किसी विषय के संबंध में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दी गई वैधानिक राय को मानना राष्ट्रपति के लिए अनिवार्य नहीं है । सर्वोच्च न्यायालय किसी मामले में राष्ट्रपति द्वारा मांगी गयी कानूनी राय देने के इंकार भी कर सकता है। उदाहरण के लिए 24 अक्टूबर 1994 को सर्वोच्च न्यायालय ने अयोध्या में मंदिर होने अथवा न होने सम्बंधी अपनी राय देने से इंकार कर दिया था, क्योंकि सर्वोच्च न्यायालय ऐसे मामलों में अपनी राय देना उचित नहीं समझता था। #संविधान_की_व्याख्या_तथा_सुरक्षा_का_अधिकार : संविधान की व्याख्या तथा सुरक्षा का अधिकार भी सर्वोच्च न्यायालय को ही प्रदान किया गया है। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दी गयी संविधान की व्याख्या सर्वोपरि एवं सर्वोत्तम मानी जाती है और साथ ही संविधान के अनुच्छेद 137 के अनुसार सर्वोच्च न्यायालय को न्यायिक पुनरावलोकन का अधिकार प्राप्त है । अर्थात सर्वोच्च न्यायालय को अपने द्वारा सुनाए गये निर्णय या दिये गये आदेश का पुनर्विलोकन करने की शक्ति है। यदि संसद द्वारा निर्मित कानून या केंद्रीय कार्यपालिका द्वारा जारी किये गये आदेश संविधान के किसी अनुच्छेद की अवहेलना करते हो, तो सर्वोच्च न्यायालय ऐसे कानून या आदेश को अवैध घोषित कर सकता है । यदि केंद्र सरकार या राज्य सरकार अपने अधिकार-क्षेत्र के बाहर किसी कानून का निर्माण करे तो सर्वोच्च न्यायालय ऐसे कानून को रद्द कर सकता है। संविधान देश का सर्वोपरि कानून है, उनकी सुरक्षा करना सर्वोच्च न्यायालय का प्रमुख वैधानिक कर्तव्य है । 24 अप्रैल 1973 को सर्वोच्च न्यायालय ने केशवानन्द भारती के प्रसिद्व अभियोग में यह निर्णय दिया था कि संसद संविधान में कोई ऐसा परिवर्तन नहीं कर सकती जो संविधान की आवश्यक विशेषताओं या इसके मौलिक ढांचे को नष्ट करती हो। सर्वोच्च न्यायालय के इस निर्णय ने संसद की संविधान में संशोधन करने की शक्ति पर एक महत्वपूर्ण रोक लगा दी है, इस प्रकार स्पष्ट है कि संविधान के व्याख्याकार के रूप में सर्वोच्च न्यायालय संसद की शक्तियों पर प्रतिबंध लगा सकता है। #अभियोगों_को_स्थानांतरित_करने_की_शक्ति : संविधान के अनुच्छेद 139 (क) के अनुसार कुछ अभियोग जिनका सम्बंध एक या लगभग एक ही प्रकार के कानून के प्रश्नों से है, जोकि एक या एक से अधिक उच्च न्यायालयों के पास निर्णय के लिए पड़े हैं तो सर्वोच्च न्यायालय अपनी पहल के आधार पर या भारत के महान्यायवादी द्वारा दिये अनुरोध-पत्र के आधार पर या अभियोग के सम्बंधित किसी पक्ष की ओर से किये विनय-पत्र द्वारा संतुष्ट होने पर कि ऐसे प्रश्नअसाधारण महत्व वाले महत्वपूर्ण प्रश्न है तो सर्वोच्च न्यायालय ऐसे मामले उच्च न्यायालय या उच्च न्यायालयों से अपने पास मंगवा सकता है और उस समस्त अभियोगों का निर्णय स्वयं कर सकता हैं। #अभिलेख_न्यायालय : संविधान के अनुच्छेद 129 के अनुसार, भारत के सर्वोच्च न्यायालय को एक अभिलेख न्यायालय माना गया है। इसकी सम्पूर्ण कार्यवाहियां तथा निर्णय प्रमाण के रूप में प्रकाशित किये जाते है तथा देश के सभी न्यायालयों द्वारा इन निर्णयों को न्यायिक दृष्टांत के रूप में मानना अनिवार्य है जब किसी न्यायालय को अभिलेख न्यायालय का स्थान दिया जाता है तो उसे न्यायालय का अपमान करने वो व्यक्ति को दण्ड देने का अधिकार प्राप्त हो जाता है। भारत का सर्वोच्च न्यायालय, किसी को भी न्यायालय का अपमान करने के दोष में दण्ड दे सकता है। #अपने_निर्णयों_पर_पुनर्विचार_का_अधिकार : सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयों को कानून के समान मान्यता दी जाती है, परंतु इसका अभिप्राय यह नहीं की सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिये गये निर्णय स्थायी रूप से स्थिर रहते है और उन्हे बदला नहीं जा सकता । संविधान के अनुच्छेद 137 के अनुसार सर्वोच्च न्यायालय अपने पहले दिये गये निर्णयों पर पुनर्विचार कर सकता है । अर्थात सर्वोच्च न्यायालय अपने पूर्व निर्णयों को बदल सकता है। #विविध_कार्य : सर्वोच्च न्यायालय को निम्नलिखित विविध शक्तियां भी प्राप्त है- ▪️सर्वोच्च न्यायालय भारत के सभी न्यायालयों के निरीक्षण करने अथवा उनके कुशल प्रबंध के लिए नियम बना सकता है। ▪️राष्ट्रपति संघ लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष तथा अन्य सदस्यों को तभी अपदस्थ कर सकता है, यदि सर्वोच्च न्यायालय जांच करके उन्हे प्रमाणित कर दे। ▪️सर्वोच्च न्यायालय विधि विशेषज्ञों के लिए उचित नियम बना सकता है । ▪️सर्वोच्च न्यायालय सभी प्रशासनिक तथा न्यायिक अधिकारियों से सहायता ले सकता है । अतः सर्वोच्च न्यायालय को प्रत्येक क्षेत्र में व्यापक शक्तियां प्रदान की गई है । संविधान की सुरक्षा, नागरिकों के मौलिक अधिकारों की सुरक्षा, तथा दीवानी फौजदारी अभियोगों की अंतिम अपील सुनने आदि का अधिकार सर्वोच्च न्यायालय को ही प्राप्त है । सर्वोच्च न्यायालय के पास देश में विभिन्न न्यायालयों के निर्णयों के विरूद्ध अपील करने की विशेष आज्ञा देने का अधिकार इतना व्यापक है कि सभी न्यायिक शक्तियां सर्वोच्च न्यायालय में ही केंद्रित हो सकती है । इसी प्रकार सर्वोच्च न्यायालय के संविधान की व्याख्या करने का अधिकार इतना महत्वपूर्ण है कि संविधान वही रूप धारण कर सकता है, जिस रूप में न्यायाधीश उसकी व्याख्या करें। [01/12, 8:26 AM] Raj Kumar: #आधुनिक_भारत_का_इतिहास : #साइमन_कमीशन [ 1927 ] भारत शासन अधिनियम 1919 के एक्ट को पारित करते समय ब्रिटिश सरकार ने यह घोषणा की थी कि वह दस वर्ष पश्चात पुनः इन सुधारों की समीक्षा करेगी। किन्तु नवम्बर 1927 में ही उसने आयोग की नियुक्ति की घोषणा कर दी, जिसका नाम भारतीय विधिक आयोग रखा गया, “सर जान साइमन” इसके अध्यक्ष नियुक्त किए गए तथा सभी सातों सदस्य ब्रिटिश थे। #साइमन_कमीशन_एक्ट_से_संबधित_मुख्य_बिंदु : साइमन कमीशन 1927 एक्ट के सम्बन्ध में प्रमुख बिन्दु निम्नवत हैं- ▪️यद्यपि संवैधानिक सुधारों के संबंध में ब्रिटिश सरकार द्वारा इस आयोग का गठन 10 वर्ष बाद यानी 1929 में होना था परन्तु ब्रिटेन की तत्कालीन सत्तादल कंजरवेटिव पार्टी ने सारा श्रेय स्वयं लेने के लिए 2 वर्ष पूर्व ही इस आयोग का गठन करने का मन बनाया। साथ ही कंजरवेटिव पार्टी के तत्कालीन सेक्रेटरी ऑफ स्टेट “लार्ड बर्कनहेड” का मानना था कि भारतीय लोग स्वयं संवैधानिक सुधारों हेतु योजना बनाने में अक्षम हैं, इसलिए साइमन कमीशन की नियुक्ति करना आवश्यक है। ▪️भारत में साइमन कमीशन के विरोध का मुख्य कारण किसी भी भारतीय को कमीशन का सदस्य न बनाया जाना तथा भारत में स्वशासन के संबंध में निर्णयों का विदेशियों द्वारा लिया जाना था। ▪️पुलिस द्वारा प्रदर्शनकारियों पर लाठियां बरसाई गईं। लखनऊ में जवाहर लाल नेहरू तथा गोविंद वल्लभ पंत को बुरी तरह पीटा गया। ▪️लाहौर में लाला लाजपत राय पर पुलिस की लाठियों से आयी चोटों के कारण 17 नवंबर, 1928 को मृत्यु हो गयी। #साइमन_कमीशन_1927_पर_कांग्रेस_की_प्रतिक्रिया : कांग्रेस के मद्रास अधिवेशन (दिसम्बर, 1927) में एम० ए० अंसारी की अध्यक्षता में कांग्रेस ने प्रत्येक स्तर एवं प्रत्येक स्वरूप में इसका बहिष्कार करने का निर्णय लिया। ▪️किसान मजदूर पार्टी, लिबरल फेडरेशन, हिन्दु महासभा तथा मुस्लिम लीग ने कांग्रेस के साथ मिलकर कमीशन का बहिष्कार करने का निर्णय लिया। ▪️जबकि पंजाब में संघवादियों तथा दक्षिण भारत में जस्टिस पार्टी कमीशन का बहिष्कार न करने का निर्णय लिया। ▪️इसी बीच “मोती लाल नेहरु” ने पूर्ण स्वतंत्रता का प्रस्ताव पारित करा लिया।. #साइमन_कमीशन_1927_पर_जन_प्रतिक्रिया : 3 फरवरी, 1928 को साइमन कमीशन बंबई पहुँचा। पूरे भारत-वर्ष में हड़ताल व विरोध किया गया तथा जहां भी गये वहां इन्हे काले झंडों तथा “साइमन गो बैक” के नारे झेलने पड़े। ▪️केन्द्रीय विधानसभा के भारतीय सदस्यों ने भी साइमन कमीशन का स्वागत करने से इंकार कर दिया। ▪️इन्ही विरोधी गतिविधियों के बीच “जवाहर लाल नेहरू” तथा “सुभाष चन्द्र बोस” प्रमुख युवा राष्ट्रवादी की तरह उभरे तथा कई स्थानों के दौरे और सभाओं को संबोधित किया गया। साइमन कमीशन की रिपोर्ट 1930 में प्रकाशित की गयी। जिसके प्रमुख बिन्दु निम्नवत हैं- ▪️प्रांतीय क्षेत्रों में कानून तथा व्यवस्था सहित सभी क्षेत्रों में उत्तरदायी सरकार गठित की जाये। ▪️केंद्रीय विधान मण्डल का पुनर्गठन किया जाए। इसमें संघीय भावना हो तथा इसके सदस्य प्रांतीय विधान मण्डलों द्वारा अप्रत्यक्ष तरीके से चुने जाए। ▪️केंद्र में उत्तरदायी सरकार का गठन न किया जाए, क्योंकि इसके लिए अभी सही समय नहीं आया है। ▪️सांप्रदायिक निर्वाचन व्यवस्था को जारी रखा जाए। ब्रिटिश सरकार ने साइमन कमीशन की सिफारिशों पर विचार करने के लिए ब्रिटिश भारत और भारतीय रियासतों के प्रतिनिधियों के साथ तीन गोल मेज सम्मेलन किए। इन गोल मेज सम्मेलनों में काँग्रेस की तरफ से गाँधी जी भी शामिल हुए। इन तीनों सम्मेलनों के आधार पर “संवैधानिक सुधारों का श्वेत पत्र” बनाया गया। जिसे आगे चलकर कुछ संशोधनों के साथ भारत शासन अधिनियम, 1935 में शामिल किया गया। #साइमन_कमीशन_का_बहिष्कार_क्यों_किया_गया #था ? साइमन कमीशन का बहिष्कार का मुख्य कारण भारतीयों को कमीशन का सदस्य न बनाये जाने और भारत के शासन के संबंध में निर्णयों का विदेशियों द्वारा लिया जाना था। #मूल्यांकन : साइमन कमीशन ने अपनी रिपोर्ट में भारतीय राजनीति की समस्त कठिनाइयों और समस्याओं पर प्रकाश डाला. किन्तु उसने तत्कालीन भारत और जनता की अभिलाषाओं और आकांक्षाओं की ओर तनिक भी ध्यान नहीं दिया. भारतीय कमीशन की रिपोर्ट से भारतीय नेता बहुत असंतुष्ट हुए, क्योंकि – ▪️“रिपोर्ट में भारतीयों की औपनिवेशिक स्वराज की मांग की पूर्ण उपेक्षा की गयी थी.” ▪️इसने भारतीयों की केन्द्र में उत्तरदायी शासन की स्थापना करने की मांग को स्वीकार नहीं किया. ▪️प्रांतों में यद्यपि इसने उत्तरदायी मंत्रिमंडल की स्थापना करने की व्यवस्था की, लेकिन इसके साथ ही प्रांतीय गर्वनरों को कुछ ऐसी विशेष शक्तियां प्रदान करने की सिफारिश की गयी, जिससे उत्तरदायी शासन का महत्त्व बहुत कम हो जाता. निःसंदेह रिपोर्ट निरर्थक तथा रद्दी कागज के समान थी फिर भी भारतीय समस्याओं के अध्ययन के दृष्टिकोण से यह महत्त्वपूर्ण प्रलेख था। साइमन कमीशन का एक महत्त्वपूर्ण यागेदान यह है कि इसने अप्रत्यक्ष और अस्थायी तौर पर ही सही देश, के विभिन्न समूहों और दलों को एकजुट कर दिया. [01/12, 8:26 AM] Raj Kumar: #भारतीय_राजव्यवस्था_एवं_शासन : #भारत_की_संसद पार्लियामेंट(जिसे संसद या भारतीय संसद के नाम से भी जाना जाता है), भारत का सर्वोच्च विधायी अथॉरिटी है। भारत की संसद, राष्ट्रपति के साथ दो सदन – लोक सभा (हाउस ऑफ पीपल) और राज्य सभा (राज्यों की परिषद) में विभाजित होती है। भारत के राष्ट्रपति के पास, संसद के सदन को बुलाने या लोकसभा को भंग करने की शक्ति है। कोई विधेयक संसद के दोनों सदनों द्वारा पारित होने के बाद ही एक अधिनियम बनता है। भारतीय संसद भवन को 1912-1913 में ब्रिटिश आर्किटेक्ट(वास्तुकार) सर एडविन लुटियन और सर हर्बर्ट बेकर द्वारा डिजाइन किया गया था। इसे 1927 में सेंट्रल लेजिस्लेटिव असेंबली, काउंसिल ऑफ स्टेट्स और चैंबर ऑफ प्रिंसेस के लिए खोला गया था। #भारत_के_संसद_सदस्य : #राज्यसभा राज्य सभा सदस्यों की अधिकतम संख्या 250 है। 238 सदस्य राज्य द्वारा चुने जाते हैं और 12 सदस्यों को राष्ट्रपति द्वारा कला, साहित्य, विज्ञान और सामाजिक सेवाओं के क्षेत्र में उनके योगदान के लिए नामित किया जाता है। राज्य सभा एक स्थायी निकाय है और भंग नहीं होता है। हालाँकि, राज्यसभा के कुल सदस्यों में से एक-तिहाई सदस्य हर दूसरे वर्ष सेवानिवृत्त होते हैं, और उनकी जगह नए चुने गए सदस्य होते हैं। राज्य सभा में प्रत्येक सदस्य छह वर्ष की अवधि के लिए चुने जाते हैं। #लोकसभा लोकसभा या संसद का निचला सदन उन लोगों के प्रतिनिधियों से बनता है, जो प्रत्यक्ष चुनाव के बाद यूनिवर्सल एडल्ट सफ़रेज के आधार पर चुने जाते हैं। लोकसभा सदस्यों की अधिकतम संख्या 552 हैं – राज्यों का प्रतिनिधित्व करने के लिए 530 सदस्य, केंद्र शासित प्रदेशों का प्रतिनिधित्व करने के लिए 20 सदस्य और एंग्लो-इंडियन समुदाय से 2 सदस्य राष्ट्रपति द्वारा नामित किए जाते हैं। लोकसभा के वर्तमान सदस्यों की संख्या 545 है। लोकसभा के सदस्य अपनी सीट पर 5 साल तक या जब तक मंत्रिमंडल की सलाह पर राष्ट्रपति द्वारा लोकसभा भंग नहीं हो जाती है, तब तक बने रह सकते है। #भारत_की_संसद_के_कार्य : संसद के कार्यों को कई श्रेणियों के तहत वर्गीकृत किया जा सकता है, जैसे कि विधायी कार्य, कार्यकारी कार्य, वित्तीय कार्य आदि। #विधायी_कार्य : ◾संसद उन सभी मामलों पर कानून बनाती है जिनका उल्लेख संघ और समवर्ती सूची में किया गया है। ◾समवर्ती सूची के मामले में, जहां राज्य विधानसभाओं और संसद का संयुक्त अधिकार क्षेत्र है, संघ का कानून राज्यों पर लागु रहेगा जब तक कि राज्य के कानून को पहले राष्ट्रपति से स्वीकृति नहीं मिली हो। हालाँकि, संसद किसी भी समय, राज्य विधायिका द्वारा बनाए गए कानून में कुछ जोड़ सकती है या संशोधन कर सकती है। ◾संसद निम्नलिखित परिस्थितियों में राज्य सूची के मामलों पर कानून पारित कर सकती है। ▪️यदि कोई आपातकाल लगा हो, या किसी राज्य में राष्ट्रपति शासन लागु हो, तो संसद राज्य सूची के मामलों पर भी कानून बना सकती है। ▪️संसद राज्य सूची के मामलों पर कानून बना सकती है यदि संसद का ऊपरी सदन अपने वर्तमान सदस्यों के दो-तिहाई बहुमत से एक प्रस्ताव पारित करता है और मतदान करता है, तो संसद के लिए आवश्यक है कि वह राज्य सूची में शामिल किसी भी मामलों पर राष्ट्रीय हित में कानून बनाए। ▪️संसद राज्य सूची के मामलों पर कानून पारित कर सकती है, यदि यह अंतर्राष्ट्रीय समझौतों या विदेशी शक्तियों के साथ संधियों के कार्यान्वयन के लिए आवश्यक है। ▪️यदि दो या दो से अधिक राज्यों की विधानसभाएं इस आशय का प्रस्ताव पारित करती हैं कि राज्य सूची में सूचीबद्ध किसी भी मामलों पर संसदीय कानून होना श्रेयकर है, तो संसद उन राज्यों के लिए कानून बना सकती है। #कार्यकारी_कार्य (कार्यपालिका पर नियंत्रण) : सरकार के संसदीय रूप में, कार्यपालिका, विधायिका के प्रति उत्तरदायी होती है। इसलिए, संसद कई उपायों द्वारा कार्यपालिका पर नियंत्रण रखती है। ▪️अविश्वास प्रस्ताव से, संसद कैबिनेट(कार्यकारिणी) को सत्ता से बाहर कर सकती है। यह किसी बजट या किसी अन्य विधेयक के प्रस्ताव को भी अस्वीकार कर सकती है, जो कैबिनेट द्वारा प्रस्तुत किया गया हो। ▪️संसद सदस्य, मंत्रियों से उनके कार्यकाल और आयोगों पर सवाल पूछ सकते हैं। सरकार की ओर से किसी भी तरह की चूक को संसद में उजागर की जा सकती है। ▪️संसद, मंत्री के आश्वासन पर एक समिति नियुक्त करती है, जो मंत्रियों द्वारा संसद में किए गए वादों को पूरा होने या या नहीं होने पर नजर रखता है। ▪️निंदा प्रस्ताव: सरकार की किसी भी नीति को दृढ़ता से अस्वीकार करने के लिए सदन में विपक्षी दल के सदस्यों द्वारा एक निंदा प्रस्ताव पारित किया जाता है। इसे केवल लोकसभा में ही स्थानांतरित किया जा सकता है। निंदा प्रस्ताव पारित होने के तुरंत बाद, सरकार को सदन का विश्वास प्राप्त करना होता है।अविश्वास प्रस्ताव के मामले से भिन्न इसमें, यदि निंदा प्रस्ताव पारित हो जाता है तो मंत्रिपरिषद को इस्तीफा देने की आवश्यकता नहीं होती है। ▪️कट मोशन(कटौती प्रस्ताव): इस प्रस्ताव का इस्तेमाल सरकार द्वारा लाए गए वित्तीय विधेयक में किसी भी मांग का विरोध करने के लिए किया जाता है। #वित्तीय_कार्य : जब वित्त की बात आती है, तो संसद को सर्वाधिक अधिकार होता है। संसद से अनुमोदन के बिना कार्यकारी एक पाई भी खर्च नहीं कर सकते। ▪️कैबिनेट द्वारा तैयार किया गया केंद्रीय बजट संसद द्वारा अनुमोदन के लिए प्रस्तुत किया जाता है। कर लगाने के सभी प्रस्तावों को भी संसद द्वारा अनुमोदित किया जाना चाहिए। ▪️संसद की दो स्थायी समितियाँ (लोक लेखा समिति और प्राक्कलन समिति) हैं, जो इस बात की जाँच करती हैं कि विधायिका द्वारा दिए गए धन को किस प्रकार खर्च किया गया है। #संशोधन_की_शक्तियाँ : संसद के पास भारत के संविधान में संशोधन करने की शक्ति है। संसद के दोनों सदनों के पास समान शक्तियां हैं। संशोधन को प्रभावी बनाने के लिए उसको लोकसभा और राज्यसभा दोनों में पारित करना होता है। #चुनावी_कार्य : राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के चुनाव में भी संसद भाग लेती है। राष्ट्रपति का चुनाव करने वालों में अन्य के साथ दोनों सदनों के निर्वाचित सदस्य भी शामिल होते हैं। राष्ट्रपति को राज्य सभा द्वारा एक प्रस्ताव पारित करके और लोकसभा की सहमति से हटाया जा सकता है। #न्यायिक_कार्य : सदन के सदस्यों द्वारा विशेषाधिकार हनन के मामले में, संसद के पास उन्हें दंडित करने की शक्तियाँ हैं। विशेषाधिकार का उल्लंघन सांसदों द्वारा प्राप्त विशेषाधिकारों में से किसी का उल्लंघन है। ▪️सदस्य द्वारा विशेषाधिकार प्रस्ताव को तब लाया जाता है, जब उसे लगता है कि कोई सदस्य/मंत्री ने सदन के विशेषाधिकार का हनन किया है। ▪️संसद द्वारा अपने सदस्यों को दंडित करने की शक्ति आमतौर पर न्यायिक समीक्षा का विषय नहीं होती है। ▪️संसद के अन्य न्यायिक कार्यों में राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों, उच्च न्यायालयों, महालेखा परीक्षक आदि पर महाभियोग लगाने की शक्ति शामिल है। #संसद_के_सत्र : भारतीय संसद का एक संसद सत्र वह अवधि है जिसके दौरान देश के प्रबंधन के लिए सदन लगभग हर दिन बैठती है। आम तौर पर एक वर्ष में 3 सत्र होते हैं। संसद सत्र के लिए संसद के सभी सदस्यों को बुलाने की प्रक्रिया को संसद सत्र बुलाना कहा जाता है। राष्ट्रपति, संसद सत्र बुलाता है। ▪️संसद का बजट-सत्र (फरवरी से मई) ▪️संसद का मानसून सत्र (जुलाई से सितंबर) ▪️संसद का शीतकालीन सत्र(नवंबर से दिसंबर) #संसद_का_बजट_सत्र : ▪️संसद का बजट सत्र फरवरी से मई तक आयोजित होता है। ▪️2017 के बाद से, केंद्रीय बजट हर साल फरवरी के पहले दिन पेश किया जा रहा है। इससे पहले, इसे फरवरी के अंतिम दिन प्रस्तुत किया जाता था। ▪️वित्त मंत्री द्वारा बजट पेश किए जाने के बाद सभी सदस्य बजट के विभिन्न प्रावधानों और कराधान से संबंधित मामलों पर चर्चा करते हैं। ▪️अधिकतर बजट सत्र के दो अवधियों में विभाजित होता है, जिनके बीच एक महीने का अंतर होता है। ▪️सत्र दोनों सदनों के राष्ट्रपति के अभिभाषण से शुरू होता है। #संसद_का_मानसून_सत्र : ▪️संसद का मानसून सत्र हर साल जुलाई से सितंबर तक आयोजित किया जाता है। ▪️यह बजट सत्र के दो महीने के बाद शुरू होता है। ▪️इसमें सार्वजनिक हित के मामलों पर चर्चा की जाती है। #संसद_का_शीतकालीन_सत्र : ▪️संसद का शीतकालीन सत्र नवंबर के मध्य से दिसंबर के मध्य तक आयोजित किया जाता है। ▪️यह तीनों सत्रों में सबसे छोटा सत्र है। ▪️यह सत्र उन मामलों को उठाता है जिन पर पहले विचार नहीं किया जा सका था और संसद के दूसरे सत्र के दौरान विधायी कार्य की अब्सेंस के लिए मेक अप किया जाता है [01/12, 8:26 AM] Raj Kumar: #भारतीय_राजव्यवस्था_एवं_शासन : #भारत_का_महान्यायवादी भारत का महान्यायवादी भारत सरकार का मुख्य कानूनी सलाहकार तथा भारतीय उच्चतम न्यायालय में सरकार का प्रमुख वकील होता है । भारत के महान्ययवादी की नियुक्ति भारत के राष्ट्रपति द्वारा अनुच्छेद 76 के अंतर्गत की जाती है । देश के अटॉर्नी जनरल का मुख्य कर्तव्य कानूनी मामलों में केंद्र सरकार को सलाह देना और कानूनी प्रक्रिया के अंतर्गत जिम्मेदारियों का पालन करना होता है, जिन्हें राष्ट्रपति की ओर से उनके पास भेजा जाता है । उन्हें देश के किसी भी न्यायालय में उपस्थित होने का अधिकार प्राप्त है, इसके साथ-साथ वह संसद की कार्यवाही में भी सम्मिलित होनें का अधिकार प्राप्त है | अटॉर्नी जनरल को मतदान करनें का अधिकार नहीं होता है। आइए जानते है भारत के महान्यायवादी के बारे में विस्तार से - #नियुक्ति_और_पदावधि : संविधान, महान्यायवादी को निश्चित पद अवधि प्रदान नहीं करता है। इसलिए, वह राष्ट्रपति की मर्ज़ी के अनुसार ही कार्यरत रहता है। उसे किसी भी समय राष्ट्रपति द्वारा हटाया जा सकता है| उसे हटाने के लिए संविधान में कोई भी प्रक्रिया या आधार उल्लेखित नहीं है। महान्यायवादी वही पारिश्रमिक प्राप्त करता है जो राष्ट्रपति निर्धारित करता है। संविधान के महान्यायवादी का पारिश्रमिक निर्धारित नहीं किया है। #महान्यायवादी_की_योग्यता : ▪️उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश की योग्यता रखनें वाले व्यक्ति को महान्यायवादी के पद पर नियुक्त किया जाता है। ▪️महान्यायवादी के पद पर नियुक्त होनें वाले व्यक्ति को भारत का नागरिक होना अनिवार्य है। ▪️उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में पांच वर्ष कार्य करनें का अनुभव अथवा किसी उच्च न्यायालय में वकालत का 10 वर्ष का अनुभव होना चाहिए। #कर्तव्य_और_कार्य : महान्यायवादी के कर्तव्य और कार्य निम्नलिखित हैं: ▪️वह कानूनी मामलों पर भारत सरकार को सलाह देता है जो राष्ट्रपति द्वारा उसे भेजे या आवंटित किए जाते है। ▪️वह राष्ट्रपति द्वारा भेजे या आवंटित किए गए कानूनी चरित्र के अन्य कर्तव्यों का प्रदर्शन करता है। ▪️वह संविधान के द्वारा या किसी अन्य कानून के तहत उस पर सौंपे गए कृत्यों का निर्वहन करता है। #अपने_सरकारी_कर्तव्यों_के_निष्पादन_में : ▪️वह भारत सरकार का विधि अधिकारी होता है, जो सुप्रीम कोर्ट में सभी मामलों में भारत सरकार का पक्ष रखता है। ▪️जहाँ भी भारत की सरकार को किसी क़ानूनी सलाह की जरुरत होती है, वह अपनी राय से सरकार को अवगत कराता है। #अधिकार_और_सीमाएं : महान्यायवादी के अधिकार निम्नलिखित हैं: ▪️अपने कर्तव्यों के निष्पादन में, वह भारत के राज्य क्षेत्र में सभी न्यायालयों में सुनवाई का अधिकार रखता है। ▪️उसे संसद के दोनों सदनों या उनके संयुक्त बैठकों की कार्यवाही में हिस्सा लेने का अधिकार है, परंतु उसे वोट देने का अधिकार नहीं है (अनुच्छेद 88)। ▪️उसे संसद की किसी भी समिति में जिसमें वह सदस्य के रूप में नामांकित हो बोलने का अधिकार या भाग लेने का अधिकार है, परंतु वोट डालने का अधिकार नहीं है (अनुच्छेद 88)। ▪️वह उन सभी विशेषाधिकारों और प्रतिरक्षाओं को प्राप्त करता है जो संसद के एक सदस्य के लिए उपलब्ध होतीं है। नीचे वर्णित महान्यायवादी पर निर्धारित की गई सीमाएं हैं: ▪️वह अपनी राय को भारत सरकार के ऊपर थोप नहीं सकता है। ▪️वह भारत सरकार की अनुमति के बिना आपराधिक मामलों में आरोपियों का बचाव नहीं कर सकता है। ▪️वह सरकार की अनुमति के बिना किसी भी कंपनी में एक निदेशक के रूप में नियुक्ति को स्वीकार नहीं कर सकता है। यह ध्यान दिये जाने वाली बात है कि महान्यायवादी को निजी कानूनी अभ्यास से वंचित नहीं किया जाता है। वह सरकारी कर्मचारी नहीं होता है क्योंकि उसे निश्चित वेतन का भुगतान नहीं किया जाता है और उसका पारिश्रमिक राष्ट्रपति निर्धारित करता है। [01/12, 8:26 AM] Raj Kumar: #आधुनिक_भारत_का_इतिहास : #मुडीमैन_समिति_1924 भारतीय नेताओं की मांगों को पूरा करने और 1920 के दशक के आरंभिक वर्षों में स्वराज पार्टी द्वारा स्वीकृत किये गए प्रस्ताव को ध्यान में रखते हुए ब्रिटिश सरकार ने सर अलेक्जेंडर मुडीनमैन की अध्यक्षता में एक समिति,जिसे मुडीनमैन समिति के नाम से भी जाना जाता है,गठित की। समिति में ब्रिटिशों के अतिरिक्त चार भारतीय सदस्य भी शामिल थे| भारतीय सदस्यों में निम्नलिखित शामिल थे- ▪️सर शिवास्वामी अय्यर, ▪️डॉ.आर.पी.परांजपे, ▪️सर तेज बहादुर सप्रे ▪️मोहम्मद अली जिन्ना इस समिति के गठन के पीछे का कारण भारतीय परिषद् अधिनियम,1919 के तहत 1921 में स्थापित संविधान और द्वैध शासन प्रणाली की कामकाज की समीक्षा करना था| इस समिति की रिपोर्ट को 1925 में प्रस्तुत किया गया जो दो भागों में विभाजित थी-अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक रिपोर्ट। ▪️बहुसंख्यक/बहुमत रिपोर्ट: इसमें सरकारी कर्मचारी और निष्ठावान लोग शामिल थे। इन्होने घोषित किया कि द्वैध शासन स्थापित नहीं हो सका है | उनका यह भी मानना था कि प्रणाली को सही तरह से मौका नहीं दिया गया है अतः केवल छोटे-मोटे बदलावों की अनुशंसा की। ▪️अल्पसंख्यक/अल्पमत रिपोर्ट: इसमें केवल गैर-सरकारी भारतीय शामिल थे। इसका मानना था कि 1919 का एक्ट असफल साबित हुआ है। इसमें यह भी बताया गया कि स्थायी और भविष्य की प्रगति को स्वयं प्रेरित करने वाले संविधान में क्या क्या शामिल होना चाहिए। अतः इस समिति ने शाही आयोग/रॉयल कमीशन की नियुक्ति की सिफारिश की। भारत सचिव लॉर्ड बिर्केनहेड ने कहा कि बहुमत/बहुसंख्यक की रिपोर्ट के आधार पर कदम उठाये जायेंगे।