Wednesday, February 24, 2021

भारतीय_राजव्यवस्था_एवं_शासन : #राज्य_विधानमंडल

भारतीय_राजव्यवस्था_एवं_शासन : #राज्य_विधानमंडल संविधान के छठे भाग में अनुच्छेद 168 से 212 तक राज्य विधान मंडल की संरचना, गठन, कार्यकाल, अधिकारियों, प्रक्रियाओं, विशेषाधिकार तथा शक्तियों के बारे में बताया गया है। संविधान के अनुच्छेद 168 के अनुसार प्रत्येक राज्य के लिए एक विधानमंडल होगा जो राज्यपाल और दो सदनों से मिलकर बनेगा। जहां किसी राज्य के विधान-मंडल के दो सदन हैं वहां एक का नाम विधान परिषद् और दूसरे का नाम विधान सभा होगा। विधान परिषद उच्च सदन है, जबकि विधानसभा निम्न सदन (पहला सदन) होता है। वर्तमान में भारत में केवल 6 राज्यों (उत्तर प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र, कर्नाटक, आन्ध्र प्रदेश और तेलंगाना) में द्विसदनीय(विधान सभा व विधान परिषद्) विधायिका है। जम्मू कश्मीर पुनर्गठन एक्ट की धारा 57 के तहत विधान परिषद को सरकार ने समाप्त कर दिया है। 7वें संविधान संशोधन अधिनियम(1956) द्वारा मध्य प्रदेश के लिए विधान परिषद के गठन का प्रावधान किया गया था किन्तु अभी तक वहां एकसदनीय विधायिका ही है। #विधानसभा (अनुच्छेद-170) : राज्य विधानमंडल के निचले सदन को विधानसभा कहा जाता है, इस सदन के सदस्यों का चुनाव जनता द्वारा प्रत्यक्ष रुप से किया जाता है। विधानसभा के सदस्यों को प्रत्यक्ष मतदान द्वारा वयस्क मताधिकार के आधार पर चुना जाता है। राज्यपाल आंग्ल-भारतीय समुदाय के एक व्यक्ति को विधानसभा में मनोनीत कर सकता है (अनुच्छेद 333) #सदस्य_संख्या : ▪️अधिकतम 500 तथा न्यूनतम 60 है। ▪️अरूणाचल प्रदेश, सिक्किम और गोवा के मामले में यह संख्या 30 तय की गई है। ▪️मिजोरम के मामले में 40 व नगालैण्ड के मामले में 46 सदस्य संख्या तय है। ▪️राजस्थान में विधानसभा की 200 सीटें हैं। #आरक्षण : ▪️अनुसूचित जाति/जनजाति को जनसंख्या के अनुपात में राज्य विधानसभा में आरक्षण प्रदान किया गया है।(अनुच्छेद 332) ▪️राज्यपाल, आंग्ल-भारतीय समुदाय से एक सदस्य को नामित कर सकता है। यदि इस समुदाय का प्रतिनिधि विधानसभा में पर्याप्त नहीं हो।(अनुच्छेद 333) #कार्यकाल : ▪️सामान्यतः 5 वर्ष(अस्थायी सदन) ▪️आपातकाल में विधानसभा का कार्यकाल एक बार में एक वर्ष तक बढ़ाया जा सकता है। ▪️मंत्रिपरिषद की सिफारिश पर राज्यपाल द्वारा विधानसभा को समय से पूर्व भंग किया जा सकता है। #विधानसभा_क्षेत्र_का_परिसीमन : ▪️अनुच्छेद 170 खण्ड-2(1) - प्रत्येक राज्य के भीतर सभी निर्वाचन क्षेत्रों की जनसंख्या यथासंभव समान होनी चाहिए। ▪️अनुच्छेद 170 खण्ड 3 - प्रत्येक जनगणना की समाप्ति पर प्रत्येक राज्य की विधानसभा में स्थानों की कुल संख्या और प्रत्येक राज्य के प्रादेशिक निर्वाचन क्षेत्रों का विभाजन ऐसे प्राधिकारी द्वारा और ऐसी रीति से किया जाएगा जो संसद विधि द्वारा निर्धारित करे। #विधानसभा_के_कार्य_एवं_शक्तियां : ▪️जिन राज्यों में विधान मंडल एक सदन है वहां पर विधानमंडल की सभी शक्तियों का प्रयोग विधानसभा द्वारा किया जाता है तथा जिन राज्यों में विधान मंडल दो सदनीय है वहां पर भी विधानसभा अधिक प्रभावशाली है।| #विधायिनी_शक्तियां : ▪️राज्य सूची तथा समवर्ती सूची के सभी विषयों पर कानून बनाने का अधिकार विधानसभा को प्राप्त है मूल रूप से राज्य सूची में 66 विषय तथा समवर्ती सूची में 47 विषय है | ▪️यदि विधानमंडल द्विसदनीय है तो विधेयक विधानसभा से पास होकर विधान परिषद के पास जाता है विधान परिषद यदि उसे रद्द कर दें या 3 महीने तक उस पर कोई कार्यवाही ना करें या उसमें ऐसे संशोधन कर दें जो विधानसभा को स्वीकृत ना हो, तो विधानसभा उस विधेयक को दोबारा पास कर सकती है और उसे दोबारा विधान परिषद के पास भेज सकता है | ▪️यदि विधान परिषद उस बिल पर दोबारा 1 महीने तक कोई कार्यवाही ना करें या दोबारा उसे दोबारा रद्द कर दें या उसमें ऐसे संशोधन कर दे जो विधान सभा को स्वीकृत ना हो, तो तीनों अवस्थाओं में यह बिल दोनों सदनों द्वारा पास समझा जाए | ▪️दोनों सदनों या एक सदन से पास होने के बाद बिल राज्यपाल के पास जाता है, वह उस पर अपनी स्वीकृति भी दे सकता है, उसे राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए भी भेज सकता है, उसे दोबारा विचार करने के लिए निर्देशों या बिना निर्देशों के सदन को वापस भी कर सकता है परंतु यदि विधान सभा या विधान मंडल इस बिल को दोबारा पास करके भेजें तो राज्यपाल को अपनी स्वीकृति देनी पड़ती है | #वित्तीय_शक्तियां : ▪️विधानसभा का राज्य के वित्त पर नियंत्रण होता है धन विधेयक केवल विधानसभा में पेश हो सकता है वित्तीय वर्ष के प्रारंभ होने से पहले राज्य का वार्षिक बजट भी इसी के सामने प्रस्तुत किया जाता है | ▪️विधानसभा की स्वीकृति के बिना राज्य सरकार न कोई कर लगा सकती है और ना ही कोई पैसा खर्च कर सकती है विधानसभा में पास होने के बाद धन विधेयक विधान परिषद के पास भेजा जाता है जो उसे अधिक से अधिक 14 दिन तक पास होने से रोक सकती है | ▪️विधान परिषद चाहे धन विधेयक को रद्द करें या 14 दिन तक उस पर कोई कार्यवाही ना करे तो भी वह दोनों सदनों द्वारा पास समझा जाता है और राज्यपाल की स्वीकृति के लिए भेज दिया जाता है जिसे धन विधेयक पर अपनी स्वीकृति देनी ही पड़ती है राज्यपाल धन विधेयक को पुनर्विचार के लिए नहीं लौटा सकता है। #कार्यपालिका_पर_नियंत्रण : ▪️विधान परिषद को कार्यकारी शक्तियां मिली हुई है विधानसभा का मंत्री परिषद पर पूर्ण नियंत्रण है मंत्री परिषद अपने समस्त कार्य व नीतियों के लिए विधानसभा के प्रति उत्तरदाई है विधानसभा के सदस्य मंत्रियों की आलोचना कर सकते हैं प्रश्न और पूरक प्रश्न पूछ सकते हैं। ▪️विधानसभा चाहे तो मंत्रिपरिषद को हटा भी सकती है विधानसभा मंत्रिपरिषद के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव पास करके अथवा धन विधेयक को अस्वीकृत करके तथा मंत्रियों के वेतन में कटौती करके अथवा सरकार के किसी महत्वपूर्ण विधेयक को अस्वीकृत करके मंत्रिपरिषद को त्यागपत्र देने के लिए मजबूर कर सकती है। #संवैधानिक_कार्य : ▪️राज्य विधानसभा को संविधान में संशोधन करने का कोई महत्वपूर्ण अधिकार प्राप्त नहीं है| संशोधन करने का अधिकार संसद को ही प्राप्त है, परंतु संविधान में कई ऐसे अनुच्छेद हैं जिनमें संसद अकेले संशोधन नहीं कर सकती है | ▪️ऐसे अनुच्छेदों में संशोधन करने के लिए आधे राज्यों के विधान मंडलों की स्वीकृति भी आवश्यक होती है अतः विधान परिषद के साथ मिलकर विधानसभा संविधान में भाग लेती है | #चुनाव_संबंधी_कार्य : ▪️विधानसभा के निर्वाचित सदस्यों को राष्ट्रपति के चुनाव में भाग लेने का अधिकार है या अधिकार विधान परिषद को प्राप्त नहीं है | ▪️विधान सभा के सदस्य विधान परिषद के ⅓ सदस्यों को चुनते हैं | ▪️विधानसभा के सदस्य की राज्यसभा में राज्य के प्रतिनिधियों को चुनकर भेजते हैं राज्य विधानसभा के सदस्य अपने में से एक को अध्यक्ष तथा किसी दूसरे को उपाध्यक्ष चुनते हैं | #विधान_परिषद (अनुच्छेद-171) : भारतीय संविधान में राज्यों को राज्य की भौगोलिक स्थिति, जनसंख्या एवं अन्य पहलुओं को ध्यान में रखते हुए राज्य विधानमंडल के अंतर्गत उच्च सदन के रूप में विधानपरिषद (वैकल्पिक) की स्थापना करने की अनुमति दी गई है। जहाँ विधानपरिषद के पक्षकार इसे विधानसभा की कार्यवाही और शासक दल की निरंकुशता पर नियंत्रण रखने के लिये महत्त्वपूर्ण मानते हैं, वहीं कई बार राज्य विधानमंडल के इस सदन को समय और पैसों के दुरुपयोग की वजह बता कर इसकी भूमिका और आवश्यकता पर प्रश्न उठते रहते हैं। राज्य विधानपरिषद की कार्यप्रणाली कई मायनों में राज्यसभा से मेल खाती है तथा इसके सदस्यों का कार्यकाल भी राज्यसभा सदस्यों की तरह ही 6 वर्षों का होता है। #संविधान_में_राज्य_विधानपरिषद_से_जुड़े_प्रावधान : ▪️संविधान के छठे भाग में अनुच्छेद 168-212 तक राज्य विधानमंडल (दोनों सदनों) के गठन, कार्यकाल, नियुक्तियों, चुनाव, विशेषाधिकार एवं शक्तियों की व्याख्या की गई है। ▪️इसके अनुसार, विधानपरिषद उच्च सदन के रूप में राज्य विधानमंडल का स्थायी अंग होता है। ▪️वर्तमान में देश के 6 राज्यों -आंध्र प्रदेश, बिहार, कर्नाटक, महाराष्ट्र, तेलंगाना और उत्तर प्रदेश में विधानपरिषद है, केन्द्रशासित प्रदेश बनने से पहले जम्मू-कश्मीर में भी विधानपरिषद थी। ▪️संविधान के अनुच्छेद 169, 171(1) और 171(2) में विधानपरिषद के गठन एवं संरचना से जुड़े प्रावधान हैं। ▪️संविधान का अनुच्छेद 169 किसी राज्य में विधानपरिषद के उत्सादन या सृजन का प्रावधान करता है, वहीं अनुच्छेद 171 विधानपरिषदों की संरचना से जुड़ा है। ▪️संविधान के अनुच्छेद 169 के अनुसार, राज्यों को विधानपरिषद के गठन अथवा विघटन करने का अधिकार है, परंतु इसके लिये प्रस्तुत विधेयक का विधानसभा में विशेष बहुमत (2/3) से पारित होना अनिवार्य है। ▪️विधानसभा के सुझावों पर विधानपरिषद के निर्माण व समाप्ति के संदर्भ में अंतिम निर्णय लेने का अधिकार संसद के पास होता है। ▪️विधानसभा से पारित विधेयक यदि संसद के दोनों सदनों में बहुमत से पास हो जाता है तब इस विधेयक को राष्ट्रपति के पास हस्ताक्षर के लिये भेजा जाता है। ▪️राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के बाद इस विधेयक (विधानपरिषद का गठन अथवा विघटन) को संवैधानिक मान्यता प्राप्त हो जाती है। ▪️इस प्रक्रिया के दौरान संविधान में आए परिवर्तनों को अनुच्छेद 368 के तहत संविधान का संशोधन नहीं माना जाता। #विधानपरिषद_की_संरचना : ▪️संविधान के अनुच्छेद 171 के अनुसार, विधानपरिषद के कुल सदस्यों की संख्या राज्य विधानसभा के सदस्यों की कुल संख्या के एक-तिहाई (1/3) से अधिक नहीं होगी, किंतु यह सदस्य संख्या 40 से कम नहीं होनी चाहिये। ▪️विधानपरिषद के सदस्यों का कार्यकाल राज्यसभा सदस्यों की ही तरह 6 वर्षों का होता है तथा कुल सदस्यों में से एक-तिहाई (1/3) सदस्य प्रति दो वर्ष में सेवानिवृत्त हो जाते हैं। ▪️राज्यसभा की तरह ही विधानपरिषद भी एक स्थायी सदन है जो कभी भंग नहीं होता है। ▪️राज्यसभा की ही तरह विधानपरिषद के सदस्यों का निर्वाचन प्रत्यक्ष चुनावों द्वारा नहीं होता है। #विधानपरिषद_के_गठन_की_प्रक्रिया : संविधान के अनुच्छेद 171 के तहत विधानपरिषद के गठन के लिये सदस्यों के चुनाव के संदर्भ में निम्नलिखित प्रावधान किये गए हैं- ▪️1/3 सदस्य राज्य की नगरपालिकाओं, ज़िला बोर्ड और अन्य स्थानीय संस्थाओं द्वारा निर्वाचित होते हैं। ▪️1/3 सदस्यों का चुनाव विधानसभा के निर्वाचित सदस्यों द्वारा किया जाता है। ▪️1/12 सदस्य ऐसे व्यक्तियों द्वारा चुने जाते हैं जिन्होंने कम-से-कम तीन वर्ष पूर्व स्नातक की डिग्री प्राप्त कर लिया हो एवं उस विधानसभा क्षेत्र के मतदाता हों। ▪️1/12 सदस्य उन अध्यापकों द्वारा निर्वाचित किया जाता है, जो 3 वर्ष से उच्च माध्यमिक (हायर सेकेंडरी) विद्यालय या उच्च शिक्षण संस्थानों में अध्यापन कर रहे हों। ▪️1/6 सदस्य राज्यपाल द्वारा मनोनीत होंगे, जो कि राज्य के साहित्य, कला, सहकारिता, विज्ञान और समाज सेवा का विशेष ज्ञान अथवा व्यावहारिक अनुभव रखते हों। ▪️सभी सदस्यों का चुनाव ‘अनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली’ के आधार पर एकल संक्रमणीय गुप्त मतदान प्रक्रिया से किया जाता है। #सदस्यता_हेतु_अर्हताएँ : संविधान के अनुच्छेद 173 के अनुसार, किसी भी व्यक्ति के राज्य विधानपरिषद में नामांकन के लिये निम्नलिखित अहर्ताएँ बताई गई हैं- ▪️वह भारत का नागरिक हो। ▪️उसकी आयु कम-से-कम 30 वर्ष होनी चाहिये। ▪️मानसिक रूप से असमर्थ और दिवालिया नहीं होना चाहिये। ▪️जिस क्षेत्र से वह चुनाव लड़ रहा हो वहाँ की मतदाता सूची में उसका नाम होना चाहिये। ▪️राज्यपाल द्वारा नामित होने के लिये व्यक्ति को संबंधित राज्य का निवासी होना अनिवार्य है। #विधानपरिषद_के_सत्र_सत्रावसान_एवं_विघटन : ▪️अनुच्छेद 174 में सत्र, सत्रावसान व विघटन संबंधी प्रावधान है | ▪️राज्य की विधानपरिषद् के संसद की भांति 3 सत्र होते हैं एक पत्र की अंतिम बैठक और दूसरे सत्र की प्रथम बैठक के बीच 6 माह से अधिक का अंतर नहीं होगा विधानपरिषद् का विघटन नहीं होता है | #विधानपरिषद_के_कार्य_एवं_शक्तियां : ▪️विधानपरिषद् धन विधेयक को केवल 14 दिन तक ही रोक सकती है। ▪️सामान्य विधेयक को विधान परिषद ने पेश किया जा सकता है परंतु सामान्य विधेयक पर अंतिम शक्ति विधानसभा के पास है। ▪️विधानसभा द्वारा पारित विधेयक को पहली बार में विधानपरिषद् 3 माह तक रोक सकती है यदि 3 माह बाद विधान सभा पुनः विधेयक को पारित कर दे तो सामान्य विधेयक को विधानपरिषद् 1 माह तक और रोक सकती है इस प्रकार विधानपरिषद् किसी विधेयक को अधिकतम 4 माह तक की रोक सकती है। ▪️जिन संशोधन विधेयक में राज्य विधानमंडल का समर्थन आवश्यक है एवं विधानपरिषद् भी भाग लेती है। [01/12, 8:26 AM] Raj Kumar: #आधुनिक_भारत_का_इतिहास : #सविनय_अवज्ञा_आंदोलन सविनय अवज्ञा आंदोलन की शुरुआत 1930 ई. में नमक कानून से हुए थी। दांडी यात्रा साबरमती में गाँधी जी के आश्रम से 240 किमी. दूर दांडी नामक गुजराती तटीय कस्बे में जाकर खत्म होनी थी। गाँधी जी की टोली ने 24 दिन रोज लगभग 10 मील सफर तय किया। गाँधी जी जहाँ भी रुकते हजारों लोग उन्हें सुनने आते थे। 6 अप्रैल को वे दांडी नामक स्थान पर पहुँचे और उन्होंने समुद्र का पानी उबालकर नमक बनाना शुरू कर दिया था। यह कानून का उल्लंघन था। हजारों लोगो ने नमक कानून तोड़कर सरकारी नमक कारखाने के सामने प्रदर्शन किये। सविनय अवज्ञा आंदोलन का अर्थ - अहिंसा या विनम्रता के साथ कानून का पालन ना करना। #सविनय_अवज्ञा_आन्दोलन_के_कारण : इस आन्दोलन को शुरू करने के कारणों को हम संक्षेप में निम्न रूप से रख सकते हैं- ▪️अंग्रेजी सरकार द्वारा नमक कानून बनाने के कारण भारत देश की गरीब जनता पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ा था। इसलिए भारतीय जनता में इस कानून के प्रति बहुत भारी गुस्सा था। ▪️ब्रिटिश सरकार ने नेहरू रिपोर्ट को अस्वीकृत कर भारतीयों के लिए संधर्ष के अतिरिक्त अन्य कोई मार्ग नहीं छोड़ा. उनके पास संघर्ष के अलावा और कोई चारा नहीं था. ▪️देश की आर्थिक स्थिति शोचनीय हो गयी थी. विश्वव्यापी आर्थिक मंदी से भारत भी अछूता नहीं रहा. एक तरफ विश्व की महान आर्थिक मंदी ने, तो दूसरी तरपफ सोवियत संघ की समाजवादी सफलता और चीन की क्रान्ति के प्रभाव ने दुनिया के विभिन्न देशों में क्रान्ति की स्थिति पैदा कर दी थी. किसानों और मजदूरों की स्थिति बहुत ही दयनीय हो गयी थी. फलस्वरूप देश का वातावरण तेजी से ब्रिटिश सरकार विरोधी होता गया. गांधीजी ने इस मौके का लाभ उठाकर इस विरोध को सविनय अवज्ञा आन्दोलन की तरफ मोड़ दिया. ▪️भारत की विप्लवकारी स्थिति ने भी आन्दालेन को शुरू करने को प्रेरित किया. आंतकवादी गतिविधियाँ बढ़ रही थीं. ‘मेरठ षड्यंत्र केस’ और ‘लाहौर षड्यंत्र केस’ ने सरकार विरोधी विचारधाराओं को उग्र बना दिया. किसानों, मजदूरों और आंतकवादियों के बीच समान दृष्टिकोण बनते जा रहे थे. इससे हिंसा और भय का वातावरण व्याप्त हो गया. हिंसात्मक संघर्ष की संभावना अधिक हो गयी थी. ▪️सरकार राष्ट्रीयता और देश प्रेम की भावना से त्रस्त हो चुकी थी. अतः वह नित्य दमन के नए-नए उपाय थी. इसी सदंर्भ में सरकार ने जनवरी 1929 में ‘पब्लिक सफ्तेय बिल’ या ‘काला काननू’ पेश किया, जिसे विधानमडंल पहले ही अस्वीकार कर चुका था. इससे भी जनता में असंतोष फैला. ▪️31 अक्टूबर, 1929 को वायसराय लार्ड इर्विन ने यह घोषणा की कि – “मुझे ब्रिटिश सरकार की ओर से घोषित करने का यह अधिकार मिला है कि सरकार के मतानुसार 1917 की घोषणा में यह बात अंतर्निहित है कि भारत को अन्त में औपनिवेशिक स्वराज प्रदान किया जायेगा.” लॉर्ड इर्विन की घोषणा से भारतीयों के बीच एक नयी आशा का संचार हुआ. फलतः वायसराय के निमंत्रण पर गाँधीजी, जिन्ना, तेज बहादुर सप्रु, विठ्ठल भाई पटेल इत्यादि कांग्रेसी नेताओं ने दिल्ली में उनसे मुलाक़ात की. वायसराय डोमिनियन स्टटे्स के विषय पर इन नेताओं को कोई निश्चित आश्वासन नहीं दे सके. दूसरी ओर, ब्रिटिश संसद में इर्विन की घोषणा (दिल्ली घोषणा पत्र) पर असंतोष व्यक्त किया गया. इससे भारतीय जनता को बड़ी निराशा हुई और सरकार के विरुद्ध घृणा की लहर सारे देश में फैल गयी. ▪️उत्तेजनापूर्ण वातावरण में कांग्रेस का अधिवेशन दिसम्बर 1929 में लाहौर में हुआ. अधिवेशन के अध्यक्ष जवाहर लाल नेहरू थे जो युवक आन्दोलन और उग्र राष्ट्रवाद के प्रतीक थे. इस बीच सरकार ने नेहरू रिपोर्ट को स्वीकार नहीं किया था. महात्मा गांधी ने राष्ट्र के नब्ज को पहचान लिया और यह अनुभव किया कि हिंसात्मक क्रान्ति का रोकने के लिए ‘सविनय अवज्ञा आन्दालेन’ को अपनाना होगा. अतः उन्होंने लाहौर अधिवेशन में प्रस्ताव पेश किया कि भारतीयों का लक्ष्य अब ‘पूर्ण स्वाधीनता’ है न कि औपनिवेशिक स्थिति की प्राप्ति, जो गत वर्ष कलकत्ता अधिवेशन में निश्चित किया गया था. #सविनय_अवज्ञा_आंदोलन_का_कार्यक्रम : महात्मा गाँधी द्वारा नमक कानून को भंग करना सारे देश के लिये सविनय अवज्ञा के प्रारंभ का संकेत था। अतः जगह-2 लोगों ने सरकारी कानूनों को तोङना शुरू कर दिया। महात्मा गाँधी ने सविनय अवज्ञा आंदोलन में निम्नलिखित कार्यक्रम सम्मिलित किये- ▪️गाँव-2 में नमक कानून तोङा गया। ▪️छात्र सरकारी स्कूलों और कर्मचारी सरकारी दफ्तरों को छोङ दें। ▪️स्त्रियाँ शराब, अफीम और विदेशी कपङों की दुकानों पर धरना दें। ▪️विदेशी कपङों को जलाया जाय। ▪️लोग सरकार को टैक्स न दें। #सविनय_अवज्ञा_आंदोलन_के_दमन_के_कारण : महात्मा गाँधी जी ने गाँधी-इरविन समझौता के तहत 1931 ई. में सविनय अवज्ञा आंदोलन को वापस लेने ला निर्णय लिया था, इसके निम्नलिखित कारण है। - ▪️सरकार राजनितिक कैदियों को रिहा करने पर राजी हो गयी थी। ▪️सरकार दमनकारी नीति चला रखी थी जिसके तहत शांतिपूर्ण सत्याग्रहियों पर हमले किये गए, महिलाओं और बच्चो को मारा-पीटा गया और लगभग 1 लाख लोग गिरफ्तार किये गए थे। ▪️ओद्योगिक मजदूरों ने अंग्रेजी शासन प्रतीक पुलिस चौकियों, नगरपालिका भवन, अदालतों और रेलवे स्टेशनों पर हमले शुरू कर दिए थे। #सविनय_अवज्ञा_आंदोलन_के_प्रभाव : ▪️सविनय अवज्ञा आंदोलन के दौरान लोगों का ब्रिटिश शासन से विश्वास जाता रहा और वे ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध लड़ने के लिए एकजुट होने लगे। ▪️सविनय अवज्ञा आंदोलन के चलाए जाने के साथ भारत में क्रांतिकारी आंदोलन फिर से जागृत हो गए। ▪️इस आंदोलन के दौरान भारतीयों को ब्रिटिश सरकार की कठोर यातनाओं सहना पड़ा था परन्तु अपने संघर्ष से उन्हें जो अनुभव मिला वह अमूल्य था। इस अनुभव ने आगे आने वाले स्वतत्रंता संघर्ष में उनका बड़ा मार्गदर्शन किया और एक सफल संघर्ष के दाँव-पेंच समझा दिए। #निष्कर्ष : इस आन्दोलन की एक प्रमुख विशेषता महिलाओं की भागीदारी थी. हजारों महिलाओं ने घरों से बाहर निकलकर आन्दोलन में सक्रिय सहयोग दिया. यहाँ यह उल्लेखनीय है कि मुस्लिम लीग को छोड़ भारत के सभी दलों और सभी वर्गों ने इस आन्दोलन का साथ दिया. अब सरकार भी गाँधीजी और कांग्रेस के महत्त्व को समझने लगी. वह समझ गयी कि आन्दालेन को केवल ताकत के बल पर नहीं दबाया जा सकता है. अतः संवैधानिक सुधारों की बात सोची जाने लगी. इसी उद्देश्य से लन्दन में प्रथम गालमेज सम्मलेन हुआ, परन्तु कांग्रेस के बहिष्कार के चलते वह असफल रहा. बाध्य होकर सरकार को गाँधी के साथ समझौता-वार्ता करनी पड़ी, जो ‘गांधी-इर्विन पैक्ट’ के नाम से विख्यात है. [01/12, 8:26 AM] Raj Kumar: #आधुनिक_भारत_का_इतिहास : #कांग्रेस_का_लाहौर_अधिवेशन, #पूर्ण_स्वराज्य_प्रस्ताव [ 1929 ] दिसम्बर 1929 में, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन तत्कालीन पंजाब प्रांत की राजधानी लाहौर में हुआ। इस ऐतिहासिक अधिवेशन में कांग्रेस के ‘पूर्ण स्वराज्य’ का घोषणा-पत्र तैयार किया तथा इसे कांग्रेस का मुख्य लक्ष्य घोषित किया। जवाहरलाल नेहरू, जिन्होंने पूर्ण स्वराज्य के विचार को लोकप्रिय बनाने में सर्वाधिक योगदान दिया था, इस अधिवेशन के अध्यक्ष चुने गये। जवाहरलाल नेहरू को अध्यक्ष बनाने में गांधी जी ने निर्णायक भूमिका निभाई। यद्यपि अठारह प्रांतीय कांग्रेस समितियों में से सिर्फ तीन का समर्थन ही नेहरू को प्राप्त था किंतु बहिष्कार की लहर में युवाओं के सराहनीय प्रयास को देखते हुये महात्मा गांधी ने इन चुनौतीपूर्ण क्षणों में कांग्रेस का सभापतित्व जवाहरलाल नेहरू को सौंपा। जवाहरलाल नेहरू के अध्यक्ष चुने जाने के दो महत्वपूर्ण कारण थे- 1. उनके पूर्ण स्वराज्य के प्रस्ताव को कांग्रेस ने अपना मुख्य लक्ष्य बनाने का निश्चय कर लिया था। 2. गांधी जी का उन्हें पूर्ण समर्थन प्राप्त था। #लाहौर_अधिवेशन_में_पास_किये_गये_प्रस्ताव #की_प्रमुख_मांगें_इस_प्रकार_थीं- ▪️गोलमेज सम्मेलन का बहिष्कार किया जायेगा। ▪️पूर्ण स्वराज्य को कांग्रेस ने अपना मुख्य लक्ष्य घोषित किया। ▪️कांग्रेस कार्यसमिति को सविनय अवज्ञा आंदोलन प्रारंभ करने का पूर्ण उत्तरदायित्व सौंपा गया, जिनमे करों का भुगतान नहीं करने जैसे कार्यक्रम सम्मिलित थे। ▪️सभी कांग्रेस सदस्यों को भविष्य में कौंसिल के चुनावों में भाग न लेने तथा कौंसिल के मौजूदा सदस्यों को अपने पदों से त्यागपत्र देने का आदेश दिया गया। ▪️26 जनवरी 1930 का दिन पूरे राष्ट्र में प्रथम स्वतंत्रता दिवस के रूप में मनाने का निश्चय किया गया। 31 दिसम्बर 1929 की अर्द्धरात्रि को इंकलाब जिंदाबाद के नारों के बीच रावी नदी के तट पर भारतीय स्वतंत्रता का प्रतीक तिरंगा झंडा फहराया गया। 26 जनवरी 1930 को पूरे राष्ट्र में जगह-जगह सभाओं का आयोजन किया गया, जिनमें सभी लोगों ने सामूहिक रूप से स्वतंत्रता प्राप्त करने की शपथ ली। इस कार्यक्रम को अभूतपूर्व सफलता मिली। गांवों तथा कस्बों में सभायें आयोजित की गयीं, जहां स्वतंत्रता की शपथ को स्थानीय भाषा में पढ़ा गया तथा तिरंगा झंडा फहराया गया। #इस_शपथ_में_निम्न_बिन्दु_थे- ▪️स्वतंत्रता का अधिकार भारतीय जनता का अहरणीय अधिकार है। ▪️भारत में ब्रिटिश उपनिवेशी सरकार ने जनता से स्वतंत्रता के अधिकार को छीनकर न केवल उसका शोषण किया है, बल्कि उसे आर्थिक, राजनैतिक सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक रूप से भी विनष्ट कर दिया है। ▪️भारत को आर्थिक रूप से नष्ट कर दिया गया है। ▪️राजस्व की वसूली हेतु उच्च दरें निर्धारित की गयी हैं, जो हमारी आमदनी से काफी अधिक हैं, ग्रामीण उद्योगों का विनाश कर दिया गया है तथा उसका विकल्प नहीं ढूंढ़ा गया है। सीमा शुल्क, मुद्रा और विनिमय दरें एक पक्षीय और भेदभावपूर्ण हैं तथा इससे भारत के किसान और उत्पादक बर्बाद हो गये हैं। ▪️हमें कोई भी वास्तविक राजनैतिक अधिकार नहीं दिये गये हैं- संघ एवं संगठनों के निर्माण की स्वतंत्रता के अधिकार से हमें वंचित कर दिया गया है तथा हमारी प्रशासनिक प्रतिभा की हत्या कर दी गयी है। ▪️सांस्कृतिक दृष्टि से-शिक्षा व्यवस्था ने हमें हमारी मातृभूमि से अलग कर दिया है तथा हमें ऐसा प्रशिक्षण दिया गया है कि हम सदैव गुलामी की बेड़ियों में जकडे रहें। ▪️आध्यात्मिक दृष्टि से-अनिवार्य रूप से शस्त्रविहीन कर हमें नपुंसक बना दिया गया है। ▪️अब हम यह मनाते हैं कि जिस विदेशी शासन ने चारों ओर से हमारे देश का सर्वनाश किया है, उसके शासन के सम्मुख समर्पण करना ईश्वर और मानवता के प्रति अपराध है। ▪️ब्रिटिश सरकार से अपने समस्त स्वैच्छिक संबंधों को समाप्त कर हम स्वयं को तैयार करेंगे। हम अपने को सविनय अवज्ञा आदोलन के लिये तैयार करेंगे; जिसमें करों की अदायगी न करने का मुद्दा भी शामिल होगा। यदि हम ब्रिटिश सरकार को सभी प्रकार का सहयोग बंद कर दें तथा किसी भी प्रकार की हिंसा न करें तो इस अमानवीय राज का अंत सुनिश्चित है। ▪️इसलिए हम संकल्प करते हैं कि पूर्ण स्वराज्य की स्थापना के लिये कांग्रेस समय-समय पर जो भी निर्देश देगी, हम उसका पूर्णतया पालन करेंगे। [01/12, 8:26 AM] Raj Kumar: #भारतीय_राजव्यवस्था_एवं_शासन : #राज्यपाल भारतीय संविधान द्वारा संघीय पद्धति अपनाई गई है. ऐसी पद्धति जिसमें दो तरह की सरकारें होती हैं. भारत में भी दो तरह की सरकारों की व्यवस्था है – एक केन्द्रीय सरकार तथा दूसरी राज्य सरकार. वर्तमान समय में भारत संघ में 28 राज्य और केंद्र द्वारा शासित 9 क्षेत्र हैं. राज्य का प्रधान राज्यपाल कहलाता है. आइए जानते हैं राज्यपाल के बारे में विस्तार से - #राज्यपाल_की_संवैधानिक_स्थिति : ▪️राज्यपाल की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा संविधान के अनुच्छेद 156 में प्रदत्त शक्ति के अंतर्गत की जाती है. ▪️राज्यपाल राज्य का एक सैद्धांतिक प्रमुख होता है क्योंकि वास्तविक शक्तियाँ किसी भी राज्य में वहाँ के मुख्यमंत्री के पास होती हैं. ▪️संविधान के सातवें संशोधन के द्वारा 1956 में यह व्यवस्था की गई थी कि एक ही व्यक्ति दो अथवा दो से अधिक राज्यों का राज्यपाल हो सकता है. ▪️संघीय क्षेत्रों में राज्यपाल के बदले उप-राज्यपाल होते हैं जिन्हें अंग्रेजी में लेफ्टिनेंट गवर्नर कहा जाता है. #नियुक्ति : संघ की तरह ही भारतीय संघ के राज्यों में संसदीय शासन पद्धति की स्थापना की गई है. संसदीय शासन पद्धति का आधारभूत सिद्धांत यह है कि राज्याध्क्ष शासन का प्रधान न होकर नाममात्र का प्रधान होता है. अतः, राज्यपाल एक सांविधानिक प्रधान है और वास्तविक कार्यपालिका शक्ति राज्य की मंत्रिपरिषद में ही निहित है. संविधान के अनुसार राज्यपाल को शासन-सम्बन्धी कार्यों में सहायता और मंत्रणा देने के लिए एक मंत्रिपरिषद होती है, जिसका नेता मुख्यमंत्री होता है. राज्यपाल की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा पाँच वर्षों के लिए होती है. राष्ट्रपति से अभिप्राय केन्द्रीय कार्यपालिका से है. अर्थात्, केन्द्रीय मंत्रिमंडल राष्ट्रपति की औपचारिक स्वीकृति से उसकी नियुक्ति करता है. सामान्यतः: उसकी नियुक्ति में सम्बद्ध राज्य के मुख्यमंत्री का परामर्श ले लिया जाता है. राष्ट्रपति पाँच वर्ष के भीतर भी राज्यपाल को पदच्युत कर सकता है अथवा उसका स्थानान्तरण कर सकता है. वह इस अवधि के भीतर भी राष्ट्रपति के पास त्यागपत्र भेजकर पदत्याग कर सकता है. राज्यपाल राष्ट्रपति के प्रसादपर्यंत अपने पद पर बना रहता है. यद्दपि उसका कार्यकाल पाँच वर्ष का है पर वह नए राज्यपाल के पद-ग्रहण करने के पूर्व तक अपने पद पर रहता है. #राज्यपाल_की_नियुक्ति_क्यों_होती_है_निर्वाचन_क्यों #नहीं? संविधान के निर्माताओं ने आरंभ में निर्वाचित राज्यपाल रखने का सुझाव दिया था. संभवतः उनका विचार था कि राज्यों को संघ की इकाई के रूप में अधिकतम स्वायत्तता होनी चाहिए. संयुक्त राज्य अमेरिका के राज्यों के राज्यपालों का पद निर्वाचित होता है. भारतीय संविधान के निर्माताओं ने इसी से प्रभावित होकर उपर्युक्त सुझाव दिया था. इस सम्बन्ध में अन्य प्रस्ताव यह भी था कि राज्य का विधानमंडल राज्यपाल पद के लिए चार व्यक्तियों को निर्वाचित करे और उनके नाम राष्ट्रपति के पास भेजे. राष्ट्रपति उनमें एक व्यक्ति को इस पद पर नियुक्त कर देगा. परन्तु, बाद में उन्होंने अपनी धारणा बदल दी और राज्यपाल के स्थान पर नियुक्ति का प्रावधान किया जिसके निम्नलिखित कारण थे – ▪️यदि राज्यपाल का निर्वाचन विधानमंडल द्वारा होता, तो राज्यपाल और मंत्रिमंडल दोनों एक ही विधानमंडल के प्रति उत्तरदायी होते. ऐसी स्थिति में वह उस राजनीतिक दल के हाथों की कठपुतली बन जाता, जो उसके निर्वाचन में समर्थन करता. इसके अतिरिक्त, पुनर्निर्वाचन के लिए विधानमंडलीय बहुमत के हाथों में खेलने की प्रवृत्ति उसमें होती. ▪️यदि वह जनता द्वारा निर्वाचित होता, तो राज्यपाल और मंत्रिपरिषद के मध्य प्रतिद्वन्द्विता उत्पन्न होने की आशंका बनी रहती, क्योंकि दोनों जनता के प्रतिनिधि होते. इस प्रकार शासनयंत्र का संचालन कठिन हो जाता. ▪️संविधान निर्माता यह चाहते थे कि यह पद एक ऐसा पद हो, जो राज्य की राजनीति में स्थायित्व रहने पर एक सांविधानिक अध्यक्ष के रूप में कार्य करे और उस स्थिति के अभाव में यह केन्द्रीय कार्यपालिका का अभिकर्ता बना रहे. इस उद्देश्य की पूर्ति राष्ट्रपति द्वारा राज्यपाल की नियुक्ति होने से ही संभव थी. इन्हीं कारणों से उसकी नियुक्ति होती है, उसका निर्वाचन नहीं होता है. ▪️उसके निर्वाचन का प्रस्ताव भारत के गरीब देश होने के कारण भी अस्वीकृत कर दिया गया. निर्वाचन के कारण देश को काफी खर्च का भार सहन करना पड़ता. अतः, आर्थिक बचत के लिए भी राज्यपाल की नियुक्ति का प्रबंध किया गया. #अनुच्छेद_158 : संविधान के अनुच्छेद 158 के तहत राज्यपाल नियुक्ति हेतु कुछ शर्तों का उल्लेख है, यह शर्ते हैं – ▪️राज्यपाल संसद अथवा किसी राज्य विधानमंडल का सदस्य नहीं हो सकता. यदि कोई व्यक्ति जो संसद या राज्य विधानमंडल का सदस्य है, राज्यपाल पद पर नियुक्त होता है तो वह राज्यपाल का पद ग्रहण करने की तिथि से संसद अथवा राज्य विधानमंडल में उसका पद रिक्त माना जाएगा. ▪️राज्यपाल कोई अन्य लाभ का पद धारण नहीं करेगा. ▪️राज्यपाल को निःशुल्क आवास, वेतन, भत्ते एवं उपलब्धियाँ तथा विशेषाधिकार प्राप्त होंगे जो संसद विधि द्वारा निर्धारित करे. वर्तमान में राज्यपाल का वेतन 3 लाख 50 हजार रूपये है. #राज्यपाल_के_लिए_योग्यताएँ : इस पद पर वही व्यक्ति नियुक्त हो सकता है जो – ▪️भारत का नागरिक हो. ▪️जिसकी आयु 35 वर्ष से अधिक हो. ▪️जो संसद या विधानमंडल का सदस्य नहीं है और यदि ऐसा व्यक्ति हो तो राज्यपाल के पदग्रहण के बाद उसकी सदस्यता का अंत हो जायेगा. अपनी नियुक्ति के बाद वह किसी अन्य लाभ के पद पर नहीं रह सकता. #राज्यपाल_के_कार्य : ▪️वह विधानमंडल के किसी भी सदन को जब चाहे तब सत्र बुला सकता है, सत्रावसान कर सकता है और विधान सभा को, यदि वह उचित समझे, तो विघटित कर सकता है. ▪️वह विधान परिषद् के 1/6 सदस्यों को मनोनीत भी करता है. वह दोनों सदनों को संबोधित कर सकता है या उनमें विधेयक-विषयक कोई सन्देश भेज सकता है, जिसपर सदन शीघ्र ही विचार करेगा. ▪️विधानमंडल के प्रत्येक सदस्य को राज्यपाल या उसके द्वारा नियुक्त किसी व्यक्ति के समक्ष शपथ लेना पड़ता है. ▪️वह प्रत्येक विक्तीय वर्ष के आरम्भ में उस वर्ष का वार्षिक वित्त-वितरण विधान सभा के सम्मुख प्रस्तुत करता है. ▪️विधान सभा में उसकी अनुमति के बिना किसी अनुदान की माँग नहीं की जा सकती. जब कोई विधेयक पारित होता है, तब वह उसकी स्वीकृति के लिए भेजा जाता है. राज्यपाल उसपर अपनी स्वीकृति दे सकता है, उसे अस्वीकृत भी कर सकता है या राष्ट्रपति के विचारार्थ रख सकता है. ▪️वह धन विधेयक को छोड़कर अन्य विधेयक को पुनः विचार करने के लिए विधानमंडल के पास भी भेज सकता है. लेकिन, यदि वह विधेयक पुनः संशोधनसहित या बिना किसी संशोधन के विधानमंडल द्वारा पारित हो जाए, तो उसे अपनी स्वीकृति देनी ही पड़ती है. स्थूल दृष्टि से इसकी वास्तविक स्थिति ठीक वैसी ही है जैसे राष्ट्रपति की है. अर्थात्, राज्यपाल राज्य का सांविधानिक अध्यक्ष जरुर है पर वास्तव में मंत्रिमंडल और मुख्यमंत्री ही राज्य के वास्तविक शासक होते हैं (The ministers decide and the Governor orders). सामान्तः, वह मंत्रिमंडल के परामर्श की अवहेलना नहीं कर सकता क्योंकि मंत्रिमंडल विधान सभा के प्रति उत्तरदायी होता है और वह त्यागपत्र दे कर राजनीतिक संकट उत्पन्न कर सकता है. #राज्यपाल_की_पदावधि : संविधान के अनुच्छेद 156 के अनुसार – ▪️राज्यपाल राष्ट्रपति के प्रसाद पर्यन्त पद धारण करता है. ▪️राज्यपाल राष्ट्रपति को संबोधित कर अपना त्यागपत्र दे सकता है. ▪️राज्यपाल अपने पदग्रहण की अवधि से पाँच वर्षों तक पद धारण करता रहेगा जब तक उसका उत्तराधिकारी पद ग्रहण न कर ले. सामान्यतः प्रत्येक राज्य हेतु एक राज्यपाल होता है. किन्तु एक ही राज्यपाल दो या अधिक राज्यों का राज्यपाल नियुक्त किया जा सकता है. राज्यपाल पद ग्रहण करने से पूर्व सम्बंधित राज्य के उच्च न्यायालय मुख्य न्यायाधीश अथवा वरिष्ठतम न्यायाधीश के समक्ष अपने पद की शपथ लेता है. #राष्ट्रपति_से_अलग_कैसे? राज्यपाल की स्थिति राष्ट्रपति से दो मामलों में भिन्न है – ▪️संविधान कुछ मामलों में राज्यपाल को विवेक के आधार पर कार्य करने की शक्ति देता है. जबकि राष्ट्रपति को ऐसी शक्ति नहीं है. ▪️42वें संविधान संशोधन द्वारा राष्ट्रपति पर मंत्रिपरिषद की सलाह बाध्यकारी बना दी गई है. जबकि राज्यपाल के सम्बन्ध में ऐसा नहीं है. #शक्तियां : ▪️राष्ट्रपति की भाँति राज्यपाल को भी कुछ कार्यकारी, विधायी और न्यायिक शक्तियाँ मिली हुई हैं. ▪️उसके पास कुछ विवेकाधीन अथवा आपातकालीन शक्तियां भी होती हैं. ▪️किन्तु राष्ट्रपति की भाँति राज्यपाल के पास कोई कूटनीतिक अथवा सैन्य शक्ति नहीं होती है. #राज्यपाल_की_विवेकाधीन_शक्तियां : ▪️राज्यपाल राष्ट्रपति को इस बात की सूचना अपने विवेक से दे सकता है कि राज्यपाल में संवैधानिक तन्त्र विफल हो गया है. ▪️विधानसभा द्वारा पारित विधेयक को राज्यपाल अपने विवेक से रोके रख सकता है. ▪️यदि विधानसभा में किसी भी दल को स्पष्ट बहुमत नहीं है तो राज्यपाल अपने विवेक से किसी को भी मुख्यमंत्री नियुक्त कर सकता है. ▪️असम, मेघालय, त्रिपुरा, मिजोरम के राज्यपाल द्वारा खनिज उत्खनन की रॉयल्टी के रूप में जनजातीय जिला परिषद् को देय राशि का निर्धारण करता है. ▪️राज्यपाल मुख्यमंत्री से राज्य के प्रशासनिक और विधायी विषयों के बारे में सूचना प्राप्त कर सकता है. ▪️राज्यपाल को यह अधिकार है कि वह अपने विवेक से विधान सभा द्वारा पारित साधारण विधेयक को हस्ताक्षरित करने से मना कर सकता है. ▪️इसके अतिरिक्त असम, नागालैंड, मणिपुर, सिक्किम, अरुणाचल प्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात तथा कर्नाटक के राज्यपाल को स्थानीय विकास, जनकल्याण तथा कानून व्यवस्था के संदर्भ में कुछ विशेष दायित्व सौंपे गये हैं जिनका निर्वहन वह स्वविवेक से करता है. [01/12, 8:26 AM] Raj Kumar: #आधुनिक_भारत_का_इतिहास : #नेहरु_रिपोर्ट [ 1928 ] साइमन कमीशन की नियुक्ति के साथ ही भारत सचिव लॉर्ड बर्केनहेड ने भारतीय नेताओं को यह चुनौती दी कि यदि वे विभिन्न दलों और सम्प्रदायों की सहमति से एक संविधान तैयार कर सकें तो इंग्लैंड सरकार उस पर गंभीरता से विचार करेगी. इस चुनौती को भारतीय नेताओं ने स्वीकार करके इस बात का प्रयास किया कि साथ में मिल-जुलकर संविधान का एक प्रारूप तैयार किया जाए. इसके लिए मोतीलाल नेहरु की अध्यक्षता में एक समिति को गठित किया गया, जिसका कार्य था संविधान का प्रारूप तैयार करना. इस समिति के सचिव् जवाहर लाल नेहरु थे. इसमें अन्य 9 सदस्य भी जिनमें से एक सुभाष चन्द्र बोस थे. समिति ने अपनी रिपोर्ट 28-30 अगस्त, 1928 को प्रस्तुत की जिसे नेहरु रिपोर्ट के नाम से जाना जाता है. #नेहरू_रिपोर्ट_के_प्रमुख_सुझाव : ▪️भारत को औपनिवेशिक स्वराज प्रदान किया जाना चाहिए और उसका स्थान ब्रिटिश शासन के अंतर्गत अन्य उपनिवेशों के समान होना चाहिए. ▪️केन्द्र में पूर्ण उत्तरदायी सरकार की स्थापना होनी चाहिए. भारत के गवर्नर जनरल को लोकप्रिय मंत्रियों के परामर्श पर और संवैधानिक प्रधान के रूप मे कार्य करना चाहिए. ▪️केन्द्रीय व्यवस्थापिका सभा द्वि-सदनीय (bi-camerial) हो और मंत्रिमंडल उसके प्रति उत्तरदायी हो. निम्न सदन का निर्वाचन, वयस्क मताधिकार के आधर पर प्रत्यक्ष रीति से तथा उच्च सदन का परोक्ष रीति से हो. ▪️प्रांतों में भी केन्द्र की भांति उत्तरदायी शासन की स्थापना हो. ▪️केन्द्र और प्रांतों के बीच शक्ति वितरण की एक योजना प्रस्तुत की गयी, जिसमें अवशिष्ट शक्तियां केन्द्र को प्रदान की गयीं. ▪️उत्तर-पश्चिम सीमा प्रांत को ब्रिटिश भारत के अन्य प्रान्तों के समान वैधानिक स्तर प्राप्त होना चाहिए. ▪️सिन्ध को बम्बई से अलग कर उसको एक पृथक प्रातं बनाया जाये. ▪️रिपोर्ट में मौलिक अधिकारों का उल्लेख किया गया और उन्हें संविधान में स्थान देने की सिफारिश की गयी.. ▪️रिपोर्ट में यह भी कहा गया कि देशी राज्यों के अधिकारों तथा विशेषाधिकारों की रक्षा की व्यवस्था की जाये. साथ-साथ उन्हें यह चतेावनी भी दी गयी कि भारतीय संघ में उन्हें तभी सम्मिलित किया जाए, जब उनके राज्य में उत्तरदायी शासन की व्यवस्था हो जाए. #नेहरु_रिपोर्ट_का_विरोध : नेहरु रिपोर्ट का जिन्ना और मुस्लिम लीग के अन्य नेताओं ने पुरजोर विरोध किया. इसके पीछे मूल कारण यह था कि इसमें साम्प्रदायिक आधार पर प्रतिनिधित्व का प्रावधान नहीं किया गया था. कांग्रेस में कुछ लोग डोमिनियन स्टेटस (dominion status) की बात से संतुष्ट नहीं थे. वे पूर्ण स्वराज को Nehru Report में शामिल किये जाने की माँग कर रहे थे. कांग्रेस, मुस्लिम लीग और अन्य राजनेताओं में नेहरु रिपोर्ट के सन्दर्भ में पूर्ण सहमति नहीं होने के कारण ब्रिटिश सरकार ने रिपोर्ट को अस्वीकृत कर दिया. #मूल्यांकन : नेहरू रिपोर्ट पर विचार करने के लिए 1928 में ही लखनऊ और दिल्ली में सर्वदलीय सम्मेलन हुए. इन सम्मेलनों में भारतीय नेताओं का विरोध उभरकर सामने आया. सम्मेलन में मोहम्मद अली ने रिपोर्ट की आलाचेना की, जिन्ना ने अधिक प्रतिनिधित्व की माँग की, तो आगा खां ने देश के हर प्रांत को स्वाधीनता दिए जाने की माँग की. मुसलमानों के अड़ंगा लगाने पर हिन्दू संप्रदायवादी भी अकड़ गये. सिक्खों ने पंजाब में विशेष प्रतिनिधित्व की माँग की. जिन्ना ने बाद में अपनी ‘14 सूत्री माँगें’ रखीं. इसके विपरित राष्ट्रवादी मुसलामानों का दल (डा. अंसारी, अली इमाम इत्यादि) ‘नेहरू रिपोर्ट’ को स्वीकार करने के पक्ष में थे. स्वयं कांग्रेस में भी इस रिपोर्ट पर मतभेद था. कांग्रेस का वामपंथी युवा वर्ग जिसका नेतृत्व जवाहर लाल नेहरू और सुभाष बोस कर रहे थे, और जो औपनिवेशिक स्वतंत्रता से संतुष्ट नहीं थे, ने पूर्ण स्वतंत्रता की माँग को कांग्रेस का उद्देश्य बनाना चाहा था. उन लोगों ने नवम्बर 1928 में ‘इंडिपेंडेन्स लीग’ की स्थापना भी की तथा युवा वर्ग में स्वतंत्रता के प्रति रुझान पैदा करने में सफल रहे. कलकत्ता अधिवेशन में भी इस वर्ग ने कांग्रेस नेतृत्व से अपने लक्ष्य में परिवर्तन करने की माँग ठुकरायी. गांधीजी के प्रयासों से विद्रोह दब गया, परंतु यह तय हुआ कि अगर एक वर्ष के अन्दर सरकार ने ‘डोमिनियन स्टेटस’ प्रदान नहीं किया तो कांग्रेस का लक्ष्य ‘पूर्ण स्वाधीनता’ की प्राप्ति बन जायेगा. कांग्रेस ने यह भी स्वीकार किया कि अगर सरकार नेहरू रिपोर्ट को अस्वीकृत कर देगी, तो पुनः असहयोग आन्दोलन प्रारंभ कर दिया जायेगा. यद्यपि नहेरू रिपोर्ट स्वीकृत नहीं हो सकी, लेकिन इसने अनके महत्त्वपूर्ण प्रवृत्तियों को जन्म दे दिया. सांप्रदायिकता की भावना जो अंदर-अंदर ही थी, अब उभर कर सामने आ गयी. मुस्लिम लीग और हिन्दू महासभा दोनों ने इसे फैलाने में कोई कसर नहीं छोड़ी. 1928 ई. की घटनाओं ने पुनः गांधीजी को देश और कांग्रेस की राजनीति के शीर्ष पर आसीन कर दिया. वे राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम के निर्विवाद नेता बनकर प्रकट हुए. [01/12, 8:26 AM] Raj Kumar: #भारतीय_राजव्यवस्था_एवं_शासन : #सर्वोच्च_न्यायालय उच्चतम न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय कानून का सर्वोच्च न्यायालय है । इसके द्वारा दिये गये निर्णय अंतिम होते है तथा इन निर्णयों के विरूद्ध किसी और न्यायालय में अपील नहीं की जा सकती है। संविधान के अनुच्छेद 124 से 147 तक के अनुच्छेदों का सम्बन्ध सर्वोच्च न्यायालय से है । संविधान के अनुच्छेद 124 (1) में सर्वोच्च न्यायालय की व्यवस्था की गई है। #गठन : भारतीय संविधान के अनुच्छेद 124(1) के अनुसार प्रारम्भ में सर्वोच्च न्यायालय के लिए एक मुख्य न्यायाधीश तथा सात अन्य न्यायाधीश निश्चित किये गये थे परंतु इसी अनुच्छेद में संसद को न्यायाधीशों की संख्या बढ़ाने की शक्ति प्रदान की गई । सर्वोच्च न्यायालय (न्यायाधीशों की संख्या) अधिनियम 1956 के अनुसार, न्यायाधीशों की संख्या मुख्य न्यायाधीश के अतिरिक्त 10 कर दी गयी थी । 1960 में संसद द्वारा न्यायाधीशों की संख्या मुख्य न्यायाधीश सहित 14 कर दी गयी । परंतु 1977 में भारतीय संसद ने एक कानून के द्वारा सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की कुल संख्या 18 कर दी 1986 में संसद ने एक अन्य कानून पारित करके सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की संख्या 18 से बढ़ाकर 25 कर दी। 2008 में संसद ने एक अन्य कानून पारित करके सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की संख्या 25 से बढ़ाकर 30 कर दी। वर्तमान समय में सर्वोच्च न्यायालय में नियुक्त न्यायाधीशों की संख्या 34 है।*(18 सितंबर 2019 के अनुसार)। संसद को यह शक्ति है कि वह विधि बनाकर न्यायाधीशों की संख्या विहित करे। #नियुक्ति : भारतीय संविधान के अनुच्छेद 124(2) के अनुसार, सर्वोच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति अपने पूर्ण अधिकारों के अन्तर्गत करता है और इसके लिए वह आवश्यकतानुसार सर्वोच्च न्यायालय के अन्य न्यायाधीशों का भी परामर्श ले सकता है। भारत के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति के मामले में भी वह सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय के चाहे जितने न्यायाधीशों की सलाह ले सकता है । संविधान में स्पष्ट प्रावधान के बावजूद भारत के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति राजनीतिक फैसले से प्रभावित होती है । पहले न्यायाधीशों की नियुक्ति के समय वरिष्ठता पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया जाता था परंतु विधि आयोग ने अपनी 80वीं रिपोर्ट में यह सिफारिश की है कि सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति के समय वरिष्ठता पर विशेष रूप से ध्यान दिया जाना चाहिए। #तदर्थ_न्यायाधीश : संविधान के अनुच्छेद 127 (1) के अनुसार यदि किसी कारणवश न्यायालय की बैठक करने के लिए निश्चित गणपूर्ति कोरम (गणपूर्ति-3 निश्चित की गई है) पूरी नहीं होती तो राष्ट्रपति की अग्रिम स्वीकृति द्वारा मुख्य न्यायाधीश तदर्थ न्यायाधीशों की नियुक्ति कर सकता है उस व्यक्ति को जो किसी उच्च न्यायालय का न्यायाधीश रह चुका हो या सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश की योग्यता रखता हो, तदर्थ न्यायाधीश नियुक्त किया जा सकता है । #योग्यताएं : संविधान के अनुच्छेद 124 (3) के अनुसार सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के लिए निम्नलिखित योग्यताएं निश्चित की गई हैः ▪️वह भारत का नागरिक हो, ▪️वह कम से कम लगातार 5 वर्ष तक किसी एक या दो या इससे अधिक उच्च न्यायालयों का न्यायाधीश रह चुका हो, ▪️उसने कम से कम 10 वर्ष तक लगातार किसी एक या दो या इससे अधिक उच्च न्यायालयों में वकालत की हो तथा ▪️राष्ट्रपति की राय में पारंगत विधिवेत्ता हो। #कार्यकाल : संविधान के अनुच्छेद 124(2) के अनुसार सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश 65 वर्ष की आयु तक अपने पद पर आसीन रहते है । 65 वर्ष की आयु से पहले कोई भी न्यायाधीश अपनी इच्छानुसार त्यागपत्र दे सकता है । इसके अतिरिक्त राष्ट्रपति किसी भी न्यायाधीश को बुरे व्यवहार या अयोग्यता के कारण 65 वर्ष की आयु से पहले भी पदच्युत कर सकता है । इसके लिए यह अनिवार्य है कि संसद के दोनों सदन अपने-अपने कुल सदस्यों की संख्या के बहुमत द्वारा तथा उपस्थित और मत देने वाले सदस्यों के दो-तिहाई बहुमत द्वारा प्रस्ताव पारित करके राष्ट्रपति किसी न्यायाधीश को पद से हटाने का आदेश जारी नहीं कर सकता है (अनुच्छेद 124 (4)) #शपथ_ग्रहण : अनुच्छेद 124(6) के अनुसार सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश अपना पद ग्रहण करने से पहले राष्ट्रपति या उसके द्वारा नियुक्त व्यक्ति के समक्ष शपथ लेते है । #वेतन_तथा_भत्ते : सवोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश तथा न्यायाधीशों के वेतन आदि संविधान की दूसरी अनुसूची में अंकित किए गए हैं। इसके अतिरिक्त निशुल्क निवास तथा अन्य भत्ते मिलते है। भारत के सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों वेतन भारत की संचित निधि से दिये जाते है । यह ऐसी निधि है जो संसद के मतदान के अधिकार क्षेत्र से बाहर है । सेवा निवृत्ति के पश्चात न्यायाधीशों को नियमानुसार पेंशन दी जाती है । इसके अतिरिक्त उनको आतिथ्य सत्कार भत्ता तथा यात्रा भत्ता दिया जाता है। #कार्य_स्थान : सर्वोच्च न्यायालय का कार्य स्थान दिल्ली में स्थापित किया गया है, परंतु मुख्य न्यायाधीश राष्ट्रपति की पूर्व स्वीकृति से उसकी बैठक किसी और स्थान पर भी कर सकता हैं। #सर्वोच्च_न्यायालय_के_निर्णय : किसी भी विषय पर राष्ट्रपति को कानूनी परामर्श देने के लिए 5 न्यायाधीशों की बेंच होना अनिवार्य है शेष मुकदमों की अपील सुनने के लिए वर्तमान नियमों के अनुसार कम से कम तीन न्यायाधीशों का होना आवश्यक है । सभी मुकदमों का निर्णय न्यायाधीशों की बहुमत से किया जाता है । जो न्यायाधीश बहुमत के निर्णय से सहमत नहीं होते वह अपनी असहमति तथा उसके कारण निर्णय के साथ प्रस्तुत करते हैं। #संवैधानिक_स्वतंत्रता : भारतीय संविधान ने सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की स्वतंत्रता को बनाए रखने के लिए अनेक प्रावधानों का निर्धारण किया है । ▪️उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति, मंत्रिपरिषद की सलाह से करता है, फिर भी राष्ट्रपति इस विषय में राष्ट्रपति भारत के मुख्य न्यायाधीश से परामर्श करता है। ▪️संविधान के अनुच्छेद 124(4) के अनुसार राष्ट्रपति किसी भी न्यायाधीश को बुरे आचरण या अयोग्यता के कारण पदच्युत कर सकता है परंतु इसके लिए आवश्यक है कि संसद के दोनों सदन अपने-अपने कुल सदस्यों की संख्या के बहुमत द्वारा तथा उपस्थित तथा मत देने वाले दो-तिहाई बहुमत द्वारा पारित प्रस्ताव राष्ट्रपति को ज्ञापित करें। ▪️संविधान के अनुच्छेद 125 (2) के अनुसार न्यायाधीशों के वेतन, भत्ते, छुट्टी तथा पेंशन में कोई परिवर्तन नहीं किया जा सकता है। परंतु अनुच्छेद 360 (4 क) के अनुसार वित्तीय आपातकाल के समय में राष्ट्रपति ऐसा कर सकता है। ▪️संविधान के अनुच्छेद 146 (3) के अनुसार सर्वोच्च न्यायालय के प्रशासनिक व्यय, सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों और अन्य कर्मचारियों के वेतन, भत्ते आदि भारत की संचित निधि से दिये जाते हैं अर्थात संसद् उन पर मतदान नहीं कर सकती । ▪️संविधान के अनुच्छेद 124(7) के अनुसार जो व्यक्ति सर्वोच्च न्यायालय में मुख्य न्यायाधीश के पद पर रह चुका है, वह भारतीय क्षेत्र में पुनः किसी भी न्यायालय या अन्य किसी अधिकारी क समक्ष वकालत नहीं कर सकता है। #सर्वोच्च_न्यायालय_के_क्षेत्राधिकार_तथा_कार्य : सर्वोच्च न्यायालय भारत का सबसे बड़ा तथा अंतिम न्यायालय है अर्थात सर्वोच्च न्यायालय एकीकृति न्यायिक व्यवस्था की सर्वोच्च संस्था है । संविधान के अनुच्छेद 141 में कहा गया है कि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा तय किये गये सिद्वांत भारतीय सीमा में आने वाले सभी न्यायालयों पर लागू होते है । भारत के सर्वोच्च न्यायालय के क्षेत्राधिकारों, शक्तियों तथा कार्यो को निम्नलिखित श्रेणियों में विभक्त कर सकते हैः #मूल_या_आरंभिक_अधिकार_क्षेत्र : संविधान के अनुच्छेद 131 में सर्वोच्च न्यायालय के मूल अधिकार क्षेत्र की व्याख्या की गई है । इस अधिकार क्षेत्र का अभिप्राय उन अभियोगों से है जिन्हें सीधे ही सर्वोच्च न्यायालय में आरंभ किया जा सकता है तथा जिन्हे अन्य निम्न न्यायालयों में आरंभ नहीं किया जा सकता । आरंभिक अधिकार क्षेत्र में निम्नलिखित अभियोग आते है- ▪️एक ओर भारत सरकार तथा दूसरी ओर एक या एक से अधिक राज्य हों, ▪️एक ओर भारत सरकार के साथ एक या एक से अधिक अन्य राज्य हों, ▪️दो या दो से अधिक राज्यों के बीच विवाद हो। #अपवाद : सर्वोच्च न्यायालय के आरंभिक अधिकार क्षेत्र में निम्नलिखित प्रकार के विवाद नहीं आते है- ▪️सरकारों के मध्य उत्पन्न विवाद किसी न्याय योग्य अधिकार पर आधारित होना अनिवार्य है अभिप्राय यह है कि विवाद के कारण राजनीतिक नहीं, बल्कि वैधानिक होना चाहिए। जिन सरकारों के मध्य विवाद का आधार वैधानिक न हो, वे सर्वोच्च न्यायालय के आरंभिक अधिकार क्षेत्र के अंतर्गत नहीं आते हैं। ▪️संविधान के सातवें संशोधन के अनुसार सर्वोच्च न्यायालय के आरंभिक अधिकार क्षेत्र में वे अभियोग नहीं आते है जिनका संबंध उन संधियों, समझौतो, अथवा सनदों से है जो संविधान के लागू होने के पूर्व की गई थी और जो अब भी जारी है अथवा जिनमें यह स्पष्ट रूप से कहा गया हो कि उनके संबंध में सर्वोच्च न्यायालय को ऐसा अधिकार प्राप्त नहीं होगा। ▪️नागरिकों के मौलिक अधिकार के संबंध में आरंभिक अधिकार क्षेत्र-संविधान के तीसरे खंड में दिये गये मौलिक अधिकारों की सुरक्षा के लिए नागरिकों को सर्वोच्च न्यायालय का आश्रय लेने का अधिकार प्राप्त है । नागरिकों के मौलिक अधिकारों से संबंधित अभियोग भी सर्वोच्च न्यायालय के आरंभिक क्षेत्र में आते है क्योंकि संविधान के अनुच्छेद 32 के अनुसार नागरिकों को, मौलिक अधिकारों की अवहेलना पर सर्वोच्च न्यायालय में याचिका रिट देने का अधिकार दिया गया है। अर्थात नागरिक अपने अधिकारों की रक्षा के लिए सीधे सर्वोच्च न्यायालय में रिट दायर कर सकता है। नागरिक अधिकारों को लागू करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय यथोचित निर्देश, आदेश या लेख जारी कर सकता हैः 1.बंदी प्रत्यक्षीकरण आदेश 2.परमादेश । 3.निषेध लेख । 4.उत्प्रेषण लेख । 5.अधिकार पृच्छा लेख। ▪️राष्ट्रपति तथा उपराष्ट्रपति के निर्वाचन सम्बंधी विवाद सर्वोच्च न्यायालय के मूलाधिकार क्षेत्र में आते है क्योंकि ऐसे विवादों की सुनवाई कोई अन्य न्यायालय नहीं कर सकता है। #अपीलीय_अधिकार_क्षेत्र : अपीलीय अधिकार क्षेत्र में ऐसे अभियोग आते है, जिनका आरंभ तो निम्न स्तरीय न्यायालयों में होता है, परंतु इनके निर्णय के प्रति सर्वोच्च न्यायालय में अपील की जा सकती है। अपीलीय अधिकार क्षेत्र को चार भागों में बांटा जा सकता है- 1.#संवैधानिक_अभियोगों_में_अपील संविधान के अनुच्छेद 132 के अनुसार किसी भी राज्य के उच्च न्यायालय के द्वारा दिये गये निर्णय, डिग्री या आदेश के विरूद्ध सर्वोच्च न्यायालय में अपील की जा सकती है, यदि संबंधित उच्च न्यायालय अभियोग के संबंध में यह प्रमाण-पत्र दे कि अभियोग में संवैधानिक व्याख्या का प्रश्न है। संवैधानिक व्याख्या से संबंधित किसी भी अभियोग में, चाहे वह दीवानी हो या फौजदारी, उच्च न्यायालय के निर्णय के विरूद्ध सर्वोच्च न्यायालय में अपील की जा सकती है। 2.#दीवानी_या_सिविल_अभियोगों_में_अपील संविधान के अनुच्छेद 133 के अनुसार सर्वोच्च न्यायालय को दीवानी अभियोगों के निर्णय के विरूद्ध भी अपील सुनने का अधिकार प्राप्त है। 3.#फौजदारी_या_दंडिक_अभियोगों_में_अपील संविधान के अनुच्छेद 134 के अनुसार उच्च न्यायालय के निर्णय के विरूद्ध निम्नलिखित फौजदारी अभियोगों में सर्वोच्च न्यायालय को अपील सुनने का अधिकार प्राप्त है। ▪️ऐसा अभियोग, जिसमें निम्न न्यायालयों ने व्यक्ति को रिहा कर दिया हो, परंतु अपील करने पर उच्च न्यायालय ने उसे मृत्यु दण्ड दिया हो। ▪️ऐसा अभियोग, जो निम्न न्यायालयों में चल रहा हो परंतु उच्च न्यायालय उस अभियोग को अपने हाथ में लेकर व्यक्ति को दोषी घोषित कर दे और मृत्यु दण्ड दे दे। ▪️उच्च न्यायालय यह प्रमाण-पत्र दे कि अभियोग सर्वोच्च न्यायालय में अपील करने योग्य है । यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि संसद कानून द्वारा सर्वोच्च न्यायालय का अपीलीय अधिकार क्षेत्र बढ़ा सकती है। 4.#विशेष_अपीलें_सुनने_का_अधिकार संविधान के अनुच्छेद 136 के अनुसार सर्वोच्च न्यायालय अपील करने की विशेष आज्ञा दे सकता है । अनुच्छेद 136 (1) में यह व्यवस्था है कि सर्वोच्च न्यायालय भारत की भूमि पर स्थित किसी भी न्यायालय या न्यायाधिकरण द्वारा किसी भी विषय संबंधी दिये गये निर्णय परिणाम, दण्ड या आदेश के विरूद्ध अपील करने की विशेष आज्ञा स्वेच्छानुसार दे सकता है । परंतु सैनिक कानून के अनुसार स्थापित किये गये किसी न्यायालय के निर्णय के विरूद्ध सर्वोच्च न्यायालय को अनुच्छेद 136 के अंतर्गत भी अपील करने की विशेष आज्ञा देने का अधिकार नहीं है। #परामर्शदात्री_अधिकार_क्षेत्र : संविधान के अनुच्छेद 143 के अनुसारभारत के राष्ट्रपति को किन्ही बैधानिक समस्याओं के संबंध में सर्वोच्च न्यायालय से परामर्श लेने का अधिकार है । जब कभी राष्ट्रपति यह अनुभव करे कि कोई वैधानिक समस्या उत्पन्न हो गयी है तो वह समस्या को, सर्वोच्च न्यायालय की वैधानिक राय लेने के लिए भेज सकता है। जब राष्ट्रपति की ओर से सर्वोच्च न्यायालय को वैधानिक परामर्श देने की लिए कोई विषय भेजा जाता है तो पांच न्यायाधीशों की जूरी द्वारा उस मामले के प्रति निर्णय करना अनिवार्य है किसी विषय के संबंध में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दी गई वैधानिक राय को मानना राष्ट्रपति के लिए अनिवार्य नहीं है । सर्वोच्च न्यायालय किसी मामले में राष्ट्रपति द्वारा मांगी गयी कानूनी राय देने के इंकार भी कर सकता है। उदाहरण के लिए 24 अक्टूबर 1994 को सर्वोच्च न्यायालय ने अयोध्या में मंदिर होने अथवा न होने सम्बंधी अपनी राय देने से इंकार कर दिया था, क्योंकि सर्वोच्च न्यायालय ऐसे मामलों में अपनी राय देना उचित नहीं समझता था। #संविधान_की_व्याख्या_तथा_सुरक्षा_का_अधिकार : संविधान की व्याख्या तथा सुरक्षा का अधिकार भी सर्वोच्च न्यायालय को ही प्रदान किया गया है। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दी गयी संविधान की व्याख्या सर्वोपरि एवं सर्वोत्तम मानी जाती है और साथ ही संविधान के अनुच्छेद 137 के अनुसार सर्वोच्च न्यायालय को न्यायिक पुनरावलोकन का अधिकार प्राप्त है । अर्थात सर्वोच्च न्यायालय को अपने द्वारा सुनाए गये निर्णय या दिये गये आदेश का पुनर्विलोकन करने की शक्ति है। यदि संसद द्वारा निर्मित कानून या केंद्रीय कार्यपालिका द्वारा जारी किये गये आदेश संविधान के किसी अनुच्छेद की अवहेलना करते हो, तो सर्वोच्च न्यायालय ऐसे कानून या आदेश को अवैध घोषित कर सकता है । यदि केंद्र सरकार या राज्य सरकार अपने अधिकार-क्षेत्र के बाहर किसी कानून का निर्माण करे तो सर्वोच्च न्यायालय ऐसे कानून को रद्द कर सकता है। संविधान देश का सर्वोपरि कानून है, उनकी सुरक्षा करना सर्वोच्च न्यायालय का प्रमुख वैधानिक कर्तव्य है । 24 अप्रैल 1973 को सर्वोच्च न्यायालय ने केशवानन्द भारती के प्रसिद्व अभियोग में यह निर्णय दिया था कि संसद संविधान में कोई ऐसा परिवर्तन नहीं कर सकती जो संविधान की आवश्यक विशेषताओं या इसके मौलिक ढांचे को नष्ट करती हो। सर्वोच्च न्यायालय के इस निर्णय ने संसद की संविधान में संशोधन करने की शक्ति पर एक महत्वपूर्ण रोक लगा दी है, इस प्रकार स्पष्ट है कि संविधान के व्याख्याकार के रूप में सर्वोच्च न्यायालय संसद की शक्तियों पर प्रतिबंध लगा सकता है। #अभियोगों_को_स्थानांतरित_करने_की_शक्ति : संविधान के अनुच्छेद 139 (क) के अनुसार कुछ अभियोग जिनका सम्बंध एक या लगभग एक ही प्रकार के कानून के प्रश्नों से है, जोकि एक या एक से अधिक उच्च न्यायालयों के पास निर्णय के लिए पड़े हैं तो सर्वोच्च न्यायालय अपनी पहल के आधार पर या भारत के महान्यायवादी द्वारा दिये अनुरोध-पत्र के आधार पर या अभियोग के सम्बंधित किसी पक्ष की ओर से किये विनय-पत्र द्वारा संतुष्ट होने पर कि ऐसे प्रश्नअसाधारण महत्व वाले महत्वपूर्ण प्रश्न है तो सर्वोच्च न्यायालय ऐसे मामले उच्च न्यायालय या उच्च न्यायालयों से अपने पास मंगवा सकता है और उस समस्त अभियोगों का निर्णय स्वयं कर सकता हैं। #अभिलेख_न्यायालय : संविधान के अनुच्छेद 129 के अनुसार, भारत के सर्वोच्च न्यायालय को एक अभिलेख न्यायालय माना गया है। इसकी सम्पूर्ण कार्यवाहियां तथा निर्णय प्रमाण के रूप में प्रकाशित किये जाते है तथा देश के सभी न्यायालयों द्वारा इन निर्णयों को न्यायिक दृष्टांत के रूप में मानना अनिवार्य है जब किसी न्यायालय को अभिलेख न्यायालय का स्थान दिया जाता है तो उसे न्यायालय का अपमान करने वो व्यक्ति को दण्ड देने का अधिकार प्राप्त हो जाता है। भारत का सर्वोच्च न्यायालय, किसी को भी न्यायालय का अपमान करने के दोष में दण्ड दे सकता है। #अपने_निर्णयों_पर_पुनर्विचार_का_अधिकार : सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयों को कानून के समान मान्यता दी जाती है, परंतु इसका अभिप्राय यह नहीं की सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिये गये निर्णय स्थायी रूप से स्थिर रहते है और उन्हे बदला नहीं जा सकता । संविधान के अनुच्छेद 137 के अनुसार सर्वोच्च न्यायालय अपने पहले दिये गये निर्णयों पर पुनर्विचार कर सकता है । अर्थात सर्वोच्च न्यायालय अपने पूर्व निर्णयों को बदल सकता है। #विविध_कार्य : सर्वोच्च न्यायालय को निम्नलिखित विविध शक्तियां भी प्राप्त है- ▪️सर्वोच्च न्यायालय भारत के सभी न्यायालयों के निरीक्षण करने अथवा उनके कुशल प्रबंध के लिए नियम बना सकता है। ▪️राष्ट्रपति संघ लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष तथा अन्य सदस्यों को तभी अपदस्थ कर सकता है, यदि सर्वोच्च न्यायालय जांच करके उन्हे प्रमाणित कर दे। ▪️सर्वोच्च न्यायालय विधि विशेषज्ञों के लिए उचित नियम बना सकता है । ▪️सर्वोच्च न्यायालय सभी प्रशासनिक तथा न्यायिक अधिकारियों से सहायता ले सकता है । अतः सर्वोच्च न्यायालय को प्रत्येक क्षेत्र में व्यापक शक्तियां प्रदान की गई है । संविधान की सुरक्षा, नागरिकों के मौलिक अधिकारों की सुरक्षा, तथा दीवानी फौजदारी अभियोगों की अंतिम अपील सुनने आदि का अधिकार सर्वोच्च न्यायालय को ही प्राप्त है । सर्वोच्च न्यायालय के पास देश में विभिन्न न्यायालयों के निर्णयों के विरूद्ध अपील करने की विशेष आज्ञा देने का अधिकार इतना व्यापक है कि सभी न्यायिक शक्तियां सर्वोच्च न्यायालय में ही केंद्रित हो सकती है । इसी प्रकार सर्वोच्च न्यायालय के संविधान की व्याख्या करने का अधिकार इतना महत्वपूर्ण है कि संविधान वही रूप धारण कर सकता है, जिस रूप में न्यायाधीश उसकी व्याख्या करें। [01/12, 8:26 AM] Raj Kumar: #आधुनिक_भारत_का_इतिहास : #साइमन_कमीशन [ 1927 ] भारत शासन अधिनियम 1919 के एक्ट को पारित करते समय ब्रिटिश सरकार ने यह घोषणा की थी कि वह दस वर्ष पश्चात पुनः इन सुधारों की समीक्षा करेगी। किन्तु नवम्बर 1927 में ही उसने आयोग की नियुक्ति की घोषणा कर दी, जिसका नाम भारतीय विधिक आयोग रखा गया, “सर जान साइमन” इसके अध्यक्ष नियुक्त किए गए तथा सभी सातों सदस्य ब्रिटिश थे। #साइमन_कमीशन_एक्ट_से_संबधित_मुख्य_बिंदु : साइमन कमीशन 1927 एक्ट के सम्बन्ध में प्रमुख बिन्दु निम्नवत हैं- ▪️यद्यपि संवैधानिक सुधारों के संबंध में ब्रिटिश सरकार द्वारा इस आयोग का गठन 10 वर्ष बाद यानी 1929 में होना था परन्तु ब्रिटेन की तत्कालीन सत्तादल कंजरवेटिव पार्टी ने सारा श्रेय स्वयं लेने के लिए 2 वर्ष पूर्व ही इस आयोग का गठन करने का मन बनाया। साथ ही कंजरवेटिव पार्टी के तत्कालीन सेक्रेटरी ऑफ स्टेट “लार्ड बर्कनहेड” का मानना था कि भारतीय लोग स्वयं संवैधानिक सुधारों हेतु योजना बनाने में अक्षम हैं, इसलिए साइमन कमीशन की नियुक्ति करना आवश्यक है। ▪️भारत में साइमन कमीशन के विरोध का मुख्य कारण किसी भी भारतीय को कमीशन का सदस्य न बनाया जाना तथा भारत में स्वशासन के संबंध में निर्णयों का विदेशियों द्वारा लिया जाना था। ▪️पुलिस द्वारा प्रदर्शनकारियों पर लाठियां बरसाई गईं। लखनऊ में जवाहर लाल नेहरू तथा गोविंद वल्लभ पंत को बुरी तरह पीटा गया। ▪️लाहौर में लाला लाजपत राय पर पुलिस की लाठियों से आयी चोटों के कारण 17 नवंबर, 1928 को मृत्यु हो गयी। #साइमन_कमीशन_1927_पर_कांग्रेस_की_प्रतिक्रिया : कांग्रेस के मद्रास अधिवेशन (दिसम्बर, 1927) में एम० ए० अंसारी की अध्यक्षता में कांग्रेस ने प्रत्येक स्तर एवं प्रत्येक स्वरूप में इसका बहिष्कार करने का निर्णय लिया। ▪️किसान मजदूर पार्टी, लिबरल फेडरेशन, हिन्दु महासभा तथा मुस्लिम लीग ने कांग्रेस के साथ मिलकर कमीशन का बहिष्कार करने का निर्णय लिया। ▪️जबकि पंजाब में संघवादियों तथा दक्षिण भारत में जस्टिस पार्टी कमीशन का बहिष्कार न करने का निर्णय लिया। ▪️इसी बीच “मोती लाल नेहरु” ने पूर्ण स्वतंत्रता का प्रस्ताव पारित करा लिया।. #साइमन_कमीशन_1927_पर_जन_प्रतिक्रिया : 3 फरवरी, 1928 को साइमन कमीशन बंबई पहुँचा। पूरे भारत-वर्ष में हड़ताल व विरोध किया गया तथा जहां भी गये वहां इन्हे काले झंडों तथा “साइमन गो बैक” के नारे झेलने पड़े। ▪️केन्द्रीय विधानसभा के भारतीय सदस्यों ने भी साइमन कमीशन का स्वागत करने से इंकार कर दिया। ▪️इन्ही विरोधी गतिविधियों के बीच “जवाहर लाल नेहरू” तथा “सुभाष चन्द्र बोस” प्रमुख युवा राष्ट्रवादी की तरह उभरे तथा कई स्थानों के दौरे और सभाओं को संबोधित किया गया। साइमन कमीशन की रिपोर्ट 1930 में प्रकाशित की गयी। जिसके प्रमुख बिन्दु निम्नवत हैं- ▪️प्रांतीय क्षेत्रों में कानून तथा व्यवस्था सहित सभी क्षेत्रों में उत्तरदायी सरकार गठित की जाये। ▪️केंद्रीय विधान मण्डल का पुनर्गठन किया जाए। इसमें संघीय भावना हो तथा इसके सदस्य प्रांतीय विधान मण्डलों द्वारा अप्रत्यक्ष तरीके से चुने जाए। ▪️केंद्र में उत्तरदायी सरकार का गठन न किया जाए, क्योंकि इसके लिए अभी सही समय नहीं आया है। ▪️सांप्रदायिक निर्वाचन व्यवस्था को जारी रखा जाए। ब्रिटिश सरकार ने साइमन कमीशन की सिफारिशों पर विचार करने के लिए ब्रिटिश भारत और भारतीय रियासतों के प्रतिनिधियों के साथ तीन गोल मेज सम्मेलन किए। इन गोल मेज सम्मेलनों में काँग्रेस की तरफ से गाँधी जी भी शामिल हुए। इन तीनों सम्मेलनों के आधार पर “संवैधानिक सुधारों का श्वेत पत्र” बनाया गया। जिसे आगे चलकर कुछ संशोधनों के साथ भारत शासन अधिनियम, 1935 में शामिल किया गया। #साइमन_कमीशन_का_बहिष्कार_क्यों_किया_गया #था ? साइमन कमीशन का बहिष्कार का मुख्य कारण भारतीयों को कमीशन का सदस्य न बनाये जाने और भारत के शासन के संबंध में निर्णयों का विदेशियों द्वारा लिया जाना था। #मूल्यांकन : साइमन कमीशन ने अपनी रिपोर्ट में भारतीय राजनीति की समस्त कठिनाइयों और समस्याओं पर प्रकाश डाला. किन्तु उसने तत्कालीन भारत और जनता की अभिलाषाओं और आकांक्षाओं की ओर तनिक भी ध्यान नहीं दिया. भारतीय कमीशन की रिपोर्ट से भारतीय नेता बहुत असंतुष्ट हुए, क्योंकि – ▪️“रिपोर्ट में भारतीयों की औपनिवेशिक स्वराज की मांग की पूर्ण उपेक्षा की गयी थी.” ▪️इसने भारतीयों की केन्द्र में उत्तरदायी शासन की स्थापना करने की मांग को स्वीकार नहीं किया. ▪️प्रांतों में यद्यपि इसने उत्तरदायी मंत्रिमंडल की स्थापना करने की व्यवस्था की, लेकिन इसके साथ ही प्रांतीय गर्वनरों को कुछ ऐसी विशेष शक्तियां प्रदान करने की सिफारिश की गयी, जिससे उत्तरदायी शासन का महत्त्व बहुत कम हो जाता. निःसंदेह रिपोर्ट निरर्थक तथा रद्दी कागज के समान थी फिर भी भारतीय समस्याओं के अध्ययन के दृष्टिकोण से यह महत्त्वपूर्ण प्रलेख था। साइमन कमीशन का एक महत्त्वपूर्ण यागेदान यह है कि इसने अप्रत्यक्ष और अस्थायी तौर पर ही सही देश, के विभिन्न समूहों और दलों को एकजुट कर दिया. [01/12, 8:26 AM] Raj Kumar: #भारतीय_राजव्यवस्था_एवं_शासन : #भारत_की_संसद पार्लियामेंट(जिसे संसद या भारतीय संसद के नाम से भी जाना जाता है), भारत का सर्वोच्च विधायी अथॉरिटी है। भारत की संसद, राष्ट्रपति के साथ दो सदन – लोक सभा (हाउस ऑफ पीपल) और राज्य सभा (राज्यों की परिषद) में विभाजित होती है। भारत के राष्ट्रपति के पास, संसद के सदन को बुलाने या लोकसभा को भंग करने की शक्ति है। कोई विधेयक संसद के दोनों सदनों द्वारा पारित होने के बाद ही एक अधिनियम बनता है। भारतीय संसद भवन को 1912-1913 में ब्रिटिश आर्किटेक्ट(वास्तुकार) सर एडविन लुटियन और सर हर्बर्ट बेकर द्वारा डिजाइन किया गया था। इसे 1927 में सेंट्रल लेजिस्लेटिव असेंबली, काउंसिल ऑफ स्टेट्स और चैंबर ऑफ प्रिंसेस के लिए खोला गया था। #भारत_के_संसद_सदस्य : #राज्यसभा राज्य सभा सदस्यों की अधिकतम संख्या 250 है। 238 सदस्य राज्य द्वारा चुने जाते हैं और 12 सदस्यों को राष्ट्रपति द्वारा कला, साहित्य, विज्ञान और सामाजिक सेवाओं के क्षेत्र में उनके योगदान के लिए नामित किया जाता है। राज्य सभा एक स्थायी निकाय है और भंग नहीं होता है। हालाँकि, राज्यसभा के कुल सदस्यों में से एक-तिहाई सदस्य हर दूसरे वर्ष सेवानिवृत्त होते हैं, और उनकी जगह नए चुने गए सदस्य होते हैं। राज्य सभा में प्रत्येक सदस्य छह वर्ष की अवधि के लिए चुने जाते हैं। #लोकसभा लोकसभा या संसद का निचला सदन उन लोगों के प्रतिनिधियों से बनता है, जो प्रत्यक्ष चुनाव के बाद यूनिवर्सल एडल्ट सफ़रेज के आधार पर चुने जाते हैं। लोकसभा सदस्यों की अधिकतम संख्या 552 हैं – राज्यों का प्रतिनिधित्व करने के लिए 530 सदस्य, केंद्र शासित प्रदेशों का प्रतिनिधित्व करने के लिए 20 सदस्य और एंग्लो-इंडियन समुदाय से 2 सदस्य राष्ट्रपति द्वारा नामित किए जाते हैं। लोकसभा के वर्तमान सदस्यों की संख्या 545 है। लोकसभा के सदस्य अपनी सीट पर 5 साल तक या जब तक मंत्रिमंडल की सलाह पर राष्ट्रपति द्वारा लोकसभा भंग नहीं हो जाती है, तब तक बने रह सकते है। #भारत_की_संसद_के_कार्य : संसद के कार्यों को कई श्रेणियों के तहत वर्गीकृत किया जा सकता है, जैसे कि विधायी कार्य, कार्यकारी कार्य, वित्तीय कार्य आदि। #विधायी_कार्य : ◾संसद उन सभी मामलों पर कानून बनाती है जिनका उल्लेख संघ और समवर्ती सूची में किया गया है। ◾समवर्ती सूची के मामले में, जहां राज्य विधानसभाओं और संसद का संयुक्त अधिकार क्षेत्र है, संघ का कानून राज्यों पर लागु रहेगा जब तक कि राज्य के कानून को पहले राष्ट्रपति से स्वीकृति नहीं मिली हो। हालाँकि, संसद किसी भी समय, राज्य विधायिका द्वारा बनाए गए कानून में कुछ जोड़ सकती है या संशोधन कर सकती है। ◾संसद निम्नलिखित परिस्थितियों में राज्य सूची के मामलों पर कानून पारित कर सकती है। ▪️यदि कोई आपातकाल लगा हो, या किसी राज्य में राष्ट्रपति शासन लागु हो, तो संसद राज्य सूची के मामलों पर भी कानून बना सकती है। ▪️संसद राज्य सूची के मामलों पर कानून बना सकती है यदि संसद का ऊपरी सदन अपने वर्तमान सदस्यों के दो-तिहाई बहुमत से एक प्रस्ताव पारित करता है और मतदान करता है, तो संसद के लिए आवश्यक है कि वह राज्य सूची में शामिल किसी भी मामलों पर राष्ट्रीय हित में कानून बनाए। ▪️संसद राज्य सूची के मामलों पर कानून पारित कर सकती है, यदि यह अंतर्राष्ट्रीय समझौतों या विदेशी शक्तियों के साथ संधियों के कार्यान्वयन के लिए आवश्यक है। ▪️यदि दो या दो से अधिक राज्यों की विधानसभाएं इस आशय का प्रस्ताव पारित करती हैं कि राज्य सूची में सूचीबद्ध किसी भी मामलों पर संसदीय कानून होना श्रेयकर है, तो संसद उन राज्यों के लिए कानून बना सकती है। #कार्यकारी_कार्य (कार्यपालिका पर नियंत्रण) : सरकार के संसदीय रूप में, कार्यपालिका, विधायिका के प्रति उत्तरदायी होती है। इसलिए, संसद कई उपायों द्वारा कार्यपालिका पर नियंत्रण रखती है। ▪️अविश्वास प्रस्ताव से, संसद कैबिनेट(कार्यकारिणी) को सत्ता से बाहर कर सकती है। यह किसी बजट या किसी अन्य विधेयक के प्रस्ताव को भी अस्वीकार कर सकती है, जो कैबिनेट द्वारा प्रस्तुत किया गया हो। ▪️संसद सदस्य, मंत्रियों से उनके कार्यकाल और आयोगों पर सवाल पूछ सकते हैं। सरकार की ओर से किसी भी तरह की चूक को संसद में उजागर की जा सकती है। ▪️संसद, मंत्री के आश्वासन पर एक समिति नियुक्त करती है, जो मंत्रियों द्वारा संसद में किए गए वादों को पूरा होने या या नहीं होने पर नजर रखता है। ▪️निंदा प्रस्ताव: सरकार की किसी भी नीति को दृढ़ता से अस्वीकार करने के लिए सदन में विपक्षी दल के सदस्यों द्वारा एक निंदा प्रस्ताव पारित किया जाता है। इसे केवल लोकसभा में ही स्थानांतरित किया जा सकता है। निंदा प्रस्ताव पारित होने के तुरंत बाद, सरकार को सदन का विश्वास प्राप्त करना होता है।अविश्वास प्रस्ताव के मामले से भिन्न इसमें, यदि निंदा प्रस्ताव पारित हो जाता है तो मंत्रिपरिषद को इस्तीफा देने की आवश्यकता नहीं होती है। ▪️कट मोशन(कटौती प्रस्ताव): इस प्रस्ताव का इस्तेमाल सरकार द्वारा लाए गए वित्तीय विधेयक में किसी भी मांग का विरोध करने के लिए किया जाता है। #वित्तीय_कार्य : जब वित्त की बात आती है, तो संसद को सर्वाधिक अधिकार होता है। संसद से अनुमोदन के बिना कार्यकारी एक पाई भी खर्च नहीं कर सकते। ▪️कैबिनेट द्वारा तैयार किया गया केंद्रीय बजट संसद द्वारा अनुमोदन के लिए प्रस्तुत किया जाता है। कर लगाने के सभी प्रस्तावों को भी संसद द्वारा अनुमोदित किया जाना चाहिए। ▪️संसद की दो स्थायी समितियाँ (लोक लेखा समिति और प्राक्कलन समिति) हैं, जो इस बात की जाँच करती हैं कि विधायिका द्वारा दिए गए धन को किस प्रकार खर्च किया गया है। #संशोधन_की_शक्तियाँ : संसद के पास भारत के संविधान में संशोधन करने की शक्ति है। संसद के दोनों सदनों के पास समान शक्तियां हैं। संशोधन को प्रभावी बनाने के लिए उसको लोकसभा और राज्यसभा दोनों में पारित करना होता है। #चुनावी_कार्य : राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के चुनाव में भी संसद भाग लेती है। राष्ट्रपति का चुनाव करने वालों में अन्य के साथ दोनों सदनों के निर्वाचित सदस्य भी शामिल होते हैं। राष्ट्रपति को राज्य सभा द्वारा एक प्रस्ताव पारित करके और लोकसभा की सहमति से हटाया जा सकता है। #न्यायिक_कार्य : सदन के सदस्यों द्वारा विशेषाधिकार हनन के मामले में, संसद के पास उन्हें दंडित करने की शक्तियाँ हैं। विशेषाधिकार का उल्लंघन सांसदों द्वारा प्राप्त विशेषाधिकारों में से किसी का उल्लंघन है। ▪️सदस्य द्वारा विशेषाधिकार प्रस्ताव को तब लाया जाता है, जब उसे लगता है कि कोई सदस्य/मंत्री ने सदन के विशेषाधिकार का हनन किया है। ▪️संसद द्वारा अपने सदस्यों को दंडित करने की शक्ति आमतौर पर न्यायिक समीक्षा का विषय नहीं होती है। ▪️संसद के अन्य न्यायिक कार्यों में राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों, उच्च न्यायालयों, महालेखा परीक्षक आदि पर महाभियोग लगाने की शक्ति शामिल है। #संसद_के_सत्र : भारतीय संसद का एक संसद सत्र वह अवधि है जिसके दौरान देश के प्रबंधन के लिए सदन लगभग हर दिन बैठती है। आम तौर पर एक वर्ष में 3 सत्र होते हैं। संसद सत्र के लिए संसद के सभी सदस्यों को बुलाने की प्रक्रिया को संसद सत्र बुलाना कहा जाता है। राष्ट्रपति, संसद सत्र बुलाता है। ▪️संसद का बजट-सत्र (फरवरी से मई) ▪️संसद का मानसून सत्र (जुलाई से सितंबर) ▪️संसद का शीतकालीन सत्र(नवंबर से दिसंबर) #संसद_का_बजट_सत्र : ▪️संसद का बजट सत्र फरवरी से मई तक आयोजित होता है। ▪️2017 के बाद से, केंद्रीय बजट हर साल फरवरी के पहले दिन पेश किया जा रहा है। इससे पहले, इसे फरवरी के अंतिम दिन प्रस्तुत किया जाता था। ▪️वित्त मंत्री द्वारा बजट पेश किए जाने के बाद सभी सदस्य बजट के विभिन्न प्रावधानों और कराधान से संबंधित मामलों पर चर्चा करते हैं। ▪️अधिकतर बजट सत्र के दो अवधियों में विभाजित होता है, जिनके बीच एक महीने का अंतर होता है। ▪️सत्र दोनों सदनों के राष्ट्रपति के अभिभाषण से शुरू होता है। #संसद_का_मानसून_सत्र : ▪️संसद का मानसून सत्र हर साल जुलाई से सितंबर तक आयोजित किया जाता है। ▪️यह बजट सत्र के दो महीने के बाद शुरू होता है। ▪️इसमें सार्वजनिक हित के मामलों पर चर्चा की जाती है। #संसद_का_शीतकालीन_सत्र : ▪️संसद का शीतकालीन सत्र नवंबर के मध्य से दिसंबर के मध्य तक आयोजित किया जाता है। ▪️यह तीनों सत्रों में सबसे छोटा सत्र है। ▪️यह सत्र उन मामलों को उठाता है जिन पर पहले विचार नहीं किया जा सका था और संसद के दूसरे सत्र के दौरान विधायी कार्य की अब्सेंस के लिए मेक अप किया जाता है [01/12, 8:26 AM] Raj Kumar: #भारतीय_राजव्यवस्था_एवं_शासन : #भारत_का_महान्यायवादी भारत का महान्यायवादी भारत सरकार का मुख्य कानूनी सलाहकार तथा भारतीय उच्चतम न्यायालय में सरकार का प्रमुख वकील होता है । भारत के महान्ययवादी की नियुक्ति भारत के राष्ट्रपति द्वारा अनुच्छेद 76 के अंतर्गत की जाती है । देश के अटॉर्नी जनरल का मुख्य कर्तव्य कानूनी मामलों में केंद्र सरकार को सलाह देना और कानूनी प्रक्रिया के अंतर्गत जिम्मेदारियों का पालन करना होता है, जिन्हें राष्ट्रपति की ओर से उनके पास भेजा जाता है । उन्हें देश के किसी भी न्यायालय में उपस्थित होने का अधिकार प्राप्त है, इसके साथ-साथ वह संसद की कार्यवाही में भी सम्मिलित होनें का अधिकार प्राप्त है | अटॉर्नी जनरल को मतदान करनें का अधिकार नहीं होता है। आइए जानते है भारत के महान्यायवादी के बारे में विस्तार से - #नियुक्ति_और_पदावधि : संविधान, महान्यायवादी को निश्चित पद अवधि प्रदान नहीं करता है। इसलिए, वह राष्ट्रपति की मर्ज़ी के अनुसार ही कार्यरत रहता है। उसे किसी भी समय राष्ट्रपति द्वारा हटाया जा सकता है| उसे हटाने के लिए संविधान में कोई भी प्रक्रिया या आधार उल्लेखित नहीं है। महान्यायवादी वही पारिश्रमिक प्राप्त करता है जो राष्ट्रपति निर्धारित करता है। संविधान के महान्यायवादी का पारिश्रमिक निर्धारित नहीं किया है। #महान्यायवादी_की_योग्यता : ▪️उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश की योग्यता रखनें वाले व्यक्ति को महान्यायवादी के पद पर नियुक्त किया जाता है। ▪️महान्यायवादी के पद पर नियुक्त होनें वाले व्यक्ति को भारत का नागरिक होना अनिवार्य है। ▪️उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में पांच वर्ष कार्य करनें का अनुभव अथवा किसी उच्च न्यायालय में वकालत का 10 वर्ष का अनुभव होना चाहिए। #कर्तव्य_और_कार्य : महान्यायवादी के कर्तव्य और कार्य निम्नलिखित हैं: ▪️वह कानूनी मामलों पर भारत सरकार को सलाह देता है जो राष्ट्रपति द्वारा उसे भेजे या आवंटित किए जाते है। ▪️वह राष्ट्रपति द्वारा भेजे या आवंटित किए गए कानूनी चरित्र के अन्य कर्तव्यों का प्रदर्शन करता है। ▪️वह संविधान के द्वारा या किसी अन्य कानून के तहत उस पर सौंपे गए कृत्यों का निर्वहन करता है। #अपने_सरकारी_कर्तव्यों_के_निष्पादन_में : ▪️वह भारत सरकार का विधि अधिकारी होता है, जो सुप्रीम कोर्ट में सभी मामलों में भारत सरकार का पक्ष रखता है। ▪️जहाँ भी भारत की सरकार को किसी क़ानूनी सलाह की जरुरत होती है, वह अपनी राय से सरकार को अवगत कराता है। #अधिकार_और_सीमाएं : महान्यायवादी के अधिकार निम्नलिखित हैं: ▪️अपने कर्तव्यों के निष्पादन में, वह भारत के राज्य क्षेत्र में सभी न्यायालयों में सुनवाई का अधिकार रखता है। ▪️उसे संसद के दोनों सदनों या उनके संयुक्त बैठकों की कार्यवाही में हिस्सा लेने का अधिकार है, परंतु उसे वोट देने का अधिकार नहीं है (अनुच्छेद 88)। ▪️उसे संसद की किसी भी समिति में जिसमें वह सदस्य के रूप में नामांकित हो बोलने का अधिकार या भाग लेने का अधिकार है, परंतु वोट डालने का अधिकार नहीं है (अनुच्छेद 88)। ▪️वह उन सभी विशेषाधिकारों और प्रतिरक्षाओं को प्राप्त करता है जो संसद के एक सदस्य के लिए उपलब्ध होतीं है। नीचे वर्णित महान्यायवादी पर निर्धारित की गई सीमाएं हैं: ▪️वह अपनी राय को भारत सरकार के ऊपर थोप नहीं सकता है। ▪️वह भारत सरकार की अनुमति के बिना आपराधिक मामलों में आरोपियों का बचाव नहीं कर सकता है। ▪️वह सरकार की अनुमति के बिना किसी भी कंपनी में एक निदेशक के रूप में नियुक्ति को स्वीकार नहीं कर सकता है। यह ध्यान दिये जाने वाली बात है कि महान्यायवादी को निजी कानूनी अभ्यास से वंचित नहीं किया जाता है। वह सरकारी कर्मचारी नहीं होता है क्योंकि उसे निश्चित वेतन का भुगतान नहीं किया जाता है और उसका पारिश्रमिक राष्ट्रपति निर्धारित करता है। [01/12, 8:26 AM] Raj Kumar: #आधुनिक_भारत_का_इतिहास : #मुडीमैन_समिति_1924 भारतीय नेताओं की मांगों को पूरा करने और 1920 के दशक के आरंभिक वर्षों में स्वराज पार्टी द्वारा स्वीकृत किये गए प्रस्ताव को ध्यान में रखते हुए ब्रिटिश सरकार ने सर अलेक्जेंडर मुडीनमैन की अध्यक्षता में एक समिति,जिसे मुडीनमैन समिति के नाम से भी जाना जाता है,गठित की। समिति में ब्रिटिशों के अतिरिक्त चार भारतीय सदस्य भी शामिल थे| भारतीय सदस्यों में निम्नलिखित शामिल थे- ▪️सर शिवास्वामी अय्यर, ▪️डॉ.आर.पी.परांजपे, ▪️सर तेज बहादुर सप्रे ▪️मोहम्मद अली जिन्ना इस समिति के गठन के पीछे का कारण भारतीय परिषद् अधिनियम,1919 के तहत 1921 में स्थापित संविधान और द्वैध शासन प्रणाली की कामकाज की समीक्षा करना था| इस समिति की रिपोर्ट को 1925 में प्रस्तुत किया गया जो दो भागों में विभाजित थी-अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक रिपोर्ट। ▪️बहुसंख्यक/बहुमत रिपोर्ट: इसमें सरकारी कर्मचारी और निष्ठावान लोग शामिल थे। इन्होने घोषित किया कि द्वैध शासन स्थापित नहीं हो सका है | उनका यह भी मानना था कि प्रणाली को सही तरह से मौका नहीं दिया गया है अतः केवल छोटे-मोटे बदलावों की अनुशंसा की। ▪️अल्पसंख्यक/अल्पमत रिपोर्ट: इसमें केवल गैर-सरकारी भारतीय शामिल थे। इसका मानना था कि 1919 का एक्ट असफल साबित हुआ है। इसमें यह भी बताया गया कि स्थायी और भविष्य की प्रगति को स्वयं प्रेरित करने वाले संविधान में क्या क्या शामिल होना चाहिए। अतः इस समिति ने शाही आयोग/रॉयल कमीशन की नियुक्ति की सिफारिश की। भारत सचिव लॉर्ड बिर्केनहेड ने कहा कि बहुमत/बहुसंख्यक की रिपोर्ट के आधार पर कदम उठाये जायेंगे।

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