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Wednesday, February 24, 2021
आधुनिक_भारत_का_इतिहास : #अंग्रेज_उपनिवेश_की_स्थापना
आधुनिक_भारत_का_इतिहास :
#अंग्रेज_उपनिवेश_की_स्थापना
अंग्रेजों का भारत आगमन और ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना का प्रमुख कारण पुर्तगाली व्यापारियों द्वारा भारत में अपनी वस्तुओं को बेचने से होने वाला अत्यधिक लाभ था जिसने ब्रिटिश व्यापारियों को भारत के साथ व्यापार करने के लिए प्रोत्साहित किया । अतः पुर्तगाली व्यापारियों की व्यापारिक सफलता से प्रेरित होकर अंग्रेज व्यापारियों के एक समूह –मर्चेंट एडवेंचरर्स ने 1599 ई. में ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना की । महारानी स्वयं भी ईस्ट इंडिया कंपनी की साझेदार/शेयरहोल्डर थीं|
#पश्चिम_और_दक्षिण_में_विस्तार
बाद में 1608 ई. में ईस्ट इंडिया कंपनी ने शाही संरक्षण प्राप्त करने के लिए कैप्टन हॉकिन्स को मुग़ल शासक जहाँगीर के दरबार में भेजा । वह भारत के पश्चिमी तट पर अपनी फैक्ट्रियां स्थापित करने हेतु शाही परमिट प्राप्त करने में सफल रहा। 1605 ई. में इंग्लैंड के राजा जेम्स प्रथम ने सर थॉमस रो को कंपनी के लिए और अधिक छूटें प्राप्त करने के उद्देश्य से जहाँगीर के दरबार में भेजा। रो बहुत कुटनीतिज्ञ था और अपनी कूटनीति के बल पर वह पूरे मुग़ल क्षेत्र पर स्वन्त्रतापूर्वक व्यापार करने हेतु शाही चार्टर प्राप्त करने में सफल रहा । बाद के वर्षों में ईस्ट इंडिया कंपनी अपने आधार को विस्तृत करती गयी । कंपनी को पुर्तगाली, डच और फ़्रांसीसी व्यापारियों द्वारा प्रस्तुत चुनौतियों का भी सामना करना पड़ा। निर्णायक क्षण तब आया जब 1662 ई. में इंग्लैंड के चार्ल्स द्वितीय का विवाह पुर्तगाली राजकुमारी कैथरीन से हुआ और इंग्लैंड को बम्बई. दहेज़ के रूप में प्राप्त हुआ । इंग्लैंड द्वारा 1668 ई. में बम्बई. को दस पौंड प्रतिवर्ष की दर पर ईस्ट इंडिया कंपनी को सौंप दिया गया। कंपनी ने अपने पश्चिमी तट पर अपना व्यापारिक मुख्यालय सूरत से बम्बई. स्थानांतरित कर दिया। 1639 ई. में ईस्ट इंडिया कंपनी ने स्थानीय राजा से मद्रास को पट्टे पर प्राप्त कर लिया और वहां पर अपनी फैक्ट्री की सुरक्षा हेतु फोर्ट सेंट जॉर्ज का निर्माण कराया । बाद में मद्रास कंपनी का दक्षिण भारतीय मुख्यालय बन गया।
#पूर्व_में_कंपनी_का_विस्तार
दक्षिण एवं पश्चिमी भारत में सफलतापूर्वक अपनी फैक्ट्रियां स्थापित करने के बाद कंपनी ने पूर्व की ओर ध्यान केन्द्रित किया । कम्पनी ने पूर्व में अपना ध्यान मुख्य रूप से मुग़ल प्रान्त बंगाल पर लगाया। बंगाल के गवर्नर सुजाउद्दीन ने 1651 ई. में ईस्ट इंडिया कंपनी को बंगाल में अपनी व्यापारिक गतिविधियां चलने हेतु अनुमति प्रदान कर दी। हुगली में एक फैक्ट्री स्थापित की गयी और 1668 ई. में फैक्ट्री स्थापित करने हेतु सुतानती,गोविंदपुर व कोलकाता नाम के तीन गावों को खरीद लिया गया। बाद में फैक्ट्री की सुरक्षा के लिए उसके चारों ओर फोर्ट विलियम का निर्माण कराया गया। इसी स्थान पर वर्त्तमान कोलकाता शहर का विकास हुआ|
#फर्रुख्सियर_द्वारा_जारी_शाही_फरमान
मुग़ल शासक फर्रुख्सियर ने 1717 ई. में शाही फरमान जारी कर कंपनी को बंगाल में कुछ व्यापारिक विशेषाधिकार प्रदान कर दिए ,जिसमे बगैर कर अदा किये बंगाल में ब्रिटिश वस्तुओं के आयात-निर्यात की अनुमति भी शामिल थी। इस फरमान द्वारा कंपनी को वस्तुओं की आवाजाही हेतु दस्तक (पास ) जारी करने का अधिकार भी प्रदान कर दिया गया।
व्यापार एवं वाणिज्य के क्षेत्र में मजबूती से स्थापित होने के बाद कंपनी ने भारत में सत्ता प्राप्त करने के सपने देखना शुरू कर दिया|
#भारत_में_ब्रिटिश_सत्ता_के_उदय_में_सहायक_प्रमुख #कारक
प्रमुख कारण,जिन्होनें ब्रिटिशों को लगभग दो सौ वर्षों तक भारत पर शासन करने का अवसर प्रदान किया,निम्नलिखित है-
1707 ई. में औरंगजेब की मृत्यु के साथ ही भारत में मुग़ल साम्राज्य का पतन की ओर अग्रसर होना तथा भारत में मुगलों जैसी किसी केंद्रीय शक्ति का उपस्थित न होना |
तत्कालीन भारतीय शासकों में राजनीतिक एकजुटता का आभाव था और वे प्रायः अपनी सुरक्षा हेतु अंग्रेजों की मदद पर निर्भर थे । ऐसे में अंग्रेजों ने उनकी कमजोरी का फायदा उठाया और अपने हित के लिए राज्यों के आतंरिक मामलों में हस्तक्षेप करने लगे|
#यूरोपीय_शक्तियों_के_बीच_संघर्ष
#भारत_में_प्रमुख_यूरोपीय_शक्तियाँ:पुर्तगाली,डच ,
अंग्रेज और फ्रांसीसी चार प्रमुख यूरोपीय शक्तियां थी जो व्यापारिक संबंधों की स्थापना हेतु भारत आये लेकिन बाद में उन्होंने यहाँ अपने उपनिवेश स्थापित किये। इन यूरोपीय शक्तियों के बीच वाणिज्यिक और राजनीतिक प्रभुता हेतु छोटे-मोटे संघर्ष होते रहते थे लेकिन अंत में ब्रिटिश सबसे ताकतवर शक्ति के रूप में उभरे जिन्होंने अन्य तीनों शक्तियों को पीछे छोड़ लगभग दो सौ सालों तक भारत पर शासन किया। भारत में सबसे पहले पुर्तगाली आये जिन्होनें अपनी फैक्ट्रियां और औपनिवेशिक बस्तियां स्थापित की । डचों के साथ उन्हें कड़ी प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ा लेकिन डच उनके सामने कमजोर साबित हुए और पुर्तगाली व ब्रिटिशों की प्रतिस्पर्धा के सामने टिक न सकने के कारण डच वापस चले गए|
#मुख्य_प्रतिस्पर्धी: ब्रिटिशों को भारत में प्रवेश करने के समय से ही डच,पुर्तगाली और फ़्रांसीसी शक्तियों से प्रतिस्पर्धा करनी पड़ी थी लेकिन पुर्तगाली व डच प्रतिस्पर्धी न तो अधिक गंभीर थे और न ही अधिक सक्षम । अतः ब्रिटिशों के सबसे मजबूत प्रतिद्वंदी फ्रांसीसी थे,जो भारत में सबसे बाद में आये थे। ब्रिटिशों द्वारा भारत के व्यापार एवं वाणिज्य पर पूर्ण एकाधिकार प्राप्त करने के प्रयासों ने फ्रांसीसियों के साथ उनके संघर्ष को जन्म दिया|1744 ई. से लेकर 1763 ई. के मध्य के 20 वर्षों में वाणिज्यिक व क्षेत्रीय नियंत्रण के उद्देश्यों को लेकर ब्रिटिशों व फ्रांसीसियों के मध्य तीन बड़े युद्ध लड़ें गए। अंतिम और निर्णायक युद्ध 22 जनवरी, 1763 ई. को बांडीवाश में लड़ा गया था|
#कर्नाटक_युद्ध: कर्नाटक और हैदराबाद दोनों राज्यों में उत्तराधिकार को लेकर विवाद था जिसने ब्रिटिश और फ्रांसीसी शक्तियों के लिए मध्यस्थ की भूमिका निभाने के द्वार खोल दिए । इन दोनों यूरोपीय शक्तियों अपनी आपसी शत्रुता की आड़ में कर्नाटक और हैदराबाद के उत्तराधिकार हेतु अलग-अलग भारतीय दावेदारों का समर्थन किया । उत्तराधिकार के इस संघर्ष में पोंडिचेरी के गवर्नर डूप्ले के नेतृत्व में फ्रांसीसियों की जीत हुई. और अपने दावेदारों को गद्दी पर बिठाने के एवज में उन्हें उत्तरी सरकार का क्षेत्र प्राप्त हुआ जिसे फ्रांसीसी अफसर बुस्सी ने सात सालों तक नियंत्रित किया। लेकिन फ्रांसीसियों की यह जीत बहुत कम समय की थी क्योकि 1751 ई. में रोबर्ट क्लाइव के नेतृत्व में ब्रिटिश शक्ति ने युद्ध की परिस्थितियाँ बदल दी थी। रोबर्ट क्लाइव के नेतृत्व में ब्रिटिश शक्ति ने एक साल बाद ही उत्तराधिकार हेतु फ्रांसीसी समर्थित दावेदारों को पराजित कर दिया|अंततः फ्रांसीसियों को ब्रिटिशों के साथ त्रिचुरापल्ली की संधि करनी पड़ी|
अगले सात वर्षीय युद्ध (1756-1763 ई.।) अर्थात तृतीय कर्नाटक युद्ध में दोनों यूरोपीय शक्तियों की शत्रुता फिर से सामने आ गयी । इस युद्ध की शुरुआत फ्रांसीसी सेनापति काउंट दे लाली द्वारा मद्रास पर आक्रमण के साथ हुई. थी |लाली को ब्रिटिश सेनापति सर आयरकूट द्वारा हरा दिया गया|1761 ई. में ब्रिटिशों ने पोंडिचेरी पर कब्ज़ा कर लिया और लाली को जिंजी और कराइकल के समर्पण हेतु बाध्य कर दिया|अतः फ्रांसीसी बांडीवाश में लडे गये तीसरे कर्नाटक युद्ध(1760 ई.) में हार गए और बाद में यूरोप में उन्हें ब्रिटेन के साथ पेरिस की संधि करनी पड़ी|
#ब्रिटिश_सर्वोच्चता_की_स्थापना
कर्नाटक के युद्ध में प्राप्त विजय ने भारत में ब्रिटिश सर्वोच्चता की स्थापना हेतु जमीन तैयार कर दी थी और साथ ही फ्रांसीसियों के भारतीय साम्राज्य के सपने को चकनाचूर कर दिया था। इस जीत के बाद भारत में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी का कोई. यूरोपीय प्रतिद्वंदी नहीं बचा था। ब्रिटिशों को सर आयरकूट,मेजर स्ट्रिंगर लॉरेंस ,रोबर्ट क्लाइव जैसे कुशल नेतृत्वकर्ताओं के साथ साथ एक मजबूत नौसैनिक शक्ति होने का भी लाभ मिला। इन कारकों के कारण ही वे भारत के विश्वसनीय शासक बन सके|
[01/12, 8:26 AM] Raj Kumar: #प्राचीन_भारत_का_इतिहास :
#वैदिक_संस्कृति
वेद भारत के प्राचीन ग्रंथ हैं ! वेद, उपनिषद, ब्राह्मण, अरण्यक आदि को वैदिक साहित्य कहते हैं ! वेद का अर्थ है ज्ञान अथवा पवित्र आध्यात्मिक ज्ञान ! विद्वान लोग वैदिक काल और वैदिक साहित्य को दो भागों में बाँटते हैं- प्रारंभिक दौर का प्रतिनिधित्व ऋग्वेद करता है ! इस काल को पूर्व वैदिककाल या ऋग्वैदिक काल भी कहा जाता है और बाद के दौर में शेष तीनों वेद (सामवेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद), ब्राह्मण, अरण्यक और उपनिषद् आते हैं ! इस काल को उत्तर वैदिक काल भी कहा जाता है ! वैदिक साहित्य को समृद्ध होने में लंबा समय लगा ! वैदिक साहित्य से हम वैदिक काल के लोगों के निवास के क्षेत्र, उनके खान-पान व रहन-सहन के विषय में जान पाते हैं ! इस युग की संस्कृति को ही वैदिक संस्कृति कहते हैं !
इतिहासकारों का मत है कि इस काल में कुछ लोग उत्तर-पूर्वी ईरान, कैस्पियन सागर या मध्य एशिया से छोटे छोटे समूहों में आकर पश्चिमोत्तर भारत में बस गये ! ये अपने आप को आर्य कहते थे ! कतिपय इतिहासकार इस मत को स्वीकार नहीं करते हैं क्योंकि इसके पुरातात्विक व साहित्यिक प्रमाण नहीं हैं ! उनका मत है कि आर्य भारत के मूल निवासी थे ! सभ्यता और संस्कृतियों का विकास सदैव नदियों के किनारे हुआ है ! सिन्धु, सतलज, व्यास, सरस्वती नदियों के किनारे आर्यों ने ऋचाओं की रचना की, जिनका संग्रह ऋग्वेद है !
वर्तमान में विलुप्त, सरस्वती नदी का वर्णन वैदिक साहित्य में मिलता है ! पुरातत्ववेत्तओं तथा भूवैज्ञानिकों ने अपनी नवीन खोजों से सिद्ध किया है कि सरस्वती नदी 2000 ई.पू. तक पृथ्वी पर प्रवाहित होती रही होगी ! पुरातत्ववेत्ताओं का अनुमान है कि हड़प्पा सभ्यता का उद्गम तथा विनाश सरस्वती नदी के किनारे हुआ होगा !
#सामाजिक_जीवन :
आर्य पहले छोटे-छोटे कबीलों में बसे था ! कबीले छोटी-छोटी इकाइयों में बँटे थे जिन्हे 'ग्राम' कहते थे ! प्रत्येक ग्राम में कई परिवार बसते थे ! इस समय संयुक्त परिवार हुआ करते थे एवं परिवार का सबसे वृद्ध व्यक्ति मुखिया हुआ करता था !
समाप मुख्यत: चार वर्णों में बंटा था ! ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य ओर शूद्र ! यह वर्गीकरण लोगों के कर्म (कार्यों) पर आधारित था न कि जन्म पर ! गुरूओं और शिक्षकों को ब्राह्मण, शासक और प्रशासकों का क्षत्रिय, किसानों, व्यापारियों और साहूकारों को वैश्य तथा दस्तकारों और मजदूरों को शूद्र कहा जाता था ! लेकिन बाद में व्यवसाय पैतृक होते चले गए और एक व्यवसाय से जुड़े लोगों को एक जाति के रूप में वर्ण-व्यवस्था कठोर बनती गई ! एक वर्ण से दूसरे में जाना कठिन हो गया !
समाज की आधारभूत इकाई परिवार थी ! बाल विवाह नहीं होते थे ! युवक एवं युवतियाँ अपनी पसंद से विवाह कर सकते थे ! सभी सामाजिक और धार्मिक अवसरों पर पत्नी पति की सहभागिनी होती थी ! महिलाओं का सम्मान था और कुछ को तो ऋषि का दर्जा भी प्राप्त था ! पिता की संपत्त्िा में उसकी सभी संतानों का हिस्सा होता था ! भूमि पर व्यक्तियों तथा समाज का स्वामित्व था ! मुख्यत: चारे वाली भूमि, जंगल तथा जलाशयों जैसे तालाब और नदियों पर समाज का स्वामित्व होता था जिसका अभिप्राय था कि गाँव के सभी लोग उनका उपयोग कर सकें !
#खान_पान :
वैदिक काल में आजकल के सभी अनाजों की खेती की जाती थी ! इसी प्रकार आर्यों को सभी पशुओं की जानकारी भी थी ! लोग चावल, गेहूँ के आटे तथा दालों से बने पकवान खाते थे ! दूध, मक्खन और घी का प्रयोग आम था ! फल, सब्जियाँ, दालें और मांस भी भोजन में सम्मिलित थे ! वे मधु तथा नशीला पेय सुरा भी पीते थे ! धार्मिक उत्सवों पर मोम पान किया जाता था ! मोम और सुरा पीने को हतोत्साहित किया जाता था क्योंकि यह व्यक्ति के अशोभनीय व्यावहार का कारण बनते थे !
#आर्थिक_जीवन :
वैदिक काल के लोगों का आर्थिक जीवन कृषि, कला, हस्तशिल्प और व्यापार पर केंद्रित था ! बैलों और सांडों का खेती करने एवं गाडियाँ खींचने के लिए उपयोग किया जाता था ! रथ खींचने के लिए घोड़ों का उपयोग किया जाता था ! पशुओं में गाय को सर्वाधिक महत्वपूर्ण एवं पवित्र स्थान दिया जाता था !वैदिक काल में गाय को चोट पहुँचाना अथवा उसकी हत्या करना वर्जित था ! गाय को अघ्न्य (जिसे न तो मारा जा सकता है और न ही चोट पहुँचाई जा सकती है ) कहा जाता था ! कहा जाता था वेदों में गौहत्या अथवा गाय को चोट पहुँचाने पर परिस्थिति अनुसार देश निकाला अथवा मृत्यू-दण्ड देने का प्रावधान है !
प्रारंभिक काल में बर्तन बनाना, कपड़ा बुनना, धातु कर्म, बढ़ई का काम इत्यादि व्यवसाय थे ! प्रारंभिक काल में धातुओं में केवल ताँबा धातु की ही जानकारी थी ! दूर-दूर तक व्यापार होता था ! वेदों में समुद्री मार्ग से व्यापार कीर चर्चा आती है ! बाद के काल में हमें अन्य कई व्यवसायों, जैसे गहने बनाना, रंगरेजी, रथ बनाना, तीर-कमान बनाना तथा धातु पिघलाने आदि की जानकारी मिलती है ! हस्तशिल्पियों की श्रेणियाँ (संघ) भी बनीं और उनके मुखिया को श्रेष्ठी कहा जाता था ! बाद के काल में लोहे की जानकारी होने के बाद ताँबा लोहित अयस और लोहा श्याम अयस के नामों से जाना जाने लगा !
प्रारंभिक काल में लोग स्वेच्छा से राजा को उसकी सेवाओं के फलस्वरूप उपहार के रूप में बलि (ऐच्छिक उपहार) दिया करते थे जो बाद में एक नियमित कर बन गया जिसे शुल्क कहा जाता था ! उस समय उपयोग किए जाने वाले सिक्कों को निष्क कहा जाता था !
#धर्म_और_दर्शन :
ऋग्वेद काल के लोग प्रकृति की शक्ति दर्शाने वाले बहुत देवताओं की पूजा करते थे जैसे- अग्नि, सूर्य, वायु, आकाश और वृक्ष ! इनकी पूजा आज भी होती है ! हड़प्पा सभ्यता में हम कई वस्तुओं जैसे पीपल, सप्तमातृकाओं और शिवलिंगों का चित्रण पाते हैं जिन पर हिंदू आज भी श्रद्घा रखते हैं ! अग्नि, वात और सूर्य से समाज की रक्षा के लिए प्रार्थना की जाती थी ! इंद्र, अग्नि, और वरुण सबसे अधिक मान्य देवता थे ! यज्ञ एक जाना-माना धार्मिक कृत्य था ! कभी-कभी बड़े विशाल यज्ञों का आयोजन किया जाता था जिसमें बहुतसे पुरोहितों की आवश्कता होती थी !
उत्तर वैदिक काल में कर्मकांड और यज्ञ के साथ साथ ज्ञान मार्ग को महत्व दिया गया ! ज्ञान मार्गी चिंतकों (दर्शनिकों) द्वारा जिन प्रश्नों पर चर्चा की गई हे वे हैं- ईश्वर क्या है ? ईश्वर कौन है ? जीवन क्या है ? संसार क्या है ? मृत्यु के पश्चात मनुष्य कहाँ जाता है ? आत्मा क्या है ? इत्यादि ! दार्शनिकों के चिंतन को उनके निकट बैठने वाले शिष्यों ने कंठस्थ किया और बाद में उन्हें लिपिबद्ध किया गया ! ये ग्रंथ 'उपनिषद' कहलाये ! उपनिषद भारतीय दर्शनशास्त्र के प्रमुख ग्रंथ है ! इन्हें वेदों के अंग माना जाता है !
#विज्ञान :
वेद, ब्राह्मण और उपनिषद् इस समय के विज्ञान के विषय में पर्याप्त जानकारी देते हैं ! गणित की सभी शाखाओं को सामान्यत: गणित नाम से ही जाना जाता था जिसमें अंकगणित, रेखागणित, बीजगणित, खगोल विद्या और ज्योतिष सम्मिलित थे !
वैदिक काल के लोग त्रिभुज के बराबर क्षेत्रफल का वर्ग बनाना जानते थे ! वे वृत्त के क्षेत्रफलों के वर्गों के योग और अंतर के बराबर का वर्ग भी हबनाना जानते थे ! शून्य का ज्ञान था और इसी कारण बड़ी संख्याएँ दर्ज की जा सकीं ! इसके साथ ही प्रत्येक अंक के स्थानीयमान और मूल मान की जानकारी भी थी ! उन्हें घन, घनमूल, वर्ग और वर्गमूल की जानकारी थी और उनका उपयोग किया जाता था !
वैदिक काल में खगोल विद्या अत्यधिक विकसित थी ! वे आकाशीय पिंडों की गति के विषय में जानते थे और विभिन्न समय पर उनकी स्थिति की गणना भी करते थे ! इससे उन्हें सही पंचांग बनाने तथा सूर्य एवं चंद्रग्रहण का समय बताने में सहायता मिलती थी ! वे यह जानते थे कि पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है और सूर्य के चारों ओर परिक्रमा करती है ! चाँद, पृथ्वी के इर्द-गिर्द घूमता है ! उन्होंने पिंडों के घूर्णन का समय ज्ञात करने तथा आकाशिय पिंडों के बीच की दूरियाँ मापने के प्रयास भी किए !
वैदिक सभ्यता काफी उन्नत प्रतीत होती है ! लोग नगरों, प्राचीर से घिरे नगरों (पुरों) तथा गाँवों में रहते थे ! वे दूर-दराज तक व्यापार करते थे ! विज्ञान पढ़ा जाता था और विज्ञान की विभिन्न शाखाएँ अत्यधिक विकसित थीं ! उन्होंने सही पंचांग बनाए और चंद्र एवं सूर्य ग्रहणों के समय की पूर्व सूचना दी ! आज भी हम उनकी विधि से गणना कर ग्रहण का समय ज्ञात कर सकते हैं !
[01/12, 8:26 AM] Raj Kumar: #मध्यकालीन_भारत_का_इतिहास :
#तुगलक_वंश
खिलज़ी वंश का अंत कर दिल्ली में एक नये वंश का उदय हुआ जिसे तुगलक वंश (Tughlaq Dynasty) कहते है। तुगलक वंश (Tughlaq Dynasty) ने दिल्ली पर 1320 से 1413 ई. तक राज किया। तुगलक वंश का पहला शासक गाज़ी मालिक था. जिसने खुद को गयासुद्दीन तुगलक के रूप में पेश किया।
#तुगलक_वंश_के_शासक :-
▪️गयासुद्दीन तुगलक (1320-25 ई.)
▪️मोहम्मद तुगलक (1325-51 ई.)
▪️फिरोज शाह तुगलक (1351-88 ई.)
▪️मोहम्मद खान (1388 ई.)
▪️गयासुद्दीन तुगलक शाह II (1388 ई.)
▪️अबू बाकर (1389-90 ई.)
▪️नसीरुद्दीन मोहम्मद (1390-94 ई.)
▪️हूंमायू (1394-95 ई.)
▪️नसीरुद्दीन महमूद (1395-1412 ई.)
#गयासुद्दीन_तुगलक (1320-25 ई.)
यह दिल्ली सल्तनत पर तुगलक वंश की स्थापना करने वाला प्रथम शासक था। इसका पूर्व नाम गाजी मलिक था, जिसने दिल्ली सल्तनत के सिंहासन पर बैठने के बाद अपना नाम गयासुद्दीन कर लिया। गयासुद्दीन 8 सितंबर 1320 को यह दिल्ली की गद्दी पर बैठा और अगले पांच वर्ष तक शासन किया। वह पहला एेसा शासक था, जिसने अपने नाम के साथ गाजी शब्द (काफिरों का वध करने वाला) जोड़ा था। इसे तुगलक गाजी भी कहते थे। उसने मंगोलों के 23 आक्रमण विफल किए थे।
🔹गयासुद्दीन तुगलक के सुधार
▪️गयासुद्दीन तुग़लक़ ने आर्थिक सुधार के अन्तर्गत अपनी आर्थिक नीति का आधार संयम, सख्ती एवं नरमी के मध्य संतुलन (रस्म-ए-मियान) को बनाया।
▪️उसने लगान के रूप में उपज का 1/10 या 1/12 हिस्सा ही लेने का आदेश जारी कराया।
▪️ग़यासुद्दीन ने मध्यवर्ती ज़मीदारों विशेष रूप से मुकद्दम तथा खूतों को उनके पुराने अधिकार लौटा दिए, जिससे उनको वही स्थिति प्राप्त हो गयी, जो बलबन के समय में प्राप्त थी।
▪️ग़यासुद्दीन ने अमीरों की भूमि पुनः लौटा दी।
उसने सिंचाई के लिए कुँए एवं नहरों का निर्माण करवाया। सम्भवतः नहर का निर्माण करवाने वाला ग़यासुद्दीन प्रथम सुल्तान था।
▪️सल्तनत काल में डाक व्यवस्था को सुदृढ़ करने का श्रेय ग़यासुद्दीन तुग़लक़ को ही जाता है।
▪️अलाउद्दीन ख़िलजी की कठोर नीति के विरुद्ध उसने उदारता की नीति अपनायी, जिसे बरनी ने ‘रस्मेमियान’ अथवा ‘मध्यपंथी नीति’ कहा है।
▪️उसने अलाउद्दीन ख़िलजी द्वारा चलाई गयी दाग़ने तथा चेहरा प्रथा को प्रभावी तरीक़े से लागू किया।
🔹महत्त्वपूर्ण विजय
▪️वारंगल व तेलंगाना की विजय (1324 ई.)
▪️तिरहुती विजय, मंगोल विजय (1324 ई.)
🔹निर्माण कार्य
▪️तुग़लक़ाबाद नामक एक दुर्ग की नींव रखी।
🔹मृत्यु
▪️जब ग़यासुद्दीन तुग़लक़ बंगाल अभियान से लौट रहा था, तब लौटते समय तुग़लक़ाबाद से 8 किलोमीटर की दूरी पर स्थित अफ़ग़ानपुर में एक महल में सुल्तान ग़यासुद्दीन के प्रवेश करते ही वह महल गिर गया, जिसमें दबकर उसकी मार्च, 1325 ई. को मुत्यृ हो गयी।
ग़यासुद्दीन तुग़लक़ का मक़बरा तुग़लक़ाबाद में स्थित है।
#मोहम्मद_तुगलक (1325-51 ई.)
मुहम्मद बिन तुग़लक़ दिल्ली सल्तनत में तुग़लक़ वंश का शासक था। ग़यासुद्दीन तुग़लक़ की मृत्यु के बाद उसका पुत्र ‘जूना ख़ाँ’, मुहम्मद बिन तुग़लक़ (1325-1351 ई.) के नाम से दिल्ली की गद्दी पर बैठा। इसका मूल नाम ‘उलूग ख़ाँ’ था। मध्यकालीन सभी सुल्तानों में मुहम्मद तुग़लक़ सर्वाधिक शिक्षित, विद्वान एवं योग्य व्यक्ति था। इसके अलावा वह पर्सियन कविता का बहुत बड़ा प्रशंसक था। उसकी सोच उसके समय से बहुत आगे थी। उसने बहुत सारे विचारो पर मंथन किया लेकिन उन विचारो के क्रियान्वयन से जुड़े उसके पैमाने बहुत मजबूत और टिकाऊ नहीं थे इसीलिए वह असफल रहा। उसने अपने राज्य में मध्य राजधानी की स्थापना और टोकन करेंसी (प्रतीक मुद्रा) के रूप में विभिन्न प्रयोग किये लेकिन वह पूरी तरह से असफल रहा। अपनी सनक भरी योजनाओं के कारण इसे ‘स्वप्नशील’, ‘पागल’ एवं ‘रक्त-पिपासु’ कहा गया है।
🔹मुहम्मद बिन तुग़लक़ के कार्य
▪️दोआब क्षेत्र में कर वृद्धि (1326-27 ई.) – मुहम्मद तुग़लक़ ने दोआब के ऊपजाऊ प्रदेश में कर की वृद्धि कर दी (संभवतः 50 प्रतिशत), परन्तु उसी वर्ष दोआब में भयंकर अकाल पड़ गया, जिससे पैदावार प्रभावित हुई। तुग़लक़ के अधिकारियों द्वारा ज़बरन कर वसूलने से उस क्षेत्र में विद्रोह हो गया, जिससे तुग़लक़ की यह योजना असफल रही। मुहम्मद तुग़लक़ ने कृषि के विकास के लिए ‘दिवाण-ए- अमीर कोही’ नामक एक नवीन विभाग की स्थापना की। सरकारी कर्मचारियों के भ्रष्टाचार, किसानों की उदासीनता, भूमि का अच्छा न होना इत्यादि कारणों से कृषि उन्नति सम्बन्धी अपनी योजना को तीन वर्ष पश्चात् समाप्त कर दिया। मुहम्मद बिन तुग़लक़ ने किसानों को बहुत कम ब्याज पर ऋण (सोनथर) उपलब्ध कराया।
▪️राजधानी परिवर्तन (1326-27 ई.) – तुग़लक़ ने अपनी योजना के अन्तर्गत राजधानी को दिल्ली से देवगिरि स्थानान्तरित किया। देवगिरि को “कुव्वतुल इस्लाम” भी कहा गया। सुल्तान कुतुबुद्दीन मुबारक ख़िलजी ने देवगिरि का नाम ‘कुतुबाबाद’ रखा था और मुहम्मद बिन तुग़लक़ ने इसका नाम बदलकर दौलताबाद कर दिया। सुल्तान की इस योजना के लिए सर्वाधिक आलोचना की गई। मुहम्मद तुग़लक़ की यह योजना भी पूर्णतः असफल रही और उसने 1335 ई. में दौलताबाद से लोगों को दिल्ली वापस आने की अनुमति दे दी। राजधानी परिवर्तन के परिणामस्वरूप दक्षिण में मुस्लिम संस्कृति का विकास हुआ, जिसने अंततः बहमनी साम्राज्य के उदय का मार्ग खोला।
▪️सांकेतिक मुद्रा का प्रचलन (1329-30 ई.) – इस योजना के अन्तर्गत मुहम्मद तुग़लक़ ने सांकेतिक व प्रतीकात्मक सिक्कों का प्रचलन करवाया। मुहम्मद तुग़लक़ ने ‘दोकानी’ नामक सिक्के का प्रचलन करवाया। सांकेतिक मुद्रा के अन्तर्गत सुल्तान ने संभवतः पीतल (फ़रिश्ता के अनुसार) और तांबा (बरनी के अनुसार) धातुओं के सिक्के चलाये, जिसका मूल्य चांदी के रुपये टका के बराबर होता था। सिक्का ढालने पर राज्य का नियंत्रण नहीं रहने से अनेक जाली टकसाल बन गये। लगान जाली सिक्के से दिया जाने लगा, जिससे अर्थव्यवसथा ठप्प हो गई। सांकेतिक मुद्रा चलाने की प्रेरणा चीन तथा ईरान से मिली। वहाँ के शासकों ने इन योजनाओं को सफलतापूर्वक चलाया, जबकि मुहम्मद तुग़लक़ का प्रयोग विफल रहा। सुल्तान को अपनी इस योजना की असफलता पर भयानक आर्थिक क्षति का सामना करना पड़ा।
▪️खुरासन एवं काराचिल का अभियान
▪️चौथी योजना के अन्तर्गत मुहम्मद तुग़लक़ के खुरासान एवं कराचिल विजय अभियान का उल्लेख किया जाता है। खुरासन को जीतने के लिए मुहम्मद तुग़लक़ ने 3,70,000 सैनिकों की विशाल सेना को एक वर्ष का अग्रिम वेतन दे दिया, परन्तु राजनीतिक परिवर्तन के कारण दोनों देशों के मध्य समझौता हो गया, जिससे सुल्तान की यह योजना असफल रही और उसे आर्थिक रूप से हानि उठानी पड़ी।
▪️कराचिल अभियान के अन्तर्गत सुल्तान ने खुसरो मलिक के नेतृत्व में एक विशाल सेना को पहाड़ी राज्यों को जीतने के लिए भेजा। उसकी पूरी सेना जंगली रास्तों में भटक गई, इब्न बतूता के अनुसार अन्ततः केवल दस अधिकारी ही बचकर वापस आ सके। इस प्रकार मुहम्मद तुग़लक़ की यह योजना भी असफल रही।
🔹मृत्यु
▪️अपने शासन काल के अन्तिम समय में जब सुल्तान मुहम्मद तुग़लक़ गुजरात में विद्रोह को कुचल कर तार्गी को समाप्त करने के लिए सिंध की ओर बढ़ा, तो मार्ग में थट्टा के निकट गोंडाल पहुँचकर वह गंभीर रूप से बीमार हो गया। यहाँ पर सुल्तान की 20 मार्च 1351 को मृत्यु हो गई।
#फिरोज_शाह_तुगलक (1351-88 ई.)
फ़िरोज़ शाह तुगलक 45 वर्ष की उम्र में दिल्ली सल्तनत की गद्दी पर बैठा। उसके पिता का नाम रज्ज़ब था जोकि गियासुद्दीन तुगलक का छोटा भाई था जबकि उसकी माता दीपालपुर की राजकुमारी थी। गद्दी पर बैठने के बाद उसने बहुत सारे उन निर्णयों को वापस ले लिया जोकि उसके पूर्व के शासक के द्वारा लिए गए थे। उसने शरियत के अनुसार शासन किया और शरियत में जिन करों का उल्लेख नहीं किया गया था उसे बंद कर दिया।
🔹फ़िरोज़ शाह तुग़लक़ के कार्य
▪️राजस्व व्यवस्था के अन्तर्गत फ़िरोज़ ने अपने शासन काल में 24 कष्टदायक करों को समाप्त कर दिया और केवल 4 कर ‘ख़राज’ (लगान), ‘खुम्स’ (युद्ध में लूट का माल), ‘जज़िया’, एवं ‘ज़कात’ (इस्लाम धर्म के अनुसार अढ़ाई प्रतिशत का दान, जो उन लोगों को देना पड़्ता है, जो मालदार हों और उन लोगों को दिया जाता है, जो अपाहिज या असहाय और साधनहीन हों) को वसूल करने का आदेश दिया।
▪️उलेमाओं के आदेश पर सुल्तान ने एक नया सिंचाई (हक ए शर्ब) कर भी लगाया, जो उपज का 1/10 भाग वसूला जाता था।
▪️सुल्तान ने सिंचाई की सुविधा के लिए 5 बड़ी नहरें यमुना नदी से हिसार तक 150 मील लम्बी सतलुज नदी से घग्घर नदी तक 96 मील लम्बी सिरमौर की पहाड़ी से लेकर हांसी तक, घग्घर से फ़िरोज़ाबाद तक एवं यमुना से फ़िरोज़ाबाद तक का निर्माण करवाया।
▪️उसने फलो के लगभग 1200 बाग़ लगवाये।
▪️आन्तरिक व्यापार को बढ़ाने के लिए अनेक करों को समाप्त कर दिया।
▪️नगर एवं सार्वजनिक निर्माण कार्यों के अन्तर्गत सुल्तान ने लगभग 300 नये नगरों की स्थापना की।
▪️जौनपुर नगर की नींव फ़िरोज़ ने अपने चचेरे भाई ‘फ़खरुद्दीन जौना’ (मुहम्मद बिन तुग़लक़) की स्मृति में डाली थी।
▪️उसके शासन काल में ख़िज्राबाद एवं मेरठ से अशोक के दो स्तम्भलेखों को लाकर दिल्ली में स्थापित किया गया।
▪️अपने कल्याणकारी कार्यों के अन्तर्गत फ़िरोज़ ने एक रोज़गार का दफ्तर एवं मुस्लिम अनाथ स्त्रियों, विधवाओं एवं लड़कियों की सहायता हेतु एक नये ‘दीवान-ए-ख़ैरात’ नामक विभाग की स्थापना की।
▪️दारुल-शफ़ा’ (शफ़ा=जीवन का अंतिम किनारा, जीवन का अंतिम भाग) नामक एक राजकीय अस्पताल का निर्माण करवाया, जिसमें ग़रीबों का मुफ़्त इलाज होता था।
▪️फ़िरोज़ के शासनकाल में दासों की संख्या लगभग 1,80,000 पहुँच गई थी। इनकी देखभाल हेतु सुल्तान दे ‘दीवान-ए-बंदग़ान’ की स्थापना की।
🔹संरक्षण
▪️शिक्षा प्रसार के क्षेत्र में सुल्तान फ़िरोज़ ने अनेक मक़बरों एवं मदरसों की स्थापना करवायी। उसने ‘जियाउद्दीन बरनी’ एवं ‘शम्स-ए-सिराज अफीफ’ को अपना संरक्षण प्रदान किया।
▪️बरनी ने ‘फ़तवा-ए-जहाँदारी’ एवं ‘तारीख़-ए-फ़िरोज़शाही’ की रचना की।
▪️फ़िरोज़ ने अपनी आत्मकथा ‘फुतूहात-ए-फ़िरोज़शाही’ की रचना की।
🔹मृत्यु
▪️फ़िरोज़ शाह तुगलक की मृत्यु सितम्बर 1388 ई. में हुई थी। हौज़खास परिसर, दिल्ली में उसे दफ़ना दिया गया।
#मोहम्मद_खान (1388 ई.)
फ़िरोज़ शाह तुगलक की मृत्यु 1388 ई. में हुई थी। उसके बाद दिल्ली सल्तनत में कुछ दिनों के लिए मोहमद खान ने दिल्ली में शासन किया और कुछ दिनों के भीतर ही उनकी हत्या कर दी गई।
#गयासुद्दीन_तुगलक_शाह II (1388 ई.)
फ़िरोज़ शाह तुगलक और मोहमद खान के हत्या के बाद दिल्ली सल्तनत में फ़िरोज़ शाह तुगलक का पोता गियासुद्दीन अगला शासक बना लेकिन 5 महीने के अल्प शासन के बाद उसकी हत्या कर दी गयी।
#अबू_बाकर (1389-90 ई.)
गयासुद्दीन तुगलक शाह II की हत्या करके फ़रवरी 1389 ई. में जफ़र खां के पुत्र अबू बक्र स्वयं सुल्तान बन गया।
#नसीरुद्दीन_मोहम्मद_शाह (1390-94 ई.)
तुगलक शाह की हत्या कर अबू बक्र ने 1389 ई. में सल्तनत पर शासन का आरम्भ किया। दिल्ली के कोतवाल, मुलतान, समाना, लाहौर के अक्त्तादारों ने मुहमद शाह को सहयोग देकर 1390 ई. में अबू बक्र को शासन से हटा दिया और नासिरुद्दीन मुहम्मद शाह स्वयं शासक बन गया। नासिरुद्दीन मुहम्मद शाह ने 1390 से 1394 ई. तक शासन किया।
#हूंमायू (1394-95 ई.)
नासिरुद्दीन मुहम्मद शाह के दिल्ली सल्तनत में उनका पुत्र हुंमायू ने लगभग 3 माह तक शासक किया और उसकी मृत्यु हो गई।
#नसीरुद्दीन_महमूद_शाह (1395-1412 ई.)
मार्च 1394 ई. में दिल्ली सल्तनत का शासक महमूद शाह बना। उसकी दुर्दशा को देखकर व्यंग्य से कहा जाता था – “विश्व के सम्राट तुगलकों का राज्य दिल्ली से पालम तक फैला हुआ था।” 17 दिसम्बर, 1398 ई. को तैमूर का आक्रमण दिल्ली पर हो गया तथा सुल्तान स्वयं गुजरात भाग गया। पुनः वजीर मल्लू खां ने सुल्तान को दिल्ली बुलाकर गद्दी पर बिठाया। सन 1412 ई. में महमूद शाह की मृत्यु हो गई, जिससे तुगलक वंश का अंत हो गया।
[01/12, 8:26 AM] Raj Kumar: #आधुनिक_भारत_का_इतिहास
#फ्रांसीसी_उपनिवेश_की_स्थापना
भारत आने वाले यूरोपीय व्यापारी फ्रांसीसी थे। फ्रांसीसी ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना 1664 ई में लुई सोलहवें के शासनकाल में भारत के साथ व्यापार करने के उद्देश्य से की गयी थी। फ्रांसीसियों ने 1668 ई में सूरत में पहली फैक्ट्री स्थापित की और 1669 ई में मसुलिपत्तनम में एक और फैक्ट्री स्थापित की।1673 ई में बंगाल के मुग़ल सूबेदार ने फ्रांसीसियों को चन्द्रनगर में बस्ती बनाने की अनुमति प्रदान कर दी।
#पोंडिचेरी_और_फ्रांसीसी_वाणिज्यिक_वृद्धि: 1674 ई में फ्रांसीसियों ने बीजापुर के सुल्तान से पोंडिचेरी नाम का गाँव प्राप्त किया और एक सम्पन्न शहर की स्थापना की जो बाद में भारत में फ्रांसीसियों का प्रमुख केंद्र बनकर उभरा। धीरे धीरे फ़्रांसीसी ईस्ट इंडिया कंपनी ने माहे,कराइकल, बालासोर और कासिम बाज़ार में अपनी व्यापारिक बस्तियां स्थापित कर लीं। फ्रांसीसियों का भारत आने का प्रमुख उद्देश्य व्यापर एवं वाणिज्य था। भारत आने से लेकर 1741 ई तक फ्रांसीसियों का प्रमुख उद्देश्य ,ब्रिटिशों के समान,पूर्णतः वाणिज्यिक ही था। फ्रांसीसी ईस्ट इंडिया कंपनी ने 1723 ई में यनम, 1725 ई में मालाबार तट पर माहे और 1739 ई में कराइकल पर कब्ज़ा कर लिया।
#फ्रांसीसियों_के_राजनीतिक_उद्देश्य_और_महत्वाकांक्षा: समय के गुजरने के साथ साथ फ्रांसीसियों का उद्देश्यों में भी परिवर्तन होने लगा और भारत को अपने एक उपनिवेश के रूप में मानने लगे। 1741 ई में जोसफ फ़्रन्कोइस डूप्ले को फ्रांसीसी ईस्ट इंडिया कंपनी का गवर्नर बनाया जाना इस (उपनिवेश) वास्तविकता और उद्देश्य की तरफ उठाया गया पहला कदम था। उसके काल में कंपनी के राजनीतिक उद्देश्य स्पष्ट रूप से सामने आने लगे और कहीं कहीं तो उन्हें कंपनी के वाणिज्यिक उद्देश्यों से ज्यादा महत्व दिया जाने लगा। डूप्ले अत्यधिक बुद्धिमान था जिसने स्थानीय राजाओं की आपसी दुश्मनी का फायदा उठाया और इसे भारत में फ्रासीसी साम्राज्य की स्थापना हेतु भगवान द्वारा दिए गए मौके के रूप में स्वीकार किया। उसने अपनी चतुरता और कूटनीति के बल पर भारतीय राजनीतिक परिदृश्य में सम्मानित स्थान प्राप्त किया। लेकिन ब्रिटिशों ने डूप्ले और फ्रांसीसियों के समक्ष चुनौती प्रस्तुत की जो बाद में दोनों शक्तियों के बीच संघर्ष का कारण बना। डूप्ले की सेना ने मार्क्विस दी बुस्सी के नेतृत्व में हैदराबाद और केप कोमोरिन के मध्य के क्षेत्र पर कब्ज़ा कर लिया। 1744 ई में ब्रिटिश अफसर रोबर्ट क्लाइव भारत आया जिसने डूप्ले को पराजित किया। इस पराजय के बाद 1754 ई में डूप्ले को वापस फ्रांस बुला लिया गया।
#कुछ_क्षेत्रों_पर_फ्रांसीसी_प्रतिबन्ध: लाली, जिसे फ्रांसीसी सरकार द्वारा भारत से ब्रिटिशों को बाहर करने लिए भेजा गया था, को प्रारंभ में कुछ सफलता जरुर मिली ,जैसे 1758 ईमें कुद्दलौर जिले के फोर्ट सेंट डेविड पर विजय प्राप्त करना। लेकिन ब्रिटिशों और फ्रांसीसियों के मध्य हुई बांदीवाश की लड़ाई में हैदराबाद क्षेत्र को खो देने के कारण फ्रांसीसियों की कमर टूट गयी और इसी का फायदा उठाकर 1760 ई में ब्रिटिशों ने पोंडिचेरी की घेराबंदी कर दी। 1761 ई में ब्रिटिशों ने पोंडिचेरी को नष्ट कर दिया और अंततः फ्रांसीसी दक्षिण भारत पर पकड़ खो बैठे । बाद में 1763 ई में ब्रिटिशों के साथ हुई शान्ति-संधि की शर्तों के अधीन 1765 ई में पोंडिचेरी को फ्रांसीसियों को लौटा दिया । 1962 ई में भारत और फ्रांस के मध्य हुई एक संधि के तहत भारत में स्थित फ्रांसीसी क्षेत्रों को वैधानिक रूप से पुनः भारत में मिला लिया गया
[01/12, 8:26 AM] Raj Kumar: #प्राचीन_भारत_का_इतिहास :
#सिन्धु_घाटी_सभ्यता [ #हड़प्पा_सभ्यता ]
सिंधु घाटी सभ्यता दुनिया की चार प्रारम्भिक सभ्यताओं (मेसोपोटामिया या सुमेरियन सभ्यता, मिस्र सभ्यता और चीनी सभ्यता) में से एक है|
#संक्षिप्त_विवरण :
1. यह सभ्यता कांस्य युग (ताम्रपाषाण काल) के अंतर्गत आता है|
2. इस सभ्यता का विस्तार पश्चिम में बलूचिस्तान तक, पूर्व में आलमगीरपुर (उत्तर प्रदेश) तक, दक्षिण में दाइमाबाद (महाराष्ट्र) तक और उत्तर में मंदा (जम्मू-कश्मीर) तक था|
3. इस सभ्यता में किसानों और व्यापारियों का प्रभुत्व था जिसके कारण इस सभ्यता को कृषि-वाणिज्यिक सभ्यता के रूप में जाना जाता है|
4. इस सभ्यता को हड़प्पा सभ्यता के नाम से भी जाना जाता है क्योंकि 1921 में सर्वप्रथम हड़प्पा नामक स्थान पर ही दयाराम साहनी की देखरेख में खुदाई के माध्यम से इस सभ्यता की खोज की गई थी|
5. रेडियोकार्बन डेटिंग के आधार पर सिंधु घाटी सभ्यता का काल 2500-1750 ईसा पूर्व के आसपास निर्धारित किया गया है|
6. इस सभ्यता की सबसे प्रमुख विशेषता इसकी “नगर योजना” थी| इस सभ्यता के दौरान शहरों को दो भागों दुर्ग (शासक वर्ग द्वारा अधिकृत) और निचले शहर (आम लोगों का निवास स्थान) में विभाजित किया गया था|
7. धौलावीरा इस सभ्यता का एकमात्र स्थल है जहाँ शहर को तीन भागों में विभाजित किया गया था|
8. चहुन्दरो एकमात्र ऐसा शहर था जहाँ दुर्ग नहीं थे|
9. इस सभ्यता में नगर योजना “ग्रिड प्रणाली” पर आधारित थी| इस सभ्यता के लोग भवन निर्माण के लिए पके हुए ईंटों को इस्तेमाल करते थे| इसके अलावा नालियों का उत्तम प्रबंध, किलाबन्द दुर्ग और लोहे के औजारों की अनुपस्थिति इस सभ्यता की प्रमुख विशेषताएं थी|
10. सिन्धु घाटी सभ्यता के लोगों ने सर्वप्रथम कपास का उत्पादन किया था जिसे ग्रीक भाषा में “सिनडम” कहा जाता है और यह सिंध से प्राप्त हुआ था|
11. सिन्धु घाटी सभ्यता के लोग बड़े पैमाने पर गेहूं और जौ का उत्पादन करते थे| उनके द्वारा उगाये जाने वाले अन्य फसल दाल, धान, कपास, खजूर, खरबूजे, मटर, तिल और सरसों थे।
12. इस काल के ज्ञात पशुओं में बैल, भेड़, भैंस, बकरी, सूअर, हाथी, कुत्ता, बिल्ली, गधा और ऊंट प्रमुख थे।
13. इस सभ्यता का सबसे महत्वपूर्ण पशु “बिना कूबड़ वाले बैल” या “एक सींग वाला गैंडा” था|
14. इस सभ्यता के दौरान बाह्य और आंतरिक व्यापार विकसित अवस्था में था, लेकिन भुगतान “वस्तु-विनिमय प्रणाली” द्वारा होता था|
15. इस सभ्यता के लोगों ने स्वतः ही वजन और माप प्रणाली विकसित की थी, जो 16 के अनुपात में थी|
16. शवों को दफनाने या जलाने का काम उत्तर-दक्षिण दिशा में किया जाता था|
17. हड़प्पा संस्कृति की सबसे कलात्मक कृति “शैलखड़ी की मुहरें” हैं| हड़प्पा कालीन लिपि चित्रात्मक थी लेकिन अभी तक इसे पढ़ा नहीं जा सका है| इस लिपि में पहली पंक्ति दाएं से बाएं ओर और दूसरी पंक्ति बाएं से दाएं ओर लिखी जाती थी| इस शैली को सर्पलेखन (Boustrophedon) कहा जाता है।
18. सिन्धु घाटी सभ्यता की खुदाई से “स्वस्तिक” के निशान भी मिले हैं|
19. मूर्तियों के माध्यम से पता चलता है कि सिन्धु घाटी सभ्यता के दौरान देवी माँ (मातृदेवी या शक्ति) की पूजा होती थी| इसके अलावा “योनि” (महिला यौन अंग) के पूजा के सबूत भी मिले हैं|
20. इस काल के प्रमुख पुरुष देवता “पशुपति महादेव” अर्थात पशुओं के भगवान (आद्य-शिव) थे| जिनकी आकृति खुदाई से प्राप्त एक मुहर पर मिली है| इस आकृति में एक पुरुष योगमुद्रा में बैठे हुए हैं एवं चार जानवर (हाथी, बाघ, गैंडा और भैंस) से घिरे हुए हैं| इसके अलावा उनके पैरों के पास दो हिरण खड़े हैं| सिन्धु घाटी सभ्यता के दौरान “शिवलिंग” की पूजा भी व्यापक रूप से होती थी|
21. इस काल के लोगों का मुख्य व्यवसाय “कताई”, “बुनाई”, “नाव बनाना”, “सोने के आभूषण बनाना”, “मिट्टी के बर्तन बनाना” और “मुहरें बनाना” था|
[01/12, 8:26 AM] Raj Kumar: #मध्यकालीन_भारत_का_इतिहास :
#खिलजी_वंश
खिलजी द्वारा सत्ता स्थापित करने को क्रांति कहा जाता है। हलांकि इतिहासकारों में इस बात को लेकर मतभेद है कि खिलजी तुर्क थे या नही। खिलजी क्रांति इसलिए भी कहा जाता है क्योंकि यह राज्य जातीय उच्चता या खलीफा की स्वीकृत पर आधारित नही थी, बल्कि शक्ति के बल पर आधारित थी। जलालुद्दीन ख़िलजी ने ख़िलजी वंश की स्थापना की थी। जलालुद्दीन ख़िलजी ने ग़ुलाम वंश के अंतिम सुल्तान की हत्या करके ख़िलजियों को दिल्ली का सुल्तान बनाया। ख़िलजी वंश ने 1290 से 1320 ई. तक राज्य किया। दिल्ली के ख़िलजी सुल्तानों में अलाउद्दीन ख़िलजी (1296-1316 ई.) सबसे प्रसिद्ध और योग्य शासक था।
#इस_वंश_के_शासक_निम्नलिखित_थे : –
▪️जलालुद्दीन खिलजी (1290 – 1296)
▪️अलाउद्दीन खिलजी (1296 – 1316)
▪️शिहाबुद्दीन उमर ख़िलजी (1316)
▪️कुतुबुद्दीन मुबारक ख़िलजी (1316 – 1320)
▪️नासिरुद्दीन खुसरवशाह (1320)
#जलालुद्दीन_फ़िरोज_ख़िलजी –(1290 – 1296)
दिल्ली सल्तनत में ‘ख़िलजी वंश (Khilji Dynasty)’ का संस्थापक जलालुद्दीन फ़िरोज ख़िलजी (1290-1296 ई.) था।
🔹प्रारम्भिक जीवन
▪️सेनिक के रूप में अपना जीवन प्रारम्भ किया।
▪️योग्यता के बल पर उन्नति करता हुआ जलालुद्दीन सेनानायक एवं सूबेदार बन गया था।
▪️केकुबाद के सुल्तान बनने के बाद वह आरिजे ममालिक बन गया एवं शाइस्ता खां की उपाधि धारण करने लगा था।
🔹राज्यारोहण
▪️तत्कालीन शासक केकुबाद एवं केमुर्स का हत्या कर 1290 ई. किलखूरी में स्वयं को सुल्तान घोषित किया। ▪️जलालुद्दीन फिरोज खिलजी ने 70 वर्ष की उम्र में 13 जून 1290 ई. को दिल्ली की राज गद्दी ग्रहण की।
🔹राजधानी
▪️जलालुद्दीन खिलजी का राज्याभिषेक कैकुबाद द्वारा बनबाये गये किलोखरी के महल में हुआ इसने अपनी राजधानी किलोखरी को बनाया।
🔹प्रमुख घटनाएँ
▪️जलालुद्दीन खिलजी दिल्ली सल्तनत का पहला शासक था, जिसने अपने विचारों को स्पष्ट रुप से सामने रखा कि राज्य का आधार प्रजा का समर्थन होना चाहिए खिलजी की नीति दूसरों को प्रसन्न रखना थी।
▪️जलालुद्दीन खिलजी ने सीदी मौला जो ईरान से आया हुआ फकीर था इसने उसके खिलाफ षड्यंत्र रचा और उसे हाथी पैरों के नीचे कुचलबा दिया।
▪️फिरोज खिलजी ने अपनी पुत्री की शादी उलूग खाँ से कर दी तथा नवीन मुसलमानो के रहने के लिए मुगलपुर नामक बस्ती बसाई।
▪️जलालुद्दीन के काल में ही मुसलमानों का दक्षिण भारत (देवगिरी) अलाउद्दीन के नेतृत्व में आक्रमण हुआ।
🔹प्रमुख कवि
▪️जलालुद्दीन के दरबार में अमीर खुसरो तथा हसन देहलवी जैसे प्रख्यात व्यक्ति रहते थे।
🔹मृत्यु
▪️जलालुद्दीन ख़िलजी की हत्या के षड़यंत्र में अलाउद्दीन ख़िलजी ने अपने भाई अलमास वेग की सहायता ली, जिसे बाद में ‘उलूग ख़ाँ’ की उपाधि से विभूषित किया गया। इस प्रकार अलाउद्दीन ख़िलजी ने उदार चाचा की हत्या कर दिल्ली के तख्त पर 22 अक्टूबर 1296 को बलबन के लाल महल में अपना राज्याभिषेक करवाया।
#अलाउद्दीन_खिलजी – (1296 – 1316 ई.)
अलाउद्दीन खिलजी का जन्म जुना मुहम्मद खिलजी के नाम से हुआ था। वे खिलजी साम्राज्य के दुसरे शासक थे जिन्होंने 1296 से 1316 तक शासन किया था। उस समय खिलजी साम्राज्य के सबसे शक्तिशाली शासक अलाउद्दीन खिलजी ही थे। अपने साम्राज्य में उन्होंने खुले में मदिरा के सेवन करने पर प्रतिबन्ध लगा दिया था।
🔹राज्याभिषेक –
▪️उसने अपने चाचा को छल से मारकर 19 जुलाई 1296 ई. में स्वयं को सुल्तान घोषित किया।
12 अक्तूबर 1296 ई. को विधिवत राज्याभिषेक हुआ।
🔹प्रमुख घटनाएँ
▪️अपनी प्रारम्भिक सफलताओं से प्रोत्साहित होकर अलाउद्दीन ने ‘सिकन्दर द्वितीय’ (सानी) की उपाधि ग्रहण कर इसका उल्लेख अपने सिक्कों पर करवाया।
▪️उसने विश्व-विजय एवं एक नवीन धर्म को स्थापित करने के अपने विचार को अपने मित्र एवं दिल्ली के कोतवाल ‘अलाउल मुल्क’ के समझाने पर त्याग दिया।
▪️वे पहले मुस्लिम शासक थे, जिन्होंने दक्षिण भारत में अपना साम्राज्य फैलाया था, और जीत हासिल की थी।
अलाउद्दीन खुद को “दूसरा एलेग्जेंडर” कहते थे।
▪️अपने साम्राज्य में उन्होंने खुले में मदिरा के सेवन करने पर प्रतिबन्ध लगा दिया था।
▪️1297 से 1305 ई. में खिलजी वंश ने सफलतापूर्वक कई मंगोल हमलों को नाकाम किया, लेकिन 1299 ईस्वी में जफर खान नामक एक समर्पित सेनानायक को खो दिया।
▪️कहा जाता है की चित्तोड़ की रानी पद्मिनी को पाने के लिए उन्होंने 1303 में चित्तोड़ पर आक्रमण किया था। ▪️इस युद्ध का लेखक मलिक मुहम्मद जायसी ने अवधी भाषा में 1540 में अपनी कविता पद्मावत में उल्लेख किया है।
▪️अल्लाउद्दीन ने 1305 में मालवा और 1308 में राजस्थान के सिवाना किले सहित उत्तर में कई साम्राज्यों पर कब्ज़ा किया।
▪️प्रायद्वीपीय भारत गवाह रहा मदुरै के विनाश का, 1310 ई. में द्वारा समुद्र के होयसला साम्राज्य और 1311 ई. में पंड्या साम्राज्य पर आक्रमण का और साथ ही साथ 1313 ई. में दिल्ली के लिए देवगिरी अनुबंध का।
▪️अलाउद्दीन ख़िलजी के राज्य में कुछ विद्रोह भी हुए, जिनमें 1299 ई. में गुजरात के सफल अभियान में प्राप्त धन के बंटवारे को लेकर ‘नवी मुसलमानों’ द्वारा किये गये विद्रोह का दमन नुसरत ख़ाँ ने किया।
🔹निर्माण कार्य
▪️स्थापत्य कला के क्षेत्र में अलाउद्दीन ख़िलजी ने वृत्ताकार ‘अलाई दरवाजा’ अथवा ‘कुश्क-ए-शिकार’ का निर्माण करवाया। उसके द्वारा बनाया गया ‘अलाई दरवाजा’ प्रारम्भिक तुर्की कला का एक श्रेष्ठ नमूना माना जाता है।
🔹मृत्यु
▪️अलाउद्दीन खिलजी के जीवन के अंतिम दिन काफी दर्दभरे थे। उनकी अक्षमता का फायदा लेते हुए कमांडर मलिक काफूर ने पूरा साम्राज्य हथिया लिया। उस समय वे निराश और कमजोर हो गए थे और 1316 ई. में ही उनकी मृत्यु हो गयी थी।
#शिहाबुद्दीन_उमर_ख़िलजी- (1316 ई.)
शिहाबुद्दीन उमर ख़िलजी, अलाउद्दीन ख़िलजी का पुत्र था। मलिक काफ़ूर के कहने पर अलाउद्दीन ने अपने पुत्र ‘ख़िज़्र ख़ाँ’ को उत्तराधिकारी न बना कर अपने 5-6 वर्षीय पुत्र शिहाबुद्दीन उमर को उत्तराधिकारी नियुक्त कर दिया। अलाउद्दीन की मृत्यु के बाद काफ़ूर ने शिहाबद्दीन को सुल्तान बना कर सारा अधिकार अपने हाथों में सुरक्षित कर लिया। लगभग 35 दिन के सत्ता उपभोग के बाद काफ़ूर की हत्या अलाउद्दीन के तीसरे पुत्र मुबारक ख़िलजी ने करवा दी। काफ़ूर की हत्या के बाद वह स्वयं सुल्तान का संरक्षक बन गया और कालान्तर में उसने शिहाबुद्दीन को अंधा करवा कर क़ैद करवा दिया।
#कुतुबुद्दीन_मुबारक_ख़िलजी – (1316 – 1320 ई.)
क़ुतुबुद्दीन मुबारक ख़िलजी (1316-1320 ई.) ख़िलजी वंश के सुल्तान अलाउद्दीन ख़िलजी का तृतीय पुत्र था। अलाउद्दीन के प्रभावशाली व्यक्तियों में से एक मलिक काफ़ूर इसका संरक्षक था। कुछ समय बाद मलिक काफ़ूर स्वयं सुल्तान बनने का सपना देखने लगा और उसने षड़यंत्र रचकर मुबारक ख़िलजी की हत्या करने की योजना बनाई। किंतु मलिक काफ़ूर के षड़यंत्रों से बच निकलने के बाद मुबारक ख़िलजी ने चार वर्ष तक सफलतापूर्वक राज्य किया। इसके शासनकाल में राज्य में प्राय: शांति व्याप्त रही।
🔹सुधार कार्य
▪️उसने राजनीतिक बंदियों को रिहा कर दिया।
▪️अपने सैनिकों को छः माह का अग्रिम वेतन देना प्रारम्भ किया।
▪️विद्धानों एवं महत्त्वपूर्ण व्यक्तियों की छीनी गयीं सभी जागीरें उन्हें वापस कर दीं।
▪️अलाउद्दीन ख़िलजी की कठोर दण्ड व्यवस्था एवं ‘बाज़ार नियंत्रण प्रणाली’ आदि को भी समाप्त कर दिया और जो कठोर क़ानून बनाये गए थे, उन्हें समाप्त करवा दिया।
🔹उपाधियाँ
▪️क़ुतुबुद्दीन मुबारक ख़िलजी ने ‘अल इमाम’, ‘उल इमाम’ एवं ‘ख़िलाफ़त-उल्लाह’ की उपाधियाँ धारण की थीं।
▪️उसने ख़िलाफ़त के प्रति भक्ति को हटाकर अपने को ‘इस्लाम धर्म का सर्वोच्च प्रधान’ और ‘स्वर्ण तथा पृथ्वी के अधिपति का ख़लीफ़ा’ घोषित किया।
🔹मृत्यु
▪️देवगिरि तथा गुजरात की विजय से मुबारक ख़िलजी का दिमाग फिर गया और वह भोग-विलास में लिप्त रहने लगा। वह नग्न स्त्री-पुरुषों की संगत को पसन्द करता था। उसके प्रधानमंत्री ख़ुसरों ख़ाँ ने 1320 ई. में उसकी हत्या करवा दी।
#नासिरुद्दीन_खुसरवशाह – (1320 ई.)
नासिरुद्दीन खुसरवशाह हिन्दू से मुसलमान बना हुआ था और 15 अप्रैल से 27 अप्रैल, 1320 ई. तक दिल्ली सल्तनत में खिलज़ी वंश का अंतिम शासक था। इसकी हत्या कर के दिल्ली सल्तनत में ख़िलजी का अंत हो गया।
इस वंश के बाद दिल्ली सल्तनत में तुगलक़ वंश का उदय हुआ।
[01/12, 8:26 AM] Raj Kumar: #आधुनिक_भारत_का_इतिहास :
#डच_उपनिवेश_की_स्थापना
हॉलैंड (वर्त्तमान नीदरलैंड) के निवासी डच कहलाते है। पुर्तगालियो के बाद डचों ने भारत में अपने कदम रखे। ऐतिहासिक दृष्टि से डच समुद्री व्यापार में निपुण थे। 1602 ईमें नीदरलैंड की यूनाइटेड ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना की गयी और डच सरकार द्वारा उसे भारत सहित ईस्ट इंडिया के साथ व्यापार करने की अनुमति प्रदान की गयी।
#डचों_का_उत्थान
1605 ई में डचों ने आंध्र प्रदेश के मुसलीपत्तनम में अपनी पहली फैक्ट्री स्थापित की। बाद में उन्होंने भारत के अन्य भागों में भी अपने व्यापारिक केंद्र स्थापित किये। डच सूरत और डच बंगाल की स्थापना क्रमशः 1616 और 1627 में की गयी थी। डचों ने 1656 ई में पुर्तगालियों से सीलोन जीत लिया और 1671 ई में पुर्तगालियों के मालाबार तट पर स्थित किलों पर भी कब्ज़ा कर लिया। पुर्तगालियों से नागापट्टिनम जीतने के बाद डच काफी सक्षम गए और दक्षिण भारत में अपने पैर जमा लिए। उन्होंने काली मिर्च और मसालों के व्यापार पर एकाधिकार स्थापित कर आर्थिक दृष्टि से अत्यधिक लाभ कमाया। कपास, अफीम, नील, रेशम और चावल वे प्रमुख भारतीय वस्तुएं है जिनका व्यापार डचों द्वारा किया जाता था।
#डच_सिक्के
डचों ने भारत में रहने के दौरान सिक्कों की ढलाई पर भी हाथ आजमाए। जैसे जैसे उनके व्यापार में वृद्धि होती गयी उन्होंने कोचीन, मूसलीपत्तनम, नागापट्टिनम , पोंडिचेरी और पुलीकट में टकसालों की स्थापना की। पुलीकट स्थित टकसाल से भगवान वेंकटेश्वर (भगवान विष्णु) के चित्र वाले सोने के पैगोडा सिक्के जारी किये गए। डचों द्वारा जारी किये गए सभी सिक्के स्थानीय सिक्का ढलाई के नमूनों पर आधारित थे।
#डच_शक्ति_का_पतन
भारतीय उप-महाद्वीप पर डचों की उपस्थिति 1605 ई से लेकर 1825 ई तक रही थी। पूर्व के साथ व्यापार में ब्रिटिश शक्ति के उदय ने डचों के व्यापारिक हितों के प्रति एक चुनौती प्रस्तुत की जिसके परिणामस्वरूप दोनों के मध्य खूनी संघर्ष हुए। इन संघर्षों में स्पष्ट रूप से ब्रिटिशों की विजय हुई क्योकि उनके पास अधिक संसाधन थे। अम्बोयना में डचों द्वारा कुछ ब्रिटिश व्यापारियों की नृशंस हत्या ने परिस्थितियों को और बिगाड़ दिया। ब्रिटिशों द्वारा एक के बाद एक लगभग सभी डच क्षेत्रों को अपने कब्जे में ले लिया गया।
#मालाबार_क्षेत्र_में_डच_शक्ति_की_घोर_पराजय
डच-अंग्रेज संघर्ष के मध्य त्रावणकोर के राजा मार्तंड वर्मा द्वारा 1741 ई में कोलाचेल के युद्ध में डच ईस्ट इंडिया कंपनी को पराजित करने के साथ ही मालाबार क्षेत्र में डच शक्ति का पूर्णतः पतन हो गया।
#ब्रिटिशों_के_साथ_संधियाँ_और_संघर्ष
हालाँकि 1814 ई की एंग्लो-डच संधि के तहत डच कोरोमंडल और डच बंगाल पुनः डच शासन के अधीन आ गए थे लेकिन 1824 ई में हस्ताक्षरित एंग्लो-डच संधि के प्रावधानों के तहत फिर से ब्रिटिश शासन के अधीन आ गए क्योकि इस संधि के तहत डचों के लिये 1 मार्च 1825 ई तक सारी संपत्ति और क्षेत्रों को हस्तांतरित करना बाध्यकारी बना दिया गया। 1825 ई के मध्य तक डच भारत में अपने सभी व्यापारिक क्षेत्रों से वंचित हो चुके थे। एक समझौते के तहत ब्रिटिशों ने आपसी अदला-बदली के तरीके के आधार पर खुद को इंडोनेशिया के साथ व्यापार से अलग कर लिया और बदले में डचों ने भारत के साथ अपना व्यापार बंद कर दिया।
#भारत_में_डेनिश_औपनिवेशिक_क्षेत्र
डेनमार्क से सम्बंधित किसी भी व्यक्ति या वस्तु को डेनिश कहा जाता है। डेनमार्क द्वारा लगभग 225 वर्षों तक भारत में अपने उपनिवेश बनाये रखे गए। भारत में स्थापित डेनिश बस्तियों मे त्रंकोबार (तमिलनाडु) ,सेरामपुर (पश्चिम बंगाल) और निकोबार द्वीप शामिल थे।
#डेनिश_व्यापारिक_एकाधिकार_की_स्थापना
एक डच साहसी मर्सलिस दे बोशौवेर ने भारतीय उप-महाद्वीप में डेनिश हस्तक्षेप के लिए प्रेरणा प्रदान की। वह सहयोगी दलों से सभी तरह के व्यापार पर एकाधिकार के वादे के साथ पुर्तगालियों के विरुद्ध सैन्य सहयोग चाहता था। उसकी अपील ने डेनमार्क-नॉर्वे के राजा क्रिस्चियन चतुर्थ को प्रभावित किया जिसने बाद में 1616 ई में एक चार्टर जारी किया जिसके तहत डेनिश ईस्ट इंडिया कंपनी को डेनमार्क और एशिया के मध्य होने वाले व्यापार पर बारह वर्षों के लिए एकाधिकार प्रदान कर दिया गया।
#डेनिश_चार्टर्ड_कंपनियां
दो डेनिश चार्टर्ड कंपनियां थी। प्रथम कंपनी डेनिश ईस्ट इंडिया कंपनी थी ,जिसका कार्यकाल 1616 ई से लेकर 1650 ई तक था। डेनिश ईस्ट इंडिया कंपनी और स्वीडिश ईस्ट इंडिया कंपनी मिलकर ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी से ज्यादा चाय का आयात करती थीं और उसमे से अधिकांश को अत्यधिक लाभ पर अवैध तरीके से ब्रिटेन में बेचता था। इस कंपनी का 1650 ई में विलय कर दिया गया। दूसरी कंपनी 1670 ई से लेकर 1729 ई तक सक्रिय रही । 1730 ई में एशियाटिक कंपनी के रूप में इसकी पुनः स्थापना की गयी। 1732 ई में इसे शाही लाइसेंस प्रदान कर अगले चालीस वर्षों के लिए आशा अंतरीप के पूर्व से होने वाले डेनिश व्यापार पर एकाधिकार प्रदान कर दिया गया। 1750 ई तक भारत से 27 जहाज भेजे गए जिनमे से 22 जहाज सफलतापूर्वक यात्रा पूरी कर कोपेनहेगेन पहुचे। लेकिन 1722 ई में कंपनी ने अपना एकाधिकार खो दिया।
#सेरामपुर_मिशन_प्रेस
यहाँ यह उल्लेख करना जरुरी है कि सेरामपुर मिशन प्रेस की स्थापना ,जोकि एक ऐतिहासिक एवं युगांतरकारी कदम था, सेरामपुर में डेनिश मिशनरी द्वारा 1799 ई में की गयी थी। 1801 ई से लेकर 1832 ई तक सेरामपुर मिशन प्रेस ने 40 विभिन्न भाषाओं में किताबों की 212,000 प्रतियाँ छापीं।
#भारत_में_डेनिश_बस्तियों_की_समाप्ति
नेपोलियन युद्ध (1803-1815 ई।) के दौरान ब्रिटिशों ने डेनिश जहाजों पर हमला कर डेनिश ईस्ट इंडिया कंपनी के भारत के साथ होने वाले व्यापर को नष्ट कर दिया और अंततः डेनिश बस्तियों पर कब्ज़ा कर उन्हें ब्रिटिश भारत का हिस्सा बना लिया। अंतिम डच बस्ती सेरामपुर को 1845 ई में डेनमार्क द्वारा ब्रिटेन को हस्तांतरित कर दिया गया।
[01/12, 8:26 AM] Raj Kumar: #मध्यकालीन_भारत_का_इतिहास :
#मामलूक_या_गुलाम_वंश
कुतुबुदीन ऐबक, मुहम्मद गौरी का गुलाम था। उसने भारत में जिस राजवंश की स्थापना की उसे गुलाम वंश (Slave Dynasty) कहते है। इस वंश ने 1206 से 1290 ई. तक 84 साल तक राज किया। इस वंश के शासक या संस्थापक ग़ुलाम (दास) थे न कि राजा। इस लिए इसे राजवंश की बजाय सिर्फ़ वंश कहा जाता है।
#इस_वंश_के_शासक_निम्नलिखित_थे : –
▪️कुतुबुद्दीन ऐबक (1206 – 1210)
▪️आरामशाह (1210)
▪️इल्तुतमिश (1210 – 1236)
▪️रूकुनुद्दीन फ़ीरोज़शाह (1236)
▪️रजिया सुल्तन (1236 – 1240)
▪️मुईज़ुद्दीन बहरामशाह (1240 – 1242)
▪️अलाऊद्दीन मसूदशाह (1242 – 1246)
▪️नासिरूद्दीन महमूद (1246 – 1266)
▪️गयासुद्दीन बलबन (1266 – 1286)
▪️कैकुबाद (1286 – 1290)
▪️शमशुद्दीन क्यूम़र्श (1290)
#कुतुबुद्दीन_ऐबक –(1206 – 1210 ई.)
कुतुबुदीन ऐबक दिल्ली सल्तनत का पहला सुल्तान था। इसी को ही दिल्ली गुलाम वंश का संस्थापक कहा जाता है, कुतुबुदीन ऐबक मुहमंद गौरी का गुलाम था। जब मुहमंद गौरी ने भारत में लूटपाट कर के वापिस अफगान गया तो उसने भारत में अपने दासों को नियुक्त किया जो भारत में उसके नाम से शासन करे।
🔹शासनकाल – 1206 – 1210 ई.
🔹राज्यारोहण – मुहमंद गौरी की मृत्यु के बाद 25 जून 1206 ई. को कुतुबुदीन ऐबक का अनोपचारिक राज्यारोहण लाहोर में हुआ। उसने लाहोर को अपनी राजधानी बनाया था।
🔹गुरु – ख्वाजा कुतुबुद्दीन बख्तियार काका।
🔹प्रमुख_योगदान
▪️दिल्ली सल्तनत की स्थापना की।
▪️दानवीर और उदार होने के कारण ‘लाखबख्श’ के नाम से भी जाना जाता था।
▪️साहित्य और कला का संरक्षक था।
▪️फर्रुखमुद्दार एवं हसन निजामी उसके दरवार के प्रसिद्ध विद्वान थे।
🔹निर्माण_कार्य
▪️दो प्रसिद्ध मस्जिद दिल्ली का कुबत-उल-इस्लाम और अजमेर का ढाई दिन का झोंपड़ा बनवाया।
▪️अपने गुरु ख्वाजा कुतुबुद्दीन बख्तियार काका के स्मृति में कुतुबमीनार का एक मंजिल का निर्माण कराया (इसके मृत्यु के कारण यह अधुरा ही बन पाया)। इसे इल्तुतमिश ने पूरा किया था।
🔹दामाद – इल्तुतमिश ।
🔹पुत्र – आरामशाह (कई इतिहासकार इसे कुतुबुदीन ऐबक का पुत्र नहीं मानते है)।
🔹मृत्यु – नवम्बर 1210 ई. में लाहोर में चोगान (पोलो) खेलते समय घोड़े से गिर जाने के कारण मृत्यु हो गई।
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#आरामशाह – (1210 ई.)
कुतुबुदीन ऐबक के आकस्मिक मृत्यु के बाद तुर्की सरदारों ने उनके पुत्र आरामशाह को 1210 ई. में लाहौर ने सुल्तान बना दिया। उसी बीच कुबाचा और खिलजियों के आक्रमण को आरामशाह नियंत्रण नही कर सका। जिसके फलस्वरूप बदायूं के गवर्नर, इल्तुतमिश को, जो कुतुबुदीन ऐबक का दामाद था तुर्की सरदारों ने सुल्तान बनाना चाहा, जिसका विरोध आरामशाह ने किया। इल्तुतमिश ने आरामशाह को मारकर सत्ता पर अधिकार कर लिया।
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#इल्तुतमिश –(1210 – 1236 ई.)
इल्तुतमिश तुर्किस्तान की इल्बरी काबिले का था। इसका असली नाम ‘अलतमश’ था। खोखरों के विरुद्ध इल्तुतमिश की कार्य कुशलता से प्रभावित होकर मुहम्मद ग़ोरी ने उसे ‘अमीरूल उमरा’ नामक महत्त्वपूर्ण पद दिया था। इसने 1210 ई. से 1236 ई. तक शासन किया। राज्याभिषेक समय से ही अनेक तुर्क अमीरउसका विरोध कर रहे थे।
सुल्तान का पद प्राप्त करने के बाद इल्तुतमिश को कुछ कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। इसके अन्तर्गत इल्तुतमिश ने सर्वप्रथम ‘कुल्बी’ अर्थात कुतुबद्दीन ऐबक के समय सरदार तथा ‘मुइज्जी’ अर्थात् मुहम्मद ग़ोरी के समय के सरदारों के विद्रोह का दमन किया। इल्तुमिश ने इन विद्रोही सरदारों पर विश्वास न करते हुए अपने 40 ग़ुलाम सरदारों का एक गुट या संगठन बनाया, जिसे ‘तुर्कान-ए-चिहालगानी’ का नाम दिया गया। इस संगठन को ‘चरगान’ भी कहा जाता है।
🔹शासनकाल – 1210 – 1236 ई.
🔹राज्यारोहण – ऐबक ने सेनापति अमीद अली इस्माइल के अनुमति से आरामशाह को मारकर 1210 ई. में दिल्ली में ऐबक वंश की जगह इलबरी वंश की स्थापना की।
🔹गुरु – ख्वाजा कुतुबुद्दीन बख्तियार काका।
🔹पुत्री – रजिया सुल्तान।
🔹प्रमुख_योगदान
▪️लाहौर से अपनी राजधानी को दिल्ली ले आया।
▪️सल्तनत के तीन महत्वपूर्ण अंग इक्त्ता, सेना और मुद्रा प्रणाली का गठन किया।
▪️इक्ता – धन के स्थान पर वेतन के रूप में भूमि प्रदान करना।
▪️नए सिक्के चाँदी का टंका तथा तांबे के सिक्के जातल का प्रचलन इल्तुतमिश ने ही किया।
▪️इल्तुमिश ने विद्रोही सरदारों पर विश्वास न करते हुए अपने 40 ग़ुलाम सरदारों का एक गुट या संगठन बनाया, जिसे ‘तुर्कान-ए-चिहालगानी’ का नाम दिया गया। इस संगठन को ‘चरगान’ भी कहा जाता है।
🔹निर्माण_कार्य
▪️ख्वाजा कुतुबुद्दीन बख्तियार काका की स्मृति में 1231 – 32 ई. में कुतुबमीनार को पूरा बनवाया था।
▪️भारत में सम्भवतः पहला मक़बरा निर्मित करवाने का श्रेय भी इल्तुतमिश को दिया जाता है। इल्तुतमिश का मक़बरा दिल्ली में स्थित है, जो एक कक्षीय मक़बरा है।
▪️इल्तुतमिश ने बदायूँ की जामा मस्जिद एवं नागौर में अतारकिन के दरवाज़ा का निर्माण करवाया।
▪️अजमेर की मस्जिद’ का निर्माण इल्तुतमिश ने ही करवाया था।
▪️उसने 1230 में महरौली के हौज-ए-शम्शी (शम्सी ईदगाह) जलाशय का निर्माण किया ।
🔹विद्वानों_का_संरक्षण
▪️तत्कालीन विद्वान दरबारी लेखक मिनहाज उस सिराज थे, जिसने प्रसिध्द ग्रंथ तबकाते-नासिरी की रचना की एवं मलिक ताजूद्दीन को संरक्षण प्रदान किया।
🔹महत्वपूर्ण_युद्ध
▪️इल्तुतमिश ने 1226 ई. में बंगाल पर विजय पाकर बंगाल को दिल्ली सल्तनत का इक्ता (सूबा) बनाया।
▪️इल्तुतमिश ने 1226 ई. में रणथम्भौर जीता तथा परमारों की राजधानी मंदौर पर अधिकार कर लिया।
▪️इल्तुतमिश के काल मे 1221 ई. मंगोलों ने चंगेज खाँ के नेतृत्व में भारत पर आक्रमण किया।
🔹मृत्यु
▪️खोखरो के अभियान को दबाने के दौरान 1236 ई. में मृत्यु हो गई।
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#रूकुनुद्दीन_फ़ीरोज़शाह – (1236 ई.)
रूकुनुद्दीन फ़ीरोज़शाह दिल्ली सल्तनत में ग़ुलाम वंश का शासक था। सन् 1236 में इल्तुतमिश की मृत्यु के बाद वो एक साल से भी कम समय के लिए सत्तासीन रहा। यह इल्तुतमिश का सबसे छोटा बेटा था।
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#रजिया_सुल्ताना – (1236 – 1240 ई.)
रज़िया अल-दिन, शाही नाम “जलॉलात उद-दिन रज़ियॉ” जिसे सामान्यतः “रज़िया सुल्तान” या “रज़िया सुल्ताना” के नाम से जाना जाता है, दिल्ली सल्तनत की सुल्तान थी। वह इल्तुतमिश की पुत्री थी। रज़िया सुल्ताना मुस्लिम एवं तुर्की इतिहास कि पहली महिला शासक थीं।
🔹शासनकाल – 1236 – 1240 ई.
🔹राज्यारोहण – जनता के समर्थन से नवंबर 1236 ई. में राज्यारोहण किया गया।
▪️रजिया सुलतान दिल्ली सल्तनत की पहली और अंतिम महिला सुल्तान थी।
▪️रजिया पुरुषों की तरह चोगा (काबा) कुलाह (टोपी) पहनकर राजदरबार में शासन करती थी।
▪️रज़िया अपनी राजनीतिक समझदारी और नीतियों से सेना तथा जनसाधारण का ध्यान रखती थी।
🔹मृत्यु
▪️रजिया ने लाहौर का विद्रोह सफलतापूर्वक दबा दिया। मगर जब भटिंडा के प्रशासन अल्तुनिया से युद्ध कर वह याकृत के साथ दिल्ली आ रही थी, तो 14 अक्तुबर, 1240 को मार्ग में उसका वध कर दिया गया।
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#मुईज़ुद्दीन_बहरामशाह –(1240 – 1242 ई.)
1240 ई. में रजिया सुल्तान के हत्या कर उसके भाई मुईज़ुद्दीन बहरामशाह (1240 ई.) ने सल्तनत पर अधिकार कर लिया। इसे तुर्की अमीरों ने नायब-ए-मुमलकत (संरक्षक) का पद बनाया था। वह नाममात्र का शासक था, वास्तव में चालीसा ही शासन संभाला रहे थे। तुर्क अमीरों ने 1242 ई. में बहरामशाह की हत्या कर दी।
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#अलाऊद्दीन_मसूदशाह – (1242 – 1246 ई.)
अलाउद्दीन मसूद शाह तुर्की शासक था, जो दिल्ली सल्तनत का सातवां सुल्तान बना। यह भी गुलाम वंश से था। वह रुकुनुद्दीन फ़ीरोज़शाह का पौत्र तथा मुइज़ुद्दीन बहरामशाह का पुत्र था। उसके समय में नाइब का पद ग़ैर तुर्की सरदारों के दल के नेता मलिक कुतुबुद्दीन हसन को मिला क्योंकि अन्य पदों पर तुर्की सरदारों के गुट के लोगों का प्रभुत्व था, इसलिए नाइब के पद का कोई विशेष महत्त्व नहीं रह गया था। शासन का वास्तविक अधिकार वज़ीर मुहाजबुद्दीन के पास था, जो जाति से ताजिक (ग़ैर तुर्क) था। तुर्की सरदारों के विरोध के परिणामस्वरूप यह पद नजुमुद्दीन अबू बक्र को प्राप्त हुआ। इसी के समय में बलबन को हाँसी का अक्ता प्राप्त हुआ। ‘अमीरे हाजिब’ का पद इल्तुतमिश के ‘चालीस तुर्कों के दल’ के सदस्य ग़यासुद्दीन बलबन को प्राप्त हुआ। 1245 में मंगोलों ने उच्छ पर अधिकार कर लिया, परन्तु बलबन ने मंगोलों को उच्छ से खदेड़ दिया, इससे बलबन की प्रतिष्ठा बढ़ गयी। अमीरे हाजिब के पद पर बने रह कर बलबन ने शासन का वास्तविक अधिकार अपने हाथ में ले लिया। अन्ततः बलबन ने नसीरूद्दीन महमूद एवं उसकी माँ से मिलकर अलाउद्दीन मसूद को सिंहासन से हटाने का षडयंत्र रचा। जून, 1246 में उसे इसमें सफलता मिली। बलबन ने अलाउद्दीन मसूद के स्थान पर इल्तुतमिश के प्रपौत्र नसीरूद्दीन महमूद को सुल्तान बनाया।
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#नासिरूद्दीन_महमूद – (1246 – 1266 ई.)
नासिरूद्दीन महमूद तुर्की शासक था, जो दिल्ली सल्तनत का आठवां सुल्तान बना। यह भी गुलाम वंश से था। बलबन ने षड़यंत्र के द्वारा 1246 ई. में सुल्तान मसूद शाह को हटाकर नाशिरुद्दीन महमूद को सुल्तान बनाया। बलबन ने अपनी पुत्री का विवाह नाशिरुद्दीन महमूद से करवाया था। नसिरुद्दीन मधुर एवं धार्मिक स्वभाव का व्यक्ति था। शासक के रूप में नसिरुद्दीन में तत्कालीन पेचीदी परिस्थिति का सामना करने लायक आवश्यक गुणों का काफी अभाव था। नसिरुद्दीन की 12 फरवरी 1266 ई. को मृत्यु हो गई। उसके बाद उसका कोई भी पुरुष उत्तराधिकारी नहीं बचा। इस प्रकार इल्तुतमिश के वंश का अन्त हो गया। तब बलबन, जिसकी योग्यता सिद्ध हो चुकी थी तथा जो स्वर्गीय सुल्तान द्वारा उसका उत्तराधिकारी मनोनीत किया गया,कहा जाता है कि सरदारों एवं पदाधिकारियों की मौन स्वीकृति से सिंहासन पर बैठा।
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#गयासुद्दीन_बलबन – (1266 – 1286 ई.)
गयासुद्दीन बलबन इसका वास्तविक नाम बहाउदीन था। उसने सन् 1266 से 1286 तक राज्य किया। गयासुद्दीन बलबन, जाति से इलबारी तुर्क था। बाल्यकाल में ही मंगोलों ने उसे पकड़कर बगदाद के बाजार में दास के रूप में बेच दिया। ख्वाजा जमालुद्दीन अपने अन्य दासों के साथ उसे 1232 ई. में दिल्ली ले आया। इन सबको सुल्तान इल्तुतमिश ने खरीद लिया। इस प्रकार बलबन इल्तुतमिश के चेहलागान नामक तुर्की दासों के प्रसिद्ध दल का था।
🔹उपाधि – जिल्ला-इलाही।
🔹कार्य
▪️सुल्तान के पद पर बैठते ही चालीसा का परभाव समाप्त कर दिया।
▪️अपनी स्थिति को मजबूत करने के किये इल्तुतमिश के परिवार के शेष लोगो को मरवा दिया।
▪️बंगाल से सूबेदार तुगरिल खां ने 1276 ई. में विद्रोह किया, जिससे क्रुद्ध होकर मरवा दिया।
🔹बलवत का सिद्धांत
▪️बलबन सुल्तान को पृथ्वी पर अल्लाह का प्रतिनिधित्व मानता था।
▪️उसेक अनुसार सुल्तान जिल्ले अल्लाह है अर्थात ईश्वर की परछाई है।
🔹बलवत के द्वारा प्रचलित नियम
▪️सामान्य लोगो से सुल्तान नही मिल सकता था।
▪️सिक्को पर अपना नाम खुदवाया तथा खुतबा में खलीफा का नाम पढ़वाया था।
▪️उच्चवंशाय लोगों को पदाधिकारी बनाया जाता था।
▪️वह एकांत में रहता था, हर्ष या शोक से विचलित नही होता था। शराब पीना एवं मनोरंजन कार्य बंद कर दिए थे।
▪️उसने राजदरबार में सिजदा एवं पेबोस की प्रथा प्रारम्भ की।
▪️कोई भी होठो पर मुस्कुराहट नही ला सकता था।
🔹समकालीन कवि
▪️अमीर खुसरो (तुतिए-हिन्द)
▪️अमीर हसन
🔹मृत्यु
▪️1286 ई. में (मंगोली संघर्ष में अपने जेष्ठ पुत्र के मारे जाने के शोक में)
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#कैकुबाद – (1286 – 1290 ई.)
बलबन ने अपनी मृत्यु के पूर्व अपने जेष्ठ पुत्र के पुत्र अर्थात पौत्र कैखुसरो को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया था। लेकिन दिल्ली के कोतवाल फ़ख़रुद्दीन मुहम्मद ने बलबन की मृत्यु के बाद कूटनीति के द्वारा कैखुसरो को मुल्तान की सूबेदारी देकर कैकुबाद को दिल्ली की राजगद्दी पर बैठा दिया। कैकुबाद अथवा ‘कैकोबाद’ (1286-1290 ई.) को 17-18 वर्ष की अवस्था में दिल्ली की गद्दी पर बैठाया गया था। कैकुबाद ने ग़ैर तुर्क सरदार जलालुद्दीन ख़िलजी को अपना सेनापति बनाया, जिसका तुर्क सरदारों पर बुरा प्रभाव पड़ा। तुर्क सरदार बदला लेने की बात को सोच ही रहे थे कि, कैकुबाद को लकवा मार गया। लकवे का रोगी बन जाने के कारण कैकुबाद प्रशासन के कार्यों में अक्षम हो गया।
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#शमशुद्दीन_क्यूम़र्श – (1290 ई.)
शमशुद्दीन क्यूम़र्श भारत में गुलाम वंश का अतिम शासक था। कैकुबाद को लकवा मार जाने के कारण वह प्रशासन के कार्यों में पूरी तरह से अक्षम हो चुका था। प्रशासन के कार्यों में उसे अक्षम देखकर तुर्क सरदारों ने उसके तीन वर्षीय पुत्र शम्सुद्दीन क्यूम़र्श को सुल्तान घोषित कर दिया। कालान्तर में जलालुद्दीन फ़िरोज ख़िलजी ने उचित अवसर देखकर शम्सुद्दीन का वध कर दिया। शम्सुद्दीन की हत्या के बाद जलालुद्दीन फ़िरोज ख़िलजी ने दिल्ली के तख्त पर स्वंय अधिकार कर लिया। इस प्रकार से बाद में दिल्ली की राजगद्दी पर ख़िलजी वंश की स्थापना हुई।
[01/12, 8:26 AM] Raj Kumar: #आधुनिक_भारत_का_इतिहास :
#पुर्तगाली_उपनिवेश_की_स्थापना
पुर्तगाली पहले यूरोपीय थे जिन्होंने भारत तक सीधे समुद्री मार्ग की खोज की । 20 मई 1498 को पुर्तगाली नाविक वास्को-डी-गामा कालीकट पहुंचा, जो दक्षिण-पश्चिम भारत में स्थित एक महत्वपूर्ण समुद्री बंदरगाह है। स्थानीय राजा जमोरिन ने उसका स्वागत किया और कुछ विशेषाधिकार प्रदान किये। भारत में तीन महीने रहने के बाद वास्को-डी-गामा सामान से लदे एक जहाज के साथ वापस लौट गया और उस सामान को उसने यूरोपीय बाज़ार में अपनी यात्रा की कुल लागत के साठ गुने दाम में बेचा।
1501 ई.में वास्को-डी-गामा दूसरी बार फिर भारत आया और उसने कन्नानौर में एक व्यापारिक फैक्ट्री स्थापित की। व्यापारिक संबंधों की स्थापना हो जाने के बाद भारत में कालीकट, कन्नानौर और कोचीन प्रमुख पुर्तगाली केन्द्रों के रूप में उभरे। अरब व्यापारी, पुर्तगालियो की सफलता और प्रगति से जलने लगे और इसी जलन ने स्थानीय राजा जमोरिन और पुर्तगालियो के बीच शत्रुता को जन्म दिया। यह शत्रुता इतनी बढ़ गयी कि उन दोनों के बीच सैन्य संघर्ष की स्थिति पैदा हो गयी। राजा जमोरिन को पुर्तगालियों ने हरा दिया और इसी जीत के साथ पुर्तगालियों की सैनिक सर्वोच्चता स्थापित हो गयी।
#भारत_में_पुर्तगाली_शक्ति_का_उदय
1505 ई में फ्रांसिस्को दे अल्मीडा को भारत का पहला पुर्तगाली गवर्नर बनाया गया। उसकी नीतियों को ब्लू वाटर पालिसी कहा जाता था क्योकि उनका मुख्य उद्देश्य हिन्द महासागर को नियंत्रित करना था। 1509 ई में फ्रांसिस्को दे अल्मीडा की जगह अल्बुकर्क भारत में पुर्तगाली गवर्नर बनकर आया जिसने 1510 ई.में बीजापुर के सुल्तान से गोवा को अपने कब्जे में ले लिया। उसे भारत में पुर्तगाली शक्ति का वास्तविक संस्थापक माना जाता है। बाद में गोवा भारत में पुर्तगाली बस्तियों का मुख्यालय बन गया। तटीय क्षेत्रों पर पकड़ और नौसेना की सर्वोच्चता ने भारत में पुर्तगालियों के स्थापित होने में काफी मदद की ।16 वीं सदी के अंत तक पुर्तगालियों ने न केवल गोवा,दमन,दीव और सालसेट पर कब्ज़ा कर लिया बल्कि भारतीय तट के सहारे विस्तृत बहुत बड़े क्षेत्र को भी अपने प्रभाव में ले लिया।
#पुर्तगाली_शक्ति_का_पतन
भारत में पुर्तगाली शक्ति अधिक समय तक टिक नहीं सकी क्योकि नए यूरोपीय व्यापारिक प्रतिद्वंदियों ने उनके सामने चुनौती पेश कर दी। विभिन्न व्यापारिक प्रतिद्वंदियों के मध्य हुए संघर्ष में पुर्तगालियों को अपने से शक्तिशाली और व्यापारिक दृष्टि से अधिक सक्षम प्रतिद्वंदी के समक्ष समर्पण करना पड़ा और धीरे धीरे वे सीमित क्षेत्रों तक सिमट कर रह गए।
#पुर्तगाली_शक्ति_के_पतन_के_मुख्य_कारण
भारत में पुर्तगाली शक्ति के पतन के प्रमुख कारणों में निम्नलिखित शामिल है-
पुर्तगाल एक देश के रूप में इतना छोटा था कि वह अपने देश से दूर स्थित व्यापारिक कॉलोनी के भार को वहन नही कर सकता था।
उनकी समुद्री डाकुओं के रूप में प्रसिद्धि ने स्थानीय शासकों के मन में उनके विरुद्ध शत्रुता का भाव पैदा कर दिया।
पुर्तगालियो की कठोर धार्मिक नीति ने उन्हें भारत के हिन्दू और मुसलमानों दोनों से दूर कर दिया।
इसके अतिरिक्त डच और ब्रिटिशो के भारत में आगमन ने भी पुर्तगालियो के पतन में योगदान दिया।
विडंबना यह है कि पुर्तगाली शक्ति, जो भारत में सबसे पहले आने वाली यूरोपीय शक्ति थी ,वही 1961 ई.में भारत से लौटने वाली अंतिम यूरोपीय शक्ति भी थी, जब भारत सरकार ने गोवा ,दमन और दीव को उनसे पुनः अपने कब्जे में ले लिया।
#भारत_को_पुर्तगालियो_की_देन
उन्होंने भारत में तंबाकू की कृषि आरंभ की।
उन्होंने भारत के पश्चिमी और पूर्वी तट पर कैथोलिक धर्म का प्रसार किया।
उन्होंने 1556 ई.में गोवा में भारत की पहली प्रिंटिग प्रेस की स्थापना की। द इंडियन मेडिसनल प्लांट्स पहला वैज्ञानिक कार्य था जिसका प्रकाशन 1563 ई.में गोवा से किया गया ।
सर्वप्रथम उन्होंने ही कार्टेज प्रणाली के माध्यम से यह बताया कि कैसे समुद्र और समुद्री व्यापार पर सर्वोच्चता स्थापित की जाए। इस प्रणाली के तहत कोई भी जहाज अगर पुर्तगाली क्षेत्रोँ से गुजरता है तो उसे पुर्तगालियों से परमिट लेना पडेगा अन्यथा उन्हें पकड़ा जा सकता है।
वे भारत और एशिया में ईसाई धर्म का प्रचार करने वाले प्रथम यूरोपीय थे।
[01/12, 8:26 AM] Raj Kumar: #प्राचीन_भारत_का_इतिहास :
#ताम्रपाषाण_युग
ताम्रपाषाण युग या ताम्र पाषाण संस्कृति का आरम्भ नवपाषाण युग के बाद हुआ। ताम्रपाषाण युग या ताम्र पाषाण संस्कृति में उपकरण, औजार और हथियार के निर्माण में पत्थर के साथ ताँबें का भी प्रयोग बहुतायत में होने लगा, इसीलिए इस समय को ताम्रपाषाण युग या ताम्रपाषाणिक युग कहते हैं।
▪️नवपाषाण युग के अंत में धातुओं का प्रयोग बढ़ने लगा, सर्वप्रथम धातुओं में ताँबे का प्रयोग किया गया। तो जिस संस्कृति ने पत्थर के साथ-साथ ताँबे का भी प्रयोग किया उसी संस्कृति को ताम्रपाषाणिक कहते हैं, जिसका अर्थ है ‘पत्थर और तांबे के उपयोग की अवस्था।’
▪️तकनिकी दृष्टिकोण से ताम्रपाषाण युग, हड़प्पा की कांस्यकालीन संस्कृति से पहले की है। लेकिन भारत में हड़प्पा की कांस्य संस्कृति पहले आती है और अधिकांश ताम्रपाषाण युग की संस्कृतियाँ बाद में।
▪️ताम्रपाषाण युग के लोग पशुपालन और कृषि किया करते थे। वे मुख्य अनाज गेहूँ, चावल के आलावा बाजरा, मसूर, उड़द और मूँग आदि दलहन फसलें भी उगाया करते थे।
▪️वे लोग भेड़, बकरी, गाय, भैंस और सूअर पाला करते थे। हिरन का शिकार करते थे। वह ऊँट से परिचित थे इस बात के भी साक्ष्य ऊँट के अवशेष के रूप में प्राप्त हुए हैं। सामान्यतः इस संस्कृति या युग के लोग घोड़े से परिचित नहीं थे।
▪️ताम्रपाषाण युग के लोग समुदाय बनाकर कर गांवों में रहते थे तथा देश के विशाल भागों में फैले थे जहाँ पहाड़ी जमींन और नदियाँ स्थित थीं। इतिहासकारों का मत है की ताम्रपाषाण युगीन लोग पक्की ईंटों का प्रयोग नहीं करते थे संभवतः वह पक्की ईंटों से परिचित नहीं थे।
▪️ताम्रपाषाण काल के लोग वस्त्र निर्माण करना जानते थे। साथ ही वह मिट्टी के खिलोने और मूर्ति (टेराकोटा की) के कारीगर थे। साथ ही कुंभकार, धातुकार, हाथी दाँत के शिल्पी और चुना बनाने के कारीगर थे।
▪️ताम्रपाषाण काल के अधिकतर मृदभांड (मिट्टी के बर्तन) काले व लाल रंग के थे, जोकि चाक पर बनते थे कभी-कभार इन पर सफेद रंग की रेखिक आकृतियाँ बनी रहती थी।
▪️मिट्टी की स्त्री रूपी मूर्ति से ज्ञात होता है कि ताम्रपाषाण कालीन लोग मातृ-देवी की पूजा करते थे और संभवतः वृषभ (सांड) धार्मिक पंथ का प्रतीक था।
▪️भारत में ताम्रपाषाण काल की कई बस्तियाँ हैं तिथिक्रम की दृष्टि से कुछ प्राक् तथा हड़प्पीय हैं, कुछ हड़प्पा संस्कृति के समकालीन हैं तो कुछ हड़प्पोत्तर अर्थात हड्डपा संस्कृति के बाद की हैं।
#भारत_में_ताम्रपाषण_युगीन_बस्तियां :
▪️दक्षिण पूर्वी राजस्थान –
• अहार (उदयपुर),
• गिलुंद (राजसमंद)
▪️पश्चिमी महाराष्ट्र –
• जोखे,
• नेवासा, सोनगाँव और दैमाबाद (अहमदनगर),
• चंदौली (कोल्हापुर),
• इनामगाँव – इस युग की सबसे बडी बस्ती यहीं मिली है (पुणे)
▪️पश्चिमी मध्यप्रदेश –
• मालवा (मालवा),
• कयथा (मंडला),
• एरण (गुना)
प्राचीन_भारत_का_इतिहास : #गुप्त_वंश_गुप्तकाल
प्राचीन_भारत_का_इतिहास :
#गुप्त_वंश_गुप्तकाल
गुप्त साम्राज्य की नींव रखने वाला शासक श्री गुप्त था। श्री गुप्त ने ही 275 ई. में गुप्त वंश की स्थापना की थी। मौर्य काल के बाद गुप्त काल को भी भारतीय इतिहास का स्वर्णिम युग माना गया है।
गुप्त वंश की जानकारी वायुपुराण से प्राप्त होती है। गुप्तकाल की राजकीय भाषा संस्कृत थी। ये भी माना जाता है कि दशमलव प्रणाली की शुरुआत भी गुप्तकाल में ही हुई थी। और मंदिरों का निर्माण कार्य भी गुप्तकाल में ही शुरू हुआ था।
यह भी माना जाता है कि बाल विवाह की प्रथा सम्भवतः गुप्त काल से ही प्रारम्भ हुई थी। गुप्त कालीन स्वर्ण मुद्रा को दीनार कहा जाता था। गुप्त काल के सर्वाधिक सिक्के सोने के बनाये जाते थे। पंचतंत्र की रचना भी गुप्तकाल में ही हुई थी।
गुप्त साम्राज्य में ब्राह्मणों को कर रहित कृषि भूमि दी जाती थी। जबकि अन्य लोगों को उनकी उपज का छठा भाग भूमि राजस्व के रूप में राजा को देना होता था। गुप्त राजवंश अपने साम्राज्यवाद के कारण प्रसिद्ध था।
महान खगोल विज्ञानी और गणितज्ञ आर्यभट्ट और वराहमिहिर का सम्बन्ध गुप्त काल से ही था। वराहमिहिर ने ही खगोल विज्ञान के भारतीय महाग्रंथ ‘पञ्चसिद्धान्तिका‘ की रचना की थी। आयुर्विज्ञान सम्बन्धी रचना करने वाले रचनाकार सुश्रुत का सम्बन्ध भी गुप्त काल से ही था।
#गुप्तवंश_का_उदय
#श्रीगुप्त :
श्रीगुप्त गुप्तवंश का प्रथम शासक और गुप्त वंश की स्थापना करने वाला शासक था। पूना से प्राप्त ताम्रपत्र में श्रीगुप्त को ‘आदिराज‘ नाम से सम्बोधित किया गया है।
#घटोत्कच_गुप्त :
श्रीगुप्त के बाद उसका पुत्र घटोत्कच गुप्त सिंहासन पर आसीन हुआ। कुछ अभिलेखों में घटोत्कच को गुप्त वंश का प्रथम राजा बताया गया है।
#चन्द्रगुप्त_प्रथम :
चन्द्रगुप्त घटोत्कच गुप्त का पुत्र था, जिसने घटोत्कच गुप्त के बाद सत्ता की बागडोर संभाली। चन्द्रगुप्त को महाराजाधिराज चन्द्रगुप्त के नाम से भी जाना जाता है, महाराजाधिराज एक उपाधि थी, जो चन्द्रगुप्त प्रथम को दी गयी थी। संभवतः यह उपाधि उसके महान कार्यों के कारण ही उसे दी गयी होगी।
गुप्त वंश का प्रथम महान सम्राट चन्द्रगुप्त प्रथम को ही माना जाता है। गुप्त संवत शुरू करने का श्रेय चन्द्रगुप्त प्रथम को ही दिया जाता है। गुप्त काल में सर्वप्रथम सिक्कों का चलन भी चन्द्रगुप्त प्रथम ने ही किया था।
#समुद्रगुप्त :
चन्द्रगुप्त के पश्चात 350 ईसा पूर्व के आस-पास उसका पुत्र समुद्रगुप्त सिंहासन पर बैठा। समुद्रगुप्त ने एक विशाल साम्राज्य का निर्माण किया था जोकि पूर्व में बंगाल की खाड़ी से लेकर पश्चिम में स्थित पूर्वी मालवा तक तथा उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में विंध्य पर्वत तक फैला हुआ था। इलाहबाद शिलालेख के अनुसार समुद्रगुप्त एक महान कवि और संगीतकार था। समुद्र्गुप्त को उसकी राज्य प्रसार नीतियों के कारण ‘भारत का नेपोलियन‘ भी कहा गया है।
#चन्द्रगुप्त_द्वितीय :
गुप्त राजवंश का अगला शासक चन्द्रगुप्त द्वितीय था, जो समुद्रगुप्त का पुत्र था, जिसे विक्रमादित्य और देवगुप्त के नाम से भी जाना गया। विक्रमादित्य इसकी उपाधि थी। इसे ‘शक-विजेता‘ के नाम से भी पुकारा जाता है। चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य ने लगभग 40 वर्षों तक राज किया। विक्रमादित्य के शासन काल को भारतीय कला व साहित्य का स्वर्णिम युग कहा जाता है, साथ ही यह भारत के इतिहास का भी स्वर्णिम युग था।
चन्द्रगुप्त द्वितीय का विशाल साम्राज्य उत्तर में हिमालय के तलहटी इलाकों से लेकर दक्षिण में नर्मदा नदी के तटों तक तथा पूर्व में बंगाल से लेकर पश्चिम में गुजरात तक फैला हुआ था। चन्द्रगुप्त द्वितीय की प्रथम राजधानी पाटलिपुत्र थी और द्वितीय राजधानी उज्जयिनी (उज्जैन) थी।
प्रसिद्ध कवि कालिदास चन्द्रगुप्त द्वितीय का दरबारी था, जिसे दरबार में सम्मिलित नौरत्नों में प्रधान माना जाता था। जिनमें प्रसिद्ध चिकित्सक धन्वंतरि भी शामिल थे, जिन्हें आयुर्वेद के वैद्य ‘चिकित्सा का भगवान‘ मानते हैं। अन्य सात रत्न अमर सिंह, शंकु, क्षपणक (ज्योतिष), बेताल भट, वराहमिहिर, घटकर्पर और वररुचि थे।
चीनी यात्री फह्यान या फाहियान चन्द्रगुप्त द्वितीय के शासन काल में ही भारत आया था। रजत (चाँदी) के सिक्के शुरू करने वाला प्रथम शासक चन्द्रगुप्त द्वितीय था, जिन्हें रूपक या रप्यक कहा जाता था।
महरोली स्थित राजचन्द्र के लोहस्तम्भ को चन्द्रगुप्त द्वितीय ने बनवाया था।
#कुमारगुप्त_प्रथम :
चन्द्रगुप्त द्वितीय की मृत्यु के पश्चात उसका पुत्र कुमारगुप्त प्रथम सिंहासन पर आसीन हुआ। कुमारगुप्त प्रथम ने अश्वमेध यज्ञ करवाया था और महेन्द्रादित्य की उपाधि धारण की थी। कुमारगुप्त प्रथम के ही शासन काल में नालंदा विश्वविद्यालय की स्थापना की थी। कुमारगुप्त प्रथम ने अपने पिता चन्द्रगुप्त द्वितीय की ही भाँति राज्य को सुव्यवस्था और सुशासन से चलाया था और अपने पिता के दिये साम्राज्य को ज्यों का त्यों ही बनाये रखा था।
#स्कंदगुप्त :
कुमारगुप्त की मृत्यु के पश्चात उसका उत्तराधिकारी पुत्र स्कंदगुप्त राजसिहांसन पर विराजमान हुआ। उसे काफी लोक हितकारी सम्राट माना गया है। उसे क्रमादित्य और विक्रमादित्य आदि उपाधियाँ प्राप्त की थी। स्कंदगुप्त ने हूणों के आक्रमण से भी देश को बचाया था।
स्कंदगुप्त के पश्चात कोई भी गुप्तवंश का राजा अपना प्रभुत्व इतना न बढ़ा सका जिसकी जानकारी इतिहास के पन्नों में दर्ज हो। जिस कारण स्कंदगुप्त के उत्तराधिकारियों की स्पष्ट जानकारी उपलब्ध नहीं है।
गुप्त वंश का अंतिम शासक विष्णुगुप्त था।
#गुप्त_वंश_के_पतन_का_कारण :
गुप्तवंश के पतन का कारण पारिवारिक कलह और बार-बार होने वाले विदेशी आक्रमण माने जाते हैं। जिनमें हूणों द्वारा आक्रमण को मुख्य कारण माना जाता है।
[01/12, 8:26 AM] Raj Kumar: #भारत_के_राष्ट्रपति_का_चुनाव_किस_प्रकार_होता_है
राष्ट्रपति का निर्वाचन आनुपातिक प्रतिनिधित्व के अनुसार एकल संक्रमणीय मत और गुप्त मतदान द्वारा होता है| किसी उम्मीदवार को, इस चुनाव में निर्वाचित होने के लिए कुल मतों का एक निश्चित भाग प्राप्त करना होता है| राष्ट्रपति का निर्वाचन जनता प्रत्यक्ष मतदान से नही करती है बल्कि एक निर्वाचन मंडल के सदस्यों द्वारा इसका निर्वाचन किया जाता है|
भारत का राष्ट्रपति, देश का प्रथम नागरिक होने के साथ साथ तीनों सेनाओं का प्रमुख भी होता है | भारत विदेश में जितने भी समझौते करता है वे सभी राष्ट्रपति के नाम से ही किये जाते हैं| भारतीय संविधान के भाग V के अनुच्छेद 52 से 58 तक संघ की कार्यपालिका का वर्णन है| संघ की कार्यपालिका में राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री तथा महान्यायवादी शामिल होते हैं| भारत के वर्तमान राष्ट्रपति श्री प्रणव मुखर्जी ने 25 जुलाई, 2012 भारत के 14वें राष्ट्रपति (13वें व्यक्ति) के रुप में कार्यभार सँभाला था।
#राष्ट्रपति_के_पद_हेतु_अहर्ताएं
1. भारत का नागरिक हो
2. 35 वर्ष की आयु पूरी कर चुका हो
3. लोक सभा का सदस्य चुने जाने की योग्यता रखता हो
4. किसी भी लाभ के पद पर न हो
इसके अतिरिक्त चुनाव के नामांकन के लिए कम से कम 50 लोगों ने उसके नाम का प्रस्ताव रखा हो और इतने ही लोगों ने अनुमोदन किया हो |
राष्ट्रपति के पद की अवधि, पद धारण की तारीख से 5 साल तक होती है| हालांकि वह इससे पहले भी कभी भी उपराष्ट्रपति को अपना त्याग पत्र दे सकता है|
#राष्ट्रपति_के_निर्वाचन_में_कौन_कौन_वोट_डालता_है
राष्ट्रपति का निर्वाचन आनुपातिक प्रतिनिधित्व के अनुसार एकल संक्रमणीय मत और गुप्त मतदान द्वारा होता है| किसी उम्मीदवार को, इस चुनाव में निर्वाचित होने के लिए कुल मतों का एक निश्चित भाग प्राप्त करना होता है | राष्ट्रपति का निर्वाचन जनता प्रत्यक्ष मतदान से नही करती है बल्कि एक निर्वाचन मंडल के सदस्यों द्वारा इसका निर्वाचन किया जाता है| इस चुनाव में इस बात का भी ध्यान रखा जाता है कि इसमें सभी राज्यों का सामान प्रतिनिधित्व हो| इस निर्वाचन में निम्न लोग वोट डालते हैं :
1. लोकसभा तथा राज्यसभा के निर्वाचित सदस्य (राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत सदस्य नही)
2. राज्य विधान सभा के निर्वाचित सदस्य
3. दिल्ली और पुदुचेरी विधान सभाओं के निर्वाचित सदस्य (केवल इन्ही दो केंद्र शासित प्रदेशों के सदस्य इसमें भाग लेते हैं)
#राष्ट्रपति_के_निर्वाचन_की_प्रक्रिया_इस_प्रकार_है
राज्य विधान सभाओं तथा संसद के प्रत्येक सदस्य के मतों की संख्या निम्न प्रकार निर्धारित होती है :-
a. प्रत्येक विधान सभा के निर्वाचित सदस्य के मतों की संख्या, उस राज्य की जनसंख्या को, उस राज्य की विधान सभा के निर्वाचित सदस्यों तथा 1000 के गुणनफल से प्राप्त संख्या द्वारा भाग देने प्राप्त होती है |
एक विधयक के मत का मूल्य = राज्य की कुल जनसंख्या
विधान सभा के निर्वाचित सदस्य x 1000
b. संसद के प्रत्येक सदन के निर्वाचित सदस्यों के मतों की संख्या, सभी राज्यों के विधायकों के मतों के मूल्य को संसद के कुल सदस्यों की संख्या से भाग देने पर प्राप्त होती है |
एक संसद सदस्य के मतों का मूल्य = सभी राज्यों के विधायकों के मतों का कुल मूल्य
#संसद_के_निर्वाचित_सदस्यों_की_कुल_संख्या
इस पूरी चुनाव प्रक्रिया को एक राज्य बिहार के उदाहरण की सहायता से इस प्रकार समझा जा सकता है:
चुनाव के बाद गणना के प्रथम चरण में प्रथम वारीयत के मतों की गणना होती है | यदि उम्मीदवार निर्धारित मत प्राप्त कर लेता है तो वह निर्वाचित घोषित हो जाता है अन्यथा मतों के स्थानांतरण की प्रक्रिया अपनाई जाती है और यह प्रक्रिया तब तक चलती रहती है जब तक कि कोई उम्मीदवार निर्धारित मत प्राप्त नही कर लेता है |
राष्ट्रपति चुनाव से सम्बंधित सभी विवादों की जांच व फैसले उच्चतम न्यायालय में होते है और उसका निर्णय अंतिम होता है|
#निम्न_कारणों_से_राष्ट्रपति_का_पद_खाली_हो
#सकता_है
1. कार्यकाल समाप्ति पर
2. उसके त्यागपत्र देने पर
3. महाभियोग द्वारा हटाये जाने पर
4. उसकी मृत्यु पर
5. यदि उसका निर्वाचन अवैध घोषित हो जाये
#राष्ट्रपति_पर_महाभियोग_शुरू_करने_की_प्रक्रिया
#क्या_है
केवल कदाचार अर्थात "संविधान का उल्लंघन" के मामले में ही महाभियोग लगाकर उसे पद से हटाया जा सकता है| महाभियोग पर आरोप संसद के किसी भी सदन में शुरू किया जा सकता है| कदाचार के आरोपों पर सदन(जिस सदन नेआरोप लगाये हों) के एक चौथाई सदस्यों के हस्ताक्षर होने चाहिए और राष्ट्रपति को 14 दिन का नोटिस दिया जाना चाहिए | महाभियोग का प्रस्ताव दो तिहाई बहुमत से पारित होने के पश्चात् इसे दूसरे सदन में भेजा जाता है, जो कि लगाये गए आरोपों की जाँच करता है| यदि दूसरा सदन इन आरोपों को सही पाता है और महाभियोग प्रस्ताव को दो तिहाई बहुमत से पारित कर देता है तो राष्ट्रपति को विधेयक पारित होने की तिथि से अपने पद से हटा दिया जाता है| ज्ञातब्य है कि इस महाभियोग की प्रक्रिया में राष्ट्रपति द्वारा नामित किये गए सदस्य भाग नही लेते हैं|
#राष्ट्रपति_की_संवैधानिक_स्थिति
भारत के संविधान में सरकार का स्वरुप संसदीय है| यहाँ पर राष्ट्रपति केवल कार्यकारी प्रधान होता है और मुख्य शक्तियां प्रधानमंत्री के नेतृत्व वाले मंत्रिमंडल में निहित होती हैं अर्थात भारत का राष्ट्रपति अपने अधिकारों का प्रयोग प्रधानमंत्री के नेतृत्व वाले मंत्रिमंडल की सलाह पर करता है |
डॉक्टर आंबेडकर की नजरों में राष्ट्रपति की स्थिति इस प्रकार :
‘भारतीय संविधान में, भारतीय संघ के कार्यकलापों का एक प्रमुख होगा जिसे संघ का राष्ट्रपति कहा जायेगा |’
#अर्थात_भारत_का_राष्ट्रपति:-
1. भारतीय संविधान के अंतर्गत राष्ट्रपति की स्थिति वही होगी जो कि ब्रिटेन में राजा की है |
2. वह राष्ट्र का प्रमुख होता है, परन्तु कार्यकारी नही होता है क्योंकि भारत के संविधान में कार्यकारी प्रमुख तो यहाँ का प्रधानमंत्री होता है |
3. वह राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करता है, उस पर शासन नही करता है |
4. वह राष्ट्र का प्रतीक होता है, सभी विदेशी समझौते उसी के नाम से किया जाते हैं |
इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि भारत के राष्ट्रपति चुनाव की प्रक्रिया बहुत ही कठिन है लेकिन इससे एक यह बात भी स्पष्ट हो जाती है कि इस चुनाव में सभी राज्यों को उनकी जनसंख्या के हिसाब से पूरा प्रतिनिधित्व दिया गया है |
[01/12, 8:26 AM] Raj Kumar: #प्राचीन_भारत_का_इतिहास :
#मौर्य_राजवंश
चौथी सदी BC में नन्दा के राजाओं ने मगध राजवंश पर शासन किया और यह राजवंश उत्तर का सबसे ताकतवर राज्य था | एक ब्राह्मण मंत्री चाणक्य जिसे कौटिल्य / विष्णुगुप्त ने नाम से भी जाना गया ने मौर्य परिवार से चन्द्रगुप्त नामक नवयुवक को प्रशिक्षण दिया | चन्द्रगुप्त ने अपने सेना का अपने आप संगठन किया और 322 BC में नन्दा का तख़्ता पलट दिया |
अतः चन्द्रगुप्त मौर्य को मौर्य राजवंश का प्रथम राजा और संस्थापक माना जाता है| इसकी माता का नाम मुर था, इसीलिए इसे संस्कृत में मौर्य कहा जाता था जिसका अर्थ है मुर का बेटा और इसके राजवंश को मौर्य राजवंश कहा गया |
#मगध_साम्राज्य_के_कुछ_महत्वपूर्ण_शासक :
#चन्द्रगुप्त_मौर्य_322_से_298_BC
विद्वानों के अनुसार चन्द्रगुप्त मौर्य केवल 25 वर्ष का था जब उसने नन्दा के राजा धाना नन्द को पराजित कर पाटलीपुत्र पर कब्जा कर लिया था | सबसे पहले इसने अपनी शक्तियाँ भारत गंगा के मैदानो में स्थापित की और बाद में वह पश्चिमी उत्तर की तरफ बढ़ गया | चन्द्रगुप्त ने शीघ्र ही पंजाब के पूरे प्रांत पर विजय प्राप्त की | सेल्यूकस निकेटर, अलेक्जेंडर के यूनानी अधिकारी ने उत्तर के दूरत्तम में कुछ जमीन पर अपनी पकड़ बना ली | अतः, चन्द्रगुप्त मौर्य को उसके खिलाफ एक लंबा युद्ध करना पड़ा और अंत में 305 BC के लगभग उसे हरा दिया और एक संधि पर हस्ताक्षर किए गए | इस संधि के अनुसार, सेल्यूकस निकेटर ने सिंधु के पार के क्षेत्र सौंपे – नामतः आरिया(हृदय), अर्कोजिया (कंधार ), गेड्रोसिया(बालूचिस्तान ) और परोपनिशे (काबुल) को मौर्य साम्राज्य को दे दिया गया और बदले में चन्द्रगुप्त ने सेल्यूकस को 500 हाथी भेंट स्वरूप दिये | सेल्यूकस ने अपनी पुत्री भी मौर्य राजकुमार को दे दी या यह माना जाता है कि चन्द्रगुप्त ने सेलेकुस की पुत्री ( यूनानी मकेदोनियन राजकुमारी ) से विवाह किया ताकि इस गठबंधन को पक्का कर ;लिया जाये |इस तरह उसने सिंधु प्रांत पर नियंत्रण पा लिया जिसका कुछ भाग अब आधुनिक अफगानिस्तान में है | बाद में चन्द्रगुप्त मौर्य मध्य भारत की तरफ चला गया और नर्मदा नदी के उत्तर प्रांत पर कब्ज़ा कर लिया |
इस संधि के अलावा, सेल्यूकस ने मगस्थेनेस को चन्द्रगुप्त मौर्य और दैमकोस को बिन्दुसार के सभा में यूनानी दूत बनाकर भेजा | चन्द्रगुप्त ने अपने जीवन के अंत में जैन धर्म को अपना लिया और अपने पुत्र बिन्दुसार के लिए राजगद्दी छोड़ दी | बाद में चन्द्रगुप्त, भद्रबाहु के नेतृत्व में जैन संतों के साथ मैसूर के निकट स्रवना बेल्गोला चले गए और अपने आप को भूखा रखकर जैन प्रथा के अनुसार मृत्यु ( संथारा) प्राप्त की |
#बिन्दुसार_297_से_272_BC
चन्द्रगुप्त ने 25 साल तक शासन किया और उसके बाद इसने अपने पुत्र बिन्दुसार के लिए राजगद्दी छोड़ दी |बिन्दुसार को यूनानियों द्वारा “अमित्रघटा “ कहा गया जिसका मतलब “दुश्मनों का कातिल” होता है | कुछ विद्वानों के अनुसार, बिन्दुसार ने दक्कन को मैसूर तक जीता | तारानाथ एक तिब्बत भिक्षु ने यह पुष्टि की है कि बिन्दुसार ने दो समुद्रों के बीच की भूमि जिसमे 16 राज्य थे को जीत लिया था | संगम साहित्य के अनुसार मौर्य ने दूरतम दक्षिण तक हमला किया | अतः यह कहा जा सकता है कि मौर्य राजवंश का विस्तार मैसूर में दूर तक हुआ और इसलिए इसमे पूरे भारत को शामिल किया परंतु कलिंग के निकट के पास बेरोजगार परीक्षण और वन क्षेत्रों और चरम दक्षिण के राज्यों में एक छोटे से हिस्से को साम्राज्य से बाहर रखा गया | बिन्दुसार के सेलेकुड सीरिया के राजा अंटिओचूस I के साथ संबंध थे, जिसने डैमचुस को दूत बनाकर इसकी (बिन्दुसार) सभा में भेजा था | बिन्दुसार ने अंटिओचूस को मदिरा, सूखे अंजीरों और कुतर्की देनी चाही | सब कुछ भेज दिया गया पर कुतर्की को नहीं भेजा गया क्यूंकि यूनानी कानून के अनुसार कुतर्की भेजने पर प्रतिबंध था | बिन्दुसार ने एक धर्म संप्रदाय, आजीविकास में अपनी रुचि बनाए रखी | बिन्दुसार ने अपने पुत्र अशोक को उज्जयिनी का राज्यपाल नियुक्त कर दिया जिसने बाद में तक्षिला के विद्रोह को दबा दिया |
#महान_अशोक_268_से_232_BC
अशोक के शासन में मौर्य साम्राज्य चरम पर पहुंचा | पहली बार पूरे उपमहाद्वीप, दूरतम दक्षिण को छोड़कर, शाही नियंत्रण में थे |
अशोक के राजगद्दी पर बैठने (273 BC ) और उसके वास्तविक राजतिलक (269 (BC ) के बीच चार साल का अंतराल था | अतः उपलबद्ध साक्ष्यों से यह पता चलता है कि बिन्दुसार की मृत्यु के बाद राजगद्दी के लिए संघर्ष हुआ था |
हालांकि, अशोक का उत्तराधिकारी बनना एक विवाद था | अशोक के शासन की सबसे महत्वपूर्ण घटना उसका कलिंग के साथ 261 BC में विजयी युद्ध था | युद्ध के असली कारणो का कोई साक्ष्य मौजूद नहीं था परंतु दोनों तरफ भारी हुआ था | अशोक इन घावों से दुखी था और उसने खुद युद्ध के परिणामों का उल्लेख शिलालेख XIII में किया था | युद्ध के समाप्त होने के ठीक बाद मौर्य समाज से कलिंग को जोड़ लिया और आगे कोई भी युद्ध न करने का निश्चय किया | कलिंग युद्ध का एक अन्य सबसे महत्वपूर्ण परिणाम था अशोक का बौद्ध भिक्षु उपगुप्ता से प्रभावित होकर बौद्ध धर्म को अपना लेना | अशोक ने जबकि एक बड़ी और ताकतवर सेना को शांति और सत्ता के लिए बनाए रखा, उसने अपने दोस्ताना रिश्ते एशिया और यूरोपे के पार भी बनाए और बौद्ध धर्म के प्रचारक मंडलों को आर्थिक संरक्षण भी दिया | अशोक ने चोल और पाण्ड्य के राज्यों और यूनानी राजाओं द्वारा शासित पाँच प्रदेशों में धर्म प्रचारक मण्डल भेजे | इसने सीलोन और सुवर्णभूमि (बर्मा) और दक्षिण पूर्व एशिया के हिस्सों में भी धर्म प्रचारक मण्डल भेजे |
महेंद्र , तिवरा/ तिवला ( केवल एक जिसका अभिलेखों में उल्लेख किया गया है ) कुनाल और तालुक अशोक के पुत्रों में विशिष्ट थे | इसकी दो पुत्रियाँ संघमित्रा और चारुमति थीं |
#बाद_के_मौर्य_232_से_184_BC
232 BC में अशोक की मृत्यु के बाद मौर्य साम्राज्य दो भागों में विभाजित हो गया | ये दो भाग थे पूर्वी और पश्चिमी | अशोक के पुत्र कुणाल ने पश्चिमी भाग पर शासन किया जबकि पूर्वी भाग पर अशोक के पोते दसरथ ने शासन किया और बाद में समराती, सलिसुक, देवरमन, सतधनवान और अंत में बृहदरथ ने शासन किया | बृहदरथ, (अंतिम मौर्य शासक), की पुष्यमित्रा शुंग के द्वारा 184 BC में हत्या कर दी गई |पुष्यमित्रा शुंग ने बाद में शुंग राजवंश’ वंश की स्थापना की ‘|
[01/12, 8:26 AM] Raj Kumar: #प्राचीन_भारत_का_इतिहास :
#मौर्योत्तर_काल
मौर्य साम्राज्य के पतन के साथ ही भारतीय इतिहास की राजनीतिक एकता कुछ समय के लिए विखंडित हो गई। अब ऐसा कोई राजवंश नहीं था जो हिंदुकुश से लेकर कर्नाटक एवं बंगाल तक आधिपत्य स्थापित कर सके। दक्षिण में स्थानीय शासक स्वतंत्र हो उठे। मगध का स्थान साकल, प्रतिष्ठान, विदिशा आदि कई नगरों ने ले लिया।
#शुंग_वंश (184 ईसा पूर्व से 75 ईसा पूर्व तक)
अन्तिम मौर्य शासक बृहद्रथ की हत्या कर पुष्यमित्र शुंग ने जिस नवीन राजवंश की नींव डाली, वह शुंग वंश के नाम से जाना जाता है। शुंग वंश के इतिहास के बारे में जानकारी साहित्यिक एवं पुरातात्विक दोनों साक्ष्यों से प्राप्त होती है, जिनका विवरण निम्नलिखित है-
#साहित्यिक_स्रोत :-
• पुराण (वायु और मत्स्य पुराण) – इससे पता चलता है कि शुगवंश का संस्थापक पुष्यमित्र शुंग था।
• हर्षचरित – इसकी रचना बाणभट्ट ने की थी। इसमें अंतिम मौर्य शासक बृहद्रथ की चर्चा है।
• पतंजलि का महाभाष्य – पतंजलि पुष्यमित्र शुंग के पुरोहित थे। इस ग्रंथ में यवनों के आक्रमण की चर्चा है।
• गार्गी संहिता – इसमें भी यवन आक्रमण का उल्लेख मिलता है।
• मालविकाग्निमित्र – यह कालिदास का नाटक है जिससे शुंगकालीन राजनीतिक गतिविधियों का ज्ञान प्राप्त होता है।
• दिव्यावदान – इसमें पुष्यमित्र शुंग को अशोक के 84,000 स्तूपों को तोड़ने वाला बताया गया है।
#पुरातात्विक_स्रोत :
• अयोध्या अभिलेख – इस अभिलेख को पुष्यमित्र शुंग के उत्तराधिकारी धनदेव ने लिखवाया था। इसमें पुष्यमित्र शुंग द्वारा कराये गये दो अश्वमेध यज्ञ की चर्चा है।
• बेसनगर का अभिलेख – यह यवन राजदूत हेलियोडोरस का है जो गरुड़-स्तंभ के ऊपर खुदा हुआ है। इससे भागवत धर्म की लोकप्रियता सूचित होती है।
• भरहुत का लेख – इससे भी शुंगकाल के बारे में जानकारी प्राप्त होती है।
उपर्युक्त साक्ष्यों के अतिरिक्त साँची, बेसनगर, बोधगया आदि स्थानों से प्राप्त स्तूप एवं स्मारक शुंगकालीन कला एवं स्थापत्य की विशिष्टता का ज्ञान कराते हैं। शुंगकाल की कुछ मुद्रायें-कौशाम्बी, अहिच्छत्र, अयोध्या तथा मथुरा से प्राप्त हुई हैं जिनसे तत्कालीन ऐतिहासिक जानकारी प्राप्त होती हैै।
#पुष्यमित्र_शुंग :
पुष्यमित्र मौर्य वंश के अन्तिम शासक बृहद्रथ का सेनापति था। इसके प्रारंभिक जीवन के बारे में जानकारी प्राप्त नहीं है। पुष्यमित्र शुंग ने दो अश्वमेध यज्ञ किये जिसे प्राचीन भारत में राजसत्ता का प्रतीक माना गया था। परवर्ती मौर्यों के कमजोर शासन में मगध का प्रशासन तंत्र शिथिल पड़ गया था तथा देश को आंतरिक एवं वाह्य संकटों का खतरा था। इसी समय पुष्यमित्र शुंग ने मगध साम्राज्य पर अपना अधिकार जमाकर न सिर्फ यवनों के आक्रमण से देश की रक्षा की बल्कि वैदिक धर्म के आदर्शों को, जो अशोक के शासन काल में उपेक्षित हो गये थे, पुनः प्रतिष्ठित किया। इसलिए पुष्यमित्र शुंग के काल को वैदिक पुनर्जागरण का काल भी कहा जाता है।
बौद्ध रचनाओं से ज्ञात होता है कि पुष्यमित्र बौद्ध धर्म का उत्पीड़क था। पुष्यमित्र ने बौद्ध विहारों को नष्ट किया तथा बौद्ध भिक्षुओं की हत्या की थी। यद्यपि शुंगवशीय राजा ब्राह्मण धर्म के अनुयायी थे, तथापि उनके शासनकाल में भरहुत स्तूप का निर्माण और साँची स्तूप की वेदिकाएँ (रेलिंग) बनवाई गई।
लगभग 36 वर्ष तक पुष्यमित्र शुंग ने राज्य किया। पुष्यमित्र की मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र अग्निमित्र शुंग वंश का राजा हुआ जो अपने पिता के शासनकाल में विदिशा का उपराजा था। पुराणों के अनुसार शुंगवंश का अंतिम शासक देवभूति था।
#कण्व_वंश (75 ईसा पूर्व से 30 ईसापूर्व तक)
शुंग वंश का अंतिम राजा देवभूति विलासी प्रवृत्ति का था। अपने शासन के अंतिम दिनों में अपने ही अमात्य वसुदेव के हाथों उसकी हत्या कर दी गई। इसकी जानकारी हर्षचरित से प्राप्त होती है। वसुदेव ने जिस नवीन वंश की स्थापना की वह कण्व वंश के नाम से जाना जाता है। इसमें केवल चार ही शासक हुए-वसुदेव, भूमिमित्र, नारायण और सुशर्मा। इन्होंने 300 ईसा पूर्व तक राज्य किया।
1. कण्व वंश के बाद मगध पर शासन करने वाले दो वंशों की जानकारी मिलती है।
2. पुराणों के अनुसार-आन्ध्रभितियों के शासन का उल्लेख है।
3. अन्य साक्ष्यों में-मित्रवंश का शासन।
#चेदि_तथा_सातवाहन :
प्रथम शताब्दी ईसा पूर्व में विन्घ्य पर्वत के दक्षिण में दो शक्तियों का उदय हुआ-कलिंग का चेदि तथा दक्कन का सातवाहन।
#कलिंग_का_चेदि_या_महामेघवाहन_वंश :
• इस वंश का सर्वाधिक शक्तिशाली शासक खारवेल हुआ जो इस वंश का तीसरा शासक था।
• यह जैन धर्म का संरक्षक था। जैनियों के लिए उदयगिरि एवं खण्ड गिरि में पहाडि़यों का निर्माण करवाया। ख्गुफा-रानी व अनंतगुफा,
• उदयगिरि पहाड़ी में स्थित हाथीगुंफा अभिलेख से खारवेल के बारे में विस्तार से जानकारी मिलती है एवं इसी अभिलेख से जनगणना का प्रथम साक्ष्य मिलता है। इसमें कलिंग की आबादी 35,000 बतायी गयी है।
#आन्ध्र_सातवाहन_वंश :
• सातवाहन वंश का शासन क्षेत्र मुख्यतः महाराष्ट्र, आंध्र और कर्नाटक था। पुराणों में इन्हें आंध्र भृत्य कहा गया है तथा अभिलेखों में सातवाहन कहा गया है। पुराणों में इस वंश का संस्थापक सिमुक (सिन्धुक) को माना गया है जिसने कण्व वंश के राजा सुशर्मा को मारकर सातवाहन वंश की नींव रखी। सातवाहन वंश से संबंधित जानकारी हमें अभिलेख, सिक्के तथा स्मारक तीनों से प्राप्त होते हैं। अभिलेखों में नागनिका का नानाघाट (महाराष्ट्र, पूना) अभिलेख, गौतमीपुत्र शातकर्णी के नासिक से प्राप्त दो गुहालेख गौतमी पुत्र बलश्री का नासिक गुहालेख, वशिष्ठीपुत्र पुलुमावी का नासिक गुहालेख, वसिष्ठीपुत्र पुलुमावी का कार्ले गुहालेख, यज्ञ श्री शातकर्णी का नासिक गुहालेख महत्वपूर्ण है।
• उपर्युक्त लेखों के साथ-साथ विभिन्न स्थानों से सातवाहन राजाओं के बहुसंख्यक सिक्के भी मिले हैं। इससे राज्य विस्तार, धर्म तथा व्यापार-वाणिज्य की प्रगति के संबंध में विस्तृत जानकारी प्राप्त होती है। नासिक के जोगलथम्बी नामक स्थल से क्षहरात शासक नहपान के सिक्कों का ढेर मिलता है। इसमें अनेक सिक्के गौतमीपुत्र शातकर्णी द्वारा पुनः अंकित कराये गये हैं। इससे नहपान पर सातवाहन शासक के विजय की जानकारी मिलती है। यज्ञश्री शातकर्णी के एक सिक्के पर जलपोत के चिन्ह उत्कीर्ण हैं। इससे पता चलता है कि समुद्र के ऊपर उनका अधिकार था। सातवाहन सिक्के सीसा, ताँबा तथा पोटीन (ताँबा, जिंक, सीसा तथा टिन मिश्रित धातु) में ढलवाये गये थे। इन पर मुख्यतः अश्व, सिंह, वृष, गज, पर्वत, जहाज, चक्र, स्वास्तिक, कमल, त्रिरत्न, क्राॅस से जुड़े चार बाल (उज्जैन चिन्ह) आदि का अंकन मिलता है।
• विदेशी विवरण से भी सातवाहन वंश पर प्रकाश पड़ता है। इनमें प्लिनी, टाॅलमी तथा पेरीप्लस आॅफ एरिथ्रियन सी क ेलेखक के विवरण महत्वपूर्ण है। पेरीप्लस के अज्ञात लेखक ने पश्चिमी भारत के बंदरगाहों का स्वंय निरीक्षण किया था तथा वहाँ के व्यापार-वाणिज्य के प्रत्यक्ष अनुभव के आधार पर जानकारी दी है। सातवाहन काल के अनेक चैत्य एवं विहार नासिक, भाजा, कार्ले आदि जगहों से प्राप्त हुए हैं।
• अगला प्रमुख शासक शातकर्णी प्रथम था एवं इसने भी 18 वर्ष तक शासन किया। कालांतर में शकों की विजयों के फलस्वरूप सातवाहनों का अपने क्षेत्रों से अधिकार समाप्त हो गया। किन्तु, गौतमी पुत्र शातकर्णी ने सातवाहन वंश की प्रतिष्ठा पुनः स्थापित करने में सफलता प्राप्त की। गौतमी पुत्र शातकर्णी ने शकों, यवनों, पहलवों तथा क्षहरातों का नाशकर सातवाहन वंश की पुनः प्रतिष्ठा स्थापित की। शातकर्णी ने नहपान को हराकर उसके चाँदी के सिक्कों पर अपना नाम अंकित कराया। नासिक के जोगलथम्बी से प्राप्त सिक्कों के ढेर में चाँदी के बहुत से ऐसे सिक्के हैं जो नहपान ने चलाए थे और इस पर पुनः गौतमीपुत्र की मुद्रा अंकित है।
• गौतमी पुत्र शातकर्णी के बाद उसका पुत्र वशिष्ठीपुत्र पुलुमावि राजगद्दी पर बैठा। उसके अभिलेख अमरावती, कार्ले और नासिक से मिले हैं। यज्ञश्री शातकर्णी सातवाहन वंश का अन्तिम शक्तिशाली राजा हुआ। इसकी मृत्यु के बाद सातवाहन साम्राज्य के विघटन की प्रक्रिया जारी हुई तथा यह अनेक छोटे-छोटे राज्यों में विभक्त हो गया।
#विविध_तथ्य :
• शातकर्णी प्रथम ने दो अश्वमेध तथा एक राजसूय यज्ञ का अनुष्ठान किया था। इसने गोदावरी तट पर स्थित प्रतिष्ठान को अपनी राजधानी बनायी।
• सातवाहन शासक हाल स्वयं एक कवि तथा कवियों एवं विद्वानों का आश्रयदाता था। इसने ’गाथा सप्तशती’ नामक मुक्तक काव्य की रचना हाल ने प्राकृत भाषा में की। हाल की राजसभा में वृहत्कथा के रचयिता गुणाढ्य तथा ’कातंत्र’ नामक संस्कृत व्याकरण के लेखक शववर्मन निवास करते थे।
• गौतमीपुत्र शातकर्णी ने वेणकटक स्वामी की उपाधि धारण की तथा वेणकटक नामक नगर की स्थापना की।
• वशिष्ठी पुत्र पुलमावि ने अपने को प्रथम आंध्र सम्राट कहा।
• गौतमीपुत्र शातकर्णी ने अपने वशिष्ठिपुत्र पुलमावि का विवाह रूद्रदामन की पुत्री से किया था।
• पुलमावि को दक्षिणापथेश्वर कहा गया है। पुराणों में इसका नाम पुलोमा मिलता है।
• ब्राह्मणों को भूमिदान या जागीर देने वाले प्रथम शासक सातवाहन ही थे, किन्तु उन्होंने अधिकतर भूमिदान बौद्ध भिक्षुओं को ही दिया।
• भड़ौच सातवाहन काल का प्रमुख बंदरगाह एवं व्यापारिक केन्द्र था।
• सातवाहन काल में व्यापार व्यवसाय में चाँदी एवं ताँबे के सिक्कों का प्रयोग होता था जिसे ’काषार्पण’ कहा जाता था।
• सातवाहन काल में निर्मित दक्कन की सभी गुफाएँ बौद्ध धर्म से सम्बन्धित थीं।
• सातवाहन राजाओं के नाम मातृप्रधान है लेकिन राजसिंहासन का उत्तराधिकारी पुत्र ही होता था।
• सामंतवाद् का प्रथम लक्षण सातवाहन काल से ही दिखायी पड़ता है।
• सातवाहनों की राजकीय भाषा प्राकृत तथा लिपि ब्राह्मी थी।
• गौतमीपुत्र शातकर्णी ने स्वयं को कृष्ण, बलराम और संकर्षण का रूप स्वीकार किया।
• गौतमीपुत्र शातकर्णी को ’वेदों का आश्रय’ दाता कहा गया है।
#हिन्द_यवन_या_बैक्ट्रीयाई_आक्रमण :
• मौर्यों के पतन के पश्चात् पश्मिोत्तर भारत में मौर्यों के स्थान पर मध्य एशिया से आयी कई वाह्यशक्तियों ने अपना साम्राज्य स्थापित किया।
• मौर्योत्तर काल में भारत पर आक्रमण करने वालों में प्रथम सफल आक्रमण यूथीडेमस वंश के हिन्द-यवन (इंडो-ग्रीक) शासक ’डेमेट्रियस’ ने किया। उसने सिंध और पंजाब पर अपना आधिपत्य स्थापित किया। उसकी राजधानी ’साकल’ थी। साकल शिक्षा के प्रमुख केन्द्र के रूप में प्रसिद्ध था तथा इसकी तुलना पाटलिपुत्र से की जाती थी। हिन्द-यवन शासकों में सबसे प्रसिद्ध शासक मिनांडर था। वह डेªमेट्रियस का सेनापति था। उसकी राजधानी स्यालकोट या साकल थी। भारत में हिन्द-यवन शासकों ने लेखयुक्त सिक्के चलाये। महायान बौद्ध ग्रंथ मिलिन्दपन्हों में बौद्ध विद्वान नागसेन तथा मिनांडर के बीच दार्शनिक विवादों का उल्लेख है। मिनांडर ने बौद्ध धर्म को स्वीकार कर लिया था।
• जिस समय डेमेट्रियस अपनी भारतीय विजयों में उलझा हुआ था, उसी वक्त यूक्रेटाइडीज नामक व्यक्ति ने बैक्ट्रिया में विद्रोह कर दिया। कालांतर में उसने भारत (सिंध प्रदेश) की भी विजय की और हिंद-यवन राज्य स्थापित किए। इस तरह पश्चिमोत्तर भारत में दो यवन-राज्य स्थापित हो गए-पहला, यूथीडेमस के वंशजों का तथा दूसरा यूक्रेटाइडीज के वंशजों का राज्य। यूक्रेटाइडीज वंश में दो शासक हुए-एंटिआल्किडस तथा हर्मियस इस वंश का अन्तिम हिन्द-यवन शासक था। उसके साथ ही पश्चिमोत्तर भारत से यवनों का शासन समाप्त हो गया।
#शक_शासक :
शक मूलतः मध्य एशिया की एक खानाबदोश तथा बर्बर जाति थी। लगभग 165 ईसा पूर्व में इन्हें मध्य एशिया से भगा दिया गया। वहाँ से हटाये जाने के कारण वे सिंध प्रदेश में आ गये। भारत में शक राजा अपने को क्षत्रप कहते थे। उनकी शक्ति का केन्द्र सिंध था। वहाँ से वे भारत के पंजाब, सौराष्ट्र आदि स्थानों पर फैल गये। इनकी पाँच शाखाएँ थी।
कालांतर में शक शासकों की भारत में दो शाखाएँ हो गई थी। एक उत्तरी क्षत्रप जो पंजाब (तक्षशिला) एवं मथुरा में थे और दूसरा पश्चिमी क्षत्रप जो नासिक एवं उज्जैन में थे। पश्चिमी क्षत्रप अधिक प्रसिद्ध थे। उत्तरी क्षत्रप का भारत में प्रथम शासक मोयेज ;डवलमेद्ध या मोग था। नासिक के क्षत्रप (पश्चिमी क्षत्रप) क्षहरात वंश से संबंधित थे जिसका पहला शासक भूमक था। वे अपने को क्षहरात क्षत्रप कहते थे। भूमक के द्वारा चलाये गये सिक्कों पर ’क्षत्रप’ लिखा है। नहपान इस वंश का प्रसिद्ध शासक था। अभिलेखों के आधार पर कहा जा सकता है कि नहपान का राज्य उत्तर में राजपूताना तक था। नहपान के समय भड़ौच एक बंदरगाह था। यहीं से शक शासक वस्तुएँ पश्चिमी देशों को भेजते थे।
उज्जैन के शक वंश (कार्दमक वंश) का संस्थापक चष्टण था। इसने अपने अभिलेखों में शक संवत् का प्रयोग किया है। उज्जैन के शक क्षत्रपों में सबसे प्रसिद्ध शासक रूद्रदामन (130 ई0 से 150 ई0) था। इसके जूनागढ़ अभिलेख से प्रतीत होता है कि पूर्वी और पश्चिमी मालवा, सौराष्ट्र, कच्छ (गुजरात), उत्तरी कोंकण, आदि प्रदेश उसके राज्य में सम्मिलित थे। रूद्रदामन ने वशिष्ठी पुत्र पुलुमावि को पराजित किया था। रूद्रदामन ने सुदर्शन झाील का पुर्ननिर्माण करवाया था जिसे चन्द्रगुप्त मौर्य ने बनवाया था और जिसकी मरम्मत अशोक ने करवाई थी। रूद्रदामन संस्कृत का प्रेमी था। इसी ने सबसे पहले विशुद्ध संस्कृत अभिलेख (जूनागढ़ अभिलेख) जारी किया। पहले इस क्षेत्र में जो भी अभिलेख पाए गए वे प्राकृत भाषा में थे।
इस वंश का अंतिम राजा रूद्रसिंह तृतीय था। गुप्त शासक चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य ने उसे मारकर उसका राज्य गुप्त साम्राज्य में मिला लिया।
#पह्लव_वंश_या_पार्थियन_साम्राज्य :
उत्तर-पश्चिम भारत पर ईसा पूर्व पहली सदी के अंत में पार्थियन नाम के कुछ शासक शासन कर रहे थे जिन्हें भारतीय स्रोतों में पह्लव नाम से जाना गया है। पह्लव शक्ति का वास्तविक संस्थापक मिथ्रेडेट्स (मिथ्रदात) प्रथम था। मिश्रदात द्वितीय इस वंश का सबसे प्रतापी राजा था जिसने शकों को परास्त किया। पह्लव शासकों में सबसे शक्तिशाली शासक गोण्डोफर्नीज था। उसके शासनकाल के ’तख्तबही’ अभिलेख से ज्ञात होता है कि पेशावर जिले पर उसका अधिकार था। सेंट टाॅमस नामक पादरी इसाई प्रचार के लिए इसी समय भारत आया था। पार्थियन राजाओं के सिक्कों पर धर्मिय (धार्मिक) उपाधि उत्कीर्ण मिलती हैं। पह्लव राज्य का अंत कुषाणों ने किया।
#कुषाण_वंश :
• मौर्योत्तर कालीन विदेशी आक्रमणकारियों में कुषाण वंश सबसे महत्वपूर्ण है। पह्लवों के बाद भारतीय क्षेत्र में कुषाण आए जिन्हें यूची और तोखरी भी कहा जाता है। कुषाणों ने सर्वप्रथम बैक्ट्रिया और उत्तरी अफगानिस्तान पर अपना शासन स्थापित किया तथा वहाँ से शक् शासकों को भगा दिया। अन्ततः उन्होंने सिंधु घाटी (निचले) तथा गंगा के मैदान के अधिकांश क्षेत्र पर अधिकार कर लिया।
• कुषाण वंश का संस्थापक कुजुल कडफिसेस था। इसने ताँबे का सिक्का चलाया था। सिक्कों के एक भाग पर यवन शासक हर्मियस का नाम उल्लिखित है तथा दूसरे भाग पर कुजुल का नाम खरोष्ठी लिपि में खुदा हुआ है। कुजुल कडफिसेस के बाद विम कडफिसेस शासक बना जिसने सर्वप्रथम सोने का सिक्का जारी किया। इसके सिक्कों पर शिव, नंदी तथा त्रिशूल की आकृति एवं महेश्वर की उपाधि उत्कीर्ण हैं। इसने अपना राज्य सिंधु नदी के पूरब में फैलाया एवं रोम के साथ इसके अच्छे व्यापारिक संबंध थे। विम कडफिसेस के बाद कनिष्क ने कुषाण साम्राज्य की सत्ता संभाली। कनिष्क कुषाण वंश का महानतम शासक था। इसके कार्यकाल का आरम्भ 78ई0 माना जाता है। क्योंकि इसी ने 78 ई0 में शक् संवत आरम्भ किया। इसके साम्राज्य में अफगानिस्तान, सिंध, बैक्ट्रिया तथा पार्थिया के क्षेत्र सम्मिलित थे। कनिष्क ने भारत में अपना साम्राज्य विस्तार मगध तक किया तथा यहीं से वह प्रसिद्ध विद्वान अश्वघोष को अपनी राजधानी पुरुषपुर ले गया। उसने कश्मीर को विजित कर वहाँ कनिष्कपुर नामक नगर बसाया। कनिष्क बौद्ध धर्म की महायान शाखा का संरक्षक था। उसने कश्मीर में चतुर्थ बौद्ध संगीति का आयोजन किया। कनिष्क कला और संस्कृत साहित्य का संरक्षक था। कनिष्क की राजसभा में पाश्र्व, वसुमित्र और अश्वघोष जैसे बौद्ध दार्शनिक विद्यमान थे। नागार्जुन और चरक भी (चिकित्सक) कनिष्क के राजदरबार में थे।
• कनिष्क के बाद कुषाण साम्राज्य का पतन प्रारंभ हुआ। उसका उत्तराधिकारी हुविष्क के पश्चात् कनिष्क द्वितीय शासक बना जिसने ’सीजर’ की उपाधि ग्रहण की। कुषाण वंश का अंतिम शासक वासुदेव था जिसने अपना नाम भारतीय नाम पर रख लिया। वासुदेव शैव मतानुयायी था। इसके सिक्कों पर शिव के साथ गज की आकृति मिली हैं।
[01/12, 8:26 AM] Raj Kumar: #भारत_के_सभी_राष्ट्रपतियों_की_सूची_कार्यकाल
#एवं_उनका_राजनीतिक_सफर
राष्ट्रपति को भारत में प्रथम नागरिक माना जाता है. यह देश का सर्वोच्च संवैधानिक पद है. निर्वाचक मंडल भारत के राष्ट्रपति का चुनाव करता है. राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के बिना भारत में कोई भी कानून लागू नहीं हो सकता है. इस लेख के माध्यम से अब तक जितने राष्ट्रपति चुने गए है उनकी सूची दी जा रही है और साथ ही उनसे जुड़े कुछ महत्वपूर्ण तथ्यों का विवरण दिया जा रहा है.
राष्ट्रपति का चुनाव संसद और राज्य के विधानमंडल के चुने हुए प्रतिनिधियों द्वारा किया जाता हैं. निर्वाचक मंडल भारत के राष्ट्रपति का चुनाव करता है और इनके सदस्यों का प्रतिनिधित्व अनुपातिक होता है. उनका वोट सिंगल ट्रांसफीरेबल होता है और उनकी दूसरी पसंद की भी गिनती होती है. राष्ट्रपति का कार्यकाल 5 वर्ष का होता है और राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के बिना भारत में कोई भी कानून लागू नहीं हो सकता है.
1. #डॉ_राजेन्द्र_प्रसाद
भारत के एकमात्र राष्ट्रपति थे, जिन्होंने दो कार्यकालों तक राष्ट्रपति पद पर कार्य किया. वे संविधान सभा के अध्यक्ष भी थे और भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन के प्रमुख नेता. उनको 1962 में भारत रत्न दिया गया था.
2. #डॉ_सर्वपल्ली_राधाकृष्णन
डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन का जन्म 5 सितम्बर 1888 को हुआ था और इसी दिन को शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाता है. उनको 1954 में भारत रत्न दिया गया था।
3. #डॉ_जाकिर_हुसैन
डॉ जाकिर हुसैन भारत के पहले मुस्लिम राष्ट्रपति बनें और इनकी मृत्यु पद पर रहते ही हुई थी. तात्कालिक उपराष्ट्रपती वी.वी गीरि को कार्यवाहक राष्ट्रपति बनाया गया था. उसके बाद सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश मोहम्मद हिदायतुल्लाह 20 जुलाई 1969 से 24 अगस्त 1969 तक कार्यवाहक राष्ट्रपति बने. यह भारत के सबसे प्रसिद्ध तबला वादक थे.
मोहम्मद हिदायतुल्लाह को 2002 में भारत सरकार द्वारा कला के क्षेत्र में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था. इनको भारत में शिक्षा की क्रांति लाने के लिए भी याद किया जाता है. इनके नेतृत्व में राष्ट्रीय मुस्लिम विश्वविद्यालय जामिया मिलिया इस्लामिया स्थापित किया गया था.
4. #वी_वी_गिरि
वी. वी गिरी भारत के चौथे राष्ट्रपति थे. इनका पूरा नाम वराहगिरी वेंकटगिरी है. इनके समय में दुसरे चक्र की मतगणना करनी पड़ी थी. यह पहले भारत के कार्यवाहक राष्ट्रपति रहे थे. 1975 में उनको भारत रत्न से सम्मानित किया गया था.
5. #फखरुद्दीन_अली_अहमद
फखरुद्दीन अली अहमद भारत के पांचवे राष्ट्रपति थे. दुसरे राष्ट्रपति जिनकी मृत्यु राष्ट्रपति के पद पर ही हो गई थी. बी.डी जत्ती को कार्यवाहक राष्ट्रपति बनाया गया था.
6. #नीलम_संजीव_रेड्डी
भारत के छठे राष्ट्रपति बने और आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री भी रहे हैं. वे भारत के ऐसे राष्ट्रपति थे जिन्हें राष्ट्रपति के उम्मीदवार होते हुए प्रथम बार विफलता प्राप्त हुई और दूसरी बार उम्मीदवार बनाए जाने के बाद वह राष्ट्रपति पद पर निर्वाचित हुए थे.
7. #ज्ञानी_जैल_सिंह
राष्ट्रपति बनने से पहले वे पंजाब के मुख्यमंत्री और केंद्र में भी मंत्री रहे थे. भारतीय डाक घर से संबंधी विधेयक पर उन्होंने पॉकेट वीटो का भी प्रयोग किया था. उनके राष्ट्रपति कार्यकाल में बहुत सी घटनाये घटी जैसे ऑपरेशन ब्लू स्टार, इंदिरा गाँधी की हत्या और 1984 में सिख विरोधी दंगा.
8. #आर_वेंकटरमण
आर. वेंकटरमण 1984 से 87 तक भारत के उपराष्ट्रपति रहे थे. वे एक भारतीय वकील, स्वतंत्रता संग्रामी और महान राजनेता थे. उन्होंने अपने राष्ट्रपति काल में सर्वाधिक प्रधानमंत्री को उनकी पद की शपथ दिलाई थी.
9. #डॉ_शंकर_दयाल_शर्मा
वे अपने राष्ट्रपति पद से पहले, भारत के आठवें उप राष्ट्रपति थे. 1952 से 56 तक वे भोपाल के मुख्य मंत्री रहे थे और 1956 से 67 तक कैबिनेट मिनिस्टर. इंटरनेशनल बार एसोसिएशन ने उनको लीगल प्रोफेशन में बहु-उपलब्धियों के कारण ‘लिविंग लीजेंड ऑफ़ लॉ अवार्ड ऑफ़ रिकग्निशन’ दिया था.
10. #के_आर_नारायणन
के. आर. नारायणन भारत के प्रथम दलित राष्ट्रपति तथा प्रथम मलयाली व्यक्ति थे जिन्हें देश का सर्वोच्च पद प्राप्त हुआ था. वे लोकसभा चुनाव मतदान करने वाले तथा राज्य की विधानसभा को सम्बोधित करने वाले पहले राष्ट्रपति थे.
11. #डॉ_ए_पी_जे_अब्दुल_कलाम
डॉ ए. पी. जे. अब्दुल कलाम भारत के मिसाईल मेन नाम से भी जाने जाते हैं. वे पहले वैज्ञानिक थे जिन्होंने राष्ट्रपति पद को संभाला और भारत के पहले राष्ट्रपति जो सर्वाधिक मतों से जीते थे. उनके निर्देशन में रोहिणी-1 उपग्रह, अग्नि और पृथ्वी मिसाइलो का सफल प्रक्षेपण किया गया था. यहा तक कि 1974 एवं 1998 में भारत के परमाणु परीक्षण में उनका महत्वपूर्ण योगदान रहा था. 1997 में उन्हें भारत रत्न से सम्मानित किया गया था.
12. #श्रीमती_प्रतिभा_सिंह_पाटिल
वह राष्ट्रपति बनने से पहले राजस्थान की राज्यपाल रहीं थी. 1962 से 85 तक वह पांच बार महाराष्ट्र की विधानसभा की सदस्य रही और 1991 में लोकसभा के लिए अमरावती से चुनी गई थी. इतना ही नहीं वह सुखोई विमान उड़ाने वाली पहली महिला राष्ट्रपति भी हैं.
13. #प्रणब_मुखर्जी
प्रणब मुखर्जी राष्ट्रपति चुनाव लड़ने से पहले केंद्र सरकार में वित्त मंत्री के पद पर थे. उनको 1997 में सर्वश्रेष्ठ सांसद का पुरस्कार एवं 2008 में भारत का दूसरा सबसे बड़ा असैनिक सम्मान पद्म विभूषण प्रदान किया गया था.
14. #राम_नाथ_कोविंद
राम नाथ कोविंद का जन्म 1 अक्टूबर, 1945 को उत्तर प्रदेश, भारत में हुआ था. वह एक वकील और राजनेता हैं. वे भारत के 14वें और वर्तमान राष्ट्रपति हैं. राम नाथ कोविंद 25 जुलाई, 2017 को राष्ट्रपति बने और भारतीय जनता पार्टी के सदस्य रहे. राष्ट्रपति बनने से पहले वे बिहार के पूर्व गवर्नर थे. राजनीतिक समस्याओं के प्रति उनके दृष्टिकोण ने उन्हें राजनीतिक स्पेक्ट्रम में प्रशंसा दिलाई. एक राज्यपाल के रूप में, उनकी उपलब्धियां विश्वविद्यालयों में भ्रष्टाचार की जांच के लिए न्यायिक आयोग का निर्माण करना था.
[01/12, 8:26 AM] Raj Kumar: #भारत_में_महत्वपूर्ण_समितियों_और_आयोगों
#की_सूची
भारत में विभिन्न क्षेत्रों में कई समितियाँ और आयोग बने हैं. इन समितियों और आयोगों की सिफारिशों के आधार पर हमारे देश में कई सुधार हुए हैं. यह देखा गया है कि इन समितियों और आयोगों के आधार पर परीक्षा में कई प्रश्न पूछे जाते हैं. इसलिए प्रतियोगी छात्रों की मदद के लिए हमने यह आर्टिकल भारत में गठित समितियों और आयोगों और उनके कार्यक्षेत्रों के आधार पर बनाया है.
1. अभिजीत सेन समिति (2002): दीर्घकालिक खाद्य नीति
2. आबिद हुसैन समिति: लघु उद्योग पर
3. अजीत कुमार समिति: सेना वेतनमान
4. अथरेया समिति: आईडीबीआई का पुनर्गठन
5. बेसल समिति: बैंकिंग पर्यवेक्षण
6. भूरेलाल समिति: मोटर वाहन कर में वृद्धि
7. बिमल जालान समिति: पूंजी बाजार बुनियादी ढांचा संस्थानों (MII) के कामकाज पर रिपोर्ट
8. बिमल जालान कमेटी (2018): आरबीआई के पास मौजूद कैपिटल रिजर्व की समीक्षा के लिए
9. सी. बाबू राजीव समिति: शिप एक्ट 1908 और शिप ट्रस्ट अधिनियम 1963 में सुधार
10. सी. रंगराजन समिति (2012): गरीबी रेखा के निर्धारण के लिए
11. चंद्र शेखर समिति: वेंचर कैपिटल
12. चंद्रात्रे समिति की रिपोर्ट (1997): सुरक्षा विश्लेषण और निवेश प्रबंधन
13. K.B. कोर कमेटी: कैश क्रेडिट सिस्टम के संचालन की समीक्षा करने के लिए
14. दवे समिति (2000): असंगठित क्षेत्र के लिए पेंशन योजना
15. दीपक पारेख समिति: पीपीपी मॉडल के माध्यम से बुनियादी ढांचे के लिए वित्त की व्यवस्था
16. सुमा वर्मा समिति (2006): बैंकिंग लोकपाल
17. जी. वी. रामकृष्ण समिति: विनिवेश पर
18. गोइपोरिया समिति: प्राथमिक (शहरी) सहकारी बैंकों में ग्राहक सेवा में सुधार
19. हनुमंत राव समिति: उर्वरक
20. जे. आर. वर्मा समिति: करंट अकाउंट कैरी फॉरवर्ड प्रैक्टिस
21. जानकीरमण समिति: प्रतिभूति लेनदेन
22. जे. जे. ईरानी समिति: कंपनी कानून सुधार
23. के. सी. चक्रवर्ती समिति: भारत में क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की वित्तीय स्थिति का विश्लेषण करने के लिए
24. के. कस्तूरीरंगन (2017): राष्ट्रीय शिक्षा नीति का मसौदा तैयार करने के लिए
25. केलकर समिति (2002): कर संरचना सुधार
26. कोठारी आयोग (1964): भारत में शैक्षिक क्षेत्र के सभी पहलुओं की जांच करना
27. खान वर्किंग ग्रुप: वित्त विकास संस्थान
28. खुसरो समिति: कृषि ऋण प्रणाली
29. कुमारमंगलम बिड़ला रिपोर्ट: कॉरपोरेट गवर्नेंस
30. एमबी शाह कमेटी: विदेशों में जमा काले धन की जांच के लिए
31. महाजन समिति (1997): चीनी उद्योग
32. मालेगाम समिति: प्राथमिक बाजार में सुधार और यूटीआई का पुनर्गठन
33. मल्होत्रा समिति: बीमा क्षेत्र की व्यापक रूपरेखा
34. मराठे समिति: शहरी सहकारी बैंकों के विकास में बाधाओं को दूर करना
35. माशेलकर समिति (2002): ऑटो ईंधन नीति
36. मैकिन्से रिपोर्ट: एसबीआई के साथ 7 एसोसिएट बैंकों का विलय
37. मीरा सेठ समिति: हथकरघा का विकास
38. नचिकेत मोर समिति: छोटे व्यवसायों और कम आय वाले परिवारों को वित्तीय सेवा से जोड़ना
39. नरसिम्हन समिति (1991): बैंकिंग क्षेत्र सुधार
40. एन.एन. वोहरा समिति (1993): संगठित अपराधियों, माफिया और नेताओं के बीच के संबंधों की जांच के लिए
41. पारेख समिति: इन्फ्रास्ट्रक्चर फाइनेंसिंग
42. पर्सी मिस्त्री समिति: मुंबई को अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय केंद्र बनाना
43. पी. जे. नायक समिति: बैंकों के बोर्ड के शासन का मूल्यांकन करने और निदेशकों, साथ ही साथ उनके कार्यकाल का चयन करने के लिए मानदंडों की जांच करना
44. प्रसाद पैनल: अंतर्राष्ट्रीय व्यापार और सेवाएँ
45. राधा कृष्णन आयोग (1948): विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की स्थापना
46. आर. वी. गुप्ता समिति: लघु बचत
47. राजा चेल्या समिति: कर सुधार
48. रेखी समिति: अप्रत्यक्ष कर
49. आर.वी. गुप्ता समिति: कृषि ऋण
50. सरकारिया आयोग: केंद्र-राज्य संबंध
51. के. संथानम समिति: सीबीआई की स्थापना
52. एस. पी. तलवार समिति: कमजोर सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक का पुनर्गठन
53. सुरेश तेंदुलकर समिति: गरीबी रेखा को पुनर्परिभाषित करना और उसकी गणना सूत्र
54. सप्त ऋषि समिति (जुलाई 2002): घरेलू चाय उद्योग का विकास
55. शाह समिति: गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियों (NFBCs) से संबंधित सुधार
56. शिवरामन समिति (1979): नाबार्ड की स्थापना
57. एस.एन. वर्मा समिति (1999): वाणिज्यिक बैंकों का पुनर्गठन
58. स्वामीनाथन आयोग (2004): किसानों के सामने आने वाली समस्याओं का पता लगाना
59. सुखमय चक्रवर्ती समिति (1982): भारतीय मौद्रिक प्रणाली के कामकाज का आकलन करने के लिए
60. टंडन समिति: बैंकों द्वारा कार्यशील पूंजी वित्तपोषण की प्रणाली
61. तारापोर समिति (1997): पूंजी खाता परिवर्तनीयता पर रिपोर्ट
62. उदेश कोहली समिति: विद्युत क्षेत्र में फण्ड की आवश्यकता का विश्लेषण
63. यू.के. शर्मा समिति: आरआरबी में नाबार्ड की भूमिका
64. वाघुल समिति: भारत में मुद्रा बाजार
65. वासुदेव समिति: एनबीएफसी सेक्टर में सुधार
66. वाई. बी. रेड्डी समिति (2001): आयकर छूट की समीक्षा
67. न्यायमूर्ति ए.के. माथुर आयोग: 7 वां वेतन आयोग
68. बलवंतराय मेहता समिति (1957): पंचायती राज संस्थाएँ
भारत में विभिन्न क्षेत्रों में कई समितियाँ और आयोग बने हैं. इन समितियों की सिफारिशों के आधार पर हमारे देश में कई सुधार हुए हैं.विगत वर्षों में ऐसा देखा गया है कि इन समितियों और आयोगों पर आधारित कई प्रश्न परीक्षा में पूछे गये हैं. इसलिए छात्रों को इन समितियों और आयोगों के नाम और उनके सम्बद्ध क्षेत्र को ध्यान से याद करना चाहिए
[01/12, 8:26 AM] Raj Kumar: #प्राचीन_भारत_का_इतिहास :
#मौर्य_युग_के_पूर्व_विदेशी_आक्रमण
#ईरानी_फारसी_आक्रमण
पूर्वोत्तर भारत में धीरे-धीरे छोटे गणराज्यों और रियासतों का विलय मगध साम्राज्य के साथ कर दिया था। लेकिन उत्तर-पश्चिम भारत में विदेशी आक्रमण से क्षेत्र की रक्षा करने keके लिए कोई भी मजबूत साम्राज्य नहीं था। यह क्षेत्र धनवान भी था और इसमें हिंदू कुश के माध्यम से आसानी से प्रवेश किया जा सकता था।
518 ई.पू. में ईरानी आक्रमण और 326 ई.पू. में मकदूनियाई आक्रमण के रूप में भारतीय उप-महाद्वीप के दो प्रमुख विदेशी आक्रमण हुए थे।
आर्कमेनियन शासक डारियस प्रथम ने 518 ईसा पूर्व में भारत के उत्तर-पश्चिम सीमांत पर आक्रमण किया और राजनीतिक एकता के अभाव का लाभ लेते हुए पंजाब पर आक्रमण कर दिया।
#ईरानी_आक्रमण_के_प्रभाव
आक्रमण से इंडो-ईरानी व्यापार और वाणिज्य में वृद्धि हुई। ईरानियों ने भारतीयों के लिए एक नई लेखन लिपि की शुरूआत की जिस खरोष्ठी के रूप में जाना जाता था।
#मकदूनियाई_सिकंदर_के_आक्रमण
सिकंदर 20 साल की उम्र में अपने पिता की जगह लेते हुए मैसेडोनिया के सिंहासन आसीन हुआ। उसका सपना विश्व विजेता बनने का था और 326 ईसा पूर्व भारत पर आक्रमण करने से पहले उसने कई क्षेत्रों पर विजय प्राप्त कर ली थी। अम्भी (तक्षशिला के शासक) और अभिसार ने उसके आगे आत्मसमर्पण कर दिया था लेकिन पंजाब के शासक ने ऐसा करने से मना कर दिया था।
सिकंदर और पोरस की सेनाओं के बीच झेलम नदी के पास शुरू हुए युद्ध को हेडास्पेस के युद्ध के नाम से जाना जाता है। हांलाकि इस युद्ध में पोरस हार गया था लेकिन सिकन्दर ने उसका उदारतापूर्वक व्यवहार किया था।
हालांकि, यह जीत भारत में उसकी आखिरी बड़ी जीत साबित हुई क्योंकि उसकी सेना ने इसके बाद आगे जाने से इनकार कर दिया था। वे सिकंदर के अभियान के साथ जाने से काफी थक गए थे और वापस घर लौटना चाहते थे। इसके अलावा, मगधियन साम्राज्य (नंदा शासक) की ताकत से भी वो भयभीत थे।
विजय प्राप्त प्रदेशों के लिए आवश्यक प्रशासनिक व्यवस्था करने के बाद सिकंदर 325 ईसा पूर्व वापस चले गया। 33 वर्ष की आयु में जब वह बेबीलोन में था तब उसका निधन हो गया।
#आक्रमण_के_प्रभाव
इस आक्रमण से भारत में राजनीतिक एकता की जरूरत महसूस की गयी जिससे चंद्रगुप्त मौर्य और उसके वंश का उदय हुआ है जिन्होंनो अपने शासन के दौरान भारत को एकजुट किया।
सिकंदर के आक्रमण के परिणामस्वरूप, भारत में इंडो-बैक्टेरियन और इंडो-पर्थिनयन राज्य स्थापित किये गये जिसने भारतीय वास्तुकला, सिक्कों और खगोल विज्ञान को प्रभावित किया था।
#निष्कर्ष:
व्यापार, वाणिज्य, कला और संस्कृति के विकास साथ विदेशी आक्रमणों ने भारतीय उपमहाद्वीप के राजनीतिक एकीकरण में मदद की।
[01/12, 8:26 AM] Raj Kumar: #भारत_की_मुख्य_योजनाएं_जिन्हें_विश्व_बैंक
#की_सहायता_प्राप्त_है?
2 फरवरी, 2018 को भारत सरकार और विश्व बैंक ने वाराणसी से हल्दिया के बीच गंगा नदी पर अपना पहला आधुनिक अंतर्देशीय जल परिवहन विकसित करने के लिए $ 375 मिलियन के ऋण समझौते पर हस्ताक्षर किए. इस लेख में द्वारा भारत में विश्व बैंक की सहायता से चलायी जा रही कुछ महत्वपूर्ण योजनाओं के बारे में बताया गया है.
विश्व बैंक अपने सदस्य देशों को विकास परियोजनाएं चलाने के लिए IDA के माध्यम से सस्ती दरों पर लोन मुहैया कराता है. वर्ष 2017 में भारत ने विश्व बैंक से 1776 मिलियन डॉलर का कर्ज लिया था इस मामले में चीन का नंबर पहला है क्योंकि उसने 2420 मिलियन डॉलर का कर्ज लिया हुआ है. वर्तमान में विश्व बैंक, भारत के 783 से ज्यादा प्रोजेक्ट्स में आर्थिक सहायता दे रहा है. इस लेख में द्वारा भारत में विश्व बैंक की सहायता से चलायी जा रही कुछ महत्वपूर्ण योजनाओं के बारे में बताया गया है.
आइये कुछ योजनाओं के बारे में जानते हैं;
1. #कौशल_भारत_मिशन_ऑपरेशन
स्वीकृति तिथि : 23 जून, 2017
समाप्ति तिथि : 31 मार्च, 2023 को
कुल परियोजना लागत : यूएस $ 3188.88 मिलियन
विश्व बैंक सहायता: यूएस $ 250 मिलियन
उधारकर्ता: आर्थिक मामलों का विभाग, मंत्रालय
कार्यान्वयन एजेंसी: कौशल विकास और उद्यमिता मंत्रालय
2. #स्वच्छ_भारत_मिशन
स्वीकृति तिथि : 15 दिसंबर, 2015
समाप्ति तिथि : 31 जनवरी, 2021
कुल परियोजना लागत : यूएस $ 22000 मिलियन
विश्व बैंक सहायता: यूएस $ 1500 मिलियन अमरीकी डालर
उधारकर्ता: भारत सरकार
कार्यान्वयन एजेंसी: पेयजल और स्वच्छता मंत्रालय
3. #राष्ट्रीय_गंगा_नदी_बेसिन_परियोजना
स्वीकृति तिथि : 31 मई, 2011
समाप्ति तिथि : 31 दिसंबर, 2019
कुल परियोजना लागत : यूएस $ 1556 मिलियन
विश्व बैंक सहायता: यूएस $1000 मिलियन अमरीकी डालर
उधारकर्ता: भारत सरकार
कार्यान्वयन एजेंसी: पर्यावरण और वन मंत्रालय
किस व्यक्ति के मरने पर कई देशों की करेंसी बदल जाएगी?
4. #प्रधानमन्त्री_ग्रामीण_सड़क_परियोजना
स्वीकृति तिथि : 20 दिसंबर, 2010
समाप्ति तिथि : 15 दिसंबर, 2020
कुल परियोजना लागत : यूएस $ 1500 मिलियन
विश्व बैंक सहायता: यूएस $ 1500 मिलियन अमरीकी डालर
उधारकर्ता: भारत सरकार
कार्यान्वयन एजेंसी: राष्ट्रीय ग्रामीण मार्ग विकास एजेंसी
5. #राष्ट्रीय_ग्रामीण_आजीविका_परियोजना
स्वीकृति तिथि : 5 जुलाई, 2011
समाप्ति तिथि : 30 जून, 2023
कुल परियोजना लागत : यूएस $ 1171 मिलियन
विश्व बैंक सहायता: यूएस $ 1000 मिलियन अमरीकी डालर
उधारकर्ता: भारत सरकार
कार्यान्वयन एजेंसी: ग्रामीण विकास मंत्रालय, भारत सरकार
6. #समन्वित_बाल_विकास_सेवाएं (ICDS)
स्वीकृति तिथि : 6 सितंबर, 2012
समाप्ति तिथि : 30 अगस्त, 2022
कुल परियोजना लागत : यूएस $ 151.50 मिलियन
विश्व बैंक सहायता: $ 106 मिलियन अमरीकी डालर
उधारकर्ता: भारत सरकार
कार्यान्वयन एजेंसी: भारत सरकार
7. #राष्ट्रीय_एड्स_नियंत्रण_सहायता_परियोजना
स्वीकृति तिथि : 1 मई, 2013
समाप्ति तिथि : 31 दिसंबर, 2019
कुल परियोजना लागत : यूएस $ 510 मिलियन
विश्व बैंक सहायता: यूएस $ 255 मिलियन अमरीकी डालर
उधारकर्ता: भारत सरकार
कार्यान्वयन एजेंसी: राष्ट्रीय एड्स नियंत्रण संगठन
8. #गरीबों_के_लिए_आवास_योजना
स्वीकृति तिथि : 14 मई, 2013
समाप्ति तिथि : 31 दिसंबर, 2018
कुल परियोजना लागत : यूएस $ 100 मिलियन
विश्व बैंक सहायता: यूएस $ 100 मिलियन
उधारकर्ता: भारत सरकार
कार्यान्वयन एजेंसी: राष्ट्रीय आवास बैंक
9. #MSME_विकास_नवाचार_और_समावेशी
#वित्त_परियोजना
स्वीकृति तिथि : 24 फरवरी, 2015
समाप्ति तिथि : 31 मार्च, 2020
कुल परियोजना लागत : यूएस $ 550 मिलियन
विश्व बैंक सहायता: यूएस $ 550 मिलियन
उधारकर्ता: सिडबी
कार्यान्वयन एजेंसी: सिडबी
10. #राष्ट्रीय_जल_विज्ञान_परियोजना
स्वीकृति तिथि : 15 मार्च, 2017
समाप्ति तिथि : 31 मार्च, 2025
कुल परियोजना लागत : यूएस $ 350 मिलि
विश्व बैंक सहायता: यूएस $ 175 मिलियन अमरीकी डालर
उधारकर्ता: आर्थिक मामले विभाग, भारत सरकार
कार्यान्वयन एजेंसी: जल संसाधन मंत्रालय, भारत सरकार
11. #उत्तर_प्रदेश_के_गरीबों_के_लिए_पर्यटन
#विकास_परियोजना
स्वीकृति तिथि : 20 दिसंबर, 2017
समाप्ति तिथि : 30 दिसंबर, 2022
कुल परियोजना लागत : यूएस $ 57.14 मिलियन
विश्व बैंक सहायता: यूएस $ 40 मिलियन
उधारकर्ता: भारत सरकार
कार्यान्वयन एजेंसी: उत्तर प्रदेश पर्यटन विभाग
12. #पूर्वी_समर्पित_फ्रेट_कॉरिडोर_3
स्वीकृति तिथि : 30 जून, 2015
समाप्ति तिथि : 30 नवंबर, 2021
कुल परियोजना लागत : यूएस $ 1107 मिलियन
विश्व बैंक सहायता: यूएस $ 650 मिलियन
उधारकर्ता: समर्पित फ्रेट कॉरिडोर (लिमी), भारत
कार्यान्वयन एजेंसी: N/A
13. #अटल_भूजल_योजना (अभय)
स्वीकृति तिथि : 5 जून, 2018
समाप्ति तिथि : N/A
कुल परियोजना लागत : यूएस $ 1000 मिलियन
विश्व बैंक सहायता: यूएस $ 500 मिलियन अमरीकी डालर
उधारकर्ता: आर्थिक मामले विभाग, वित्त मंत्रालय
कार्यान्वयन एजेंसी: जल संसाधन, नदी विकास और गंगा संरक्षण मंत्रालय
ऊपर लिखी गयी योजनाओं से स्पष्ट हो जाता है कि विश्व बैंक भारत की विकास योजनाओं में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है. हालाँकि इन सभी प्रोजेक्ट्स की पूरी लागत विश्व बैंक से प्राप्त नहीं हो रही है लेकिन फिर भी इस दिशा में विश्व बैंक का योगदान सराहनीय अवश्य है.
[01/12, 8:26 AM] Raj Kumar: #प्राचीन_भारत_का_इतिहास :
#कनिष्क_कुषाण_राजवंश_78_ईस्वी_से_103_ईस्वी
कनिष्क कुषाण साम्राज्य का सबसे शक्तिशाली शासक था। उसके साम्राज्य की राजधानी पुरूषपुर (पेशावर) थी। उसके शासन के दौरान, कुषाण साम्राज्य उज्बेकिस्तान, ताजिकिस्तान से लेकर मथुरा और कश्मीर तक फैल गया था। रबातक शिलालेख से प्राप्त जानकारी के अनुसार कनिष्क विम कदफिसेस का उत्तराधिकारी था जिसने कुषाण राजाओं की एक प्रभावशाली वंशावली स्थापित की।
#कनिष्क_साम्राज्य_का_विस्तार:
कनिष्क साम्राज्य निश्चित रूप से बहुत बड़ा था। यह दक्षिणी उज्बेकिस्तान और ताजिकिस्तान से उत्तर पश्चिम में अमू दरिया के उत्तर (ऑक्सस) से पश्चिम पाकिस्तान और उत्तरी भारत के साथ-साथ दक्षिण पूर्व में मथुरा (रबातक शिलालेख में यहां तक दावा किया गया है कि उसने पाटलिपुत्र और श्री चंपा को संघटित कर लिया था) तक फैल गया था और कश्मीर को भी अपने अधिकार क्षेत्र में शामिल कर लिया था जहां कनिष्कपुर नाम का एक शहर था। उसके नाम से बारामूला दर्रा ज्यादा दूर नहीं था जिसमें अभी भी एक बड़े स्तूप का आधार मौजूद है।
#कनिष्क_से_संबंधित_कुछ_महत्वपूर्ण_तथ्य_निम्न #प्रकार_से_हैं:
कनिष्क के शासनकाल के दौरान बौद्ध धर्म महायान और हीनयान में विभाजित किया गया था।
वह 78 ईस्वी शक युग का संस्थापक था।
उसने पाटलिपुत्र पर आक्रमण किया था और पुरूषपुर से बौद्ध भिक्षु अश्वघोष को ले लिया था।
चरक और सुश्रुत कनिष्क के दरबार में रहते थे।
कनिष्क बौद्ध धर्म का संरक्षक था और उसने 78 ईस्वी में कश्मीर के कुंडलवन में चौथी बौद्ध परिषद बुलायी थी।
परिषद की अध्यक्षता वासुमित्र द्वारा की गयी थी और इस परिषद के दौरान बौद्ध ग्रंथों का संग्रह लाया गया था और टिप्पणियों को ताम्र पत्र पर उत्कीर्ण किया गया था।
कनिष्क के दरबार में रहने वाले विद्वानों में वासुमित्र, अश्वघोष, नागार्जुन, चरक और पार्श्व शामिल थे
कनिष्क ने चीन में हान राजवंश के राजा हान हो-ती के खिलाफ युद्ध किया। कनिष्क ने दूसरे प्रयास में चीनी राजा को पराजित किया था।
[01/12, 8:26 AM] Raj Kumar: #पंचायतों_से_संबंधित_महत्वपूर्ण_संवैधानिक_प्रावधान:
*****************************************
भारत के संविधान के नीति निदेशक तत्वों के अंतर्गत अनुच्छेद 40 में यह निर्देश है कि "राज्य ग्राम पंचायतों का संगठन करेगा और उनको एसी शक्तियाँ और प्राधिकार प्रदान करेगा जो उन्हें स्वायत्त शासन की इकाइयों के रूप में कार्य करने के लिए आवश्यक हों. इस निर्देश के अनुसरण में भारत सरकार ने 73वें संविधान (संशोधन) अधिनियम, 1992 द्वारा पंचायतों को संवैधानिक दर्जा प्रदान किया और भाग 9 में इसके लिए उपबंध किया है.
संविधान के भाग 9 में अनुच्छेद 243 के अंतर्गत त्रिस्तरीय पंचायती राज व्यवस्था के बारे में उपबंध किया गया है. इस पंचायती राज व्यवस्था के महत्वपूर्ण प्रावधानों का विवरण निम्नानुसार है.
#ग्राम_सभा:
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अनुच्छेद 243 में दी गयी परिभाषा के अनुसार किसी ग्राम पंचायत के पंचायती क्षेत्र में आने वाले गाँव/गाँवों में जितने लोग निर्वाचक नामावली में रजिस्ट्रीकृत हैं, उनका समूह ही ग्राम सभा कहलाता है. राज्य सरकार ग्राम सभा को विभिन्न शक्तियाँ और प्राधिकार प्रदान कर सकती है. ग्राम सभा, ग्राम पंचायत से भिन्न होती है और वास्तव में यही ग्राम पंचायत के सदस्यों का निर्वाचन करने वाला निर्वाचक मंडल होती है.
#ग्राम_पंचायत_और_तीनों_स्तरों_की_पंचायतों_की #संरचना:
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अनुच्छेद 242ख में तीन स्तरीय पंचायतों की स्थापना का प्रावधान है. अर्थात प्रत्येक राज्य में ग्राम, मध्यवर्ती और जिला स्तर पर पंचायतें गठित की जायेंगी. अलग-अलग राज्यों में इनके नामों में भिन्नता भी है. जिस राज्य की जनसँख्या 20 लाख से अधिक नहीं है वहाँ मध्यवर्ती स्तर की पंचायत का गठन नहीं किया जा सकता.
किसी भी स्तर की पंचायत में स्थान प्रत्यक्ष निर्वाचन के द्वारा भरे जाते हैं और इसके लिए उस पंचायत क्षेत्र को उतने निर्वाचन क्षेत्रों में विभाजित किया जाता है जितने उस पंचायत में स्थान होते हैं. पंचायत का सदस्य चुने जाने ले लिए न्यूनतम आयु 21 वर्ष होना चाहिए. प्रत्यक्ष निर्वाचन के अतिरिक्त कुछ स्थान, यदि राज्य का विधानमंडल इस संबंध में उपबंध करता है तो, निम्न प्रकार से भरे जा सकते हैं, अर्थात -
1. ग्राम पंचायतों के मुखिया, मध्यवर्ती पंचायत के सदस्य हो सकेंगे और जहाँ मध्यवर्ती पंचायतें नहीं हैं वहाँ वो जिला पंचायत के सदस्य हो सकेंगे.
2. मध्यवर्ती पंचायत के मुखिया/अध्यक्ष, जिला पंचायत के सदस्य हो सकेंगे.
3. लोक सभा के सदस्य और विधानसभा के सदस्य भी उन मध्यवर्ती और जिला पंचायतों के सदस्य हो सकेंगे जो उनके संसदीय या विधानसभा निर्वाचन क्षेत्र के भीतर पूर्णत: या भागत: आती हैं.
4. राज्य सभा और राज्य की विधानपरिषद के सदस्य उन मध्यवर्ती और जिला पंचायत के सदस्य हो सकेंगे जिनके क्षेत्रों में वे निर्वाचक के रूप में रजिस्ट्रीकृत हैं.
पंचायतों के अधिवेशन में सभी सदस्यों को मत देने का अधिकार होता है, चाहे वे निर्वाचित हों या किसी अन्य तरीके से सदस्य बने हों.
ग्राम पंचायतों में अध्यक्ष का निर्वाचन, राज्य सरकार द्वारा तय किये गए उपबंधों के अनुसार किया जाता है, जबकि मध्यवर्ती और जिला स्तर की पंचायतों में अध्यक्ष का निर्वाचन उनके सभी सदस्यों द्वारा अपने में से किया जाता है.
#पंचायतों_में_स्थानों_का_आरक्षण:
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प्रत्येक स्तर की पंचायत में अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और महिलाओं के लिए स्थान आरक्षित होते हैं. यदि राज्य सरकार को आवश्यक लगे तो वह अन्य पिछड़े वर्गों के लिए भी स्थान आरक्षित कर सकती है.
पंचायत के कुल स्थानों में से, अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए उसी अनुपात में स्थान आरक्षित होते हैं जिस अनुपात में उस पंचायत क्षेत्र की जनसंख्या में उनकी संख्या है. उनके लिए आरक्षित इन स्थानों में से भी एक- तिहाई स्थान इन्हीं वर्गों की स्त्रियों के लिए आरक्षित होते हैं.
इसके अतिरिक्त, पंचायत के कुल स्थानों में से एक-तिहाई स्थान स्त्रियों के लिए आरक्षित होते हैं, लेकिन ध्यान रहे की स्त्रियों के लिए आरक्षित इस एक-तिहाई की गणना करते समय इसमें SC/ST की स्त्रियों के लिए आरक्षित स्थानों को भी शामिल किया जाता हैं.
SC/ST और स्त्रियों के लिए आरक्षित ये स्थान पूरे पंचायत क्षेत्र में विभिन्न निर्वाचन क्षेत्रों को प्रत्येक निर्वाचन के दौरान चक्रीय क्रम में विभाजित किये जाते हैं.
प्रत्येक स्तर की पंचायतों में अध्यक्षों के पदों की कुल संख्या के भी एक-तिहाई पद स्त्रियों के लिए, और SC/ST के लिए जनसंख्या में उनके अनुपात के अनुसार आरक्षित रहते हैं. ये पद भी विभिन्न निर्वाचन क्षेत्रों को चक्रीय क्रम में आबंटित किये जाते हैं.
#पंचायतों_का_कार्यकाल:
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प्रत्येक पंचायत अपने प्रथम अधिवेशन की तारीख से पाँच वर्ष तक कार्य करती है और नयी पंचायत के लिए निर्वाचन इस कार्यकाल के समाप्त होने से पहले करा लिया जाता है.
लेकिन जहाँ कोई पंचायत अपना 5 साल का कार्यकाल समाप्त करने से पहले ही विघटित हो गयी हो वहाँ नयी पंचायत के लिए निर्वाचन इस प्रकार विघटन की तारीख से 6 महीने के अन्दर कराना होता है और इस प्रकार गठित नयी पंचायत, पिछली पंचायत के विघटन के बाद के बचे हुए कार्यकाल के लिए ही होती हैं.
परन्तु जहाँ किसी पंचायत का विघटन उस समय हुआ हो जब उसका कार्यकाल केवल 6 महीने का ही बचा हो, तब निर्वाचन इस बचे हुए कार्यकाल के लिए नहीं कराया जाता, अर्थात तब निर्वाचन के बाद गठित नयी पंचायत पाँच साल के लिए होती है, बशर्ते उसका बीच में ही किसी कारण विघटन न हो जाए.
#पंचायतों_की_शक्तियाँ_प्राधिकार_और_उत्तरदायित्व:
***************************************
राज्य का विधान मंडल पंचायतों को एसी शक्तियाँ और प्राधिकार प्रदान कर सकता है जो उन्हें स्वायत्त शासन की संस्थाओं के रूप में कार्य करने के लिए आवश्यक हैं. इसके अंतर्गत निन्मलिखित के संबंध में शक्तियाँ और उत्तरदायित्व शामिल होंगे, अर्थात -
1. आर्थिक विकास और सामजिक न्याय के लिए योजनायें बनाना, और
2. आर्थिक विकास और सामजिक न्याय की उन योजनाओं को कार्यान्वित करना जो उन्हें सौंपी जाएँ. इसके अंतर्गत 11वीं अनुसूची में शामिल विषयों से संबंधित योजनायें भी हैं. उल्लेखनीय है की 11वीं अनुसूची में कुल 29 विषय शामिल हैं.
उपरोक्त शक्तियों के अलावा राज्य सरकार पंचायतों को कुछ प्रकार के कर, शुल्क, पथकर, फीसें आदि भी लगाने, वसूलने और उन्हें खर्च करने का अधिकार प्रदान कर सकता है और राज्य की संचित निधि में से पंचायतों के लिए सहायता अनुदान का उपबंध कर सकता है.
#पंचायतों_के_लिए_वित्त_आयोग:
**********************************
अनुच्छेद 243झ में उपबंध है कि राज्य का राज्यपाल प्रत्येक पांचवें वर्ष की समाप्ति पर वित्त आयोग का गठन करेगा जो पंचायतों की वित्तीय स्थिति की जाँच-पड़ताल करता हैं. यह वित्त आयोग, इस बारे में सिफारिश करता है की राज्य द्वारा वसूले जाने वाले करों का राज्य सरकार और पंचायतों के बीच कैसे बंटवारा हो और जो कर पंचायतों को दिए जाने हैं वे पंचायतों के विभिन्न स्तरों के बीच कैसे विभाजित किये जाएँ. आयोग, राज्य की संचित निधि में से पंचायतों के लिए सहायता अनुदान दिए जाने के लिए सिद्दांतों के बारे में और पंचायतों की वित्तीय स्थिति सुधारने के लिए आवश्यक उपायों के बारे में भी सिफारिश करता है.
वित्त आयोग अपनी ये सिफारिशें राज्य के राज्यपाल को देता है और राज्यपाल इन सिफारिशों को राज्य के विधानमंडल के समक्ष विचार के लिए रखवाता हैं.
वित्त आयोग की संरचना, उसके सदस्यों की योग्यता और उनकी नियुक्ति रीति आदि का निर्धारण राज्य सरकार कानून बनाकर कर सकती है. आयोग को अपनी प्रक्रिया स्वयं निर्धारित करने की शक्ति होती है, और अपने कृत्यों के पालन में एसी अन्य शक्तियाँ होती हैं जो उसे राज्य सरकार विधि बनाकर प्रदान करे. यही वित्त आयोग नगरपालिकाओं के संबंध में भी इन्ही सभी कृत्यों का पालन करता है.
राज्य का विधान मंडल पंचायतों द्वारा लेखे रखे जाने और उन लेखाओं की संपरीक्षा करने के बारे में भी उपबंध कर सकता है.
#पंचायतों_के_लिए_निर्वाचन:
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पंचायतों के निर्वाचन के लिए निर्वाचन नामावली तैयार कराने और इन सभी निर्वाचनों के संचालन का अधीक्षण, निदेशन और नियंत्रण राज्य निर्वाचन आयोग में निहित होता है. राज्य निर्वाचन आयोग में एक राज्य निर्वाचन आयुक्त होता है जो राज्य के राज्यपाल द्वारा नियुक्त किया जाता है.
राज्य निर्वाचन आयुक्त की सेवा शर्तें और पदावधि राज्य के विधानमंडल की विधि के अनुसार राज्यपाल द्वारा निर्धारित की जाती है. लेकिन राज्य निर्वाचन आयुक्त को उसके पद से हटाने के आधार और रीति वही होती है जो उच्च न्यायालय के किसी न्यायाधीश के लिए हैं. राज्य निर्वाचन आयुक्त की सेवा शर्तों में उसकी नियुक्ति के बाद अलाभकारी परिवर्तन नहीं किया जा सकता.
#पंचायती_राज्य_व्यवस्था_का_विस्तार:
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पंचायती राज व्यवस्था के उपबंध संघराज्य क्षेत्रों को लागू होते हैं. किन्तु ये उपबंध अनुच्छेद 244 में उल्लिखित अनुसूचित क्षेत्रों और जनजाति क्षेत्रों में लागू नहीं होती. हालांकि संसद को इस उपबंध में कोई परिवर्तन करने की शक्ति है.
प्राचीन_भारत_का_इतिहास : #महाजनपद
#प्राचीन_भारत_का_इतिहास :
#महाजनपद
छठी शताब्दी ईसा पूर्व में कुछ साम्राज्यों के विकास में वृद्धि हुयी थी जो बाद में प्रमुख साम्राज्य बन गये और इन्हें महाजनपद या महान देश के नाम से जाना जाने लगा था। इन्होंने उत्तर पश्चिमी पाकिस्तान से पूर्वी बिहार तक तथा हिमालय के पहाड़ी क्षेत्रों से दक्षिण में गोदावरी नदी तक अपना विस्तार किया। आर्य यहां की सबसे प्रभावशाली जनजाति थी जिन्हें 'जनस' कहा जाता था। इससे जनपद शब्द की उतपत्ति हुयी थी जहां जन का अर्थ "लोग" और पद का अर्थ "पैर" होता था। जनपद वैदिक भारत के प्रमुख साम्राज्य थे। महाजनपदों में एक नये प्रकार का सामाजिक-राजनीतिक विकास हुआ था। महाजनपद विशिष्ट भौगोलिक क्षेत्रों में स्थित थे। 600 ईसा पूर्व से 300 ईसा पूर्व के दौरान भारतीय उप-महाद्वीपों में सोलह महाजनपद थे।
#उनके_नाम_थे:-
अंग
अश्मक
अवंती
छेदी
गांधार
कम्बोज
काशी
कौशल
कुरु
मगध
मल्ल
मत्स्य
पंचाल
सुरसेन
वज्जि
वत्स
#मगध_साम्राज्य:
मगध साम्राज्य ने 684 ईसा पूर्व से 320 ईसा पूर्व तक भारत में शासन किया।
इसका उल्लेख महाभारत और रामायण में भी किया गया है।
यह सोलह महाजनपदों में सबसे अधिक शक्तिशाली था।
साम्राज्य की स्थापना राजा बृहदरथ द्वारा की गयी थी।
राजगढ (राजगिर) मगध की राजधानी थी, लेकिन बाद में चौथी सदी ईसा पूर्व इसे पाटलिपुत्र में स्थानांतरित कर दिया गया था।
यहां लोहे का इस्तेमाल उपकरणों और हथियारों का निर्माण करने के लिए किया जाता था।
हाथी जंगल में पाये जाते थे जिनका इस्तेमाल सेना में किया जाता था।
गंगा और उसकी सहायक नदियों के तटीय मार्गों ने संचार को सस्ता और सुविधाजनक बना दिया था।
बिम्बिसार, अजातशत्रु और महापदम नंद जैसे क्रूर और महत्वाकांक्षी राजाओं की कुशल नौकरशाही द्वारा नीतियों के कार्यान्वयन से मगध समृद्ध बन गया था।
मगध का पहला राजा बिम्बिसार था जो हर्यंक वंश का था।
अवंती मगध का मुख्य प्रतिद्वंदी था, लेकिन बाद में एक गठबंधन में शामिल हो गया था।
शादियों ने राजनीतिक गठबंधनों के निर्माण में मदद की थी और राजा बिम्बिसार ने पड़ोसी राज्यों की कई राजकुमारियों से शादी की थी।
#हर्यंक_राजवंश:
यह बृहदरथ राजवंश के बाद मगध पर शासन करने वाला यह दूसरा राजवंश था।
शिशुनाग इसका उत्तराधिकारी था।
राजवंश की स्थापना बिम्बिसार के पिता राजा भाट्य द्वारा की गयी थी।
राजवंश ने 6 वीं शताब्दी ईसा पूर्व से 413 ईसा पूर्व तक मगध पर शासन किया था।
हर्यंक राजवंश के राजा इस प्रकार थे:
भाट्य
बिम्बिसार
अजातशत्रु
उदयभद्र
अनुरूद्ध
मुंडा
नागदशक
#बिम्बिसार:
बिम्बिसार ने मगध पर 544 ईसा पूर्व से 492 ईसा पूर्व तक, 52 वर्ष शासन किया था।
उसने विस्तार की आक्रामक नीति का पालन किया और काशी, कौशल और अंग के पड़ोसी राज्यों के साथ कई युद्ध लड़े।
बिम्बिसार गौतम बुद्ध और वर्द्धमान महावीर का समकालीन था।
उसका धर्म बहुत स्पष्ट नहीं है। बौद्ध ग्रंथों में उल्लेख के अनुसार वह बुद्ध का एक शिष्य था, जबकि जैन शास्त्रों में उसका वर्णन महावीर के अनुयायी के रूप तथा राजगीर के राजा श्रेनीका के रूप में मिलता है।
बाद में बिम्बिसार को उसके पुत्र अ़जातशत्रु द्वारा कैद कर लिया गया जिसने मगध के सिंहासन पर आधिपत्य स्थापित कर लिया था। बाद में कारावास के दौरान बिम्बिसार की मृत्यु हो गई।
#अजातशत्रु
अजातशत्रु ने 492- 460 ईसा पूर्व तक मगध पर शासन किया था।
उसने वैशाली के साथ 16 वर्षों तक युद्ध किया था और अंत में कैटापोल्ट्स की मदद से साम्राज्य को शिकस्त दी।
उसने काशी और वैशाली पर आधिपत्य स्थापित करने के बाद मगध साम्राज्य का विस्तार किया था।
उसने राजधानी राजगीर को मजबूत बनाया जो पाँच पहाड़ियों से घिरी हुई थी जिससे यह लगभग अभेद्य बन गयी थी।
#उदयन:
उदयन या उदयभद्र अजातशत्रु का उत्तराधिकारी था।
उसका शासनकाल 460 ईसा पूर्व से 444 ईसा पूर्व तक चला था।
उसने पटना (पाटलिपुत्र) के किले का निर्माण कराया था जो मगध साम्राज्य का केंद्र था
उदयन का उत्तराधिकारी शिशुनाग था।
शिशुनाग ने अवंती साम्राज्य का विलय मगध में कर दिया था।
बाद में उसका उत्तराधिकारी नंद राजवंश बना।
#नंद_राजवंश:
राजवंश का शासनकाल 345 ईसा पूर्व से 321 ईसा पूर्व तक चला था।
महापदम नंद, नंद राजवंश का पहला राजा था जिसने कलिंग का विलय मगध साम्राज्य में कर दिया था।
उसे सबसे शक्तिशाली और क्रूर माना जाता था यहां तक कि सिकंदर भी उसके खिलाफ युद्ध लड़ना नहीं चाहता था।
नंद वंश बेहद अमीर बन गया था। उन्होंने अपने पूरे साम्राज्य में सिंचाई परियोजनाओं और मानकीकृत व्यापारिक उपायों की शुरूआत की थी।
हर्ष और कठोर कराधान प्रणाली ने नंदों को अलोकप्रिय बना दिया था।
अंतिम नंद राजा, घानानंद को चंद्रगुप्त मौर्य ने पराजित कर दिया था।
[01/12, 8:26 AM] Raj Kumar: #प्राचीन_भारत_का_इतिहास :
#सातवाहन_का_युग
सातवाहन ने भारतीय राज्यों के उनके शासकों की छवि के साथ वाले सिक्के जारी किए | इन्होने सांस्कृतिक पुल का निर्माण किया और व्यापार में एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा की और अपने विचारों और संस्कृति को इंडो गंगा के मैदान से भारत के दक्षिण के सिरे तक आदान प्रदान किया |
सातवाहन के लोग खेती और लोहे के बारे में पूर्ण रूप से परिचित थे |
#सामाजिक_संगठन
सातवाहन साम्राज्य का समाज चार वर्गों के अस्तित्व को दर्शाता है :
प्रथम वर्ग उन लोगों से बना है जो जिलों का देखरेख और नियंत्रण करते थे |
द्वितीय वर्ग अधिकारियों से बना था |
तीसरा वर्ग में किसान और वैद्यों आते थे |
चौथे वर्ग में आम नागरिक आते थे |
परिवार का मुखिया गृहपति था |
#प्रशासन_का_स्वरूप
सातवाहन साम्राज्य पाँच प्रान्तों में विभाजित था | नासिक के पश्चिमी प्रांत पर अभिरस का शासन था | इक्ष्वाकू ने कृष्ण-गुंटूर प्रांत के पूर्वी प्रांत में शासन किया | चौतस ने दक्षिण पश्चिमी भाग पर कब्जा किया और अपने प्रांत का उत्तर और पूर्व तक विस्तार किया | पहलाव ने दक्षिण पूर्वी भाग पर नियंत्रण किया |
अधिकारियों को आमात्य और महामंत्र के रूप में जाना जाता था | सेनापति को प्रांतीय राज्यपाल के तौर पर नियुक्त किया जाता था | गौल्मिका के पास सैन्य पलटनों का जिम्मा होता था जिसमे 9 हाथी, 9 रथ, 25 घोड़े और 45 पैदल सैनिक होते थे |
सातवाहन राज्य में तीन दर्जे के सामंत थे | उच्च दर्जा राजा का होता था जिसके पास सिक्कों के छापने का अधिकार था जबकि दूसरा दर्जा महाभोज का और तीसरा दर्जा सेनापति का था |
हमे कतक और स्कंधावरस जैसे शब्दों की जानकारी हमें इस युग के अभिलेखों से मिलती है |
#धर्म :
बौद्ध और ब्राह्मण धर्म दोनों सातवाहन शासन के दौरान प्रचलित हुए | विभिन्न संप्रदाय के लोगों के बीच राज्य में विभिन्न धर्म में धार्मिक सहिष्णुता का अस्तित्व रहा |
#वास्तुकला
सातवाहन के शासन के दौरान, चैत्य और विहार बड़ी महीनता के साथ ठोस चट्टानों से काटे गए | चैत्य बौद्ध के मंदिर थे और मोनास्ट्री को विहार के नाम से भी जाना जाता था | सबसे प्रसिद्ध चैत्य पश्चिमी दक्कन के नाशिक, करले इत्यादि में स्थित है | इस समय में चट्टानों से काटकर बनाया गया वास्तुशिल्प भी मौजूद था |
#भाषा
सातवाहना के शासकों ने दस्तावेज़ों पर आधिकारिक भाषा के रूप में प्राकृत भाषा का इस्तेमाल किया | सभी अभिलेखों को प्राकृत भाषा में बनाया गया और ब्रहमी लिपि में लिखा गया |
#महत्व_और_पतन
सातवाहन ने शुंग और मगध के कनव के साथ अपना साम्राज्य को स्थापित करने के लिए मुक़ाबला किया | बाद में इन्होने भारत के बहुत बड़े हिस्से को विदेशी आक्रमणकारियों जैसे पहलाव, शक और यवना से बचाने के लिए एक बड़ी भूमिक अदा की | गौतमीपुत्र सत्कर्णी और श्री यजना सत्कर्णी इस राजवंश के कुछ प्रमुख शासक थे |
कुछ समय के लिए सातवाहन ने पश्चिमी क्षत्रपस के साथ संघर्ष किया | तीसरी सदी AD में साम्राज्य छोटे छोटे राज्यों में बाँट गया |
[01/12, 8:26 AM] Raj Kumar: #भारत_की_परमाणु_नीति_क्या_है?
भारत ने अपना पहला परमाणु परीक्षण मई 1974 में पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी के शासनकाल में किया था. इस परमाणु परीक्षण का नाम "स्माइलिंग बुद्धा" था. इसके बाद पोखरण-2 परीक्षण मई 1998 में पोखरण परीक्षण रेंज पर किये गए पांच परमाणु बम परीक्षणों की श्रृंखला का एक हिस्सा था. भारत ने 11 और 13 मई, 1998 को राजस्थान के पोरखरण परमाणु स्थल पर 5 परमाणु परीक्षण किये थे.
इस कदम के साथ ही भारत की दुनिया भर में धाक जम गई. भारत पहला ऐसा परमाणु शक्ति संपन्न देश बना जिसने परमाणु अप्रसार संधि (NPT) पर हस्ताक्षर नहीं किए हैं. भारत द्वारा किये गए इन परमाणु परीक्षणों की सफलता ने विश्व समुदाय की नींद उड़ा दी थी.
इन परीक्षणों के कारण विश्व समुदाय ने भारत के ऊपर कई तरह के प्रतिबन्ध लगाये थे. इसी कारण भारत ने विश्व समुदाय से कहा था भारत एक जिम्मेदार देश है और वह अपने परमाणु हथियारों को किसी देश के खिलाफ “पहले इस्तेमाल” नही करेगा; जो कि भारत की परमाणु नीति का हिस्सा है.
#भारत_ने_2003_में_अपनी_परमाणु_नीति_बनायीं
#थी_भारत_की_परमाणु_नीति_की_विशेषताएं_इस #प्रकार_हैं?
1. भारत की परमाणु नीति का मूल सिद्धांत " पहले उपयोग नही" है. इस नीति के अनुसार भारत किसी भी देश पर परमाणु हमला तब तक नही करेगा जब तक कि शत्रु देश भारत के ऊपर हमला नही कर देता.
2. भारत अपनी परमाणु नीति को इतना सशक्त रखेगा कि दुश्मन के मन में भय बना रहे।
3. यदि किसी देश ने भारत पर परमाणु हमला किया तो उसका प्रतिशोध इतना भयानक होगा कि दुश्मन को अपूर्णीय क्षति हो और वह जल्दी इस हमले से उबर ना सके.
4. दुश्मन के खिलाफ परमाणु हमले की कार्यवाही करने के अधिकार सिर्फ जनता द्वारा चुने गए प्रतिनिधियों अर्थात देश के राजनीतिक नेतृत्व को ही होगा हालाँकि परमाणु कमांड अथॉरिटी का सहयोग जरूरी होगा.
5. जिन देशों के पास परमाणु हथियार नही हैं उनके खिलाफ परमाणु हथियारों का इस्तेमाल नही किया जायेगा.
6. यदि भारत के खिलाफ या भारतीय सुरक्षा बलों के खिलाफ किसी कोई रासायनिक या जैविक हमला होता है तो भारत इसके जबाब में परमाणु हमले का विकल्प खुला रखेगा.
7. परमाणु एवं प्रक्षेपात्र सम्बन्धी सामग्री तथा प्रौद्योगिकी के निर्यात पर कड़ा नियंत्रण जारी रहेगा तथा परमाणु परीक्षणों पर रोक जारी रहेगी.
8. भारत परमाणु मुक्त विश्व बनाने की वैश्विक पहल का समर्थन करता रहेगा तथा भेदभाव मुक्त परमाणु निःशस्त्रीकरण के विचार को आगे बढ़ाएगा.
न्यूक्लियर कमांड अथॉरिटी के अंतर्गत एक राजनीतिक परिषद् तथा एक कार्यकारी परिषद् होती है. राजनीतिक परिषद् के अध्यक्ष प्रधानमन्त्री होते हैं जबकि कार्यकारी परिषद् के अध्यक्ष राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार (NSA) होते हैं. NSA न्यूक्लियर कमांड अथॉरिटी को निर्णय लेने के लिए जरूरी सूचनाएँ उपलब्ध कराते हैं तथा राजनीतिक परिषद् द्वारा किये गए निर्देशों का क्रियान्वयन करते हैं.
यह सच है कि भारत में परमाणु हमला करने का निर्णय सिर्फ प्रधानमन्त्री के पास होता है. हालाँकि प्रधानमन्त्री अकेले निर्णय नही ले सकता है. प्रधानमन्त्री के पास एक स्मार्ट कोड जरूर होता है जिसके बिना परमाणु बम को नही छोड़ा जा सकता है. परमाणु बम को दागने का असली बटन तो परमाणु कमांड की सबसे निचली कड़ी या टीम के पास होता है जिसे परमाणु मिसाइल दागनी होती है.
#प्रधानमंत्री_निम्न_लोगों_से_राय_लेकर_ही_हमले
#का_निर्णय_ले_सकता_है;
1. सुरक्षा मामलों की कैबिनेट कमेटी
2. राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार
3. चेयरमैन ऑफ़ चीफ ऑफ़ स्टाफ कमेटी
इस प्रकार ऊपर लिखे गए बिन्दुओं से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि भारत का परमाणु कार्यक्रम किसी देश को धमकाने या उस पर हमला करके कब्ज़ा करने के लिए नही बल्कि भारत की संप्रभुता और सीमाओं की रक्षा करने के लिए है.
[01/12, 8:26 AM] Raj Kumar: #प्राचीन_भारत_का_इतिहास :
#मगध_का_साम्राज्य
मगध साम्राज्य ने भारत में 684 BC – 320 BC तक शासन किया | मगध साम्राज्य का दो महान काव्य रामायण और महाभारत में उल्लेख किया गया है | मगध साम्राज्य पर 544 BC से 322 BC तक शासन करने वाले तीन राजवंश थे | पहला था हर्यंका राजवंश (544 BC से 412 BC ), दूसरा था शिशुनाग राजवंश (412 BC से 344 BC ) और तीसरा था नन्दा राजवंश (344 BC से 322 BC )|
#हर्यंका_राजवंश:
हर्यंका राजवंश में तीन महत्वपूर्ण राजा थे बिंबिसार, अजातशत्रु और उदयीन
#बिंबिसार_546_494_BC
बिंबिसार ने 52 साल तक 544 BC से 492 BC तक शासन किया | इसको इसी के ही पुत्र अजातशत्रु (492-460 BC ) ने बंदी बना लिया और हत्या कर दी | बिंबिसार मगध का शासक था।वह हर्यंका राजवंश से था।
वैवाहिक गठबंधन के माध्यम से इसने अपनी स्थिति और समृद्धि को मजबूत किया | इसका पहला विवाह कोशल देवी नामक महिला से कोशल परिवार में हुआ | बिंबिसार को दहेज में काशी प्रांत दिया गया |
बिंबिसार ने वैशाली के लिच्छवि परिवार की चेल्लाना नामक राजकुमारी से विवाह किया |अब इस वैवाहिक गठबंधन ने इसे उत्तरी सीमा में सुरक्षित कर दिया | बिंबिसार ने दुबारा एक और विवाह मध्य पंजाब के मद्रा के शाही परिवार की खेमा से किया |इसने अंग के ब्रहमदत्ता को पराजित कर उसके साम्राज्य पर कब्जा कर लिया | बिंबिसार के अवन्ती राज्य के साथ अच्छे तालुक थे |
#अजातशत्रु_494_462_BC
अजात शत्रु ने अपने पिता की हत्या कर राज्य को छीन लिया | अजात शत्रु अपने पूरे शासन काल के दौरान तेज़ विस्तार के लिए आक्रामक नीति का पालन करता रहा | इस नीति ने उसे काशी और कौशल की तरफ धकेल दिया | मगध और कौशल के बीच लंबी अशांति शुरू हो गई |कौशल के राजा को मजबूरन शांति के लिए अपनी बेटी का विवाह अजातशत्रु से करना पड़ा और उसे काशी भी दे दिया |अजातशत्रु ने वैशाली के लिच्छवियों के खिलाफ भी युद्ध की घोषणा कर दी और वैशाली गणराज्य को जीत लिया | यह युद्ध 16 साल तक चला |
शुरुआत में वह जैन धर्म का अनुयायी था पर बाद में उसने बौद्ध धर्म को अपनाना शुरू कर दिया |अजातशत्रु ने कहा कि वह गौतम बुद्ध से मिला था | यह दृश्य बरहुत की मूर्तियों में दिखाया गया है | इसने कई चैत्यों और विहारों का निर्माण करवाया | वह बौद्ध की मृत्यु के बाद राजगृह में प्रथम बौद्ध परिषद में भी था |
#उदयीन
उदयीन, अजातशत्रु का उत्तराधिकारी बना | इसने पाटलीपुत्र की नींव राखी और राजधानी को राजगृह से पाटलीपुत्र स्थानत्रित किया |
नाग –दसक हर्यंका राजवंश का अंतिम शासक था | इसे लोगों द्वारा शासन करने के लिए अयोग्य पाया गया और
उसे अपने मंत्री शिशुनाग के लिए राजगद्दी से हाथ पीछे खींचना पड़ा |
#शिशुनाग_राजवंश
शिशुनाग के शासन के दौरान अवन्ती राज्य को जीत लिया गया और मगध साम्राज्य के कब्जे में लिया गया | शिशुनाग का उत्तराधिकारी कालाशोक बना | उसने 383 BC में वैशाली में दूसरी बौद्ध परिषद बुलाई |
#नन्दा_राजवंश
नन्दा राजवंश के संस्थापक महापद्म के द्वारा शिशुनाग राजवंश के अंतिम राजा का तख़्ता पलट कर दिया गया था।
इसे सर्वक्षत्रांतक (पुराण ) और उग्रसेना (एक बड़ी सेना का स्वामी ) के नाम से भी जाना गया | महापद्म को पुराण में एक्राट (एकमात्र सम्राट) के नाम से भी जाना गया | यहाँ तक कि इसे भारतीय इतिहास में पहला साम्राज्य निर्माता के तौर पर जाना गया है | धन नन्द, नन्दा राजवंश का अंतिम शासक था | इसे यूनानी पुस्तकों में अग्राम्मेस या क्षाण्ड्रेमेस भी कहा गया | इसके शासन काल के दौरान अलेक्जेंडर ने भारत पर आक्रमण किया था ।
#निष्कर्ष
धन नन्दा का तख़्ता पलट चन्द्र गुप्त मौर्य द्वारा 322 BC में किया गया जिसने मगध के नए शासन की स्थापना की जिसे मौर्य राजवंश के नाम से जाना गया |
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