Wednesday, February 24, 2021

आधुनिक_भारत_का_इतिहास : #अंग्रेज_उपनिवेश_की_स्थापना

आधुनिक_भारत_का_इतिहास : #अंग्रेज_उपनिवेश_की_स्थापना अंग्रेजों का भारत आगमन और ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना का प्रमुख कारण पुर्तगाली व्यापारियों द्वारा भारत में अपनी वस्तुओं को बेचने से होने वाला अत्यधिक लाभ था जिसने ब्रिटिश व्यापारियों को भारत के साथ व्यापार करने के लिए प्रोत्साहित किया । अतः पुर्तगाली व्यापारियों की व्यापारिक सफलता से प्रेरित होकर अंग्रेज व्यापारियों के एक समूह –मर्चेंट एडवेंचरर्स ने 1599 ई. में ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना की । महारानी स्वयं भी ईस्ट इंडिया कंपनी की साझेदार/शेयरहोल्डर थीं| #पश्चिम_और_दक्षिण_में_विस्तार बाद में 1608 ई. में ईस्ट इंडिया कंपनी ने शाही संरक्षण प्राप्त करने के लिए कैप्टन हॉकिन्स को मुग़ल शासक जहाँगीर के दरबार में भेजा । वह भारत के पश्चिमी तट पर अपनी फैक्ट्रियां स्थापित करने हेतु शाही परमिट प्राप्त करने में सफल रहा। 1605 ई. में इंग्लैंड के राजा जेम्स प्रथम ने सर थॉमस रो को कंपनी के लिए और अधिक छूटें प्राप्त करने के उद्देश्य से जहाँगीर के दरबार में भेजा। रो बहुत कुटनीतिज्ञ था और अपनी कूटनीति के बल पर वह पूरे मुग़ल क्षेत्र पर स्वन्त्रतापूर्वक व्यापार करने हेतु शाही चार्टर प्राप्त करने में सफल रहा । बाद के वर्षों में ईस्ट इंडिया कंपनी अपने आधार को विस्तृत करती गयी । कंपनी को पुर्तगाली, डच और फ़्रांसीसी व्यापारियों द्वारा प्रस्तुत चुनौतियों का भी सामना करना पड़ा। निर्णायक क्षण तब आया जब 1662 ई. में इंग्लैंड के चार्ल्स द्वितीय का विवाह पुर्तगाली राजकुमारी कैथरीन से हुआ और इंग्लैंड को बम्बई. दहेज़ के रूप में प्राप्त हुआ । इंग्लैंड द्वारा 1668 ई. में बम्बई. को दस पौंड प्रतिवर्ष की दर पर ईस्ट इंडिया कंपनी को सौंप दिया गया। कंपनी ने अपने पश्चिमी तट पर अपना व्यापारिक मुख्यालय सूरत से बम्बई. स्थानांतरित कर दिया। 1639 ई. में ईस्ट इंडिया कंपनी ने स्थानीय राजा से मद्रास को पट्टे पर प्राप्त कर लिया और वहां पर अपनी फैक्ट्री की सुरक्षा हेतु फोर्ट सेंट जॉर्ज का निर्माण कराया । बाद में मद्रास कंपनी का दक्षिण भारतीय मुख्यालय बन गया। #पूर्व_में_कंपनी_का_विस्तार दक्षिण एवं पश्चिमी भारत में सफलतापूर्वक अपनी फैक्ट्रियां स्थापित करने के बाद कंपनी ने पूर्व की ओर ध्यान केन्द्रित किया । कम्पनी ने पूर्व में अपना ध्यान मुख्य रूप से मुग़ल प्रान्त बंगाल पर लगाया। बंगाल के गवर्नर सुजाउद्दीन ने 1651 ई. में ईस्ट इंडिया कंपनी को बंगाल में अपनी व्यापारिक गतिविधियां चलने हेतु अनुमति प्रदान कर दी। हुगली में एक फैक्ट्री स्थापित की गयी और 1668 ई. में फैक्ट्री स्थापित करने हेतु सुतानती,गोविंदपुर व कोलकाता नाम के तीन गावों को खरीद लिया गया। बाद में फैक्ट्री की सुरक्षा के लिए उसके चारों ओर फोर्ट विलियम का निर्माण कराया गया। इसी स्थान पर वर्त्तमान कोलकाता शहर का विकास हुआ| #फर्रुख्सियर_द्वारा_जारी_शाही_फरमान मुग़ल शासक फर्रुख्सियर ने 1717 ई. में शाही फरमान जारी कर कंपनी को बंगाल में कुछ व्यापारिक विशेषाधिकार प्रदान कर दिए ,जिसमे बगैर कर अदा किये बंगाल में ब्रिटिश वस्तुओं के आयात-निर्यात की अनुमति भी शामिल थी। इस फरमान द्वारा कंपनी को वस्तुओं की आवाजाही हेतु दस्तक (पास ) जारी करने का अधिकार भी प्रदान कर दिया गया। व्यापार एवं वाणिज्य के क्षेत्र में मजबूती से स्थापित होने के बाद कंपनी ने भारत में सत्ता प्राप्त करने के सपने देखना शुरू कर दिया| #भारत_में_ब्रिटिश_सत्ता_के_उदय_में_सहायक_प्रमुख #कारक प्रमुख कारण,जिन्होनें ब्रिटिशों को लगभग दो सौ वर्षों तक भारत पर शासन करने का अवसर प्रदान किया,निम्नलिखित है- 1707 ई. में औरंगजेब की मृत्यु के साथ ही भारत में मुग़ल साम्राज्य का पतन की ओर अग्रसर होना तथा भारत में मुगलों जैसी किसी केंद्रीय शक्ति का उपस्थित न होना | तत्कालीन भारतीय शासकों में राजनीतिक एकजुटता का आभाव था और वे प्रायः अपनी सुरक्षा हेतु अंग्रेजों की मदद पर निर्भर थे । ऐसे में अंग्रेजों ने उनकी कमजोरी का फायदा उठाया और अपने हित के लिए राज्यों के आतंरिक मामलों में हस्तक्षेप करने लगे| #यूरोपीय_शक्तियों_के_बीच_संघर्ष #भारत_में_प्रमुख_यूरोपीय_शक्तियाँ:पुर्तगाली,डच , अंग्रेज और फ्रांसीसी चार प्रमुख यूरोपीय शक्तियां थी जो व्यापारिक संबंधों की स्थापना हेतु भारत आये लेकिन बाद में उन्होंने यहाँ अपने उपनिवेश स्थापित किये। इन यूरोपीय शक्तियों के बीच वाणिज्यिक और राजनीतिक प्रभुता हेतु छोटे-मोटे संघर्ष होते रहते थे लेकिन अंत में ब्रिटिश सबसे ताकतवर शक्ति के रूप में उभरे जिन्होंने अन्य तीनों शक्तियों को पीछे छोड़ लगभग दो सौ सालों तक भारत पर शासन किया। भारत में सबसे पहले पुर्तगाली आये जिन्होनें अपनी फैक्ट्रियां और औपनिवेशिक बस्तियां स्थापित की । डचों के साथ उन्हें कड़ी प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ा लेकिन डच उनके सामने कमजोर साबित हुए और पुर्तगाली व ब्रिटिशों की प्रतिस्पर्धा के सामने टिक न सकने के कारण डच वापस चले गए| #मुख्य_प्रतिस्पर्धी: ब्रिटिशों को भारत में प्रवेश करने के समय से ही डच,पुर्तगाली और फ़्रांसीसी शक्तियों से प्रतिस्पर्धा करनी पड़ी थी लेकिन पुर्तगाली व डच प्रतिस्पर्धी न तो अधिक गंभीर थे और न ही अधिक सक्षम । अतः ब्रिटिशों के सबसे मजबूत प्रतिद्वंदी फ्रांसीसी थे,जो भारत में सबसे बाद में आये थे। ब्रिटिशों द्वारा भारत के व्यापार एवं वाणिज्य पर पूर्ण एकाधिकार प्राप्त करने के प्रयासों ने फ्रांसीसियों के साथ उनके संघर्ष को जन्म दिया|1744 ई. से लेकर 1763 ई. के मध्य के 20 वर्षों में वाणिज्यिक व क्षेत्रीय नियंत्रण के उद्देश्यों को लेकर ब्रिटिशों व फ्रांसीसियों के मध्य तीन बड़े युद्ध लड़ें गए। अंतिम और निर्णायक युद्ध 22 जनवरी, 1763 ई. को बांडीवाश में लड़ा गया था| #कर्नाटक_युद्ध: कर्नाटक और हैदराबाद दोनों राज्यों में उत्तराधिकार को लेकर विवाद था जिसने ब्रिटिश और फ्रांसीसी शक्तियों के लिए मध्यस्थ की भूमिका निभाने के द्वार खोल दिए । इन दोनों यूरोपीय शक्तियों अपनी आपसी शत्रुता की आड़ में कर्नाटक और हैदराबाद के उत्तराधिकार हेतु अलग-अलग भारतीय दावेदारों का समर्थन किया । उत्तराधिकार के इस संघर्ष में पोंडिचेरी के गवर्नर डूप्ले के नेतृत्व में फ्रांसीसियों की जीत हुई. और अपने दावेदारों को गद्दी पर बिठाने के एवज में उन्हें उत्तरी सरकार का क्षेत्र प्राप्त हुआ जिसे फ्रांसीसी अफसर बुस्सी ने सात सालों तक नियंत्रित किया। लेकिन फ्रांसीसियों की यह जीत बहुत कम समय की थी क्योकि 1751 ई. में रोबर्ट क्लाइव के नेतृत्व में ब्रिटिश शक्ति ने युद्ध की परिस्थितियाँ बदल दी थी। रोबर्ट क्लाइव के नेतृत्व में ब्रिटिश शक्ति ने एक साल बाद ही उत्तराधिकार हेतु फ्रांसीसी समर्थित दावेदारों को पराजित कर दिया|अंततः फ्रांसीसियों को ब्रिटिशों के साथ त्रिचुरापल्ली की संधि करनी पड़ी| अगले सात वर्षीय युद्ध (1756-1763 ई.।) अर्थात तृतीय कर्नाटक युद्ध में दोनों यूरोपीय शक्तियों की शत्रुता फिर से सामने आ गयी । इस युद्ध की शुरुआत फ्रांसीसी सेनापति काउंट दे लाली द्वारा मद्रास पर आक्रमण के साथ हुई. थी |लाली को ब्रिटिश सेनापति सर आयरकूट द्वारा हरा दिया गया|1761 ई. में ब्रिटिशों ने पोंडिचेरी पर कब्ज़ा कर लिया और लाली को जिंजी और कराइकल के समर्पण हेतु बाध्य कर दिया|अतः फ्रांसीसी बांडीवाश में लडे गये तीसरे कर्नाटक युद्ध(1760 ई.) में हार गए और बाद में यूरोप में उन्हें ब्रिटेन के साथ पेरिस की संधि करनी पड़ी| #ब्रिटिश_सर्वोच्चता_की_स्थापना कर्नाटक के युद्ध में प्राप्त विजय ने भारत में ब्रिटिश सर्वोच्चता की स्थापना हेतु जमीन तैयार कर दी थी और साथ ही फ्रांसीसियों के भारतीय साम्राज्य के सपने को चकनाचूर कर दिया था। इस जीत के बाद भारत में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी का कोई. यूरोपीय प्रतिद्वंदी नहीं बचा था। ब्रिटिशों को सर आयरकूट,मेजर स्ट्रिंगर लॉरेंस ,रोबर्ट क्लाइव जैसे कुशल नेतृत्वकर्ताओं के साथ साथ एक मजबूत नौसैनिक शक्ति होने का भी लाभ मिला। इन कारकों के कारण ही वे भारत के विश्वसनीय शासक बन सके| [01/12, 8:26 AM] Raj Kumar: #प्राचीन_भारत_का_इतिहास : #वैदिक_संस्कृति वेद भारत के प्राचीन ग्रंथ हैं ! वेद, उपनिषद, ब्राह्मण, अरण्‍यक आदि को वैदिक साहित्‍य कहते हैं ! वेद का अर्थ है ज्ञान अथवा पवित्र आध्‍यात्मिक ज्ञान ! विद्वान लोग वैदिक काल और वैदिक साहित्‍य को दो भागों में बाँटते हैं- प्रारंभिक दौर का प्रतिनिधित्‍व ऋग्‍वेद करता है ! इस काल को पूर्व वैदिककाल या ऋग्‍वैदिक काल भी कहा जाता है और बाद के दौर में शेष तीनों वेद (सामवेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद), ब्राह्मण, अरण्‍यक और उपनिषद् आते हैं ! इस काल को उत्तर वैदिक काल भी कहा जाता है ! वैदिक साहित्‍य को समृद्ध होने में लंबा समय लगा ! वैदिक साहित्‍य से हम वैदिक काल के लोगों के निवास के क्षेत्र, उनके खान-पान व रहन-सहन के विषय में जान पाते हैं ! इस युग की संस्‍कृति को ही वैदिक संस्‍कृति कहते हैं ! इतिहासकारों का मत है कि इस काल में कुछ लोग उत्तर-पूर्वी ईरान, कैस्पियन सागर या मध्‍य एशिया से छोटे छोटे समूहों में आकर पश्चिमोत्तर भारत में बस गये ! ये अपने आप को आर्य कहते थे ! कतिपय इतिहासकार इस मत को स्‍वीकार नहीं करते हैं क्‍योंकि इसके पुरातात्विक व साहित्यिक प्रमाण नहीं हैं ! उनका मत है कि आर्य भारत के मूल निवासी थे ! सभ्‍यता और संस्‍कृतियों का विकास सदैव नदियों के किनारे हुआ है ! सिन्‍धु, सतलज, व्‍यास, सरस्‍वती नदियों के किनारे आर्यों ने ऋचाओं की रचना की, जिनका संग्रह ऋग्‍वेद है ! वर्तमान में विलुप्‍त, सरस्‍वती नदी का वर्णन वैदिक साहित्‍य में मिलता है ! पुरातत्‍ववेत्तओं तथा भूवैज्ञानिकों ने अपनी नवीन खोजों से सिद्ध किया है कि सरस्‍वती नदी 2000 ई.पू. तक पृथ्‍वी पर प्रवाहित होती रही होगी ! पुरातत्‍ववेत्ताओं का अनुमान है कि हड़प्‍पा सभ्‍यता का उद्गम तथा विनाश सरस्‍वती नदी के किनारे हुआ होगा ! #सामाजिक_जीवन : आर्य पहले छोटे-छोटे कबीलों में बसे था ! कबीले छोटी-छोटी इकाइयों में बँटे थे जिन्‍हे 'ग्राम' कहते थे ! प्रत्‍येक ग्राम में कई परिवार बसते थे ! इस समय संयुक्‍त परिवार हुआ करते थे एवं परिवार का सबसे वृद्ध व्‍यक्ति मुखिया हुआ करता था ! समाप मुख्‍यत: चार वर्णों में बंटा था ! ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्‍य ओर शूद्र ! यह वर्गीकरण लोगों के कर्म (कार्यों) पर आधारित था न कि जन्‍म पर ! गुरूओं और शिक्षकों को ब्राह्मण, शासक और प्रशासकों का क्षत्रिय, किसानों, व्‍यापारियों और साहूकारों को वैश्‍य तथा दस्‍तकारों और मजदूरों को शूद्र कहा जाता था ! लेकिन बाद में व्‍यवसाय पैतृक होते चले गए और एक व्‍यवसाय से जुड़े लोगों को एक जाति के रूप में वर्ण-व्‍यवस्‍था कठोर बनती गई ! एक वर्ण से दूसरे में जाना कठिन हो गया ! समाज की आधारभूत इकाई परिवार थी ! बाल विवाह नहीं होते थे ! युवक एवं युवतियाँ अपनी पसंद से विवाह कर सकते थे ! सभी सामाजिक और धार्मिक अवसरों पर पत्‍नी पति की सहभागिनी होती थी ! महिलाओं का सम्‍मान था और कुछ को तो ऋषि का दर्जा भी प्राप्‍त था ! पिता की संपत्त्‍िा में उसकी सभी संतानों का हिस्‍सा होता था ! भूमि पर व्‍यक्तियों तथा समाज का स्‍वामित्‍व था ! मुख्‍यत: चारे वाली भूमि, जंगल तथा जलाशयों जैसे तालाब और नदियों पर समाज का स्‍वामित्‍व होता था जिसका अभिप्राय था कि गाँव के सभी लोग उनका उपयोग कर सकें ! #खान_पान : वैदिक काल में आजकल के सभी अनाजों की खेती की जाती थी ! इसी प्रकार आर्यों को सभी पशुओं की जानकारी भी थी ! लोग चावल, गेहूँ के आटे तथा दालों से बने पकवान खाते थे ! दूध, मक्‍खन और घी का प्रयोग आम था ! फल, सब्जियाँ, दालें और मांस भी भोजन में सम्मिलित थे ! वे मधु तथा नशीला पेय सुरा भी पीते थे ! धार्मिक उत्‍सवों पर मोम पान किया जाता था ! मोम और सुरा पीने को हतोत्‍साहित किया जाता था क्‍योंकि यह व्‍यक्ति के अशोभनीय व्‍यावहार का कारण बनते थे ! #आर्थिक_जीवन : वैदिक काल के लोगों का आर्थिक जीवन कृषि, कला, हस्‍तशिल्‍प और व्‍यापार पर केंद्रित था ! बैलों और सांडों का खेती करने एवं गाडियाँ खींचने के लिए उपयोग किया जाता था ! रथ खींचने के लिए घोड़ों का उपयोग किया जाता था ! पशुओं में गाय को सर्वाधिक महत्‍वपूर्ण एवं पवित्र स्‍थान दिया जाता था !वैदिक काल में गाय को चोट पहुँचाना अथवा उसकी हत्‍या करना वर्जित था ! गाय को अघ्‍न्‍य (जिसे न तो मारा जा सकता है और न ही चोट पहुँचाई जा सकती है ) कहा जाता था ! कहा जाता था वेदों में गौहत्‍या अथवा गाय को चोट पहुँचाने पर परिस्थिति अनुसार देश निकाला अथवा मृत्‍यू-दण्‍ड देने का प्रावधान है ! प्रारंभिक काल में बर्तन बनाना, कपड़ा बुनना, धातु कर्म, बढ़ई का काम इत्‍यादि व्‍यवसाय थे ! प्रारंभिक काल में धातुओं में केवल ताँबा धातु की ही जानकारी थी ! दूर-दूर तक व्‍यापार होता था ! वेदों में समुद्री मार्ग से व्‍यापार कीर चर्चा आ‍ती है ! बाद के काल में हमें अन्‍य कई व्‍यवसायों, जैसे गहने बनाना, रंगरेजी, रथ बनाना, तीर-कमान बनाना तथा धातु पिघलाने आदि की जानकारी मिलती है ! हस्‍तशिल्पियों की श्रेणियाँ (संघ) भी बनीं और उन‍के मुखिया को श्रेष्‍ठी कहा जाता था ! बाद के काल में लोहे की जानकारी होने के बाद ताँबा लोहित अयस और लोहा श्‍याम अयस के नामों से जाना जाने लगा ! प्रारंभिक काल में लोग स्‍वेच्‍छा से राजा को उसकी सेवाओं के फलस्‍वरूप उपहार के रूप में बलि (ऐच्छिक उपहार) दिया करते थे जो बाद में एक नियमित कर बन गया जिसे शुल्‍क कहा जाता था ! उस समय उपयोग किए जाने वाले सिक्‍कों को निष्‍क कहा जाता था ! #धर्म_और_दर्शन : ऋग्‍वेद काल के लोग प्रकृति की शक्ति दर्शाने वाले बहुत देवताओं की पूजा करते थे जैसे- अग्नि, सूर्य, वायु, आकाश और वृक्ष ! इनकी पूजा आज भी होती है ! हड़प्‍पा सभ्‍यता में हम कई वस्‍तुओं जैसे पीपल, सप्‍तमातृकाओं और शिवलिंगों का चित्रण पाते हैं जिन पर हिंदू आज भी श्रद्घा रखते हैं ! अग्नि, वात और सूर्य से समाज की रक्षा के लिए प्रार्थना की जाती थी ! इंद्र, अग्नि, और वरुण सबसे अधिक मान्‍य देवता थे ! यज्ञ एक जाना-माना धार्मिक कृत्‍य था ! कभी-कभी बड़े विशाल यज्ञों का आयोजन किया जाता था जिसमें बहुतसे पुरोहितों की आवश्‍कता होती थी ! उत्तर वैदिक काल में कर्मकांड और यज्ञ के साथ साथ ज्ञान मार्ग को महत्‍व दिया गया ! ज्ञान मार्गी चिंतकों (दर्शनिकों) द्वारा जिन प्रश्‍नों पर चर्चा की गई हे वे हैं- ईश्‍वर क्‍या है ? ईश्‍वर कौन है ? जीवन क्‍या है ? संसार क्‍या है ? मृत्‍यु के पश्‍चात मनुष्‍य कहाँ जाता है ? आत्‍मा क्‍या है ? इत्‍यादि ! दार्शनिकों के चिंतन को उनके निकट बैठने वाले शिष्‍यों ने कंठस्‍थ किया और बाद में उन्‍हें लिपिबद्ध किया गया ! ये ग्रंथ 'उपनिषद' कहलाये ! उपनिषद भारतीय दर्शनशास्‍त्र के प्रमुख ग्रंथ है ! इन्‍हें वेदों के अंग माना जाता है ! #विज्ञान : वेद, ब्राह्मण और उपनिषद् इस समय के विज्ञान के विषय में पर्याप्‍त जानकारी देते हैं ! गणित की सभी शाखाओं को सामान्‍यत: गणित नाम से ही जाना जाता था जिसमें अंकगणित, रेखागणित, बीजगणित, खगोल विद्या और ज्‍योतिष सम्मिलित थे ! वैदिक काल के लोग त्रिभुज के बराबर क्षेत्रफल का वर्ग बनाना जानते थे ! वे वृत्त के क्षेत्रफलों के वर्गों के योग और अंतर के बराबर का वर्ग भी हबनाना जानते थे ! शून्‍य का ज्ञान था और इसी कारण बड़ी संख्‍याएँ दर्ज की जा सकीं ! इसके साथ ही प्रत्‍येक अंक के स्‍थानीयमान और मूल मान की जानकारी भी थी ! उन्‍हें घन, घनमूल, वर्ग और वर्गमूल की जानकारी थी और उनका उपयोग किया जाता था ! वैदिक काल में खगोल विद्या अत्‍यधिक विकसित थी ! वे आकाशीय पिंडों की गति के विषय में जानते थे और विभिन्‍न समय पर उनकी स्थिति की गणना भी करते थे ! इससे उन्‍हें सही पंचांग बनाने तथा सूर्य एवं चंद्रग्रहण का समय बताने में सहायता मिलती थी ! वे यह जानते थे कि पृथ्‍वी अपनी धुरी पर घूमती है और सूर्य के चारों ओर परिक्रमा करती है ! चाँद, पृथ्‍वी के इर्द-गिर्द घूमता है ! उन्‍होंने पिंडों के घूर्णन का समय ज्ञात करने तथा आ‍काशिय पिंडों के बीच की दूरियाँ मापने के प्रयास भी किए ! वैदिक सभ्‍यता काफी उन्नत प्रतीत होती है ! लोग नगरों, प्राचीर से घिरे नगरों (पुरों) तथा गाँवों में रहते थे ! वे दूर-दराज तक व्‍यापार करते थे ! विज्ञान पढ़ा जाता था और विज्ञान की विभिन्‍न शाखाएँ अत्‍यधिक विकसित थीं ! उन्‍होंने सही पंचांग बनाए और चंद्र एवं सूर्य ग्रहणों के समय की पूर्व सूचना दी ! आज भी हम उनकी विधि से गणना कर ग्रहण का समय ज्ञात कर सकते हैं ! [01/12, 8:26 AM] Raj Kumar: #मध्यकालीन_भारत_का_इतिहास : #तुगलक_वंश खिलज़ी वंश का अंत कर दिल्ली में एक नये वंश का उदय हुआ जिसे तुगलक वंश (Tughlaq Dynasty) कहते है। तुगलक वंश (Tughlaq Dynasty) ने दिल्ली पर 1320 से 1413 ई. तक राज किया। तुगलक वंश का पहला शासक गाज़ी मालिक था. जिसने खुद को गयासुद्दीन तुगलक के रूप में पेश किया। #तुगलक_वंश_के_शासक :- ▪️गयासुद्दीन तुगलक (1320-25 ई.) ▪️मोहम्मद तुगलक (1325-51 ई.) ▪️फिरोज शाह तुगलक (1351-88 ई.) ▪️मोहम्मद खान (1388 ई.) ▪️गयासुद्दीन तुगलक शाह II (1388 ई.) ▪️अबू बाकर (1389-90 ई.) ▪️नसीरुद्दीन मोहम्मद (1390-94 ई.) ▪️हूंमायू (1394-95 ई.) ▪️नसीरुद्दीन महमूद (1395-1412 ई.) #गयासुद्दीन_तुगलक (1320-25 ई.) यह दिल्ली सल्तनत पर तुगलक वंश की स्थापना करने वाला प्रथम शासक था। इसका पूर्व नाम गाजी मलिक था, जिसने दिल्ली सल्तनत के सिंहासन पर बैठने के बाद अपना नाम गयासुद्दीन कर लिया। गयासुद्दीन 8 सितंबर 1320 को यह दिल्ली की गद्दी पर बैठा और अगले पांच वर्ष तक शासन किया। वह पहला एेसा शासक था, जिसने अपने नाम के साथ गाजी शब्द (काफिरों का वध करने वाला) जोड़ा था। इसे तुगलक गाजी भी कहते थे। उसने मंगोलों के 23 आक्रमण विफल किए थे। 🔹गयासुद्दीन तुगलक के सुधार ▪️गयासुद्दीन तुग़लक़ ने आर्थिक सुधार के अन्तर्गत अपनी आर्थिक नीति का आधार संयम, सख्ती एवं नरमी के मध्य संतुलन (रस्म-ए-मियान) को बनाया। ▪️उसने लगान के रूप में उपज का 1/10 या 1/12 हिस्सा ही लेने का आदेश जारी कराया। ▪️ग़यासुद्दीन ने मध्यवर्ती ज़मीदारों विशेष रूप से मुकद्दम तथा खूतों को उनके पुराने अधिकार लौटा दिए, जिससे उनको वही स्थिति प्राप्त हो गयी, जो बलबन के समय में प्राप्त थी। ▪️ग़यासुद्दीन ने अमीरों की भूमि पुनः लौटा दी। उसने सिंचाई के लिए कुँए एवं नहरों का निर्माण करवाया। सम्भवतः नहर का निर्माण करवाने वाला ग़यासुद्दीन प्रथम सुल्तान था। ▪️सल्तनत काल में डाक व्यवस्था को सुदृढ़ करने का श्रेय ग़यासुद्दीन तुग़लक़ को ही जाता है। ▪️अलाउद्दीन ख़िलजी की कठोर नीति के विरुद्ध उसने उदारता की नीति अपनायी, जिसे बरनी ने ‘रस्मेमियान’ अथवा ‘मध्यपंथी नीति’ कहा है। ▪️उसने अलाउद्दीन ख़िलजी द्वारा चलाई गयी दाग़ने तथा चेहरा प्रथा को प्रभावी तरीक़े से लागू किया। 🔹महत्त्वपूर्ण विजय ▪️वारंगल व तेलंगाना की विजय (1324 ई.) ▪️तिरहुती विजय, मंगोल विजय (1324 ई.) 🔹निर्माण कार्य ▪️तुग़लक़ाबाद नामक एक दुर्ग की नींव रखी। 🔹मृत्यु ▪️जब ग़यासुद्दीन तुग़लक़ बंगाल अभियान से लौट रहा था, तब लौटते समय तुग़लक़ाबाद से 8 किलोमीटर की दूरी पर स्थित अफ़ग़ानपुर में एक महल में सुल्तान ग़यासुद्दीन के प्रवेश करते ही वह महल गिर गया, जिसमें दबकर उसकी मार्च, 1325 ई. को मुत्यृ हो गयी। ग़यासुद्दीन तुग़लक़ का मक़बरा तुग़लक़ाबाद में स्थित है। #मोहम्मद_तुगलक (1325-51 ई.) मुहम्मद बिन तुग़लक़ दिल्ली सल्तनत में तुग़लक़ वंश का शासक था। ग़यासुद्दीन तुग़लक़ की मृत्यु के बाद उसका पुत्र ‘जूना ख़ाँ’, मुहम्मद बिन तुग़लक़ (1325-1351 ई.) के नाम से दिल्ली की गद्दी पर बैठा। इसका मूल नाम ‘उलूग ख़ाँ’ था। मध्यकालीन सभी सुल्तानों में मुहम्मद तुग़लक़ सर्वाधिक शिक्षित, विद्वान एवं योग्य व्यक्ति था। इसके अलावा वह पर्सियन कविता का बहुत बड़ा प्रशंसक था। उसकी सोच उसके समय से बहुत आगे थी। उसने बहुत सारे विचारो पर मंथन किया लेकिन उन विचारो के क्रियान्वयन से जुड़े उसके पैमाने बहुत मजबूत और टिकाऊ नहीं थे इसीलिए वह असफल रहा। उसने अपने राज्य में मध्य राजधानी की स्थापना और टोकन करेंसी (प्रतीक मुद्रा) के रूप में विभिन्न प्रयोग किये लेकिन वह पूरी तरह से असफल रहा। अपनी सनक भरी योजनाओं के कारण इसे ‘स्वप्नशील’, ‘पागल’ एवं ‘रक्त-पिपासु’ कहा गया है। 🔹मुहम्मद बिन तुग़लक़ के कार्य ▪️दोआब क्षेत्र में कर वृद्धि (1326-27 ई.) – मुहम्मद तुग़लक़ ने दोआब के ऊपजाऊ प्रदेश में कर की वृद्धि कर दी (संभवतः 50 प्रतिशत), परन्तु उसी वर्ष दोआब में भयंकर अकाल पड़ गया, जिससे पैदावार प्रभावित हुई। तुग़लक़ के अधिकारियों द्वारा ज़बरन कर वसूलने से उस क्षेत्र में विद्रोह हो गया, जिससे तुग़लक़ की यह योजना असफल रही। मुहम्मद तुग़लक़ ने कृषि के विकास के लिए ‘दिवाण-ए- अमीर कोही’ नामक एक नवीन विभाग की स्थापना की। सरकारी कर्मचारियों के भ्रष्टाचार, किसानों की उदासीनता, भूमि का अच्छा न होना इत्यादि कारणों से कृषि उन्नति सम्बन्धी अपनी योजना को तीन वर्ष पश्चात् समाप्त कर दिया। मुहम्मद बिन तुग़लक़ ने किसानों को बहुत कम ब्याज पर ऋण (सोनथर) उपलब्ध कराया। ▪️राजधानी परिवर्तन (1326-27 ई.) – तुग़लक़ ने अपनी योजना के अन्तर्गत राजधानी को दिल्ली से देवगिरि स्थानान्तरित किया। देवगिरि को “कुव्वतुल इस्लाम” भी कहा गया। सुल्तान कुतुबुद्दीन मुबारक ख़िलजी ने देवगिरि का नाम ‘कुतुबाबाद’ रखा था और मुहम्मद बिन तुग़लक़ ने इसका नाम बदलकर दौलताबाद कर दिया। सुल्तान की इस योजना के लिए सर्वाधिक आलोचना की गई। मुहम्मद तुग़लक़ की यह योजना भी पूर्णतः असफल रही और उसने 1335 ई. में दौलताबाद से लोगों को दिल्ली वापस आने की अनुमति दे दी। राजधानी परिवर्तन के परिणामस्वरूप दक्षिण में मुस्लिम संस्कृति का विकास हुआ, जिसने अंततः बहमनी साम्राज्य के उदय का मार्ग खोला। ▪️सांकेतिक मुद्रा का प्रचलन (1329-30 ई.) – इस योजना के अन्तर्गत मुहम्मद तुग़लक़ ने सांकेतिक व प्रतीकात्मक सिक्कों का प्रचलन करवाया। मुहम्मद तुग़लक़ ने ‘दोकानी’ नामक सिक्के का प्रचलन करवाया। सांकेतिक मुद्रा के अन्तर्गत सुल्तान ने संभवतः पीतल (फ़रिश्ता के अनुसार) और तांबा (बरनी के अनुसार) धातुओं के सिक्के चलाये, जिसका मूल्य चांदी के रुपये टका के बराबर होता था। सिक्का ढालने पर राज्य का नियंत्रण नहीं रहने से अनेक जाली टकसाल बन गये। लगान जाली सिक्के से दिया जाने लगा, जिससे अर्थव्यवसथा ठप्प हो गई। सांकेतिक मुद्रा चलाने की प्रेरणा चीन तथा ईरान से मिली। वहाँ के शासकों ने इन योजनाओं को सफलतापूर्वक चलाया, जबकि मुहम्मद तुग़लक़ का प्रयोग विफल रहा। सुल्तान को अपनी इस योजना की असफलता पर भयानक आर्थिक क्षति का सामना करना पड़ा। ▪️खुरासन एवं काराचिल का अभियान ▪️चौथी योजना के अन्तर्गत मुहम्मद तुग़लक़ के खुरासान एवं कराचिल विजय अभियान का उल्लेख किया जाता है। खुरासन को जीतने के लिए मुहम्मद तुग़लक़ ने 3,70,000 सैनिकों की विशाल सेना को एक वर्ष का अग्रिम वेतन दे दिया, परन्तु राजनीतिक परिवर्तन के कारण दोनों देशों के मध्य समझौता हो गया, जिससे सुल्तान की यह योजना असफल रही और उसे आर्थिक रूप से हानि उठानी पड़ी। ▪️कराचिल अभियान के अन्तर्गत सुल्तान ने खुसरो मलिक के नेतृत्व में एक विशाल सेना को पहाड़ी राज्यों को जीतने के लिए भेजा। उसकी पूरी सेना जंगली रास्तों में भटक गई, इब्न बतूता के अनुसार अन्ततः केवल दस अधिकारी ही बचकर वापस आ सके। इस प्रकार मुहम्मद तुग़लक़ की यह योजना भी असफल रही। 🔹मृत्यु ▪️अपने शासन काल के अन्तिम समय में जब सुल्तान मुहम्मद तुग़लक़ गुजरात में विद्रोह को कुचल कर तार्गी को समाप्त करने के लिए सिंध की ओर बढ़ा, तो मार्ग में थट्टा के निकट गोंडाल पहुँचकर वह गंभीर रूप से बीमार हो गया। यहाँ पर सुल्तान की 20 मार्च 1351 को मृत्यु हो गई। #फिरोज_शाह_तुगलक (1351-88 ई.) फ़िरोज़ शाह तुगलक 45 वर्ष की उम्र में दिल्ली सल्तनत की गद्दी पर बैठा। उसके पिता का नाम रज्ज़ब था जोकि गियासुद्दीन तुगलक का छोटा भाई था जबकि उसकी माता दीपालपुर की राजकुमारी थी। गद्दी पर बैठने के बाद उसने बहुत सारे उन निर्णयों को वापस ले लिया जोकि उसके पूर्व के शासक के द्वारा लिए गए थे। उसने शरियत के अनुसार शासन किया और शरियत में जिन करों का उल्लेख नहीं किया गया था उसे बंद कर दिया। 🔹फ़िरोज़ शाह तुग़लक़ के कार्य ▪️राजस्व व्यवस्था के अन्तर्गत फ़िरोज़ ने अपने शासन काल में 24 कष्टदायक करों को समाप्त कर दिया और केवल 4 कर ‘ख़राज’ (लगान), ‘खुम्स’ (युद्ध में लूट का माल), ‘जज़िया’, एवं ‘ज़कात’ (इस्लाम धर्म के अनुसार अढ़ाई प्रतिशत का दान, जो उन लोगों को देना पड़्ता है, जो मालदार हों और उन लोगों को दिया जाता है, जो अपाहिज या असहाय और साधनहीन हों) को वसूल करने का आदेश दिया। ▪️उलेमाओं के आदेश पर सुल्तान ने एक नया सिंचाई (हक ए शर्ब) कर भी लगाया, जो उपज का 1/10 भाग वसूला जाता था। ▪️सुल्तान ने सिंचाई की सुविधा के लिए 5 बड़ी नहरें यमुना नदी से हिसार तक 150 मील लम्बी सतलुज नदी से घग्घर नदी तक 96 मील लम्बी सिरमौर की पहाड़ी से लेकर हांसी तक, घग्घर से फ़िरोज़ाबाद तक एवं यमुना से फ़िरोज़ाबाद तक का निर्माण करवाया। ▪️उसने फलो के लगभग 1200 बाग़ लगवाये। ▪️आन्तरिक व्यापार को बढ़ाने के लिए अनेक करों को समाप्त कर दिया। ▪️नगर एवं सार्वजनिक निर्माण कार्यों के अन्तर्गत सुल्तान ने लगभग 300 नये नगरों की स्थापना की। ▪️जौनपुर नगर की नींव फ़िरोज़ ने अपने चचेरे भाई ‘फ़खरुद्दीन जौना’ (मुहम्मद बिन तुग़लक़) की स्मृति में डाली थी। ▪️उसके शासन काल में ख़िज्राबाद एवं मेरठ से अशोक के दो स्तम्भलेखों को लाकर दिल्ली में स्थापित किया गया। ▪️अपने कल्याणकारी कार्यों के अन्तर्गत फ़िरोज़ ने एक रोज़गार का दफ्तर एवं मुस्लिम अनाथ स्त्रियों, विधवाओं एवं लड़कियों की सहायता हेतु एक नये ‘दीवान-ए-ख़ैरात’ नामक विभाग की स्थापना की। ▪️दारुल-शफ़ा’ (शफ़ा=जीवन का अंतिम किनारा, जीवन का अंतिम भाग) नामक एक राजकीय अस्पताल का निर्माण करवाया, जिसमें ग़रीबों का मुफ़्त इलाज होता था। ▪️फ़िरोज़ के शासनकाल में दासों की संख्या लगभग 1,80,000 पहुँच गई थी। इनकी देखभाल हेतु सुल्तान दे ‘दीवान-ए-बंदग़ान’ की स्थापना की। 🔹संरक्षण ▪️शिक्षा प्रसार के क्षेत्र में सुल्तान फ़िरोज़ ने अनेक मक़बरों एवं मदरसों की स्थापना करवायी। उसने ‘जियाउद्दीन बरनी’ एवं ‘शम्स-ए-सिराज अफीफ’ को अपना संरक्षण प्रदान किया। ▪️बरनी ने ‘फ़तवा-ए-जहाँदारी’ एवं ‘तारीख़-ए-फ़िरोज़शाही’ की रचना की। ▪️फ़िरोज़ ने अपनी आत्मकथा ‘फुतूहात-ए-फ़िरोज़शाही’ की रचना की। 🔹मृत्यु ▪️फ़िरोज़ शाह तुगलक की मृत्यु सितम्बर 1388 ई. में हुई थी। हौज़खास परिसर, दिल्ली में उसे दफ़ना दिया गया। #मोहम्मद_खान (1388 ई.) फ़िरोज़ शाह तुगलक की मृत्यु 1388 ई. में हुई थी। उसके बाद दिल्ली सल्तनत में कुछ दिनों के लिए मोहमद खान ने दिल्ली में शासन किया और कुछ दिनों के भीतर ही उनकी हत्या कर दी गई। #गयासुद्दीन_तुगलक_शाह II (1388 ई.) फ़िरोज़ शाह तुगलक और मोहमद खान के हत्या के बाद दिल्ली सल्तनत में फ़िरोज़ शाह तुगलक का पोता गियासुद्दीन अगला शासक बना लेकिन 5 महीने के अल्प शासन के बाद उसकी हत्या कर दी गयी। #अबू_बाकर (1389-90 ई.) गयासुद्दीन तुगलक शाह II की हत्या करके फ़रवरी 1389 ई. में जफ़र खां के पुत्र अबू बक्र स्वयं सुल्तान बन गया। #नसीरुद्दीन_मोहम्मद_शाह (1390-94 ई.) तुगलक शाह की हत्या कर अबू बक्र ने 1389 ई. में सल्तनत पर शासन का आरम्भ किया। दिल्ली के कोतवाल, मुलतान, समाना, लाहौर के अक्त्तादारों ने मुहमद शाह को सहयोग देकर 1390 ई. में अबू बक्र को शासन से हटा दिया और नासिरुद्दीन मुहम्मद शाह स्वयं शासक बन गया। नासिरुद्दीन मुहम्मद शाह ने 1390 से 1394 ई. तक शासन किया। #हूंमायू (1394-95 ई.) नासिरुद्दीन मुहम्मद शाह के दिल्ली सल्तनत में उनका पुत्र हुंमायू ने लगभग 3 माह तक शासक किया और उसकी मृत्यु हो गई। #नसीरुद्दीन_महमूद_शाह (1395-1412 ई.) मार्च 1394 ई. में दिल्ली सल्तनत का शासक महमूद शाह बना। उसकी दुर्दशा को देखकर व्यंग्य से कहा जाता था – “विश्व के सम्राट तुगलकों का राज्य दिल्ली से पालम तक फैला हुआ था।” 17 दिसम्बर, 1398 ई. को तैमूर का आक्रमण दिल्ली पर हो गया तथा सुल्तान स्वयं गुजरात भाग गया। पुनः वजीर मल्लू खां ने सुल्तान को दिल्ली बुलाकर गद्दी पर बिठाया। सन 1412 ई. में महमूद शाह की मृत्यु हो गई, जिससे तुगलक वंश का अंत हो गया। [01/12, 8:26 AM] Raj Kumar: #आधुनिक_भारत_का_इतिहास #फ्रांसीसी_उपनिवेश_की_स्थापना भारत आने वाले यूरोपीय व्यापारी फ्रांसीसी थे। फ्रांसीसी ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना 1664 ई में लुई सोलहवें के शासनकाल में भारत के साथ व्यापार करने के उद्देश्य से की गयी थी। फ्रांसीसियों ने 1668 ई में सूरत में पहली फैक्ट्री स्थापित की और 1669 ई में मसुलिपत्तनम में एक और फैक्ट्री स्थापित की।1673 ई में बंगाल के मुग़ल सूबेदार ने फ्रांसीसियों को चन्द्रनगर में बस्ती बनाने की अनुमति प्रदान कर दी। #पोंडिचेरी_और_फ्रांसीसी_वाणिज्यिक_वृद्धि: 1674 ई में फ्रांसीसियों ने बीजापुर के सुल्तान से पोंडिचेरी नाम का गाँव प्राप्त किया और एक सम्पन्न शहर की स्थापना की जो बाद में भारत में फ्रांसीसियों का प्रमुख केंद्र बनकर उभरा। धीरे धीरे फ़्रांसीसी ईस्ट इंडिया कंपनी ने माहे,कराइकल, बालासोर और कासिम बाज़ार में अपनी व्यापारिक बस्तियां स्थापित कर लीं। फ्रांसीसियों का भारत आने का प्रमुख उद्देश्य व्यापर एवं वाणिज्य था। भारत आने से लेकर 1741 ई तक फ्रांसीसियों का प्रमुख उद्देश्य ,ब्रिटिशों के समान,पूर्णतः वाणिज्यिक ही था। फ्रांसीसी ईस्ट इंडिया कंपनी ने 1723 ई में यनम, 1725 ई में मालाबार तट पर माहे और 1739 ई में कराइकल पर कब्ज़ा कर लिया। #फ्रांसीसियों_के_राजनीतिक_उद्देश्य_और_महत्वाकांक्षा: समय के गुजरने के साथ साथ फ्रांसीसियों का उद्देश्यों में भी परिवर्तन होने लगा और भारत को अपने एक उपनिवेश के रूप में मानने लगे। 1741 ई में जोसफ फ़्रन्कोइस डूप्ले को फ्रांसीसी ईस्ट इंडिया कंपनी का गवर्नर बनाया जाना इस (उपनिवेश) वास्तविकता और उद्देश्य की तरफ उठाया गया पहला कदम था। उसके काल में कंपनी के राजनीतिक उद्देश्य स्पष्ट रूप से सामने आने लगे और कहीं कहीं तो उन्हें कंपनी के वाणिज्यिक उद्देश्यों से ज्यादा महत्व दिया जाने लगा। डूप्ले अत्यधिक बुद्धिमान था जिसने स्थानीय राजाओं की आपसी दुश्मनी का फायदा उठाया और इसे भारत में फ्रासीसी साम्राज्य की स्थापना हेतु भगवान द्वारा दिए गए मौके के रूप में स्वीकार किया। उसने अपनी चतुरता और कूटनीति के बल पर भारतीय राजनीतिक परिदृश्य में सम्मानित स्थान प्राप्त किया। लेकिन ब्रिटिशों ने डूप्ले और फ्रांसीसियों के समक्ष चुनौती प्रस्तुत की जो बाद में दोनों शक्तियों के बीच संघर्ष का कारण बना। डूप्ले की सेना ने मार्क्विस दी बुस्सी के नेतृत्व में हैदराबाद और केप कोमोरिन के मध्य के क्षेत्र पर कब्ज़ा कर लिया। 1744 ई में ब्रिटिश अफसर रोबर्ट क्लाइव भारत आया जिसने डूप्ले को पराजित किया। इस पराजय के बाद 1754 ई में डूप्ले को वापस फ्रांस बुला लिया गया। #कुछ_क्षेत्रों_पर_फ्रांसीसी_प्रतिबन्ध: लाली, जिसे फ्रांसीसी सरकार द्वारा भारत से ब्रिटिशों को बाहर करने लिए भेजा गया था, को प्रारंभ में कुछ सफलता जरुर मिली ,जैसे 1758 ईमें कुद्दलौर जिले के फोर्ट सेंट डेविड पर विजय प्राप्त करना। लेकिन ब्रिटिशों और फ्रांसीसियों के मध्य हुई बांदीवाश की लड़ाई में हैदराबाद क्षेत्र को खो देने के कारण फ्रांसीसियों की कमर टूट गयी और इसी का फायदा उठाकर 1760 ई में ब्रिटिशों ने पोंडिचेरी की घेराबंदी कर दी। 1761 ई में ब्रिटिशों ने पोंडिचेरी को नष्ट कर दिया और अंततः फ्रांसीसी दक्षिण भारत पर पकड़ खो बैठे । बाद में 1763 ई में ब्रिटिशों के साथ हुई शान्ति-संधि की शर्तों के अधीन 1765 ई में पोंडिचेरी को फ्रांसीसियों को लौटा दिया । 1962 ई में भारत और फ्रांस के मध्य हुई एक संधि के तहत भारत में स्थित फ्रांसीसी क्षेत्रों को वैधानिक रूप से पुनः भारत में मिला लिया गया [01/12, 8:26 AM] Raj Kumar: #प्राचीन_भारत_का_इतिहास : #सिन्धु_घाटी_सभ्यता [ #हड़प्पा_सभ्यता ] सिंधु घाटी सभ्यता दुनिया की चार प्रारम्भिक सभ्यताओं (मेसोपोटामिया या सुमेरियन सभ्यता, मिस्र सभ्यता और चीनी सभ्यता) में से एक है| #संक्षिप्त_विवरण : 1. यह सभ्यता कांस्य युग (ताम्रपाषाण काल) के अंतर्गत आता है| 2. इस सभ्यता का विस्तार पश्चिम में बलूचिस्तान तक, पूर्व में आलमगीरपुर (उत्तर प्रदेश) तक, दक्षिण में दाइमाबाद (महाराष्ट्र) तक और उत्तर में मंदा (जम्मू-कश्मीर) तक था| 3. इस सभ्यता में किसानों और व्यापारियों का प्रभुत्व था जिसके कारण इस सभ्यता को कृषि-वाणिज्यिक सभ्यता के रूप में जाना जाता है| 4. इस सभ्यता को हड़प्पा सभ्यता के नाम से भी जाना जाता है क्योंकि 1921 में सर्वप्रथम हड़प्पा नामक स्थान पर ही दयाराम साहनी की देखरेख में खुदाई के माध्यम से इस सभ्यता की खोज की गई थी| 5. रेडियोकार्बन डेटिंग के आधार पर सिंधु घाटी सभ्यता का काल 2500-1750 ईसा पूर्व के आसपास निर्धारित किया गया है| 6. इस सभ्यता की सबसे प्रमुख विशेषता इसकी “नगर योजना” थी| इस सभ्यता के दौरान शहरों को दो भागों दुर्ग (शासक वर्ग द्वारा अधिकृत) और निचले शहर (आम लोगों का निवास स्थान) में विभाजित किया गया था| 7. धौलावीरा इस सभ्यता का एकमात्र स्थल है जहाँ शहर को तीन भागों में विभाजित किया गया था| 8. चहुन्दरो एकमात्र ऐसा शहर था जहाँ दुर्ग नहीं थे| 9. इस सभ्यता में नगर योजना “ग्रिड प्रणाली” पर आधारित थी| इस सभ्यता के लोग भवन निर्माण के लिए पके हुए ईंटों को इस्तेमाल करते थे| इसके अलावा नालियों का उत्तम प्रबंध, किलाबन्द दुर्ग और लोहे के औजारों की अनुपस्थिति इस सभ्यता की प्रमुख विशेषताएं थी| 10. सिन्धु घाटी सभ्यता के लोगों ने सर्वप्रथम कपास का उत्पादन किया था जिसे ग्रीक भाषा में “सिनडम” कहा जाता है और यह सिंध से प्राप्त हुआ था| 11. सिन्धु घाटी सभ्यता के लोग बड़े पैमाने पर गेहूं और जौ का उत्पादन करते थे| उनके द्वारा उगाये जाने वाले अन्य फसल दाल, धान, कपास, खजूर, खरबूजे, मटर, तिल और सरसों थे। 12. इस काल के ज्ञात पशुओं में बैल, भेड़, भैंस, बकरी, सूअर, हाथी, कुत्ता, बिल्ली, गधा और ऊंट प्रमुख थे। 13. इस सभ्यता का सबसे महत्वपूर्ण पशु “बिना कूबड़ वाले बैल” या “एक सींग वाला गैंडा” था| 14. इस सभ्यता के दौरान बाह्य और आंतरिक व्यापार विकसित अवस्था में था, लेकिन भुगतान “वस्तु-विनिमय प्रणाली” द्वारा होता था| 15. इस सभ्यता के लोगों ने स्वतः ही वजन और माप प्रणाली विकसित की थी, जो 16 के अनुपात में थी| 16. शवों को दफनाने या जलाने का काम उत्तर-दक्षिण दिशा में किया जाता था| 17. हड़प्पा संस्कृति की सबसे कलात्मक कृति “शैलखड़ी की मुहरें” हैं| हड़प्पा कालीन लिपि चित्रात्मक थी लेकिन अभी तक इसे पढ़ा नहीं जा सका है| इस लिपि में पहली पंक्ति दाएं से बाएं ओर और दूसरी पंक्ति बाएं से दाएं ओर लिखी जाती थी| इस शैली को सर्पलेखन (Boustrophedon) कहा जाता है। 18. सिन्धु घाटी सभ्यता की खुदाई से “स्वस्तिक” के निशान भी मिले हैं| 19. मूर्तियों के माध्यम से पता चलता है कि सिन्धु घाटी सभ्यता के दौरान देवी माँ (मातृदेवी या शक्ति) की पूजा होती थी| इसके अलावा “योनि” (महिला यौन अंग) के पूजा के सबूत भी मिले हैं| 20. इस काल के प्रमुख पुरुष देवता “पशुपति महादेव” अर्थात पशुओं के भगवान (आद्य-शिव) थे| जिनकी आकृति खुदाई से प्राप्त एक मुहर पर मिली है| इस आकृति में एक पुरुष योगमुद्रा में बैठे हुए हैं एवं चार जानवर (हाथी, बाघ, गैंडा और भैंस) से घिरे हुए हैं| इसके अलावा उनके पैरों के पास दो हिरण खड़े हैं| सिन्धु घाटी सभ्यता के दौरान “शिवलिंग” की पूजा भी व्यापक रूप से होती थी| 21. इस काल के लोगों का मुख्य व्यवसाय “कताई”, “बुनाई”, “नाव बनाना”, “सोने के आभूषण बनाना”, “मिट्टी के बर्तन बनाना” और “मुहरें बनाना” था| [01/12, 8:26 AM] Raj Kumar: #मध्यकालीन_भारत_का_इतिहास : #खिलजी_वंश खिलजी द्वारा सत्ता स्थापित करने को क्रांति कहा जाता है। हलांकि इतिहासकारों में इस बात को लेकर मतभेद है कि खिलजी तुर्क थे या नही। खिलजी क्रांति इसलिए भी कहा जाता है क्योंकि यह राज्य जातीय उच्चता या खलीफा की स्वीकृत पर आधारित नही थी, बल्कि शक्ति के बल पर आधारित थी। जलालुद्दीन ख़िलजी ने ख़िलजी वंश की स्थापना की थी। जलालुद्दीन ख़िलजी ने ग़ुलाम वंश के अंतिम सुल्तान की हत्या करके ख़िलजियों को दिल्ली का सुल्तान बनाया। ख़िलजी वंश ने 1290 से 1320 ई. तक राज्य किया। दिल्ली के ख़िलजी सुल्तानों में अलाउद्दीन ख़िलजी (1296-1316 ई.) सबसे प्रसिद्ध और योग्य शासक था। #इस_वंश_के_शासक_निम्नलिखित_थे : – ▪️जलालुद्दीन खिलजी (1290 – 1296) ▪️अलाउद्दीन खिलजी (1296 – 1316) ▪️शिहाबुद्दीन उमर ख़िलजी (1316) ▪️कुतुबुद्दीन मुबारक ख़िलजी (1316 – 1320) ▪️नासिरुद्दीन खुसरवशाह (1320) #जलालुद्दीन_फ़िरोज_ख़िलजी –(1290 – 1296) दिल्ली सल्तनत में ‘ख़िलजी वंश (Khilji Dynasty)’ का संस्थापक जलालुद्दीन फ़िरोज ख़िलजी (1290-1296 ई.) था। 🔹प्रारम्भिक जीवन ▪️सेनिक के रूप में अपना जीवन प्रारम्भ किया। ▪️योग्यता के बल पर उन्नति करता हुआ जलालुद्दीन सेनानायक एवं सूबेदार बन गया था। ▪️केकुबाद के सुल्तान बनने के बाद वह आरिजे ममालिक बन गया एवं शाइस्ता खां की उपाधि धारण करने लगा था। 🔹राज्यारोहण ▪️तत्कालीन शासक केकुबाद एवं केमुर्स का हत्या कर 1290 ई. किलखूरी में स्वयं को सुल्तान घोषित किया। ▪️जलालुद्दीन फिरोज खिलजी ने 70 वर्ष की उम्र में 13 जून 1290 ई. को दिल्ली की राज गद्दी ग्रहण की। 🔹राजधानी ▪️जलालुद्दीन खिलजी का राज्याभिषेक कैकुबाद द्वारा बनबाये गये किलोखरी के महल में हुआ इसने अपनी राजधानी किलोखरी को बनाया। 🔹प्रमुख घटनाएँ ▪️जलालुद्दीन खिलजी दिल्ली सल्तनत का पहला शासक था, जिसने अपने विचारों को स्पष्ट रुप से सामने रखा कि राज्य का आधार प्रजा का समर्थन होना चाहिए खिलजी की नीति दूसरों को प्रसन्न रखना थी। ▪️जलालुद्दीन खिलजी ने सीदी मौला जो ईरान से आया हुआ फकीर था इसने उसके खिलाफ षड्यंत्र रचा और उसे हाथी पैरों के नीचे कुचलबा दिया। ▪️फिरोज खिलजी ने अपनी पुत्री की शादी उलूग खाँ से कर दी तथा नवीन मुसलमानो के रहने के लिए मुगलपुर नामक बस्ती बसाई। ▪️जलालुद्दीन के काल में ही मुसलमानों का दक्षिण भारत (देवगिरी) अलाउद्दीन के नेतृत्व में आक्रमण हुआ। 🔹प्रमुख कवि ▪️जलालुद्दीन के दरबार में अमीर खुसरो तथा हसन देहलवी जैसे प्रख्यात व्यक्ति रहते थे। 🔹मृत्यु ▪️जलालुद्दीन ख़िलजी की हत्या के षड़यंत्र में अलाउद्दीन ख़िलजी ने अपने भाई अलमास वेग की सहायता ली, जिसे बाद में ‘उलूग ख़ाँ’ की उपाधि से विभूषित किया गया। इस प्रकार अलाउद्दीन ख़िलजी ने उदार चाचा की हत्या कर दिल्ली के तख्त पर 22 अक्टूबर 1296 को बलबन के लाल महल में अपना राज्याभिषेक करवाया। #अलाउद्दीन_खिलजी – (1296 – 1316 ई.) अलाउद्दीन खिलजी का जन्म जुना मुहम्मद खिलजी के नाम से हुआ था। वे खिलजी साम्राज्य के दुसरे शासक थे जिन्होंने 1296 से 1316 तक शासन किया था। उस समय खिलजी साम्राज्य के सबसे शक्तिशाली शासक अलाउद्दीन खिलजी ही थे। अपने साम्राज्य में उन्होंने खुले में मदिरा के सेवन करने पर प्रतिबन्ध लगा दिया था। 🔹राज्याभिषेक – ▪️उसने अपने चाचा को छल से मारकर 19 जुलाई 1296 ई. में स्वयं को सुल्तान घोषित किया। 12 अक्तूबर 1296 ई. को विधिवत राज्याभिषेक हुआ। 🔹प्रमुख घटनाएँ ▪️अपनी प्रारम्भिक सफलताओं से प्रोत्साहित होकर अलाउद्दीन ने ‘सिकन्दर द्वितीय’ (सानी) की उपाधि ग्रहण कर इसका उल्लेख अपने सिक्कों पर करवाया। ▪️उसने विश्व-विजय एवं एक नवीन धर्म को स्थापित करने के अपने विचार को अपने मित्र एवं दिल्ली के कोतवाल ‘अलाउल मुल्क’ के समझाने पर त्याग दिया। ▪️वे पहले मुस्लिम शासक थे, जिन्होंने दक्षिण भारत में अपना साम्राज्य फैलाया था, और जीत हासिल की थी। अलाउद्दीन खुद को “दूसरा एलेग्जेंडर” कहते थे। ▪️अपने साम्राज्य में उन्होंने खुले में मदिरा के सेवन करने पर प्रतिबन्ध लगा दिया था। ▪️1297 से 1305 ई. में खिलजी वंश ने सफलतापूर्वक कई मंगोल हमलों को नाकाम किया, लेकिन 1299 ईस्वी में जफर खान नामक एक समर्पित सेनानायक को खो दिया। ▪️कहा जाता है की चित्तोड़ की रानी पद्मिनी को पाने के लिए उन्होंने 1303 में चित्तोड़ पर आक्रमण किया था। ▪️इस युद्ध का लेखक मलिक मुहम्मद जायसी ने अवधी भाषा में 1540 में अपनी कविता पद्मावत में उल्लेख किया है। ▪️अल्लाउद्दीन ने 1305 में मालवा और 1308 में राजस्थान के सिवाना किले सहित उत्तर में कई साम्राज्यों पर कब्ज़ा किया। ▪️प्रायद्वीपीय भारत गवाह रहा मदुरै के विनाश का, 1310 ई. में द्वारा समुद्र के होयसला साम्राज्य और 1311 ई. में पंड्या साम्राज्य पर आक्रमण का और साथ ही साथ 1313 ई. में दिल्ली के लिए देवगिरी अनुबंध का। ▪️अलाउद्दीन ख़िलजी के राज्य में कुछ विद्रोह भी हुए, जिनमें 1299 ई. में गुजरात के सफल अभियान में प्राप्त धन के बंटवारे को लेकर ‘नवी मुसलमानों’ द्वारा किये गये विद्रोह का दमन नुसरत ख़ाँ ने किया। 🔹निर्माण कार्य ▪️स्थापत्य कला के क्षेत्र में अलाउद्दीन ख़िलजी ने वृत्ताकार ‘अलाई दरवाजा’ अथवा ‘कुश्क-ए-शिकार’ का निर्माण करवाया। उसके द्वारा बनाया गया ‘अलाई दरवाजा’ प्रारम्भिक तुर्की कला का एक श्रेष्ठ नमूना माना जाता है। 🔹मृत्यु ▪️अलाउद्दीन खिलजी के जीवन के अंतिम दिन काफी दर्दभरे थे। उनकी अक्षमता का फायदा लेते हुए कमांडर मलिक काफूर ने पूरा साम्राज्य हथिया लिया। उस समय वे निराश और कमजोर हो गए थे और 1316 ई. में ही उनकी मृत्यु हो गयी थी। #शिहाबुद्दीन_उमर_ख़िलजी- (1316 ई.) शिहाबुद्दीन उमर ख़िलजी, अलाउद्दीन ख़िलजी का पुत्र था। मलिक काफ़ूर के कहने पर अलाउद्दीन ने अपने पुत्र ‘ख़िज़्र ख़ाँ’ को उत्तराधिकारी न बना कर अपने 5-6 वर्षीय पुत्र शिहाबुद्दीन उमर को उत्तराधिकारी नियुक्त कर दिया। अलाउद्दीन की मृत्यु के बाद काफ़ूर ने शिहाबद्दीन को सुल्तान बना कर सारा अधिकार अपने हाथों में सुरक्षित कर लिया। लगभग 35 दिन के सत्ता उपभोग के बाद काफ़ूर की हत्या अलाउद्दीन के तीसरे पुत्र मुबारक ख़िलजी ने करवा दी। काफ़ूर की हत्या के बाद वह स्वयं सुल्तान का संरक्षक बन गया और कालान्तर में उसने शिहाबुद्दीन को अंधा करवा कर क़ैद करवा दिया। #कुतुबुद्दीन_मुबारक_ख़िलजी – (1316 – 1320 ई.) क़ुतुबुद्दीन मुबारक ख़िलजी (1316-1320 ई.) ख़िलजी वंश के सुल्तान अलाउद्दीन ख़िलजी का तृतीय पुत्र था। अलाउद्दीन के प्रभावशाली व्यक्तियों में से एक मलिक काफ़ूर इसका संरक्षक था। कुछ समय बाद मलिक काफ़ूर स्वयं सुल्तान बनने का सपना देखने लगा और उसने षड़यंत्र रचकर मुबारक ख़िलजी की हत्या करने की योजना बनाई। किंतु मलिक काफ़ूर के षड़यंत्रों से बच निकलने के बाद मुबारक ख़िलजी ने चार वर्ष तक सफलतापूर्वक राज्य किया। इसके शासनकाल में राज्य में प्राय: शांति व्याप्त रही। 🔹सुधार कार्य ▪️उसने राजनीतिक बंदियों को रिहा कर दिया। ▪️अपने सैनिकों को छः माह का अग्रिम वेतन देना प्रारम्भ किया। ▪️विद्धानों एवं महत्त्वपूर्ण व्यक्तियों की छीनी गयीं सभी जागीरें उन्हें वापस कर दीं। ▪️अलाउद्दीन ख़िलजी की कठोर दण्ड व्यवस्था एवं ‘बाज़ार नियंत्रण प्रणाली’ आदि को भी समाप्त कर दिया और जो कठोर क़ानून बनाये गए थे, उन्हें समाप्त करवा दिया। 🔹उपाधियाँ ▪️क़ुतुबुद्दीन मुबारक ख़िलजी ने ‘अल इमाम’, ‘उल इमाम’ एवं ‘ख़िलाफ़त-उल्लाह’ की उपाधियाँ धारण की थीं। ▪️उसने ख़िलाफ़त के प्रति भक्ति को हटाकर अपने को ‘इस्लाम धर्म का सर्वोच्च प्रधान’ और ‘स्वर्ण तथा पृथ्वी के अधिपति का ख़लीफ़ा’ घोषित किया। 🔹मृत्यु ▪️देवगिरि तथा गुजरात की विजय से मुबारक ख़िलजी का दिमाग फिर गया और वह भोग-विलास में लिप्त रहने लगा। वह नग्न स्त्री-पुरुषों की संगत को पसन्द करता था। उसके प्रधानमंत्री ख़ुसरों ख़ाँ ने 1320 ई. में उसकी हत्या करवा दी। #नासिरुद्दीन_खुसरवशाह – (1320 ई.) नासिरुद्दीन खुसरवशाह हिन्दू से मुसलमान बना हुआ था और 15 अप्रैल से 27 अप्रैल, 1320 ई. तक दिल्ली सल्तनत में खिलज़ी वंश का अंतिम शासक था। इसकी हत्या कर के दिल्ली सल्तनत में ख़िलजी का अंत हो गया। इस वंश के बाद दिल्ली सल्तनत में तुगलक़ वंश का उदय हुआ। [01/12, 8:26 AM] Raj Kumar: #आधुनिक_भारत_का_इतिहास : #डच_उपनिवेश_की_स्थापना हॉलैंड (वर्त्तमान नीदरलैंड) के निवासी डच कहलाते है। पुर्तगालियो के बाद डचों ने भारत में अपने कदम रखे। ऐतिहासिक दृष्टि से डच समुद्री व्यापार में निपुण थे। 1602 ईमें नीदरलैंड की यूनाइटेड ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना की गयी और डच सरकार द्वारा उसे भारत सहित ईस्ट इंडिया के साथ व्यापार करने की अनुमति प्रदान की गयी। #डचों_का_उत्थान 1605 ई में डचों ने आंध्र प्रदेश के मुसलीपत्तनम में अपनी पहली फैक्ट्री स्थापित की। बाद में उन्होंने भारत के अन्य भागों में भी अपने व्यापारिक केंद्र स्थापित किये। डच सूरत और डच बंगाल की स्थापना क्रमशः 1616 और 1627 में की गयी थी। डचों ने 1656 ई में पुर्तगालियों से सीलोन जीत लिया और 1671 ई में पुर्तगालियों के मालाबार तट पर स्थित किलों पर भी कब्ज़ा कर लिया। पुर्तगालियों से नागापट्टिनम जीतने के बाद डच काफी सक्षम गए और दक्षिण भारत में अपने पैर जमा लिए। उन्होंने काली मिर्च और मसालों के व्यापार पर एकाधिकार स्थापित कर आर्थिक दृष्टि से अत्यधिक लाभ कमाया। कपास, अफीम, नील, रेशम और चावल वे प्रमुख भारतीय वस्तुएं है जिनका व्यापार डचों द्वारा किया जाता था। #डच_सिक्के डचों ने भारत में रहने के दौरान सिक्कों की ढलाई पर भी हाथ आजमाए। जैसे जैसे उनके व्यापार में वृद्धि होती गयी उन्होंने कोचीन, मूसलीपत्तनम, नागापट्टिनम , पोंडिचेरी और पुलीकट में टकसालों की स्थापना की। पुलीकट स्थित टकसाल से भगवान वेंकटेश्वर (भगवान विष्णु) के चित्र वाले सोने के पैगोडा सिक्के जारी किये गए। डचों द्वारा जारी किये गए सभी सिक्के स्थानीय सिक्का ढलाई के नमूनों पर आधारित थे। #डच_शक्ति_का_पतन भारतीय उप-महाद्वीप पर डचों की उपस्थिति 1605 ई से लेकर 1825 ई तक रही थी। पूर्व के साथ व्यापार में ब्रिटिश शक्ति के उदय ने डचों के व्यापारिक हितों के प्रति एक चुनौती प्रस्तुत की जिसके परिणामस्वरूप दोनों के मध्य खूनी संघर्ष हुए। इन संघर्षों में स्पष्ट रूप से ब्रिटिशों की विजय हुई क्योकि उनके पास अधिक संसाधन थे। अम्बोयना में डचों द्वारा कुछ ब्रिटिश व्यापारियों की नृशंस हत्या ने परिस्थितियों को और बिगाड़ दिया। ब्रिटिशों द्वारा एक के बाद एक लगभग सभी डच क्षेत्रों को अपने कब्जे में ले लिया गया। #मालाबार_क्षेत्र_में_डच_शक्ति_की_घोर_पराजय डच-अंग्रेज संघर्ष के मध्य त्रावणकोर के राजा मार्तंड वर्मा द्वारा 1741 ई में कोलाचेल के युद्ध में डच ईस्ट इंडिया कंपनी को पराजित करने के साथ ही मालाबार क्षेत्र में डच शक्ति का पूर्णतः पतन हो गया। #ब्रिटिशों_के_साथ_संधियाँ_और_संघर्ष हालाँकि 1814 ई की एंग्लो-डच संधि के तहत डच कोरोमंडल और डच बंगाल पुनः डच शासन के अधीन आ गए थे लेकिन 1824 ई में हस्ताक्षरित एंग्लो-डच संधि के प्रावधानों के तहत फिर से ब्रिटिश शासन के अधीन आ गए क्योकि इस संधि के तहत डचों के लिये 1 मार्च 1825 ई तक सारी संपत्ति और क्षेत्रों को हस्तांतरित करना बाध्यकारी बना दिया गया। 1825 ई के मध्य तक डच भारत में अपने सभी व्यापारिक क्षेत्रों से वंचित हो चुके थे। एक समझौते के तहत ब्रिटिशों ने आपसी अदला-बदली के तरीके के आधार पर खुद को इंडोनेशिया के साथ व्यापार से अलग कर लिया और बदले में डचों ने भारत के साथ अपना व्यापार बंद कर दिया। #भारत_में_डेनिश_औपनिवेशिक_क्षेत्र डेनमार्क से सम्बंधित किसी भी व्यक्ति या वस्तु को डेनिश कहा जाता है। डेनमार्क द्वारा लगभग 225 वर्षों तक भारत में अपने उपनिवेश बनाये रखे गए। भारत में स्थापित डेनिश बस्तियों मे त्रंकोबार (तमिलनाडु) ,सेरामपुर (पश्चिम बंगाल) और निकोबार द्वीप शामिल थे। #डेनिश_व्यापारिक_एकाधिकार_की_स्थापना एक डच साहसी मर्सलिस दे बोशौवेर ने भारतीय उप-महाद्वीप में डेनिश हस्तक्षेप के लिए प्रेरणा प्रदान की। वह सहयोगी दलों से सभी तरह के व्यापार पर एकाधिकार के वादे के साथ पुर्तगालियों के विरुद्ध सैन्य सहयोग चाहता था। उसकी अपील ने डेनमार्क-नॉर्वे के राजा क्रिस्चियन चतुर्थ को प्रभावित किया जिसने बाद में 1616 ई में एक चार्टर जारी किया जिसके तहत डेनिश ईस्ट इंडिया कंपनी को डेनमार्क और एशिया के मध्य होने वाले व्यापार पर बारह वर्षों के लिए एकाधिकार प्रदान कर दिया गया। #डेनिश_चार्टर्ड_कंपनियां दो डेनिश चार्टर्ड कंपनियां थी। प्रथम कंपनी डेनिश ईस्ट इंडिया कंपनी थी ,जिसका कार्यकाल 1616 ई से लेकर 1650 ई तक था। डेनिश ईस्ट इंडिया कंपनी और स्वीडिश ईस्ट इंडिया कंपनी मिलकर ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी से ज्यादा चाय का आयात करती थीं और उसमे से अधिकांश को अत्यधिक लाभ पर अवैध तरीके से ब्रिटेन में बेचता था। इस कंपनी का 1650 ई में विलय कर दिया गया। दूसरी कंपनी 1670 ई से लेकर 1729 ई तक सक्रिय रही । 1730 ई में एशियाटिक कंपनी के रूप में इसकी पुनः स्थापना की गयी। 1732 ई में इसे शाही लाइसेंस प्रदान कर अगले चालीस वर्षों के लिए आशा अंतरीप के पूर्व से होने वाले डेनिश व्यापार पर एकाधिकार प्रदान कर दिया गया। 1750 ई तक भारत से 27 जहाज भेजे गए जिनमे से 22 जहाज सफलतापूर्वक यात्रा पूरी कर कोपेनहेगेन पहुचे। लेकिन 1722 ई में कंपनी ने अपना एकाधिकार खो दिया। #सेरामपुर_मिशन_प्रेस यहाँ यह उल्लेख करना जरुरी है कि सेरामपुर मिशन प्रेस की स्थापना ,जोकि एक ऐतिहासिक एवं युगांतरकारी कदम था, सेरामपुर में डेनिश मिशनरी द्वारा 1799 ई में की गयी थी। 1801 ई से लेकर 1832 ई तक सेरामपुर मिशन प्रेस ने 40 विभिन्न भाषाओं में किताबों की 212,000 प्रतियाँ छापीं। #भारत_में_डेनिश_बस्तियों_की_समाप्ति नेपोलियन युद्ध (1803-1815 ई।) के दौरान ब्रिटिशों ने डेनिश जहाजों पर हमला कर डेनिश ईस्ट इंडिया कंपनी के भारत के साथ होने वाले व्यापर को नष्ट कर दिया और अंततः डेनिश बस्तियों पर कब्ज़ा कर उन्हें ब्रिटिश भारत का हिस्सा बना लिया। अंतिम डच बस्ती सेरामपुर को 1845 ई में डेनमार्क द्वारा ब्रिटेन को हस्तांतरित कर दिया गया। [01/12, 8:26 AM] Raj Kumar: #मध्यकालीन_भारत_का_इतिहास : #मामलूक_या_गुलाम_वंश कुतुबुदीन ऐबक, मुहम्मद गौरी का गुलाम था। उसने भारत में जिस राजवंश की स्थापना की उसे गुलाम वंश (Slave Dynasty) कहते है। इस वंश ने 1206 से 1290 ई. तक 84 साल तक राज किया। इस वंश के शासक या संस्थापक ग़ुलाम (दास) थे न कि राजा। इस लिए इसे राजवंश की बजाय सिर्फ़ वंश कहा जाता है। #इस_वंश_के_शासक_निम्नलिखित_थे : – ▪️कुतुबुद्दीन ऐबक (1206 – 1210) ▪️आरामशाह (1210) ▪️इल्तुतमिश (1210 – 1236) ▪️रूकुनुद्दीन फ़ीरोज़शाह (1236) ▪️रजिया सुल्तन (1236 – 1240) ▪️मुईज़ुद्दीन बहरामशाह (1240 – 1242) ▪️अलाऊद्दीन मसूदशाह (1242 – 1246) ▪️नासिरूद्दीन महमूद (1246 – 1266) ▪️गयासुद्दीन बलबन (1266 – 1286) ▪️कैकुबाद (1286 – 1290) ▪️शमशुद्दीन क्यूम़र्श (1290) #कुतुबुद्दीन_ऐबक –(1206 – 1210 ई.) कुतुबुदीन ऐबक दिल्ली सल्तनत का पहला सुल्तान था। इसी को ही दिल्ली गुलाम वंश का संस्थापक कहा जाता है, कुतुबुदीन ऐबक मुहमंद गौरी का गुलाम था। जब मुहमंद गौरी ने भारत में लूटपाट कर के वापिस अफगान गया तो उसने भारत में अपने दासों को नियुक्त किया जो भारत में उसके नाम से शासन करे। 🔹शासनकाल – 1206 – 1210 ई. 🔹राज्यारोहण – मुहमंद गौरी की मृत्यु के बाद 25 जून 1206 ई. को कुतुबुदीन ऐबक का अनोपचारिक राज्यारोहण लाहोर में हुआ। उसने लाहोर को अपनी राजधानी बनाया था। 🔹गुरु – ख्वाजा कुतुबुद्दीन बख्तियार काका। 🔹प्रमुख_योगदान ▪️दिल्ली सल्तनत की स्थापना की। ▪️दानवीर और उदार होने के कारण ‘लाखबख्श’ के नाम से भी जाना जाता था। ▪️साहित्य और कला का संरक्षक था। ▪️फर्रुखमुद्दार एवं हसन निजामी उसके दरवार के प्रसिद्ध विद्वान थे। 🔹निर्माण_कार्य ▪️दो प्रसिद्ध मस्जिद दिल्ली का कुबत-उल-इस्लाम और अजमेर का ढाई दिन का झोंपड़ा बनवाया। ▪️अपने गुरु ख्वाजा कुतुबुद्दीन बख्तियार काका के स्मृति में कुतुबमीनार का एक मंजिल का निर्माण कराया (इसके मृत्यु के कारण यह अधुरा ही बन पाया)। इसे इल्तुतमिश ने पूरा किया था। 🔹दामाद – इल्तुतमिश । 🔹पुत्र – आरामशाह (कई इतिहासकार इसे कुतुबुदीन ऐबक का पुत्र नहीं मानते है)। 🔹मृत्यु – नवम्बर 1210 ई. में लाहोर में चोगान (पोलो) खेलते समय घोड़े से गिर जाने के कारण मृत्यु हो गई। ____________________________________________ #आरामशाह – (1210 ई.) कुतुबुदीन ऐबक के आकस्मिक मृत्यु के बाद तुर्की सरदारों ने उनके पुत्र आरामशाह को 1210 ई. में लाहौर ने सुल्तान बना दिया। उसी बीच कुबाचा और खिलजियों के आक्रमण को आरामशाह नियंत्रण नही कर सका। जिसके फलस्वरूप बदायूं के गवर्नर, इल्तुतमिश को, जो कुतुबुदीन ऐबक का दामाद था तुर्की सरदारों ने सुल्तान बनाना चाहा, जिसका विरोध आरामशाह ने किया। इल्तुतमिश ने आरामशाह को मारकर सत्ता पर अधिकार कर लिया। ____________________________________________ #इल्तुतमिश –(1210 – 1236 ई.) इल्तुतमिश तुर्किस्तान की इल्बरी काबिले का था। इसका असली नाम ‘अलतमश’ था। खोखरों के विरुद्ध इल्तुतमिश की कार्य कुशलता से प्रभावित होकर मुहम्मद ग़ोरी ने उसे ‘अमीरूल उमरा’ नामक महत्त्वपूर्ण पद दिया था। इसने 1210 ई. से 1236 ई. तक शासन किया। राज्याभिषेक समय से ही अनेक तुर्क अमीरउसका विरोध कर रहे थे। सुल्तान का पद प्राप्त करने के बाद इल्तुतमिश को कुछ कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। इसके अन्तर्गत इल्तुतमिश ने सर्वप्रथम ‘कुल्बी’ अर्थात कुतुबद्दीन ऐबक के समय सरदार तथा ‘मुइज्जी’ अर्थात् मुहम्मद ग़ोरी के समय के सरदारों के विद्रोह का दमन किया। इल्तुमिश ने इन विद्रोही सरदारों पर विश्वास न करते हुए अपने 40 ग़ुलाम सरदारों का एक गुट या संगठन बनाया, जिसे ‘तुर्कान-ए-चिहालगानी’ का नाम दिया गया। इस संगठन को ‘चरगान’ भी कहा जाता है। 🔹शासनकाल – 1210 – 1236 ई. 🔹राज्यारोहण – ऐबक ने सेनापति अमीद अली इस्माइल के अनुमति से आरामशाह को मारकर 1210 ई. में दिल्ली में ऐबक वंश की जगह इलबरी वंश की स्थापना की। 🔹गुरु – ख्वाजा कुतुबुद्दीन बख्तियार काका। 🔹पुत्री – रजिया सुल्तान। 🔹प्रमुख_योगदान ▪️लाहौर से अपनी राजधानी को दिल्ली ले आया। ▪️सल्तनत के तीन महत्वपूर्ण अंग इक्त्ता, सेना और मुद्रा प्रणाली का गठन किया। ▪️इक्ता – धन के स्थान पर वेतन के रूप में भूमि प्रदान करना। ▪️नए सिक्के चाँदी का टंका तथा तांबे के सिक्के जातल का प्रचलन इल्तुतमिश ने ही किया। ▪️इल्तुमिश ने विद्रोही सरदारों पर विश्वास न करते हुए अपने 40 ग़ुलाम सरदारों का एक गुट या संगठन बनाया, जिसे ‘तुर्कान-ए-चिहालगानी’ का नाम दिया गया। इस संगठन को ‘चरगान’ भी कहा जाता है। 🔹निर्माण_कार्य ▪️ख्वाजा कुतुबुद्दीन बख्तियार काका की स्मृति में 1231 – 32 ई. में कुतुबमीनार को पूरा बनवाया था। ▪️भारत में सम्भवतः पहला मक़बरा निर्मित करवाने का श्रेय भी इल्तुतमिश को दिया जाता है। इल्तुतमिश का मक़बरा दिल्ली में स्थित है, जो एक कक्षीय मक़बरा है। ▪️इल्तुतमिश ने बदायूँ की जामा मस्जिद एवं नागौर में अतारकिन के दरवाज़ा का निर्माण करवाया। ▪️अजमेर की मस्जिद’ का निर्माण इल्तुतमिश ने ही करवाया था। ▪️उसने 1230 में महरौली के हौज-ए-शम्शी (शम्सी ईदगाह) जलाशय का निर्माण किया । 🔹विद्वानों_का_संरक्षण ▪️तत्कालीन विद्वान दरबारी लेखक मिनहाज उस सिराज थे, जिसने प्रसिध्द ग्रंथ तबकाते-नासिरी की रचना की एवं मलिक ताजूद्दीन को संरक्षण प्रदान किया। 🔹महत्वपूर्ण_युद्ध ▪️इल्तुतमिश ने 1226 ई. में बंगाल पर विजय पाकर बंगाल को दिल्ली सल्तनत का इक्ता (सूबा) बनाया। ▪️इल्तुतमिश ने 1226 ई. में रणथम्भौर जीता तथा परमारों की राजधानी मंदौर पर अधिकार कर लिया। ▪️इल्तुतमिश के काल मे 1221 ई. मंगोलों ने चंगेज खाँ के नेतृत्व में भारत पर आक्रमण किया। 🔹मृत्यु ▪️खोखरो के अभियान को दबाने के दौरान 1236 ई. में मृत्यु हो गई। ____________________________________________ #रूकुनुद्दीन_फ़ीरोज़शाह – (1236 ई.) रूकुनुद्दीन फ़ीरोज़शाह दिल्ली सल्तनत में ग़ुलाम वंश का शासक था। सन् 1236 में इल्तुतमिश की मृत्यु के बाद वो एक साल से भी कम समय के लिए सत्तासीन रहा। यह इल्तुतमिश का सबसे छोटा बेटा था। ____________________________________________ #रजिया_सुल्ताना – (1236 – 1240 ई.) रज़िया अल-दिन, शाही नाम “जलॉलात उद-दिन रज़ियॉ” जिसे सामान्यतः “रज़िया सुल्तान” या “रज़िया सुल्ताना” के नाम से जाना जाता है, दिल्ली सल्तनत की सुल्तान थी। वह इल्तुतमिश की पुत्री थी। रज़िया सुल्ताना मुस्लिम एवं तुर्की इतिहास कि पहली महिला शासक थीं। 🔹शासनकाल – 1236 – 1240 ई. 🔹राज्यारोहण – जनता के समर्थन से नवंबर 1236 ई. में राज्यारोहण किया गया। ▪️रजिया सुलतान दिल्ली सल्तनत की पहली और अंतिम महिला सुल्तान थी। ▪️रजिया पुरुषों की तरह चोगा (काबा) कुलाह (टोपी) पहनकर राजदरबार में शासन करती थी। ▪️रज़िया अपनी राजनीतिक समझदारी और नीतियों से सेना तथा जनसाधारण का ध्यान रखती थी। 🔹मृत्यु ▪️रजिया ने लाहौर का विद्रोह सफलतापूर्वक दबा दिया। मगर जब भटिंडा के प्रशासन अल्तुनिया से युद्ध कर वह याकृत के साथ दिल्ली आ रही थी, तो 14 अक्तुबर, 1240 को मार्ग में उसका वध कर दिया गया। ___________________________________________ #मुईज़ुद्दीन_बहरामशाह –(1240 – 1242 ई.) 1240 ई. में रजिया सुल्तान के हत्या कर उसके भाई मुईज़ुद्दीन बहरामशाह (1240 ई.) ने सल्तनत पर अधिकार कर लिया। इसे तुर्की अमीरों ने नायब-ए-मुमलकत (संरक्षक) का पद बनाया था। वह नाममात्र का शासक था, वास्तव में चालीसा ही शासन संभाला रहे थे। तुर्क अमीरों ने 1242 ई. में बहरामशाह की हत्या कर दी। ____________________________________________ #अलाऊद्दीन_मसूदशाह – (1242 – 1246 ई.) अलाउद्दीन मसूद शाह तुर्की शासक था, जो दिल्ली सल्तनत का सातवां सुल्तान बना। यह भी गुलाम वंश से था। वह रुकुनुद्दीन फ़ीरोज़शाह का पौत्र तथा मुइज़ुद्दीन बहरामशाह का पुत्र था। उसके समय में नाइब का पद ग़ैर तुर्की सरदारों के दल के नेता मलिक कुतुबुद्दीन हसन को मिला क्योंकि अन्य पदों पर तुर्की सरदारों के गुट के लोगों का प्रभुत्व था, इसलिए नाइब के पद का कोई विशेष महत्त्व नहीं रह गया था। शासन का वास्तविक अधिकार वज़ीर मुहाजबुद्दीन के पास था, जो जाति से ताजिक (ग़ैर तुर्क) था। तुर्की सरदारों के विरोध के परिणामस्वरूप यह पद नजुमुद्दीन अबू बक्र को प्राप्त हुआ। इसी के समय में बलबन को हाँसी का अक्ता प्राप्त हुआ। ‘अमीरे हाजिब’ का पद इल्तुतमिश के ‘चालीस तुर्कों के दल’ के सदस्य ग़यासुद्दीन बलबन को प्राप्त हुआ। 1245 में मंगोलों ने उच्छ पर अधिकार कर लिया, परन्तु बलबन ने मंगोलों को उच्छ से खदेड़ दिया, इससे बलबन की प्रतिष्ठा बढ़ गयी। अमीरे हाजिब के पद पर बने रह कर बलबन ने शासन का वास्तविक अधिकार अपने हाथ में ले लिया। अन्ततः बलबन ने नसीरूद्दीन महमूद एवं उसकी माँ से मिलकर अलाउद्दीन मसूद को सिंहासन से हटाने का षडयंत्र रचा। जून, 1246 में उसे इसमें सफलता मिली। बलबन ने अलाउद्दीन मसूद के स्थान पर इल्तुतमिश के प्रपौत्र नसीरूद्दीन महमूद को सुल्तान बनाया। ____________________________________________ #नासिरूद्दीन_महमूद – (1246 – 1266 ई.) नासिरूद्दीन महमूद तुर्की शासक था, जो दिल्ली सल्तनत का आठवां सुल्तान बना। यह भी गुलाम वंश से था। बलबन ने षड़यंत्र के द्वारा 1246 ई. में सुल्तान मसूद शाह को हटाकर नाशिरुद्दीन महमूद को सुल्तान बनाया। बलबन ने अपनी पुत्री का विवाह नाशिरुद्दीन महमूद से करवाया था। नसिरुद्दीन मधुर एवं धार्मिक स्वभाव का व्यक्ति था। शासक के रूप में नसिरुद्दीन में तत्कालीन पेचीदी परिस्थिति का सामना करने लायक आवश्यक गुणों का काफी अभाव था। नसिरुद्दीन की 12 फरवरी 1266 ई. को मृत्यु हो गई। उसके बाद उसका कोई भी पुरुष उत्तराधिकारी नहीं बचा। इस प्रकार इल्तुतमिश के वंश का अन्त हो गया। तब बलबन, जिसकी योग्यता सिद्ध हो चुकी थी तथा जो स्वर्गीय सुल्तान द्वारा उसका उत्तराधिकारी मनोनीत किया गया,कहा जाता है कि सरदारों एवं पदाधिकारियों की मौन स्वीकृति से सिंहासन पर बैठा। ____________________________________________ #गयासुद्दीन_बलबन – (1266 – 1286 ई.) गयासुद्दीन बलबन इसका वास्तविक नाम बहाउदीन था। उसने सन् 1266 से 1286 तक राज्य किया। गयासुद्दीन बलबन, जाति से इलबारी तुर्क था। बाल्यकाल में ही मंगोलों ने उसे पकड़कर बगदाद के बाजार में दास के रूप में बेच दिया। ख्वाजा जमालुद्दीन अपने अन्य दासों के साथ उसे 1232 ई. में दिल्ली ले आया। इन सबको सुल्तान इल्तुतमिश ने खरीद लिया। इस प्रकार बलबन इल्तुतमिश के चेहलागान नामक तुर्की दासों के प्रसिद्ध दल का था। 🔹उपाधि – जिल्ला-इलाही। 🔹कार्य ▪️सुल्तान के पद पर बैठते ही चालीसा का परभाव समाप्त कर दिया। ▪️अपनी स्थिति को मजबूत करने के किये इल्तुतमिश के परिवार के शेष लोगो को मरवा दिया। ▪️बंगाल से सूबेदार तुगरिल खां ने 1276 ई. में विद्रोह किया, जिससे क्रुद्ध होकर मरवा दिया। 🔹बलवत का सिद्धांत ▪️बलबन सुल्तान को पृथ्वी पर अल्लाह का प्रतिनिधित्व मानता था। ▪️उसेक अनुसार सुल्तान जिल्ले अल्लाह है अर्थात ईश्वर की परछाई है। 🔹बलवत के द्वारा प्रचलित नियम ▪️सामान्य लोगो से सुल्तान नही मिल सकता था। ▪️सिक्को पर अपना नाम खुदवाया तथा खुतबा में खलीफा का नाम पढ़वाया था। ▪️उच्चवंशाय लोगों को पदाधिकारी बनाया जाता था। ▪️वह एकांत में रहता था, हर्ष या शोक से विचलित नही होता था। शराब पीना एवं मनोरंजन कार्य बंद कर दिए थे। ▪️उसने राजदरबार में सिजदा एवं पेबोस की प्रथा प्रारम्भ की। ▪️कोई भी होठो पर मुस्कुराहट नही ला सकता था। 🔹समकालीन कवि ▪️अमीर खुसरो (तुतिए-हिन्द) ▪️अमीर हसन 🔹मृत्यु ▪️1286 ई. में (मंगोली संघर्ष में अपने जेष्ठ पुत्र के मारे जाने के शोक में) ____________________________________________ #कैकुबाद – (1286 – 1290 ई.) बलबन ने अपनी मृत्यु के पूर्व अपने जेष्ठ पुत्र के पुत्र अर्थात पौत्र कैखुसरो को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया था। लेकिन दिल्ली के कोतवाल फ़ख़रुद्दीन मुहम्मद ने बलबन की मृत्यु के बाद कूटनीति के द्वारा कैखुसरो को मुल्तान की सूबेदारी देकर कैकुबाद को दिल्ली की राजगद्दी पर बैठा दिया। कैकुबाद अथवा ‘कैकोबाद’ (1286-1290 ई.) को 17-18 वर्ष की अवस्था में दिल्ली की गद्दी पर बैठाया गया था। कैकुबाद ने ग़ैर तुर्क सरदार जलालुद्दीन ख़िलजी को अपना सेनापति बनाया, जिसका तुर्क सरदारों पर बुरा प्रभाव पड़ा। तुर्क सरदार बदला लेने की बात को सोच ही रहे थे कि, कैकुबाद को लकवा मार गया। लकवे का रोगी बन जाने के कारण कैकुबाद प्रशासन के कार्यों में अक्षम हो गया। ____________________________________________ #शमशुद्दीन_क्यूम़र्श – (1290 ई.) शमशुद्दीन क्यूम़र्श भारत में गुलाम वंश का अतिम शासक था। कैकुबाद को लकवा मार जाने के कारण वह प्रशासन के कार्यों में पूरी तरह से अक्षम हो चुका था। प्रशासन के कार्यों में उसे अक्षम देखकर तुर्क सरदारों ने उसके तीन वर्षीय पुत्र शम्सुद्दीन क्यूम़र्श को सुल्तान घोषित कर दिया। कालान्तर में जलालुद्दीन फ़िरोज ख़िलजी ने उचित अवसर देखकर शम्सुद्दीन का वध कर दिया। शम्सुद्दीन की हत्या के बाद जलालुद्दीन फ़िरोज ख़िलजी ने दिल्ली के तख्त पर स्वंय अधिकार कर लिया। इस प्रकार से बाद में दिल्ली की राजगद्दी पर ख़िलजी वंश की स्थापना हुई। [01/12, 8:26 AM] Raj Kumar: #आधुनिक_भारत_का_इतिहास : #पुर्तगाली_उपनिवेश_की_स्थापना पुर्तगाली पहले यूरोपीय थे जिन्होंने भारत तक सीधे समुद्री मार्ग की खोज की । 20 मई 1498 को पुर्तगाली नाविक वास्को-डी-गामा कालीकट पहुंचा, जो दक्षिण-पश्चिम भारत में स्थित एक महत्वपूर्ण समुद्री बंदरगाह है। स्थानीय राजा जमोरिन ने उसका स्वागत किया और कुछ विशेषाधिकार प्रदान किये। भारत में तीन महीने रहने के बाद वास्को-डी-गामा सामान से लदे एक जहाज के साथ वापस लौट गया और उस सामान को उसने यूरोपीय बाज़ार में अपनी यात्रा की कुल लागत के साठ गुने दाम में बेचा। 1501 ई.में वास्को-डी-गामा दूसरी बार फिर भारत आया और उसने कन्नानौर में एक व्यापारिक फैक्ट्री स्थापित की। व्यापारिक संबंधों की स्थापना हो जाने के बाद भारत में कालीकट, कन्नानौर और कोचीन प्रमुख पुर्तगाली केन्द्रों के रूप में उभरे। अरब व्यापारी, पुर्तगालियो की सफलता और प्रगति से जलने लगे और इसी जलन ने स्थानीय राजा जमोरिन और पुर्तगालियो के बीच शत्रुता को जन्म दिया। यह शत्रुता इतनी बढ़ गयी कि उन दोनों के बीच सैन्य संघर्ष की स्थिति पैदा हो गयी। राजा जमोरिन को पुर्तगालियों ने हरा दिया और इसी जीत के साथ पुर्तगालियों की सैनिक सर्वोच्चता स्थापित हो गयी। #भारत_में_पुर्तगाली_शक्ति_का_उदय 1505 ई में फ्रांसिस्को दे अल्मीडा को भारत का पहला पुर्तगाली गवर्नर बनाया गया। उसकी नीतियों को ब्लू वाटर पालिसी कहा जाता था क्योकि उनका मुख्य उद्देश्य हिन्द महासागर को नियंत्रित करना था। 1509 ई में फ्रांसिस्को दे अल्मीडा की जगह अल्बुकर्क भारत में पुर्तगाली गवर्नर बनकर आया जिसने 1510 ई.में बीजापुर के सुल्तान से गोवा को अपने कब्जे में ले लिया। उसे भारत में पुर्तगाली शक्ति का वास्तविक संस्थापक माना जाता है। बाद में गोवा भारत में पुर्तगाली बस्तियों का मुख्यालय बन गया। तटीय क्षेत्रों पर पकड़ और नौसेना की सर्वोच्चता ने भारत में पुर्तगालियों के स्थापित होने में काफी मदद की ।16 वीं सदी के अंत तक पुर्तगालियों ने न केवल गोवा,दमन,दीव और सालसेट पर कब्ज़ा कर लिया बल्कि भारतीय तट के सहारे विस्तृत बहुत बड़े क्षेत्र को भी अपने प्रभाव में ले लिया। #पुर्तगाली_शक्ति_का_पतन भारत में पुर्तगाली शक्ति अधिक समय तक टिक नहीं सकी क्योकि नए यूरोपीय व्यापारिक प्रतिद्वंदियों ने उनके सामने चुनौती पेश कर दी। विभिन्न व्यापारिक प्रतिद्वंदियों के मध्य हुए संघर्ष में पुर्तगालियों को अपने से शक्तिशाली और व्यापारिक दृष्टि से अधिक सक्षम प्रतिद्वंदी के समक्ष समर्पण करना पड़ा और धीरे धीरे वे सीमित क्षेत्रों तक सिमट कर रह गए। #पुर्तगाली_शक्ति_के_पतन_के_मुख्य_कारण भारत में पुर्तगाली शक्ति के पतन के प्रमुख कारणों में निम्नलिखित शामिल है- पुर्तगाल एक देश के रूप में इतना छोटा था कि वह अपने देश से दूर स्थित व्यापारिक कॉलोनी के भार को वहन नही कर सकता था। उनकी समुद्री डाकुओं के रूप में प्रसिद्धि ने स्थानीय शासकों के मन में उनके विरुद्ध शत्रुता का भाव पैदा कर दिया। पुर्तगालियो की कठोर धार्मिक नीति ने उन्हें भारत के हिन्दू और मुसलमानों दोनों से दूर कर दिया। इसके अतिरिक्त डच और ब्रिटिशो के भारत में आगमन ने भी पुर्तगालियो के पतन में योगदान दिया। विडंबना यह है कि पुर्तगाली शक्ति, जो भारत में सबसे पहले आने वाली यूरोपीय शक्ति थी ,वही 1961 ई.में भारत से लौटने वाली अंतिम यूरोपीय शक्ति भी थी, जब भारत सरकार ने गोवा ,दमन और दीव को उनसे पुनः अपने कब्जे में ले लिया। #भारत_को_पुर्तगालियो_की_देन उन्होंने भारत में तंबाकू की कृषि आरंभ की। उन्होंने भारत के पश्चिमी और पूर्वी तट पर कैथोलिक धर्म का प्रसार किया। उन्होंने 1556 ई.में गोवा में भारत की पहली प्रिंटिग प्रेस की स्थापना की। द इंडियन मेडिसनल प्लांट्स पहला वैज्ञानिक कार्य था जिसका प्रकाशन 1563 ई.में गोवा से किया गया । सर्वप्रथम उन्होंने ही कार्टेज प्रणाली के माध्यम से यह बताया कि कैसे समुद्र और समुद्री व्यापार पर सर्वोच्चता स्थापित की जाए। इस प्रणाली के तहत कोई भी जहाज अगर पुर्तगाली क्षेत्रोँ से गुजरता है तो उसे पुर्तगालियों से परमिट लेना पडेगा अन्यथा उन्हें पकड़ा जा सकता है। वे भारत और एशिया में ईसाई धर्म का प्रचार करने वाले प्रथम यूरोपीय थे। [01/12, 8:26 AM] Raj Kumar: #प्राचीन_भारत_का_इतिहास : #ताम्रपाषाण_युग ताम्रपाषाण युग या ताम्र पाषाण संस्कृति का आरम्भ नवपाषाण युग के बाद हुआ। ताम्रपाषाण युग या ताम्र पाषाण संस्कृति में उपकरण, औजार और हथियार के निर्माण में पत्थर के साथ ताँबें का भी प्रयोग बहुतायत में होने लगा, इसीलिए इस समय को ताम्रपाषाण युग या ताम्रपाषाणिक युग कहते हैं। ▪️नवपाषाण युग के अंत में धातुओं का प्रयोग बढ़ने लगा, सर्वप्रथम धातुओं में ताँबे का प्रयोग किया गया। तो जिस संस्कृति ने पत्थर के साथ-साथ ताँबे का भी प्रयोग किया उसी संस्कृति को ताम्रपाषाणिक कहते हैं, जिसका अर्थ है ‘पत्थर और तांबे के उपयोग की अवस्था।’ ▪️तकनिकी दृष्टिकोण से ताम्रपाषाण युग, हड़प्पा की कांस्यकालीन संस्कृति से पहले की है। लेकिन भारत में हड़प्पा की कांस्य संस्कृति पहले आती है और अधिकांश ताम्रपाषाण युग की संस्कृतियाँ बाद में। ▪️ताम्रपाषाण युग के लोग पशुपालन और कृषि किया करते थे। वे मुख्य अनाज गेहूँ, चावल के आलावा बाजरा, मसूर, उड़द और मूँग आदि दलहन फसलें भी उगाया करते थे। ▪️वे लोग भेड़, बकरी, गाय, भैंस और सूअर पाला करते थे। हिरन का शिकार करते थे। वह ऊँट से परिचित थे इस बात के भी साक्ष्य ऊँट के अवशेष के रूप में प्राप्त हुए हैं। सामान्यतः इस संस्कृति या युग के लोग घोड़े से परिचित नहीं थे। ▪️ताम्रपाषाण युग के लोग समुदाय बनाकर कर गांवों में रहते थे तथा देश के विशाल भागों में फैले थे जहाँ पहाड़ी जमींन और नदियाँ स्थित थीं। इतिहासकारों का मत है की ताम्रपाषाण युगीन लोग पक्की ईंटों का प्रयोग नहीं करते थे संभवतः वह पक्की ईंटों से परिचित नहीं थे। ▪️ताम्रपाषाण काल के लोग वस्त्र निर्माण करना जानते थे। साथ ही वह मिट्टी के खिलोने और मूर्ति (टेराकोटा की) के कारीगर थे। साथ ही कुंभकार, धातुकार, हाथी दाँत के शिल्पी और चुना बनाने के कारीगर थे। ▪️ताम्रपाषाण काल के अधिकतर मृदभांड (मिट्टी के बर्तन) काले व लाल रंग के थे, जोकि चाक पर बनते थे कभी-कभार इन पर सफेद रंग की रेखिक आकृतियाँ बनी रहती थी। ▪️मिट्टी की स्त्री रूपी मूर्ति से ज्ञात होता है कि ताम्रपाषाण कालीन लोग मातृ-देवी की पूजा करते थे और संभवतः वृषभ (सांड) धार्मिक पंथ का प्रतीक था। ▪️भारत में ताम्रपाषाण काल की कई बस्तियाँ हैं तिथिक्रम की दृष्टि से कुछ प्राक् तथा हड़प्पीय हैं, कुछ हड़प्पा संस्कृति के समकालीन हैं तो कुछ हड़प्पोत्तर अर्थात हड्डपा संस्कृति के बाद की हैं। #भारत_में_ताम्रपाषण_युगीन_बस्तियां : ▪️दक्षिण पूर्वी राजस्थान – • अहार (उदयपुर), • गिलुंद (राजसमंद) ▪️पश्चिमी महाराष्ट्र – • जोखे, • नेवासा, सोनगाँव और दैमाबाद (अहमदनगर), • चंदौली (कोल्हापुर), • इनामगाँव – इस युग की सबसे बडी बस्ती यहीं मिली है (पुणे) ▪️पश्चिमी मध्यप्रदेश – • मालवा (मालवा), • कयथा (मंडला), • एरण (गुना)

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