Monday, December 5, 2022

जीवन में सुख का आधार क्या है?




जीवन में सुख का आधार क्या है?


एक बार एक महात्मा ने अपने शिष्यों से अनुरोध किया कि वे कल से प्रवचन में आते समय अपने साथ एक थैली में बडे आलू साथ लेकर आयें, उन आलुओं पर उस व्यक्ति का नाम लिखा होना चाहिये जिनसे वे ईर्ष्या, द्वेष आदि करते हैं । जो व्यक्ति जितने व्यक्तियों से घृणा करता हो, वह उतने आलू लेकर आये।

अगले दिन सभी लोग आलू लेकर आये, किसी पास चार आलू थे, किसी के पास छः या आठ और प्रत्येक आलू पर उस व्यक्ति का नाम लिखा था जिससे वे नफ़रत करते थे ।

अब महात्मा जी ने कहा कि, अगले सात दिनों तक ये आलू आप सदैव अपने साथ रखें, जहाँ भी जायें, खाते-पीते, सोते-जागते, ये आलू आप सदैव अपने साथ रखें । शिष्यों को कुछ समझ में नहीं आया कि महात्मा जी क्या चाहते हैं, लेकिन महात्मा के आदेश का पालन उन्होंने अक्षरशः किया । दो-तीन दिनों के बाद ही शिष्यों ने आपस में एक दूसरे से शिकायत करना शुरू किया, जिनके आलू ज्यादा थे, वे बडे कष्ट में थे । जैसे-तैसे उन्होंने सात दिन बिताये, और शिष्यों ने महात्मा की शरण ली । महात्मा ने कहा, अब अपने-अपने आलू की थैलियाँ निकालकर रख दें, शिष्यों ने चैन की साँस ली ।

महात्मा जी ने पूछा – विगत सात दिनों का अनुभव कैसा रहा ? शिष्यों ने महात्मा से अपनी आपबीती सुनाई, अपने कष्टों का विवरण दिया, आलुओं की बदबू से होने वाली परेशानी के बारे में बताया, सभी ने कहा कि बड़ा हल्का महसूस हो रहा है। महात्मा ने कहा – यह अनुभव मैंने आपको एक शिक्षा देने के लिये किया था। जब मात्र सात दिनों में ही आपको ये आलू बोझ लगने लगे, तब सोचिये कि आप जिन व्यक्तियों से ईर्ष्या या द्वेष करते हैं। उनका कितना बोझ आपके मन पर होता होगा। वह बोझ आप लोग तमाम जिन्दगी ढोते रहते हैं। सोचिये कि आपके मन और दिमाग की इस ईर्ष्या के बोझ से क्या हालत होती होगी ? यह ईर्ष्या तुम्हारे मन पर अनावश्यक बोझ डालती है, उनके कारण तुम्हारे मन में भी बदबू भर जाती है, ठीक उन आलुओं की तरह। इसलिये अपने मन से इन भावनाओं को निकाल दो। शिष्यों ने अपने मन से ईर्ष्या, द्वेष रूपी पाप विचार को निकाल दिया। वे प्रसन्न चित होकर आनंद में रहने लगे। आज समाज में व्यक्ति मन में एकत्रित पाप विचारों से सर्वाधिक दुःखी हैं। दूसरे से ईर्ष्या व द्वेष करते करते उसका आंतरिक वातावरण प्रदूषित हो गया हैं।   

वेद भगवान बड़े सुन्दर शब्दों में मन से ईर्ष्या , द्वेष रूपी पाप विचारों को दूर करने का सन्देश देते हैं। अथर्ववेद 6/45/1 में लिखा है ओ मन के पाप विचार! तू परे चला जा, दूर हो जा। क्योंकि तू बुरी बातों को पसंद करता है। तू पृथक (अलग) हो जा, चला जा। मैं तुझे नहीं चाहता। मेरा मन तुझ पाप की ओर न जाकर श्रेष्ठ कार्यों में रहे। 


जीवन में सुख का आधार मन से पाप कर्म जैसे ईर्ष्या, द्वेष आदि न करने का संकल्प लेना है...



 धन की गति क्या हैं...


"सो धन धन्य प्रथम गति जाकी।


धन्य पुन्य रत मति सोई पाकी॥


धन्य घरी सोई जब सतसंगा।


धन्य जन्म द्विज भगति अभंगा॥

अर्थात् - मेरे बाबा गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज रामचरितमानस में कहतें हैं कि...... 

वह धन धन्य हैं, जिसकी पहली गति होती हैं (जो दान देने में व्यय होता हैं) वहीं बुद्धि धन्य हैं, जो पुण्य में लगी हुईं हैं❗वहीं घड़ी धन्य हैं जब सत्संग हो औंर वहीं जन्म धन्य हैं जिसमें ब्राह्मण की अखंड भक्ति हो❗ (धन की तीन गतियाँ होती हैं - दान, भोग औंर नाश❗


दान उत्तम हैं, भोग मध्यम हैं औंर नाश नीच गति हैं। जो पुरुष ना दान करता हैं, ना भोगता हैं, उसके धन की तीसरी गति होती हैं...


 🙏 भक्त का मान 🙏...




एक बार नरसी जी का बड़ा भाई वंशीधर नरसी जी के घर आया। पिता जी का वार्षिक श्राद्ध करना था।


वंशीधर ने नरसी जी से कहा :- 'कल पिताजी का वार्षिक श्राद्ध करना है। कहीं अड्डेबाजी मत करना बहु को लेकर मेरे यहाँ आ जाना। काम-काज में हाथ बटाओगे तो तुम्हारी भाभी को आराम मिलेगा।'


नरसी जी ने कहा :- 'पूजा पाठ करके ही आ सकूँगा।'


इतना सुनना था कि वंशीधर उखड गए और बोले :- 'जिन्दगी भर यही सब करते रहना। जिसकी गृहस्थी भिक्षा से चलती है, उसकी सहायता की मुझे जरूरत नहीं है। तुम पिताजी का श्राद्ध अपने घर पर अपने हिसाब से कर लेना।'


नरसी जी ने कहा :-``नाराज क्यों होते हो भैया ? मेरे पास जो कुछ भी है, मैं उसी से श्राद्ध कर लूँगा।'

दोनों भाईयों के बीच श्राद्ध को लेकर झगडा हो गया है, नागर-मंडली को मालूम हो गया।


नरसी अलग से श्राद्ध करेगा, ये सुनकर नागर मंडली ने बदला लेने की सोची।

पुरोहित प्रसन्न राय ने सात सौ ब्राह्मणों को नरसी के यहाँ आयोजित श्राद्ध में आने के लिए आमंत्रित कर दिया।


प्रसन्न राय ये जानते थे कि नरसी का परिवार मांगकर भोजन करता है। वह क्या सात सौ ब्राह्मणों को भोजन कराएगा ? आमंत्रित ब्राह्मण नाराज होकर जायेंगे और तब उसे ज्यातिच्युत कर दिया जाएगा।


अब कहीं से इस षड्यंत्र का पता नरसी मेहता जी की पत्नी मानिकबाई जी को लग गया वह चिंतित हो उठी।


अब दुसरे दिन नरसी जी स्नान के बाद श्राद्ध के लिए घी लेने बाज़ार गए। नरसी जी घी उधार में चाहते थे पर किसी ने उनको घी नहीं दिया।


अंत में एक दुकानदार राजी हो गया पर ये शर्त रख दी कि नरसी को भजन सुनाना पड़ेगा।

बस फिर क्या था, मन पसंद काम और उसके बदले घी मिलेगा, ये तो आनंद हो गया।


अब हुआ ये कि नरसी जी भगवान का भजन सुनाने में इतने तल्लीन हो गए कि ध्यान ही नहीं रहा कि घर में श्राद्ध है।

मित्रों ये घटना सभी के सामने हुयी है। और आज भी कई जगह ऎसी घटनाएं प्रभु करते हैं ऐसा कुछ अनुभव है। ऐसे-ऐसे लोग हुए हैं इस पावन धरा पर।


तो आईये कथा मे आगे चलते हैं...

अब नरसी मेहता जी गाते गए भजन उधर नरसी के रूप में भगवान कृष्ण श्राद्ध कराते रहे।

यानी की दुकानदार के यहाँ नरसी जी भजन गा रहे हैं और वहां श्राद्ध "कृष्ण भगवान" नरसी जी के भेस में करवा रहे हैं।


जय हो, जय हो वाह प्रभू क्या माया है..... अद्भुत, भक्त के सम्मान की रक्षा को स्वयं भेस धर लिए।


वो कहते हैं ना की :-

"अपना मान भले टल जाए,

भक्त का मान न टलते देखा।

प्रबल प्रेम के पाले पड़ कर,

प्रभु को नियम बदलते देखा,

अपना मान भले टल जाये,

भक्त मान नहीं टलते देखा।"

तो महाराज सात सौ ब्राह्मणों ने छककर भोजन किया। दक्षिणा में एक एक अशर्फी भी प्राप्त की।


सात सौ ब्राह्मण आये तो थे नरसी जी का अपमान करने और कहाँ बदले में सुस्वादु भोजन और अशर्फी दक्षिणा के रूप में... वाह प्रभु धन्य है आप और आपके भक्त।


दुश्त्मति ब्राह्मण सोचते रहे कि ये नरसी जरूर जादू-टोना जानता है।


इधर दिन ढले घी लेकर नरसी जी जब घर आये तो देखा कि मानिक्बाई जी भोजन कर रही है।


नरसी जी को इस बात का क्षोभ हुआ कि श्राद्ध क्रिया आरम्भ नहीं हुई और पत्नी भोजन करने बैठ गयी।

नरसी जी बोले :- 'वो आने में ज़रा देर हो गयी। क्या करता, कोई उधार का घी भी नहीं दे रहा था, मगर तुम श्राद्ध के पहले ही भोजन क्यों कर रही हो ?'

मानिक बाई जी ने कहा :- 'तुम्हारा दिमाग तो ठीक है ? स्वयं खड़े होकर तुमने श्राद्ध का सारा कार्य किया। ब्राह्मणों को भोजन करवाया, दक्षिणा दी। सब विदा हो गए, तुम भी खाना खा लो।'


ये बात सुनते ही नरसी जी समझ गए कि उनके इष्ट स्वयं उनका मान रख गए।


गरीब के मान को, भक्त की लाज को परम प्रेमी करूणामय #भगवान् ने बचा ली।


मन भर कर गाते रहे :-

कृष्णजी, कृष्णजी, कृष्णजी

कहें तो उठो रे प्राणी।

कृष्णजी ना नाम बिना जे बोलो

तो मिथ्या रे वाणी।।

भक्त के मन में अगर सचमुच समर्पण का भाव हो तो भगवान स्वयं ही उपस्थित हो जाते हैं.

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