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Wednesday, February 24, 2021
भारतीय_राजव्यवस्था_एवं_शासन : #भारत_के_नियंत्रक_एवं_महालेखा_परीक्षक [ CAG ]
भारतीय_राजव्यवस्था_एवं_शासन :
#भारत_के_नियंत्रक_एवं_महालेखा_परीक्षक [ CAG ]
अनुच्छेद 148 भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक से संबंधित है जो केंद्र और राज्य स्तर पर पूरे देश की वित्तीय व्यवस्था प्रणाली को नियंत्रित/समीक्षा करता है। भारत के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा स्वयं अपने हाथों मुहर युक्त अधिपत्र द्वारा 6 वर्ष के लिए की जाती है। अपना पद ग्रहण करने से पहले कैग (सीएजी) तीसरी अनुसूची में अपने प्रयोजन के लिए निर्धारित प्रपत्र के अनुसार, राष्ट्रपति के समक्ष शपथ या प्रतिज्ञा लेते हैं। इसे जनता के रुपयों का रखवाला भी कहा जाता है।
#नियुक्ति_और_पदावधि :
भारत के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा स्वयं अपने हाथों मुहर युक्त अधिपत्र द्वारा की जाती है। अपना पद ग्रहण करने से पहले कैग (सीएजी) तीसरी अनुसूची में अपने प्रयोजन के लिए निर्धारित प्रपत्र के अनुसार, राष्ट्रपति के समक्ष शपथ या प्रतिज्ञा लेते हैं। इसकी शपथ में निम्न विषय शामिल होते हैं ।
▪️विधि द्वारा स्थापित भारत के संविधान के प्रति सच्ची आस्था और निष्ठा प्रकट करने के लिए।
▪️भारत की संप्रभुता और अखंडता को बनाए रखने के लिए।
▪️बिना किसी भय, पक्षपात, स्नेह, दुर्भावना के साथ विधिवत और ईमानदारी से अपनी क्षमता के अनुसार तथा ज्ञान व न्याय के साथ अपने कार्यालय के कर्तव्यों का श्रेष्ठतम प्रयोग करना।
▪️संविधान और कानूनों को बनाए रखने के लिए।
कैग की अवधि 6 वर्ष की होती है। वह अपने कार्यकाल के दौरान किसी भी समय राष्ट्रपति को इस्तीफा लिखकर अपना त्यागपत्र दे सकता है। जिस आधार पर सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों को हटाया जाता है ठीक उसी प्रकार उन्हीं आधारों के अंतर्गत राष्ट्रपति द्वारा कैग को उनके पद से पदच्युत किया जा सकता है।
#सुरक्षा_उपाय_और_आजादी :
▪️कैग को ठीक उसी तरह और उसी आधार पर पद से हटाया जा सकता है जिस तरह से राष्ट्रपित द्वारा सुप्रीम कोर्ट के एक न्यायाधीश को हटाया जा सकता है। इसका मतलब है कि उन पर दुर्व्यवहार या अक्षमता साबित होने के आधार पर, केवल एक प्रभावी विशेष बहुमत के साथ दोनों सदनों द्वारा पारित प्रस्ताव के आधार पर हटाया जा सकता है।
▪️कैग के वेतन और सेवा की अन्य शर्तों का निर्धारण कानून द्वारा संसद करती है। कैग की नियुक्ति के बाद ना तो उसका वेतन और अधिकारों के संबंध में ना ही उसके अनुपस्थिति, पेंशन या सेवानिवृत्ति की आयु को कम किया जा सकता है।
▪️अपना पद पर स्थगन लगने के बाद वह भारत सरकार के अधीन या किसी राज्य के अधीन वाले कार्यालय का पात्र नहीं होता है।
▪️भारतीय लेखापरीक्षा और लेखा विभाग तथा सीएजी के प्रशासनिक शक्तियों में सेवा करने वाले व्यक्तियों के लिए सेवा शर्तों को कैग के साथ परामर्श करने के बाद राष्ट्रपति द्वारा नियम बनाकर उनका निर्धारण किया जाता है।
▪️कैग के कार्यालय के प्रशासनिक व्यय सहित सभी वेतन, भत्ते और देय पेंशन या उस कार्यालय में कार्यरत पेंशन के संबंध में, सभी का भुगतान भारत की संचित निधि द्वारा किया जाता है।
#कर्तव्य_और_शक्तियां :
संघ और राज्यों और किसी अन्य प्राधिकरण या निकाय के खातों के संबंध में संविधान का अनुच्छेद -149 कैग की शक्तियों को निर्धारित करने के लिए संसद को शक्तियां अथवा अधिकार प्रदान करता है। कैग के कर्तव्यों और कैग की शक्तियों को निर्दिष्ट करने के लिए संसद द्वारा सीएजी (कर्तव्य, शक्तियां और सेवा की शर्तें) अधिनियम 1971 को अधिनियमित किया गया था। अधिनियम में 1976 में संशोधन किया गया था।
नीचे उल्लेखित बिंदु कैग के कर्तव्य और शक्तियां हैं:
▪️सीएजी भारत की संचित निधि और प्रत्येक राज्य और प्रत्येक केंद्र शासित प्रदेश जहां पर विधान सभा होती है, के सभी व्यय का ऑडिट करता है। और यह पता लगाने के लिए कि खातों में दिखायी गयी धनराशि का वितरण सेवा या प्रयोजन के लिए कानूनी तौर पर सही तरह से किया गया कि नहीं या प्राधिकरण में जो व्यय दिखाया गया है वह उसके अनुरूप है कि नहीं, का भी ऑडिट सीएजी द्वारा किया जाता है।
▪️सीएजी आकस्मिक निधि और लोक लेखा से संबंधित संघ और राज्यों के सभी लेनदेन का ऑडिट करता है
▪️सीएजी सभी व्यापार, विनिर्माण, लाभ और हानि के खातों और बैलेंस शीट और संघ या किसी भी राज्य के किसी भी विभाग (Ii) वह आकस्मिकता निधि और लोक लेखा से संबंधित संघ और राज्यों के सभी लेनदेन ऑडिट
▪️सीएजी, व्यय, लेनदेन या उसके द्वारा आंकलित खातों की रिपोर्ट सौंपता है।
▪️सीएजी संघ या राज्य के राजस्व से काफी हद तक वित्त पोषित निकायों या प्राधिकरणों की प्राप्तियों और व्यय का ऑडिट करता है।
▪️सीएजी उन प्राप्तियों और व्ययों का आडिट और रिपोर्ट करती है जहां एक संस्था या प्राधिकरण को भारत की संचित निधि से ऋण या अनुदान प्राप्त हो रहा है। सीएजी किसी भी राज्य या किसी भी केंद्र शासित प्रदेश जहां विधानसभा है, कोई भी प्रावधान के विषय कानून के दायरे में हैं, के खातों का ऑडिट कर सकता है।
▪️सीएजी, राष्ट्रपति या किसी भी राज्य के राज्यपाल द्वारा आवेदित किसी भी प्राधिकरण के व्यय, लेनदेन का ऑडिट कर सकता है।
▪️सीएजी, राष्ट्रपति को उन फार्म के बारे में सलाह देता है जो संघ और राज्यों के खातों में रखे जाते हैं।
▪️सीएजी, राष्ट्रपति को संघ के खातों से संबंधित ऑडिट रिपोर्ट प्रस्तुत करता है। तत्पश्चात् राष्ट्रपति इस रिपोर्ट को संसद के पास भेजतें हैं।
▪️सीएजी राज्य के खातों से संबंधित रिपोर्ट राज्यपाल को प्रस्तुत करता है। तत्पश्चात राज्यपाल इस रिपोर्ट को राज्य विधायिका को देते हैं।
▪️वह किसी भी कर या शुल्क की शुद्ध आय की जांच और उसे प्रमाणित करता है।
#काम_का_दायरा :
कैग, जनता के पैसे का प्रहरी है। वह उस खर्च की गयी धनराशि की जांच करता है, जिसे कार्यपालिका एक समान रूप से कानून द्वारा स्थापित और संसद के दिशा- निर्देशों के अनुसार उपलब्ध कराती है । वह केवल संसद के प्रति जवाबदेह है जो कार्यपालिका के प्रभाव से उसको स्वंतत्र बनाती है। वह निम्नलिखित रिपोर्टें राष्ट्रपति को प्रस्तुत करता है:
▪️विनियोग खातों पर ऑडिट रिपोर्ट
▪️वित्तीय खातों का ऑडिट रिपोर्ट
▪️सार्वजनिक उपक्रमों पर लेखापरीक्षा रिपोर्ट
कैग के पास खातों की जांच अथवा ऑडिड करने की शक्तियां सीमित हैं। इसका मतलब है, कि उसके पास उस पैसे पर नियंत्रण का कोई अधिकार नहीं है जो समेकित निधि से खर्च किया जा रहा है। वह केवल तभी ऑडिट कर सकता है जब पैसा खर्च किया जा चुका होता है। इसके विपरीत ब्रिटेन के कैग के पास नियंत्रक जैसी शक्ति नहीं होती है लेकिन केवल महालेखा परीक्षक के रूप में होती है। इसके अलावा, कैग कार्यपालिका द्वारा किए गए व्यय से संबंधित दस्तावेजों नहीं मांग सकता है। वहीं दूसरी ओर, कैग पर कार्यपालिका द्वारा बार-बार मनमानी का आरोप लगाया जाता है। कैग पर कार्यकारी सरकार के नीतिगत फैसलों में हस्तक्षेप करने का आरोप लगाया लगता रहा है।
[01/12, 8:26 AM] Raj Kumar: #आधुनिक_भारत_का_इतिहास :
#स्वराज_पार्टी_का_गठन
स्वराज पार्टी की स्थापना 1 जनवरी 1923 को देशबंधु चितरंजन दास और मोतीलाल नेहरू ने की थी। पार्टी के अन्य नेताओं में हुसैन शहीद सूहरावर्दी, सुभाष चंद्र बोस विट्ठल भाई पटेल और अन्य नेता शामिल थे। इस पार्टी का पूरा नाम “कांग्रेस खिलाफत स्वराज पार्टी” था।
#स्वराज_पार्टी_की_स्थापना_किन_परिस्थितियों_में
#हुई?
5 फरवरी 1922 में चौरी चौरा कांड हुआ था। इसमें भारतीय क्रांतिकारियों ने गोरखपुर (उत्तर प्रदेश) के चौरी चौरा स्थान पर विद्रोह कर दिया और एक पुलिस चौकी को आग लगा दी जिसमें 22 पुलिसकर्मी जिंदा मारे गए। इस घटना को चौरी चौरा कांड के नाम से जाना जाता है। इस घटना के बाद महात्मा गांधी अत्यंत दुखी हुए और उन्होंने अँग्रेज़ सरकार के खिलाफ चल रहा “असहयोग आंदोलन” वापस ले लिया। बहुत से लोगों को महात्मा गांधी का यह निर्णय सही नहीं लगा।
कांग्रेस पार्टी दो भागों में बँट गई। मोतीलाल नेहरू और चितरंजन दास ने स्वराज पार्टी की स्थापना की। स्वराज पार्टी के नेता वर्तमान कांग्रेस पार्टी के कार्यों से असंतुष्ट थे। उनका सोचना था कि अब कांग्रेस पार्टी की नीति में परिवर्तन होना चाहिए। इस तरह स्वराज पार्टी के नेताओं को “परिवर्तन समर्थक” भी कहा जाता है। कांग्रेस पार्टी का दूसरा खेमा “परिवर्तन विरोधी” था और महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन को अपनाकर अंग्रेजों से आजादी पाने की योजना रखता था।
परिवर्तन विरोधी नेताओं में एमए अंसारी, सी राजगोपालचारी, वल्लभभाई पटेल और राजेंद्र नाथ प्रमुख नेता थे। इस दल का प्रथम अधिवेशन इलाहाबाद में हुआ था। स्वराज पार्टी को काफी सफलता भी मिली। केंद्रीय धारा सभा में स्वराज पार्टी के प्रत्याशियों को 101 स्थानों में से 42 स्थान मिले। बंगाल में स्वराज पार्टी को स्पष्ट बहुमत मिला। बंगाल के गवर्नर ने चितरंजन दास को सरकार बनाने का न्यौता दिया।
#स्वराज_पार्टी_के_प्रमुख_उद्देश्य :
▪️भारत को अंग्रेजों से आजादी दिलाना।
▪️गांधी जी द्वारा किए गए जा रहे “असहयोग आंदोलन” को सफल बनाना।
▪️ब्रिटिश हुकूमत के कार्यों को रोकना और उसमे अड़चन पैदा करना। ब्रिटिश हुकूमत को भारत के लिए अच्छी नीतियाँ बनाने के लिए विवश करना।
▪️काउंसिल परिषद में प्रवेश कर सरकारी बजट रद्द करना।
▪️देश को शक्तिशाली बनाने के लिए नई योजनाओं और विधायकों को प्रस्तुत करना।
▪️नौकरशाही की शक्ति में कमी करना।
▪️आवश्यक होने पर पदों का त्याग करना।
#स्वराज_पार्टी_के_प्रमुख_कार्य :
▪️स्वराज पार्टी ने मोंटफोर्ट सुधारों को नष्ट किया।
▪️बंगाल में द्वैध शासन को निष्क्रिय बना दिया।
▪️पार्टी विट्ठल भाई पटेल को केंद्रीय विधायिका का अध्यक्ष बनाने में सफल रही।
▪️स्वराज पार्टी ने कई बार असेंबली से वाकआउट किया और ब्रिटिश हुकूमत की प्रतिष्ठा को चोट पहुँचाई।
#स्वराज_पार्टी_की_नीति_में_परिवर्तन :
शुरू में स्वराज पार्टी ने असहयोग की नीति अपनाई और ब्रिटिश हुकूमत के सभी कार्यों में अडंगा लगाया, पर इसमें कुछ विशेष सफलता नहीं मिली। फिर पार्टी ने असहयोग के स्थान पर “उत्तरदायित्व पूर्ण सहयोग” की नीति अपनाई।
#स्वराज_पार्टी_में_फूट_पड़ना_और_कमजोर_होना :
स्वराज पार्टी के कुछ सदस्य अभी भी “अडंगा” नीति पर विश्वास रखते थे। इस तरह स्वराज पार्टी दो विचारधारा में बँट गई और इसमें फूट पड़ गई। ब्रिटिश सरकार ने इस स्थिति का फायदा उठाया और सहयोग करने वाले सदस्यों को विभिन्न समितियों में स्थान देकर खुश कर दिया। स्वराज पार्टी के कुछ नेताओं को 1924 में “इस्पात सुरक्षा समिति” में स्थान दिया गया। मोतीलाल नेहरू ने 1925 में “स्कीन समिति” की सदस्यता ले ली।
धीरे धीरे स्वराज पार्टी असहयोग के स्थान पर ब्रिटिश सरकार का सहयोग करने लगी। इस तरह यह पार्टी कमजोर हो गयी और अपने मूल उद्देश्य से भटक गयी। 1926 के चुनाव में स्वराज पार्टी को बहुत कम सीटें मिली।
#स्वराज_पार्टी_के_पतन_के_कारण :
▪️स्वराज पार्टी के संस्थापक चितरंजन दास की मृत्यु 16 जून 1925 में हो गई। उसके बाद यह पार्टी कमजोर हो गई।
▪️स्वराज पार्टी के कुछ नेता असहयोग नीति के समर्थक थे तो कुछ नेता सहयोग नीति के समर्थक थे। इस तरह पार्टी में फूट पड़ गई। फरीदपुर के सम्मेलन में पार्टी के नेताओं में आपसी फूट दिखाई दी।
▪️हिंदू मुस्लिम दंगा होने से भी पार्टी कमजोर हो गई। ▪️1925 में मोतीलाल नेहरू और मोहम्मद अली जिन्ना के बीच मतभेद हो गया, जिससे केंद्रीय विधान सभा में स्वराज पार्टी का प्रभाव कम हो गया।
▪️कांग्रेस पार्टी के प्रमुख नेता पंडित मदन मोहन मालवीय और लाला लाजपत राय ने एक दूसरा दल “स्वतंत्र दल” की स्थापना की, जिसमें स्वराज पार्टी के बहुत से सदस्य शामिल होने लगे। इस तरह पार्टी कमजोर हो गई। स्वतंत्र दल में हिंदुत्व का नारा दिया था।
▪️1926 ई० के समाप्ति तक स्वराज पार्टी का अंत हो गया।
#स्वराज_पार्टी_पर_महात्मा_गांधी_की_प्रतिक्रिया :
महात्मा गांधी स्वराज पार्टी द्वारा ब्रिटिश सरकार के कार्य में अडंगा लगाने (बाधा पहुंचाने) की नीति का विरोध करते थे। 1924 में महात्मा गांधी का स्वास्थ्य खराब हो गया। उनको जेल से रिहाई मिल गई।
धीरे धीरे उन्होंने स्वराज पार्टी से नजदीकी बना ली थी। महात्मा गांधी ने स्वराज पार्टी के “परिवर्तन समर्थक” नेताओं और कांग्रेस पार्टी के दूसरे खेमे के “परिवर्तन विरोधी” नेताओं- दोनों से कांग्रेस में रहने का आग्रह किया था। दोनों खेमे अपने-अपने तरह से काम करते थे।
[01/12, 8:26 AM] Raj Kumar: #भारतीय_राजव्यवस्था_एवं_शासन :
#उपराष्ट्रपति
संविधान के अनुच्छेद 63 के अनुसार, भारत का एक उपराष्ट्रपति होगा। संविधान में उपराष्ट्रपति पद से सम्बन्धित प्रावधान सं. रा. अमेंरिका के संविधान के ग्रहण किया गया है। इस प्रकार भारत के उपराष्ट्रपति का पद अमेरिकी उपराष्ट्रपति पद की कुछ परिवर्तन सहित अनुकृति है। भारत का उपराष्ट्रपति राज्य सभा का पदेन सदस्य होता है और अन्य का कोई लाभ का पद धारण नहीं करता।
#योग्यता :
उपराष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के लिए निम्नलिखित योग्यताएं आवश्यक है-
▪️भारत का नागरिक हो।
▪️35 वर्ष की आयु पूरी कर चुका हो।
▪️राज्यसभा का सदस्य निर्वाचित होने के योग्य हो।
▪️संसद के किसी सदन या राज्य विधान मण्डलों में से किसी सदन का सदस्य न हो।
गौरतलब है कि इसका तात्पर्य यह नहीं है कि संसद या राज्य विधान मंडलों का सदस्य उपराष्ट्रपति नहीं हो सकता बल्कि इसका तात्पर्य यह है कि यदि कोई व्यक्ति उपराष्ट्रपति पद के लिए निर्वाचित किया जाता है, और संसद या राज्य विधानमण्डलों में से किसी सदन का सदस्य है, तो उसे इस सदस्यता का त्याग करना पड़ता है।
भारत सरकार या किसी राज्य की सरकार के अधीन अथवा उक्त सरकारों में से किसी के नियन्त्रण में किसी स्थानीय या अन्य प्राधिकारी के अधीन लाभ का पद न धारण करता हो।
#निर्वाचन :
उपराष्ट्रपति का निर्वाचन एक ऐसे निर्वाचक मण्डल द्वारा किया जाएगा, जो संसद से दोनो सदनों से मिलकर बनेगा, अर्थात उपराष्ट्रपति का निर्वाचन राज्यसभा तथा लोकसभा के सदस्यों द्वारा किया जाएगा। राज्य विधानमंडल के सदस्य इसमें भाग नहीं लेते हैं। यह निर्वाचन आनुपानित प्रतिनिधित्व पद्धति के अनुसार एकल संक्रमणीय मत तथा गुप्त मतदान द्वारा होगा। उपराष्ट्रपति पद के लिए अभ्यर्थी का नाम 20 मतदाताओं द्वारा प्रस्तावित और 20 मतदाताओं द्वारा समर्थित होना आवश्यक है। और साथ ही अभ्यर्थियों द्वारा 15,000 ₹ की जमानत राशि जमा करना आवश्यक होता है।
#उपराष्ट्रपति_के_निर्वाचन_से_सम्बन्धित_विवाद :
उपराष्ट्रपति के निर्वाचन से सम्बन्धित किसी विवाद का निर्णय उच्चतम् न्यायालय द्वारा किया जाएगा (अनुच्छेद 71)। यदि निर्वाचित उपराष्ट्रपति के पद ग्रहण के बाद उच्चतम न्यायालय द्वारा उपराष्ट्रपति के निर्वाचन को अवैध घोषित किया जाता है, तो पद पर रहते हुए उपराष्ट्रपति द्वारा किये गये कार्य को अवैध नहीं माना जाएगा।
#पदावधि :
उपराष्ट्रपति अपने पद ग्रहण की तिथि से पांच वर्ष तक अपने पद पर बना रहेगा और यदि उसका उत्तराधिकारी इस पांच वर्ष की अवधि के दौरान नहीं चुना जाता है, तो वह तब तक अपने पद पर बना रहेगा, जब तक उसका उत्तराधिकारी निर्वाचित होकर पद ग्रहण नहीं कर लेता।
लेकिन उपराष्ट्रपति अपने पद ग्रहण की तरीख से पांच वर्ष के अन्दर ही अपने पद से निम्नलिखित ढंग से हट सकता है या हटाया जा सकता हैः-
▪️राष्ट्रपति को अपना त्याग-पत्र देकर।
▪️राज्य सभा द्वारा संकल्प पारित कर।
उपराष्ट्रपति को पद से हटाने के लिए संकल्प राज्यसभा में पेश किया जाता है लेकिन उपराष्ट्रपति को पद से हटाने का संकल्प राज्यसभा में पेश करने से पहले उसकी सूचना उसे 14 दिन पूर्व देनी आवश्यक है। राज्यसभा में संकल्प पारित होने के बाद उसे अनुमोदन के लिए लोकसभा में भेजा जाता है। यदि लोकसभा संकल्प को अनुमोदित कर देती है, तो उपराष्ट्रपति को पद से हटा दिया जाता है।
कार्यवाहक राष्ट्रपति के रूप में कार्य करने की स्थिति में उपराष्ट्रपति को महाभियोग द्वारा केवल उसी प्रक्रिया के तहत हटाया जा सकेगा जिस प्रक्रिया से संविधान में राष्ट्रपति पर महाभियोग स्थापित करने का प्रावधान है ।
#पुनर्निवाचन_से_लिए_पात्रता :
जो व्यक्ति उपराष्ट्रपति पद की आवश्यक योग्यता को धारण करता है, वह एक से अधिक कार्यकाल के लिए निर्वाचित किया जा सकता है। लेकिन डा. सर्वपल्ली राधाकृष्णन के दो बार निर्वाचित किये जाने के बाद अब यह सामान्य परम्परा बन गयी है कि किसी व्यक्ति को एक बार ही उपराष्ट्रपति पद के लिए निर्वाचित किया जाय।
#शपथ_या_प्रतिज्ञान :
उपराष्ट्रपति अपना पद ग्रहण करने के पूर्व राष्ट्रपति अथवा उसके द्वारा इस प्रयोजन के लिए नियुक्त किसी व्यक्ति के समक्ष शपथ लेता है तथा शपथ पत्र पर हस्ताक्षर करता है (अनुच्छेद-69)।
उपराष्ट्रपति का शपथ-पत्र का प्रारूप निम्नलिखित रूप में निर्धारित होता है-
“मै, अमुक ईश्वर की शपथ लेता हूँ, सत्य निष्ठा से प्रतिज्ञाण करता हूँ कि मै विधि द्वारा स्थापित भारत के संविधान के प्रति सच्ची श्रद्धा और निष्ठा रखूंगा तथा जिस पद को मै ग्रहण करने वाला हूँ उसके कर्तब्यों का श्रद्धापूर्वक निर्वहन करूंगा ।”
उपराष्ट्रपति के पद की रिक्त को भरने के लिए निर्वाचन करने का समय तथा आकस्मिक रिक्त को भरने के लिए निर्वाचित व्यक्ति की पदावधि उपराष्ट्रपति के पदावधि की समाप्ति से हुई रिक्ति को भरने के लिए निर्वाचन पदावधि की समाप्ति से पूर्व किया जाएगा तथा उपराष्ट्रपति की मृत्यु, पद त्याग या पद से हटाये जाने या अन्य कारण से हुई उसके पद में रिक्ति को भरने के लिए निर्वाचन रिक्ति कोने के पश्चात् यथाशीघ्र किया जाएगा और रिक्त को भरने के लिए निर्वाचित व्यक्ति अपने पद ग्रहण की तारीख से पांच वर्ष की पूरी अवधि तक पद धारण करने का हकदार होगा (अनुच्छेद 68)। पदावधि के दौरान उपराष्ट्रपति की मृत्यु हो जाने की स्थिति में रिक्त हुए पद को कार्यवाहक उपराष्ट्रपति के द्वारा भरे जाने संबंधी कोई संवैधानिक व्यवस्था नहीं है। इस प्रकार ऐसी स्थिति में उपराष्ट्रपति का पद केवल निर्वाचन के द्वारा की भरा जाएगा ।
#वेतन_एवं_भत्ते :
उपराष्ट्रपति अपने पद का वेतन नहीं ग्रहण करता, बल्कि वह राज्यसभा के सभापति के रूप में अपना वेतन ग्रहण करता है। वर्तमान समय में राज्यसभा के सभापति का वेतन 4 लाख रू. प्रतिमाह है । इस वेतन के अतिरिक्ति उपराष्ट्रपति को विना किराये का सुसज्जित मकान आवास के लिए दिया जाता है। राज्यसभा के सभापति के रूप में उपराष्ट्रपति को वेतन भारत की संचित निधि से दिया जाता है। उपराष्ट्रपति के वेतन या भत्ते में उसकी पदावधि के दौरान कमी नहीं की जा सकती। पदावधि के दौरान मृत्यु होने की स्थिति में उपराष्ट्रपति को पारिवारिक पेंशन, आवास और चिकित्सा सुविधाएं प्राप्त है। उपराष्ट्रपति के निधन अथवा सेवा निवृत्त की स्थिति में पत्नी अथवा पति को पेंशन प्राप्त होगी।
#कार्य_एवं_शक्तियाँ :
उपराष्ट्रपति को संविधान द्वारा निम्नलिखित कार्य तथा शक्तियां सौपी गयी हैं-
1.#कार्यवाहक_राष्ट्रपति_के_रूप_में_कार्य-अनुच्छेद 65 के अनुसार राष्ट्रपति की मृत्यु या उस द्वारा त्याग पत्र दे देने या महाभियोग प्रक्रिया के अनुसार उसके पदमुक्त होने या उसकी अनुपस्थिति के कारण जब राष्ट्रपति का पद रिक्त हो जाता है, तब उपराष्ट्रपति, राष्ट्रपति के कर्तब्यों का निर्वहन करता है तथा राष्ट्रपति की शक्तियों का प्रयोग करता है जब उपराष्ट्रपति, राष्ट्रपति कृत्यों का निर्वहन कर रहा होता है, तब वह ऐसी उपलब्धियों, भत्तों और विशेषाधिकारों का हकदार होता है, जिनका हकदारा राष्ट्रपति होता है । उपराष्ट्रपति जब राष्ट्रपति के रूप में कार्य करता है या राष्ट्रपति के कृत्यों का निर्वहन करता है, उस अवधि के दौरान वह राज्य सभा के कर्तव्यों का पालन नहीं करेगा।
2.#राज्यसभा_के_सभापति_के_रूप_में-अनुच्छेद- 64 में दी गयी व्यवस्था के अनुसार राज्यसभा के सभापति के रूप में उपराष्ट्रपति निम्नलिखित कार्यो को करता है-
▪️वह राज्यसभा के कार्यो का संचालन करता है, राज्यसभा में अनुशासन बनाये रखता है तथा आज्ञा का अनुपालन न करने वाले सदस्यों को सदन से निर्वासित करवा सकता है ।
▪️वह राज्य सभा के किसी भी सदस्य को सदन में भाषण देने की अनुज्ञा देता है तथा उसकी अनुज्ञा के बिना कोई भी सदस्य सदन में भाषण नहीं दे सकता ।
▪️वह सदन में पेश किये गये विधेयकों पर विचार विमर्श करवाता है । वह विचार-विमर्श के बाद मतदान करवाता है तथा उसका परिणाम घोषित करता है।
▪️उसको यह निर्णय करने की शक्ति प्राप्त है कि कौन सा प्रश्न सदन में पूंछने योग्य है ।
▪️वह सदन में असंसदीय भाषा के प्रयोग को रोकता है तथा यह आदेश दे सकता है कि असंसदीय भाषा को अभिलेख से निकाल दिया जाय।
▪️वह राज्यसभा द्वारा पारित विधेयकों पर हस्ताक्षर करता है ।
▪️वह राज्यसभा के विशेषाधिकारों का उलंघन करने वाले व्यक्तियों को प्रताड़ित करता है ।
#सूचना_देने_का_कर्तव्य :
भारत का राष्ट्रपति जब कभी त्यागपत्र देता है, तो वह अपना त्यागपत्र उपराष्ट्रपति को देता है। जब उपराष्ट्रपति राष्ट्रपति का त्यागपत्र प्राप्त करे, तो उसका कर्तव्य बनता है कि वह राष्ट्रपति के त्यागपत्र की सूचना लोकसभा के अध्यक्ष को दे।
#अन्यकार्य :
उपराष्ट्रपति को संविधान के द्वारा कोई औपचारिक कार्यपालिकीय शक्ति प्राप्त नहीं है, फिर भी व्यवहार में उसे मंत्रिमंडल के समस्त निर्णयों की सूचना प्रदान की जाती है। उपराष्ट्रपति विभिन्न राजकीय यात्राओं में राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करता है। इन सब के अतिरिक्त उपराष्ट्रपति दिल्ली विश्वविद्यालय का पदेन कुलपति होता है।
[01/12, 8:26 AM] Raj Kumar: #भारतीय_राजव्यवस्था_एवं_शासन :
#केंद्रीय_मंत्रिपरिषद
यद्यपि सैद्धांतिक रूप से संविधान द्वारा प्रदान की गई समस्त कार्यपालिका शक्ति राष्ट्रपति में निहित है तथापि यथार्थ में कार्यपालिका की समस्त सत्ता मंत्रिपरिषद में निहित होती है। वास्तव में शासन की सभी शक्तियों का प्रयोग मंत्रिपरिषद ही करती है।
संविधान के अनुच्छेद-74 में यह उल्लिखित है कि राष्ट्रपति को उसकी शक्तियों को प्रयोग करने में सहायता और सलाह देने के लिए एक मंत्रिपरिषद होगी जिसका प्रधान, प्रधानमंत्री होगा और राष्ट्रपति इसकी सलाह के अनुसार कार्य करेगा। लेकिन राष्ट्रपति मंत्रिपरिषद की सलाह पर पुनर्विचार करने की अपेक्षा कर सकता है। राष्ट्रपति ऐसे पुनर्विचार के बाद दी गई सलाह के अनुसार ही कार्य करेगा।
संघीय स्तर पर संवैधानिक तंत्र के अवरुद्ध हो जाने तथा राष्ट्रपति के सीधे शासन के परिप्रेक्ष्य में कोई उपबंध नहीं है, जैसा कि राज्यों के लिए अनुच्छेद-356 में उल्लिखित है।
विशेषतया 42वें एवं 44वें संवैधानिक संशोधनों के बाद राष्ट्रपति के लिए यह बाध्यकारी हो गया है कि वह मंत्रिपरिषद के परामर्श को स्वीकार करे। लेकिन राष्ट्रपति द्वारा मंत्रिपरिषद की सलाह की स्वीकृति कोई स्वतः यांत्रिक प्रक्रिया नहीं है। राष्ट्रपति को यह अधिकार प्रदान किया गया है कि वह उस पर विचार करते समय अपनी बुद्धि का प्रयोग करे। 44वां संशोधन राष्ट्रपति को इस बात का अवसर प्रदान करता है कि वह मंत्रिपरिषद को सलाह एवं चेतावनी दे और किसी मामले पर पुनर्विचार किए जाने का आग्रह करे और उसके उपरांत ही प्रस्तावित कार्यविधि को स्वीकार करे और उस पर अपने अनुमोदन की मोहर लगाए।
#मंत्रिपरिषद_का_निर्माण :
अनुच्छेद 75 के अनुसार प्रधानमंत्री का चयन राष्ट्रपति करता है और अन्य मंत्री प्रधानमंत्री की सलाह पर राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त किये जाते हैं। मंत्री राष्ट्रपति के प्रसादपर्यंत पद धारण करते हैं। मंत्रिपरिषद सामूहिक रूप से लोकसभा के प्रति उत्तरदायी होती है। मंत्री अपने पद और गोपनीयता की शपथ राष्ट्रपति के समक्ष लेते हैं। कोई मंत्री, जो निरंतर 6 मास की किसी अवधि तक संसद के किसी सदन का सदस्य नहीं रहता है, उस अवधि की समाप्ति पर मंत्री पद धारण नहीं कर सकता।
संविधान के 91वें संशोधन अधिनियम, 2003 के अंतर्गत यह व्यवस्था की गई है कि संसद के किसी भी सदन के उस सदस्य को, जिसे दसवीं अनुसूची के अंतर्गत सदस्यता के अयोग्य सिद्ध कर दिया गया है, मंत्री बनने के लिए भी अयोग्य माना जाएगा तथा उसे मंत्री नियुक्त नहीं किया जा सकेगा। इस प्रकार यह सदस्य सदन की अवधि की समाप्ति तक या जब तक वह पुनर्निर्वाचित न हो, इनमें से जो भी पहले हो, मंत्री नियुक्त नहीं किया जा सकता है।
राष्ट्रपति अनिवार्यतः बहुमत दल के नेता को ही प्रधानमंत्री पद के लिए आमंत्रित करता है। कुछ परिस्थितियों में राष्ट्रपति को प्रधानमंत्री की नियुक्ति में स्वविवेक से कार्य करने का अवसर मिल सकता है-
▪️उस समय जब लोकसभा में किसी भी दल का बहुमत अस्पष्ट हो।
▪️उस समय जब बहुमत वाले दल में कोई निश्चित नेता नहीं रहे या प्रधानमंत्री पद के दो प्रभावशाली दावेदार हों।
▪️राष्ट्रीय संकट के समय राष्ट्रपति, लोकसभा को भंग करके कुछ समय के लिए स्वेच्छा से कामचलाऊ सरकार का नेता मनोनीत कर सकता है।
#मंत्रिपरिषद_की_संरचना :
संविधान केवल मंत्रियों का उल्लेख करता है। वह मंत्रिमंडल के मंत्रियों, उप-मंत्रियों आदि के रूप में मंत्रियों के किसी वर्गीकरण या श्रेणीक्रम का उल्लेख नहीं करता। लेकिन मंत्रिपरिषद का उल्लेख करता है। मंत्रिमंडल का गठन कैबिनेट स्तर के मंत्रियों से होता है। कैबिनेट मंत्रियों के कार्यों में सहायता देने के लिएजब राज्य मंत्रियों और उपमंत्रियों को नियुक्त किया जाता है तो इन समस्त मंत्रियों के समूह को मंत्रिपरिषद कहा जाता है। मंत्रिपरिषद तीन स्तरीय होता है-
▪️कैबिनेट स्तर का मंत्री,
▪️राज्य स्तर का मंत्री, तथा;
▪️उपमंत्री।
वर्ष 2008 तक संविधान में यह नहीं लिखा था कि मंत्रिपरिषद में कितने मंत्री होंगे प्रधानमंत्री उतने मंत्री नियुक्त कर सकता था जितने वह ठीक समझे। 2008 में पारित संविधान के 91वें संशोधन अधिनियम से स्थिति बदल गई है। अब इस अधिनियम के अनुसार प्रधानमंत्री सहित मंत्रियों की कुल संख्या लोक सभा की सदस्य संख्या के 15 प्रतिशत से अधिक नहीं हो सकती।
#मंत्रियों_की_विभिन्न_श्रेणियां :
मंत्रिपरिषद के सभी मंत्री एक ही पंक्ति या श्रेणी के नहीं होते। संविधान में मंत्रियों का विभिन्न पंक्तियों में वर्गीकरण नहीं किया गया है किंतु व्यवहार में चार श्रेणियां स्वीकार की जाती हैं।
#कैबिनेट_मंत्री: ऐसे मंत्री को मंत्रिमंडल की प्रत्येक बैठक में उपस्थित होने और भाग लेने का अधिकार है। अनुच्छेद 352 के अधीन आपात की उदघोषण के लिए सलाह प्रधानमंत्री और अन्य कैबिनेट मंत्री मिलकर देंगे। उल्लेखनीय है कि मूल संविधान में कैबिनेट शब्द का उल्लेख नहीं किया गया था लेकिन 44वें संविधान संशोधन (1978) के द्वारा कैबिनेट शब्द को अनुच्छेद 352 में स्थान प्रदान किया गया।
#स्वतंत्र_प्रभार_वाले_राज्य_मंत्री: यह किसी कैबिनेट मंत्री के अधीन काम नहीं करता। जब उसके विभाग से संबंधित कोई विषय मंत्रिमंडल की कार्यसूची में होता है तो उसे बैठक में उपस्थित होने के लिए आमंत्रित किया जाता है।
#राज्य_मंत्री: इसके पास किसी विभाग का स्वतंत्र प्रभार नहीं होता और वह कैबिनेट मंत्री के अधीन कार्य करता है। ऐसे मंत्री को उसका कैबिनेट मंत्री कार्य आवंटित करता है।
#उप_मंत्री: ऐसे मंत्री कैबिनेट मंत्री या स्वतंत्र प्रभार वाले राज्य मंत्री के अधीन कार्य करता है।
प्राधानमंत्री कैबिनेट मंत्रियों और स्वतंत्र प्रभार वाले राज्य मंत्रियों के विभाग का आवंटन करता है। अन्य मंत्रियों के कार्य का आवंटन उनके कैबिनेट मंत्री करते हैं। मंत्री लोक सभा या राज्य सभा से चुने जा सकते हैं। जो मंत्री एक सदन का सदस्य है वह दूसरे सदन में बोल सकता है और उसकी कार्यवाहियों में भाग ले सकता है। किंतु मंत्री मतदान उसी सदन में कर सकता है जिसका वह सदस्य है।
#मंत्रियों_का_कार्यकाल :
संविधान के अनुच्छेद 75(2) के अनुसार भी मंत्री राष्ट्रपति की इच्छापर्यंत अपने पद पर आसीन रहेंगे। किंतु व्यावहारिक दृष्टिकोण से राष्ट्रपति की इच्छा का अभिप्राय प्रधानमंत्री की इच्छा है। संसदीय शासन प्राप्त है तब तक वह अपने पद पर कायम रह सकता है। यदि कोई मंत्री अयोग्य सिद्ध हो अथवा वह प्रधानमंत्री की नीतियों से सहमत न हो तो प्रधानमंत्री उस मंत्री को त्यागपत्र देने पर विवश कर सकता है और यदि वह त्यागपत्र नहीं देता है तो प्रधानमंत्री के परामर्श से राष्ट्रपति उसे बर्खास्त कर सकता है।
#उत्तरदायित्व :
#सामूहिक_उत्तरदायित्व : अनुच्छेद 75(3) के अनुसार, मंत्रिपरिषद लोकसभा के प्रति सामूहिक रूप से उत्तरदायी होती है। मंत्रिमंडल की यह संवैधानिक बाध्यता है कि विधानमंडल के निर्वाचित सदन का विश्वास खोते ही शीघ्र पदत्याग कर दे। यह सामूहिक उत्तरदायित्व लोकसभा के प्रति है चाहे मंत्री राज्यसभा के भी हों। यदि किसी मंत्री के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव लाया जाता है तो संपूर्ण मंत्रिमंडल के लिए पदत्याग करना आवश्यक हो जाता है अथवा पदत्याग न करके मंत्रिमंडलराष्ट्रपति की विधानमंडल को भंग करने का परामर्श देता है, क्योंकि सदन निर्वाचन मंडल के मत का सही प्रतिनिधित्व नहीं करता है।
#राष्ट्रपति_के_प्रति_व्यक्तिगत_उत्तरदायित्व : राज्य के प्रधान के प्रति व्यक्तिगत उत्तरदायित्व का सिद्धांत अनुच्छेद 75(2) में समाविष्ट है- मंत्री राष्ट्रपति के प्रसादपर्यंत अपने पद पर बने रहेंगे। यद्यपि सामूहिक रूप से मंत्रीगण विधानमंडल के प्रति उत्तरदायी होते हैं, किंतु वे व्यक्तिगत रूप से कार्यपालिका के प्रधान के प्रति उत्तरदायी होंगे और विधान मंडल का विश्वास प्राप्त होने पर भी उन्हें पदच्युत किया जा सकेगा।
व्यावहारिक दृष्टिकोण से व्यक्तिगत रूप में मंत्रियों को पदच्युत करने के लिए प्रधानमंत्री ही राष्ट्रपति की सलाह देता है। इसलिए राष्ट्रपति की यह शक्ति वास्तव में प्रधानमंत्री की अपने सहकर्मियों के संदर्भ में प्राप्त अप्रत्यक्ष शक्ति है, जैसा कि इंग्लैंड में है।
#मंत्रियों_का_विधिक_उत्तरदायित्व : भारतीय संविधान द्वारा विधिक उत्तरदायित्व का सिद्धांत, जैसा कि इंग्लैंड में है, अंगीकार नहीं किया गया है। इंग्लैंड में सम्राट बिना किसी मंत्री के हस्ताक्षर के कोई संकल्पना और उसका विकास प्रतिनिधानात्मक लोकतंत्र के सर्वोच्च सिद्धांतों के आधार पर किया गया है, जो कि लोकसभा में जनता के सीधे निर्वाचित प्रतिनिधियों के प्रति सरकार का दायित्व है। वस्तुतः भारत में राज्य के उन कार्यों के लिए मंत्रियों का कोई क़ानूनी उत्तरदायित्व नहीं होता जो राष्ट्रपति के नाम से किए जाते हैं। उनके बारे में प्रामाणीकरण के रूप में प्रति-हस्ताक्षर की अपेक्षा मंत्री से नहीं की जाती बल्कि उसकी अपेक्षा सरकार के किसी सचिव से की जाती है।
संविधान में यह उपबंध भी है कि कार्यपालिका के प्रधानको मंत्रियों ने क्या परामर्श दिया था, इसके विषय में न्यायालय कोई जांच नहीं कर सकेंगे। यदि राष्ट्रपति का कोई कार्य, उसके द्वारा बनाए गए नियमों के अनुसार भारत सरकार के किसी सचिव द्वारा अधिप्रमाणित किया जाता है तो उस कार्य के लिए कोई मंत्री उत्तरदायी नहीं हो सकता।
#मंत्रिमंडल_के_कार्य_एवं_शक्तियां :
मंत्रिमंडल का गठन प्रधानमंत्री के परामर्श से राष्ट्रपति द्वारा किया जाता है। परंतु व्यावहारिक रूप में कार्यपालिका की वास्तविक शक्ति मंत्रिमंडल में निहित होती है, राष्ट्रपति मंत्रिमंडल के परामर्श के अनुसार अपनी शक्तियों का प्रयोग करता है। भारत में मंत्रिमंडल के प्रमुख कार्य अग्रलिखित हैं:
#राष्ट्रीय_नीतियों_का_निर्धारण: मंत्रिमंडल का सबसे अधिक महत्वपूर्ण कार्य राष्ट्रीय नीतियों का निर्धारण करना है। मंत्रिमंडल के द्वारा यह निश्चय किया जाता है कि आंतरिक क्षेत्र में प्रशासन के विभिन्न विभागों के द्वारा और वैदेशिक क्षेत्र में दूसरे देशों के साथ संबंधों के विषय में किस प्रकार की नीति अपनाई जाएगी। मंत्रिमंडल के द्वारा नीति निर्धारित करने के बाद संबद्ध विभागों के द्वारा इस नीति के आधार पर विभिन्न विधेयक संसद में प्रस्तुत किए जाते हैं। कानून निर्माण का कार्य मंत्रिमंडल की इच्छा पर ही निर्भर करता है। मंत्रिमंडल युद्ध और शांति दोनों ही स्थितियों में निर्णय लेता है। राष्ट्रपति के अभिभाषणों को भी मंत्रिमंडल ही तैयार करता है।
#विधि_निर्माण_में_संसद_का_नेतृत्व_करना : मंत्रिमंडल संसद का नेतृत्व करता है। दोनों सदनों के अध्यक्ष मंत्रिमंडल के परामर्श से ही सदन की कार्य सूची तय करते हैं और यह निश्चित करते हैं कि प्रत्येक विषय की कितना समय प्रदान किया जाएगा। संसद में अधिकांश विधेयक मंत्रियों द्वारा ही प्रस्तुत किए जाते हैं। व्यवहारतः, राष्ट्रपति के अधिकारों का प्रयोग मंत्रिमंडल ही करता है। अध्यादेश जारी करने का अधिकार राष्ट्रपति को प्राप्त है, लेकिन व्यवहार में इसका प्रयोग मंत्रिमंडल ही करता है। मंत्रिमंडल के सदस्य विभिन्न विभागों के अध्यक्ष होते हैं। वे अपने विभागों का संचालन और उनके कार्यों की देखभाल करते हैं।
#लोकसभा_के_विघटन_की_शक्ति: कानूनी तौर पर लोकसभा को भंग करने का अधिकार राष्ट्रपति को है, परंतु राष्ट्रपति अपनी इस शक्ति का प्रयोग मंत्रिमंडल की सलाह पर ही करता है। इस प्रकार मंत्रिमंडल के पास ऐसी शक्ति है जिससे लोकसभा पर अंकुश रखा जा सदन अपनी अवधि से पहले ही भंग हो जाए।
#वित्तीय_कार्य : देश की आर्थिक नीति निर्धारित करने का उत्तरदायित्व भी मंत्रिमंडल का ही होता है। बजट का निर्माण, नये कर लगाना तथा पुराने करों की दरों में हेरफेर करना, आदि मंत्रिमंडल के प्रमुख कार्यों में सम्मिलित हैं। मंत्रिमंडल की सहमति के पश्चात् ही वित्त मंत्री बजट लोकसभा में प्रस्तुत करता है। अन्य वित्त विधेयकों को भी मंत्रिमंडल ही लोकसभा में प्रस्तुत करता है।
#वैदेशिक_संबंधों_पर_नियंत्रण : वैदेशिक मामलों में मंत्रिमंडल का पूर्ण नियंत्रण होता है। विदेशी राज्यों के अध्यक्षों या सरकारों के साथ सभी वार्ताओं का संचालन प्रधानमंत्री या विदेश मंत्री या प्रधानमंत्री के किसी अन्य प्रतिनिधि द्वारा किया जाता है। जब वार्ताओं के परिणामस्वरूप कोई संधि या समझौता हो जाता है तो संसद को उनके संबंध में सूचना दे दी जाती है और यदि आवश्यकता हुई तो संसद से उसकी स्वीकृति प्राप्त कर ली जाती है। वैदेशिक संबंधों के संचालन में संसद की भूमिका बहुत गौण होती है। कई बार सरकार विदेशों के साथ गुप्त संधियां एवं समझौते करती है और संसद को इस संबंध में सूचना नहीं दी जाती है। वैदेशिक संबंधों के संचालन में गोपनीयता की आवश्यकता होती है और इसी कारण यह कार्य मंत्रिमंडल के द्वारा ही किया जाता है, संसद के द्वारा नहीं।
#नियुक्ति_संबंधी_कार्य : संविधान के द्वारा राष्ट्रपति को जिन पदाधिकारियों को नियुक्त करने की शक्ति प्रदान की गई है, व्यवहारिक रूप में इनकी नियुक्ति मंत्रिमंडल के द्वारा ही की जाती है। मंत्रिमंडल के परामर्श से ही संसद के दोनों सदनों के मनोनीत सदस्य नियुक्त किए जाते हैं। राज्यों के राज्यपाल, उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश, उच्च न्यायालय के न्यायाधीश, महाधिवक्ता, महालेखा परीक्षक और सेना के प्रमुखों की नियुक्ति मंत्रिमंडल के परामर्श से ही की जाती है।
[01/12, 8:26 AM] Raj Kumar: #भारतीय_राजव्यवस्था_एवं_शासन :
#राष्ट्रपति
भारत में संसदीय शासन प्रणाली अपनाई गई है जो ब्रिटेन के नमूने पर है। भारत का राष्ट्रपति संवैधानिक एवं नाममात्र का प्रमुख होता है। जबकि वास्तविक कार्यपालिका प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में केंद्रीय मंत्रिमंडल होता है।
▪️संविधान के अनुच्छेद 52 में राष्ट्रपति पद का प्रावधान है।
▪️केंद्र की समस्त कार्यपालिका शक्तियां राष्ट्रपति में निहित होती हैं जिनका प्रयोग वह स्वयं या अपने अधीनस्थों के माध्यम से करता है।
▪️भारत सरकार के सभी कार्य उसी के नाम से संचालित किए जाते हैं।
▪️भारत का राष्ट्रपति भारत का प्रथम नागरिक होता है।
#योग्यताएं :
अनुच्छेद 58 में राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के लिए निम्नलिखित योग्यताएं आवश्यक हैं-
1. वह भारत का नागरिक हो।
2. उसकी आयु 35 वर्ष से कम नहीं हो।
3. लोकसभा का सदस्य निर्वाचित होने की योग्यता रखता हो।
4. भारत या राज्य सरकार के अधीन किसी लाभ के पद पर न हो।
▪️राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, राज्यपाल, केंद्र अथवा राज्य का मंत्री लाभ के पद नहीं माने जाते।
#निर्वाचन :
▪️भारत में राष्ट्रपति का चुनाव एक निर्वाचक मंडल द्वारा किया जाता है जिसमें लोकसभा, राज्यसभा तथा राज्यों एवं केंद्र शासित प्रदेशों की विधानसभाओं के केवल निर्वाचित सदस्य भाग लेते हैं। मनोनीत सदस्यों को इसमें शामिल नहीं किया जाता।
▪️इस प्रकार स्पष्ट है कि राष्ट्रपति सीधे जनता द्वारा नहीं चुना जाता।
▪️राष्ट्रपति का चुनाव अप्रत्यक्ष रूप से एकल संक्रमणीय मत पद्धति से समानुपातिक प्रणाली के आधार पर होता है।
▪️समानुपातिक प्रणाली का मतलब यह है कि प्रत्येक जनप्रतिनिधि के मत का मूल्य उस जनसंख्या के अनुपात में होता है जिसका वह प्रतिनिधित्व करता है। इस प्रकार एक सांसद के मत का मूल्य विधायक के मत के मूल्य से बहुत अधिक होता है।
▪️मतदान गुप्त होता है।
#निर्वाचक_के_मत_का_मूल्य :
▪️विधानसभा के प्रत्येक निर्वाचित सदस्य का मत मूल्य राज्य की कुल जनसंख्या को उस राज्य की विधानसभा के कुल निर्वाचित सदस्यों की संख्या से भाग देने से प्राप्त फल को फिर से 1000 से भाग देने पर प्राप्त संख्या के बराबर होता है।
▪️संसद के प्रत्येक निर्वाचित सदस्य का मत मूल्य सभी राज्यों और दिल्ली तथा पांडिचेरी की विधानसाओं के कुल निर्वाचित सदस्यों के मत मूल्यों के कुल योग को संसद के कुल निर्वाचित सदस्यों की संख्या से भाग देने से प्राप्त संख्या के बराबर होता है।
#कार्यकाल :
▪️राष्ट्रपति का कार्यकाल उसके शपथ ग्रहण की तारीख से पांच वर्ष होता है।
#शपथ :
▪️राष्ट्रपति को उसके पद और गोपनीयता की शपथ सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश द्वारा दिलाई जाती है।
▪️राष्ट्रपति अपना त्याग पत्र उपराष्ट्रपति को देता है।
#पद_रिक्ति :
▪️यदि राष्ट्रपति का पद मृत्यु, त्याग पत्र अथवा पद से हटाए जाने के कारण रिक्त होता है तो उपराष्ट्रपति राष्ट्रपति के रूप में कार्य करता है। यदि उपराष्ट्रपति भी अनुपस्थित है तो सर्वोच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश राष्ट्रपति के रूप में कार्य करता है। मुख्य न्यायाधीश की अनुपस्थिति में सर्वोच्च न्यायालय का वरिष्ठ न्यायाधीश राष्ट्रपति के रूप में कार्य करता है।
▪️राष्ट्रपति के पद के लिए नया चुनाव पद रिक्त होने के छः महीने के भीतर ही होना जरूरी है। संविधान द्वारा राष्ट्रपति पद पर पुनः निर्वाचन के लिए किसी प्रकार का प्रतिबंध नहीं लगाया गया है।
#शक्तियां :
भारतीय संविधान के द्वारा राष्ट्रपति को विविध शक्तियां प्राप्त हैं, जैसे-
#कार्यपालिका_शक्तियां :
▪️केंद्र सरकार की समस्त शक्तियां राष्ट्रपति में निहित होती हैं। उसी के नाम से देश की नीतियों का संचालन होता है।
▪️उसे विशेष पदों पर नियुक्ति का अधिकार प्राप्त है। वह प्रधानमंत्री सहित अन्य मंत्रियों, सर्वोच्च न्यायालय एवं उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों, नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक, चुनाव आयुक्तों, विभिन्न राष्ट्रीय आयोगों के अध्यक्षों एवं सदस्यों तथा राज्यपालों आदि की नियुक्ति करता है।
▪️भारत का राष्ट्रपति, भारत में विदेशों के राजदूतों का पहचान पत्र स्वीकार करता है तथा विदेशों में भारतीय राजदूतों को नियुक्ति पत्र जारी करता है।
#विधायी_शक्तियां :
▪️भारत का राष्ट्रपति संसद का अभिन्न अंग होता है क्योंकि उसके हस्ताक्षर के बाद ही कोई विधेयक कानून बनता है।
▪️वह संसद का सत्र बुलाता है, सत्रावसान करता है।.
वह संसद को भंग भी कर सकता है (प्रधानमंत्री की सलाह पर)
▪️वह लोकसभा के प्रथम सत्र को संबोधित करता है।.
संसद का संयुक्त अधिवेशन बुलाकर अभिभाषण कर सकता है।
▪️नये राज्य के निर्माण, धन विधेयक या संचित निधि से खर्च करने वाला कोई भी विधेयक राष्ट्रपति की पूर्वानुमति के बिना संसद में प्रस्तुत नहीं होते।
▪️वह लोकसभा में आंग्ल भारतीय समुदाय से दो लोगों को तथा राज्यसभा में कला, साहित्य, विज्ञान या समाजसेवा के क्षेत्र में ख्याति प्राप्त 12 लोगों को मनोनीत कर सकता है।
▪️संविधान के अनुच्छेद 123 के अंतर्गत असमान्य स्थिति में अध्यादेश जारी कर सकता है।
#न्यायिक_शक्तियां :
▪️अनुच्छेद 72 के तहत राष्ट्रपति को किसी अपराधी की सजा को क्षमा करने, रोकने या कम करने का अधिकार है।
▪️वह कोर्ट मार्शल की सजा को भी क्षमा कर सकता है।
▪️वह लोकहित के प्रश्न पर सर्वोच्च न्यायालय की राय ले सकता है तथा यह भी जरूरी नहीं है कि वह इस प्रकार लिए गए राय को माने ही (अनुच्छेद 143)
#सैन्य_शक्तियां :
▪️भारत का राष्ट्रपति रक्षा बलों का सर्वोच्च कमांडर होता है (अनुच्छेद 53)
▪️उसे युद्ध और शांति की घोषणा करने तथा सेना को अभियान हेतु आदेशित करने की शक्ति है।
#विवेकाधीन_शक्तियां :
भारतीय संविधान के अनुसार राष्ट्रपति मंत्रिपरिषद की सलाह पर कार्य करता है, किंतु विशेष परिस्थितियों में उसे अपने विवेक से काम करना पड़ता है।.
#आपातकालीन_शक्तियां :
▪️राष्ट्रीय आपात, अनुच्छेद 352 के अंतर्गत युद्ध, बाह्य आक्रमण या सशस्त्र विद्रोह की स्थिति से निपटने के लिए राष्ट्रपति को विशिष्ट शक्तियां प्रदान की गई है।
▪️राष्ट्रपति शासन, अनुच्छेद 356 के अंतर्गत यदि किसी राज्य की प्रशासनिक मशीनरी संविधान के अनुसार नहीं चलाया जा रहा है तो राष्ट्रपति उस राज्य की सरकार को भंग कर राष्ट्रपति शासन की घोषणा कर सकता है।
▪️वित्तीय आपात, अनुच्छेद 360 के अंतर्गत यदि देश की वित्तीय साख खतरे में हो तो राष्ट्रपति वित्तीय आपात की घोषणा कर सकता है।
#राष्ट्रपति_की_वीटो_शक्तियां :
भारत के राष्ट्रपति को तीन प्रकार की वीटो शक्तियां प्राप्त हैं।
▪️आत्यंतिक वीटो
▪️निलंबनकारी वीटो
▪️जेबी वीटो
#महाभियोग :
अनुच्छेद 61 के अंतर्गत राष्ट्रपति को उसकी पदावधि की समाप्ति के पहले संविधान के उल्लंघन के आरोप में महाभियोग लगा कर पद मुक्त किया जा सकता है। संसद के किसी भी सदन में महाभियोग की प्रक्रिया 14 दिन की पूर्व सूचना के साथ शुरू की जा सकती है। बशर्ते उस सदन के एक चौथाई सदस्य लिखित प्रस्ताव द्वारा सहमति व्यक्त करें। आरोपों का अन्वेषण अनिवार्य रूप से किया जाना चाहिए। इस दौरान राष्ट्रपति को अपना पक्ष प्रस्तुत करने का अधिकार है। यदि संसद के दोनों सदन दो तिहाई बहुमत से प्रस्ताव पारित कर देते हैं तो राष्ट्रपति को पद मुक्त कर दिया जाएगा।
[01/12, 8:26 AM] Raj Kumar: #आधुनिक_भारत_का_इतिहास :
#असहयोग_आंदोलन
असहयोग आंदोलन अंग्रेजों के अत्याचार के खिलाफ 1 अगस्त 1920 को गांधी जी द्वारा शुरू किया गया सत्याग्रह आंदोलन है। यह अंग्रेजों द्वारा प्रस्तावित अन्यायपूर्ण कानूनों और कार्यों के विरोध में देशव्यापी अहिंसक आंदोलन था। इस आंदोलन में, यह स्पष्ट किया गया था कि स्वराज अंतिम उद्देश्य है। लोगों ने ब्रिटिश सामान खरीदने से इनकार कर दिया और दस्तकारी के सामान के उपयोग को प्रोत्साहित किया।
#असहयोग_ही_क्यों?
जैसा कि गांधीजी ने अपनी पुस्तक “हिंद स्वराज” में लिखा है, ब्रिटिश भारत में भारतीयों के सहयोग से ही बस सकते थे। इसलिए, अगर भारतीयों ने सहयोग करने से इनकार कर दिया, तो हम ब्रिटिश साम्राज्य के पतन के लिए स्वराज प्राप्त कर सकते हैं।
#असहयोग_आंदोलन_के_कारण :
#रौलट_एक्ट- 1919 में पारित रौलट एक्ट के तहत, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जैसे मौलिक अधिकारों पर अंकुश लगाया गया और इसने पुलिस शक्तियों को बढ़ाया गया। यह अधिनियम लॉर्ड चेम्सफोर्ड के वायसराय रहने के समय पारित किया गया था, जिसने सरकार को देश में राजनीतिक गतिविधियों को दबाने के लिए भारी शक्तियां दी, और दो साल तक बिना किसी ट्रायल के राजनीतिक कैदियों को हिरासत में रखने की अनुमति दी। इस अधिनियम की “शैतानी” और अत्याचारी कहकर आलोचना की गई थी।
#जलियांवाला_बाग_हत्याकांड- 13 अप्रैल 1919 को जलियांवाला बाग कांड हुआ। जनरल डायर ने जलियांवाला बाग में एकत्रित हजारों लोगों पर गोलियां चलाईं जिनमें सैकड़ों लोग मारे गए। उनका उद्देश्य, जैसा कि उन्होंने बाद में घोषित किया था, लोगों पर ‘नैतिक प्रभाव’ पैदा करना था।
#प्रथम_विश्व_युद्ध- युद्ध ने देश में एक नई आर्थिक और राजनीतिक स्थिति का निर्माण किया। रक्षा व्यय में भारी वृद्धि की गई, सीमा शुल्क बढ़ाया गया और आयकर पेश किया गया। 1913 और 1918 के बीच के वर्ष के दौरान कीमतें बढ़कर दोगुनी हो गईं, जिससे आम लोगों के लिए अत्यधिक कठिनाई हुई। भारत के कई हिस्सों में फसल खराब हुई, जिसके परिणामस्वरूप भोजन की भारी कमी है। इस समय एक इन्फ्लूएंजा महामारी भी साथ ही साथ था। युद्ध समाप्त होने के बाद भी, लोगों की कठिनाई जारी रही और अंग्रेजों द्वारा कोई मदद नहीं की गई।
#असहयोग_आंदोलन_की_विशेषताएं :
▪️असहयोग आंदोलन की अनिवार्य विशेषता यह थी कि अंग्रेजों की क्रूरताओं के खिलाफ लड़ने के लिए शुरू में केवल अहिंसक साधनों को अपनाया गया था।
▪️इस आंदोलन ने अपनी रफ़्तार सरकार द्वारा प्रदान की गई उपाधियों को लौटाकर, और सिविल सेवाओं, सेना, पुलिस, अदालतों और विधान परिषदों, स्कूलों, और विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार करके किया गया।.
▪️देश में विदेशी सामानों का बहिष्कार किया गया, शराब की दुकानों को बंद कर दिया गया और विदेशी कपड़ो की होली जलाई गयी।
▪️मोतीलाल नेहरू, सी. आर. दास, सी. राजगोपालाचारी और आसफ अली जैसे कई वकीलों ने अपनी प्रैक्टिस छोड़ दी।
▪️इससे विदेशी कपड़े का आयात 1920 और 1922 के बीच बहुत गिर गया।
▪️जैसे-जैसे यह आंदोलन फैलता गया, लोगों ने सभी आयातित कपड़ों को त्यागना शुरू कर दिया और केवल भारतीय कपड़ो को पहनना शुरू कर दिया, जिससे भारतीय कपड़ा मिलों और हैंडलूमों का उत्पादन बढ़ गया।
#किस_कारण_से_असहयोग_आंदोलन_मंद_हो_गया?
▪️स्वराज के अपने स्वयं के अर्थ के साथ लोगों के साथ देश के विभिन्न हिस्सों में हिंसात्मक हो गयी थी।
▪️चौरी चौरा आंदोलन: 5 फरवरी 1922 को नाराज किसानों ने यूपी के चौरी चौरा में एक स्थानीय पुलिस स्टेशन पर हमला किया। इस घटना में दो पुलिसकर्मी मारे गए। इस समय किसानों को उकसाया गया क्योंकि पुलिस ने उनके शांतिपूर्ण प्रदर्शन पर गोलीबारी की थी। इसके चलते गांधीजी ने असहयोग आंदोलन को वापस ले लिया।
[01/12, 8:26 AM] Raj Kumar: #आधुनिक_भारत_का_इतिहास :
#खिलाफत_आंदोलन
प्रथम विश्व युद्ध में तुर्की ने मित्र राष्ट्रों के खिलाफ युद्ध किया था. तुर्की के खलीफा को मुस्लिमों के धार्मिक प्रधान के रूप मे देखा जाता था. उन दिनों यह अफवाह फैली थी कि तुर्की पर ब्रिटिश सरकार अपमानजनक शर्तें लाद रही है. इसी के विरोध स्वरूप 1919-20 में अली बंधु, मालैाना आजाद, हसरत मोहानी तथा हकीम अजमल खान के नेतृत्व में खिलाफत आंदोलन छेड़ा गया. इनकी तीन मांगें थीं –
▪️मुसलमानों के पवित्र स्थानों पर तुर्की के सुल्तान खलीफा का नियंत्रण रहे.
▪️खलीफा के अधीन इतना भूभाग रहे कि वह इस्लाम की रक्षा कर सके.
▪️जारीजात उल अरब (अरब, सीरिया, इराक तथा फिलिस्तीन) पर मुसलमानों की संप्रभुता बनी रहे.
#पृष्ठभूमि :
प्रथम विश्व युद्ध में मुसलामानों का सहयोग लेने लिए अंग्रेजों ने तुर्की के प्रति उदार रवैया अपनाने का वादा किया था. ब्रिटिश प्रधानमंत्री लायड जार्ज ने यह वादा किया था कि, “हम तुर्की को एशिया माइनर और थ्रेस की उस समृद्ध और प्रसिद्ध भूमि से वंचित करने के लिए युद्ध नहीं कर रहे हैं जो नस्ली दृष्टि से मुख्य रूप से तुर्क है.” परन्तु बाद में अंग्रेज इस वादे से मुकर गये. ब्रिटेन तथा उसके सहयोगियों ने उस्मानिया सल्तनत के साथ अपमानजनक व्यवहार किया तथा उसके टुकड़े-टुकड़े कर थ्रेस को हथिया लिया. इससे भारत के राजनैतिक चेतना प्राप्त मुसलमान काफी क्षुब्ध थे. तुर्की के प्रति ब्रिटिश नीति में परिवतर्न लाने के उद्देश्य से भारतीय मुसलामानों ने आंदोलन छेड़ने का निश्चय किया.
शीघ्र ही अली भाइयों (मौलाना अली एवं शाकैत अली), मालैाना आजाद, हकीम अजमल खान और हसरत मोहानी के नेतृत्व में एक खिलाफत कमेटी गठित हुई और देशव्यापी आंदोलन छेड़ दिया गया. वस्तुतः इस आंदोलन के साथ मुस्लिम जनता पूर्ण रूप से राष्ट्रीय आंदोलन में कूद पड़ी. कांग्रेस के नेता भी खिलाफत आंदोलन में शामिल हुए और उन्होंने सारे देश में इसे संगठित करने में मुस्लिम नेताओं की सहायता की. महात्मा गांधी भी खिलाफत आंदोलन में सहयोग देने के इच्छुक थे. उनके लिए खिलाफत आंदोलन हिन्दुओं और मुसलमानों को एकता में बाधने का एक ऐसा सुअवसर था, जो सैकड़ों वर्षों में नहीं आयेगा. शीघ्र ही गांधीजी खिलाफत आन्दोलन के एक मान्य नेता के रूप में उभरे. नवम्बर 1919 में गांधीजी खिलाफत आंदोलन के अध्यक्ष चुने गये. सम्मेलन में उन्होंने मुसलमानों से कहा कि वे मित्र राष्ट्रों की विजय के उपलक्ष्य में आयोजित सार्वजनिक उत्सवों में भाग न लें. उन्होंने धमकी दी कि यदि ब्रिटेन ने तुर्की के साथ न्याय नहीं किया तो बहिष्कार और असहयोग आंदोलन शुरू किया जायेगा. मालैाना आजाद, अकरम और फजलुल हक ने खिलाफत आन्दालेन और हिन्दू-मुस्लिम एकता के पक्ष में बंगाल का दौरा किया.
1920 के प्रारंभ में ही हिन्दुओं और मुसलमानों का एक संयुक्त प्रतिनिधि मंडल वायसराय से मिला, जिन्होंने स्पष्ट शब्दों में कह दिया कि उन्हें ऐसी उम्मीद छोड़ देनी चाहिए. एक प्रतिनिधि मंडल उसके बाद इंग्लैंड गया, परन्तु प्रधानमंत्री लायड जार्ज ने रूखा उत्तर दिया कि “पराजित ईसाई शक्तियों के साथ किए जाने वाले बर्ताव से भिन्न बर्ताव तुर्की के साथ नहीं किया जायेगा.” 1920 तक ब्रिटिश हुकूमत ने खिलाफत नेताओं से यह स्पष्ट कह दिया कि वे अब और अधिक उम्मीद नहीं रखें. तुर्की के साथ पेरिस सम्मेलन में 1920 में की गयी.
‘सेव्रेस की संधि’ इस बात का सबतू थी कि तुर्की के विभाजन का फैसला अंतिम है. इससे नेताओं में बहुत ही रोष फैला. गांधीजी ने खिलाफत कमेटी को अंग्रेजी हुकूमत के विरुद्ध अहिंसक आन्दोलन छेड़ने की सलाह दी. 9 जून, 1920 को इलाहाबाद में खिलाफत कमेटी ने इस सलाह को सवर्सम्मति से स्वीकार कर लिया और गाँधीजी को इस आन्दालेन का नतेृत्व करने का दायित्व सौंपा गया.
#खिलाफत_आन्दोलन_का_पतन :
असहयोग का चार चरणों वाला एक कार्यक्रम घोषित किया गया जिसमें उपाधियों, सिविल सेवाओं, सेना और पुलिस का बहिष्कार और अंततः करों को न देना शामिल था. गांधीजी ने कांग्रेस को भी खिलाफत और अन्य मुद्दों पर असहयोग आन्दोलन छेड़ने के लिए मना लिया. इस तरह दोनों संगठनों ने ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध संघर्ष छेड़ दिया. खिलाफत कमेटी ने मुसलमानों से कहा कि वे सेना में भर्ती न हों. इसके लिए अली बंधुओं को गिरफ्तार कर लिया गया. इस पर कांग्रेस ने सारे भारतीयों से अपील की कि वे किसी भी रूप में सरकार की सेवा न करें. आन्दोलन को दबाने के लिए सरकार ने व्यापक दमन चक्र का सहारा लिया. खिलाफत आन्दोलन अपने मूलभूत उद्देश्यों में सफल नहीं रहा. खिलाफत का प्रश्न जल्दी ही अप्रासंगिक हो गया. तुर्की की जनता मुस्तफा कमाल पाशा के नेतृत्व में उठ खड़ी हुई.
1922 में सुल्तान को सत्ता से वंचित कर दिया गया. कमाल पाशा ने तुर्की के आधुनिकीकरण के लिए तथा इसे धर्मनिरपेक्ष स्वरूप देने के लिए कई कदम उठाये. उसने खिलाफत समाप्त कर दी और संविधान से इस्लाम को निकालकर उसे धर्मनिरपेक्ष राज्य घोषित कर दिया. शिक्षा का राष्ट्रीयकरण हुआ, स्त्रियों को व्यापक अधिकार मिला और उद्योग धंधों का विकास हुआ. इन कदमों से खिलाफत आन्दोलन की बुनियाद ही नष्ट हो गयी. अपने मूलभूत उद्देश्यों को पूरा नहीं करके भी परोक्ष परिस्थितियों की दृष्टि से यह आन्दोलन काफी सफल रहा.
#खिलाफत_आन्दोलन_के_परोक्ष_परिणाम :
▪️मुसलमानों का राष्ट्रीय आन्दोलन में शामिल होना
इस आन्दालेन के फलस्वरूप देश के मसुलमान राष्ट्रीय आन्दालेन में शामिल हुए तथा राष्ट्र की मुख्य धारा से जुड़े. उन दिनों देश में जो राष्ट्रवादी उत्साह तथा उल्लास का वातावरण था, उसे बनाने में काफी हद तक इस आन्दोलन का भी योगदान था.
▪️हिन्दू-मुस्लिम एकता को बल
इस आन्दोलन के फलस्वरूप हिन्दू-मुस्लिम एकता की भावना को बल मिला. दोनों ने मिलकर विदेशी सरकार से संघर्ष किया तथा एक-दूसरे की भावनाओं का आदर किया.
▪️सांप्रदायिकता को बल मिला
ऐसा कहा जाता है कि राष्ट्रीय आन्दोलन द्वारा केवल मुसलमानों की एक मांग उठाने से धार्मिक चेतना का राजनीति में समावेश हुआ और अंततः सांप्रदायिक शक्तियाँ मजबूत हुई. परन्तु राष्ट्रीय आंदोलन द्वारा यह मांग उठाना गलत नहीं था. उस समय यह आवश्यक था कि समाज के विभिन्न अंग अपनी विशिष्ट मांगों और अनुभवों द्वारा स्वतंत्रता की जरुरत को समझें. फिर भी मुसलमानों की धार्मिक चेतना को ऊपर उठाकर उसे धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक चतेना तक ले जाने में राष्ट्रवादी नतेृत्व कुछ सीमा तक असपफल रहा. इस आन्दोलन के फलस्वरूप मुसलमानों में साम्राज्यवाद विरोधी भावनाओं का प्रचार हुआ. इस आंदोलन ने खलीफा के प्रति मुसलमानों की चिंता से भी अधिक साम्राज्यवाद विरोधी भावना का ही प्रतिनिधित्व किया और इसे ठोस अभिव्यक्ति दी. इस तरह खिलाफत आन्दोलन अपने मूलभूत उद्देश्यों में असफल रहा, परन्तु इसके परोक्ष परिणाम महत्त्वपूर्ण सिद्ध हुए.
[01/12, 8:26 AM] Raj Kumar: #आधुनिक_भारत_का_इतिहास :
#रौलट_विरोधी_सत्याग्रह
महात्मा गाँधी ने रौलट एक्ट के विरुद्ध अभियान चलाया और बम्बई में 24 फ़रवरी 1919 ई. को सत्याग्रह सभा की स्थापना की| रौलट विरोधी सत्याग्रह के दौरान,महात्मा गाँधी ने कहा कि “यह मेरा दृढ़ विश्वास है कि हम मुक्ति केवल संघर्ष के द्वारा ही प्राप्त करेंगे न कि अंग्रेजों द्वारा हमें प्रदान किये जा रहे सुधारों से”| 13अप्रैल,1919 को घटित जलियांवाला बाग हत्याकांड के बाद ,रौलट विरोधी सत्याग्रह ने अपनी गति खो दी| यह आन्दोलन प्रेस की स्वतंत्रता पर प्रतिबंधों और बिना ट्रायल के कैद में रखने के विरोध में था|
रौलट एक्ट ब्रिटिशों को बंदी प्रत्यक्षीकरण के अधिकार को स्थगित करने सम्बन्धी शक्तियां प्रदान करता था| इसने राष्ट्रीय नेताओं को चिंतित कर दिया और उन्होंने इस दमनकारी एक्ट के विरुद्ध विरोध प्रदर्शन प्रारंभ कर दिए| मार्च-अप्रैल 1919 के दौरान देश एक अद्भुत राजनीतिक जागरण का साक्षी बना| हड़तालों,धरनों,विरोध प्रदर्शनों का आयोजन किया गया | अमृतसर में 9 अप्रैल को स्थानीय नेता सत्यपाल व किचलू को कैद कर लिया गया | इन स्थानीय नेताओं की गिरफ़्तारी के कारन ब्रिटिश शासन के प्रतीकों पर हमले किये गए और 11अप्रैल को जनरल डायर के में नेतृत्व में मार्शल लॉ लगा दिया गया|
13 अप्रैल,1919 को शांतिपूर्ण व निहत्थी भीड़ (जिसमें अधिकतर वे ग्रामीण शामिल थे जो आस-पास के गावों से बैशाखी उत्सव मानाने आये थे) एक लगभग बंद मैदान(जलियांवाला बाग़) में जनसभा को सुनने के लिए,जनसभाओं पर पाबन्दी के बावजूद,एकत्रित हुए,जिनकी बिना किसी चेतावनी के क्रूरतापूर्वक हत्या कर दी गयी| जलियांवाला बाग़ हत्याकांड ने पूरे देश को स्तब्ध कर दिया और देशभक्तों के मष्तिष्क को उग्र प्रतिशोध के लिए भड़का दिया| हिंसक माहौल के कारण गाँधी जी ने इसे हिमालय के समान गलती मानी और 18 अप्रैल को आन्दोलन को वापस ले लिया|
#निष्कर्ष
13अप्रैल,1919 को घटित जलियांवाला बाग हत्याकांड के बाद ,रौलट विरोधी सत्याग्रह ने अपनी गति खो दी| इसके अलावा पंजाब,बंगाल और गुजरात में हुई हिंसा ने गांधी जी को आहत किया|अतः महात्मा गाँधी ने आन्दोलन को वापस ले लिया|
[01/12, 8:26 AM] Raj Kumar: #भारतीय_राजव्यवस्था_एवं_शासन :
#राज्य_के_नीति_निदेशक_तत्व
हमारे संविधान की एक प्रमुख विशेषता नीति निर्देशक तत्व हैं। विश्व के अन्य देशों के संविधानों में आयरलैण्ड के संविधान को छोड़कर अन्य किसी देश के संविधान में इस प्रकार के तत्व नहीं हैं। भारतीय संविधान के निर्माताओं ने संविधान में केवल राज्य के संगठन की व्यवस्था एवं अधिकार-पत्र का वर्णन ही नहीं किया है, वरन् वह दिशा भी निश्चित की है जिसकी ओर बढ़ने का प्रयत्न भविष्य में भारत राज्य को करना है। संविधान-निर्माताओं का लक्ष्य भारत में लोककल्याणकारी राज्य की स्थापना था, और इसलिए उन्होंने नीति निर्देशक तत्वों में ऐसी बातों का समावेश किया, जिन्हें कार्य रूप में परिणत किये जाने पर एक लोककल्याण राज्य की स्थापना सम्भव हो सकती है।
#नीति_निदेशक_तत्व :
संविधान की धारा 38 से 51 तक में राज्य नीति के निर्देशक तत्वों का वर्णन किया गया है। अध्ययन की सुविधा के लिए इन तत्वों को निम्न वर्गों में बांटा जा सकता है:
1. #आर्थिक_सुरक्षा_सम्बन्धी_निर्देशक_तत्व :
भारतीय संविधान के निर्माताओं का उद्देश्य भारत में एक लोककल्याणकारी राज्य की स्थापना करना था और इस दृष्टि से अधिकांश निर्देशक तत्वों द्वारा आर्थिक सुरक्षा और आर्थिक न्याय के सम्बन्ध में व्यवस्था की गयी है।
संविधान में इस प्रकार के निम्न तत्वों का उल्लेख है:
▪️राज्य प्रत्येक स्त्री और पुरुष को समान रूप से जीविका के साधन प्रदान करने का प्रयत्न करेगा।
▪️राज्य देश के भौतिक साधनों के स्वामित्व और नियन्त्रण की ऐसी व्यवस्था करेगा कि अधिक से अधिक सार्वजनिक हित हो सके।
▪️राज्य इस बात का भी ध्यान रखेगा कि सम्पत्ति और उत्पादन के साधनों का इस प्रकार केन्द्रीकरण न हो कि सार्वजनिक हित की को किसी प्रकार की हानि पहुंचे।
▪️राज्य प्रत्येक नागरिक को चाहे वह स्त्री हो या पुरुष, समान कार्य के लिए समान वेतन प्रदान करेगा।
▪️राज्य श्रमिक पुरुषों और स्त्रियों के स्वास्थ्य और शक्ति तथा बालकों की सुकुमार अवस्था का दुरुपयोग न होने देगा।
▪️मूल संविधान में कहा गया था कि ’राज्य बच्चों तथा युवकों की शोषण से तथा भौतिक या नैतिक परित्याग से रक्षा करेगा।’ 42वें संवैधानिक संशोधन द्वारा उसे इस प्रकार संशोधित किया गया है: ’’राज्य के द्वारा बच्चों को स्वस्थ रूप में विकास के लिए अवसर और सुविधाएं प्रदान की जायेंगी, उन्हें स्वतन्त्रता और सम्मान की स्थिति प्राप्त होगी, बच्चों तथा युवकों की शोषण से तथा भौतिक या नैतिक परित्याग से रक्षा की जायेगी।
▪️राज्य अपने आर्थिक साधनों के अनुसार और विकास की सीमाओं के भीतर यह प्रयास करेगा कि सभी नागरिक अपनी योग्यता के अनुसार रोजगार पा सकें, शिक्षा पा सकें एवं बेकारी, बुढ़ापा, बीमारी और अंगहीनता, आदि दशाओं में सार्वजनिक सहायता प्राप्त कर सकें।
▪️राज्य ऐसा प्रयत्न करेगा कि व्यक्तियों को अपनी अनुकूल अवस्थाओं में ही कार्य करना पड़े तथा स्त्रियों को प्रसूतावस्था में कार्य न करना पड़े।
▪️राज्य इस बात का प्रयत्न करेगा कि कृषि और उद्योग में लगे हुए सभी मजदूरों को अपने जीवन-निर्वाह के लिए यथोचित वेतन मिल सके, उनका जीवन-सतर ऊपर उठ सके, वे अवकाश के समय का उचित उपयोग कर सकें तथा उन्हें सामाजिक और सांस्कृतिक उन्नति का अवसर प्राप्त हो सके।
▪️राज्य का कर्तव्य होगा कि गांवों में व्यक्तिगत अथवा सहकारी आधार पर कुटीर उद्योगों को प्रोत्साहन दे।
▪️वैज्ञानिक आधार पर कृषि का संचालन करना भी राज्य का कर्तव्य होगा।
▪️राज्य पशुपालन की अच्छी प्रणालियों का प्रचलन करेगा और गायों, बछड़ों तथा अन्य दुधारू और वाहक पशुओं की नस्ल सुधारने और उनके वध को रोकने का प्रयत्न करेगा।
▪️नवीन अनुच्छेद 39। के अनुसार, ’’राज्य इस बात का प्रयत्न करेगा कि कानूनी व्यवस्था का संचालन समान अवसर तथा नयाय की प्राप्ति में सहायक हो और उचित व्यवस्थापन, योजना या अन्य किसी प्रकार से समाज के कमजोर वर्गों के लिए निःशुल्क कानूनी सहायता की व्यवस्था करेगा, जिससे आर्थिक असामथ्र्य या अन्य किसी प्रकार से व्यक्ति न्याय प्राप्त करने से वंचित न रहें।’’
▪️नवीन ‘A’के अनुसार, ’’राज्य उचित व्यवस्थापन या अन्य प्रकार से औद्योगिक संस्थानों के प्रबन्ध में कर्मचारियों के भागीदार बनाने के लिए कदम उठायेगा।’’
44वें संवैधानिक संशोधन (अप्रैल 1979) द्वारा आर्थिक सुरक्षा सम्बन्धी निर्देशक तत्वों में एक और तत्व जोड़ा गया है। इसमें कहा गया है कि ’’राज्य न केवल व्यक्तियों की आय और उनके सामाजिक स्तर, सुविधाओं और अवसरों सम्बनधी भेदभाव को कम से कम करने का प्रयत्न करेगा, वरन् विभिन्न क्षेत्रों में रहने वाले और विभिन्न व्यवसायों में लगे हुए व्यक्तियों के समुदायों के बीच विद्यमान आय, सामाजिक स्तर, सुविधाओं और अवसरों सम्बन्धी भेदभाव को भी कम से कम करने का प्रयत्न करेगा।’’
2. #सामाजिक_हित_सम्बन्धी_निर्देशक_तत्व :
इस सम्बन्ध में राज्य के अधोलिखित कर्तव्य निश्चित किये गये हैं:
▪️राज्य लोगों के जीवन-स्तर को सुधारने और स्वास्थ्य सुधारने के लिए प्रयत्न करेगा। इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए औषधि में प्रयोग किये जाने के अतिरिक्त स्वास्थ्य के लिए हानिकारक मादक द्रव्यों तथा अन्य पदार्थों के सेवन पर प्रतिबनध लगायेगा।
▪️राज्य जनता के दुर्बलतर अंगों के, विशेषतया अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित जनजातियों के, शिक्षा तथा अर्थ सम्बन्धी हितों की विशेष सावधानी से उन्नति करेगा और सामाजिक अन्याय तथा सभी प्रकार के शोधण से उनकी रक्षा करेगा।
3. #न्याय_शिक्षा_और_प्रजातन्त्र_सम्बन्धी_निर्देशक #तत्व :
भारत में सुगम और सुलभ न्याय व्यवस्था, शिक्षा के प्रचार और प्रसार तथा प्रजातन्त्र की भावना के विकास के लिए भी कुछ निर्देशक तत्वों का वर्णन किया गया है, जो इस प्रकार हैं:
▪️न्याय की प्राप्ति हेतु राज्य सभी नागरिकों के लिए समान कानून बनायेगा और अपनी सेवाओं में न्यायपालिका को कार्यपालिका से अलग करने का प्रयत्न करेगा।
▪️शिक्षा के सम्बनध में यह प्रस्तावित किया गया है कि विधान के लागू होने के 10 वर्ष के समय में राज्य 14 वर्ष तक के बालकों के लिए निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा प्रदान करने की व्यवस्था करेगा।
▪️प्रजातन्त्र की भावना के विकास के लिए निर्देशक तत्वों में कहा गया है कि राज्य ग्राम पंचायतों के संगठन की ओर कदम उठायेगा और इन्हें उतने अधिकार प्रदान किये जायेंगे कि वे स्वायत्ता शासन की इकाइयों के रूप में कार्य कर सकें।
(4) #प्राचीन_स्मारकों_की_रक्षा_सम्बन्धी_निर्देशक #तत्व :
इन तत्वों द्वारा प्राचीन स्मारकों, कलात्मक महत्व के स्थानों और राष्ट्रीय महत्व के भवनों की रक्षा का कार्य भी राज्य को सौंपा गया है। राज्य का कर्तव्य निश्चित किया गया है कि वह प्रत्येक स्मारक, कलात्मक या ऐतिहासिक रुचि के स्थानों को, जिसे संसद ने राष्ट्रीय महत्व का घोषित कर दिया हो, रक्षा करने का प्रयत्न करेगा।
42वें संवैधानिक संशोधन में कहा गया है कि राज्य ’देश के पर्यावरण
(Environment) की रक्षा और उसमें सुधार का प्रयास करेगा। (अनुच्छेद 48’A’)
5. #अन्तर्राष्ट्रीय_शान्ति_और_सुरक्षा_सम्बन्धी_तत्व :
हमारे देश का आदर्श सदैव ही ’वसुधैव कुटुम्बकम्’ का रहा है और हमने सदैव ही शान्ति तथा ’जीओ और जीने दो’ के सिद्धान्त को अपनाया है। इसी आदर्श को हमारे संविधान के अन्तिम निर्देशक तत्व में इस प्रकार बताया है:
राज्य अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में निम्नलिखित आदर्शों को लेकर चलने का प्रयत्न करेगा:
(अ) अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति और सुरक्षा में वृद्धि,
(ब) राष्ट्रों के बीच न्याय और सम्मानूपूर्ण सम्बन्ध स्थापित रखना,
(स) राष्ट्रों के आपसी व्यवहार में अन्तर्राष्ट्रीय कानून और सन्धियों के प्रति आदर का भाव बढ़ाना,
(द) अन्तर्राष्ट्रीय झगड़ों को मध्यस्थता द्वारा सुलझाने के लिए प्रोत्साहित करना।
निर्देशक तत्वों के इस वर्णन के आधार पर कहा जा सकता है कि इन तत्वों के आधार पर भारत में वास्तविकता प्रजातन्त्र की स्थापना हो सकेगी और हमारा देश एक ऐसा लोककल्याणकारी राज्य बन सकेगा जिसमें प्रत्येक व्यक्ति को स्वतन्त्रता, समता तथा सामाजिक न्याय प्राप्त हो सके।.
#राज्य_की_नीति_के_निदेशक_तत्व :
▪️अनुच्छेद 38:-राज्य लोक कल्याण की अभिवृद्धि के लिए सामाजिक व्यवस्था बनाएगा।.
▪️अनुच्छेद 39 क:-समान न्याय और निःशुल्क विधिक सहायता.
▪️अनुच्छेद 40:-ग्राम पंचायतों का संगठन.
अनुच्छेद 41:-कुछ दशाओं में काम, शिक्षा और लोक सहायता पाने का अधिकार.
▪️अनुच्छेद 42:-काम की न्यायसंगत और मानवोचित दशाओं का तथा प्रसूति सहायता का उपबन्ध.
अनुच्छेद 43:-कर्मकारों के लिए निर्वाह मजदूरी आदि.
▪️43क:-उद्योगों के प्रबन्ध में श्रमिकों का भाग लेना.
अनुच्छेद 44:-नागरिकों के लिए एक समान सिविल संहिता.
▪️अनुच्छेद 45:-बालकों के लिए निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा का उपबन्ध.
▪️अनुच्छेद 46:-अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और अन्य दुर्बल वर्गों के शिक्षा और अर्थ सम्बन्धी हितों की अभिवृद्धि.
▪️अनुच्छेद 47:-पोषाहार स्तर और जीवन स्तर को ऊंचा करने तथा लोक स्वास्थ्य का सुधार करने का राज्य का कर्तव्य.
▪️अनुच्छेद 48:-कृषि और पशुपालन का संगठन.
48क:-पर्यावरण का संरक्षण तथा संवर्धन और वन एवं वन्य जीवों की रक्षा.
▪️अनुच्छेद 49:-राष्ट्रीय महत्व के स्मारकों, स्थानों और वस्तुओं का संरक्षण.
▪️अनुच्छेद 50:-कार्यपालिका से न्यायपालिका का पृथक्करण.
▪️अनुच्छेद 51:-अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति और सुरक्षा की अभिवृद्धि.
[01/12, 8:26 AM] Raj Kumar: #आधुनिक_भारत_का_इतिहास :
#जलियांवाला_बाग_हत्याकांड
बात 13 अप्रैल 1919 की है जब एक प्रतिबंधित मैदान हो रहे जनसभा के एकत्रित निहत्थी भीड़ पर, बगैर किसी चेतावनी के, जनरल डायर के आदेश पर ब्रिटिश सैनिकों ने अंधा-धुंध गोली चला दी थी। यह जनसभा जलियाँवाला बागमें हो रही थी, इसलिए इसे जलियाँवाला बाग हत्याकांड भी बोला जाता है। इस जनसभा की मुखबिरी हंसराज नामक भारतीय ने किया था और उसके सहयोग से इस हत्याकांड की साज़िश रची गयी थी।
13 अप्रैल को यहाँ एकत्रित यह भीड़ दो राष्ट्रीय नेताओं –सत्यपाल और डॉ.सैफुद्दीन किचलू ,की गिरफ्तारी का विरोध कर रही थी। अचानक ब्रिटिश सैन्य अधिकारी जनरल डायर ने अपनी सेना को निहत्थी भीड़ पर,तितर-बितर होने का मौका दिए बगैर, गोली चलाने के आदेश दे दिए और 10 मिनट तक या तब तक गोलियां चलती रहीं जब तक वे ख़त्म नहीं हो गयीं। इन 10 मिनटों, (कांग्रेस की गणना के अनुसार) एक हजार लोग मारे गए और लगभग दो हजार लोग घायल हुए। गोलियों के निशान अभी भी जलियांवाला बाग़ में देखे जा सकते है,जिसे कि अब राष्ट्रीय स्मारक घोषित कर दिया गया है। यह नरसंहार पूर्व-नियोजित था और जनरल डायर ने गर्व के साथ घोषित किया कि उसने ऐसा सबक सिखाने के लिए किया था और अगर वे लोग सभा जारी रखते तो उन सबको वह मार डालता। उसे अपने किये पर कोई शर्मिंदगी नहीं थी। जब वह इंग्लैंड गया तो कुछ अंग्रेजों ने उसका स्वागत करने के लिए चंदा इकट्ठा किया। जबकि कुछ अन्य डायर के इस जघन्य कृत्य से आश्चर्यचकित थे और उन्होंने जांच की मांग की । एक ब्रिटिश अख़बार ने इसे आधुनिक इतिहास का सबसे ज्यादा खून-खराबे वाला नरसंहार कहा।
21 वर्ष बाद ,13 मार्च,1940 को,एक क्रांतिकारी भारतीय ऊधम सिंह ने माइकल ओ डायर की गोली मारकर ह्त्या कर दी क्योंकि जलियांवाला हत्याकांड की घटना के समय वही पंजाब का लेफ्टिनेंट गवर्नर था। नरसंहार ने भारतीय लोगों में गुस्सा भर दिया जिसे दबाने के लिए सरकार को पुनः बर्बरता का सहारा लेना पड़ा। पंजाब के लोगों पर अत्याचार किये गए,उन्हें खुले पिंजड़ों में रखा गया और उन पर कोड़े बरसाए गए। अख़बारों पर प्रतिबन्ध लगा दिए गए और उनके संपादकों को या तो जेल में डाल दिया गया या फिर उन्हें निर्वासित कर दिया गया। एक आतंक का साम्राज्य ,जैसा कि 1857 के विद्रोह के दमन के दौरान पैदा हुआ था,चारों तरफ फैला हुआ था। रविन्द्रनाथ टैगोर ने अंग्रेजों द्वारा उन्हें प्रदान की गयी नाईटहुड की उपाधि वापस कर दी। ये नरसंहार भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में एक महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुआ।
#जलियांवाला_बाग_हत्याकांड_में_कितने_लोग
#मारे_गए?
जलियांवाला बाग हत्याकांड के दौरान हुई मौतों की संख्या पर कोई आधिकारिक डेटा नहीं था। लेकिन अमृतसर के डिप्टी कमिश्नर कार्यालय में 484 शहीदों की सूची है, जबकि जलियांवाला बाग में कुल 388 शहीदों की सूची है। ब्रिटिश राज के अभिलेख इस घटना में 200 लोगों के घायल होने और 379 लोगों के शहीद होने की बात स्वीकार करते है जिनमें से 337 पुरुष, 41 नाबालिग लड़के और एक 6-सप्ताह का बच्चा था। अनाधिकारिक आँकड़ों के अनुसार 1000 से अधिक लोग मारे गए और 2000 से अधिक घायल हुए।
दिसंबर,1919 में अमृतसर में कांग्रेस का अधिवेशन हुआ। इसमें किसानों सहित बड़ी संख्या में लोगों ने भाग लिया। यह स्पष्ट है कि इस नरसंहार ने आग में घी का काम किया और लोगों में दमन के विरोध और स्वतंत्रता के प्रति इच्छाशक्ति को और प्रबल कर दिया।
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