Wednesday, February 24, 2021

विश्व_का_भूगोल : #अन्तर्जात_और_बहिर्जात_बल

[01/12, 8:26 AM] Raj Kumar: #विश्व_का_भूगोल : #अन्तर्जात_और_बहिर्जात_बल पृथ्वी की सतह पर दो प्रकार के बल कार्य करते हैं। एक अन्तर्जात बल तथा दूसरा बहिर्जात बल। अन्तर्जात बल पृथ्वी के आन्तरिक भागों से उत्पन्न होता है। यह बल भू-तल पर विषमताओं का सृजन करता है। तथा बहिर्जात बल पृथ्वी की सतह पर उत्पन्न होता है। यह बल भू-तल पर समतल की स्थापना करता है। #अन्तर्जात_बल (Endogenetic Force)--- अन्तर्जात बलों को कार्य की तीव्रता के आधार पर दो प्रकारों में बांटा गया है। ▪️1- आकस्मिक बल--- इस बल से भूपटल पर विनाशकारी घटनाओं का आकस्मिक आगमन होता है। जैसे भूकम्प, ज्वालामुखी व भू-स्खलन ▪️2 दीर्घकालिक बल--- इसे पटल विरूपणी बल (Diastrophic force) भी कहा जाता है। इसके अन्तर्गत लम्बवत तथा क्षैतिज संचलन आते हैं। इन संचलनों को क्रमशः महाद्वीप निर्माण कारी लम्बवत संचलन तथा पर्वत निर्माण कारी क्षैतिज संचलन कहते हैं। ▪️a- महाद्वीप निर्माणकारी लम्बवत संचलन--- इस संचलन से महाद्वीपीय भागों का निर्माण एवं उत्थान या निर्गमन होता है। लम्बवत संचलन भी दो प्रकार के होते हैं--उपरिमुखी और अधोमुखी। जब महाद्वीपीय भाग या उसका कोई क्षेत्र अपनी सतह से ऊपर उठ जाता है। तो उस पर लगने वाले बल को उपरिमुखी बल तथा इस क्रिया को उपरिमुखी संचलन कहते हैं। जैसे कच्छ की खाड़ी के निकट लगभग 24 km लंबी भूमि कई km ऊपर उठ गयी है। जिसे अल्लाह का बाँध कहते हैं। इसके विपरीत जब महाद्वीपीय भागों में धंसाव हो जाता है। तो उस पर लगने वाले बल को अधोमुखी बल तथा इस क्रिया को अवतलन या अधोमुखी संचलन कहते हैं। जैसे मुम्बई प्रिंस डॉक यार्ड क्षेत्र के जलमग्न वन। ▪️b- पर्वत निर्माणकारीव क्षैतिज संचलन--- पृथ्वी के आन्तरिक भाग से क्षैतिज रूप में पर्वतों के निर्माण में सहायक संचलन बल को पर्वत निर्माणकारी संचलन कहा जाता है। इस संचलन में दो प्रकार के बल कार्य करते हैं---संपीडन बल व तनाव बल। जब क्षैतिज संचलन बल विपरीत दिशाओं में क्रियाशील होता है। तो तनाव की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। जिससे धरातल में भ्रंश, चटकनें व दरार आदि का निर्माण होता है। अतः इसे तनाव बल कहते हैं। और जब क्षैतिज संचलन बल आमने सामने क्रियाशील होता है तो चट्टानें संपीडित हो जाती हैं। जिससे धरातल में संवलन व वलन पड़ जाते हैं। अतः इसे संपीडन बल कहते हैं। #वलन (Folding) पृथ्वी के आन्तरिक भागों में उत्पन्न अन्तर्जात बलों के क्षैतिज संचलन द्वारा धरातलीय चट्टानों में संपीडन के कारण लहरों के रूप में पड़ने वाले मोड़ों को वलन कहते हैं। वलन के कारण चट्टानों के ऊपर उठे हुए भाग को अपनति (Anticline) तथा नीचे धँसे हुए भाग को अभिनति (Syncline) कहते हैं। #वलनों_के_प्रकार (Types of Folds)--- संपीडन बल में भिन्नता के कारण वलन के प्रकारों में भी अन्तर होता है। ▪️1- सममित वलन (Symmetrical Fold)--- इसमें वलन की दोनों भुजाओं की लम्बाई व ढलान समान होती है। इसे सरल वलन या खुले प्रकार का वलन भी कहते हैं। जब दबाव शक्ति की तीव्रता कम एवं दोनों दिशाओं में समान हो, तो इस प्रकार के वलन का निर्माण होता है। जैसे-स्विट्जरलैंड का जूरा पर्वत ▪️2- असममित वलन (Asymmetrical Fold)--- इसमें वलन की दोनों भुजाओं की लम्बाई व ढाल असमान होती है। कम झुकाव वाली भुजा अपेक्षाकृत बड़ी तथा अधिक झुकाव वाली भुजा छोटी होती है। जैसे-ब्रिटेन का दक्षिणी पेनाइन पर्वत ▪️3- एकदिग्नत वलन (Monoclinal Fold)--- जब किसी वलन की एक भुजा सामान्य झुकाव व ढाल वाली तथा दूसरी भुजा उस पर समकोण बनाती है एवं उसका ढाल खड़ा होता है। इस प्रकार के वलन को एकदिग्नत वलन कहते हैं। जैसे-आस्ट्रेलिया का ग्रेट डिवाइडिंग रेंज ▪️4- समनत वलन (Isoclinal Fold)--- समनत वलन में वलन की दोनों भुजाएँ समानान्तर होती हैं। लेकिन क्षैतिज दिशा में नहीं होती हैं। इस वलन में आगे का भाग लटकता हुआ प्रतीत होता है। ऐसे वलन में संपीडन की तीव्रता स्पष्ट दिखाई देती है। जैसे-पाकिस्तान का काला चित्ता पर्वत ▪️5- परिवलित वलन (Recumbent Fold)--- अत्यधिक तीव्र क्षैतिज संचलन के कारण जब वलन की दोनों भुजाएँ एक दूसरे के समानान्तर और क्षैतिज दिशा में होती जाती हैं। तो उसे परिवलित वलन कहते हैं। इसे दोहरा मोड़ भी कहा जाता है। जैसे-ब्रिटेन का कौरिक कैसल पर्वत ▪️6-अधिवलन (Over Fold)--- इस वलन में वलन की एक भुजा बिल्कुल खड़ी न रहकर कुछ आगे की ओर निकली हुई रहती है एवं तीव्र ढाल बनाती है। जबकि दूसरी भुजा अपेक्षाकृत लम्बी होती है और कम झुकी होने के कारण धीमी ढाल बनाती है। इस वलन का निर्माण तब होता है जब दबाव शक्ति एक दिशा में तीव्र होती है। जैसे-कश्मीर की पीर पंजाल श्रेणी ▪️7- अधिक्षिप्त या प्रतिवलन (Overthrust or Overturned Fold)--- जब अत्यधिक संपीडन बल के कारण परिवलित वलन की एक भुजा टूट कर दूर विस्थापित हो जाती है, तब उस विस्थापित भुजा को ग्रीवाखण्ड कहते हैं। जिस तल पर भुजा का विस्थापन होता है उसे व्युत्क्रम भ्रंश तल कहते हैं। वहीं जब परिवलित वलन में अत्यधिक संपीडन के कारण वलन के नीचे की भुजा, ऊपरी भुजा के ऊपर विस्थापित हो जाती है। तब उसे प्रतिवलन कहते हैं। जैसे-कश्मीर घाटी एक ग्रीवा खण्ड पर अवस्थित है। ▪️8- पंखा वलन (Fan Fold)--- क्षैतिज संचलन का समान रूप से क्रियाशील न होने के कारण विभिन्न स्थानों में संपीडन की भिन्नता के साथ ही पंखे के आकार की वलित आकृति का निर्माण होता है। जिसे पंखा वलन कहते हैं। जैसे-पाकिस्तान स्थित पोटवार, #भ्रंशन (Fault) इसके अन्तर्गत दरारें, विभंग व भ्रंशन को शामिल किया जाता है। भू-पटल में एक तल के सहारे चट्टानों के स्थानान्तरण से उत्पन्न संरचना को भ्रंश कहते हैं। भ्रंशन की उत्पत्ति क्षैतिज संचलन के दोनों बलों ( संपीडन व तनाव बल) से होती है। परन्तु तनाव बल का स्थान अधिक महत्वपूर्ण है क्योंकि अधिकतर भ्रंश इसी के कारण उत्पन्न हुए हैं। #भ्रंशन_के_प्रकार (Kinds of Faults)--- भ्रंश निम्नलिखित प्रकार के होते हैं। ▪️1-सामान्य भ्रंश (Normal Faults)--- जब चट्टानों में दरार पड़ जाने के कारण उसके दोनों खण्ड विपरीत दिशा में खिसक जाते हैं, तो उसे सामान्य भ्रंशन कहते हैं। इसमें भूपटल में प्रसार होता है। सामान्य भ्रंश का निर्माण तनाव बल के कारण होता है। ▪️2- व्युत्क्रम या उत्क्रम भ्रंश (Reverse Fault)--- जब चट्टानों में दरार पड़ जाने के कारण उसके दोनों खण्ड एक दूसरे की ओर खिसकते हैं और एक दूसरे के ऊपर आरूढ़ हो जाते हैं। इस प्रकार निर्मित भ्रंश को व्युत्क्रम भ्रंश कहते हैं। इसे आरूढ़ भ्रंश भी कहा जाता है। ये भ्रंश संपीडन बल के कारण निर्मित होते हैं। इस भ्रंशन से कगारों का निर्माण होता है। जैसे-पश्चिमी घाट कगार, विंध्यन कगार क्षेत्र में लटकती घाटियाँ एवं जलप्रपात का विकास। इस प्रकार के भ्रंशन में सतह का फैलाव पहले की अपेक्षा घट जाता है। ▪️3- सोपानी भ्रंश (Step Fault)--- जब किसी क्षेत्र में एक दूसरे के समानान्तर कई भ्रंश होते हैं एवं सभी भ्रंश तलों की ढाल एक ही दिशा में होती है। तो इसे सोपानी या सीढ़ीदार भ्रंश कहते हैं। इस भ्रंशन में अधक्षेपित खण्ड का अधोगमन एक ही दिशा में होता है। जैसे-यूरोप की राइन घाटी ▪️4-Transcurrent Fault or Strike slip Fault--- जब स्थल पर दो विपरीत दिशाओं से दबाव पड़ता है तो दोनों ओर के भू-खण्ड भ्रंश तल के सहारे आगे पीछे खिसक जाते हैं। इस प्रकार के भ्रंश को ट्रांसकरेन्ट भ्रंश कहते हैं। जैसे-कैलिफोर्निया का एंड्रियास भ्रंश, #भ्रंशन_के_कारण_निर्मित_स्थलाकृतियां--- भ्रंशन के कारण पृथ्वी पर कई प्रकार की भू-आकृतियां निर्मित होती हैं। ▪️a-भ्रंश घाटी (Rift Valley)--- जब दो समानान्तर भ्रंशों का मध्यवर्ती भाग नीचे धँस जाता है तो उसे द्रोणी या भ्रंश घाटी कहते हैं। जर्मन भाषा में इसे "ग्राबेन (Graben)" कहा जाता है। जैसे-जॉर्डन भ्रंश घाटी, (जिसमें मृतसागर स्थित है) कैलिफोर्निया क्षेत्र में स्थित मृत घाटी,(यह समुद्र तल से भी नीची है।) अफ्रीका की न्यासा, रूडोल्फ, तांगानिका, अल्बर्ट व एडवर्ड झीलें भू-भ्रंश घाटी में ही स्थित है। भारत में नर्वदा, ताप्ती व दामोदर नदी घाटियाँ भ्रंश घाटियों के प्रमुख उदाहरण हैं। ▪️b-रैम्प घाटी (Ramp Valley)--- रैम्प घाटी का निर्माण उस स्थिति में होता है जब दो भ्रंश रेखाओं के बीच स्तम्भ यथा स्थिति में ही रहे परन्तु संपीडनात्मक बल के कारण किनारे के दोनों स्तम्भ ऊपर उठ जाये। जैसे-असम की ब्रह्मपुत्र घाटी ▪️c-भ्रंशोत्थ पर्वत (Block Mountain)--- जब दो भ्रंशों के बीच का स्तम्भ यथावत रहे एवं किनारे के स्तम्भ नीचे धँस जाये तो ब्लॉक पर्वत का निर्माण होता है। जैसे-भारत का सतपुड़ा पर्वत, जर्मनी का ब्लैक फॉरेस्ट व वास्जेस पर्वत, पाकिस्तान का साल्ट रेंज ब्लॉक पर्वत, अमेरिका का स्कीन्स माउंटेन, वासाच रेंज ब्लॉक पर्वत आदि कैलिफोर्निया में स्थित सियरा नेवादा विश्व का सबसे विस्तृत ब्लॉक पर्वत है। ▪️d-हॉर्स्ट पर्वत (Horst Mountain)--- जब दो भ्रंशों के किनारों के स्तम्भ यथावत रहे एवं बीच का स्तम्भ ऊपर उठ जाये तो हॉर्स्ट पर्वत का निर्माण होता है। जैसे- जर्मनी का हॉर्ज पर्वत ____________________________________________ #बहिर्जात_बल (Exogenetic Force)--- पृथ्वी की सतह पर उत्पन्न होने वाले बल को बहिर्जात बल कहते हैं। बहिर्जात बल को "भूमि विघर्षण बल" भी कहा जाता है। बहिर्जात बल का भू-पटल पर प्रमुख कार्य अनाच्छादन (Denudation) होता है। अनाच्छादन के अन्तर्गत अपक्षय, वृहदक्षरण, संचरण, अपरदन व निक्षेपण आदि क्रियाएँ आती हैं। अनाच्छादन स्थैतिक तथा गतिशील दोनों क्रियाओं का योग है। अपक्षय में स्थैतिक क्रिया होती है जबकि अपरदन में गतिशील क्रिया होती है। भौतिक अपक्षय को विघटन (Disintegration) तथा रासायनिक अपक्षय को वियोजन (Decomposition) कहते हैं। उष्ण कटिबंधीय आद्र भागों में रासायनिक अपक्षय होता है जबकि उष्ण व शुष्क मरूस्थलीय भागों में भौतिक अपक्षय होता है। वे सभी क्रियाएँ जो धरातल को सामान्य तल पर लाने का प्रयास करती हैं, उन्हें "प्रवणता संतुलन की क्रियाएँ" कहते हैं। बाह्म कारकों द्वारा स्थलीय धरातल के अपरदन को निम्नीकरण कहते हैं। धरातल की नीची जगहों को भरकर ऊँचा करना अभिवृद्धि कहलाती है। 1-#अपक्षय (Weathering)---> ताप, जल, वायु तथा प्राणियों के कार्यों के प्रभाव, जिनके द्वारा यांत्रिक व रासायनिक परिवर्तनों से चट्टानों के अपने ही स्थान पर कमजोर होने, टूटने, सड़ने एवं विखंडित होने को "अपक्षय" को अपक्षय कहते हैं। जैसे ही चट्टान धरातल पर अनावृत होकर मौसमी प्रभावों से प्रभावित होते हैं, यह प्रक्रिया शुरू हो जाती है। कारकों के आधार पर अपक्षय को तीन प्रकारों में विभक्त किया गया है। ▪️क-भौतिक या यांत्रिक अपक्षय--- ¡-ताप के कारण छोटे-बड़े टुकड़ो में विघटन ¡¡-तुषार-चीरण अर्थात चट्टानों में जल का प्रवेश ¡¡¡-घर्षण ¡v-दबाव ▪️ख-रासायनिक अपक्षय--- ¡-ऑक्सीकरण ¡¡-कार्बोनेटिकरण ¡¡¡-जलयोजन ग-प्राणिवर्गीय अपक्षय--- ¡-वानस्पतिक अपक्षय ¡¡-जैविक अपक्षय ¡¡¡-मानवीय क्रियाओं द्वारा अपक्षय 2-#अपरदन (Erosion)----> अपक्षयित पदार्थों का अन्यत्र स्थानान्तरण "अपरदन" कहलाता है। अपरदन में भाग लेने वाली प्रमुख क्रियाएँ निम्नलिखित हैं। ▪️a-अपघर्षण (Abrasion)--- वह प्रक्रिया जिसमें कोई जल प्रवाह अपने साथ कंकड़, पत्थर व बालू आदि पदार्थों के साथ आगे बढ़ता है तो इन पदार्थों के सम्पर्क आने वाली चट्टानों एवं किनारों का क्षरण होने लगता है। इस क्रिया को अपघर्षण कहते हैं। ▪️b-सन्निघर्षण (Attrition)--- जब किसी प्रवाह में प्रवाहित होने वाले पदार्थ आपस में घर्षण कर छोटे होने की प्रक्रिया को सन्निघर्षण कहते हैं। ▪️c-संक्षारण (Corosion)--- घुलनशील चट्टानों जैसे-डोलोमाइट, चुना पत्थर आदि का जल क्रिया द्वारा घुलकर शैल से अलग होना संक्षारण कहलाता है। यह भूमिगत जल एवं बहते जल द्वारा होता है। इससे कार्स्ट स्थलाकृतियों का निर्माण होता है। ▪️d-जलीय क्रिया (Hydraulic Action)--- जब जल प्रवाह की गति के कारण चट्टानें टूट-फुटकर अलग हो जाती हैं। तो उसे जलीय क्रिया कहते हैं। यह क्रिया सागरीय तरंगों, हिमानियों एवं नदियों द्वारा होती है। ▪️e-जल दाब क्रिया (Water Pressure)--- जब किसी चट्टान में जल के दबाव के कारण अपरदन क्रिया होती है तो उसे जल दबाव क्रिया कहा जाता है। यह मुख्यतः सागरीय तरंगों द्वारा होती है। ▪️f-उत्पाटन (Plucking)--- इस प्रकार का अपरदन हिमानी क्षेत्रों में होता है। वर्षा तथा हिम पिघलने से प्राप्त जल चट्टानों की सन्धियों में प्रविष्ट हो जाता है तथा ताप की कमी के कारण जमकर हिम रूप धारण कर लेता है, जिस कारण चट्टान कमजोर हो जाती हैं और इनसे बड़े बड़े टुकड़े टूट कर अलग होते रहते हैं। यह प्रक्रिया उत्पाटन कहलाती है। ▪️g-अपवहन (Deflation)--- यह पवन के द्वारा शुष्क या अर्ध-शुष्क प्रदेशों में अवसादों की उड़ाव की क्रिया है। 3-#वृहद_संचलन (Mass Movement)--- गुरुत्वाकर्षण के सीधे प्रभाव के कारण शैलों के मलवा का चट्टान की ढाल के अनुरूप रूपान्तरण हो जाता है। इस क्रिया को वृहद संचलन कहते हैं। वृहद संचलन अपरदन के अन्तर्गत नहीं आता है। 4-#निक्षेपण (Deposition)--- निक्षेपण अपरदन का परिणाम होता है। ढाल में कमी के कारण जब अपरदन के कारकों का वेग कम हो जाता है तो अवसादों का निक्षेपण प्रारम्भ हो जाता है। अर्थात निक्षेपण किसी कारक का कार्य नहीं है। #अपरदन_चक्र (Erosion Cycle) अपरदन चक्र अन्तर्जात व बहिर्जात बलों का सम्मिलित परिणाम होता है। अन्तर्जात बल धरातल पर विषमताओं का सृजन करते हैं तथा बहिर्जात बल समतल स्थापक बल के रूप में कार्य करते हैं। जैसे ही अन्तर्जात बलों द्वारा धरातल पर विषमताओं का निर्माण होता है, बहिर्जात बल इन विषमताओं को दूर करने में प्रयत्नशील हो जाते हैं। जिससे विशिष्ट स्थलाकृतियों का निर्माण होता है। सर्वप्रथम स्कॉटिश भू-गर्भशास्त्री जेम्स हटन ने भू-आकृतियों के सम्बन्ध में 'एकरूपतावाद' की अवधारणा दी और बताया कि "वर्तमान भूत की कुंजी है" अमेरिका के भूगोलवेत्ता विलियम मोरिस डेविस ने अपरदन चक्र की परिकल्पना का प्रतिपादन 1899 में किया था। डेविस के अनुसार किसी भी स्थलाकृति का निर्माण तथा विकास ऐतिहासिक क्रम में होता है, जिसके अन्तर्गत उसे तरुण (Young), प्रौढ़ एवं जीर्ण अवस्थाओं से होकर गुजरना पड़ता है। डेविस की इस विचार धारा पर डार्विन की "जैविक विकासवादी अवधारणा" का प्रभाव है। डेविस के अनुसार स्थलाकृतियाँ मुख्य रूप से तीन कारकों का परिणाम होती हैं। 1-चट्टानों की संरचना , 2-अपरदन के प्रक्रम, 3-समय की अवधि या विभिन्न अवस्थायें। इन्हें "डेविस के त्रिकूट ( Trio of Davis)" के नाम से जाना जाता है। डेविस के अनुसार अपरदन चक्र समय की वह अवधि है, जिसमें एक उत्थित भू-खण्ड अपरदन की विभिन्न अवस्थाओं से गुजरते हुए अंततः समतल प्राय मैदान में बदल जाता है तथा इसमें कहीं-कहीं थोड़े उठे हुए भाग "मोनाडनॉक" के रूप में शेष बचे रहते हैं। इस अपरदन चक्र को डेविस ने भौगोलिक चक्र का नाम दिया। जर्मन वैज्ञानिक वाल्टर पेंक ने डेविस के सिद्धान्त की आलोचना की तथा मॉर्फोलॉजिकल सिस्टम की अवधारणा प्रस्तुत की। जिसके अनुसार, स्थलाकृतियाँ उत्थान एवं निम्नीकरण की दर तथा दोनों की प्रवस्थाओं के परस्पर सम्बन्धों का प्रतिफल होती हैं। उन्होंने उठते हुए स्थल खण्डों को प्राइमारम्प कहा तथा अपरदन के पश्चात बने समतल प्राय मैदान को इंड्रम्प कहा। अपरदन चक्र से सम्बन्धित अन्य सिद्धान्त निम्नलिखित हैं। ▪️पेडीप्लनेशन चक्र------------एल. सी. किंग ▪️कार्स्ट अपरदन चक्र------------बीदी #अपरदन_के_प्रक्रम--- इसके अन्तर्गत बहता जल, भूमिगत जल, सागरीय तरंग, हिमानी तथा पवन आदि आते हैं। 1-#नदी_प्रक्रम--- कोई नदी अपनी सहायक नदियों समेत जिस क्षेत्र का जल लेकर आगे बढ़ती है, वह स्थान प्रवाह क्षेत्र या नदी द्रोणी या जल ग्रहण क्षेत्र कहलाता है। एक नदी द्रोणी दूसरी नदी द्रोणी से जिस उच्च भूमि द्वारा अलग होती है, उस जल विभाजक क्षेत्र कहते हैं। जैसे अरावली पर्वत श्रेणी और इसके उत्तर की उच्च भूमि सिन्धु तथा गंगा द्रोणियों के जल को विभाजित करती है। नदियां अपने ढालों के अनुरूप बहती है। बहते हुए जल द्वारा निम्न प्रकार की स्थलाकृतियों का निर्माण होता है। ▪️a-V-आकार की घाटी--- नदी द्वारा पर्वतीय क्षेत्रों में की गई ऊर्ध्वाधर काट के कारण गहरी, संकीर्ण और V-आकार की घाटी का निर्माण होता है। इनमें दीवारों का ढाल तीव्र व उत्तल होता है। आकार के अनुसार ये घाटी दो प्रकार की होती हैं। ▪️ (कन्दरा)---- जहाँ शैलें कठोर होती हैं। वहाँ पर V- आकार गहरी व सँकरी होती है। नदी की ऐसी गहरी व संकरी घाटी, जिसके दोनों किनारे खड़े होते हैं। कन्दरा व गॉर्ज कहलाती है। जैसे-सिन्धु नदी द्वारा निर्मित सिन्धु गॉर्ज, सतलज नदी द्वारा निर्मित शिपकीला गॉर्ज तथा ब्रह्मपुत्र नदी द्वारा निर्मित दिहांग गॉर्ज ▪️कैनियन--- जब किसी पठारीय भाग में शैलें आड़ी तिरछी हों और वर्षा भी कम हो तो उस स्थान पर बहने वाली नदी की घाटी बहुत गहरी और तंग होती है। ऐसी गहरी तंग घाटी को कैनियन या आई-आकार की घाटी कहते हैं। जैसे-अमेरिका में कोलोरैडो नदी पर स्थित "ग्रैंड कैनियन" ▪️b-जल प्रपात (Water Fall)--- जब नदियों का जल ऊँचाई से खड़े ढाल से अत्यधिक वेग से नीचे की ओर गिरता है तो उसे जल प्रपात कहते हैं। इसका निर्माण असमान अपरदन, भूखण्ड में उत्थान व भ्रंश कगारों के निर्माण आदि के कारण होता है। जैसे-विश्व का सर्वाधिक ऊँचा वेनुजुऐला का साल्टो एंजेल प्रपात, उत्तरी अमेरिका एवं कनाडा का नियाग्रा जलप्रपात,दक्षिण अफ्रीका में जिम्बाब्वे की जाम्बेजी नदी पर स्थित विक्टोरिया जल प्रपात, लुआलाबा नदी पर स्थित स्टेनली जल प्रपात,सांगपो नदी पर स्थित हिंडेन प्रपात, पोटोमेक नदी पर स्थित ग्रेट प्रपात, न्यू नदी पर सैंड स्टोन प्रपात तथा कोलम्बिया नदी पर स्थित सेलिलो प्रपात। भारत में कर्नाटक राज्य में शरावती नदी पर स्थित जोग या गरसोप्पा जल प्रपात (260 मीटर), नर्वदा नदी का धुँआधार जल प्रपात (9 मीटर), सुवर्णरेखा नदी का हुण्डरू जल प्रपात (97 मीटर) आदि। ▪️c-जलोढ़ शंकु (Alluvial Cone)--- जब नदियाँ पर्वतीय भाग से निकलकर समतल प्रदेश में प्रवेश करती हैं। तो चट्टानों के बड़े बड़े अवसाद पीछे छूट जाते हैं इन अवसादों से बनी आकृति जलोढ़ शंकु कहलाती है। विभिन्न जलोढ़ शंकुओं के मिलने से भाबर प्रदेश का निर्माण होता है। ▪️d-जलोढ़ पंख (Alluvial Fans)--- पर्वतीय भाग से निकलने के पश्चात् नदियों के अवसाद दूर-दूर तक फैल जाते हैं। जिससे पंखनुमा मैदान का निर्माण होता है। जिसे जलोढ़ पंख कहते हैं। कई जलोढ़ पंखों के मिलने से गिरिपाद मैदान या तराई क्षेत्र का निर्माण होता हैजलोढ़ पंख की चोटी के पास नदी कई शाखाओं में विभक्त हो जाती हैं, जो गुम्फित नदी कहलाती है। नदी द्वारा जलोढ़ पंख का निर्माण नदी की तरुणावस्था के अन्तिम चरण तथा प्रौढ़वस्था के प्रथम चरण का परिचायक है। ▪️e-नदी विसर्प (River meanders)--- मैदानी क्षेत्रों में नदियों का क्षैतिज अपरदन अधिक सक्रिय होने के कारण नदी की धारा दाएँ-बाएँ, बल खाती हुई प्रवाहित होती है जिसके कारण नदी के मार्ग में छोटे बड़े मोड़ बन जाते हैं। इन मोड़ो को नदी का विसर्प कहते हैं। विसर्प "S" आकार के होते हैं। नदियों का विसर्प बनाने का कारण अधिक अवसादी बोझ होता है। ▪️f-गोखुर झील (Oxbow Lake)--- जब नदी अपने विसर्प को त्याग कर सीधा रास्ता पकड़ लेती है। तब नदी का अवशिष्ट भाग गोखुर झील या छाड़न झील कहलाता है। ▪️g-तटबन्ध (Levees)--- प्रवाह के दौरान नदियाँ अपरदन के साथ-साथ बड़े-बड़े अवसादों का किनारों पर निक्षेपण भी करती हैं, जिससे किनारों पर बांधनुमा आकृति का निर्माण हो जाता है। इसे प्राकृतिक तटबन्ध कहते हैं। ▪️h-बाढ़ का मैदान (Flood plain)--- मैदानी भाग में भूमि समतल होती है। अतः जब नदी में बाढ़ आती है तो बाढ़ का जल नदी के समीपवर्ती समतल भाग में फैल जाता है। इस जल में बालू तथा मिट्टी मिली हुई रहती है। बाढ़ के हटने के बाद यह मिट्टी वहीं जमा हो जाती है। मिट्टी के निक्षेपण से सम्पूर्ण मैदान समतल और लहरदार प्रतीत होता है। इस प्रकार के मैदान जलोढ़ मिट्टी के मैदान कहलाते हैं। उत्तरी भारत का मैदान इसका उत्तम उदाहरण है। ▪️i-डेल्टा (Delta)---- निम्नवर्ती मैदानों में ढाल कम होने तथा अवसादों का अधिकता में होने से नदी की परिवहन शक्ति कम होने लगती है जिससे वह अवसादी का जमाव करने लगती है। जिससे डेल्टा का निर्माण होता है। 2-#भूमिगत_जल_प्रक्रम धरातल के नीचे चट्टानों के छिद्रों और दरारों में स्थित जल को भूमिगत जल कहते हैं। भूमिगत जल से बनी स्थलाकृतियों को कार्स्ट स्थलाकृतियाँ कहते हैं। भूमिगत जल द्वारा निर्मित स्थल रूप निम्नलिखित प्रकार के होते हैं। ▪️a-घोलरंध्र (Sink Holes)---- जल की घुलनशील क्रिया के कारण सतह पर अनेक छोटे-छोटे छिद्रों का विकास हो जाता है। जिन्हें घोल रन्ध्र कहते हैं। गहरे घोलरंध्रों को विलयन रंध्र कहते हैं। तथा विस्तृत आकार वाले छिद्रों को "डोलाइन" कहते हैं, जो कई घोलरंध्रों के मिलने से बनता है। जब निरन्तर घोलीकरण के फलस्वरूप कई डोलाइन एक वृहदाकार गर्त का निर्माण करते हैं। तब उसे यूवाला कहते हैं। कई यूवाला के मिलने से अत्यन्त गहरी खाइयों का निर्माण होता है। इन विस्तृत खाइयों को पोल्जे या राजकुण्ड कहते हैं। विश्व का सबसे बड़ा पोल्जे पश्चिमी वालकन क्षेत्र (यूरोप) में स्थित "लिवनो पोल्जे" है। ▪️b-लैपीज (Lappies)---- जब घुलनशील क्रिया के फलस्वरूप ऊपरी सतह अत्यधिक ऊबड़-खाबड़ तथा पतली शिखरिकाओं वाली हो जाती है। तो इस तरह की स्थलाकृति को अवकूट या लैपीज कहते हैं। ▪️c-गुफा (Caverns)---- भूमिगत जल के अपरदन द्वारा निर्मित स्थलाकृतियों में सबसे महत्वपूर्ण स्थलाकृति गुफा या कन्दरा है। इनका निर्माण घुलनशील क्रिया तथा अपघर्षण द्वारा होता है। कन्दराएँ ऊपरी सतह से नीचे एक रिक्त स्थान के रूप में होती हैं। इनके अन्दर निरन्तर जल प्रवाह होता रहता है। जैसे-अमेरिका की कार्ल्सबाद तथा मैमथ कन्दरा। और भारत में देहरादून में स्थित गुप्तदाम कन्दरा। कन्दराओं में जल के टपकने से कन्दरा की छत के सहारे चुने का जमाव लटकता रहता है, जिसे "स्टैलेक्टाइट" कहते हैं। तथा कन्दरा के फर्श पर चुने के जमाव से निर्मित स्तम्भ को "स्टैलेग्माइट" कहते हैं। इन दोनों के मिल जाने से कन्दरा स्तम्भ का निर्माण होता है। ▪️d-अन्धी घाटी (Blind Valley)---- जब विलयन रन्ध्र नदी के प्रवाह मार्ग के बीच में आ जाता है। तो नदी उसमें गिरकर विलीन हो जाती है। जिससे नदी की आगे की घाटी शुष्क हो जाती है। जिसे अन्धी घाटी कहते हैं। [01/12, 8:26 AM] Raj Kumar: #भारत_का_भूगोल : #जलवायु किसी स्थान अथवा देश में लम्बे समय के तापमान, वर्षा, वायुमण्डलीय दबाब तथा पवनों की दिशा व वेग का अध्ययन व विश्लेषण जलवायु कहलाता है। सम्पूर्ण भारत को जलवायु की दृष्टि से उष्णकटिबंधीय मानसूनी जलवायु वाला देश माना जाता है। भारत में उष्ण कटिबंधीय मानसूनी जलवायु पायी जाती है। मानसून शब्द की उत्पत्ति अरबी भाषा के ‘मौसिम’ शब्द से हुई है। मौसिम शब्द का अर्थ पवनों की दिशा का मौसम के अनुसार उलट जाना होता है। भारत में अरब सागर एवं बंगाल की खाड़ी से चलने वाली हवाओं की दिशा में ऋतुवत् परिवर्तन हो जाता है, इसी संदर्भ में भारतीय जलवायु को मानसूनी जलवायु कहा जाता है। #भारतीय_जलवायु_को_प्रभावित_करने_वाले_कारक : ◾स्थिति एवं अक्षांशीय विस्तार भारत उत्तरी गोलार्द्ध में स्थित है एवं कर्क रेखा भारत के लगभग मध्य से होकर गुजरती है अतः यहां का तापमान उच्च रहता है, ये भारत को उष्णकटिबंधीय जलवायु वाला क्षेत्र बनाती है। ◾समुद्र से दूरी भारत तीन ओर से समुद्र से घिरा हुआ है भारत के पश्चिमी तट, पूर्वी तट एवं दक्षिण भारतीय क्षेत्र पर समुद्रीय जलवायु का प्रभाव पड़ता है किन्तु उत्तरी भारत, उत्तर पश्चिमी भारत एवं उत्तरी-पूर्वी भारत पर समुद्रीय जलवायु का प्रभाव नगण्य है। ◾उत्तरी पर्वतीय श्रेणियां हिमालयी क्षेत्र भारत की जलवायु को प्रभावित करता है यह मानसून की अवधि में भारतीय क्षेत्र में वर्षा का कारण भी बनता है तथा शीत ऋतु में तिब्बतीय क्षेत्र से आने वाली अत्यंत शीत लहरों में रूकावट पैदा कर भारत को शीत लहर के प्रभावों से बचाने के लिए एक आवरण या दीवार की भूमिका निभाता है। ◾भू-आकृति भारत की भू-आकृतिक संरचना पहाड़, पठार, मैदान एवं रेगिस्तान भी भारत की जलवायु को प्रभावित करते हैं। अरावली पर्वतमाला का पश्चिमी भाग एवं पश्चिमी घाट का पूर्वी भाग आदि वर्षा की कम मात्रा प्राप्त करने वाले क्षेत्र हैं। ◾मानसूनी हवाएं मानसूनी हवाएं भी भारतीय जलवायु को प्रभावित करती हैं। हवाओं में आर्द्रता की मात्रा, हवाओं की दिशा एवं गति आदि। ◾ऊध्र्व वायु संरचरण (जेट स्ट्रीम) जेट स्ट्रीम ऊपरी क्षोभमण्डल में आम तौर पर मध्य अक्षांश में भूमि से 12 किमी. ऊपर पश्चिम से पूर्व तीव्र गति से चलने वाली एक धारा का नाम है। इसकी गति सामान्यतः 150-300 किमी. की होती है। ◾उष्ण कटिबंधीय चक्रवात और पश्चिमी विक्षोभ उष्ण कटिबंधीय चक्रवात का निर्माण बंगाल की खाड़ी और अरब सागर में होता है। और यह प्रायद्वीपीय भारत के एक बड़े भू-भाग को प्रभावित करता है। ◾दक्षिणी दोलन (साउथर्न- आॅस्लिेशन) जब कभी भी हिन्द महासागर के ऊपरी सतह का दबाब अधिक हो जाता है, तब प्रशांत महासागर के ऊपर निम्न दबाब बनता है। और जब प्रशांत महासागर के ऊपर उच्च दबाब की सृष्टि होती है तब हिन्द महासागर के ऊपर निम्न दबाब बनता है। दोनों महासागरों के इस उच्च एवं निम्न वायु दाबी अन्तः सम्बन्ध को ही दक्षिणी दोलन कहते हैं। ◾ अल-नीनो अल.नीनो एक मौसम की स्थिति है जिसका भारत के मानसून पर गहरा प्रभाव पड़ता है। यह समुद्र में होने वाली उथलपुथल है और इससे समुद्र के सतही जल का ताप सामान्य से अधिक हो जाता है। अक्सर इसकी शुरूआत दिसंबर में क्रिसमस के आस पास होती है। ये ईसा मसीह के जन्म का समय है। और शायद इसी कारण इस घटना का नाम एल.नीनो पड़ गया जो शिशु ईसा का प्रतीक है। इसके प्रभाव के कारण भारत में कम वर्षा होती है। ◾ला-नीनो ला नीना भी मानसून का रुख तय करने वाली सामुद्रिक घटना है। एल.नीनो में समुद्री सतह गर्म होती है वहीं ला.नीनो में समुद्री सतह का तापमान बहुत कम हो जाता है। यूं तो सामान्य प्रक्रिया के तहत पेरु तट का समुद्री सतह ठंडी होती है लेकिन यही घटना जब काफी देर तक रहती है तो तापमान में असामान्य रूप से गिरावट आ जाती है। इस घटना को ला.नीनो कहा जाता है। इसके प्रभाव में भारत में वर्षा की मात्रा अच्छी रहती है। ____________________________________________ #कोपेन_का_जलवायु_वर्गीकरण : कोपेन ने भारतीय जलवायुवीय प्रदेशों को 9 भागों में विभाजित किया है। ◾1. लघुकालीन शीत ऋतु सहित मानसूनी जलवायु ऐसी जलवायु मुम्बई के दक्षिण में पश्चिमी तटीय क्षेत्रों में पायी जाती है। इन क्षेत्रों में दक्षिण-पश्चिम मानसून से ग्रीष्म ऋतु में 250-300 सेमी. से अधिक वर्षा होती है। इस जलवायु प्रदेश में आने वाले क्षेत्र - ▪️मालावार एवं कोंकण तट, गोवा के दक्षिण तथा पश्चिमी घाट पर्वत की पश्चिमी ढ़ाल ▪️उत्तर पूर्वी भारत ▪️अंडमान-निकोबार द्वीप समूह ◾2. उष्ण कटिबंधीय सवाना जलवायु प्रदेश यह जलवायु कोरोमण्डल एवं मालाबार तटीय क्षेत्रों के अलावा प्रायद्वीपीय पठार के अधिकांश भागों में पायी जाती है। इस जलवायु क्षेत्र की ऊपरी सीमा लगभग कर्क रेखा से मिलती है। अर्थात यह जलवायु कर्क रेखा के दक्षिण में स्थित प्रायद्वीपीय भारत के अधिकांश भागों में पायी जाती है। यहां सवाना प्रकार की वनस्पति पायी जाती है। इस प्रकार के प्रदेश में ग्रीष्म काल में ग्रीष्म काल में दक्षिण-पश्चिम मानसून से लगभग 75 सेमी. वर्षा होती है। शीतकाल सूखा रहता है। ◾3. शुष्क ग्रीष्म ऋतु, आर्द्र शीत ऋतु सहित मानसूनी जलवायु यह वह प्रदेश है जहां शीतकाल में वर्षा होती है और ग्रीष्म ऋतु में सूखा रहता है। यहां शीत ऋतु में उत्तर-पूर्वी मानसून(लौटते हुए मानसून) से अधिकांश वर्षा होती है। वर्षा की मात्रा शीतकाल में लगभग 75-100 सेमी. तक होती है। इसके अन्तर्गत तटीय तमिलनाडु और आन्ध्र प्रदेश के सीमावर्ती प्रदेश आते हैं। ◾4. अर्द्ध शुष्क स्टेपी जलवायु यहां वर्षा ग्रीष्मकाल में 30-60 सेमी. होती है। शीतकाल में वर्षा का अभाव रहता है। यहां स्टेपी प्रकार की वनस्पति पायी जाती है। इसके अन्तर्गत - मध्यवर्ती राजस्थान, पश्चिमी पंजाब, हरियाणा, गुजरात के सीमावर्ती क्षेत्र एवं पश्चिमी घाट का वृष्टिछाया प्रदेश शामिल हैं। ◾5. उष्ण मरूस्थलीय जलवायु यहां वर्षा काफी कम(30 सेमी. से भी कम) होती है, तापमान अधिक रहता है। यहां प्राकृतिक वनस्पति कम(नगण्य) होती है एवं कांटेदार मरूस्थलीय वनस्पति पायी जाती है इस प्रदेश के अंतर्गत - राजस्थान का पश्चिमी क्षेत्र, उत्तरी गुजरात, एवं हरियाणा का दक्षिणी भाग शामिल हैं। ◾6. शुष्क शीत ऋतु की मानसूनी जलवायु इस प्रकार की जलवायु गंगा के अधिकांश मैदानी इलाकों, पूर्वी राजस्थान, असम और मालवा के पठारी भागों में पायी जाती है। यहां गर्मी में तापमान 40 डिग्री तक बढ़ जाता है। जो शीतकाल में 27 डिग्री तक पहुंच जाता है। वर्षा मुख्यतः ग्रीष्म ऋतु में होती है शीतकाल शुष्क है। ◾7. लघु ग्रीष्मकाल युक्त शीत आर्द्र जलवायु इस प्रकार की जलवायु सिक्किम, अरूणाचल प्रदेश और असम(हिमालय का पूर्वी भाग) के हिस्सों में पायी जाती है। शीतकाल ठण्डा, आर्द्र एवं लम्बी अवधि का होता है। शीतकाल में तापमान 10 डिग्री तक होता है। ◾8. टुण्ड्र तुल्य जलवायु यहां तापमान सालभर 10 डिग्री से कम रहता है। शीतकाल में हिमपात के रूप में वर्षा होती है। इसके अंतर्गत - उत्तराखण्ड के पर्वतीय क्षेत्र, कश्मीर, लद्दाख, हिमाचल प्रदेश के 3000 से 5000 मी. ऊंचाई वाले क्षेत्र शामिल हैं। ◾9. ध्रुवीय तुल्य जलवायु यहां तापमान सालभर 0 डिग्री से कम(हिमाच्छादित प्रदेश) होता है। इसके अन्तर्गत हिमालय के पश्चिमी और मध्यवर्ती भाग में 5000 मी. से अधिक ऊंचाई वाले क्षेत्र(जम्मू-कश्मीर एवं हिमाचल प्रदेश के उच्च ऊंचाई वाले क्षेत्र) आते हैं। ____________________________________________ #भारतीय_मानसून_की_उत्पत्ति_के_सिद्धांत : मानसून की उत्पत्ति संबंधित चार प्रमुख सिद्धांत दिए गए हैं- 1. तापीय सिद्धांत 2. विषुवतीय पछुआ पवन सिद्धांत 3. जेट स्ट्रीम सिद्धांत 4. एलनिनो सिद्धांत ◾1. मानसून की उत्पत्ति का तापीय सिद्धांत इस सिद्धांत के अनुसार मानसूनी पवनों की उत्पत्ति का मुख्य कारण तापीय है। ग्रीष्म ऋतु में सूर्य की किरणें उत्तरी गोलार्द्ध में लम्बवत पड़ती है। इससे यहां एक वृहत निम्न दाब का निर्माण होता है। इस निम्न दाब के कारण उत्तर-पूर्वी व्यापारिक पवनें अनुपस्थित हो जाती हैं जो कि 5 से 30 डिग्री उत्तरी अक्षाशों के बीच सालभर चलती है। तापीय विषुवत रेखा उत्तर की ओर खिसक जाती है इस कारण दक्षिणी-पूर्वी व्यापारिक पवनें विषुवत रेखा को पार कर उत्तरी गोलार्द्ध में आ जाती हैं। फेरेल के नियमानुसार उत्तरी गोलार्द्ध में आने पर ये पवन अपनी दाहिनी ओर अर्थात् उत्तर पूर्व की ओर मुड जाती हैं। तथा संपूर्ण भारतीय उपमहाद्वीप पर प्रवाहित होने लगती हैं। चूंकि ये पवन लम्बी समुद्री यात्रा कर आ रही होती है अतः जलवाष्प युक्त होती है। ये दक्षिणी पूर्वी मानसूनी पवन भारतीय उपमहाद्वीप में दो भागों में बंटकर वर्षा ऋतु लाती है। प्रथम, अरब सागर शाखा पश्चिमी घाट के पश्चिमी ढ़ाल पर तथा द्वितीय, बंगाल की खाड़ी शाखा के द्वारा अंडमान निकोबार द्वीप समूह एवं उत्तर-पूर्व भारत में भारी वर्षा होती है। बंगाल की खाड़ी शाखा उत्तर-पश्चिम भारत के निम्न दाब क्षेत्र की ओर अभिसारित होती है।। पूर्व से पश्चिम की ओर जलवाष्प की कमी के साथ ही वर्षा की मात्रा में भी कमी होती जाती है। ▪️व्यापारिक पवनें व्यापारिक पवनें 5 डिग्री से 30 डिग्री उत्तरी एवं दक्षिणी अक्षांशों के बीच चलने वाली पवनें हैं जो 35 डिग्री उत्तरी एवं दक्षिणी अक्षांश(उच्च दाब) से 0 डिग्री अक्षांश(निम्न दाब) के बीच चलती है। शीत ऋतु में सूर्य की किरणें मकर रेखा पर सीधी पड़ती है। इससे भारत के उत्तर पश्चिमी भाग में, अरब सागर व बंगाल की खाड़ी की तुलना में अधिक ठण्ड होने के कारण उच्च दाब का निर्माण(उत्तर-पश्चिम भारत में) एवं अरब सागर तथा बंगाल की खाड़ी में निम्न दाब निर्माण(ठण्ड कम होने के कारण) होता है। इस कारण मानसूनी पवनें विपरित दिशा(उच्च दाब से निम्न दाब) में बहने लगती हैं। जाड़े की ऋतु में उत्तर पूर्वी व्यापारिक पवनें पुनः चलने लगती हैं। यह उत्तर पूर्वी मानसून लेकर आता है। तथा बंगाल की खाड़ी से जलवाष्प ग्रहण कर तमिलनाडु के तट पर वर्षा करती है। ◾2. मानसून की उत्पति का विषुवतीय पछुआ पवन सिद्धांत इसका प्रतिपादन फ्लोन के द्वारा किया गया है। इसके अनुसार विषुवतीय पछुआ पवन ही दक्षिण-पश्चिम मानसूनी हवा है। इसकी उत्पत्ति अंतः उष्ण अभिसरण के कारण होती है। अंतः उष्ण कटिबंधीय अभिसरण क्षेत्र उत्तरी पूर्वी व्यापारिक पवनों एवं दक्षिणी पूर्वी व्यापारिक पवनों का मिलन स्थल अंतर-उष्ण कटिबंधीय अभिसरण क्षेत्र होता है। यहां दोनों पवनों के मिलने से विषुवतीय पछुआ पवनों की उत्पत्ति होती है। फ्लोन ने मानसून की उत्पत्ति हेतु तापीय प्रभाव को प्रमुख माना है। ग्रीष्म काल में तापीय विषुवत रेखा के उत्तरी खिसकान के कारण अंतः उष्ण अभिसरण विषुवत रेखा के उत्तर में होता है। विषुवतीय पछुआ पवनें अपनी दिशा संशोधित कर भारतीय उपमहाद्वीप पर बने निम्न दाब की ओर प्रवाहित होने लगती है। यह दक्षिण-पश्चिम मानसून को जन्म देती है। शीत ऋतु में सूर्य के दक्षिणायन होने पर निम्न दाब क्षेत्र, उच्च दाब क्षेत्र में बदल जाता है तथा उत्तरी-पूर्वी व्यापारिक पवनें पुनः गतिशील हो जाती है। ◾3. जेट स्ट्रीम सिद्धांत इस सिद्धांत का प्रतिपादन येस्ट द्वारा किया गया है। जेट स्ट्रीम ऊपरी वायुमण्डल(9-18 किमी.) के बीच अति तीव्रगामी वायु प्रवाह प्रणाली है। मध्य भाग में इसकी गति अधिकतम(340 किमी./घंटा) होती है। ये हवाएं पृथ्वी के ऊपर एक आवरण का कार्य करती है। जो निम्न वायुमण्डल के मौसम को प्रभावित करती हैं। भारत में आने वाले दक्षिण-पश्चिम मानसून का संबंध उष्ण पूर्वी जेट स्ट्रीम से है। यह 8°N से 35°N अक्षांशों के मध्य चलती है। उत्तर पूर्वी मानूसन का संबंध(शीतकालीन मानसून) उपोष्ण पश्चिमी(पछुआ) जेट स्ट्रीम से है। यह 20 डिग्री से 35 डिग्री उत्तरी एवं दक्षिणी दोनों अक्षांशों के मध्य चलती है। ▪️पछुआ(उपोष्ण पश्चिमी) जेट स्ट्रीम द्वारा उत्तर पूर्वी मानसून की उत्पत्ति शीतकाल में उपोष्ण पश्चिमी(पछुआ) जेट स्ट्रीम संपूर्ण पश्चिमी तथा मध्य एशिया में पश्चिम से पूर्व दिशा में प्रवाहित होती है। तिब्बत का पठार इसके मार्ग में अवरोधक का कार्य करता है एवं इसे दो भागों में बांट देता है। एक शाखा तिब्बत के पठार के उतर से उसके समानान्तर बहने लगती है। दुसरी दक्षिणी शाखा हिमालय के दक्षिण में पूर्व की ओर बहती है। दक्षिणी शाखा की माध्य स्थिति फरवरी में लगभग 25 डिग्री उत्तरी अक्षांश के ऊपर होती है। इसका दाब स्तर 200 से 300 मिली बार होता है। पश्चिमी विक्षोभ जो भारत में शीत ऋतु में आता है, इसी जेट पवन द्वारा लाया जाता है। रात के तापमान में वृद्धि इन विक्षोभों के आने का सूचक है। पश्चिमी जेट स्ट्रीम ठण्डी हवा का स्तंभ होता है जो सतह पर हवाओं को धकेलता है। इससे सतह पर उच्च दाब का निर्माण(भारत के उत्तर पश्चिमी भाग में) होता है। ये शुष्क हवाएं बंगाल की खाड़ी(तुलनात्मक रूप से तापमान अधिक होने के कारण निम्न दाब क्षेत्र) की ओर प्रवाहित होती है। इन हवाओं के द्वारा ही शीतकाल में उत्तर प्रदेश एवं बिहार में शीतलहर चलती है। बंगाल की खाड़ी में पहुंचने के बाद ये हवाएं अपने दाहिने मुड जाती हैं और मानसून का रूप ले लेती हैं। जब पवन तमिलनाडु के तट पर पहुंचती हैं तो बंगाल की खाड़ी से ग्रहण किए जलवाष्प की वर्षा तमिलनाडू में करती हैं। ▪️उष्ण पूर्वी जेट स्ट्रीम द्वारा दक्षिण पश्चिम मानसून की उत्पत्ति गर्मी में पश्चिमी जेट स्ट्रीम भारतीय उपमहाद्वीप पर नहीं बहती है। इसका खिसकाव तिब्बत के पठार के उत्तर की ओर हो जाता है। इस समय भारत के ऊपरी वायुमण्डल में उष्ण पूर्वी जेट स्ट्रीम चलती है। उष्ण पूर्वी जेट स्ट्रीम की उत्पत्ति का कारण मध्य एशिया एवं तिब्बत के पठारी भागों के अत्यधिक गर्म होने को माना जाता है। तिब्बत के पठार से गर्म होकर ऊपर उठने वाली हवाओं में क्षोभमण्डल के मध्य भाग में घड़ी की सुई की दिशा में चक्रिय परिसंचरण प्रारम्भ हो जाता है। यह ऊपर उठती वायु क्षोभ सीमा के पास दो अलग-अलग धाराओं में बंट जाती है। इनमें से एक विषुवत वृत्त की ओर पूर्वी जेट स्ट्रीम के रूप में चलती है तथा दूसरी ध्रुव की ओर पश्चिमी जेट स्ट्रीम के रूप में चलती है। पूर्वी जेट स्ट्रीम भारत के ऊपरी वायुमण्डल में दक्षिणी पूर्वी दिशा की ओर बहती हुई अरब सागर में नीचे बैठने लगती है। इससे वहां वृहत उच्च दाब का निर्माण होता है। इसके विपरीत भारतीय उप-महाद्वीप के ऊपर जब ये गर्म जेट स्ट्रीम चलती है तो सतह की हवा को ऊपर की ओर खींच लेती है। यहां वृहत निम्न दाब का निर्माण करती है। इस निम्न दाब को भरने के लिए अरब सागर के उच्च भार क्षेत्र से हवाएं उत्तर पूर्व की ओर चलने लगती है। यही दक्षिणी पश्चिमी मानसून पवन हैं। ▪️तथ्य ▪️उष्ण पूर्वी जेट स्ट्रीम के कारण ही भारत में मानसून-पूर्व उष्ण कटिबंधीय चक्रवात आते हैं। इससे भारी वर्षा होती है। ▪️पूर्वी जेट स्ट्रीम न केवल मौसमी है, वरन् अनियमित भी है। जब यह भारत के वृहत क्षेत्र के ऊपर लम्बी अवधि तक चलती है तो बाढ़ की स्थिति बनती है। जब ये हवाएं कमजोर होती हैं तो सूखा आता है। ◾4. एलनिनो सिद्धांत लगभग 3 से 8 वर्षो के अन्तराल पर महासागरों तथा वायुमण्डल में एक विशिष्ट उथल पुथल होती है। इसकी शुरूआत पूर्वी प्रशांत महासागर के पेरू के तट से होती है। पेरू के तट पर हमबोल्ट या पेरू की जलधारा(ठण्डी जलधारा) प्रवाहित होती है। यह जलधारा दक्षिण अमेरिका तट से दुर उत्तर की ओर प्रवाहित होती है। हम्बोल्ट जलधारा की विशेषता शीतल जल का गहराई से ऊपर की ओर आपान है। विषुवत रेखा के पास यह दक्षिण विषुवत रेखा जलधारा के रूप में प्रशांत महासागर के आर पार पश्चिम की ओर मुड़ जाती है। एलनिनो के आने के साथ ही ठण्डे पानी का गहराई से ऊपर आना बंद हो जाता है एवं ठण्डे पानी का प्रतिस्थापन पश्चिम से आने वाले गर्म जल से हो जाता है। अब पेरू की ठण्डी जलधारा का तापमान बढ़ जाता है। इसके गर्म जल के प्रभाव से प्रथमतः दक्षिणी विषुवतीय मर्ग जलधारा का तापमान बढ़ जाता है। चूंकि दक्षिणी विषुवतीय गर्म जलधारा पूर्व से पश्चिम की ओर जाती है अतः सम्पूर्ण मध्य प्रशांत का जल गर्म हो जाता है तथा वहां निम्न दाब का निर्माण होता है।। जब कभी इस निम्न दाब का विस्तार हिन्द महासागर के पूर्वी-मध्यवर्ती क्षेत्र तक होता है तो यह भारतीय मानसून की दिशा को संशोधित कर देती है। इस निम्न दाब की तुलना में भारतीय उपमहाद्वीप के स्थलीय भाग पर बना निम्न दाब(ग्रीष्म ऋतु में) तुलनात्मक रूप से कम होता है। अतः अरब सागर के उच्च दाब क्षेत्र से हवाओं का प्रवाह दक्षिण-पूर्वी हिन्दमहासागर की ओर होने लगता है। इससे भारतीय उपमहाद्वीप में सूखे की स्थिति बनती है। इसके विपरीत लब एलनिनो धारा का प्रभाव मध्यवर्ती प्रशांत तक सीमित रहता है दो दक्षिणी पश्चिमी मानसून पवनों का मार्ग बाधित नहीं होता तथा भारत में भरपूर वर्षा होती है। #दक्षिण_पश्चिम_मानसून : सामान्यतः भारत में मानसून का समय जून से सितम्बर तक रहता है। इस समय उत्तर-पश्चिमी भारत तथा पाकिस्तान में निम्न वायुदाब का क्षेत्र बन जाता है। अतः उष्ण कटिबंधीय अभिसरण क्षेत्र उत्तर की ओर खिसकता हुआ शिवालिक के पर्वत पाद तक चला जाता है। इसके कारण भारतीय उपमहाद्वीप के ऊपर सिंधु-गंगा मैदान में एक लम्बाकार निम्न दाबीय मेखला का निर्माण होता है। जिसे मानसून गर्त कहते हैं। इस निम्न दाब को भरने के लिए दक्षिणी गोलार्द्ध में चलने वाली दक्षिणी पूर्वी वाणिज्यिक पवन विषुवत रेखा को पार कर पूर्व की ओर मुड जाती है(फेरेल के नियमानुसार) तथा दक्षिणी-पश्चिमी मानसूनी पवन का रूप ले लेती है। भारत में दक्षिणी-पश्चिमी मानसून की उत्पत्ति का संबंध ‘उष्ण पूर्वी जेट स्ट्रीम’ से है। दक्षिण पश्चिमी मानसून भारत में सर्वप्रथम अंडमान एवं निकोबार तट पर 25 मई को पहुंचता है। फिर 1 जून को चेन्नई एवं तिरूअनन्तपुरम तक पहुंचता है। 5 से 10 जून के बीच कोलकाता एवं मुंबई को छुता है। 10 से 15 जून के बीच पटना, अहमदाबाद, नागपुर तक पहुंचता है। 15 जून के बाद लखनऊ, दिल्ली, जयपुर जैसे शहरों में पहुंचता है। प्रायद्वीपीय भारत में दस्तक देने के बाद दक्षिण-पश्चिम मानसून दो शाखाओं में बंट जाता है। 1. अरब सागरीय शाखा 2. बंगाल की खाड़ी शाखा ◾1. भारतीय दक्षिणी पश्चिमी मानसून की अरब सागरीय शाखा दक्षिणी पश्चिमी मानसून की यह शाखा पश्चिमी घाट की उच्च भूमि में लगभग समकोण पर दस्तक देती है। अरब सागर शाखा द्वारा भारत के पश्चिमी तट, पश्चिमी घाट पर्वत, महाराष्ट्र, गुजरात एवं मध्यप्रदेश के कुछ हिस्सों में वर्षा होती है। अरब सागर शाखा द्वारा भारत के पश्चिमी घाट पर्वत के पश्चिमी ढ़ाल पर तटीय तटीय भाग की तुलना में अधिक वर्षा होती है। उदाहरणस्वरूप महाबलेश्वर में 650 सेमी. वर्षा होती है। जबकि मुंबई में मात्र 190 सेमी. वर्षा होती है। पश्चिमी घाट पर्वत के पूर्वी भाग में वर्षा की मात्रा काफी कम होती है क्योंकि यह वृष्टिछाया प्रदेश है। पुणे में मात्र 60 सेमी. वर्षा होती है। अरब सागर शाखा राजस्थान से गुजरती हुई हिमालय से टकराती है तथा जम्मू कश्मीर एवं हिमाचल प्रदेश के पर्वतीय ढ़ालों पर वर्षा करती है। राजस्थान से गुजरने के बावजूद इस मानसूनी शाखा द्वारा यहां वर्षा नहीं हो पाती इसके दो प्रमुख कारण हैं- • अरावली पर्वतमाला की दिशा का इन मानसूनी पवनों के प्रवाह की दिशा के समानान्तर होना। • सिंध प्रदेश(पाकिस्तान) से आने वाली गर्म एवं शुष्क हवाएं मानसूनी पवनों की सापेक्षिक आर्द्रता को कम कर देती है। जिससे वायु संतृप्त नहीं हो पाती। ▪️अरब सागरीय शाखा का वृष्टिछाया क्षेत्र पश्चिमी घाट पार करने के पश्चात् वर्षा लाने वाली वायु धाराएं पूर्वी ढ़लानों पर ऊपर की ओर चली जाती हैं जहां वे रूद्धोष्म प्रक्रिया के कारण गर्म हो जाती हैं। इसके फलस्वरूप वृष्टिछाया क्षेत्र का निर्माण होता है। पहाड़ की ऊंचाई जितनी अधिक होगी, उतना ही अधिक वृष्टिछाया क्षेत्र का निर्माण होगा। ◾2. दक्षिणी पश्चिमी मानसून की बंगाल की खाड़ी शाखा मानसून की यह शाखा श्रीलंका से इंडोनेशिया द्वीप समूहों के सुमात्रा द्वीप तक सक्रिय रहती है। बंगाल की खाड़ी शाखा दो धाराओं में आगे बढ़ती है। इस शाखा की उत्तरी धारा मेघालय में स्थित खासी पहाडि़यों में दस्तक देती है तथा इसकी दूसरी धारा निम्न दबाब द्रोणी के पूर्वी छोर पर बायीं ओर मुड जाती है। यहां से यह हवा की धारा हिमालय की दिशा के साथ-साथ दक्षिण-पूर्व से उत्तर-पश्चिम दिशा में बढ़ती है। यह धारा उत्तर भारत के मैदानी क्षेत्रों में वर्षा करती है। उत्तर मैदानी क्षेत्र में मानसूनी वर्षा को पश्चिम से बहने वाले चक्रवाती गर्त या पश्चिमी हवाओं से ओर अधिक बल मिलता है। मैदानी इलाकों में पूर्व से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण में वर्षा की तीव्रता में कमी आती है। पश्चिम में वर्षा में कमी का कारण नमी के स्त्रोत से दूरी बढ़ना है। दूसरी ओर उत्तर से दक्षिण में वर्षा की तीव्रता में कमी की वजह नमी के स्त्रोत का पर्वतों से दूरी का बढ़ना है। अरब सागरीय शाखा एवं बंगाल की खाड़ी शाखा दोनों शाखाएं छोटानागपुर के पठार में मिलती हैं। अरब सागरीय मानसून शाखा, बंगाल की खाड़ी शाखा से अधिक शक्तिशाली है। इसके दो प्रमुख कारण हैं - • अरब सागर बंगाल की खाड़ी से आकार में बड़ा है। • अरब सागर की अधिकांश शाखा भारत में पड़ती है जबकि बंगाल की खाड़ी शाखा से म्यांमार, मलेशिया और थाइलैण्ड तक चली जाती है। दक्षिण पश्चिम मानसून अवधि के दौरान भारत का पूर्वी तटीय मैदान(विशेष रूप से तमिलनाडु) तुलनात्मक रूप से शुष्क रहता है। क्योंकि यह मानसूनी पवनों के समानान्तर स्थित है और साथ ही यह अरब सागरीय शाखा के वृष्टिछाया क्षेत्र में पड़ता है। ◾उत्तरी पूर्वी मानसून या मानसून की वापसी सितम्बर के अंत तक उत्तर-पश्चिम में बना निम्न दबाब कमजोर होने लगता है और अन्ततः वह विषुवत रेखीय प्रदेश की तरफ चला जाता है। चक्रवाती अवस्थाओं के स्थान पर प्रति चक्रवाती अवस्थाएं आ जाती हैं। परिणामस्वरूप, हवाएं उत्तरी क्षेत्र से दूर बहना शुरू कर देती हैं। उसी समय विषुवत रेखा के दक्षिण में सूर्य आगे बढ़ता नजर आता है। अन्तः ऊष्णकटिबंधीय अभिसरण क्षेत्र भी विषुवत रेखा की ओर आगे बढ़ता है। इस समय भारतीय उपमहाद्वीप में हवाएं उत्तर पूर्व से दक्षिणी पश्चिमी दिशा में बहती हैं। यह स्थिति अक्टूबर से मध्य दिसम्बर तक लगातार बनी रहती है। जिसे मानसून की वापसी या फिर उत्तर पूर्व मानसून कहते हैं। दिसम्बर के अंत तक, मानसून पूरी तरह से भारत से जा चुका होता है। बंगाल की खाड़ी के ऊपर से वापस जा रहा मानसून, मार्ग में आर्द्रता नमी ग्रहण कर लेता है जिससे अक्टूबर-नवम्बर में पूर्वी या तटीय उड़ीसा, तमिलनाडु और कर्नाटक के कुछ हिस्से में वर्षा होती है। अक्टूबर में बंगाल की खाड़ी में निम्न दबाब बनता है, जो दक्षिण की ओर बढ़ जाता है और नवम्बर में उड़सा और तमिलनाडु तट के बीच फंस जाने से भारी वर्षा होती है। ▪️मानसून में रूकावट वर्षा ऋतु में, जुलाई और अगस्त महीने में कुछ ऐसा समय होता है जब मानसून कमजोर पड़ जाता है। बादलों का बनना कम हो जाता है और विशेष रूप से हिमालयी पट्टी और दक्षिण पूर्व प्रायद्वीप के ऊपर वर्षा होनी बंद हो जाती है। इसे मानसून में रूकावट के नाम से जाना जाता है। ऐसा माना जाता है कि ये रूकावटें तिब्बत के पठार की कम ऊंचाई की वजह से आती है। इससे मानसून गर्त उत्तर की ओर मुड़ जाता है। इस अवधि में जहां पूरे देश को बिना वर्षा के ही संतोष करना पड़ता है तब उप-हिमालयी प्रदेशों एवं हिमालय के दक्षिणी ढ़लानों में भारी वर्षा होती है। ▪️पश्चिमी विक्षोभ आमतौर पर जब आकाश साफ रहता है परन्तु पश्चिम दिशा से हवाओं के आने से अच्छे मौसम के दौर में विध्न पड़ जाता है। ये पश्चिमी हवाएं भूमध्य सागर से आती हैं और इराक, ईरान, अफगानिस्तान और पाकिस्तान को पार करने के पश्चात् भारत में प्रवेश करती हैं। ये हवाएं राजस्थान, पंजाब और हरियाणा में तीव्र गति से बहती हैं। ये उप-हिमालयी पट्टी के आसपास पूर्व की ओर मुड़ जाती हैं। और सीधे अरूणाचल प्रदेश तक पहुंच जाती हैं। जिससे गंगा के मैदानी इलाकों में हल्की वर्षा और हिमालयी पट्टी में हिमवर्षा होती है। यह घटना मुख्य रूप से शीत ऋतु में होती है क्योंकि इस समय उत्तर पश्चिम भारत में एक क्षीण उच्च दाब का निर्माण होता है। इसी समय भारत पर ‘पश्चिमी जेट स्ट्रीम’ का प्रभाव होता है जो भूमध्य सागर से उठने वाले शीतोष्ण चक्रवात को भारत में लाती है। इसे ही ‘पश्चिमी विक्षोभ’ कहते हैं। इससे मुख्य रूप से प्रभावित राज्य - पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तरप्रदेश, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश एवं जम्मू कश्मीर हैं। इससे होने वाली वर्षा रबी की फसल के लिए बहुत उपयोगी है यह वर्षा ‘मावठ’ नाम से जानी जाती है। ____________________________________________ #भारत_की_ऋतुएं : भारतीय मौसम विभाग द्वारा भारत की जलवायु को चार ऋतुओं में विभाजित किया गया है - 1. शीत ऋतु 2. ग्रीष्म ऋतु 3. वर्षा ऋतु 4. शरद ऋतु ◾1. शीत ऋतु इसका काल मध्य दिसम्बर से फरवरी तक माना जाता है। इस समय सूर्य की स्थिती दक्षिणायन हो जाती है। अतः उत्तरी गोलार्द्ध में स्थित भारत का तापमान कम हो जाता है। इस ऋतु में समताप रेखाएं पूर्व से पश्चिम की ओर प्राय सीधी रहती हैं। 20 डिग्री से. की समताप रेखा भारत के मध्य भाग से गुजरती है। इस ऋतु में भूमध्य सागर से उठने वाला शीतोष्ण चक्रवात ‘पश्चिमी जेट स्ट्रीम’ के सहारे भारत में प्रवेश करता है। इसे ‘पश्चिमी विक्षोभ’ कहते हैं। यह पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश एवं जम्मू-कश्मीर में वर्षा करवाता है। शीतकाल में होने वाली यह वर्षा ‘मावठ’ कहलाती है। यह वर्षा रबी की फसल के लिए उपयोगी है। ◾2. ग्रीष्म ऋतु यह ऋतु मार्च से मई तक रहती है। सूर्य के उत्तरायण में होने से सारे भारत में तापमान बढ़ जाता है। इस ऋतु में उत्तर और उत्तर-पश्चिमी भारत में दिन के समय तेज गर्म एवं शुष्क हवाएं चलती हैं। जो ‘लू’ के नाम से प्रसिद्ध हैं। इस ऋतु में सूर्य के क्रमशः उत्तरायण होते जाने के कारण अन्तः उष्ण कटिबंधीय अभिसरण क्षेत्र उत्तर की ओर खिसकने लगता है एवं जुलाई में 25 डिग्री अक्षांश रेखा को पार कर जाता है। इस ऋतु में स्थलीय शुष्क एवं गर्म पवन जब समुद्री आर्द्र पवनों से मिलती है तो उन जगहों पर प्रचण्ड तूफान की उत्पत्ति होती है। इसे मानसून पूर्व चक्रवात के नाम से जाना जाता है। ▪️भारत में मानसून पूर्व चक्रवात के स्थानीय नाम • नाॅर्वेस्टर - छोटा नागपुर का पठार पर ग्रीष्म काल में चलने वाली पवनें नाॅर्वेस्टर कहलाती है। यह बिहार एवं झारखण्ड राज्य को प्रभावित करती है। जब नाॅर्वेस्टर पवनें पूर्व की ओर आगे बढ़ कर पश्चिम बंगाल राज्य में पहुंचती है तो इन्हें काल वैशाली कहा जाता है। तथा जब यही पवनें पूर्व की ओर आगे पहुंच कर असम राज्य में पहुंचती है तो यहां 50 सेमी. वर्षा होती है। यह वर्षा चाय की खेती के लिए अत्यंत उपयोगी होती है इसलिए इसे चाय वर्षा या टी. शावर कहा जाता है। • मैंगो शावर - तमिलनाडू, केरल एवम् आन्ध्रप्रदेश राज्यों में मानसुन पूर्व जो वर्षा होती है जिससे यहां की आम की फसलें पकती है वह वर्षा मैंगो शाॅवर कहलाती है। • चैरी ब्लाॅस्म - कर्नाटक राज्य में मानसून पूर्व जो वर्षा होती है जो कि यहां की कहवा की फसल के लिए अत्यधिक उपयोगी होती है चैरी ब्लाॅस्म या फुलों की बौछार कहलाती है। आंधियों के नाम • उत्तर की ओर से आने वाली - उत्तरा, उत्तराद, धरोड, धराऊ • दक्षिण की ओर से आने वाली - लकाऊ • पूर्व की ओर से आने वाली - पूरवईयां, पूरवाई, पूरवा, आगुणी • पश्चिम की ओर से आने वाली - पिछवाई, पच्छऊ, पिछवा, आथूणी। अन्य • उत्तर-पूर्व के मध्य से - संजेरी • पूर्व-दक्षिण के मध्य से - चीर/चील • दक्षिण-पश्चिम के मध्य से - समंदरी/समुन्द्री • उत्तर-पश्चिम के मध्य से - सूर्या ◾3. वर्षा ऋतु इस ऋतु का समय जून से सितम्बर तक रहता है। इस समय उत्तर पश्चिमी भारत तथा पाकिस्तान में निम्न वायुदाब का क्षेत्र(तापमान अधिक होने के कारण) बन जाता है। अतः उष्ण कटिबंधीय अभिसरण क्षेत्र उत्तर की ओर खिसकता हुआ शितालिक के पर्वत पाद तक चला जाता है। एवं गंगा के मैदानी क्षेत्र में निम्न दाब बन जाता है इस दाब को भरने के लिए दक्षिणी पूर्वी व्यापारिक पवनें विषुवत रेखा को पार कर दक्षिणी पश्चिमी मानसूनी पवनों के रूप में भारत में प्रवेश करती है। ये दक्षिणी पश्चिमी मानसूनी पवनें दो शाखाओं में विभाजित हो जाती हैं। पहली शाखा अरब सागरीय शाखा भारत के पश्चिमी घाट, पश्चिमी घाट पर्वत, महाराष्ट्र, गुजरात, मध्यप्रदेश, हिमाचल प्रदेश एवं जम्मू-कश्मीर में वर्षा करती है। दूसरी शाखा, बंगाल की खाड़ी शाखा, उत्तर-पूर्वी भारत, पूर्वी भारत एवं उत्तर प्रदेश, राजस्थान, उत्तराखण्ड आदि भागों में वर्षा करती है। गारो, खासी एवं जयन्तिया पहाडि़यां कीपनुमा आकृति में फैली हैं एवं समुद्र की ओर खुली हुई हैं अतः बंगाल की खाड़ी से आने वाली हवाएं यहां फस जाती हैं और अत्यधिक वर्षा करती हैं। खासी पहाड़ी के दक्षिणी भाग में स्थित ‘मासिनराम’ संसार का सर्वाधिक वर्षा वाला स्थान है। ◾4. शरद ऋतु शरद ऋतु उष्ण बरसाती मौसम से शुष्क व शीत मौसम के मध्य संक्रमण का काल है। शरद ऋतु का आरंभ सितंबर मध्य में होता है। यह वह समय है जब दक्षिण-पश्चिम मानसून लौटता है- लौटते मानसून के दौरान तापमान व आर्द्रता अधिक होती है जिसे ‘‘अक्टूूबर हीट’’ कहते हैं। मानसून के लौटने पर प्रारंभ में तापमान बढ़ता है परंतु उसके उपरांत तापमान कम होने लगता है। सितंबर मध्य तक मानसूनी पवनें पंजाब तक वर्षा करती हैं। मध्य अक्टूबर तक मध्य भारत में व नवंबर केआरम्भिक सप्ताहों में दक्षिण भारत तक मानसूनी पवनें वर्षा कर पाती हैं और इस प्रकार भारतीय उपमहाद्वीप से मानसून की विदाई नवंबर अंत तक हो जाती है। यह विदाई चरणबद्ध होती है इसीलिए इसे ‘‘लौटता दक्षिण-पश्चिम मानसून’’ कहते हैं। [01/12, 8:26 AM] Raj Kumar: #विश्व_का_भूगोल : #चट्टाने_शैलें पृथ्वी की ऊपरी परत या भू-पटल (क्रस्ट) में मिलने वाले पदार्थ चाहे वे ग्रेनाइट तथा बालुका पत्थर की भांति कठोर प्रकृति के हो या चाक या रेत की भांति कोमल; चाक एवं लाइमस्टोन की भांति प्रवेश्य हों या स्लेट की भांति अप्रवेश्य हों, चट्टान अथवा शैल (रॉक) कहे जाते हैं। इनकी रचना विभिन्न प्रकार के खनिजों का सम्मिश्रण हैं। चट्टान कई बार केवल एक ही खनिज द्वारा निर्मित होती है, किन्तु सामान्यतः यह दो या अधिक खनिजों का योग होती हैं। #चट्टानों_के_प्रकार: (1.) #आग्नेय_चट्टाने: आग्नेय चट्टान (जर्मन: Magmatisches Gestein, अंग्रेज़ी: Igneous rock) की रचना धरातल के नीचे स्थित तप्त एवं तरल चट्टानी पदार्थ, अर्थात् मैग्मा, के सतह के ऊपर आकार लावा प्रवाह के रूप में निकल कर अथवा ऊपर उठने के क्रम में बाहर निकल पाने से पहले ही, सतह के नीचे ही ठंढे होकर इन पिघले पदार्थों के ठोस रूप में जम जाने से होती है। ▪️आग्नेय शब्द लैटिन भाषा के ‘इग्निस’ से लिया गया है, जिसका सामान्य अर्थ अग्नि होता है। ▪️आग्नेय चट्टान स्थूल परतरहित, कठोर संघनन एवं जीवाश्मरहित होती हैं। ▪️ये चट्टानें आर्थिक रूप से बहुत ही सम्पन्न मानी गई हैं। ▪️इन चट्टानों में चुम्बकीय लोहा, निकिल, ताँबा, सीसा, जस्ता, क्रोमाइट, मैंगनीज, सोना तथा प्लेटिनम आदि पाए जाते हैं। ▪️झारखण्ड, भारत में पाया जाने वाला अभ्रक इन्हीं शैलों में मिलता है। ▪️आग्नेय चट्टान कठोर चट्टानें हैं, जो रवेदार तथा दानेदार भी होती है। ▪️इन चट्टानों पर रासायनिक अपक्षय का बहुत कम प्रभाव पड़ता है। ▪️इनमें किसी भी प्रकार के जीवाश्म नहीं पाए जाते हैं। ▪️आग्नेय चट्टानों का अधिकांश विस्तार ज्वालामुखी क्षेत्रों में पाया जाता है। ▪️आग्नेय चट्टानों में लोहा, निकिल, सोना, शीशा, प्लेटिनम भरपूर मात्रा में पाया जाता है। ▪️बेसाल्ट चट्टान में लोहे की मात्रा अधिक होती है। ▪️काली मिटटी बेसाल्ट चट्टान के टूटने से बनती है। ▪️बिटुमिनस कोयला आग्नेय चट्टान है। ▪️कोयला, ग्रेफाइट और हीरे को कार्बन का अपररूप कहा जाता है। ▪️ग्रेफाइट को पेंसिल लैड भी कहा जाता है। ▪️ताप, दवाब, और रासायनिक क्रियाओं के कारण ये चट्टाने आगे चलकर कायांतरित होती है। #आग्नेय_चट्टानों_के_कुछ_उदाहरण:- ▪️ग्रेनाइट – नीस ▪️ग्रेवो – सरपेंटाइट ▪️बेसाल्ट – सिस्ट ▪️बिटुमिनस – ग्रेफाइट (2). #अवसादी_चट्टाने: अवसादी चट्टान से तात्पर्य है कि, प्रकृति के कारकों द्वारा निर्मित छोटी-छोटी चट्टानें किसी स्थान पर जमा हो जाती हैं, और बाद के काल में दबाव या रासायनिक प्रतिक्रिया या अन्य कारकों के द्वारा परत जैसी ठोस रूप में निर्मित हो जाती हैं। इन्हें ही ‘अवसादी चट्टान’ कहते हैं। अवसादी शैलों का निर्माण जल, वायु या हिमानी, किसी भी कारक द्वारा हो सकता है। इसी आधार पर अवसादी शैलें ‘जलज’, ‘वायूढ़’ तथा ‘हिमनदीय’ प्रकार की होती हैं। बलुआ पत्थर, चुना पत्थर, स्लेट, संगमरमर, लिग्नाइट, एन्थ्रासाइट ये अवसादी चट्टाने है। ▪️अवसादी चट्टान परतदार होती है। ▪️अवसादी चट्टानों में जीवाश्म पाया जाता है। ▪️अवसादी चट्टानों में खनिज तेल पाया जाता है। ▪️एन्थ्रासाइट कोयले में 90 % से ज्यादा कार्बन होता है। ▪️लिग्नाइट को कोयले की सबसे उत्तम किस्म माना जाता है। ▪️अवसादी चट्टानें अधिकांशत: परतदार रूप में पाई जाती हैं। ▪️इनमें वनस्पति एवं जीव-जन्तुओं के जीवाश्म बड़ी मात्रा में पाये जाते हैं। ▪️इन चट्टानों में लौह अयस्क, फ़ॉस्फ़ेट, कोयला, पीट, बालुका पत्थर एवं सीमेन्ट बनाने की चट्टान पाई जाती हैं। ▪️खनिज तेल अवसादी चट्टानों में पाया जाता है। ▪️अप्रवेश्य चट्टानों की दो परतों के बीच यदि प्रवेश्य शैल की परत आ जाए, तो खनिज तेल के लिए अनुकूल स्थिति पैदा हो जाती है। ▪️दामोदर, महानदी तथा गोदावरी नदी बेसिनों की अवसादी चट्टानों में कोयला पाया जाता है। ▪️आगरा क़िला तथा दिल्ली का लाल क़िला बलुआ पत्थर नामक अवसादी चट्टानों से ही बना है।प्रमुख अवसादी शैलें हैं- बालुका पत्थर, चीका शेल, चूना पत्थर, खड़िया, नमक आदि। अवसादी चट्टाने कायांतरित होकर क्वार्टजाइट बनती है। 3. #कायांतरित_चट्टाने (शैल): आग्नेय एवं अवसादी शैलों में ताप और दाब के कारण परिर्वतन या रूपान्तरण हो जाने से कायांतरित शैल (metamorphic rock) का निमार्ण होता हैं। रूपांतरित चट्टानों (कायांतरित शैल) पृथ्वी की पपड़ी के एक बड़े हिस्सा से बनी होती है और बनावट, रासायनिक और खनिज संयोजन द्वारा इनको वर्गीकृत किया जाता है| #कायांतरित_चट्टानों_के_कुछ_उदाहरण ▪️शैल – स्लेट ▪️चुना पत्थर – संगमरमर ▪️लिग्नाइट-एन्थ्रासाइट ▪️स्लेट – फाइलाइट ▪️फाइलाइट – सिस्ट [01/12, 8:26 AM] Raj Kumar: #विश्व_का_भूगोल : #प्लेट_विवर्तनिकी_सिद्धान्त भौतिक भूगोल, भू-आकृति विज्ञान एवं भू-विज्ञान में प्लेट विवर्तनिकी का विचार नवीन है जिसके आधार पर महाद्वीपों व महासागरों की उत्पत्ति, ज्वालामुखी एवं भूकम्प की क्रिया तथा वलित पर्वतों के निर्माण आदि का वैज्ञानिक स्पष्टीकरण दिया जा सकता है। प्लेट विवर्तनिकी का सिद्धान्त बीसवीं शताब्दी के 60वें दशक में प्रस्तुत किया गया जिसका प्रभाव समस्त भू-विज्ञानों पर पड़ा। इसके आधार पर महाद्वीपों एवं महासागरों के वितरण को भी एक नवीन दिशा मिली। इससे पूर्व 1948 में एविंग नामक वैज्ञानिक ने अटलांटिक महासागर में स्थित अटलांटिक कटक की जानकारी दी। इस कटक के दोनों और की चट्टानों के चुम्बकन के अध्ययन के आधार पर वैज्ञानिकों ने उत्तर दक्षिण दिशा में चुम्बकीय पेटियों का स्पष्ट एवं समरूप प्रारूप पाया। इसके आधार पर निष्कर्ष निकाला गया कि मध्य महासागरीय कटक के सहारे नवीन बेसाल्ट परत का निर्माण होता है। सर्वप्रथम हेस ने 1960 में विभिन्न साक्ष्यों द्वारा प्रतिपादित किया कि महाद्वीप तथा महासागर विभिन्न प्लेटों पर टिके हैं। प्लेट विवर्तनिकी की अवधारणा को 1967 में डीपी मेकेन्जी, आरएल पारकर तथा डब्ल्यू जे मॉर्गन आदि विद्वानों ने स्वतंत्र रूप से उपलब्ध विचारों के आधार पर प्रस्तुत किया। यद्यपि इससे पहले टूजो विल्सन ने प्लेट शब्द का प्रयोग किया था, जो व्यवहार में नहीं आ पाया था। पृथ्वी का बाह्य भाग दृढ़ खण्डों से बना है जिसे प्लेट कहा जाता है। प्लेटल विवर्तनिकी लैटिन शब्द (Tectonicus) टेक्टोनिक्स से बना है। प्लेट विवर्तनिकी एक वैज्ञानिक सिद्धान्त है, जो स्थलमण्डल गति को बड़े पैमाने पर वर्णित करता है। यह मॉडल महाद्वीपीय विस्थापन सिद्धान्त की परिकल्पना पर आधारित है। पृथ्वी का ऊपरी भाग स्थलमण्डल कहलाता है, जो कि तीन परतों में विभाजित है। ऊपरी भूपृष्ठ जिसकी औसत गहराई 25 किलोमीटर है, नीचला भूपृष्ठ जिसकी औसत गहराई 10 किलोमीटर है। ऊपरी मैटल जिसकी औसत गहराई 65 किलोमीटर है। यह भाग कठोर है जिसका औसत घनत्व 2.7 से 3.0 है। इस स्थलमण्डल के ठीक नीचे दुर्बलतामण्डल है जिसकी औसत मोटाई 250 किलोमीटर है। इस मंडल का घनत्व 3.5 से 4.0 तक है। स्थलमण्डल अधिक ठंडा एवं अधिक कठोर है, जबकि गर्म एक कठोर है एवं सरलता से प्रवाह करता है। स्थलमण्डलीय प्लेटों की संख्या के सम्बन्ध में विद्वान एकमत नहीं है। डीट्ज एवं हेराल्ड ने इनकी संख्या 10 बताई। डब्ल्यू जे मॉरगन ने इसकी संख्या 20 बताई। सामान्यतः भूपटल पर सात बड़ी व 14 छोटी प्लेटें हैं, जो दुर्बलतामण्डल पर टिकी हुई हैं, ये प्लेटें तीन प्रकार की हैं, महाद्वीपीय, महासागरीय एवं महाद्वीपीय व महासागरीय। #महत्वपूर्ण_प्लेटें : #उत्तरी_अमेरीकन_प्लेट : इसका विस्तार उत्तरी अमरीका तथा मध्य अटलांटिक कटक तक अटलांटिक के पश्चिमी भाग पर है। कैरेबियन तथा कोकोस छोटी प्लेटें दक्षिणी अमरीकी प्लेट से पृथक करती है। #दक्षिणी_अमेरीकन_प्लेट : यह दक्षिणी अमरीका महाद्वीप तथा दक्षिणी अटलांटिक के पश्चिमी भाग में मध्य अटलांटिक कटक तक विस्तृत है। #प्रशान्त_महासागरीय_प्लेट : यह महासागरीय प्लेट है जिसका विस्तार अलास्का क्यूराइल द्वीप समूह से प्रारम्भ होकर दक्षिण में अंटार्कटिक रिज तक सम्पूर्ण प्रशान्त महासागर पर है। इसके किनारों पर फिलीपींस, नजका तथा कोकोस लघु प्लेटें स्थित हैं। यह प्लेट सबसे बड़ी हैं। #यूरेशियाई_प्लेट : यह प्लेट मुख्यरूप से महाद्वीपीय है जिसका विस्तार यूरोप एवं एशिया पर है। इसमें कई छोटी प्लेटें भी संलग्न हैं जैसे पर्शियन प्लेट तथा चीन प्लेट। इसकी दिशा पश्चिम से पूर्व है। #इंडो_आस्ट्रेलियाई_प्लेट : यह महाद्वीपीय व महासागरीय दोनों प्रकार की प्लेट हैं। परन्तु इसमें सागरीय क्षेत्र अधिक है। इसका विस्तार भारतीय प्रायद्वीप अरब प्रायद्वीप, आस्ट्रेलिया तथा हिन्द महासागर के अधिकांश भाग पर है। इसकी दिशा दक्षिण-पश्चिम से उत्तर पूर्व है। #अफ्रीकन_प्लेट : यह समस्त अफ्रीका, दक्षिण अटलांटिक महासागर के पूर्वी भाग तथा हिन्द महासागर के पश्चिमी भाग पर विस्तृत है। इसकी दिशा उत्तर-पूर्व है। #अंटार्कटिक_प्लेट : इसका विस्तार अंटार्कटिक महाद्वीप तथा इसके चारों ओर विस्तृत सागर पर है। यह महाद्वीप व महासागरीय प्लेट है। इन प्लेटों के अतिरिक्त महत्त्वपूर्ण छोटी प्लेटें निम्नलिखित हैं- #कोकस_प्लेट : यह प्लेट मध्यवर्ती अमरीका और प्रशान्त महासागरीय प्लेट के मध्य स्थित है। #नजका_प्लेट : इसका विस्तार दक्षिणी अमरीकी प्लेट तथा प्रशान्त महासागरीय प्लेट के मध्य है। #अरेबियन_प्लेट : इस प्लेट में अधिकतर अरब प्रायद्वीप का भाग सम्मिलित है। #फिलीपाइन_प्लेट : यह प्लेट एशिया महाद्वीप एवं प्रशान्त महासागरीय प्लेट के मध्य स्थित है। #कैरोलिन_प्लेट : यह न्यूगिनी के उत्तर में स्थित है। #प्लेटों_की_सीमाएँ प्लेटों में तीन प्रकार की गतियां होती हैं। जिनके आधार पर ये तीन प्रकार की सीमाएँ बनाती हैं, जो निम्नानुसार हैं- #अपसारी_सीमाएँ पृथ्वी के आन्तरिक भाग में संवहन तरंगों की उत्पत्ति के कारण जब दो प्लेटें विपरीत (एक-दूसरे से दूर) दिशा में गतिशील होती हैं तो ये अपसारी किनारों का निर्माण करती हैं। इन सीमाओं के मध्य बनी दरार में भूगर्भ का तरल मैग्मा ऊपर आता है तथा दोनों प्लेटों के मध्य तीन नवीन ठोस तली का निर्माण होता है। इसे रचनात्मक किनारा भी कहा जाता है। इस प्रकार का नवीन तली का निर्माण महासागरीय कटक व बेसिन में पाया जाता है। इसका सर्वोत्तम उदाहरण मध्य अटलांटिक कटक है जहाँ अमरीकी प्लेटें यूरेशियन प्लेट तथा अफ्रीकन प्लेट से अलग हो रही हैं। इन सीमाओं पर ज्वालामुखी क्रिया भी देखने को मिलती है। पृथ्वी पर पाई जाने वाली प्लेटें दुर्बलतामण्डल पर अस्थिर रूप से स्थित है, जिनमें निरन्तर परिवर्तन होता रहता है। वेगनर के महाद्वीपीय विस्थापन सिद्धान्त को स्वीकार करने में सबसे बड़ी बाधा यह समझाने की थी कि सियाल के बने महाद्वीप सीमा पर कैसे तैरते हैं तथा उसे विस्थापित करते हैं। 1928 में आर्थर होम्स ने बताया कि पृथ्वी के आन्तरिक भाग में रेडियोधर्मी तत्वों से निकली गर्मी से ऊर्ध्वाधर संवहन धाराएँ उत्पन्न होती हैं। अधोपर्पटी संवहन धाराएँ तापीय संवहन की क्रियाविधि प्रारम्भ करती हैं, जो प्लेटों के संचालन के लिये प्रेरक बल का काम करती हैं। संवहन धाराओं द्वारा ऊष्मा की उत्पत्ति की खोज रमफोर्ड ने 1997 में की थी। भूपटल के नीचे संवहन धाराओं का संकल्पना हॉपकिन्स ने 1849 में प्रस्तावित की थी। उष्ण धाराएँ ऊपर उठकर भूपृष्ठ पर पहुँचकर ठंडी हो जाती हैं, जिससे पुनः नीचे की ओर चलना प्रारम्भ कर देती हैं। इससे प्लेटों में गति होती है। संवहन धाराएँ स्थलमण्डल की प्लेटों को अपने साथ प्रवाहित करती हैं। महासागरीय घटकों में संवहन धाराओं के साथ तरल मैग्मा बाहर आ जाता है। मैटल में लचीलापन आन्तरिक तापमान व दबाव पर निर्भर करता है। संवहन धाराओं के साथ तप्त पिघला हुआ मैग्मा ऊपर उठता है। भूपटल के नीचे संवहन धाराएँ विपरीत दिशा में अपसरित होती हैं जिससे मैग्मा भी दोनों दिशाओं में फैल जाता है और ठंडा होने लगता है। जहाँ दो विपरीत दिशाओं से संवहन धाराएँ मिलती हैं वहाँ ये मुड़कर पुनः केन्द्र की ओर चल पड़ती हैं। अतः ठंडा मैग्मा भी नीचे धँसता है एवं गर्म होने लगता है। जैसे-जैसे यह केन्द्र की और बढ़ता है, उसके आयतन में विस्तार होता है। जहाँ संवहन तरंगे विपरीत दिशा में अपसरित होती हैं, वहाँ भूपृष्ठ पर प्लेटें एक दूसरे से दूर खिसकती हैं तथा जहाँ संवहन तरंगे मिलकर मिलकर पुनः केन्द्र की तरफ संचालित होती हैं। उस स्थान पर प्लेटें एक-दूसरे के समीप आती हैं। प्लेटें एक दूसरे के सापेक्ष में निरन्तर गतिशील रहती हैं। जब एक प्लेट गतिशील होती है तो दूसरी का गतिशील होना स्वाभाविक होता है। प्लेटों का घूर्णन यूलर के ज्यामितीय सिद्धान्त के आधार पर गोले की सतह पर किसी प्लेट की गति एक सामान्य घूर्णन के रूप में होती है, जो एक घूर्णन अक्ष के सहारे सम्पादित होता है। प्लेट के रचनात्मक एवं बिना किसी किनारे के सापेक्षिक संचलन का वेग उसके अक्ष के सहारे कोणिक वेग तथा घूर्णन अक्ष से प्लेट किनारे के बिन्दु की कोणिक दूरी के समानुपातिक होता है। घूर्णन अक्ष गोले के केन्द्र से होकर गुजरती है। जब प्लेट गतिमान होती है तो उसके सभी भाग घूर्णन अक्ष के सहारे लघु चक्रीय मार्ग के सहारे गतिशील होते हैं। प्लेटों की गति व दिशा का अध्ययन उपग्रहों पर स्थापित लेसर परावर्तकों के माध्यम से किया जाता है। #महाद्वीप_विस्थापन प्लेट विर्वतनिकी सिद्धान्त के आधार पर महाद्वीपीय विस्थापन का कारण स्पष्ट हो जाता है। वेलेन्टाइन तथा मूर्स एवं हालम ने 1973 में इस तथ्य को प्लेटों की गति को सागरीय तली के प्रसार तथा पुराचुम्बकत्व के प्रमाणों के आधार पर प्रमाणित किया है। पुराचुम्बकीय सर्वेक्षण के आधार पर महासागरों के खुलने एवं बन्द होने के प्रमाण मिले हैं। भूमध्यसागर वृहद महासागर का अवशिष्ट भाग है। इसका सकुंचन का कारण अफ्रीकन प्लेट के उत्तर की ओर सरकना है। वर्तमान में लाल सागर का भी विस्तार हो रहा है। स्थलीय या महासागरीय प्लेट एक-दूसरे के सापेक्ष में गतिमान हैं। हिमालय की भी ऊँचाई बढ़ी है। #पर्वत_निर्माण प्लेट विर्वर्तनिकी सिद्धान्त के आधार पर भूपृष्ठ पर पाये जाने वाले विशाल वलित (मोड़दार) पर्वतों का निर्माण हुआ। प्लेटों के विस्थापन से संकुचलन एवं टकराहट के कारण विनाशकारी किनारे पर निक्षेपित अवसादों में मोड़ पड़ने से वलित पर्वतों का निर्माण हुआ। प्रशान्त प्लेट से अमरीकन प्लेट के विनाशात्मक किनारे क्रस्ट के नीचे दबने से सम्पीडनात्मक बल का जन्म हुआ व उत्तरी तथा दक्षिणी किनारे के पदार्थ वलित हो गए एवं एंडीज तथा रॉकी पर्वतों का निर्माण हुआ। भारतीय प्लेट एवं यूरेशियन प्लेट के एक-दूसरे की ओर अग्रसर होने से अंगारालैंड व गोंडवानालैंड के मध्य स्थित टैथिस सागर में निक्षेपित अवसाद वलित हो गए। इससे हिमालय जैसे विशाल वलित पर्वतों का निर्माण हुआ। यूरोप व अफ्रीका प्लेट के टकराने से आल्पस पर्वतों का निर्माण हुआ। इस विस्थापन से भारतीय प्लेट एशिया प्लेट के नीचे दब गई जिसके भूगर्भ में पिघलने से हिमालय का उत्थान हुआ। #ज्वालामुखी प्लेट विवर्तनिकी ज्वालामुखी की उत्पत्ति तथा वितरण पर भी पूर्ण वैज्ञानिक व्याख्या करती है। जहाँ दो प्लेटें एक-दूसरे से दूर जाती हैं, वहाँ दबाव कम होने से दरारों से लावा प्रवाह होने लगता है। इसी प्रकार सागर तली में कटक का निर्माण होता है व नवीन बेसाल्ट तली का निर्माण निरन्तर होता रहता है। जहाँ प्लेट के दो किनारे मिलते हैं, वहाँ उठती हुई संवहन धाराओं के कारण ज्वालामुखी विस्फोट हो जाता है। जब प्लेट के विनाशात्मक किनारे टकराते हैं तब भी प्लेट के दबने से व मैटल के पिघलने से निकटवर्ती क्षेत्र में दबाव बढ़ जाता है और ज्वालामुखी विस्फोट हो जाता है। विश्व के सर्वाधिक सक्रिय ज्वालामुखी प्लेट सीमाओं के सहारे ही पाये जाते हैं। इसमें प्रशान्त प्लेट के अग्नि वृत्त पर सर्वाधिक है। इन्हीं क्षेत्रों में भूकम्प के झटके भी महसूस किये जाते हैं। संरक्षी किनारों पर तीव्र भूकम्प आते हैं। उपर्युक्त प्रभावों के साथ-साथ पृथ्वी पर कार्बोनीफरस युग के हिमावरण एवं जलवायु परिवर्तन को भी सिद्धान्त द्वारा आसानी से समझा जा सकता है। अंटार्कटिक में कोयला भण्डारों का पाया जाना वहाँ के जलवायु परिवर्तनों को प्रमाणित करता है। प्लेट विवर्तनिकी के आधार से हिन्द महासागर का अस्तित्व क्रिटेशय युग से पहले नहीं था। दक्षिणी पेंजिया में अंटार्कटिका, अफ्रीका, आस्ट्रेलिया तथा भारत आदि सम्मिलित थे। इस युग के अन्तिम चरण में भारतीय प्लेट उत्तर की ओर सरकी जिससे आस्ट्रेलिया एवं अंटार्कटिक अफ्रीका से अलग होने लगे। इयोसीन युग में आस्ट्रेलिया अंटार्कटिका से अलग हुआ तथा इसका प्रवाह दक्षिण की ओर हुआ। अतः यहाँ ठंडी जलवायु पाई जाती है। [01/12, 8:26 AM] Raj Kumar: #भारत_का_भूगोल : #बहुउद्देशीय_व_नदी_घाटी_परियोजनाएँ नदियों की घाटियो पर बडे-बडे बाँध बनाकर ऊर्जा, सिंचाई, पर्यटन स्थलों की सुविधाएं प्राप्त की जातीं हैं। इसीलिए इन्हें बहूद्देशीय नदी घाटी परियोजना कहते हैं। नदी घाटी योजना का प्राथमिक उद्देश्य होता है किसी नदीघाटी के अंतर्गत जल और थल का मानवहितार्थ पूर्ण उपयोग। भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने बहु-उद्देशीय नदी घाटी परियोजनाओं को ‘आधुनिक भारत का मंदिर’ कहा था। #स्वतंत्रता_पूर्व_स्थापित_परियोजनाएँ : 01.सिन्द्रापोंग जल विद्युत परियोजना, दार्जिलिंग, पश्चिम बंगाल- ▪️क्षमता-2×65KW = 130KW ▪️यह परियोजना ब्रिटेन की सहायता से 10 नवंबर 1897 को बंगाल के तत्कालीन कार्यवाहक लेफ्टिनेंट गवर्नर सर सी.सी.स्टीवंस द्वारा कमीशन की गई है। ▪️यह जल विद्युत संयंत्र महाराजाधिराज सर बिजॉय चंद्र मेहताब बहादुर के संरक्षण में सार्वजनिक क्षेत्र विकसित किया गया था। ▪️इसे शताब्दी वर्ष 1997 में इसे ‘हैरिटेज पावर स्टेशन’ घोषित कर दिया गया। ▪️यह भारत की पहली जल विद्युत परियोजना थी। 02.सर शेषाद्रि अय्यर (शिवसमुद्रम) जल विद्युत परियोजना, कर्नाटक ▪️6×3 + 4×6 = 42MW की यह जल विद्युत परियोजना शिवसमुद्रम, मांड्या जिला, कर्नाटक में कावेरी नदी पर 1902 में स्थापित की गई। ▪️इसकी पहली इकाई 1902 में व अन्तिम इकाई 1934 में कमीशन की गई। ▪️इसका संचालन कर्नाटक पावर कॉरपोरेशन लिमिटेड द्वारा किया जाता है। ▪️मैसूर के राजा नलवाड़ी कृष्णराजा वोडियार चतुर्थ ने दीवान सर.के.शेषाद्रि अय्यर को इस परियोजना को पूर्ण समर्थन व सहायता देने के लिए नियुक्त किया।उन्ही के नाम पर अभी इसे सर शेषाद्रि अय्यर जल विद्युत परियोजना कहा जाता है। ▪️इसे मई 2006 में “हेरिटेज पावर स्टेशन” घोषित किया गया है। 03.पायकारा जल विद्युत परियोजना, तमिलनाडु ▪️यह परियोजना पायकारा गांव, ऊटी तमिलनाडु में 1932 में पायकारा नदी पर स्थापित की गई जल विद्युत परियोजना है। ▪️ट्रावनकोर के दीवान सर सी.वी.रामास्वामी अय्यर तथा तत्कालीन मुख्य अभियंता श्री एच. जी. हॉवर्ड के प्रयासों से स्थापित हुई। ▪️इस परियोजना को सितंबर, 1997 में “हैरिटेज प्लांट” घोषित किया गया। ▪️यहाँ पायकारा जलप्रपात भी है। 04.पापानासम जल विद्युत परियोजना, तमिलनाडु ▪️क्षमता-4 × 8MW = 32MW ▪️यह परियोजना पापानासम, तिरुनवेळी (तमिलनाडु) में थंबीराबरनी नदी पर स्थापित की गई है। ▪️इसे वर्तमान में तमिलनाडु उत्पादन एवं प्रसारण निगम लिमिटेड संचालित कर रहा है। ▪️इसकी प्रथम यूनिट 1944 में तथा अंतिम यूनिट 1951 कमीशन हुई। 5.भीरा जल विद्युत परियोजना, महाराष्ट्र ▪️6 × 25 = 150 MW की यह परियोजना 1927-1949 के दौरान विकसित की गई। ▪️यह परियोजना TPCL द्वारा संचालित की जा रही है। 06.मुल्लापेरियार बाँध, केरल ▪️पेरियार नदी पर स्थित मुल्लापेरियार बांध का निर्माण 1887 से 1895 के मध्य ब्रिटिश सरकार द्वारा मद्रास प्रांत में पानी लाने के लिए पेरियार नदी पर किया गया। ▪️यह केरल के इडुक्की की जिले में इलायची की पहाड़ियों में स्थित है, यहाँ पेरियार नेशनल पार्क है। ▪️पेरियार नदी को ‘केरल की जीवन रेखा’ कहते हैं। ▪️मेजर पेनीकवीक इस बांध के डिजाइनर इंजीनियर थे। ▪️इस बाँध की सुरक्षा के संबंध में केरल व तमिलनाडु के मध्य विवाद के निराकरण हेतु 15 फरवरी 2010 को जस्टिस ए.एस.आनंद समिति गठित की गई। इस समिति की रिपोर्ट के अनुसार तमिलनाडु इस बांध का जलस्तर 136 से 142 फीट तक बढ़ा सकता है। 07.मेटूर परियोजना, सेलम, तमिलनाडु ▪️क्षमता 250MW (4 × 50 + 4 × 12.5) ▪️संचालन-TNEB द्वारा ▪️कावेरी नदी पर स्थित। ▪️1934 में सेलम जिले के मेटूर में स्टेनले जलाशय बनाया गया है। ▪️इसका उदघाटन गवर्नर ऑफ मद्रास *सर जॉर्ज फ्रेडरिक स्टैनले ने किया। तब से इसे स्टैनले बाँध भी कहा जाता है। ▪️यह 65.23 मीटर ऊंचा और 1615.40 मीटर लंबा बांध है। ▪️यहाँ होगेनकाल प्रपात स्थित है। ▪️इसे पी.नायकर के निर्देशन में बनाया गया। ▪️तमिलनाडु और कर्नाटक के बीच कावेरी जल विवाद के कारण चर्चा में रहा। ▪️इस परियोजना में 1440 (4 × 210 + 1 × 600)MW का ताप विद्युत गृह स्थापित किया गया है। ▪️इसे ‘तमिलनाडु की जीवन रेखा’ भी कहा जाता है। ____________________________________________ #स्वतंत्रता_के_पश्चात_स्थापित_बहुउद्देशीय #परियोजनाएं : 01.टिहरी जल विद्युत परियोजना, टिहरी गढ़वाल, उत्तराखंड ▪️भागीरथी नदी पर स्थित टिहरी बाँध भारत का सबसे ऊँचा बाँध है। ▪️ऊंचाई-*260.5 मीटर ▪️लम्बाई-*592.7 मीटर ▪️संचालन-टिहरी जल विद्युत निगम इंडिया लिमिटेड द्वारा। ▪️कुल विद्युत क्षमता-*2400 मेगावाट। ▪️टिहरी बाँध व जल विद्युत संयंत्र(250×4=1000 MW)-*2006-07 में पूर्ण। ▪️कोटेश्वर जल विद्युत प्रोजेक्ट (4×100=400 MW)-मार्च 2012 में पूर्ण। ▪️टिहरी पम्प स्टोरेज प्लांट (1000 MW)-निर्माणाधीन। यह भारत का सबसे बड़ा PSP है। ▪️लाभान्वित राज्य-उत्तरप्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, हरियाणा, जम्मू-कश्मीर, चंडीगढ़, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश व के.शा. प्रदेश दिल्ली। 02.दामोदर नदी घाटी परियोजना ▪️यह स्वतंत्र भारत की प्रथम बहुउद्देशीय परियोजना है। ▪️यह परियोजना अमेरिका की टेनिसी नदी घाटी परियोजना की तर्ज पर पूर्वी भारत में दामोदर नदी एवं इसकी मुख्य सहायक बाराकर नदी पर निर्मित है। ▪️इसमें चार मुख्य बहुउद्देश्यीय बाँध- तिलैया, कोनार, मैथन व पंचेट 1953-1959 के दौरान निर्मित किए गए। ▪️तिलैया बाँध झारखंड राज्य के हजारीबाग जिले में बाराकर नदी पर निर्मित स्वतंत्र भारत का प्रथम बाँध था। ▪️जिसका उदघाटन 21 फरवरी 1953 को किया गया। ▪️यह परियोजना 1943 की भयंकर बाढ़ का परिणाम है। ▪️इस परियोजना के संचालन हेतु दामोदर घाटी निगम 7 जुलाई, 1948 को अस्तित्व में आया। इसका मुख्यालय कोलकाता में है। वर्तमान में यह निगम झारखंड एवं पश्चिम बंगाल में कार्य कर रहा है। ▪️वर्तमान में कुल विद्युत क्षमता- ▪️ताप विद्युत-*7270 MW ▪️जल विद्युत-*147.2MW 03.हीराकुण्ड बाँध परियोजना ▪️ओडिशा में महानदी पर निर्मित परियोजना जिसमें संबलपुर जिले में महानदी पर हीराकुंड बांध तथा टीकरपाड़ा व नराज में बांध बनाए गए हैं। ▪️इस परियोजना से महानदी घाटी के विभिन्न क्षेत्रों में सिंचाई, विद्युत, नौका संचालन और बाढ़ नियंत्रण में विशेष सुविधा मिल सकी है। ▪️इस बांध के निर्माण हेतु 1937 में एम. विश्वेश्वरैया द्वारा पहल की गई। ▪️इसका उदघाटन पंडित जवाहरलाल नेहरू द्वारा 13 जनवरी 1957 को किया गया। ▪️इस परियोजना की स्थापित विद्युत क्षमता 347.5 मेगावाट है। यहां दो विद्युत गृह बरला चिपलीमा में स्थापित किए गए हैं। ▪️इसका संचालन ओडिशा हाइड्रो पावर कॉरपोरेशन लिमिटेड द्वारा किया जाता है। 04.भाखड़ा नांगल परियोजना ▪️यह परियोजना पंजाब, हरियाणा और राजस्थान की संयुक्त परियोजना है, जिसमें सतलज नदी पर भाखड़ा एवं नांगल स्थानों पर दो बांध बनाए गए हैं। ▪️भाखड़ा बांध- ▪️इसकी आधारशिला 17 नवंबर 1955 को तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री जवाहरलाल नेहरू ने रखी तथा निर्माण अमेरिकी बांध निर्माता हार्वे स्लोकेम के निर्देशन में अक्टूबर, 1962 में पूर्ण हुआ। ▪️इसे जवाहरलाल नेहरू ने ‘पुनरुत्थित भारत का नवीन मंदिर’ कहा था तथा इसे एक ऐसी चमत्कारी विराट वस्तु की संज्ञा दी थी जिसे देखकर व्यक्ति रोमांचित हो उठता है। ▪️यह बाँध भाखड़ा (बिलासपुर हिमाचल, प्रदेश) में बनाया गया है जो 225.55 मीटर ऊंचा है। ▪️भाखड़ा बांध के पीछे बिलासपुर में बने जलाशय का नाम गोविंद सागर है। ▪️नांगल बाँध- ▪️1952 में बना यह बाँध सतलज नदी पर भाखड़ा बांध से 13 किलोमीटर नीचे नांगल (रोपड़, पंजाब) बनाया गया है। ▪️इसमें गंगूवाल में (1955-1962) के दौरान व कोटला में (1956-1961) के दौरान दो विद्युत गृह बनाए गए हैं। ▪️वर्तमान में इस परियोजना की कुल विद्युत क्षमता 1480 मेगावाट है। ▪️राजस्थान को भाखड़ा नांगल परियोजना से 15.22 प्रतिशत हिस्सा (विद्युत व जल दोनों में) प्राप्त होता है। ▪️इस परियोजना में राजस्थान में सर्वाधिक सिंचाई हनुमानगढ़ जिले में होती है। 05.व्यास परियोजना ▪️यह सतलज, रावी और व्यास नदियों के जल का उपयोग करने हेतु पंजाब, राजस्थान व हरियाणा की संयुक्त परियोजना है। ▪️इसमें व्यास नदी पर हिमाचल प्रदेश में दो बांध पंडोह व पोंग बनाए गए हैं। पोंग बांध 1974 बनकर पूर्ण हुआ। ▪️इसमें पंडोह बांध पर देहर (हिमाचल प्रदेश) नामक स्थान पर 6×165= 990 मेगावाट का विद्युत गृह 1977-1983 के दौरान तथा पोंग बांध पर 6×66=396 मेगावाट का विद्युत गृह 1978-1983 के दौरान स्थापित किया गया है। ▪️राजस्थान को रावी, व्यास नदियों के जल में अपने हिस्से का सर्वाधिक जल पोंग बाँध से प्राप्तभाग से प्राप्त होता है। पोंग बाँध का मुख्य उद्देश्य इंदिरा गांधी परियोजना को शीतकाल में जल की आपूर्ति बनाए रखना है। ▪️राजस्थान को देहर विद्युत गृह से 20% एवं पोंग विद्युत गृह से 58.55 प्रतिशत विद्युत तथा इंदिरा गांधी नहर परियोजना को उपलब्ध होता है। ▪️रावी व्यास नदी जल-विवाद के हल हेतु राजीव-लोंगोवाल समझौते के तहत 1986 में गठित इराडी कमीशन द्वारा राजस्थान के लिए 86 लाख एकड़ फीट पानी का अतिरिक्त हिस्सा द्वारा निर्धारित किया गया था। 06.चम्बल नदी परियोजना ▪️यह राजस्थान की सबसे बड़ी व बारहमासी नदी चम्बल पर वर्ष 1953-54 में प्रारंभ की गई राजस्थान व मध्यप्रदेश की 50:50 साझेदारी की बहुउद्देशीय परियोजना है। ▪️इस परियोजना में गांधी सागर बाँध (मंदसौर, मध्यप्रदेश में 1960 में पूर्ण), राणा प्रताप सागर बाँध (रावतभाटा, चित्तौड़गढ़ में 1970 में पूर्ण) तथा जवाहरसागर बाँध (बूंदी राजस्थान में 1972-73 में पूर्ण) निर्मित किए गए। ▪️इस परियोजना की कुल विद्युत क्षमता 386 मेगावाट है। ▪️इससे मध्यप्रदेश व राजस्थान को बराबर-बराबर हिस्से में विद्युत व सिंचाई की सुविधा उपलब्ध है। ▪️इस परियोजना में निम्न विद्युत स्थापित किए गए हैं- ▪️प्रथम चरण- गांधीसागर बाँध (मध्य प्रदेश)-23×5=115MW ▪️द्वितीय चरण- राणाप्रताप सागर बाँध (चित्तौड़गढ़)-43×4=172MW ▪️तृतीय चरण-जवाहरसागर बाँध (कोटा व बूंदी सीमा पर बूंदी जिले में स्थित)-33×3=99MW 07.माही बजाज सागर परियोजना ▪️राजस्थान और गुजरात की इस शाही बहुउद्देशीय परियोजना में माही नदी पर बांसवाड़ा शहर के निकट बोरखेड़ा गांव में माही बजाज सागर बाँध तथा महीसागर (गुजरात) में कड़ाना बाँध बनाया गया है। ▪️कड़ाना बाँध की संपूर्ण लागत गुजरात द्वारा बहन की गई है तथा वही इसका लाभार्थी है। ▪️इस परियोजना की विद्युत क्षमता 140 मेगावाट है। ▪️इसकी समस्त विद्युत केवल राजस्थान को प्राप्त होती है। ▪️3109 मीटर लम्बे व 74.50 मीटर ऊंचे माही बजाज सागर बाँध का निर्माण 1982में पूर्ण किया गया तथा इसे 1 नवंबर 1982 को राष्ट्र को समर्पित किया गया। ▪️इस परियोजना से सर्वाधिक लाभ राजस्थान के बांसवाड़ा जिले को प्राप्त होता है। ▪️माही परियोजना का नामकरण प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी एवं राष्ट्रीय नेता श्री जमनालाल बजाज के नाम पर माही बजाज सागर परियोजना किया गया। 08.इन्दिरा गांधी नहर परियोजना ▪️राजस्थान के मरूप्रदेश को हिमालय के जल से हरा-भरा करने की इस महत्वाकांक्षी परियोजना की रूपरेखा बीकानेर रियासत के मुख्य शिक्षा अभियंता श्री कंवरसेन द्वारा 1948 में प्रस्तुत की गई थी। ?राजस्थान में पानी की आवश्यकता को देखते हुए 31 मार्च 1958 को तत्कालीन गृहमंत्री श्री गोविंद बल्लभ पंत द्वारा राजस्थान की जीवन रेखा कही जाने वाली इस महत्वपूर्ण परियोजना की आधारशिला रखी गई। ▪️इस परियोजना के निर्माण हेतु 1958 में INGP बोर्ड गठित किया गया। ▪️इस नहर का उद्गम पंजाब में फिरोजपुर के निकट सतलज-व्यास नदियों के संगम पर बने हरिके बैराज से है। ▪️इसकी कुल लंबाई 649 किलोमीटर है, जिसमें 204 किलोमीटर लंबी फीडर (हरिके बैराज से मसीतावाली, हनुमानगढ तक, 170 किमी. पंजाब व हरियाणा में, 34 किमी. राजस्थान में) तथा 445 किमी लंबी मुख्य नहर (0-RD मसीतावाली (हनुमानगढ) से गंगानगर व बीकानेर जिलें से गुजरती हुई 1458-RD मोहनगढ़, (जैसलमेर) तक है। ▪️राजस्थान में फीडर नहर हनुमानगढ़ में प्रवेश करती है। इसकी वितरण प्रणाली की कुल लंबाई 9413 किलोमीटर है। ▪️इंदिरा गांधी फीडर की गहराई 21 फ़ीट व राजस्थान की सीमा पर तले की चौड़ाई 134 फीट है। ▪️इस परियोजना में राजस्थान के- हनुमानगढ़, श्रीगंगानगर, झुंझुनू, नागौर, बीकानेर, जैसलमेर, बाड़मेर, जोधपुर को पेयजल उपलब्ध हो सकेगा तथा 16.17 लाख हैक्टेयर सिंचित क्षेत्र ही सिंचाई सुविधा उपलब्ध होगी। ▪️11अक्टूबर, 1961 को उपराष्ट्रपति श्री डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन द्वारा इसकी प्रथम शाखा(रावतसर शाखा) की नौरंगदेसर वितरिका से सर्वप्रथम जल प्रवाहित किया गया। ▪️2 नवंबर,1984 को राजस्थान नहर परियोजना के स्थान पर इस परियोजना का नाम दिवंगत प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी की स्मृति में इंदिरा गाँधी नहर परियोजना किया गया। 09.बीसलपुर परियोजना ▪️वर्ष 1986-89 में प्रारंभ में बहुउद्देशीय (सिंचाई-पेयजल) परियोजना है, जिसमें टोडाराय सिंह (टोंक) के पास बीसलपुर गांव में बनास नदी पर 574 मीटर लम्बा व 39.5 मीटर ऊँचा कंक्रीट बाँध बनाया गया है। इस बाँध का निर्माण 1999 में पूर्ण हुआ। ▪️इससे जयपुर, अजमेर, केकड़ी, नसीराबाद, सरवाड़, ब्यावर, किशनगढ़ व रास्ते में आने वाले सभी गांवों में पेयजल सुविधा और टोंक जिले में सिंचाई सुविधा उपलब्ध होगी। ▪️बीसलपुर परियोजना के लिए नाबार्ड के ग्रामीण आधार ढाँचा विकास कोष से आर्थिक सहायता प्राप्त हो रही है। ____________________________________________ #भारत_की_अन्य_प्रमुख_बहुउद्देशीय_नदी_घाटी #परियोजनाएं : 01.तिपाईमुख परियोजना तिपाईमुख, मणिपुर ? ▪️नदी-बराक नदी पर। ▪️संचालक-*NHPC Ltd .द्वारा। ▪️कुल क्षमता-*6×250= 1500 मेगावाट। ▪️प्रस्तावित परियोजना । बांग्लादेश ने इस पर आक्षेप उठाया है। ▪️बराक नदी मणिपुर की पहाड़ियों से निकलती हैं तथा मणिपुर, मिजोरम, असम में बहकर बांग्लादेश में प्रविष्ठ होती है। 02.टनकपुर परियोजना, बनबासा, उत्तराखंड ▪️नदी-शारदा नदी(नेपाल में महाकाली नदी पर)। ▪️संचालक-NHPC Ltd. ▪️कुल क्षमता-*94.20 मेगावाट। ▪️लाभान्वित राज्य-उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, हरियाणा, पंजाब, जम्मू-कश्मीर, राजस्थान, दिल्ली, चंडीगढ़ एवं हिमाचल प्रदेश। ▪️इस परियोजना से महाकाली संधि के तहत नेपाल को भी विद्युत प्राप्त होती है। ▪️संचालन वर्ष-*1992. अप्रैल 1993 में वाणिज्यिक उत्पादन शुरू। 03.धौलीगंगा-I पिथौरागढ़, उत्तराखंड ▪️नदी-धौलीगंगा(शारदा नदी की सहायक नदी) ▪️संचालक-*NHPC Ltd. ▪️कुल क्षमता-*280MW । ▪️संचालन वर्ष-*2005 । ▪️लाभान्वित राज्य-उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, पंजाब, दिल्ली, हरियाणा, चंडीगढ़, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश एवं जम्मू-कश्मीर। ▪️रॉकफिल बाँध-*56 मीटर ऊँचा एवं 342 मीटर लम्बा। 04.उड़ी-I परियोजना, उड़ी तहसील, बारामूला, जम्मू-कश्मीर ▪️नदी-झेलम नदी पर। ▪️संचालक-*NHPC ▪️कुल क्षमता-*480 MW। ▪️लाभान्वित राज्य-जम्मू-कश्मीर, पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, दिल्ली, हिमाचल प्रदेश, राजस्थान एवं चंडीगढ़। ▪️संचालन वर्ष-*1996-97। 05.उड़ी-II परियोजना, सलेमाबाद गाँव, उड़ी तहसील, बारामूला, जम्मू-कश्मीर ▪️नदी-झेलम नदी पर। ▪️संचालक-*NHPC ▪️कुल क्षमता-*4×60 = 240MW ▪️लाभान्वित राज्य-जम्मू-कश्मीर, पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, दिल्ली, हिमाचल प्रदेश, राजस्थान एवं चंडीगढ़। ▪️संचालन वर्ष-*2013-14। 06.दुलहस्ती परियोजना, किश्तवार, जम्मू-कश्मीर ▪️नदी-चंद्रा नदी (चिनाब की सहायक नदी)। ▪️संचालक-*NHPC ▪️कुल क्षमता-*390 MW ▪️लाभान्वित राज्य-जम्मू-कश्मीर, पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, दिल्ली, हिमाचल प्रदेश, राजस्थान एवं चंडीगढ़। ▪️संचालन वर्ष-*07 अप्रैल 2007 को प्रारंभ। 07.सलाल परियोजना, रियासी, जम्मू-कश्मीर ▪️नदी-चिनाब नदी पर। ▪️संचालक-*NHPC ▪️कुल क्षमता- ▪️प्रथम चरण-*3×115=345MW ▪️द्वितीय चरण-*3×115=345MW ▪️कुल-*690 MW ▪️लाभान्वित राज्य-जम्मू-कश्मीर, पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, दिल्ली, हिमाचल प्रदेश, राजस्थान एवं चंडीगढ़। ▪️संचालन वर्ष-द्वितीय चरण 1993-1995 में पूर्ण। 08.तीस्ता-III परियोजना, उत्तरी सिक्किम जिला, सिक्किम ▪️नदी-तीस्ता नदी पर लाचेन चू व लाचुंग चू नदी के संगम पर स्थित । ▪️संचालक-तीस्ता ऊर्जा लिमिटेड । ▪️कुल क्षमता-*6×200=1200 मेगावाट। ▪️इस परियोजना के तहत छुगथांग गांव में बाँध व सिधिंक गाँव में विद्युत गृह बनाया गया है। ▪️सचालन वर्ष-*2017 में कमीशन। ▪️यह संयुक्त क्षेत्र की देश की सबसे बड़ी जल विद्युत परियोजना है। 09.कोलडैम परियोजना, बरमाना, बिलासपुर जिला, हिमाचल प्रदेश ▪️नदी-सतलज नदी पर। ▪️संचालक-*NTPC Ltd. ▪️कुल क्षमता-*4×200=800MW। ▪️लाभान्वित राज्य-दिल्ली, हरियाणा, पंजाब, ▪️राजस्थान, उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, जम्मू कश्मीर, चंडीगढ़ व उत्तराखंड। ▪️कोल बाँध 167 मीटर ऊँचा व 500 मीटर लम्बा है। ▪️प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने इस परियोजना को 18 अक्टूबर 2016 को राष्ट्र को समर्पित किया। 10.पार्बती-III परियोजना, कुल्लू, हिमाचल प्रदेश ▪️नदी-पार्बती नदी पर। ▪️संचालक-*NHPC Ltd. ▪️कुल क्षमता-*4×130=520 MW। ▪️लाभान्वित राज्य-उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, दिल्ली,हिमाचल प्रदेश, जम्मू कश्मीर, पंजाब, राजस्थान व चंडीगढ़। ▪️यह परियोजना जून, 2014 में पूर्ण हुई। ▪️प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने इस परियोजना को 18 अक्टूबर 2016 को राष्ट्र को समर्पित किया। 11.नाथपाझाकरी परियोजना, शिमला, हिमाचल प्रदेश ▪️नदी-सतलज नदी पर। ▪️संचालक-*SJVN Ltd. ▪️कुल क्षमता-*6×250= 1500 MW। ▪️लाभान्वित राज्य-हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, जम्मू कश्मीर, पंजाब, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, दिल्ली व चंडीगढ़। ▪️यह परियोजना 2003-04 में पूर्ण हुई। ▪️पूर्व प्रधानमंत्री श्री मनमोहन सिंह ने इस परियोजना को 28 मई 2005 को राष्ट्र को समर्पित किया। ▪️नाथपा(किन्नूर जिला) में 62.50 मीटर ऊँचा बाँध तथा विद्युत गृह झाकरी(जिला-शिमला) में बनाया गया है। ▪️इसमें विश्व बैंक की सहायता प्राप्त हुई है। 12.रामपुर परियोजना, बीलगांव, शिमला व कुल्लू जिला, हिमाचल प्रदेश ▪️नदी-सतलज नदी पर। ▪️संचालक-*SJVN Ltd. ▪️कुल क्षमता-*68.67×6= 412.2 MW। ▪️लाभान्वित राज्य-हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, जम्मू कश्मीर, पंजाब, राजस्थान, उत्तर प्रदेश व उत्तराखंड। ▪️प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने इस परियोजना को 18 अक्टूबर 2016 को राष्ट्र को समर्पित किया। ▪️ISO-14001 व ISO-18001 प्रमाण-पत्र प्राप्त करने वाली देश की प्रथम जल विद्युत परियोजना है। 13.थीन बाँध परियोजना (रणजीत सागर बाँध), पठानकोट, पंजाब ▪️नदी-रावी नदी पर। ▪️संचालक-*PSPCL । ▪️कुल क्षमता-*4×150=600 MW। ▪️लाभान्वित राज्य-पंजाब, जम्मू-कश्मीर व हिमाचल प्रदेश। ▪️इस परियोजना का शिलान्यास शाहपुर कांडी(पठानकोट) पर 1985 में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री राजीव गांधी द्वारा किया गया था। यह 2000 में पूर्ण हुई। 14.इंदिरा सागर परियोजना, नर्मदा नगर, पुनासा, मध्यप्रदेश ▪️नदी-नर्मदा नदी पर। ▪️संचालक-*NHDC Ltd. ▪️कुल क्षमता-*8×125=1000 MW। ▪️लाभान्वित राज्य-मध्यप्रदेश। ▪️31 मार्च 2005 को पूर्ण । ▪️ इंदिरा सागर जलाशय भारत का सबसे बड़ा जलाशय है। 15.नागार्जुन सागर बाँध परियोजना, गुंटूर जिला, आंध्रप्रदेश व नालगोंडा जिला, तेलंगाना ▪️नदी-कृष्णा नदी पर। ▪️संचालक-*APGENCO ▪️कुल क्षमता-965.6 मेगावाट। ▪️आंध्रप्रदेश- ▪️2×30=60 MW ▪️1×30=30 MW ▪️2×25=50 MW ▪️तेलंगाना- ▪️1×110=110 MW ▪️2×30=60 MW ▪️7×100.8=705.60 MW ▪️लाभान्वित राज्य-आंध्रप्रदेश व तेलंगाना। ▪️10 दिसंबर, 1955 को पं. जवाहर लाल नेहरू द्वारा प्रारंभ। ▪️ 4 अगस्त, 1967 को श्रीमती इंदिरा गांधी द्वारा बाँध की दोनों नहरों में पानी छोड़ा गया। ▪️नागार्जुन सागर बाँध 1974 में बनकर पूर्ण हुआ। यह 124.66 मीटर ऊँचा व 4865 मीटर लम्बा है। इसके निर्माण में प्रसिद्ध बौद्ध स्थल नागार्जुनकोंडा डूबा था। ▪️इसके निर्माण में OECF जापान की सहायता प्राप्त हुई है। ▪️इस बाँध के पीछे नागार्जुन सागर जलाशय निर्मित किया गया। ▪️बायीं नहर-लाल बहादुर शास्त्री नहर व दायीं नहर-जवाहर नहर। 16.तुंगभद्रा बाँध परियोजना, बेल्लारी, कर्नाटक ▪️नदी-तुंगभद्रा नदी(कृष्णा नदी की सहायक नदी)पर। ▪️संचालक-तुंगभद्रा बोर्ड। ▪️कुल क्षमता-*72 MW। ▪️लाभान्वित राज्य-कर्नाटक, आंध्रप्रदेश व तेलंगाना। ▪️यह बाँध पुरातात्विक स्थल हम्पी के निकट स्थित है। ▪️1953 में पूर्ण हुआ। ▪️वास्तुकार-थिरुमलई अयंगर 17.कोयना परियोजना, कोयनानगर, महाराष्ट्र ▪️नदी-कोयना नदी(कृष्णा नदी की सहायक नदी)पर। ▪️संचालक-महाराष्ट्र विद्युत बोर्ड (MSEB)। ▪️कुल क्षमता-*1956 MW। ▪️लाभान्वित राज्य-महाराष्ट्र। ▪️इस परियोजना में कोयना बाँध, कोयना नगर में बनाया गया है, जो 1964 में बनकर पूर्ण हुआ।इसके पीछे शिवाजी सागर जलाशय है। ▪️यह परियोजना ‘महाराष्ट्र की जीवन रेखा’ है। 18.सरदार सरोवर परियोजना, नवगाम, गुजरात ▪️नदी-नर्मदा नदी पर। ▪️संचालक-सरदार सरोवर नर्मदा निगम लिमिटेड ▪️कुल क्षमता-*1450 मेगावाट। ▪️लाभान्वित राज्य-मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात व राजस्थान। ▪️इस बाँध की योजना मुंबई के इंजीनियर जमशेदजी एम. वाच्छा ने बनाई। ▪️इस बाँध की नींव तत्कालीन प्रधानमंत्री पं.जवाहरलाल नेहरूने 5 अप्रैल 1961 को रखी। ▪️इस बाँध की लम्बाई 1210 मीटर व ऊँचाई 163 मीटर होगी। ▪️नर्मदा नहर की लम्बाई 532 किमी.है। ▪️इस परियोजना से सिंचाई सुविधा व विद्युत मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र तथा गुजरात को मिलेगी। राजस्थान को सिंचाई सुविधा प्राप्त होगी। ▪️इस परियोजना की ऊंचाई के संबंध में मध्यप्रदेश और गुजरात सरकार के मध्य विवाद के कारण नर्मदा जल विवाद ट्रिब्यूनल का अक्टूबर, 1969 में गठन किया गया था। नर्मदा नियंत्रण प्राधिकरण ने सरदार सरोवर बाँध की ऊंचाई 121.91 मीटर से 138.68 मीटर करने की अनुमति 12 जून, 2014 को दी। ▪️प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने इसका लोकार्पण 17 सितंबर 2017 को किया। ▪️नर्मदा बाँध के पास सरदार वल्लभ भाई पटेल की 182 मीटर ऊंची प्रतिमा ‘स्टैच्यू ऑफ यूनिटी’ स्थापित की जाएगी। ____________________________________________ #भारत_भूटान_सहयोग_के_तहत_नदी_घाटी #परियोजनाएं : 01.संकोश जल विद्युत परियोजना ▪️नदी-संकोश नदी (जिसे भूटान में ‘मो-चू'(MO-Chu) कहा जाता है) भूटान में 214 किमी व भारत मे 107 किमी बहती है। ▪️संचालक-यह परियोजना THDCIL द्वारा निर्मित की जाएगी। ▪️कुल क्षमता-(8×312.5+3×28.33=2585 मेगावाट) ▪️2585 मेगावाट की इस परियोजना की DPR को 21-11-21016 को अन्तिम स्वीकृति दी गई। ▪️संकोश परियोजना दक्षिणी भूटान में स्थापित होगी। ▪️प्रस्तावित परियोजना में 215 मीटर ऊँचे रोलर संपीडित कंक्रीट ग्रैविटी (RCC) का निर्माण होगा। 02.चुखा जल विद्युत परियोजना ▪️भारत व भूटान के सहयोग से विकसित। ▪️कुल क्षमता-*4×84=336 मेगावाट। ▪️स्थापना वर्ष-*1986-88। 03.ताला जल विद्युत परियोजना ▪️भारत व भूटान के सहयोग से विकसित। ▪️कुल क्षमता-*6×70=1020 मेगावाट। ▪️स्थापना वर्ष-*2006-07। 04.कुरिछु जल विद्युत परियोजना ▪️भारत व भूटान के सहयोग से विकसित। ▪️कुल क्षमता-*4×15=60 मेगावाट। ▪️स्थापना वर्ष-*2001-02। ____________________________________________ #भारत_नेपाल_सहयोग_के_तहत_नदी_घाटी #परियोजनाएं : 01.पंचेश्वर जल विद्युत परियोजना ▪️यह भारत व नेपाल की साझी परियोजना है जो भारत व नेपाल की सीमा पर बहने वाली महाकाली नदी(शारदा नदी) पर स्थापित होगी। ▪️इस परियोजना के लिए काठमांडू, नेपाल में ‘पंचेश्वर विकास प्राधिकरण’ का गठन किया गया है। ▪️इस परियोजना का विकास फरवरी, 1996 में भारत व नेपाल के मध्य हुई महाकाली सन्धि के तहत किया जाएगा। 02.सप्तकोशी उच्च बाँध बहुउद्देश्यीय परियोजना ▪️कुल क्षमता-*3300 मेगावाट निर्माण स्थल-नेपाल में बाराक्षेत्र में सप्तकोशी नदी पर निर्मित होगी। ▪️इस परियोजना में सिंचाई व विद्युत सुविधा उपलब्ध होगी व इसके अलावा इस परियोजना से बिहार में बाढ़ नियंत्रण में भी सहायता उपलब्ध होगी। ▪️इस परियोजना में कोसी व गंगा नदी के मध्य जलमार्गों का भी विकास किया जायेगा। ▪️इस परियोजना में ‘सन कोसी स्टोरेज कम डाइवर्जन स्कीम’ भी शामिल की गई है जिसके तहत कुरुले के निकट सनकोसी नदी पर डाइवर्जन ढाँचा निर्मित किया जाएगा। इस हेतु चिपासनी के निकट 16.6 किमी.लम्बी डाइवर्जन सुरंग का निर्माण किया जायेगा। 03.अरुण-3 जल विद्युत परियोजना ▪️कुल क्षमता-*4×225=900 मेगावाट ▪️निर्माण स्थल-नेपाल के सांखुवासाभा जिलें में स्थापित की जायेगी। ▪️यह परियोजना सतलज एवं जल विद्युत निगम लिमिटेड द्वारा BOOT आधार पर स्थापित की जाएगी। ▪️इस परियोजना के लिए नवम्बर, 2014 में SJVNL व इन्वेस्टमेंट बोर्ड ऑफ नेपाल के बीच हस्ताक्षर किए गए। ▪️इस हेतु एसजेवीएन अरुण-3 पॉवर डवलपमेंट कंपनी प्रा.लि. का गठन किया गया है। 04.कोसी परियोजना ▪️उत्तरी बिहार में आने वाली बाढ़ों को रोकने के लिए कोसी नदी पर निर्मित परियोजना जो नेपाल व भारत की साझी परियोजना है। ▪️इसमें बिहार में कोसी बांध 1956 निर्मित किया गया। ▪️इस परियोजना से नेपाल और बिहार को सिंचाई व विद्युत सुविधा उपलब्ध हुई है। ▪️कोसी नदी को ‘बिहार का शोक’ कहा जाता है। [01/12, 8:26 AM] Raj Kumar: #विश्व_का_भूगोल : #पृथ्वी_की_गतियां पृथ्वी की गति दो प्रकार की है ▪️घूर्णन अथवा दैनिक गति – पृथ्वी का अपने अक्ष पर घूमना घूर्णन कहलाता है। ▪️परिक्रमण अथवा वार्षिक गति– सूर्य के चारों ओर एक स्थिर कक्ष में पृथ्वी की गति को परिक्रमण कहते हैं। #घूर्णन_अथवा_दैनिक_गति: पृथ्वी सदैव अपने अक्ष पर पश्चिम से पूर्व लट्‌टू की भांति घूमती रहती है, जिसे ‘पृथ्वी का घूर्णन या परिभ्रमण’ कहते हैं । इसके कारण दिन व रात होते हैं । अतः इस गति को ‘दैनिक गति’ भी कहते हैं । i. #नक्षत्र_दिवस : एक मध्याह्न रेखा के ऊपर किसी निश्चित नक्षत्र के उत्तरोत्तर दो बार गुजरने के बीच की अवधि को नक्षत्र दिवस कहते हैं । यह 23 घंटे व 56 मिनट अवधि की होती है । ii. #सौर_दिवस : जब सूर्य को गतिहीन मानकर पृथ्वी द्वारा उसके परिक्रमण की गणना दिवसों के रूप में की जाती है तब सौर दिवस ज्ञात होता है । इसकी अवधि पूरे 24 घंटे की होती है । #परिक्रमण_अथवा_वार्षिक_गति: पृथ्वी अपने अक्ष पर घूमने के साथ-साथ सूर्य के चारों ओर एक अंडाकार मार्ग (Geoid) पर 365 दिन तथा 6 घंटे में एक चक्कर पूरा करती है । पृथ्वी के इस अंडाकार मार्ग को ‘भू-कक्षा’ (Earth Orbit) कहते हैं । पृथ्वी की इस गति को परिक्रमण या वार्षिक गति कहते हैं । i. #उपसौर : पृथ्वी जब सूर्य के अत्यधिक पास होती है तो इसे उपसौर कहते हैं । ऐसी स्थिति 3 जनवरी को होती है । ii. #अपसौर : पृथ्वी जब सूर्य से अधिकतम दूरी पर होती है तो इसे अपसौर कहते हैं । ऐसी स्थिति 4 जुलाई को होती है । #दिन_रात_का_छोटा_व_बड़ा_होना: यदि पृथ्वी अपनी धुरी पर झुकी हुई न होती तो सर्वत्र दिन-रात बराबर होते । इसी प्रकार यदि पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा न करती तो एक गोलार्द्ध में दिन सदा ही बड़े और रातें छोटी रहती जबकि दूसरे गोलार्द्ध में रातें बड़ी और दिन छोटे होते । परंतु विषुवतरेखीय भाग को छोड़कर विश्व के अन्य सभी भागों में विभिन्न ऋतुओं में दिन-रात की लम्बाई में अंतर पाया जाता है । विषुवत रेखा पर सदैव दिन-रात बराबर होते हैं, क्योंकि इसे प्रकाश वृत्त हमेशा दो बराबर भागों में बाँटता है । अतः विषुवत रेखा का आधा भाग प्रत्येक स्थिति में प्रकाश प्राप्त करता है । #पृथ्वी_पर_दिन_और_रात_की_स्थिति : 21 मार्च से 23 सितम्बर की अवधि में उत्तरी गोलार्द्ध सूर्य का प्रकाश 12 घंटे या अधिक समय तक प्राप्त करता है । अतः यहाँ दिन बड़े एवं रातें छोटी होती हैं । जैसे-जैसे उत्तरी ध्रुव की ओर बढ़ते जाते हैं, दिन की अवधि भी बढ़ती जाती है । उत्तरी ध्रुव पर तो दिन की अवधि छः महीने की होती है । 23 सितम्बर से 21 मार्च तक सूर्य का प्रकाश दक्षिणी गोलार्द्ध में 12 घंटे या अधिक समय तक प्राप्त होता है । जैसे-जैसे दक्षिणी ध्रुव की ओर बढ़ते हैं, दिन की अवधि भी बढ़ती है । दक्षिणी ध्रुव पर इसी कारण छः महीने तक दिन रहता है । इस प्रकार उत्तरी ध्रुव एवं दक्षिणी ध्रुव दोनों पर ही छः महीने तक दिन व छः महीने तक रात रहती है । #ऋतु_परिवर्तन : चूंकि पृथ्वी न सिर्फ अपने अक्ष पर घूमती है वरन् सूर्य की परिक्रमा भी करती है । अतः पृथ्वी की सूर्य से सापेक्ष स्थितियाँ बदलती रहती हैं । पृथ्वी के परिक्रमण में चार मुख्य अवस्थाएँ आती हैं तथा इन अवस्थाओं में ऋतु परिवर्तन होते हैं: i. #21_जून_की_स्थिति : इस समय सूर्य कर्क रेखा पर लम्बवत् चमकता है । इस स्थिति को ग्रीष्म अयनांत (Summer Solistice) कहते हैं । वस्तुतः 21 मार्च के बाद सूर्य उत्तरायण होने लगता है तथा उत्तरी गोलार्द्ध में दिन की अवधि बढ़ने लगती है, जिससे वहाँ ग्रीष्म ऋतु का आगमन होता है । 21 जून को उत्तरी गोलार्द्ध में दिन की लम्बाई सबसे अधिक रहती है । दक्षिणी गोलार्द्ध में इस समय शीत ऋतु होती है । 21 जून के पश्चात् 23 सितम्बर तक सूर्य पुनः विषुवत रेखा की ओर उन्मुख होता है । परिणामस्वरूप धीरे-धीरे उत्तरी गोलार्द्ध में गर्मी कम होने लगती है । ii. #22_दिसम्बर_की_स्थिति : इस समय सूर्य मकर रेखा पर लम्बवत् चमकता है । इस स्थिति को शीत अयनांत (Winter Solistice) कहते हैं । इस समय दक्षिणी गोलार्द्ध में दिन की अवधि लम्बी व रात छोटी होती हैं । वस्तुतः सूर्य के दक्षिणायन होने अर्थात् दक्षिणी गोलार्द्ध में उन्मुख होने की प्रक्रिया 23 सितम्बर के बाद प्रारंभ हो जाती है, जिससे दक्षिणी गोलार्द्ध में दिन बड़े व रातें छोटी होने लगती हैं । इस समय उत्तरी गोलार्द्ध में ठीक विपरीत स्थिति देखी जाती है । 22 दिसम्बर के उपरान्त 21 मार्च तक सूर्य पुनः विषुवत रेखा की ओर उन्मुख होता है तथा दक्षिणी गोलार्द्ध में धीरे-धीरे ग्रीष्म ऋतु की समाप्ति हो जाती है । iii. #21_मार्च_व_23_सितम्बर_की_स्थितियाँ : इन दोनों स्थितियों में सूर्य विषुवत रेखा पर लम्बवत चमकता है । अतः इस समय समस्त अक्षांश रेखाओं का आधा भाग सूर्य का प्रकाश प्राप्त करता है । अतः सर्वत्र दिन व रात की अवधि बराबर होती है । इस समय दिन व रात की अवधि के बराबर रहने एवं ऋतु की समानता के कारण इन दोनों स्थितियों को ‘विषुव’ अथवा ‘सम रात-दिन’ (Equinox) कहा जाता है । 21 मार्च की स्थिति को ‘बसंत विषुव’ (Spring Equinox) एवं 23 सितम्बर वाली स्थिति को ‘शरद विषुव’ (Autumn Equinox) कहा जाता है । #ज्वार_भाटा : सूर्य व चन्द्रमा की आकर्षण शक्तियों के कारण सागरीय जल के ऊपर उठने तथा गिरने को ‘ज्वार भाटा’ कहा जाता है । इससे उत्पन्न तरंगों को ज्वारीय तरंग कहते हैं । विभिन्न स्थानों पर ज्वार-भाटा की ऊँचाई में पर्याप्त भिन्नता होती है, जो सागर में जल की गहराई, सागरीय तट की रूपरेखा तथा सागर के खुले होने या बंद होने पर आधारित होती है । यद्यपि सूर्य चन्द्रमा से बहुत बड़ा है, तथापि सूर्य की अपेक्षा चन्द्रमा की आकर्षण शक्ति का प्रभाव दोगुना है । इसका कारण सूर्य का चन्द्रमा की तुलना में पृथ्वी से दूर होना है । 24 घंटे में प्रत्येक स्थान पर दो बार ज्वार भाटा आता है । जब सूर्य, पृथ्वी तथा चन्द्रमा एक सीधी रेखा में होते हैं तो इस समय उनकी सम्मिलित शक्ति के परिणामस्वरूप दीर्घ ज्वार का अनुभव किया जाता है । यह स्थिति सिजिगी (Syzygy) कहलाती है । ऐसा पूर्णमासी व अमावस्या को होता है । इसके विपरीत जब सूर्य, पृथ्वी व चन्द्रमा मिलकर समकोण बनाते हैं तो चन्द्रमा व सूर्य का आकर्षण बल एक दूसरे के विपरीत कार्य करते हैं । फलस्वरूप निम्न ज्वार का अनुभव किया जाता है । ऐसी स्थिति कृष्ण पक्ष एवं शुक्ल पक्ष के सप्तमी या अष्टमी को देखा जाता है । लघु ज्वार सामान्य ज्वार से 20% नीचा व दीर्घ ज्वार सामान्य ज्वार से 20% ऊँचा होता है । पृथ्वी पर चन्द्रमा के सम्मुख स्थित भाग पर चन्द्रमा की आकर्षण शक्ति के कारण ज्वार आता है, किन्तु इसी समय पृथ्वी पर चन्द्राविमुखी भाग पर ज्वार आता है । इसका कारण पृथ्वी के घूर्णन को संतुलित करने के लिए अपकेन्द्री बल (Centrifugal Force) का शक्तिशाली होना है । उपरोक्त बलों के प्रभाव के कारण प्रत्येक स्थान पर 12 घंटे के बाद ज्वार आना चाहिए किन्तु यह प्रति दिन लगभग 26 मिनट की देरी से आता है । इसका कारण चन्द्रमा का पृथ्वी के सापेक्ष गतिशील होना है । कनाडा के न्यू ब्रंसविक तथा नोवा स्कोशिया के मध्य स्थित फंडी की खाड़ी में ज्वार की ऊँचाई सर्वाधिक (15 से 18 मी.) होती है, जबकि भारत के ओखा तट पर मात्र 2.7 मी. होती है । इंग्लैंड के दक्षिणी तट पर स्थित साउथैम्पटन में प्रतिदिन चार बार ज्वार आते हैं । ऐसा इसलिए होता है क्योंकि ये दो बार इंग्लिश चैनल होकर एवं दो बार उत्तरी सागर से होकर विभिन्न अंतरालों पर वहाँ पहुँचते हैं । नदियों को बड़े जलयानों के लिए नौ संचालन योग्य बनाने में ज्वार सहायक होतेहैं । टेम्स और हुगली नदियों में प्रवेश करने वाले ज्वारीय धाराओं के कारण ही क्रमशः लंदन व कोलकाता महत्वपूर्ण पत्तन बन सके हैं । नदियों द्वारा लाए गए अवसाद भाटा के साथ बहकर समुद्र में चले जाते हैं तथा इस प्रकार डेल्टा निर्माण की प्रक्रिया में बाधा पहुँचती है । जल विद्युत के उत्पादन हेतु भी ज्वारीय ऊर्जा का प्रयोग किया जाता है । फ्रांस व जापान में ज्वारीय ऊर्जा पर आधारित कुछ विद्युत केन्द्र विकसित किए गए हैं । भारत में खंभात की खाड़ी व कच्छ की खाड़ी में इसके विकास की अच्छी संभावना है । #ज्वार_भाटा_के_उत्पत्ति_की_संकल्पनाएँ : i. न्यूटन का गुरूत्वाकर्षण बल सिद्धान्त (1687 ई.) ii. लाप्लास का गतिक सिद्धान्त (1755 ई.) iii. ह्वैवेल का प्रगामी तरंग सिद्धांत (1833 ई.) iv. एयरी का नहर सिद्धांत (1842 ई.) v. हैरिस का स्थैतिक तरंग सिद्धान्त #सूर्यग्रहण_और_चन्द्रग्रहण : पृथ्वी और चन्द्रमा दोनों को प्रकाश सूर्य से मिलता है । पृथ्वी पर से चन्द्रमा का एक भाग ही दिखता है, क्योंकि पृथ्वी और चन्द्रमा की घूर्णन गति समान है । पृथ्वी पर चन्द्रमा का सम्पूर्ण प्रकाशित भाग महीने में केवल एक बार अर्थात् पूर्णिमा (Full Moon) को दिखाई देता है । इसी प्रकार महीने में एक बार चन्द्रमा का सम्पूर्ण अप्रकाशित भाग पृथ्वी के सामने होता है तथा तब चन्द्रमा दिखाई नहीं देता; इसे अमावस्या (New Moon) कहते हैं । जब सूर्य, पृथ्वी और चन्द्रमा एक सरल रेखा में होते हैं तो इस स्थिति को युति-वियुति (Conjuction) या सिजिगी (Syzygy) कहते हैं, जिसमें युति सूर्यग्रहण की स्थिति में व वियुति (Opposition) चन्द्रग्रहण की स्थिति में बनते हैं । जब पृथ्वी, सूर्य और चन्द्रमा के बीच आ जाता है तो सूर्य की रोशनी चन्द्रमा तक नहीं पहुँच पाती तथा पृथ्वी की छाया के कारण उस पर अंधेरा छा जाता है । इस स्थिति को चन्द्रग्रहण (Lunar Eclipse) कहते हैं । चन्द्रग्रहण हमेशा पूर्णिमा की रात को होता है । सूर्यग्रहण की स्थिति तब बनती है, जब सूर्य एवं पृथ्वी के बीच चन्द्रमा आ जाए तथा पृथ्वी पर सूर्य का प्रकाश न पड़कर चन्द्रमा की परछाईं पड़े । सूर्यग्रहण (Solar Eclipse) हमेशा अमावस्या को होता है । प्रत्येक अमावस्या को सूर्यग्रहण एवं प्रत्येक पूर्णिमा को चन्द्रग्रहण लगना चाहिए, परंतु ऐसा नहीं होता क्योंकि चन्द्रमा अपने अक्ष पर 50 झुकाव लिए हुए है । जब चन्द्रमा और पृथ्वी एक ही बिंदु पर परिक्रमण पथ में पहुँचती हैं तो उस समय चन्द्रमा अपने अक्षीय झुकाव के कारण थोड़ा आगे निकल जाता है । इसी कारण प्रत्येक पूर्णिमा और अमावस्या की स्थिति में ग्रहण नहीं लगता एक वर्ष में अधिकतम सात चन्द्रग्रहण एवं सूर्यग्रहण की स्थिति हो सकती है पूर्ण सूर्यग्रहण देखे जाते हैं, परंतु पूर्ण चन्द्र ग्रहण प्रायः नहीं देखा जाता, क्योंकि सूर्य, चन्द्रमा एवं पृथ्वी के आकार में पर्याप्त अंतर है । 22 जुलाई, 2009 को 21वीं सदी का सबसे लंबा पूर्ण सूर्यग्रहण देखा गया । सूर्यग्रहण के समय बड़ी मात्रा में पराबैंगनी (Ultra Violet) किरणें उत्सर्जित होती हैं इसीलिए नंगी आँखों से सूर्य ग्रहण देखने से मना किया जाता है । पूर्ण सूर्यग्रहण के समय सूर्य के परिधीय क्षेत्रों में हीरक वलय (Diamond Ring) की स्थिति बनती है । [01/12, 8:26 AM] Raj Kumar: #विश्व_का_भूगोल : #अक्षांश_और_देशांतर_रेखाएं पृथ्वी में किसी स्थान की भौगोलिक स्थिति का निर्धारण अक्षांश (latitude) और देशांतर (Longitude) रेखाओं द्वारा किया जाता है। किसी स्थान का अक्षांश (latitude), धरातल पर उस स्थान की “उत्तर से दक्षिण” की स्थिति को तथा किसी स्थान का देशांतर (Longitude), धरातल पर उस स्थान की “पूर्व से पश्चिम” की स्थिति को प्रदर्शित करता है। उत्तरी ध्रुवों (North Pole) व दक्षिणी ध्रुवों (South Pole) के अक्षांश (latitude) क्रमशः 90° उत्तर तथा 90° दक्षिण है। नोट : किसी भी स्थान के देशांतर (Longitude) को प्रधान याम्योत्तर (Prime Mediterranean) के सापेक्ष अभिव्यक्त किया जाता है। #अक्षांश_रेखाएँ (Latitude lines) भूमध्य रेखा (Equator) के समानांतर से किसी भी स्थान की उत्तरी अथवा दक्षिणी ध्रुव की ओर की ओर खींची गई रेखाओं को अक्षांश (latitude) रेखा कहते है। भूमध्य रेखा (Equator) को (0°) की अक्षांश रेखा माना गया है। भूमध्य रेखा (Equator) से उत्तरी ध्रुव की ओर की सभी दूरियाँ उत्तरी अक्षांश और दक्षिणी ध्रुव की ओर की सभी दूरियाँ दक्षिणी अक्षांश में मापी जाती है। ध्रुवों की ओर बढ़ने पर भूमध्य रेखा (Equator) से अक्षांश (latitude) की दूरी बढ़ने लगती है। इसके अतिरिक्त सभी अक्षांश रेखाएँ (Latitude lines) परस्पर समानांतर और पूर्ण वृत्त होती हैं। ध्रुवों की ओर जाने से वृत्त छोटे होने लगते हैं। 90° का अक्षांश ध्रुव पर एक बिंदु में परिवर्तित हो जाता है। #महत्वपूर्ण_वृत्त ▪️विषुवत् वृत्त (0°) (E) ▪️उत्तर ध्रुव (90°) ▪️दक्षिण ध्रुव (90°) #महत्त्वपूर्ण_अक्षांश_रेखाएँ ▪️विषुवत् रेखा (0°) (Equator Line) ▪️उत्तरी गोलार्ध में कर्क रेखा (23.5°) (Cancer Line) ▪️दक्षिणी गोलार्ध में मकर रेखा (23.5°) (Capcorian line) #पृथ्वी_के_ताप_कटिबंध #उष्ण_कटिबंध – कर्क रेखा एवं मकर रेखा के बीच के सभी अक्षांशों पर सूर्य वर्ष में एक बार दोपहर में सिर के ठीक ऊपर होता है। इसलिए इस क्षेत्र में सबसे अधिक ऊष्मा प्राप्त होती है तथा इसे उष्ण कटिबंध कहा जाता है। कर्क रेखा तथा मकर रेखा के बाद किसी भी अक्षांश पर दोपहर का सूर्य कभी भी सिर के ऊपर नहीं होता है। ध्रुव की तरफ सूर्य की किरणें तिरछी होती जाती हैं। #शीतोष्ण_कटिबंध – उत्तरी गोलार्ध में कर्क रेखा एवं उत्तर ध्रुव वृत्त तथा दक्षिणी गोलार्ध में मकर रेखा एवं दक्षिण ध्रुव वृत्त के बीच वाले क्षेत्र का तापमान मध्यम रहता है। इसलिए इन्हें, शीतोष्ण कटिबंध कहा जाता है। #शीत_कटिबंध – उत्तरी गोलार्ध में उत्तर ध्रुव वृत्त एव उत्तरी ध्रुव तथा दक्षिणी गोलार्ध में दक्षिण ध्रुव वृत्त एव दक्षिणी ध्रुव के बीच के क्षेत्र में ठडं बहतु होती है। क्योंकि, यहाँ सूर्य क्षितिज से ज़्यादा ऊपर नहीं आ पाता है। इसलिए ये शीत कटिबंध कहलाते हैं। #देशांतर_रेखाएँ (Longitudes lines) उत्तरी ध्रुव से दक्षिणी ध्रुव को मिलाने वाली 360 डिग्री रेखाओं को देशांतर रेखाएं कहा जाता है, यह ग्‍लोब पर उत्तर से दक्षिण दोनों भूगोलीय ध्रुवों (उत्तरी ध्रुव से दक्षिणी ध्रुव ) के बीच खींची हुई काल्पनिक मध्याह्न रेखाओं को देशांतर रेखाएं कहा जाता है । जो मध्याह्न रेखा जिस बिंदु या स्थान से गुजरती है उसका कोणीय मान उस स्थान का देशांतर होता है। सभी देशांतर रेखाएं अर्ध-वृत्ताकार होती हैं। ये समांनांतर नहीं होती हैं व उत्तरी व दक्षिणी ध्रुवों पर अभिसरित होकर मिल जाती हैं। ग्रीनविच , जहाँ ब्रिटिश राजकीय वेधशाला स्थित है, से गुजरने वाली याम्योत्तर से पूर्व और पश्चिम की ओर गिनती शुरू की जाए। इस याम्योत्तर को प्रमुख याम्योत्तर (Prime Mediterranean) कहते हैं। इसका मान 0° देशांतर है तथा यहाँ से हम 180° पूर्व या 180° पश्चिम तक गणना करते हैं। प्रधान याम्योत्तर (Prime Mediterranean) तथा 180° याम्योत्तर मिलकर पृथ्वी को दो समान भागों, पूर्वी गोलार्ध एवं पश्चिमी गोलार्ध में विभक्त करती है। इसलिए किसी स्थान के देशांतर के आगे पूर्व के लिए अक्षर पू. तथा पश्चिम के लिए अक्षर प. का उपयोग करते हैं। 180° पूर्व और 180° पश्चिम याम्योत्तर एक ही रेखा पर स्थित हैं। #देशांतर_और_समय (Longitude & Time) समय को मापने का सबसे अच्छा साधन पृथ्वी, चंद्रमा एवं ग्रहों की गति है। सूर्योदय एवं सूर्यास्त प्रतिदिन होता है। अतः स्वाभाविक ही है कि यह पूरे विश्व में समय निर्धारण का सबसे अच्छा साधन है। स्थानीय समय का अनुमान सूर्य के द्वारा बनने वाली परछाईं से लगाया जा सकता है, जो दोपहर में सबसे छोटी एवं सूर्योदय तथा सूर्यास्त केसमय सबसे लंबी होती है। ग्रीनविच पर स्थित प्रमुख याम्योत्तर पर सूर्य जिस समय आकाश के सबसे ऊँचे बिंदु पर होगा, उस समय याम्योत्तर पर स्थित सभी स्थानों पर दोपहर होगी। चूँकि, पृथ्वी पश्चिम से पूर्व की ओर चक्कर लगाती है, अतः वे स्थान जो ग्रीनविच के पूर्व में हैं, उनका समय ग्रीनविच समय से आगे होगा तथा जो पश्चिम में हैं, उनका समय पीछे होगा । भारत के मध्य भाग इलाहाबाद के मिर्जापुर के नैनी से होकर गुजरने वाली याम्योत्तर रेखा (82,1/2°) (Standard Mediterranean Line) के स्थानीय समय को देश का मानक समय माना जाता है। पृथ्वी लगभग 24 घंटे में अपने अक्ष पर 360° घूम जाती है अर्थात् 1 घंटे में (360/24) 15° एवं 4 मिनट में 1° घूमती है। अर्थात डिग्री देशांतर दुरी तय करने में 4 Minute का समय लगता है भारत में गुजरात के द्वारका तथा असम के डिब्रूगढ़ वेफ स्थानीय समय में लगभग 1 घंटा 45 मिनट का अंतर है। भारत और ग्रीनविच (लंदन) के समय में 5:30 घंटे का अंतर है , इसलिए जब लंदन में दोपहर के 2 बजे होंगे, तब भारत में शाम के 7ः30 बजे होंगे। कुछ देशों का देशांतरीय विस्तार अधिक होता है, जिसके कारण वहाँ एक से अधिक मानक समय अपनाए गए हैं। उदाहरण के लिए, रूस में 11 मानक समयों को अपनाया गया है। विषुवत रेखा पर इसके बीच की दूरी अधिकतम 111.32 Km होती है। [01/12, 8:26 AM] Raj Kumar: #भारत_का_भूगोल : #अपवाह_तंत्र_व_झीलें अपवाह शब्द एक क्षेत्र के नदी तंत्र की व्याख्या करता है। भारत के भौतिक मानचित्र को देखिए। आप पाएंगे कि विभिन्न दिशाओं से छोटी-छोटी धाराएँ आकर एक साथ मिल जाती हैं तथा एक मुख्य नदी का निर्माण करती हैं, अंततः इनका निकास किसी बड़े जलाशय, जैसे- झील या समुद्र या महासागर में होता है। एक नदी तंत्र द्वारा जिस क्षेत्र का जल प्रवाहित होता है उसे एक अपवाह द्रोणी कहते हैं। मानचित्र का अवलोकन करने पर यह पता चलता है कि कोई भी ऊँचा क्षेत्र, जैसे- पर्वत या उच्च भूमि दो पड़ोसी अपवाह द्रोणियों को एक दूसरे से अलग करती है। इस प्रकार की उच्च भूमि को जल विभाजक कहते हैं। विश्व की सबसे बड़ी अपवाह द्रोणी अमेज़न नदी की है। #अपवाह_प्रतिरूप : एक अपवाह प्रतिरूप में धाराएँ एक निश्चित प्रतिरूप का निर्माण करती हैं, जो कि उस क्षेत्र की भूमि की ढाल, जलवायु संबंधी अवस्थाओं तथा अधःस्थ शैल संरचना पर आधारित है। यह द्रुमाकृतिक, जालीनुमा, आयताकार तथा अरीय अपवाह प्रतिरूप है। द्रुमाकृतिक प्रतिरूप तब बनता है जब धाराएँ उस स्थान के भूस्थल की ढाल के अनुसार बहती हैं। इस प्रतिरूप में मुख्य धारा तथा उसकी सहायक नदियाँ एक वृक्ष की शाखाओं की भाँति प्रतीत होती हैं। जब सहायक नदियाँ मुख्य नदी से समकोण पर मिलती हैं तब जालीनमा प्रतिरूप का निर्माण करती है। जालीनुमा प्रतिरूप वहाँ विकसित करता है जहाँ कठोर और मुलायम चट्टानें समानांतर पायी जाती हैं। आयताकार अपवाह प्रतिरूप प्रबल संधित शैलीय भूभाग पर विकसित करता है। अरीय प्रतिरूप तब विकसित होता है जब केंद्रीय शिखर या गुम्बद जैसी संरचना धारायें विभिन्न दिशाओं में प्रवाहित होती हैं। विभिन्न प्रकार के अपवाह प्रतिरूप का संयोजन एक ही अपवाह द्रोणी में भी पाया जा सकता है। #भारत_में_अपवाह_तंत्र : भारत के अपवाह तंत्र का नियंत्रण मुख्यतः भौगोलिक आकृतियों के द्वारा होता है। इस आधार पर भारतीय नदियों को दो मुख्य वर्गों में विभाजित किया गया है- 1. हिमालय की नदियाँ 2. प्रायद्वीपीय नदियाँ भारत के दो मुख्य भौगोलिक क्षेत्रों से उत्पन्न होने के कारण हिमालय तथा प्रायद्वीपीय नदियाँ एक-दूसरे से भिन्न हैं। हिमालय की अधिकतर नदियाँ बारहमासी नदियाँ होती हैं। इनमें वर्ष भर पानी रहता है, क्योंकि इन्हें वर्षा के अतिरिक्त ऊँचे पर्वतों से पिघलने वाले हिम द्वारा भी जल प्राप्त होता है। हिमालय की दो मुख्य नदियाँ सिंधु तथा ब्रह्मपुत्र इस पर्वतीय श्रृंखला के उत्तरी भाग से निकलती हैं। इन नदियों ने पर्वतों को काटकर गॉर्जो का निर्माण किया है। हिमालय की नदियाँ अपने उत्पत्ति के स्थान से लेकर समुद्र तक के लंबे रास्ते को तय करती हैं। ये अपने मार्ग के ऊपरी भागों में तीव्र अपरदन क्रिया करती हैं तथा अपने साथ भारी मात्रा में सिल्ट एवं बालू का संवहन करती हैं। मध्य एवं निचले भागों में ये नदियाँ विसर्प, गोखुर झील तथा अपने बाढ़ वाले मैदानों में बहुत-सी अन्य निक्षेपण आकृतियों का निर्माण करती हैं। ये पूर्ण विकसित डेल्टाओं का भी निर्माण करती हैं। अधिकतर प्रायद्वीपीय नदियाँ मौसमी होती हैं, क्योंकि इनका प्रवाह वर्षा पर निर्भर करता है। शुष्क मौसम में बड़ी नदियों का जल भी घटकर छोटी-छोटी धाराओं में बहने लगता है। हिमालय की नदियों की तुलना में प्रायद्वीपीय नदियों की लंबाई कम तथा छिछली हैं। फिर भी इनमें से कुछ केंद्रीय उच्चभूमि से निकलती हैं तथा पश्चिम की तरफ बहती हैं। क्या आप इस प्रकार की दो बड़ी नदियों को पहचान सकते हैं? प्रायद्वीपीय भारत की अधिकतर नदियाँ पश्चिमी घाट से निकलती हैं तथा बंगाल की खाड़ी की तरफ बहती हैं। 1. #हिमालय_की_नदियाँ- सिंधु, गंगा तथा ब्रह्मपुत्र हिमालय से निकलने वाली प्रमुख नदियाँ हैं। ये नदियाँ लंबी हैं तथा अनेक महत्त्वपूर्ण एवं बड़ी सहायक नदियाँ आकर इनमें मिलती हैं। किसी नदी तथा उसकी सहायक नदियों को नदी तंत्र कहा जाता है। #सिंधु_नदी_तंत्र- सिंधु नदी का उद्गम मानसरोवर झील के निकट तिब्बत में है। पश्चिम की ओर बहती हुई यह नदी भारत में जम्मू-कश्मीर के लद्दाख जिले से प्रवेश करती है। इस भाग में यह एक बहुत ही सुंदर दर्शनीय गार्ज का निर्माण करती है। इस क्षेत्र में बहुत-सी सहायक नदियाँ जैसे - जास्कर, नूबरा, श्योक तथा हुंजा इस नदी में मिलती हैं। सिंधु नदी बलूचिस्तान तथा गिलगित से बहते हुए अटक में पर्वतीय क्षेत्र से बाहर निकलती है। सतलुज, ब्यास, रावी, चेनाब तथा झेलम आपस में मिलकर पाकिस्तान में मिठानकोट के पास सिंधु नदी में मिल जाती हैं। इसके बाद यह नदी दक्षिण की तरफ बहती है तथा अंत में कराची से पूर्व की ओर अरब सागर में मिल जाती है। सिंधु नदी के मैदान का ढाल बहुत धीमा है। सिंधु द्रोणी का एकतिहाई से कुछ अधिक भाग भारत के जम्मू-कश्मीर, हिमाचल तथा पंजाब में तथा शेष भाग पाकिस्तान में स्थित है। 2,900 कि०मी० लंबी सिंधु नदी विश्व की लंबी नदियों में से एक है। #गंगा_नदी_तंत्र गंगा की मुख्य धारा ‘भागीरथी' गंगोत्री हिमानी से निकलती है तथा अलकनंदा उत्तराखण्ड के देवप्रयाग में इससे मिलती हैं। हरिद्वार के पास गंगा पर्वतीय भाग को छोड़कर मैदानी भाग में प्रवेश करती है। हिमालय से निकलने वाली बहुत सी नदियाँ आकर गंगा में मिलती हैं, इनमें से कुछ प्रमुख नदियाँ हैं - यमुना, घाघरा, गंडक तथा कोसी। यमुना नदी हिमालय के यमुनोत्री हिमानी से निकलती है। यह गंगा के दाहिने किनारे के समानांतर बहती है तथा इलाहाबाद में गंगा में मिल जाती है। घाघरा, गंडक तथा कोसी, नेपाल हिमालय से निकलती हैं। इनके कारण प्रत्येक वर्ष उत्तरी मैदान के कुछ हिस्से में बाढ़ आती है, जिससे बड़े पैमाने पर जान-माल का नुकसान होता है, लेकिन ये वे नदियाँ हैं, जो मिट्टी को उपजाऊपन प्रदान कर कृषि योग्य भूमि बना देती हैं। प्रायद्वीपीय उच्चभूमि से आने वाली मुख्य सहायक नदियाँ चंबल, बेतवा तथा सोन हैं। ये अर्द्ध शुष्क क्षेत्रों से निकलती हैं। इनकी लंबाई कम तथा इनमें पानी की मात्रा भी कम होती है। ज्ञात कीजिए कि ये नदियाँ कैसे तथा कहाँ गंगा में मिलती हैं। बाएँ तथा दाहिने किनारे की सहायक नदियों के जल से परिपूर्ण होकर गंगा पूर्व दिशा में, पश्चिम बंगाल के फरक्का तक बहती है। यह गंगा डेल्टा का सबसे उत्तरी बिंदु है। यहाँ नदी दो भागों में बँट जाती है, भागीरथी हुगली (जो इसकी एक वितरिका है), दक्षिण की तरफ बहती है तथा डेल्टा के मैदान से होते हुए बंगाल की खाड़ी में मिल जाती है। मुख्य धारा दक्षिण की ओर बहती हुई बांग्लादेश में प्रवेश करती है एवं ब्रह्मपुत्र नदी इससे आकर मिल जाती है। अंतिम चरण में गंगा और ब्रह्मपुत्र समुद्र में विलीन होने से पहले मेघना के नाम से जानी जाती हैं। गंगा एवं ब्रह्मपुत्र के जल वाली यह वृहद् नदी बंगाल की खाड़ी में मिल जाती है। इन नदियों के द्वारा बनाए गए डेल्टा को सुंदरवन डेल्टा के नाम से जाना जाता है। गंगा की लंबाई 2,500 कि०मी० से अधिक है। चित्र देखें, क्या आप गंगा नदी के अपवाह तंत्र को पहचान सकते हैं? अंबाला नगर, सिंधु तथा गंगा नदी तंत्रों के बीच जल-विभाजक पर स्थित है। अंबाला से सुंदरवन तक मैदान की लंबाई लगभग 1,800 कि॰मी॰ है, परंतु इसके ढाल में गिरावट मुश्किल से 300 मीटर है। दूसरे शब्दों में, प्रति 6 किमी की दूरी पर ढाल में गिरावट केवल 1 मीटर है। इसलिए इन नदियों में अनेक बड़े-बड़े विसर्प बन जाते हैं। #ब्रह्मपुत्र_नदी_तंत्र ब्रह्मपुत्र नदी तिब्बत की मानसरोवर झील के पूर्व तथा सिंधु एवं सतलुज के स्रोतों के काफी नजदीक से निकलती है। इसकी लंबाई सिंधु से कुछ अधिक है, परंतु इसका अधिकतर मार्ग भारत से बाहर स्थित है। यह हिमालय के समानांतर पूर्व की ओर बहती है। नामचा बारवा शिखर (7.757 मीटर) के पास पहँचकर यह अंग्रेजी के यू (U) अक्षर जैसा मोड़ बनाकर भारत के अरुणाचल प्रदेश में गॉर्ज के माध्यम से प्रवेश करती है। यहाँ इसे दिहाँग के नाम से जाना जाता है तथा दिबांग, लोहित, केनुला एवं दूसरी सहायक नदियाँ इससे मिलकर असम में ब्रह्मपुत्र का निर्माण करती हैं। तिब्बत एक शीत एवं शुष्क क्षेत्र है। अतः यहाँ इस नदी में जल एवं सिल्ट की मात्रा बहुत कम होती है। भारत में यह उच्च वर्षा वाले क्षेत्र से होकर गुजरती है। यहाँ नदी में जल एवं सिल्ट की मात्रा बढ़ जाती है। असम में ब्रह्मपुत्र अनेक धाराओं में बहकर एक गुंफित नदी के रूप में बहती है तथा बहुत से नदीय द्वीपों का निर्माण करती है। क्या आपको ब्रह्मपुत्र के द्वारा बनाए गए विश्व के सबसे बड़े नदीय द्वीप का नाम याद है? प्रत्येक वर्ष वर्षा ऋतु में यह नदी अपने किनारों से ऊपर बहने लगती है एवं बाढ़ के द्वारा असम तथा बांग्लादेश में बहुत अधिक क्षति पहुँचाती है। उत्तर भारत की अन्य नदियों के विपरीत, ब्रह्मपुत्र नदी में सिल्ट निक्षेपण की मात्रा बहत अधिक होती है। इसके कारण नदी की सतह बढ़ जाती है और यह बार-बार अपनी धारा के मार्ग में परिवर्तन लाती है। 2. #प्रायद्वीपीय_नदियाँ : प्रायद्वीपीय भारत में मुख्य जल विभाजक का निर्माण पश्चिमी घाट द्वारा होता है, जो पश्चिमी तट के निकट उत्तर से दक्षिण की ओर स्थित है। प्रायद्वीपीय भाग की अधिकतर मुख्य नदियाँ जैसे - महानदी, गोदावरी, कृष्णा तथा कावेरी पूर्व की ओर बहती हैं तथा बंगाल की खाड़ी में गिरती हैं। ये नदियाँ अपने मुहाने पर डेल्टा का निर्माण करती हैं। पश्चिमी घाट से पश्चिम में बहने वाली अनेक छोटी धाराएँ हैं। नर्मदा एवं तापी, दो ही बड़ी नदियाँ हैं जो कि पश्चिम की तरफ बहती हैं और ज्वारनदमुख का निर्माण करती हैं। प्रायद्वीपीय नदियों की अपवाह द्रोणियाँ आकार में अपेक्षाकृत छोटी हैं। #नर्मदा_द्रोणी नर्मदा का उद्गम मध्य प्रदेश में अमरकंटक पहाड़ी के निकट है। यह पश्चिम की ओर एक भ्रंश घाटी में बहती है। समुद्र तक पहुँचने के क्रम में यह नदी बहुत से दर्शनीय स्थलों का निर्माण करती है। जबलपुर के निकट संगमरमर के शैलों में यह नदी गहरे गार्ज से बहती है तथा जहाँ यह नदी तीव्र ढाल से गिरती है, वहाँ 'धुंआधार प्रपात' का निर्माण करती है। नर्मदा की सभी सहायक नदियाँ बहुत छोटी हैं, इनमें से अधिकतर समकोण पर मुख्य धारा से मिलती हैं। नर्मदा द्रोणी मध्य प्रदेश तथा गुजरात के कुछ भागों में विस्तृत है। #तापी_द्रोणी तापी का उद्गम मध्य प्रदेश के बेतुल जिले में सतपुड़ा की शृंखलाओं में है। यह भी नर्मदा के समानांतर एक भ्रंश घाटी में बहती है, लेकिन इसकी लंबाई बहुत कम है। इसकी द्रोणी मध्यप्रदेश, गुजरात तथा महाराष्ट्र राज्य में है। अरब सागर तथा पश्चिमी घाट के बीच का तटीय मैदान बहुत अधिक संकीर्ण है। इसलिए तटीय नदियों की लंबाई बहुत कम है। पश्चिम की ओर बहने वाली मुख्य नदियाँ साबरमती, माही, भारत-पुजा तथा पेरियार हैं। #गोदावरी_द्रोणी गोदावरी सबसे बड़ी प्रायद्वीपीय नदी है। यह महाराष्ट्र के नासिक जिले में पश्चिम घाट की ढालों से निकलती है। इसकी लंबाई लगभग 1,500 कि॰मी॰ है। यह बहकर बंगाल की खाड़ी में गिरती है। प्रायद्वीपीय नदियों में इसका अपवाह तंत्र सबसे बड़ा है। इसकी द्रोणी महाराष्ट्र (नदी द्रोणी का 50 प्रतिशत भाग), मध्य प्रदेश, उड़ीसा तथा आंध्र प्रदेश में स्थित है। गोदावरी में अनेक सहायक नदियाँ मिलती हैं, जैसे - पूर्णा, वर्धा, प्रान्हिता, मांजरा, वेनगंगा तथा पेनगंगा। इनमें से अंतिम तीनों सहायक नदियाँ बहुत बड़ी हैं। बड़े आकार और विस्तार के कारण इसे 'दक्षिण गंगा' के नाम से भी जाना जाता है। #महानदी_द्रोणी महानदी का उद्गम छत्तीसगढ़ की उच्चभूमि से है तथा यह उड़ीसा से बहते हुए बंगाल की खाड़ी में मिल जाती है। इस नदी की लंबाई 860 कि॰मी॰ है। इसकी अपवाह द्रोणी महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, झारखंड तथा उड़ीसा में है। #कृष्णा_द्रोणी महाराष्ट्र के पश्चिमी घाट में महाबालेश्वर के निकट एक स्रोत से निकलकर कृष्णा लगभग 1,400 कि॰मी॰ बहकर बंगाल की खाड़ी में गिरती है। तुंगभद्रा, कोयना, घाटप्रभा, मुसी तथा भीमा इसकी कुछ सहायक नदियाँ हैं। इसकी द्रोणी महाराष्ट्र, कर्नाटक तथा आंध्र प्रदेश में फैली है। #कावेरी_द्रोणी कावेरी पश्चिमी घाट के ब्रह्मगिरी श्रृंखला से निकलती है तथा तमिलनाडु में कुडलूर के दक्षिण में बंगाल की खाड़ी में मिल जाती है। इसकी लंबाई 760 कि॰मी॰ है। इसकी प्रमुख सहायक नदियाँ हैं- अमरावती, भवानी, हेमावती तथा काबिनि। इसकी द्रोणी तमिलनाडु, केरल तथा कर्नाटक में विस्तृत है। इन बड़ी नदियों के अतिरिक्त कुछ छोटी नदियाँ हैं, जो पूर्व की तरफ बहती हैं। दामोदर, ब्रह्मनी, वैतरणी तथा सुवर्ण रेखा कुछ महत्त्वपूर्ण उदाहरण हैं। ____________________________________________ #झीलें : कश्मीर घाटी तथा प्रसिद्ध डल झील, नाववाले घरों तथा शिकारा से तो आप परिचित ही होंगे, जो प्रत्येक वर्ष हज़ारों पर्यटकों को आकर्षित करते हैं। इसी प्रकार, आप अन्य झील वाले स्थानों पर भी गए होंगे तथा वहाँ नौकायान, तैराकी एवं अन्य जलीय खेलों का आनंद लिया होगा। कल्पना कीजिए की अगर कश्मीर, नैनीताल एवं दसरे पर्यटन स्थलों पर झीलें नहीं होतीं. तब क्या वे उतना ही आकर्षित करते जितना कि आज करते हैं? क्या आपने कभी यह जानने की कोशिश की है कि इन पर्यटकों को आकर्षित करने के लिए किसी स्थान पर झीलों का क्या महत्त्व है? पर्यटकों के आकर्षण के अतिरिक्त, मानव के लिए अन्य कारणों से भी झीलों का महत्त्व है। पृथ्वी की सतह के गर्त वाले भागों में जहाँ जल जमा हो जाता है, उसे झील कहते हैं। भारत में भी बहुत-सी झीलें हैं। ये एक दूसरे से आकार तथा अन्य लक्षणों में भिन्न हैं। अधिकतर झीलें स्थायी होती हैं तथा कुछ में केवल वर्षा ऋतु में ही पानी होता है, जैसे - अंतर्देशीय अपवाह वाले अर्धशुष्क क्षेत्रों की द्रोणी वाली झीलें। यहाँ कुछ ऐसी झीलें हैं, जिनका निर्माण हिमानियों एवं बर्फ चादर की क्रिया के फलस्वरूप हुआ है। जबकि कुछ अन्य झीलों का निर्माण वायु, नदियों एवं मानवीय क्रियाकलापों के कारण हुआ है। एक विसर्प नदी बाढ़ वाले क्षेत्रों में कटकर गौखुर झील का निर्माण करती है। स्पिट तथा बार (रोधिका) तटीय क्षेत्रों में लैगून का निर्माण करते हैं, जैसे - चिल्का झील, पुलीकट झील तथा कोलेरू झील। अंतर्देशीय भागों वाली झीलें कभी-कभी मौसमी होती हैं, उदाहरण के लिए राजस्थान की सांभर झील, जो एक लवण जल वाली झील है। इसके जल का उपयोग नमक के निर्माण के लिए किया जाता है। मीठे पानी की अधिकांश झीलें हिमालय क्षेत्र में हैं। ये मुख्यतः हिमानी द्वारा बनी हैं। दूसरे शब्दों में, ये तब बनीं जब हिमानियों ने या कोई द्रोणी गहरी बनायी, जो बाद में हिम पिघलने से भर गयी, या किसी क्षेत्र में शिलाओं अथवा मिट्टी से हिमानी मार्ग बँध गये। इसके विपरीत, जम्मू तथा कश्मीर की वूलर झील भूगर्भीय क्रियाओं से बनी है। यह भारत की सबसे बड़ी मीठे पानी वाली प्राकृतिक झील है। डल झील, भीमताल, नैनीताल, लोकताक तथा बड़ापानी कुछ अन्य महत्त्वपूर्ण मीठे पानी की झीलें हैं। इसके अतिरिक्त, जल-विद्युत उत्पादन के लिए नदियों पर बाँध बनाने से भी झील का निर्माण हो जाता है, जैसे- गुरु गोबिंद सागर (भाखड़ा-नंगल परियोजना)। झीलें मानव के लिए अत्यधिक लाभदायक होती हैं। एक झील नदी के बहाव को सुचारु बनाने में सहायक होती है। अत्यधिक वर्षा के समय यह बाढ़ को रोकती है तथा सूखे के मौसम में यह पानी के बहाव को संतुलित करने में सहायता करती है। झीलों का प्रयोग जलविद्युत उत्पन्न करने में भी किया जा सकता है। ये आस-पास के क्षेत्रों की जलवायु को सामान्य बनाती हैं, जलीय पारितंत्र को संतुलित रखती हैं, झीलों की प्राकृतिक सुंदरता व पर्यटन को बढ़ाती हैं तथा हमें मनोरंजन प्रदान करती हैं। [01/12, 8:26 AM] Raj Kumar: #विश्व_का_भूगोल : #पृथ्वी_की_आंतरिक_संरचना पृथ्वी के धरातल का स्वरूप पृथ्वी की आन्तरिक अवस्था और संरचना का परिणाम होता है, अतः पृथ्वी की आन्तरिक संरचना का विशेष स्थान है। पृथ्वी की आन्तरिक स्थिति कैसी है? आज भी यह एक रहस्य बना हुआ है। यद्यपि वैज्ञानिकों ने पृथ्वी की आन्तरिक रचना के बारे में जानकारी प्राप्त करने का प्रयास किया है परन्तु आज भी वैज्ञानिक इस प्रश्न का निश्चित उत्तर देने में असमर्थ हैं कि पृथ्वी के भीतर का भाग किस अवस्था में है? पृथ्वी के भीतरी भाग की भौतिक एवं रासायनिक रचना कैसी है? इन प्रश्नों का हल वैज्ञानिकों ने अनेक साधनों से ढूंढने का प्रयास किया है। पृथ्वी की आंतरिक संरचना के विषय में जानकारी देने वाले साधनों को निम्न वर्गो में विभाजित किया जा सकता है। #अप्राकृतिक_साधन : #घनत्व_पर_आधारित_प्रमाण – पृथ्वी की पपड़ी कठोर चट्टानों से निर्मित है। भूपृष्ठ की अधिकांश चट्टानें अवसादी हैं, जिनकी मोटाई 500 से 1,500 मीटर मानी जाती है। इसके नीचे आग्नेय चट्टानें पायी जाती हैं। सम्पूर्ण पृथ्वी का औसत घनत्व 5.5 है, जबकि भूपृष्ठ की अवसादी चट्टानों का घनत्व केवल 2.7 ही है। ज्वालामुखी से निकले पदार्थ का घनत्व 3 या 3.5 होता है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि पृथ्वी के आन्तरिक भाग का घनत्व 5.5 से अधिक होना चाहिए। अतः वैज्ञानिकों का मत है कि पृथ्वी का केन्द्र (Core) भारी पदाथों से निर्मित है, जिसका घनत्व 11 माना जाता है। #दबाव_पर_आधारित_प्रमाण – ऐसा अनुमान है कि पृथ्वी के धरातल से केन्द्र (भीतर) की ओर पदार्थों का भार बराबर बढ़ता जाता है। केन्द्र की ओर इस दबाव की अधिकता से भूगर्भ घने हो जाते हैं, परन्तु अनेक वैज्ञानिकों का मत है कि भीतरी पदार्थों की रचना ऊपर के धरातल पर पाए जाने वाले पदार्थों से भिन्न है। भीतरी भाग के पदार्थ भारी तत्वों से और ऊपरी पर्त के पदार्थ हल्के पदार्थों से बने हैं। अनेक वैज्ञानिकों का मत है कि पृथ्वी के केन्द्र की ओर जाने पर चट्टानों का दबाव बढ़ता जाता है। धरातल से 1,600 मीटर की गहराई पर सर्वत्र प्रति 9.29 वर्ग डेसीमीटर (1 वर्गफुट) पर 117 क्विण्टल भार पाया जाता है। इस आधार पर गणना की जाए तो पता चलेगा कि पृथ्वी के केन्द्र के पदार्थ पर एक वर्गफुट पर 5.5 हजार से 8.5 हजार टन का भार पड़ता है, परन्तु अनेक विद्वानों का मत है कि प्रत्येक चट्टान की इसी कारण अधिकांश ऐसी सीमा होती है जिससे आगे उसका घनत्व नहीं बढ़ सकता चाहे उसका दबाव कितना ही अधिक क्यों न हो। वैज्ञानिकों का मत है कि पृथ्वी का केन्द्र लोहा और निकल जैसी भारी पदार्थों से बना है। #तापक्रम_पर_आधारित_प्रमाण- पृथ्वी के भीतरी भाग में गहराई के साथसाथ ताप की मात्रा बढ़ती जाती है। आग्नेय चट्टानों, ज्वालामुखी पर्वत, गर्म जल स्रोतों, खानों में उष्णता के आधार पर यह अनुमान लगाया गया है कि पृथ्वी के केन्द्र की ओर जाने पर तापक्रम में वृद्धि होती जाती है। यह अनुमान है कि प्रति 32 मीटर गहराई पर 1°C तापक्रम बढ़ जाता है या औसत रूप में तापमान प्रति 100 मीटर पर 2° या 3° सेन्टीग्रेड की दर से बढ़ता है। इस अनुमान से पृथ्वी के 96 किलोमीटर की गहराई पर तापमान में इतनी अधिक वृद्धि हो जाएगी कि कोई भी चट्टान अथवा खनिज ठोस अवस्था में नहीं रह सकती है, किन्तु अब यह माना जाता है कि कुछ किमी पश्चात् तापमान की यह वृद्धि दर घटती जाती है। सीमा (Sima) की पट्टी में तापमान प्रायः स्थिर से (विशेष ऊंचे) बने रहते हैं, फिर अत्यधिक दबाव भी ताप को बाँधे रखता है। #प्राकृतिक_साधन : #ज्वालामुखी_पर_आधारित_प्रमाण- वैज्ञानिकों का अनुमान है कि ज्वालामुखी उद्गार के समय द्रव लावा का निकलना इस बात का प्रतीक है कि केन्द्रीय पिण्ड द्रव अवस्था में है, परन्तु यदि पृथ्वी का केन्द्र द्रव अवस्था में होता तो सूर्य और चन्द्रमा के आकर्षण से प्रभावित अवश्य होता, परन्तु वास्तव में ऐसा नहीं है। #भूकम्प_विज्ञान_पर_आधारित_प्रमाण- भूकम्पीय तरंगों का अध्ययन सीसमोग्राफ यन्त्र के माध्यम से किया जाता है। भूकम्प की तरंगों का वेग, गति आदि के आधार पर भूगर्भ की संरचना का अध्ययन किया गया है। भूकम्प की लहरें जिन-जिन भागों में पहुंचती हैं उसे भूकम्प क्षेत्र कहते हैं। भूकम्प लहरें तीन प्रकार की होती हैं- ▪️प्राथमिक लहरें (Primary waves or “P’ waves) ▪️द्वितीयक लहरें (Secondary waves or ‘S’ waves) ▪️धरातलीय लहरें (Surface Waves or ‘L’ Waves) #प्राथमिक_लहरें यह लहरें ध्वनि की लहरों के समान होती हैं, इन लहरों में ध्वनित कणों की गति लहर की रेखा के सीध में होती है। अंग्रेजी में इन लहरों को P लहरें कहा जाता है। इन लहरों की गति सबसे अधिक होती है। इनकी गति 8 से 14 किलोमीटर प्रति सेकण्ड होती है। ये लहरें ठोस पदार्थ में तीव्रता से अधिक गहराई तक प्रवेश कर जाती हैं, किन्तु द्रव या लचीलापन आने पर इनकी गति कुछ कम होने लगती है। #द्वितीयक_लहरें_गौण_अथवा_आड़ी_लहरें ये लहरें प्रकाश तथा जल की लहरों के समान होती हैं। इनमें कण लहर की दिशा के समकोण पर चलते हैं। इनकी गति 5 से 7 किलोमीटर प्रति सेकण्ड होती है। इन लहरों को अंग्रेजी के अक्षर S के नाम से पुकारा जाता है। ये लहरें भी अधिक गहराई तक प्रवेश कर जाती हैं, परन्तु तरल पदार्थों में अस्पष्ट या लुप्त हो जाती हैं। #धरातलीय_लहरें इस प्रकार की लहरें धरातल के ऊपरी भाग तक ही सीमित रहती हैं। पृथ्वी के आन्तरिक भूगर्भ में प्रवेश नहीं कर पाती हैं। ये अत्यन्त प्रभावशाली लहरें होती हैं। इन लहरों का प्रदोलन आवृति काल सभी लहरों से लम्बा होता है। इनकी गति सबसे कम होती है। इन्हें अंग्रेजी के L अक्षर द्वारा प्रदर्शित किया जाता है। इनकी गति 2 किलोमीटर प्रति सेकण्ड होती है। #भूकंपीय_लहरों_की_गति_में_भिन्नता_के_आधार #पर_पृथ्वी_के_आंतरिक_भाग : अनेक भूगर्भिक प्रमाणों जैसे भूकम्प की लहरों की गति के अध्ययन के आधार पर पृथ्वी के आन्तरिक भाग का तीन खण्डों क्रस्ट (Crust), मैण्टिल (Mantle) तथा कोर (Core) में विभक्त किया गया है- #भू_पर्पटी (Crust) : पृथ्वी के धरातल पर, जिस पर हम निवास करते हैं दो भिन्न प्रकार के भाग पाए जाते हैं। स्थल भाग तथा सागरीय तल, इनके नीचे क्रस्ट में भिन्नता पायी जाती है। महाद्वीपों के नीचे क्रस्ट की मोटाई 50 किलोमीटर तथा तथा महासागरों के नीचे 5 किलोमीटर है जबकि International Union Geodesy and Geophysics अनुसार 30 किलोमीटर बतायी गयी है। इसका औसत घनत्व 3 है। इसे पुनः निम्न दो भागों में बांटते हैं- #सागरीय_क्रस्ट (Oceanic crust) – विश्व धरातल के 65 प्रतिशत भाग पर सागरीय क्रस्ट का विस्तार है, यह सागरीय क्रस्ट लगभग 5 किलोमीटर सागरीय जल से आवृत है। यह सागरीय क्रस्ट सभी स्थानों पर संरचना की दृष्टि से समान पायी जाती है। इस क्रस्ट की मोटाई 8 किलोमीटर मानी गयी है। #महाद्वीपीय_क्रस्ट (Continental Crust) – यह क्रस्ट 25 से 50 किलोमीटर की मोटाई में महाद्वीपों के नीचे पायी जाती है। इसकी औसत मोटाई 35 किलोमीटर है। इस क्रस्ट की संरचना एक समान नहीं है। उसकी ऊपरी परत अवसादी, आग्नेय तथा रूपान्तरित चट्टानों से निर्मित है, इसके नीचे का भाग भूकम्प तरंगों से विशेष प्रभावित क्षेत्र है। #मैण्टिल (Mantle) : क्रस्ट के नीचे का भाग मैण्टिल कहलाता है। इसमें पृथ्वी का अधिकांश आयतन पाया जाता है। इसका औसत घनत्व 4.5 है इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि यह भाग भारी चट्टानों से निर्मित है। इस भाग में ऑक्सीजन और सिलिका की अधिकता पायी जाती है। इस भाग में भूकम्पीय लहरों की गति 7.9 किलोमीटर प्रति सेकण्ड के स्थान पर 8.1 किलोमीटर प्रति सेकण्ड हो जाती है। भूकम्पीय लहरों की गति के आधार पर मैण्टिल को दो भागों में विभाजित किया जाता है- #ऊपरी_मैण्टिल (Upper Mantle) – क्रस्ट के निचले भाग से ऊपरी मैण्टिल के मध्य भूकम्पीय लहरों की गति में परिवर्तन हो जाता है, गति मन्द पड़ जाती है। अतः क्रस्ट और ऊपरी मैण्टिल के मध्य असम्बद्धता की स्थिति होती है। इसकी खोज सर्वप्रथम ए. मोहोरोविसिस ने 1909 में की थी। अत: इसे मोहो असम्बद्धता भी कहते हैं अथवा केवल मोहो (Moho) भी कहा जाता है। ऊपरी मैण्टिल की मोटाई मोहो असम्बद्धता से 1,000, किमी. है, लेकिन International Union Geodesy and Geophysics ने इसकी मोटाई मोहो असम्वद्धता से 200 किलोमीटर (प्रारम्भिक मतानुसार 400 किलोमीटर) मानी है। #निम्न_मैण्टिल (Lower Mantle) –निम्न मैण्टिल परत की मोटाई 700 किलोमीटर मानी गयी है। अन्य मतानुसार इसकी मोटाई मोहो असम्बद्धता से 1,000 किमी. से 2,900 किलोमीटर मानी गयी है। इस भाग में तापमान अधिक रहते हैं। इस भाग में प्रवाहित S भूकम्पीय लहरों से पता चला है कि यह निश्चित रूप से ठोस भाग है। घनत्व में क्रमशः वृद्धि और भूकम्पीय लहरों की तीव्रता का मुख्य कारण इस भाग में दबाव की अधिकता है। अधिक गहराई पर अधिक दबाव की स्थिति रहती है, यहाँ सिलीकेट खनिजों में लोहे की मात्रा गहराई के साथ बढ़ती जाती है जिससे इस भाग का घनत्व अधिक हो गया है। ऊपरी मैण्टिल और निम्न मैण्टिल के मध्य 300 किलोमीटर चौड़ी संक्रमण परत (Transition zone) पायी जाती है। #भूक्रोड_या_पृथ्वी_का_अन्तरतम_भाग (Core or Centre of the Earth) : पृथ्वी के अन्तरतम भाग की मोटाई 3,417 किमी. मानी जाती है। इस भाग में सर्वाधिक घनत्व 10 तक या इससे अधिक पाया जाता है। इसका आयतन समस्त पृथ्वी के आयतन का केवल 16 प्रतिशत है तथा समस्त द्रव्यमान (Mass) का 32 प्रतिशत है। इस भाग में P भूकम्पीय लहरों की गति में वृद्धि हो जाती है। इसी आधार पर यह अनुमान लगाया गया है कि इस भाग में लोहे निकल धातुओं एवं ऐसी ही भारी चट्टानों की अधिकता है। इस परत को दो भागों में विभाजित किया गया है- ▪️वाह्य कोर (Outer Core) ▪️आन्तरिक कोर (Inner Core) #बाह्य_कोर - बाह्य कोर का विस्तार पृथ्वी के भीतर, धरातल से 2,900 किलोमीटर से 5,200 किलोमीटर माना है। इस परत में भूकम्पीय लहर S प्रविष्ट नहीं हो पाती है, अतः यह अनुमान लगाया जाता है कि यह परत तरल पदार्थ से निर्मित होनी चाहिए। #आन्तरिक_कोर – पृथ्वी के ऊपरी धरातल से केन्द्र की ओर 5,200 किलोमीटर की गहराई से आन्तरिक कोर की परत आरम्भ होती है और 6,371 किलोमीटर तक पायी जाती है। इस भाग का घनत्व 11 से 13.6 तक है, अतः इस भाग को ठोस किन्तु लचीली अवस्था में ही माना गया है। भूकम्पीय लहर की गति इस भाग में 11.23 किलोमीटर प्रति सेकण्ड रहती है। #पृथ्वी_की_आंतरिक_रासायनिक_संरचना : आस्ट्रिया के भू-वैज्ञानिक स्वैस के अनुसार, धरातल पर अवसादी चट्टानों के नीचे 3 परतें हैं। उनका यह मत पदार्थो की रासायनिक संरचना पर आधारित है। उनके अनुसार ये परतें हैं। 1) #सियाल- ऊपरी परत के नीचे की प्रथम परत को स्वेस ने सियाल के नाम से सम्बोधित किया है। जिसे ‘सि’ (SI) सिलिका (Silica) (लगभग 70) प्रतिशत) तथा ‘अल’ (AL) ऐलुमिनियम के लिए प्रयुक्त शब्दों से बनाया गया है। ‘सिलिका’ तथा ‘अल्युमिनियम’ दोनों पदार्थ इस परत में अधिक मात्रा में मिले हैं। इस परत का घनत्व 2.4 से 2.9 के मध्य है तथा इसकी औसत गहराई 50 से 300 किलोमीटर ऑकी गयी है। इस भाग की प्रमुख चट्टानें ग्रेनाइट हैं। 2) #सीमा- सियाल परत के नीचे, स्वेस के अनुसार, सीमा की परत पायी जाती है। इसी परत में से ज्वालामुखी लावा निःसृत होता है। यहीं से गर्म और तरल लावा पदार्थ पर्याप्त मात्रा में ज्वालामुखी को प्राप्त होता है। इस आवरण का रासायनिक संगठन ‘सी’ (SI) सिलिका और ‘मा’ (MA) मैग्नीशियम खनिजों के द्वारा होता है। इसी कारण इस आवरण का नाम स्वेस ने ‘सीमा’ रखा। इस परत में क्षारीय पदार्थों की अधिकता पायी जाती है। इसके अतिरिक्त लोहा, कैल्सियम तथा मैग्नीशियम के सिलीकेट अधिक मात्रा में पाए जाते हैं। इस आवरण में औसत घनत्व 2.9 से 4.7 तक पाया जाता है। इस परत की गहराई 1000 से 2000 किलोमीटर तक है। इस भाग में बेसाल्ट आग्नेय चट्टानों की अधिकता पायी जाती है। 3) #नीफे- सीमा आवरण के नीचे भाग को स्वेस ने नीफे नाम से सम्बोधित किया है। इस आवरण का निर्माण कठोर धातुओं के योग से हुआ है। यह कठोर पदार्थ निकिल (Ni) तथा फे (Fe) फेरियम (लोहा) हैं। इस परत का घनत्व 11 है। इसका व्यास 4,300 मील (6,880 किमी) है। यह पृथ्वी की तीसरी तथा अन्तिम परत है। इस आन्तरिक कोर Core) में लोहे की उपस्थिति चुम्बकीय शक्ति का आधार है। इस भारी क्रोड से पृथ्वी की स्थिरता Rigidity) भी प्रमाणित होती है। #भूकंपीय_लहरों_के_आधार_पर_पृथ्वी_की_संरचना : भूकंपीय लहरों के आधार पर पृथ्वी के निम्न 3 परत बताए गए हैं। 1. #स्थलमण्डल (Lithosphere)- यह पृथ्वी का ऊपरी भाग है जो सियाल परत के नाम से जाना जाता है, जिसमें ग्रेनाइट चुट्टानों की अधिकता पायी जाती है। इस भाग में मुख्यतः सिलिका, ऐलुमिनियम मिश्रित पदार्थ पाया जाता है। इस परत की मोटाई 100 किलोमीटर ऑकी गयी है। इस परत की चट्टानों का घनत्व 3.5 है। 2. #पाइरोस्फीयर (Pyrosphere)- इस आवरण को मिश्रित मण्डल भी कहते हैं। इस परत में बेसाल्ट की अधिकता पायी जाती है तथा घनत्व 5.6 है। इस परत की मोटाई 2,880 किलोमीटर तक है। 3. #बैरीस्फीयर (Barysphere) – इस परत की मोटाई 2880 किलोमीटर से आगे पृथ्वी के मध्य भाग तथा घनत्व 8 से 11 है। इस परत के निर्माण में लोहा तथा निकिल नामक खनिजों की अधिकता पायी जाती है। [01/12, 8:26 AM] Raj Kumar: #भारत_का_भूगोल : #भौतिक_विभाजन भारतीय उप महाद्वीप को निम्नलिखित भागों मे बाँटा जा सकता है। 1. हिमालय की महान पर्वत श्रंखला 2. महान उत्तरी मैदान 3. तटीय मैदान 4. प्रायद्वीपीय पठार 5. भारतीय मरुस्थल 6. द्वीप समूह 1. #हिमालय_की_महान_पर्वत_श्रंखला : हिमालय विश्व का सबसे ऊँचा पर्वत है जो की भारत की उत्तरी सीमा में स्थित है। यह नगा पर्वत (पाकिस्तान शासित कश्मीर) से नामचा बरवा (तिब्बत) तक फैला हुआ है| यह पश्चिम से पूर्व की ओर 2500 किमी० (15.50 मील) लंबा है तथा इसकी औसत चौड़ाई 200 से 400 किमी० है| माउंट एवरेस्ट (नेपाल) इसकी सबसे ऊँची छोटी है। #हिमालय_का_विभाजन हिमालय तीन समानांतर भागों में बंटा हुआ है- ▪️वृहद् हिमालय या हिमाद्री ▪️निम्न हिमालय या हिमाचल हिमालय ▪️वाह्य हिमालय या शिवालिक #वृहद्_हिमालय_या_हिमाद्री हिमाद्री की औसत ऊँचाई 1600 फीट (4900मी०) है| यह हिमालय के तीनो भाग में सबसे ऊँचा है| माउंट एवरेस्ट इसी भाग में स्थित है। माउंट एवरेस्ट, चाईना-नेपाल सीमा (ऊँचाई 8850 मी० या 29035 फीट ), कंचनजंघा, सिक्किम (ऊँचाई 8586 मी० या 28169 फीट), नंदा देवी (ऊँचाई7817 मी० या 25646 फीट), कामेत (ऊँचाई 7755 मी० 25446 फीट), त्रिशूल (ऊँचाई 7120 मी० 23359 फीट) यह तीनो उत्तरांचल में स्थित हैं| ग्रेट हिमालय ज़्यादातर बर्फ से ढँका होता है, हिमालय के ज़्यादातर ग्लेशियर इसी भाग में पाए जाते हैं। #निम्न_हिमालय_या_हिमाचल_हिमालय इसकी औसत ऊँचाई 3600 से 4600 मी० तक है तथा इसकी चौड़ाई 60 से 80 किमी० तक है| टूरिस्ट सेंटर- शिमला, मंसूरी, नैनीताल इसी रेंज में स्थित है। #वाह्य_हिमालय_या_शिवालिक हिमालय का सबसे दक्षिणी भाग इसे शिवालिक भी कहते है| इसकी औसत ऊंधई 900 से 1500 मी० है तथा चौड़ाई 10 से 50 मी० है। ____________________________________________ 2. #महान_उत्तरी_मैदान : महान उत्तरी मैदानी क्षेत्र को तीन मुख्य भागों में बाँटा गया है- ▪️पंजाब और हरियाणा के मैदान ▪️गंगा का मैदान ▪️ब्रम्हपुत्र के मैदान सतलज, गंगा व ब्रम्हपुत्र इसके अंतर्गत आते हैं| यह विश्व का सबसे उपजाऊ और घनी जनसंख्या वाला क्षेत्र है| यह क्षेत्र काँप मिट्टी से बना है। #पश्चिमी_मैदान यह सिंधु या सतलज का मैदान है| इस मैदान में मुख्य रूप से सिंधु, सतलज, ब्यास और रावी नदियाँ बहती हैं। #पूर्वी_मैदान पूर्वी मैदान को गंगा का मैदान कहते हैं तथा इसको मुक्या रूप से दो भागो ‘बांगर और खादर’ में बाँटा गया है। जहाँ बाढ़ का पानी नहीं पहुँचता है उसे बांगर कहा जाता है, और जहाँ बाढ़ का पानी प्रतिवर्ष नई मिट्टी जमा कर देता है उसे खादर कहते हैं| बांगर के मैदान का विस्तार उत्तर प्रदेश मे स्थित है तथा खादर का विस्तार बिहार और बंगाल में। #भांभर_प्रदेश जहाँ हिमालय पर्वत और सतलज गंगा के मैदान मिलते हैं, इस क्षेत्र को भांभर कहते हैं। हिमालय क्षेत्र से निकालने वाली असंख्य धाराओं द्वारा लाए गये कंकर पत्थरों से ढँका भाग भांभर कहलाता है। इस क्षेत्र में लंबी जड़ों वाले वृक्ष पाए जाते हैं परन्तु छोटे पौधे खेतों तथा जनसंख्या का प्रायः आभाव पाया जाता है। #तराई_प्रदेश भांभर का निचला प्रदेश तराई है| इस भाग में मुख्यतः दकदक और ऊँची घांस जैसे- हाथी घांस, कांस भांभर घांस पाई जाती गई। ____________________________________________ 3. #तटीय_मैदान : तटीय मैदान दो भागों में फैला है, पूर्वी तथा पश्चिमी तटीय मैदान #पश्चिमी_तटीय_मैदान इसमें गुजरात का तटीय मैदान, कोंकण का तटीय मैदान, कर्नाटक (मैसूर) का तटीय मैदान, मालाबार का तटीय मैदान आते हैं। #पूर्वी_तटीय_मैदान इसके निचले भाग को कोरोमंडल तट कहते हैं। निचला भाग जिसमें कृष्णा, गोदावरी तथा कावेरी नदियों के डेल्टा हैं, इसी को कोरोमंडल तट कहटें हैं, यह उपजाऊ क्षेत्र है| इसके तीन भाग हैं- #उत्कल_का_तटीय_मैदान- यह उड़ीसा के तट के किनारे है| यहाँ चिलका झील स्थित है टॅता महानदी के डेल्टा में ज्वारीय वन फैले हुए हैं। उपजाऊ होने के कारण यहाँ चावल और जूट की खेती होती है। #आंध्र_या_काकिनारा_का_तटीय_मैदान- इसमें कृष्णा और गोदावरी के डेल्टा स्थित हैं| इस तट पर विशाखापट्टनम, काकिनारा और मसुलिपट्टनम प्रमुख बंदरगाह है। #तमिलनाडु_या_कोरोमांडल_का_तटीय_भाग- इस भाग को मुख्यतः कावेरी नदी उपजाऊ बनती है| चेन्नई, तूतिकोरिन और नागापट्टनम यहाँ के प्रमुख बंदरगाह हैं। यहाँ मन्नार की खड़ी मोटी के लिए प्रसिद्ध है। ____________________________________________ 4. #प्रायद्वीपीय_पठार : प्रायद्वेपीय भारत या डेक्कन उत्तरी भारत मैदान के दक्षिण में फैले हुए उस भू-भाग का नाम है| जो तीन तरफ से समुद्र से घिरा है| इसको दो भागो में बाँटा गया है- ▪️मालवा का पठार ▪️दक्कन का पठार ▪️मालवा का पठार मालवा का पठार नदियों के प्रवाह के कारण टूट गया है। इस भाग में पूर्व की ओर बघेलखंड तथा पश्चिम की ओर बुंदेलखंड में, नदियों द्वारा निर्मित बीहड़ पाए जाते हैं। इस भाग में विंध्याचल की पहाड़िया, ग्वालियर की पहाड़ियाँ पाई जाती है| सतपुड़ा, अमरकंटक, छोटा नागपुर का पठार, राजमहल पहाड़ियाँ आदि मालवा के पठार के अंतर्गत पाये जाते हैं। छोटा नागपुर का पठार के अंतर्गत झारखंड में राँची, हज़ारीबाग, सिंहभूमि, पलामू, लोहारदग्गा आदि ज़िले आते हैं|इस पठार में कई गहरी नदियाँ महनदी, सोन और सुवर्णरेखा बहती है| ये पठार खनीग पदार्थो में बहुत धनी है 60 % अभ्रक और अधिकांश लोहा यहीं प्राप्त होता है। सिंहभूमि मई लोहा और क्रोमाईट मिलता है तथा छोटा नागपुर पठार में केवेलिन(चिकनी मिट्टी), टंगस्टन, चूना पत्थर, क्वॉर्ट्ज़,कोयला व तांबा आदि मिलता है छोटा नागपुर पठार को “खनिज संसाधानो का भंडार” भी कहा जाता है। सतपुडा पर्वत के . में तापी नदी की भ्रंश घाटी है। इन्ही भ्रंश घाटियों से तापी तथा नर्मदा नदियाँ बहती है ये नदियाँ पठारों से उतरते हुए अनेक जलप्रपात बनाती है। जबलपुर के निकट नर्मदा नदी का धुआँधार जलप्रपात इसका मुख्य उदाहरण है| इसमे सर्वोत्तम सफेद संगमरमर की चट्टानें मिलतीं है| नर्मदा और तापी दोनो नदियाँ पठार के सामान्य ढाल के विरुध बहती है| क्योकि जिन भ्रंश में यह बहती है| उनका ढाल पूर्व से पश्चिम की ओर है। अरवाली की पहाड़ियाँ इस क्षेत्र की सबसे ऊँची छोटी गुरु पहाड़ियाँ है| कुछ वैज्ञानिको के अनुसार ये धरातल के सबसे प्राचीन पहाड़ है, जो अभी भी मौजूद है। #दक्कन_का_पठार यह ज्वालामुखी उद्गारो के निकले लावे से बना है जो कपास की खेती के लिए विख्यात है। #मैसूर_या_कर्नाटक_का_पठार यह खनिज पदार्थों का धनी है| भारत का अधिकांश उत्तम कोयला यहीं पाया जाता है। #छत्तीसगढ़_निम्न_भूमि (गृहजात पहाड़िया) इसमें छत्तीसगढ़ के मैदान प्रमुख हैं जिसे चावल का कटोरा भी कहते हैं। अरब सागर में गिरने वाली नर्मदा, गंगा में मिलने वाली सोन, बंगाल की खाड़ी की ओर बहाने वाली महानदी, सभी का उदगम इसी क्षेत्र से होता है। #दण्डकारण्य_पठार_प्रदेश इसका अधिकांश क्षेत्र वनो से ढँका है| यह जनजाति प्रधान क्षेत्र है, लौह अयस्क की यहाँ प्रमुखता है। #पश्चिमी_घाट यहाँ सहयाद्री की पहाड़ियाँ पाई जाती हैं। दो प्रमुख दर्रे थालघाट और भोरघाट से होकर रेल व राजमार्ग निकले गये हैं। इससे कृष्णा, भीमा, गोदावरी, तुंगभद्रा नदियाँ निकल कर पूर्व की ओर बहतीं है। कृष्णा के उदगम के निकट महाराष्ट्र का प्रसिद्ध स्वास्थ वर्धक स्थान महाबलेश्वर है| यहाँ सबसे ऊँची चोटी अनाइमुडी है तथा दोद्दाबेत्ता दूसरी सबसे ऊँची चोटी है। पश्चिमी घाट समुद्र के बहुत निकट है| इसकी नदियों से कई जलप्रपात निकले हैं जैसे- कावेरी नदी का शिवसमुद्रम जलप्रपात (100मी०), गोकक नदी का गोकक प्रपात (55मी०), सरवती नदी का गुरुसोप्पा या महात्मा गाँधी जलप्रपात (भारत का सबसे ऊँचा जलप्रपात है इसकी ऊँचाई 250 मी० है), महाबलेश्वर का येना प्रपात (183मी०) पाए जाते हैं| पश्चिमी घाट में नीलगिरि की पहाड़ियाँ (पालनी, अन्नामलाई व इलायची पहाड़ियाँ) हैं। #पूर्वी_घाट नल्लबैमलाई, पालकोंडा, जावडी, शिवराय तथा अन्य पहाड़ी आती हैं। महेंद्रगिरी (1501मी०) इसकी सबसे ऊँची पहाड़ी है। ____________________________________________ 5. #भारतीय_मरुस्थल 25 सेमी.वार्षिक वर्षा या उससे कम वर्षा वाले क्षेत्र को मरुस्थल की श्रेणी में रखा जाता है। भारत में अरावली पहाड़ियों के उत्तर-पश्चिम तथा पश्चिमी किनारे पर बालू के टिब्बों से ढंका एक तरंगित मरुस्थलीय मैदान है, जिसे'थार का मरुस्थल' कहा जाता है। थार के मरुस्थल का अधिकांश भाग राजस्थान में स्थित है परंतु कुछ भाग पंजाब, हरियाणा एवं गुजरात प्रांत में भी फैला हुआ है। विश्व के मरुस्थलीय क्षेत्रों में सर्वाधिक जन घनत्व थार के मरुस्थल में ही पाया जाता है। ढाल के आधार पर थार के मरुस्थल को मुख्यतः दो भागों में बाँटा जा ढाल के आध सकता है- #उत्तरी_भाग, जिसका ढाल पाकिस्तान के सिंध प्रांत की ओर है #दक्षिणी_भाग, जिसका ढाल कच्छ के रन की ओर है। कच्छ के रन को 'सफेद मरुस्थल'भी कहा जाता है। यह क्षेत्र नमकीन दलदल से निर्मित है जो हजारों वर्ग किमी.क्षेत्र में फैला हुआ है। इस क्षेत्र की अधिकांश नदियों में केवल वर्षा के मौसम में ही जल पाया जाता है। अधिकांश नदियाँ अंतः स्थलीय प्रवाह प्रतिरूप का उदाहरण है। लूनी इस क्षेत्र की प्रमुख नदी है। इस क्षेत्र की भू-गर्भिक चट्टानी संरचना, प्रायद्वीपीय पठार का ही विस्तार है किंतु यहाँ की धरातलीय स्थलाकृतियाँ भौतिक अपक्षय एवं पवनों द्वारा निर्मित होती हैं, जैसे-रेत के टीले, बरखान, छत्रक आदि। ____________________________________________ 6. #द्वीप_समूह : केरल तट के पश्चिम में अनेक छोटे-छोटे द्वीप पाये जाते हैं, जिन्हें सम्मिलित रूप से ‘लक्षद्वीप’ कहा जाता है। इन द्वीपों की उत्पत्ति स्थानीय आधार पर हुई है और इनमें से अधिकांश प्रवाल द्वीप हैं बंगाल की खाड़ी में स्थित द्वीपों को सम्मिलित रूप से ‘अंडमान एवं निकोबार द्वीपसमूह’ कहा जाता है। ये द्वीप आकार में बड़े होने के साथ-साथ संख्या में भी अधिक हैं। इनमें से कुछ द्वीपों की उत्पत्ति ज्वालामुखी क्रिया से हुई है,जबकि अन्य द्वीपों का निर्माण पर्वतीय चोटियों के सागरीय जल में डूबने से हुआ है। भारत का सबसे दक्षिणी बिंदु, जिसे ‘इन्दिरा प्वाइंट’ कहा जाता है और जो 2005 में आई सूनामी के कारण डूब गया था, ग्रेट निकोबार द्वीप में स्थित है। [01/12, 8:26 AM] Raj Kumar: #भारत_का_भूगोल : #सामान्य_परिचय ▪️भारत की स्थिति उत्तरी गोलार्ध एवं पूर्वी देशांतर में है। ▪️भारत की आकृति चतुष्कोणीय है। ▪️भारत का अक्षांशीय विस्तार 8°4′ से 37°6′ उत्तरी गोलार्ध में है । ▪️देशांतरीय विस्तार 68°7′ से 97°25′ पूर्वी देशांतर में है । ▪️भारत का विश्व में क्षेत्रफल की दृष्टि से सातवां एवं जनसंख्या की दृष्टि से दूसरा स्थान है। ▪️भारत का कुल क्षेत्रफल 32,87,263 वर्ग कि०मी० है, जोकि विश्व के कुल क्षेत्रफल का 2.42% है। ▪️भारत में विश्व की कुल जनसंख्या का 17.5% हिस्सा निवास करता है। ▪️उत्तर से दक्षिण विस्तार 3214 कि०मी० है और पूर्व से पश्चिम में विस्तार 2933 कि०मी० है। ▪️भारत का सबसे पूर्वी बिंदु अरुणाचल प्रदेश में वलांगु (किबिथू) है। ▪️सबसे पश्चिमी बिंदु गुजरात में सक्रिय (कच्छ जिला) में है। ▪️सबसे उत्तरी बिन्दु इन्दिरा कॉल है, जो कि केन्द्र शासित प्रदेश लेह में स्थित है । ▪️सबसे दक्षिणतम बिन्दु इन्दिरा पाइंट है, इंदिरा पॉइंट को पहले पिग्मेलियन पॉइंट और पार्सन्स पॉइंट के नाम से जाना जाता था। इन्दिरा पाइंट निकोबार द्वीप समूह में स्थित है। इसकी भूमध्य रेखा से दूरी 876 कि०मी० है। ▪️प्रायद्वीपीय भारत का सबसे दक्षिणी भाग तमिलनाडु में “केप कोमोरिन” (कन्याकुमारी) में स्थित है। ▪️भारत की स्थल सीमा की लम्बाई 15200 कि०मी० है । ▪️तटीय भाग की लम्बाई है 7516 कि०मी० (द्वीप समूह मिलाकर)। केवल भारतीय प्रायद्वीप की तटीय सीमा 6100 कि०मी० है। ▪️भारतीय मानक समय रेखा 82°30′ पूर्वी देशांतर पर है। मानक समय रेखा 5 राज्यों से होकर गुजरती है । ▪️उत्तर प्रदेश (मिर्जापुर) ▪️छत्तीसगढ़ ▪️मध्य प्रदेश ▪️आंध्र प्रदेश ▪️ओडिशा ▪️भारतीय मानक समय और ग्रीनविच समय के बीच अंतर 5.30 घण्टे का है। भारतीय समय ग्रीनविच समय से आगे चलता है। ▪️सर्वाधिक राज्यों की सीमा को छूने वाला भारतीय राज्य उत्तर प्रदेश है। उत्तर प्रदेश कुल 9 राज्यों से सीमा बनाता है। ▪️उत्तराखण्ड ▪️हरियाणा ▪️दिल्ली ▪️हिमाचल प्रदेश ▪️राजस्थान ▪️मध्य प्रदेश ▪️छत्तीसगढ़ ▪️झारखण्ड ▪️बिहार ▪️भारत के कुल 9 राज्य एवं 4 केन्द्र शासित प्रदेश समुद्री तट से लगे हुए हैं। ▪️राज्य ▪️गुजरात ▪️महाराष्ट्र ▪️गोवा ▪️कर्नाटक ▪️केरला ▪️तमिलनाडु ▪️आन्ध्र प्रदेश ▪️उड़ीसा ▪️पश्चिम बंगाल ▪️केन्द्र शासित प्रदेश ▪️लक्षद्वीप ▪️अण्डमान निकोबार ▪️दमन और दीव ▪️पुदुच्चेरी (पांडिचेरी) ▪️हिमालय को छूने वाले 11 राज्य व 2 केन्द्र शासित प्रदेश हैं। ▪️राज्य ▪️हिमाचल प्रदेश ▪️उत्तराखण्ड ▪️सिक्किम ▪️अरुणाचल प्रदेश ▪️नागालैंड ▪️मणिपुर ▪️मिजोरम ▪️त्रिपुरा ▪️मेघालय ▪️असम ▪️पश्चिम बंगाल ▪️केन्द्र शासित प्रदेश ▪️जम्मू कश्मीर ▪️लेह ▪️भारत के 8 राज्यों से होकर कर्क रेखा गुजरती है। ▪️गुजरात ▪️राजस्थान ▪️मध्य प्रदेश ▪️छत्तीसगढ़ ▪️झारखण्ड ▪️पश्चिम बंगाल ▪️त्रिपुरा ▪️मिजोरम ▪️भारत का सर्वाधिक नगरीकृत राज्य गोवा है। ▪️भारत का सबसे कम नगरीकृत राज्य हिमाचल प्रदेश है। ▪️भारत का मध्य प्रदेश सबसे अधिक वन वाला राज्य है। ▪️भारत का हरियाणा सबसे कम वन वाला राज्य है । ▪️भारत का मौसिनराम (मेघालय) में सबसे अधिक वर्षा होती है । ▪️भारत के केन्द्र शासित प्रदेश लेह में सबसे कम वर्षा होती है। ▪️अरावली पर्वत सबसे प्राचीन पर्वत श्रृंखला है। ▪️हिमालय पर्वत सबसे नवीन पर्वत श्रृंखला है। [01/12, 8:26 AM] Raj Kumar: #विश्व_का_भूगोल : #पृथ्वी_का_भूगर्भिक_इतिहास उल्का पिंडों एवं चन्द्रमा के चट्‌टानों के नमूनों के अध्ययन से स्पष्ट होता है कि हमारी पृथ्वी की आयु 4.6 अरब वर्ष है । पृथ्वी पर सबसे प्राचीन पत्थर नमूनों के रेडियोधर्मी तत्वों के परीक्षण से उसके 3.9 बिलियन वर्ष पुराना होने का पता चला है । रेडियोसक्रिय पदार्थों के अध्ययन के द्वारा पृथ्वी के आयु की सबसे विश्वसनीय व्याख्या हो सकी है । पियरे क्यूरी एवं रदरफोर्ड ने इनके आधार पर पृथ्वी की आयु दो से तीन अरब वर्ष अनुमानित की है पृथ्वी के भूगर्भिक इतिहास की व्याख्या का सर्वप्रथम प्रयास फ्रांसीसी वैज्ञानिक कास्ते-द-बफन ने किया । वर्तमान समय में पृथ्वी के इतिहास को कई कल्प (Era) में विभाजित किया गया है । ये कल्प पुनः क्रमिक रूप से युगों (Epoch) में व्यवस्थित किए गए हैं । प्रत्येक युग पुनः छोटे उपविभागों में विभक्त किया गया है, जिन्हें ‘शक’ (Period) कहा जाता है । प्रत्येक शक की कालावधि निर्धारित की गई है तथा जीवों और वनस्पतियों के विकास पर भी प्रकाश डाला गया है । #पृथ्वी_के_भूगर्भिक_इतिहास_से_सम्बंधित_प्रमुख_तथ्य: 1. #आद्य_कल्प (Pre-Paleozoic Era): इसे आर्कियन व प्री-कैम्ब्रियन दो भागों में बाँटा गया है: i. #आर्कियन_काल (Archean Era): इस काल के शैलों में जीवाश्मों का पूर्णतः अभाव है । इसलिए इसे प्राग्जैविक (Azoic) काल भी कहते हैं । इन चट्‌टानों में ग्रेनाइट और नीस की प्रधानता है, जिनमें सोना और लोहा पाया जाता है । इसी काल में कनाडियन व फेनोस्केंडिया शील्ड निर्मित हुए हैं । ii. #प्री_कैम्ब्रियन_काल (Pre-Cambrian Period): इस काल में रीढ़विहीन जीव का प्रादुर्भाव हो गया था । इस काल में गर्म सागरों में मुख्यतः नर्म त्वचा वाले रीढ़विहीन जीव थे । यद्यपि समुद्रों में रीढ़युक्त जीवों का भी प्रादुर्भाव हो गया, परंतु स्थलभाग जीवरहित था । भारत में प्री-कैम्ब्रियन काल में ही अरावली पर्वत व धारवाड़ क्रम की चट्‌टानों का निर्माण हुआ । 2. #पुराजीवी_महाकल्प (Paleozoic Era): इसे प्राथमिक युग भी कहा जाता है । इसके निम्न उपभाग हैं: i. #कैम्ब्रियन_काल (Cambrian Period): इस काल में प्रथम बार स्थल भागों पर समुद्रों का अतिक्रमण हुआ । प्राचीनतम अवसादी शैलों (Sedimentary Rocks) का निर्माण कैम्ब्रियन काल में ही हुआ था । भारत में विंध्याचल पर्वतमाला का निर्माण इसी काल में हुआ था । पृथ्वी पर इसी काल में सर्वप्रथम वनस्पति एवं जीवों की उत्पत्ति हुई । ये जीव बिना रीढ़ की हड्‌डी वाले थे । इसी समय समुद्रों में घास की उत्पत्ति हुई । ii. #आर्डोविसियन_काल (Ordovician Period): इस काल में समुद्र के विस्तार ने उत्तरी अमेरिका का आधा भाग डुबो दिया, जबकि पूर्वी अमेरिका टैकोनियन पर्वत निर्माणकारी गतिविधियों से प्रभावित हुआ । इस काल में वनस्पतियों का विस्तार हुआ तथा समुद्र में रेंगने वाले जीव भी उत्पन्न हुए । स्थल भाग अभी भी जीवविहीन था । iii. #सिल्यूरियन_काल (Silurian Period): इस काल में सभी महाद्वीप पृथ्वी की कैलीडोनियन हलचल से प्रभावित हुए तथा इस काल में रीढ़ वाले जीवों का सर्वप्रथम आविर्भाव हुआ एवं समुद्रों में मछलियों की उत्पत्ति हुई । सिल्यूरियन काल में रीढ़ वाले जीवों का विस्तार मिलता है, इसलिए इसे ‘रीढ़ वाले जीवों का काल’ (Age of Vertebrates) कहते हैं । इस काल में प्रवाल जीवों का विस्तार मिलता है । स्थल पर पहली बार पौधों का उद्‌भव इसी समय हुआ । ये पौधे पत्ती विहीन थे तथा आस्ट्रेलिया में उत्पन्न हुए थे । यह काल व्यापक कैलिडोनियन पर्वतीय हलचलों का काल भी है । इसी समय स्कैंडिनेविया व स्कॉटलैंड के पर्वतों का निर्माण हुआ । iv. #डिवोनियन_काल (Devonian Period): इस काल में कैलीडोनियन हलचल के परिणामस्वरूप सभी महाद्वीपों पर ऊँची पर्वत शृंखलाएँ विकसित हुई, जिसके प्रमाण स्कैंडिनेविया, दक्षिण-पश्चिम स्कॉटलैण्ड, उत्तरी आयरलैण्ड एवं पूर्वी अमेरिका में देखे जा सकते हैं । इस काल में पृथ्वी की जलवायु समुद्री जीवों विशेषकर मछलियों के सर्वाधिक अनुकूल थी । इसी समय शार्क मछली का भी आविर्भाव हुआ । अतः इसे ‘मत्स्य युग’ (Fish Age) के रूप में जाना जाता है । इसी समय उभयचर जीवों (Amphibians) की उत्पत्ति हुई तथा फर्न वनस्पतियों की भी उत्पत्ति हुई । पौधों की ऊँचाई 40 फीट तक पहुँच गई थी । इस समय कैलिडोनियन पर्वतीकरण भी बड़े पैमाने पर हुआ तथा ज्वालामुखी क्रियाएँ भी सक्रिय हुईं । v. #कार्बोनीफेरस_काल (Carboniferous Period): इस काल में कैलीडोनियन हलचलों का स्थान आर्मेरिकन हलचलों ने ले लिया, जिससे ब्रिटेन एवं फ्रांस सर्वाधिक प्रभावित हुए तथा इस युग में उभयचरों का विकास व विस्तार बढ़ता गया । रेंगने वाले जीव (Raptiles) का भी स्थल पर आविर्भाव हुआ। इस काल में 100 फीट ऊँचे पेड़ भी उत्पन्न हुए । यह ‘बड़े वृक्षों (ग्लोसोप्टिरस वनस्पतियों) का काल’ कहलाता है । इस समय बने भ्रंशों में पेड़ों के दब जाने से गोंडवाना क्रम के चट्‌टानों का निर्माण हुआ, जिसमें कोयले के व्यापक निक्षेप मिलते हैं । vi. #पर्मियन_काल (Permian Age): इस काल में वैरीसन हलचल हुई, जिसने मुख्य रूप से यूरोप को प्रभावित किया । जलवायु धीरे-धीरे शुष्क होने लगी तथा इस समय वैरीसन हलचल के फलस्वरूप भ्रंशों के निर्माण के कारण ब्लैक फॉरेस्ट व वास्जेज जैसे भ्रंशोत्थ पर्वतों का निर्माण हुआ । स्पेनिश मेसेटा, अल्ताई, तिएनशान, अप्लेशियन जैसे पर्वत भी इसी काल में निर्मित हुए । इस समय स्थल पर जीवों व वनस्पतियों की अनेक प्रजातियों का विकास देखा गया । भ्रंशन के कारण उत्पन्न आंतरिक झीलों के वाष्पीकरण से पृथ्वी पर पोटाश भंडारों का निर्माण हुआ । 3. #मध्यजीवी_महाकल्प (Mesozoic Era): इसे द्वितीयक युग भी कहा जाता है । इसे ट्रियासिक, जुरैसिक व क्रिटेशियस कालों में बाँटा गया है: i. #ट्रियासिक_काल (Triassic Period): इस काल में स्थल पर बड़े-बड़े रेंगने वाले जीव का विकास हुआ । इसीलिए इसे ‘रेंगने वाले जीवों का काल’ (Age of Reptiles) कहा जाता है । यह काल आर्कियोप्टेरिक्स की उत्पत्ति का काल था । ये स्थल एवं आकाश दोनों में चल सकते थे । इस समय तीव्र गति से तैरने वाले लॉबस्टर (केकड़ा समूह का प्राणी) का उद्‌भव भी हुआ । स्तनधारी भी उत्पन्न होने लगे थे । मांसाहारी मत्स्यतुल्य रेप्टाइल्स सागरों में उत्पन्न हुए । रेप्टाइल्स में भी स्तनधारियों की उत्पत्ति हो गई थी । ii. #जुरैसिक_काल (Jurassic Period): इस काल में मगरमच्छ के समान मुख और मछली के समान धड़ वाले जीव, डायनासोर रेप्टाइल्स का विस्तार हुआ एवं लॉबस्टर प्राणी बढ़ते चले गए तथा इस काल में जलचर, स्थलचर व नभचर तीनों का आविर्भाव हो गया था । जूरा पर्वत का सम्बंध इसी काल से जोड़ा जाता है । पुष्पयुक्त वनस्पतियाँ इसी काल में आई थीं । iii. #क्रिटेशियस_काल (Cretaceous Period): इस काल में एंजियोस्पर्म (आवृत्तबीजी) पौधों का विकास प्रारंभ हुआ । बड़े-बड़े कछुओं का उद्‌भव भी इस काल में देखा गया । मैग्नेलिया व पोपनार जैसे शीतोष्ण पतझड़ वन के वृक्ष विकसित हुए । उत्तरी-पश्चिमी अलास्का, कनाडा, मैक्सिको, ब्रिटेन के डोबर क्षेत्र व आस्ट्रेलिया आदि में खड़िया मिट्‌टी का जमाव हुआ । पर्वतीकरण अत्यधिक सक्रिय था । रॉकी व एंडीज की उत्पत्ति आरंभ हो गई । भारत के पठारी भाग में क्रिटेशियस काल में ही ज्वालामुखी लावा का दरारी उद्‌भेदन हुआ, जिससे ‘दक्कन ट्रैप’ व काली मिट्‌टी का निर्माण हुआ है । 4. #नवजीवी_महाकल्प (Cenozoic Era): इस कल्प को तृतीयक या ‘टर्शियरी युग’ भी कहा जाता है । इसे पैल्योसीन, इओसीन, ओलीगोसीन, मायोसीन व प्लायोसीन कालों में बाँटा गया है । इसी कल्प के विभिन्न कालों में अल्पाइन पर्वतीकरण हुए तथा विश्व के सभी नवीन मोड़दार पर्वतों आल्प्स, हिमालय, रॉकी, एंडीज आदि की उत्पत्ति हुई । i. #पैल्योसीन_काल (Paleocene Period): इस युग के दौरान हुई लैरामाइड हलचल के फलस्वरूप उत्तरी अमेरिका में रॉकी पर्वतमाला का निर्माण हुआ तथा स्थल पर स्तनपाइयों का विस्तार हुआ । इसी कल्प में सर्वप्रथम स्तनपाई (Mammalians) जीवों व पुच्छहीन बंदरों (Ape) का आविर्भाव हुआ । ii. #इओसीन_काल (Eocene Period): इस युग में भूतल पर विभिन्न दरारों के माध्यम से ज्वालामुखी का उद्‌गार हुआ तथा स्थल पर रेंगने वाले जीव प्रायः विलुप्त हो गए । प्राचीन बंदर व गिब्बन म्यांमार में उत्पन्न हुए । हाथी, घोड़ा, रेनोसेरस (गैंडा), सूअर के पूर्वजों का आविर्भाव हुआ । iii. #ओलीगोसीन_काल (Oligocene Period): इस काल में ‘अल्पाइन पर्वतीकरण’ प्रारंभ हुआ एवं इसी काल में बिल्ली, कुत्ता, भालू आदि की उत्पत्ति हुई । इसी काल में पुच्छहीन बंदर का आविर्भाव हुआ, जिसे मानव का पूर्वज कहा जा सकता है । ‘वृहत् हिमालय’ की उत्पत्ति का मुख्यकाल यही है । iv. #मायोसीन_काल (Miocene Period): इस काल में अल्पाइन पर्वत निर्माणकारी गतिविधियों द्वारा सम्पूर्ण यूरोप एवं एशिया में वलनों का विकास हुआ, जिनके विस्तार की दिशा पूर्व-पश्चिम था । इस काल में बड़े आकार के (60 फीट) शार्क मछली, प्रोकानसल (पुच्छहीन बंदर), जल पक्षी (हंस, बत्तख) पेंग्विन आदि उत्पन्न हुए । हाथी का भी विकास इसी काल में हुआ । मध्य या लघु हिमालय की उत्पत्ति का मुख्य काल यही है । v. #प्लायोसीन_काल: इस काल में समुद्रों के निरन्तर अवसादीकरण से यूरोप, मेसोपोटामिया, उत्तरी भारत, सिन्ध एवं उत्तरी अमेरिका में विस्तृत मैदानों का विकास हुआ तथा इस काल में बड़े स्तनपाई प्राणियों की संख्या में कमी आई । शार्क का विनाश हो गया, मानव के पूर्वज का विकास हुआ तथाआधुनिक स्तनपाइयों का आविर्भाव हुआ । शिवालिक की उत्पत्ति इसी काल में हुई । हिमालय पर्वतमाला एवं दक्षिण के प्रायद्वीपीय भाग के बीच स्थित जलपूर्ण द्रोणी टेथिस भू-सन्नति में अवसादों के जमाव से उत्तरी विशाल मैदान का आविर्भाव इसी काल में होने लगा था । 5. #नूतन_महाकल्प (Neozoic Era): इसे चतुर्थक युग भी कहा जाता है । प्लीस्टोसीन व होलोसीन इसके दो उपभाग हैं: i. #प्लीस्टोसीन_काल (Pleistocene Period): इस युग में तापमान का स्तर नीचे आ गया, जिसके कारण यूरोप ने क्रमशः चार हिमयुग देखा । जो इस प्रकार हैं- गुंज (Gunz), मिन्डेल (Mindel), रिस (Riss) एवं वुर्म (Wurm) । विभिन्न हिमकालों के बीच में अंतर्हिम काल (Inter Glacial Age) देखे गए जो तुलनात्मक रूप से उष्णकाल था । मिन्हेल व रिस के बीच का अंतर्हिम काल सर्वाधिक लम्बी अवधि का था । उत्तरी अमेरिका में इस समय नेब्रास्कन, कन्सान, इलीनोइन या आयोवा व विंस्कासिन हिमकाल देखे गए । नेब्रास्कन व कन्सान के बीच अफ्टोनियन, कन्सान व इलीनोइन के बीच यारमाउथ, इलीनोइन व विंस्कासिन के बीच संगमन अंतर्हिम काल था । इस युग के अंत में हिम चादर पिघलते चले गए एवं स्कैंडिनेवियन क्षेत्र की ऊँचाई में निरंतर वृद्धि हुई । पृथ्वी पर उड़ने वाले ‘पक्षियों का आविर्भाव’ प्लीस्टोसीन काल में ही माना जाता है । मानव तथा अन्य स्तनपाई जीव वर्तमान स्वरूप में इसी काल में विकसित हुए । ii. #होलोसीन_या_अभिनव_काल (Holocene or Innovative Period): इस काल में तापमान वृद्धि के कारण प्लीस्टोसीन काल के हिम की समाप्ति हो गई तथा विश्व की वर्तमान दशा प्राप्त हुई जो अभी भी जारी है । इसी समय सागरीय जीव वर्तमान अवस्था को प्राप्त हुए । स्थल पर मनुष्य ने कृषि कार्य तथा पशुपालन प्रारंभ कर दिया ।

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