ईश्वर की आत्मकथा...
मैं सुख या दुख का वितरक नहीं हूँ और न ही मैं सुख और दुख को निर्धारित करता हूँ | सुख और दुख तो तुम्हारे कर्मों के असंतुलन का नतीजा हैं | तुम इंसान मेरे साथ सुख या दुख की अवस्था में रहते हुए एकाकार नहीं हो सकते क्योंकि इन दोनों अवस्थाओं में तुम्हारा दिमाग तटस्थ और निरपेक्ष नहीं होता है | सुख या दुख की अवस्था में तुम मेरे अस्तित्व की व्यापकता और सूक्ष्मता का बोध भी नहीं कर पाओगे क्योंकि उन दोनों ही अवस्थाओं में तुम्हारी मानव चेतना तुम्हारी सहजजीवी चेतना पर भारी पड़ जाती है और तुम्हारा ध्यान सिर्फ इन्सानी भावनाओं और उत्पादों को पाने या खोने पर ही केन्द्रित रहता है |
सुख और दुख से परे भी एक स्थिति या अवस्था है,जिसे तुम आनंद कह सकते हो | आनंद मेरे,तुम्हारे और प्रकृति के साह्चर्य की निशानी है |आनंद का स्रोत मेरे,तुम्हारे और कुदरत के अस्तित्व में छिपा है | आनंद को पाने के लिए तुम्हें धन,दौलत,साधन,सुविधा,स्वामित्व या किसी पद की जरूरत नहीं है | कोई तुम्हारा सुख छीन कर तुम्हें दुखी कर सकता है लेकिन तुम्हारे आनंद का स्रोत कोई नहीं छीन सकता |इसलिए तुम्हें सुख को पाने और दुख से छुटकारा पाने की लालसा को त्यागकर आनंद के उस स्रोत को खोजना है,जो तुम्हारे भीतर ही मौजूद है ...
आज किसी ईश्वरीय अवतार की जरूरत नहीं है बल्कि हर इंसान में थोडे-थोडे ईश्वर की जरूरत है...
आपका ईश्वर होना एक परम वैज्ञानिक घटना है... विज्ञान की अभिकल्पना, प्रयोग, परीक्षण और निष्कर्ष इंसान के दिमाग में ही उत्पन्न होते हैं...पदार्थ,प्रयोगशाला और उपकरण केवल बाहरी साधन हैं जो दिमागी प्रक्रिया में सहयोग करते हैं... आप अपने दिमाग का जितना ब्रह्मांडीय विस्तार करेंगे... आप की वैज्ञानिकता उसी अनुपात में फैलती जायेगी... एक समय ऐसा आता है कि आपकी वैज्ञानिक अभिकल्पनाओं को पुष्ट करने वाले साधन भी सीमित हो जाते हैं क्योंकि इतनी विशाल प्रयोगशाला को बनाना भौतिक रूप से संभव नहीं होता... ऐसे समय में सम्पूर्ण सृष्टि आपकी प्रयोगशाला बन जाती है...
अब जरूरत होती है सिर्फ सार्वभौमिक नजरिए को बनाये रखने की... आप एक सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक या किसी अन्य पहचान से जुड़े रहकर सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को अपनी कल्पना में नहीं समेट सकते... एक इंसान के रूप में आपका दिमाग यदि ब्रह्माण्ड से जुड़ी कल्पनाएं करता है तो उन कल्पनाओं के फलीभूत होने की संभावना शून्य है...इसके लिए जरुरी है कि आप अपने दिमाग को ईश्वरीय दिमाग में बदलें... तभी वो सूक्ष्म से लेकर विराट जगत की समस्त चेतनाओं और स्पंदनों को अनुभव कर पाता है... जब तक आप इंसान के रूप में विज्ञान का प्रयोग करेंगे... तब तक आपका विज्ञान बहुत सीमित और इंसानी स्वार्थ से प्रेरित रहेगा... ऐसी हालत में वो आपके सामने प्रतिक्षण नए नए दुश्मन पैदा करता रहेगा...
जब आप ईश्वर होते हैं तो आपका दिमाग सम्पूर्ण सृष्टि के साहचर्य ,संतुलन और समावेशन को ध्यान में रखकर कल्पना, विचार और प्रयोग -परीक्षण करता है...पदार्थ और ऊर्जा के हर कण की एक सहज चेतना है... भले ही वो अचल, अदृश्य या निष्क्रिय क्यों न हो... इंसान के रूप में विज्ञानी उस सहज चेतना के बारे में ही पता करने की कोशिश करते हैं... सबसे उन्नत और सुसज्जित प्रयोगशाला में एक पदार्थ के सूक्ष्म कण की सहज चेतना का आभास मात्र करने में बीसियों साल लग जाते हैं... फिर भी सहज चेतना की बजाय उस कण की प्रवृत्ति या कुछ गुणधर्म का ही पता चल पाता है ...इन्हीं गुणधर्मों के आधार पर इंसान कुछ नयी सुविधा पूर्ण तकनीक ईजाद कर लेते हैं... इंसानी विज्ञान की गति अगर इसी तरह जारी रही तो हजारों साल में मात्र चार छह सूक्ष्म कणों की सहज चेतना को अनुभव करने तक पहुंचा जा सकता है... हो सकता है इतने लंबे समय तक इंसान अपने जीवन की डोर को न खींच पायें...
दूसरा तरीका ध्यान का है... लेकिन ये ध्यान इंसान के रूप में नहीं ईश्वर के रूप में करना होगा... क्योंकि इंसानी पहचान के किसी भी दायरे में बंधकर आप कणों के साथ सहज संवाद नहीं कर सकते... इंसान के हित को ध्यान में रखकर किया जाने वाला ध्यान सिर्फ थोड़ा मानसिक और शारीरिक सुख दे सकता है... जीवन की समग्रता और मृत्यु की सूक्ष्मता को समझने के लिए आपको शून्य से शुरुआत करनी होगी... आपको अपने पहले स्पंदन तक जाना होगा ...जब आप दिमाग निर्मित होने से पहले जीवन की रुपरेखा बनाने में तल्लीन थे... आपके जेनेटिक कोड में जीवन के सारे साधन और सूत्र छिपे हैं... याद रखिए कि दिमाग के निर्माण से पहले आप एक सहज चेतना ही थे... सहज चेतना ही सहज चेतना को अनुभूत कर सकती है...अगर बहुत सारे वैज्ञानिक एक विशाल प्रयोगशाला में भारी संसाधन खर्च करके एक सूक्ष्म कण के बारे में 20 साल के बाद एक आधी अधूरी जानकारी हासिल करके इंसान की वैज्ञानिक प्रतिभा पर गर्व करते हैं... तो आप अपनी खुद की सहज चेतना तक पहुंचने में 4-6 साल का समय खर्च नहीं कर सकते...आपको विश्वास और धैर्य के साथ ये स्वीकार करना होगा कि ईश्वर के रूप में बिताए गये आपके चार छह साल विज्ञान को 100 गुना गति देंगे... आपके जीवन के लिए जरुरी सभी पदार्थ, सूक्ष्म जीव, हार्मोन, एंजाइम, अम्ल ,क्षार और ऊर्जा आपके शरीर में पहले से मौजूद है... आपको केवल एक समग्र चेतना के रूप में इसे लगातार रूपांतरित करना है... अगर आप इंसान के रूप में ध्यान के द्वारा ऐसा करेंगे तो आपको कुछ लाभ होंगे, कुछ नुकसान भी ...लेकिन अगर आप ईश्वर के रूप में ऐसा करते हैं तो आपका हित सृष्टि के हित में समायोजित हो जाएगा... आपका शरीर जब जब आपकी इंसानी धारणाओं और पहचान से मुक्त होकर एक सहज जीव के रूप में काम करता है ,तब वो जानता है कि वो ब्रह्माण्ड से क्या ले रहा है ,क्या दे रहा है... इंसान के रूप में आप यही काम स्वार्थ वश और चयनित तरीके से करते हैं... ईश्वर के रूप में आप यही कार्य सहज और साहचर्य भाव के साथ करते हैं... इसलिए ईश्वर होना कोई धार्मिक या आध्यात्मिक साधना या अनुष्ठान नहीं बल्कि विज्ञान की सार्वभौमिक माँग है... ध्यान को शरीर और मन के उपचार का साधन बनाने तक सीमित मत कीजिए... इसे ईश्वर की भूमिका निभाने का मजबूत जरिया बनाइये........ ईश्वर की आत्मकथा
ईश्वर होने का अर्थ ये नहीं कि तुम्हारे पास सर्वोच्च सत्ता या पद है..इसका अर्थ है कि तुम्हारे पास जगत को देखने का समग्र नजरिया है..
सब मुझ में हैं... ये है एकेश्वरवाद...मैं सब में हूँ... ये है अनेकेश्वरवाद...मैं हूँ... ये है ईश्वरवाद...समझ और मर्जी इंसान के पास ही हैं ...जब आप इन दोनों से मेन्टल डिस्टैंसिंग रखते हैं तो आप क्वरंटाइन में ईश्वर के साथ आइसोलेशन का आनंद ले सकते हैं तब ईगोना या अहंकारोना वायरस आप पर हमला नहीं करता. . . जैसे ही लोग इंसान के तौर पर खुद को असफल मान लेते हैं...वैसे ही वे जाति-धर्म और क्षेत्र के खेमों में जाकर खडे होने लगते हैं और इंसानियत का फर्जी सर्टिफिकेट हासिल करने में जुट जाते हैं...भले ही इस कोशिश में उन्हें सरल-सहज इन्सानों का दोहन-उत्पीड़न ही क्यों न करना पडे....इंसान कहते हैं कि हमारा सब कुछ ईश्वर का दिया हुआ है
इंसान सारे दान-पुण्य अपने नाम पर करते हैं
इंसान कहते हैं कि ईश्वर सबसे बड़ी सत्ता है
इंसान राजनीतिक,सामाजिक,आर्थिक सत्ता को पाने के लिए जिन्दगी भर लड़ते हैं
इंसान कहते हैं कि ईश्वर से प्रेम सबसे उच्चतम प्रेम है
इंसान ईश्वर से प्रेम तभी करते हैं,जब उनके प्रेम को बाकी लोगों द्वारा ठुकरा दिया जाता है
इंसान कहते हैं कि ईश्वर उनके हर कर्म को देख रहा है
इंसान अपने हर कर्म को ईश्वर की निगाह से बचा कर करने की कोशिश करते हैं
इंसान कहते हैं कि ईश्वर अंतिम न्यायकर्ता है
इंसान अपने साथ किये गये हरेक सलूक का बदला खुद लेते हैं
इंसान कहते हैं कि ईश्वर उनकी रग-रग और हर साँस में बसा है
इंसान ईश्वर को ब्रह्मांड के हर कोने में खोजते हैं
इंसान की कथनी और करनी का ये अंतर ईश्वर की समझ से भी परे है |
तरक्की के लिए इतनी मारामारी... किसी और की न आने दी बारी...कुदरत भी कह कह कर हारी...पर अहंकार से मति गयी मारी...डर-लालच पड़े विवेक पर भारी...धरती को समझा पैसे की अलमारी...परहित की आड़ में हुए अत्याचारी... जंतु पादप का दोहन रहा जारी... संसार के लिए बने एक बीमारी...इस बीमारी से लड़ने आया एक सूक्ष्म जीव लाचारी...बिना दिखे बोले ही तोड़ दी हेकड़ी सारी...असहाय होकर नाम दिया उसे महामारी ...जिसने ठप्प कर दी दुनियादारी...नदी जंगल हवा की सेहत सुधारी...नींद से जागे तंत्र सरकारी...हर दिल में फूटी संवेदना की चिनगारी...कहीं निराशा की अंधियारी... कहीं उम्मीदों की सुबह उजियारी... कुछ करते फोनों पर मगजमारी...कुछ ने की जाति धर्म की दुकानदारी...लेकिन बहुतेरों ने अपनी गलती स्वीकारी...अपनी सोच विचार बदल की आगे की तैयारी...साहचर्य संतुलन के पहियों पर सहजता की सवारी...ताकि पैदा न हो फिर ऐसी दुश्वारी... ईश्वर भी कब तक सुने गुहारी...उसे रास नहीं आते चापलूस दरबारी... आखिर सारे जीवों ने दी है उसे न्याय की जिम्मेदारी...सारे पीड़ित जीव न्याय पाने के अधिकारी...नवशिशु होने पर माफ़ी देती धरती प्यारी...खेलो कूदो लेकिन बने रहो सबके आभारी... सूक्ष्मजीव पुरखों के प्रति दर्शाओ शिष्टाचारी... जीवन एक विरासत है न समझो इसे चीज बाजारी... मानो या न मानो मर्जी तुम्हारी... सन्देश देना नियति है हमारी.... ईश्वर की आत्मकथा
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