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Wednesday, February 24, 2021
भारतीय_राजव्यवस्था_एवं_शासन : #भारत_के_नियंत्रक_एवं_महालेखा_परीक्षक [ CAG ]
भारतीय_राजव्यवस्था_एवं_शासन :
#भारत_के_नियंत्रक_एवं_महालेखा_परीक्षक [ CAG ]
अनुच्छेद 148 भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक से संबंधित है जो केंद्र और राज्य स्तर पर पूरे देश की वित्तीय व्यवस्था प्रणाली को नियंत्रित/समीक्षा करता है। भारत के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा स्वयं अपने हाथों मुहर युक्त अधिपत्र द्वारा 6 वर्ष के लिए की जाती है। अपना पद ग्रहण करने से पहले कैग (सीएजी) तीसरी अनुसूची में अपने प्रयोजन के लिए निर्धारित प्रपत्र के अनुसार, राष्ट्रपति के समक्ष शपथ या प्रतिज्ञा लेते हैं। इसे जनता के रुपयों का रखवाला भी कहा जाता है।
#नियुक्ति_और_पदावधि :
भारत के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा स्वयं अपने हाथों मुहर युक्त अधिपत्र द्वारा की जाती है। अपना पद ग्रहण करने से पहले कैग (सीएजी) तीसरी अनुसूची में अपने प्रयोजन के लिए निर्धारित प्रपत्र के अनुसार, राष्ट्रपति के समक्ष शपथ या प्रतिज्ञा लेते हैं। इसकी शपथ में निम्न विषय शामिल होते हैं ।
▪️विधि द्वारा स्थापित भारत के संविधान के प्रति सच्ची आस्था और निष्ठा प्रकट करने के लिए।
▪️भारत की संप्रभुता और अखंडता को बनाए रखने के लिए।
▪️बिना किसी भय, पक्षपात, स्नेह, दुर्भावना के साथ विधिवत और ईमानदारी से अपनी क्षमता के अनुसार तथा ज्ञान व न्याय के साथ अपने कार्यालय के कर्तव्यों का श्रेष्ठतम प्रयोग करना।
▪️संविधान और कानूनों को बनाए रखने के लिए।
कैग की अवधि 6 वर्ष की होती है। वह अपने कार्यकाल के दौरान किसी भी समय राष्ट्रपति को इस्तीफा लिखकर अपना त्यागपत्र दे सकता है। जिस आधार पर सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों को हटाया जाता है ठीक उसी प्रकार उन्हीं आधारों के अंतर्गत राष्ट्रपति द्वारा कैग को उनके पद से पदच्युत किया जा सकता है।
#सुरक्षा_उपाय_और_आजादी :
▪️कैग को ठीक उसी तरह और उसी आधार पर पद से हटाया जा सकता है जिस तरह से राष्ट्रपित द्वारा सुप्रीम कोर्ट के एक न्यायाधीश को हटाया जा सकता है। इसका मतलब है कि उन पर दुर्व्यवहार या अक्षमता साबित होने के आधार पर, केवल एक प्रभावी विशेष बहुमत के साथ दोनों सदनों द्वारा पारित प्रस्ताव के आधार पर हटाया जा सकता है।
▪️कैग के वेतन और सेवा की अन्य शर्तों का निर्धारण कानून द्वारा संसद करती है। कैग की नियुक्ति के बाद ना तो उसका वेतन और अधिकारों के संबंध में ना ही उसके अनुपस्थिति, पेंशन या सेवानिवृत्ति की आयु को कम किया जा सकता है।
▪️अपना पद पर स्थगन लगने के बाद वह भारत सरकार के अधीन या किसी राज्य के अधीन वाले कार्यालय का पात्र नहीं होता है।
▪️भारतीय लेखापरीक्षा और लेखा विभाग तथा सीएजी के प्रशासनिक शक्तियों में सेवा करने वाले व्यक्तियों के लिए सेवा शर्तों को कैग के साथ परामर्श करने के बाद राष्ट्रपति द्वारा नियम बनाकर उनका निर्धारण किया जाता है।
▪️कैग के कार्यालय के प्रशासनिक व्यय सहित सभी वेतन, भत्ते और देय पेंशन या उस कार्यालय में कार्यरत पेंशन के संबंध में, सभी का भुगतान भारत की संचित निधि द्वारा किया जाता है।
#कर्तव्य_और_शक्तियां :
संघ और राज्यों और किसी अन्य प्राधिकरण या निकाय के खातों के संबंध में संविधान का अनुच्छेद -149 कैग की शक्तियों को निर्धारित करने के लिए संसद को शक्तियां अथवा अधिकार प्रदान करता है। कैग के कर्तव्यों और कैग की शक्तियों को निर्दिष्ट करने के लिए संसद द्वारा सीएजी (कर्तव्य, शक्तियां और सेवा की शर्तें) अधिनियम 1971 को अधिनियमित किया गया था। अधिनियम में 1976 में संशोधन किया गया था।
नीचे उल्लेखित बिंदु कैग के कर्तव्य और शक्तियां हैं:
▪️सीएजी भारत की संचित निधि और प्रत्येक राज्य और प्रत्येक केंद्र शासित प्रदेश जहां पर विधान सभा होती है, के सभी व्यय का ऑडिट करता है। और यह पता लगाने के लिए कि खातों में दिखायी गयी धनराशि का वितरण सेवा या प्रयोजन के लिए कानूनी तौर पर सही तरह से किया गया कि नहीं या प्राधिकरण में जो व्यय दिखाया गया है वह उसके अनुरूप है कि नहीं, का भी ऑडिट सीएजी द्वारा किया जाता है।
▪️सीएजी आकस्मिक निधि और लोक लेखा से संबंधित संघ और राज्यों के सभी लेनदेन का ऑडिट करता है
▪️सीएजी सभी व्यापार, विनिर्माण, लाभ और हानि के खातों और बैलेंस शीट और संघ या किसी भी राज्य के किसी भी विभाग (Ii) वह आकस्मिकता निधि और लोक लेखा से संबंधित संघ और राज्यों के सभी लेनदेन ऑडिट
▪️सीएजी, व्यय, लेनदेन या उसके द्वारा आंकलित खातों की रिपोर्ट सौंपता है।
▪️सीएजी संघ या राज्य के राजस्व से काफी हद तक वित्त पोषित निकायों या प्राधिकरणों की प्राप्तियों और व्यय का ऑडिट करता है।
▪️सीएजी उन प्राप्तियों और व्ययों का आडिट और रिपोर्ट करती है जहां एक संस्था या प्राधिकरण को भारत की संचित निधि से ऋण या अनुदान प्राप्त हो रहा है। सीएजी किसी भी राज्य या किसी भी केंद्र शासित प्रदेश जहां विधानसभा है, कोई भी प्रावधान के विषय कानून के दायरे में हैं, के खातों का ऑडिट कर सकता है।
▪️सीएजी, राष्ट्रपति या किसी भी राज्य के राज्यपाल द्वारा आवेदित किसी भी प्राधिकरण के व्यय, लेनदेन का ऑडिट कर सकता है।
▪️सीएजी, राष्ट्रपति को उन फार्म के बारे में सलाह देता है जो संघ और राज्यों के खातों में रखे जाते हैं।
▪️सीएजी, राष्ट्रपति को संघ के खातों से संबंधित ऑडिट रिपोर्ट प्रस्तुत करता है। तत्पश्चात् राष्ट्रपति इस रिपोर्ट को संसद के पास भेजतें हैं।
▪️सीएजी राज्य के खातों से संबंधित रिपोर्ट राज्यपाल को प्रस्तुत करता है। तत्पश्चात राज्यपाल इस रिपोर्ट को राज्य विधायिका को देते हैं।
▪️वह किसी भी कर या शुल्क की शुद्ध आय की जांच और उसे प्रमाणित करता है।
#काम_का_दायरा :
कैग, जनता के पैसे का प्रहरी है। वह उस खर्च की गयी धनराशि की जांच करता है, जिसे कार्यपालिका एक समान रूप से कानून द्वारा स्थापित और संसद के दिशा- निर्देशों के अनुसार उपलब्ध कराती है । वह केवल संसद के प्रति जवाबदेह है जो कार्यपालिका के प्रभाव से उसको स्वंतत्र बनाती है। वह निम्नलिखित रिपोर्टें राष्ट्रपति को प्रस्तुत करता है:
▪️विनियोग खातों पर ऑडिट रिपोर्ट
▪️वित्तीय खातों का ऑडिट रिपोर्ट
▪️सार्वजनिक उपक्रमों पर लेखापरीक्षा रिपोर्ट
कैग के पास खातों की जांच अथवा ऑडिड करने की शक्तियां सीमित हैं। इसका मतलब है, कि उसके पास उस पैसे पर नियंत्रण का कोई अधिकार नहीं है जो समेकित निधि से खर्च किया जा रहा है। वह केवल तभी ऑडिट कर सकता है जब पैसा खर्च किया जा चुका होता है। इसके विपरीत ब्रिटेन के कैग के पास नियंत्रक जैसी शक्ति नहीं होती है लेकिन केवल महालेखा परीक्षक के रूप में होती है। इसके अलावा, कैग कार्यपालिका द्वारा किए गए व्यय से संबंधित दस्तावेजों नहीं मांग सकता है। वहीं दूसरी ओर, कैग पर कार्यपालिका द्वारा बार-बार मनमानी का आरोप लगाया जाता है। कैग पर कार्यकारी सरकार के नीतिगत फैसलों में हस्तक्षेप करने का आरोप लगाया लगता रहा है।
[01/12, 8:26 AM] Raj Kumar: #आधुनिक_भारत_का_इतिहास :
#स्वराज_पार्टी_का_गठन
स्वराज पार्टी की स्थापना 1 जनवरी 1923 को देशबंधु चितरंजन दास और मोतीलाल नेहरू ने की थी। पार्टी के अन्य नेताओं में हुसैन शहीद सूहरावर्दी, सुभाष चंद्र बोस विट्ठल भाई पटेल और अन्य नेता शामिल थे। इस पार्टी का पूरा नाम “कांग्रेस खिलाफत स्वराज पार्टी” था।
#स्वराज_पार्टी_की_स्थापना_किन_परिस्थितियों_में
#हुई?
5 फरवरी 1922 में चौरी चौरा कांड हुआ था। इसमें भारतीय क्रांतिकारियों ने गोरखपुर (उत्तर प्रदेश) के चौरी चौरा स्थान पर विद्रोह कर दिया और एक पुलिस चौकी को आग लगा दी जिसमें 22 पुलिसकर्मी जिंदा मारे गए। इस घटना को चौरी चौरा कांड के नाम से जाना जाता है। इस घटना के बाद महात्मा गांधी अत्यंत दुखी हुए और उन्होंने अँग्रेज़ सरकार के खिलाफ चल रहा “असहयोग आंदोलन” वापस ले लिया। बहुत से लोगों को महात्मा गांधी का यह निर्णय सही नहीं लगा।
कांग्रेस पार्टी दो भागों में बँट गई। मोतीलाल नेहरू और चितरंजन दास ने स्वराज पार्टी की स्थापना की। स्वराज पार्टी के नेता वर्तमान कांग्रेस पार्टी के कार्यों से असंतुष्ट थे। उनका सोचना था कि अब कांग्रेस पार्टी की नीति में परिवर्तन होना चाहिए। इस तरह स्वराज पार्टी के नेताओं को “परिवर्तन समर्थक” भी कहा जाता है। कांग्रेस पार्टी का दूसरा खेमा “परिवर्तन विरोधी” था और महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन को अपनाकर अंग्रेजों से आजादी पाने की योजना रखता था।
परिवर्तन विरोधी नेताओं में एमए अंसारी, सी राजगोपालचारी, वल्लभभाई पटेल और राजेंद्र नाथ प्रमुख नेता थे। इस दल का प्रथम अधिवेशन इलाहाबाद में हुआ था। स्वराज पार्टी को काफी सफलता भी मिली। केंद्रीय धारा सभा में स्वराज पार्टी के प्रत्याशियों को 101 स्थानों में से 42 स्थान मिले। बंगाल में स्वराज पार्टी को स्पष्ट बहुमत मिला। बंगाल के गवर्नर ने चितरंजन दास को सरकार बनाने का न्यौता दिया।
#स्वराज_पार्टी_के_प्रमुख_उद्देश्य :
▪️भारत को अंग्रेजों से आजादी दिलाना।
▪️गांधी जी द्वारा किए गए जा रहे “असहयोग आंदोलन” को सफल बनाना।
▪️ब्रिटिश हुकूमत के कार्यों को रोकना और उसमे अड़चन पैदा करना। ब्रिटिश हुकूमत को भारत के लिए अच्छी नीतियाँ बनाने के लिए विवश करना।
▪️काउंसिल परिषद में प्रवेश कर सरकारी बजट रद्द करना।
▪️देश को शक्तिशाली बनाने के लिए नई योजनाओं और विधायकों को प्रस्तुत करना।
▪️नौकरशाही की शक्ति में कमी करना।
▪️आवश्यक होने पर पदों का त्याग करना।
#स्वराज_पार्टी_के_प्रमुख_कार्य :
▪️स्वराज पार्टी ने मोंटफोर्ट सुधारों को नष्ट किया।
▪️बंगाल में द्वैध शासन को निष्क्रिय बना दिया।
▪️पार्टी विट्ठल भाई पटेल को केंद्रीय विधायिका का अध्यक्ष बनाने में सफल रही।
▪️स्वराज पार्टी ने कई बार असेंबली से वाकआउट किया और ब्रिटिश हुकूमत की प्रतिष्ठा को चोट पहुँचाई।
#स्वराज_पार्टी_की_नीति_में_परिवर्तन :
शुरू में स्वराज पार्टी ने असहयोग की नीति अपनाई और ब्रिटिश हुकूमत के सभी कार्यों में अडंगा लगाया, पर इसमें कुछ विशेष सफलता नहीं मिली। फिर पार्टी ने असहयोग के स्थान पर “उत्तरदायित्व पूर्ण सहयोग” की नीति अपनाई।
#स्वराज_पार्टी_में_फूट_पड़ना_और_कमजोर_होना :
स्वराज पार्टी के कुछ सदस्य अभी भी “अडंगा” नीति पर विश्वास रखते थे। इस तरह स्वराज पार्टी दो विचारधारा में बँट गई और इसमें फूट पड़ गई। ब्रिटिश सरकार ने इस स्थिति का फायदा उठाया और सहयोग करने वाले सदस्यों को विभिन्न समितियों में स्थान देकर खुश कर दिया। स्वराज पार्टी के कुछ नेताओं को 1924 में “इस्पात सुरक्षा समिति” में स्थान दिया गया। मोतीलाल नेहरू ने 1925 में “स्कीन समिति” की सदस्यता ले ली।
धीरे धीरे स्वराज पार्टी असहयोग के स्थान पर ब्रिटिश सरकार का सहयोग करने लगी। इस तरह यह पार्टी कमजोर हो गयी और अपने मूल उद्देश्य से भटक गयी। 1926 के चुनाव में स्वराज पार्टी को बहुत कम सीटें मिली।
#स्वराज_पार्टी_के_पतन_के_कारण :
▪️स्वराज पार्टी के संस्थापक चितरंजन दास की मृत्यु 16 जून 1925 में हो गई। उसके बाद यह पार्टी कमजोर हो गई।
▪️स्वराज पार्टी के कुछ नेता असहयोग नीति के समर्थक थे तो कुछ नेता सहयोग नीति के समर्थक थे। इस तरह पार्टी में फूट पड़ गई। फरीदपुर के सम्मेलन में पार्टी के नेताओं में आपसी फूट दिखाई दी।
▪️हिंदू मुस्लिम दंगा होने से भी पार्टी कमजोर हो गई। ▪️1925 में मोतीलाल नेहरू और मोहम्मद अली जिन्ना के बीच मतभेद हो गया, जिससे केंद्रीय विधान सभा में स्वराज पार्टी का प्रभाव कम हो गया।
▪️कांग्रेस पार्टी के प्रमुख नेता पंडित मदन मोहन मालवीय और लाला लाजपत राय ने एक दूसरा दल “स्वतंत्र दल” की स्थापना की, जिसमें स्वराज पार्टी के बहुत से सदस्य शामिल होने लगे। इस तरह पार्टी कमजोर हो गई। स्वतंत्र दल में हिंदुत्व का नारा दिया था।
▪️1926 ई० के समाप्ति तक स्वराज पार्टी का अंत हो गया।
#स्वराज_पार्टी_पर_महात्मा_गांधी_की_प्रतिक्रिया :
महात्मा गांधी स्वराज पार्टी द्वारा ब्रिटिश सरकार के कार्य में अडंगा लगाने (बाधा पहुंचाने) की नीति का विरोध करते थे। 1924 में महात्मा गांधी का स्वास्थ्य खराब हो गया। उनको जेल से रिहाई मिल गई।
धीरे धीरे उन्होंने स्वराज पार्टी से नजदीकी बना ली थी। महात्मा गांधी ने स्वराज पार्टी के “परिवर्तन समर्थक” नेताओं और कांग्रेस पार्टी के दूसरे खेमे के “परिवर्तन विरोधी” नेताओं- दोनों से कांग्रेस में रहने का आग्रह किया था। दोनों खेमे अपने-अपने तरह से काम करते थे।
[01/12, 8:26 AM] Raj Kumar: #भारतीय_राजव्यवस्था_एवं_शासन :
#उपराष्ट्रपति
संविधान के अनुच्छेद 63 के अनुसार, भारत का एक उपराष्ट्रपति होगा। संविधान में उपराष्ट्रपति पद से सम्बन्धित प्रावधान सं. रा. अमेंरिका के संविधान के ग्रहण किया गया है। इस प्रकार भारत के उपराष्ट्रपति का पद अमेरिकी उपराष्ट्रपति पद की कुछ परिवर्तन सहित अनुकृति है। भारत का उपराष्ट्रपति राज्य सभा का पदेन सदस्य होता है और अन्य का कोई लाभ का पद धारण नहीं करता।
#योग्यता :
उपराष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के लिए निम्नलिखित योग्यताएं आवश्यक है-
▪️भारत का नागरिक हो।
▪️35 वर्ष की आयु पूरी कर चुका हो।
▪️राज्यसभा का सदस्य निर्वाचित होने के योग्य हो।
▪️संसद के किसी सदन या राज्य विधान मण्डलों में से किसी सदन का सदस्य न हो।
गौरतलब है कि इसका तात्पर्य यह नहीं है कि संसद या राज्य विधान मंडलों का सदस्य उपराष्ट्रपति नहीं हो सकता बल्कि इसका तात्पर्य यह है कि यदि कोई व्यक्ति उपराष्ट्रपति पद के लिए निर्वाचित किया जाता है, और संसद या राज्य विधानमण्डलों में से किसी सदन का सदस्य है, तो उसे इस सदस्यता का त्याग करना पड़ता है।
भारत सरकार या किसी राज्य की सरकार के अधीन अथवा उक्त सरकारों में से किसी के नियन्त्रण में किसी स्थानीय या अन्य प्राधिकारी के अधीन लाभ का पद न धारण करता हो।
#निर्वाचन :
उपराष्ट्रपति का निर्वाचन एक ऐसे निर्वाचक मण्डल द्वारा किया जाएगा, जो संसद से दोनो सदनों से मिलकर बनेगा, अर्थात उपराष्ट्रपति का निर्वाचन राज्यसभा तथा लोकसभा के सदस्यों द्वारा किया जाएगा। राज्य विधानमंडल के सदस्य इसमें भाग नहीं लेते हैं। यह निर्वाचन आनुपानित प्रतिनिधित्व पद्धति के अनुसार एकल संक्रमणीय मत तथा गुप्त मतदान द्वारा होगा। उपराष्ट्रपति पद के लिए अभ्यर्थी का नाम 20 मतदाताओं द्वारा प्रस्तावित और 20 मतदाताओं द्वारा समर्थित होना आवश्यक है। और साथ ही अभ्यर्थियों द्वारा 15,000 ₹ की जमानत राशि जमा करना आवश्यक होता है।
#उपराष्ट्रपति_के_निर्वाचन_से_सम्बन्धित_विवाद :
उपराष्ट्रपति के निर्वाचन से सम्बन्धित किसी विवाद का निर्णय उच्चतम् न्यायालय द्वारा किया जाएगा (अनुच्छेद 71)। यदि निर्वाचित उपराष्ट्रपति के पद ग्रहण के बाद उच्चतम न्यायालय द्वारा उपराष्ट्रपति के निर्वाचन को अवैध घोषित किया जाता है, तो पद पर रहते हुए उपराष्ट्रपति द्वारा किये गये कार्य को अवैध नहीं माना जाएगा।
#पदावधि :
उपराष्ट्रपति अपने पद ग्रहण की तिथि से पांच वर्ष तक अपने पद पर बना रहेगा और यदि उसका उत्तराधिकारी इस पांच वर्ष की अवधि के दौरान नहीं चुना जाता है, तो वह तब तक अपने पद पर बना रहेगा, जब तक उसका उत्तराधिकारी निर्वाचित होकर पद ग्रहण नहीं कर लेता।
लेकिन उपराष्ट्रपति अपने पद ग्रहण की तरीख से पांच वर्ष के अन्दर ही अपने पद से निम्नलिखित ढंग से हट सकता है या हटाया जा सकता हैः-
▪️राष्ट्रपति को अपना त्याग-पत्र देकर।
▪️राज्य सभा द्वारा संकल्प पारित कर।
उपराष्ट्रपति को पद से हटाने के लिए संकल्प राज्यसभा में पेश किया जाता है लेकिन उपराष्ट्रपति को पद से हटाने का संकल्प राज्यसभा में पेश करने से पहले उसकी सूचना उसे 14 दिन पूर्व देनी आवश्यक है। राज्यसभा में संकल्प पारित होने के बाद उसे अनुमोदन के लिए लोकसभा में भेजा जाता है। यदि लोकसभा संकल्प को अनुमोदित कर देती है, तो उपराष्ट्रपति को पद से हटा दिया जाता है।
कार्यवाहक राष्ट्रपति के रूप में कार्य करने की स्थिति में उपराष्ट्रपति को महाभियोग द्वारा केवल उसी प्रक्रिया के तहत हटाया जा सकेगा जिस प्रक्रिया से संविधान में राष्ट्रपति पर महाभियोग स्थापित करने का प्रावधान है ।
#पुनर्निवाचन_से_लिए_पात्रता :
जो व्यक्ति उपराष्ट्रपति पद की आवश्यक योग्यता को धारण करता है, वह एक से अधिक कार्यकाल के लिए निर्वाचित किया जा सकता है। लेकिन डा. सर्वपल्ली राधाकृष्णन के दो बार निर्वाचित किये जाने के बाद अब यह सामान्य परम्परा बन गयी है कि किसी व्यक्ति को एक बार ही उपराष्ट्रपति पद के लिए निर्वाचित किया जाय।
#शपथ_या_प्रतिज्ञान :
उपराष्ट्रपति अपना पद ग्रहण करने के पूर्व राष्ट्रपति अथवा उसके द्वारा इस प्रयोजन के लिए नियुक्त किसी व्यक्ति के समक्ष शपथ लेता है तथा शपथ पत्र पर हस्ताक्षर करता है (अनुच्छेद-69)।
उपराष्ट्रपति का शपथ-पत्र का प्रारूप निम्नलिखित रूप में निर्धारित होता है-
“मै, अमुक ईश्वर की शपथ लेता हूँ, सत्य निष्ठा से प्रतिज्ञाण करता हूँ कि मै विधि द्वारा स्थापित भारत के संविधान के प्रति सच्ची श्रद्धा और निष्ठा रखूंगा तथा जिस पद को मै ग्रहण करने वाला हूँ उसके कर्तब्यों का श्रद्धापूर्वक निर्वहन करूंगा ।”
उपराष्ट्रपति के पद की रिक्त को भरने के लिए निर्वाचन करने का समय तथा आकस्मिक रिक्त को भरने के लिए निर्वाचित व्यक्ति की पदावधि उपराष्ट्रपति के पदावधि की समाप्ति से हुई रिक्ति को भरने के लिए निर्वाचन पदावधि की समाप्ति से पूर्व किया जाएगा तथा उपराष्ट्रपति की मृत्यु, पद त्याग या पद से हटाये जाने या अन्य कारण से हुई उसके पद में रिक्ति को भरने के लिए निर्वाचन रिक्ति कोने के पश्चात् यथाशीघ्र किया जाएगा और रिक्त को भरने के लिए निर्वाचित व्यक्ति अपने पद ग्रहण की तारीख से पांच वर्ष की पूरी अवधि तक पद धारण करने का हकदार होगा (अनुच्छेद 68)। पदावधि के दौरान उपराष्ट्रपति की मृत्यु हो जाने की स्थिति में रिक्त हुए पद को कार्यवाहक उपराष्ट्रपति के द्वारा भरे जाने संबंधी कोई संवैधानिक व्यवस्था नहीं है। इस प्रकार ऐसी स्थिति में उपराष्ट्रपति का पद केवल निर्वाचन के द्वारा की भरा जाएगा ।
#वेतन_एवं_भत्ते :
उपराष्ट्रपति अपने पद का वेतन नहीं ग्रहण करता, बल्कि वह राज्यसभा के सभापति के रूप में अपना वेतन ग्रहण करता है। वर्तमान समय में राज्यसभा के सभापति का वेतन 4 लाख रू. प्रतिमाह है । इस वेतन के अतिरिक्ति उपराष्ट्रपति को विना किराये का सुसज्जित मकान आवास के लिए दिया जाता है। राज्यसभा के सभापति के रूप में उपराष्ट्रपति को वेतन भारत की संचित निधि से दिया जाता है। उपराष्ट्रपति के वेतन या भत्ते में उसकी पदावधि के दौरान कमी नहीं की जा सकती। पदावधि के दौरान मृत्यु होने की स्थिति में उपराष्ट्रपति को पारिवारिक पेंशन, आवास और चिकित्सा सुविधाएं प्राप्त है। उपराष्ट्रपति के निधन अथवा सेवा निवृत्त की स्थिति में पत्नी अथवा पति को पेंशन प्राप्त होगी।
#कार्य_एवं_शक्तियाँ :
उपराष्ट्रपति को संविधान द्वारा निम्नलिखित कार्य तथा शक्तियां सौपी गयी हैं-
1.#कार्यवाहक_राष्ट्रपति_के_रूप_में_कार्य-अनुच्छेद 65 के अनुसार राष्ट्रपति की मृत्यु या उस द्वारा त्याग पत्र दे देने या महाभियोग प्रक्रिया के अनुसार उसके पदमुक्त होने या उसकी अनुपस्थिति के कारण जब राष्ट्रपति का पद रिक्त हो जाता है, तब उपराष्ट्रपति, राष्ट्रपति के कर्तब्यों का निर्वहन करता है तथा राष्ट्रपति की शक्तियों का प्रयोग करता है जब उपराष्ट्रपति, राष्ट्रपति कृत्यों का निर्वहन कर रहा होता है, तब वह ऐसी उपलब्धियों, भत्तों और विशेषाधिकारों का हकदार होता है, जिनका हकदारा राष्ट्रपति होता है । उपराष्ट्रपति जब राष्ट्रपति के रूप में कार्य करता है या राष्ट्रपति के कृत्यों का निर्वहन करता है, उस अवधि के दौरान वह राज्य सभा के कर्तव्यों का पालन नहीं करेगा।
2.#राज्यसभा_के_सभापति_के_रूप_में-अनुच्छेद- 64 में दी गयी व्यवस्था के अनुसार राज्यसभा के सभापति के रूप में उपराष्ट्रपति निम्नलिखित कार्यो को करता है-
▪️वह राज्यसभा के कार्यो का संचालन करता है, राज्यसभा में अनुशासन बनाये रखता है तथा आज्ञा का अनुपालन न करने वाले सदस्यों को सदन से निर्वासित करवा सकता है ।
▪️वह राज्य सभा के किसी भी सदस्य को सदन में भाषण देने की अनुज्ञा देता है तथा उसकी अनुज्ञा के बिना कोई भी सदस्य सदन में भाषण नहीं दे सकता ।
▪️वह सदन में पेश किये गये विधेयकों पर विचार विमर्श करवाता है । वह विचार-विमर्श के बाद मतदान करवाता है तथा उसका परिणाम घोषित करता है।
▪️उसको यह निर्णय करने की शक्ति प्राप्त है कि कौन सा प्रश्न सदन में पूंछने योग्य है ।
▪️वह सदन में असंसदीय भाषा के प्रयोग को रोकता है तथा यह आदेश दे सकता है कि असंसदीय भाषा को अभिलेख से निकाल दिया जाय।
▪️वह राज्यसभा द्वारा पारित विधेयकों पर हस्ताक्षर करता है ।
▪️वह राज्यसभा के विशेषाधिकारों का उलंघन करने वाले व्यक्तियों को प्रताड़ित करता है ।
#सूचना_देने_का_कर्तव्य :
भारत का राष्ट्रपति जब कभी त्यागपत्र देता है, तो वह अपना त्यागपत्र उपराष्ट्रपति को देता है। जब उपराष्ट्रपति राष्ट्रपति का त्यागपत्र प्राप्त करे, तो उसका कर्तव्य बनता है कि वह राष्ट्रपति के त्यागपत्र की सूचना लोकसभा के अध्यक्ष को दे।
#अन्यकार्य :
उपराष्ट्रपति को संविधान के द्वारा कोई औपचारिक कार्यपालिकीय शक्ति प्राप्त नहीं है, फिर भी व्यवहार में उसे मंत्रिमंडल के समस्त निर्णयों की सूचना प्रदान की जाती है। उपराष्ट्रपति विभिन्न राजकीय यात्राओं में राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करता है। इन सब के अतिरिक्त उपराष्ट्रपति दिल्ली विश्वविद्यालय का पदेन कुलपति होता है।
[01/12, 8:26 AM] Raj Kumar: #भारतीय_राजव्यवस्था_एवं_शासन :
#केंद्रीय_मंत्रिपरिषद
यद्यपि सैद्धांतिक रूप से संविधान द्वारा प्रदान की गई समस्त कार्यपालिका शक्ति राष्ट्रपति में निहित है तथापि यथार्थ में कार्यपालिका की समस्त सत्ता मंत्रिपरिषद में निहित होती है। वास्तव में शासन की सभी शक्तियों का प्रयोग मंत्रिपरिषद ही करती है।
संविधान के अनुच्छेद-74 में यह उल्लिखित है कि राष्ट्रपति को उसकी शक्तियों को प्रयोग करने में सहायता और सलाह देने के लिए एक मंत्रिपरिषद होगी जिसका प्रधान, प्रधानमंत्री होगा और राष्ट्रपति इसकी सलाह के अनुसार कार्य करेगा। लेकिन राष्ट्रपति मंत्रिपरिषद की सलाह पर पुनर्विचार करने की अपेक्षा कर सकता है। राष्ट्रपति ऐसे पुनर्विचार के बाद दी गई सलाह के अनुसार ही कार्य करेगा।
संघीय स्तर पर संवैधानिक तंत्र के अवरुद्ध हो जाने तथा राष्ट्रपति के सीधे शासन के परिप्रेक्ष्य में कोई उपबंध नहीं है, जैसा कि राज्यों के लिए अनुच्छेद-356 में उल्लिखित है।
विशेषतया 42वें एवं 44वें संवैधानिक संशोधनों के बाद राष्ट्रपति के लिए यह बाध्यकारी हो गया है कि वह मंत्रिपरिषद के परामर्श को स्वीकार करे। लेकिन राष्ट्रपति द्वारा मंत्रिपरिषद की सलाह की स्वीकृति कोई स्वतः यांत्रिक प्रक्रिया नहीं है। राष्ट्रपति को यह अधिकार प्रदान किया गया है कि वह उस पर विचार करते समय अपनी बुद्धि का प्रयोग करे। 44वां संशोधन राष्ट्रपति को इस बात का अवसर प्रदान करता है कि वह मंत्रिपरिषद को सलाह एवं चेतावनी दे और किसी मामले पर पुनर्विचार किए जाने का आग्रह करे और उसके उपरांत ही प्रस्तावित कार्यविधि को स्वीकार करे और उस पर अपने अनुमोदन की मोहर लगाए।
#मंत्रिपरिषद_का_निर्माण :
अनुच्छेद 75 के अनुसार प्रधानमंत्री का चयन राष्ट्रपति करता है और अन्य मंत्री प्रधानमंत्री की सलाह पर राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त किये जाते हैं। मंत्री राष्ट्रपति के प्रसादपर्यंत पद धारण करते हैं। मंत्रिपरिषद सामूहिक रूप से लोकसभा के प्रति उत्तरदायी होती है। मंत्री अपने पद और गोपनीयता की शपथ राष्ट्रपति के समक्ष लेते हैं। कोई मंत्री, जो निरंतर 6 मास की किसी अवधि तक संसद के किसी सदन का सदस्य नहीं रहता है, उस अवधि की समाप्ति पर मंत्री पद धारण नहीं कर सकता।
संविधान के 91वें संशोधन अधिनियम, 2003 के अंतर्गत यह व्यवस्था की गई है कि संसद के किसी भी सदन के उस सदस्य को, जिसे दसवीं अनुसूची के अंतर्गत सदस्यता के अयोग्य सिद्ध कर दिया गया है, मंत्री बनने के लिए भी अयोग्य माना जाएगा तथा उसे मंत्री नियुक्त नहीं किया जा सकेगा। इस प्रकार यह सदस्य सदन की अवधि की समाप्ति तक या जब तक वह पुनर्निर्वाचित न हो, इनमें से जो भी पहले हो, मंत्री नियुक्त नहीं किया जा सकता है।
राष्ट्रपति अनिवार्यतः बहुमत दल के नेता को ही प्रधानमंत्री पद के लिए आमंत्रित करता है। कुछ परिस्थितियों में राष्ट्रपति को प्रधानमंत्री की नियुक्ति में स्वविवेक से कार्य करने का अवसर मिल सकता है-
▪️उस समय जब लोकसभा में किसी भी दल का बहुमत अस्पष्ट हो।
▪️उस समय जब बहुमत वाले दल में कोई निश्चित नेता नहीं रहे या प्रधानमंत्री पद के दो प्रभावशाली दावेदार हों।
▪️राष्ट्रीय संकट के समय राष्ट्रपति, लोकसभा को भंग करके कुछ समय के लिए स्वेच्छा से कामचलाऊ सरकार का नेता मनोनीत कर सकता है।
#मंत्रिपरिषद_की_संरचना :
संविधान केवल मंत्रियों का उल्लेख करता है। वह मंत्रिमंडल के मंत्रियों, उप-मंत्रियों आदि के रूप में मंत्रियों के किसी वर्गीकरण या श्रेणीक्रम का उल्लेख नहीं करता। लेकिन मंत्रिपरिषद का उल्लेख करता है। मंत्रिमंडल का गठन कैबिनेट स्तर के मंत्रियों से होता है। कैबिनेट मंत्रियों के कार्यों में सहायता देने के लिएजब राज्य मंत्रियों और उपमंत्रियों को नियुक्त किया जाता है तो इन समस्त मंत्रियों के समूह को मंत्रिपरिषद कहा जाता है। मंत्रिपरिषद तीन स्तरीय होता है-
▪️कैबिनेट स्तर का मंत्री,
▪️राज्य स्तर का मंत्री, तथा;
▪️उपमंत्री।
वर्ष 2008 तक संविधान में यह नहीं लिखा था कि मंत्रिपरिषद में कितने मंत्री होंगे प्रधानमंत्री उतने मंत्री नियुक्त कर सकता था जितने वह ठीक समझे। 2008 में पारित संविधान के 91वें संशोधन अधिनियम से स्थिति बदल गई है। अब इस अधिनियम के अनुसार प्रधानमंत्री सहित मंत्रियों की कुल संख्या लोक सभा की सदस्य संख्या के 15 प्रतिशत से अधिक नहीं हो सकती।
#मंत्रियों_की_विभिन्न_श्रेणियां :
मंत्रिपरिषद के सभी मंत्री एक ही पंक्ति या श्रेणी के नहीं होते। संविधान में मंत्रियों का विभिन्न पंक्तियों में वर्गीकरण नहीं किया गया है किंतु व्यवहार में चार श्रेणियां स्वीकार की जाती हैं।
#कैबिनेट_मंत्री: ऐसे मंत्री को मंत्रिमंडल की प्रत्येक बैठक में उपस्थित होने और भाग लेने का अधिकार है। अनुच्छेद 352 के अधीन आपात की उदघोषण के लिए सलाह प्रधानमंत्री और अन्य कैबिनेट मंत्री मिलकर देंगे। उल्लेखनीय है कि मूल संविधान में कैबिनेट शब्द का उल्लेख नहीं किया गया था लेकिन 44वें संविधान संशोधन (1978) के द्वारा कैबिनेट शब्द को अनुच्छेद 352 में स्थान प्रदान किया गया।
#स्वतंत्र_प्रभार_वाले_राज्य_मंत्री: यह किसी कैबिनेट मंत्री के अधीन काम नहीं करता। जब उसके विभाग से संबंधित कोई विषय मंत्रिमंडल की कार्यसूची में होता है तो उसे बैठक में उपस्थित होने के लिए आमंत्रित किया जाता है।
#राज्य_मंत्री: इसके पास किसी विभाग का स्वतंत्र प्रभार नहीं होता और वह कैबिनेट मंत्री के अधीन कार्य करता है। ऐसे मंत्री को उसका कैबिनेट मंत्री कार्य आवंटित करता है।
#उप_मंत्री: ऐसे मंत्री कैबिनेट मंत्री या स्वतंत्र प्रभार वाले राज्य मंत्री के अधीन कार्य करता है।
प्राधानमंत्री कैबिनेट मंत्रियों और स्वतंत्र प्रभार वाले राज्य मंत्रियों के विभाग का आवंटन करता है। अन्य मंत्रियों के कार्य का आवंटन उनके कैबिनेट मंत्री करते हैं। मंत्री लोक सभा या राज्य सभा से चुने जा सकते हैं। जो मंत्री एक सदन का सदस्य है वह दूसरे सदन में बोल सकता है और उसकी कार्यवाहियों में भाग ले सकता है। किंतु मंत्री मतदान उसी सदन में कर सकता है जिसका वह सदस्य है।
#मंत्रियों_का_कार्यकाल :
संविधान के अनुच्छेद 75(2) के अनुसार भी मंत्री राष्ट्रपति की इच्छापर्यंत अपने पद पर आसीन रहेंगे। किंतु व्यावहारिक दृष्टिकोण से राष्ट्रपति की इच्छा का अभिप्राय प्रधानमंत्री की इच्छा है। संसदीय शासन प्राप्त है तब तक वह अपने पद पर कायम रह सकता है। यदि कोई मंत्री अयोग्य सिद्ध हो अथवा वह प्रधानमंत्री की नीतियों से सहमत न हो तो प्रधानमंत्री उस मंत्री को त्यागपत्र देने पर विवश कर सकता है और यदि वह त्यागपत्र नहीं देता है तो प्रधानमंत्री के परामर्श से राष्ट्रपति उसे बर्खास्त कर सकता है।
#उत्तरदायित्व :
#सामूहिक_उत्तरदायित्व : अनुच्छेद 75(3) के अनुसार, मंत्रिपरिषद लोकसभा के प्रति सामूहिक रूप से उत्तरदायी होती है। मंत्रिमंडल की यह संवैधानिक बाध्यता है कि विधानमंडल के निर्वाचित सदन का विश्वास खोते ही शीघ्र पदत्याग कर दे। यह सामूहिक उत्तरदायित्व लोकसभा के प्रति है चाहे मंत्री राज्यसभा के भी हों। यदि किसी मंत्री के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव लाया जाता है तो संपूर्ण मंत्रिमंडल के लिए पदत्याग करना आवश्यक हो जाता है अथवा पदत्याग न करके मंत्रिमंडलराष्ट्रपति की विधानमंडल को भंग करने का परामर्श देता है, क्योंकि सदन निर्वाचन मंडल के मत का सही प्रतिनिधित्व नहीं करता है।
#राष्ट्रपति_के_प्रति_व्यक्तिगत_उत्तरदायित्व : राज्य के प्रधान के प्रति व्यक्तिगत उत्तरदायित्व का सिद्धांत अनुच्छेद 75(2) में समाविष्ट है- मंत्री राष्ट्रपति के प्रसादपर्यंत अपने पद पर बने रहेंगे। यद्यपि सामूहिक रूप से मंत्रीगण विधानमंडल के प्रति उत्तरदायी होते हैं, किंतु वे व्यक्तिगत रूप से कार्यपालिका के प्रधान के प्रति उत्तरदायी होंगे और विधान मंडल का विश्वास प्राप्त होने पर भी उन्हें पदच्युत किया जा सकेगा।
व्यावहारिक दृष्टिकोण से व्यक्तिगत रूप में मंत्रियों को पदच्युत करने के लिए प्रधानमंत्री ही राष्ट्रपति की सलाह देता है। इसलिए राष्ट्रपति की यह शक्ति वास्तव में प्रधानमंत्री की अपने सहकर्मियों के संदर्भ में प्राप्त अप्रत्यक्ष शक्ति है, जैसा कि इंग्लैंड में है।
#मंत्रियों_का_विधिक_उत्तरदायित्व : भारतीय संविधान द्वारा विधिक उत्तरदायित्व का सिद्धांत, जैसा कि इंग्लैंड में है, अंगीकार नहीं किया गया है। इंग्लैंड में सम्राट बिना किसी मंत्री के हस्ताक्षर के कोई संकल्पना और उसका विकास प्रतिनिधानात्मक लोकतंत्र के सर्वोच्च सिद्धांतों के आधार पर किया गया है, जो कि लोकसभा में जनता के सीधे निर्वाचित प्रतिनिधियों के प्रति सरकार का दायित्व है। वस्तुतः भारत में राज्य के उन कार्यों के लिए मंत्रियों का कोई क़ानूनी उत्तरदायित्व नहीं होता जो राष्ट्रपति के नाम से किए जाते हैं। उनके बारे में प्रामाणीकरण के रूप में प्रति-हस्ताक्षर की अपेक्षा मंत्री से नहीं की जाती बल्कि उसकी अपेक्षा सरकार के किसी सचिव से की जाती है।
संविधान में यह उपबंध भी है कि कार्यपालिका के प्रधानको मंत्रियों ने क्या परामर्श दिया था, इसके विषय में न्यायालय कोई जांच नहीं कर सकेंगे। यदि राष्ट्रपति का कोई कार्य, उसके द्वारा बनाए गए नियमों के अनुसार भारत सरकार के किसी सचिव द्वारा अधिप्रमाणित किया जाता है तो उस कार्य के लिए कोई मंत्री उत्तरदायी नहीं हो सकता।
#मंत्रिमंडल_के_कार्य_एवं_शक्तियां :
मंत्रिमंडल का गठन प्रधानमंत्री के परामर्श से राष्ट्रपति द्वारा किया जाता है। परंतु व्यावहारिक रूप में कार्यपालिका की वास्तविक शक्ति मंत्रिमंडल में निहित होती है, राष्ट्रपति मंत्रिमंडल के परामर्श के अनुसार अपनी शक्तियों का प्रयोग करता है। भारत में मंत्रिमंडल के प्रमुख कार्य अग्रलिखित हैं:
#राष्ट्रीय_नीतियों_का_निर्धारण: मंत्रिमंडल का सबसे अधिक महत्वपूर्ण कार्य राष्ट्रीय नीतियों का निर्धारण करना है। मंत्रिमंडल के द्वारा यह निश्चय किया जाता है कि आंतरिक क्षेत्र में प्रशासन के विभिन्न विभागों के द्वारा और वैदेशिक क्षेत्र में दूसरे देशों के साथ संबंधों के विषय में किस प्रकार की नीति अपनाई जाएगी। मंत्रिमंडल के द्वारा नीति निर्धारित करने के बाद संबद्ध विभागों के द्वारा इस नीति के आधार पर विभिन्न विधेयक संसद में प्रस्तुत किए जाते हैं। कानून निर्माण का कार्य मंत्रिमंडल की इच्छा पर ही निर्भर करता है। मंत्रिमंडल युद्ध और शांति दोनों ही स्थितियों में निर्णय लेता है। राष्ट्रपति के अभिभाषणों को भी मंत्रिमंडल ही तैयार करता है।
#विधि_निर्माण_में_संसद_का_नेतृत्व_करना : मंत्रिमंडल संसद का नेतृत्व करता है। दोनों सदनों के अध्यक्ष मंत्रिमंडल के परामर्श से ही सदन की कार्य सूची तय करते हैं और यह निश्चित करते हैं कि प्रत्येक विषय की कितना समय प्रदान किया जाएगा। संसद में अधिकांश विधेयक मंत्रियों द्वारा ही प्रस्तुत किए जाते हैं। व्यवहारतः, राष्ट्रपति के अधिकारों का प्रयोग मंत्रिमंडल ही करता है। अध्यादेश जारी करने का अधिकार राष्ट्रपति को प्राप्त है, लेकिन व्यवहार में इसका प्रयोग मंत्रिमंडल ही करता है। मंत्रिमंडल के सदस्य विभिन्न विभागों के अध्यक्ष होते हैं। वे अपने विभागों का संचालन और उनके कार्यों की देखभाल करते हैं।
#लोकसभा_के_विघटन_की_शक्ति: कानूनी तौर पर लोकसभा को भंग करने का अधिकार राष्ट्रपति को है, परंतु राष्ट्रपति अपनी इस शक्ति का प्रयोग मंत्रिमंडल की सलाह पर ही करता है। इस प्रकार मंत्रिमंडल के पास ऐसी शक्ति है जिससे लोकसभा पर अंकुश रखा जा सदन अपनी अवधि से पहले ही भंग हो जाए।
#वित्तीय_कार्य : देश की आर्थिक नीति निर्धारित करने का उत्तरदायित्व भी मंत्रिमंडल का ही होता है। बजट का निर्माण, नये कर लगाना तथा पुराने करों की दरों में हेरफेर करना, आदि मंत्रिमंडल के प्रमुख कार्यों में सम्मिलित हैं। मंत्रिमंडल की सहमति के पश्चात् ही वित्त मंत्री बजट लोकसभा में प्रस्तुत करता है। अन्य वित्त विधेयकों को भी मंत्रिमंडल ही लोकसभा में प्रस्तुत करता है।
#वैदेशिक_संबंधों_पर_नियंत्रण : वैदेशिक मामलों में मंत्रिमंडल का पूर्ण नियंत्रण होता है। विदेशी राज्यों के अध्यक्षों या सरकारों के साथ सभी वार्ताओं का संचालन प्रधानमंत्री या विदेश मंत्री या प्रधानमंत्री के किसी अन्य प्रतिनिधि द्वारा किया जाता है। जब वार्ताओं के परिणामस्वरूप कोई संधि या समझौता हो जाता है तो संसद को उनके संबंध में सूचना दे दी जाती है और यदि आवश्यकता हुई तो संसद से उसकी स्वीकृति प्राप्त कर ली जाती है। वैदेशिक संबंधों के संचालन में संसद की भूमिका बहुत गौण होती है। कई बार सरकार विदेशों के साथ गुप्त संधियां एवं समझौते करती है और संसद को इस संबंध में सूचना नहीं दी जाती है। वैदेशिक संबंधों के संचालन में गोपनीयता की आवश्यकता होती है और इसी कारण यह कार्य मंत्रिमंडल के द्वारा ही किया जाता है, संसद के द्वारा नहीं।
#नियुक्ति_संबंधी_कार्य : संविधान के द्वारा राष्ट्रपति को जिन पदाधिकारियों को नियुक्त करने की शक्ति प्रदान की गई है, व्यवहारिक रूप में इनकी नियुक्ति मंत्रिमंडल के द्वारा ही की जाती है। मंत्रिमंडल के परामर्श से ही संसद के दोनों सदनों के मनोनीत सदस्य नियुक्त किए जाते हैं। राज्यों के राज्यपाल, उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश, उच्च न्यायालय के न्यायाधीश, महाधिवक्ता, महालेखा परीक्षक और सेना के प्रमुखों की नियुक्ति मंत्रिमंडल के परामर्श से ही की जाती है।
[01/12, 8:26 AM] Raj Kumar: #भारतीय_राजव्यवस्था_एवं_शासन :
#राष्ट्रपति
भारत में संसदीय शासन प्रणाली अपनाई गई है जो ब्रिटेन के नमूने पर है। भारत का राष्ट्रपति संवैधानिक एवं नाममात्र का प्रमुख होता है। जबकि वास्तविक कार्यपालिका प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में केंद्रीय मंत्रिमंडल होता है।
▪️संविधान के अनुच्छेद 52 में राष्ट्रपति पद का प्रावधान है।
▪️केंद्र की समस्त कार्यपालिका शक्तियां राष्ट्रपति में निहित होती हैं जिनका प्रयोग वह स्वयं या अपने अधीनस्थों के माध्यम से करता है।
▪️भारत सरकार के सभी कार्य उसी के नाम से संचालित किए जाते हैं।
▪️भारत का राष्ट्रपति भारत का प्रथम नागरिक होता है।
#योग्यताएं :
अनुच्छेद 58 में राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के लिए निम्नलिखित योग्यताएं आवश्यक हैं-
1. वह भारत का नागरिक हो।
2. उसकी आयु 35 वर्ष से कम नहीं हो।
3. लोकसभा का सदस्य निर्वाचित होने की योग्यता रखता हो।
4. भारत या राज्य सरकार के अधीन किसी लाभ के पद पर न हो।
▪️राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, राज्यपाल, केंद्र अथवा राज्य का मंत्री लाभ के पद नहीं माने जाते।
#निर्वाचन :
▪️भारत में राष्ट्रपति का चुनाव एक निर्वाचक मंडल द्वारा किया जाता है जिसमें लोकसभा, राज्यसभा तथा राज्यों एवं केंद्र शासित प्रदेशों की विधानसभाओं के केवल निर्वाचित सदस्य भाग लेते हैं। मनोनीत सदस्यों को इसमें शामिल नहीं किया जाता।
▪️इस प्रकार स्पष्ट है कि राष्ट्रपति सीधे जनता द्वारा नहीं चुना जाता।
▪️राष्ट्रपति का चुनाव अप्रत्यक्ष रूप से एकल संक्रमणीय मत पद्धति से समानुपातिक प्रणाली के आधार पर होता है।
▪️समानुपातिक प्रणाली का मतलब यह है कि प्रत्येक जनप्रतिनिधि के मत का मूल्य उस जनसंख्या के अनुपात में होता है जिसका वह प्रतिनिधित्व करता है। इस प्रकार एक सांसद के मत का मूल्य विधायक के मत के मूल्य से बहुत अधिक होता है।
▪️मतदान गुप्त होता है।
#निर्वाचक_के_मत_का_मूल्य :
▪️विधानसभा के प्रत्येक निर्वाचित सदस्य का मत मूल्य राज्य की कुल जनसंख्या को उस राज्य की विधानसभा के कुल निर्वाचित सदस्यों की संख्या से भाग देने से प्राप्त फल को फिर से 1000 से भाग देने पर प्राप्त संख्या के बराबर होता है।
▪️संसद के प्रत्येक निर्वाचित सदस्य का मत मूल्य सभी राज्यों और दिल्ली तथा पांडिचेरी की विधानसाओं के कुल निर्वाचित सदस्यों के मत मूल्यों के कुल योग को संसद के कुल निर्वाचित सदस्यों की संख्या से भाग देने से प्राप्त संख्या के बराबर होता है।
#कार्यकाल :
▪️राष्ट्रपति का कार्यकाल उसके शपथ ग्रहण की तारीख से पांच वर्ष होता है।
#शपथ :
▪️राष्ट्रपति को उसके पद और गोपनीयता की शपथ सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश द्वारा दिलाई जाती है।
▪️राष्ट्रपति अपना त्याग पत्र उपराष्ट्रपति को देता है।
#पद_रिक्ति :
▪️यदि राष्ट्रपति का पद मृत्यु, त्याग पत्र अथवा पद से हटाए जाने के कारण रिक्त होता है तो उपराष्ट्रपति राष्ट्रपति के रूप में कार्य करता है। यदि उपराष्ट्रपति भी अनुपस्थित है तो सर्वोच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश राष्ट्रपति के रूप में कार्य करता है। मुख्य न्यायाधीश की अनुपस्थिति में सर्वोच्च न्यायालय का वरिष्ठ न्यायाधीश राष्ट्रपति के रूप में कार्य करता है।
▪️राष्ट्रपति के पद के लिए नया चुनाव पद रिक्त होने के छः महीने के भीतर ही होना जरूरी है। संविधान द्वारा राष्ट्रपति पद पर पुनः निर्वाचन के लिए किसी प्रकार का प्रतिबंध नहीं लगाया गया है।
#शक्तियां :
भारतीय संविधान के द्वारा राष्ट्रपति को विविध शक्तियां प्राप्त हैं, जैसे-
#कार्यपालिका_शक्तियां :
▪️केंद्र सरकार की समस्त शक्तियां राष्ट्रपति में निहित होती हैं। उसी के नाम से देश की नीतियों का संचालन होता है।
▪️उसे विशेष पदों पर नियुक्ति का अधिकार प्राप्त है। वह प्रधानमंत्री सहित अन्य मंत्रियों, सर्वोच्च न्यायालय एवं उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों, नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक, चुनाव आयुक्तों, विभिन्न राष्ट्रीय आयोगों के अध्यक्षों एवं सदस्यों तथा राज्यपालों आदि की नियुक्ति करता है।
▪️भारत का राष्ट्रपति, भारत में विदेशों के राजदूतों का पहचान पत्र स्वीकार करता है तथा विदेशों में भारतीय राजदूतों को नियुक्ति पत्र जारी करता है।
#विधायी_शक्तियां :
▪️भारत का राष्ट्रपति संसद का अभिन्न अंग होता है क्योंकि उसके हस्ताक्षर के बाद ही कोई विधेयक कानून बनता है।
▪️वह संसद का सत्र बुलाता है, सत्रावसान करता है।.
वह संसद को भंग भी कर सकता है (प्रधानमंत्री की सलाह पर)
▪️वह लोकसभा के प्रथम सत्र को संबोधित करता है।.
संसद का संयुक्त अधिवेशन बुलाकर अभिभाषण कर सकता है।
▪️नये राज्य के निर्माण, धन विधेयक या संचित निधि से खर्च करने वाला कोई भी विधेयक राष्ट्रपति की पूर्वानुमति के बिना संसद में प्रस्तुत नहीं होते।
▪️वह लोकसभा में आंग्ल भारतीय समुदाय से दो लोगों को तथा राज्यसभा में कला, साहित्य, विज्ञान या समाजसेवा के क्षेत्र में ख्याति प्राप्त 12 लोगों को मनोनीत कर सकता है।
▪️संविधान के अनुच्छेद 123 के अंतर्गत असमान्य स्थिति में अध्यादेश जारी कर सकता है।
#न्यायिक_शक्तियां :
▪️अनुच्छेद 72 के तहत राष्ट्रपति को किसी अपराधी की सजा को क्षमा करने, रोकने या कम करने का अधिकार है।
▪️वह कोर्ट मार्शल की सजा को भी क्षमा कर सकता है।
▪️वह लोकहित के प्रश्न पर सर्वोच्च न्यायालय की राय ले सकता है तथा यह भी जरूरी नहीं है कि वह इस प्रकार लिए गए राय को माने ही (अनुच्छेद 143)
#सैन्य_शक्तियां :
▪️भारत का राष्ट्रपति रक्षा बलों का सर्वोच्च कमांडर होता है (अनुच्छेद 53)
▪️उसे युद्ध और शांति की घोषणा करने तथा सेना को अभियान हेतु आदेशित करने की शक्ति है।
#विवेकाधीन_शक्तियां :
भारतीय संविधान के अनुसार राष्ट्रपति मंत्रिपरिषद की सलाह पर कार्य करता है, किंतु विशेष परिस्थितियों में उसे अपने विवेक से काम करना पड़ता है।.
#आपातकालीन_शक्तियां :
▪️राष्ट्रीय आपात, अनुच्छेद 352 के अंतर्गत युद्ध, बाह्य आक्रमण या सशस्त्र विद्रोह की स्थिति से निपटने के लिए राष्ट्रपति को विशिष्ट शक्तियां प्रदान की गई है।
▪️राष्ट्रपति शासन, अनुच्छेद 356 के अंतर्गत यदि किसी राज्य की प्रशासनिक मशीनरी संविधान के अनुसार नहीं चलाया जा रहा है तो राष्ट्रपति उस राज्य की सरकार को भंग कर राष्ट्रपति शासन की घोषणा कर सकता है।
▪️वित्तीय आपात, अनुच्छेद 360 के अंतर्गत यदि देश की वित्तीय साख खतरे में हो तो राष्ट्रपति वित्तीय आपात की घोषणा कर सकता है।
#राष्ट्रपति_की_वीटो_शक्तियां :
भारत के राष्ट्रपति को तीन प्रकार की वीटो शक्तियां प्राप्त हैं।
▪️आत्यंतिक वीटो
▪️निलंबनकारी वीटो
▪️जेबी वीटो
#महाभियोग :
अनुच्छेद 61 के अंतर्गत राष्ट्रपति को उसकी पदावधि की समाप्ति के पहले संविधान के उल्लंघन के आरोप में महाभियोग लगा कर पद मुक्त किया जा सकता है। संसद के किसी भी सदन में महाभियोग की प्रक्रिया 14 दिन की पूर्व सूचना के साथ शुरू की जा सकती है। बशर्ते उस सदन के एक चौथाई सदस्य लिखित प्रस्ताव द्वारा सहमति व्यक्त करें। आरोपों का अन्वेषण अनिवार्य रूप से किया जाना चाहिए। इस दौरान राष्ट्रपति को अपना पक्ष प्रस्तुत करने का अधिकार है। यदि संसद के दोनों सदन दो तिहाई बहुमत से प्रस्ताव पारित कर देते हैं तो राष्ट्रपति को पद मुक्त कर दिया जाएगा।
[01/12, 8:26 AM] Raj Kumar: #आधुनिक_भारत_का_इतिहास :
#असहयोग_आंदोलन
असहयोग आंदोलन अंग्रेजों के अत्याचार के खिलाफ 1 अगस्त 1920 को गांधी जी द्वारा शुरू किया गया सत्याग्रह आंदोलन है। यह अंग्रेजों द्वारा प्रस्तावित अन्यायपूर्ण कानूनों और कार्यों के विरोध में देशव्यापी अहिंसक आंदोलन था। इस आंदोलन में, यह स्पष्ट किया गया था कि स्वराज अंतिम उद्देश्य है। लोगों ने ब्रिटिश सामान खरीदने से इनकार कर दिया और दस्तकारी के सामान के उपयोग को प्रोत्साहित किया।
#असहयोग_ही_क्यों?
जैसा कि गांधीजी ने अपनी पुस्तक “हिंद स्वराज” में लिखा है, ब्रिटिश भारत में भारतीयों के सहयोग से ही बस सकते थे। इसलिए, अगर भारतीयों ने सहयोग करने से इनकार कर दिया, तो हम ब्रिटिश साम्राज्य के पतन के लिए स्वराज प्राप्त कर सकते हैं।
#असहयोग_आंदोलन_के_कारण :
#रौलट_एक्ट- 1919 में पारित रौलट एक्ट के तहत, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जैसे मौलिक अधिकारों पर अंकुश लगाया गया और इसने पुलिस शक्तियों को बढ़ाया गया। यह अधिनियम लॉर्ड चेम्सफोर्ड के वायसराय रहने के समय पारित किया गया था, जिसने सरकार को देश में राजनीतिक गतिविधियों को दबाने के लिए भारी शक्तियां दी, और दो साल तक बिना किसी ट्रायल के राजनीतिक कैदियों को हिरासत में रखने की अनुमति दी। इस अधिनियम की “शैतानी” और अत्याचारी कहकर आलोचना की गई थी।
#जलियांवाला_बाग_हत्याकांड- 13 अप्रैल 1919 को जलियांवाला बाग कांड हुआ। जनरल डायर ने जलियांवाला बाग में एकत्रित हजारों लोगों पर गोलियां चलाईं जिनमें सैकड़ों लोग मारे गए। उनका उद्देश्य, जैसा कि उन्होंने बाद में घोषित किया था, लोगों पर ‘नैतिक प्रभाव’ पैदा करना था।
#प्रथम_विश्व_युद्ध- युद्ध ने देश में एक नई आर्थिक और राजनीतिक स्थिति का निर्माण किया। रक्षा व्यय में भारी वृद्धि की गई, सीमा शुल्क बढ़ाया गया और आयकर पेश किया गया। 1913 और 1918 के बीच के वर्ष के दौरान कीमतें बढ़कर दोगुनी हो गईं, जिससे आम लोगों के लिए अत्यधिक कठिनाई हुई। भारत के कई हिस्सों में फसल खराब हुई, जिसके परिणामस्वरूप भोजन की भारी कमी है। इस समय एक इन्फ्लूएंजा महामारी भी साथ ही साथ था। युद्ध समाप्त होने के बाद भी, लोगों की कठिनाई जारी रही और अंग्रेजों द्वारा कोई मदद नहीं की गई।
#असहयोग_आंदोलन_की_विशेषताएं :
▪️असहयोग आंदोलन की अनिवार्य विशेषता यह थी कि अंग्रेजों की क्रूरताओं के खिलाफ लड़ने के लिए शुरू में केवल अहिंसक साधनों को अपनाया गया था।
▪️इस आंदोलन ने अपनी रफ़्तार सरकार द्वारा प्रदान की गई उपाधियों को लौटाकर, और सिविल सेवाओं, सेना, पुलिस, अदालतों और विधान परिषदों, स्कूलों, और विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार करके किया गया।.
▪️देश में विदेशी सामानों का बहिष्कार किया गया, शराब की दुकानों को बंद कर दिया गया और विदेशी कपड़ो की होली जलाई गयी।
▪️मोतीलाल नेहरू, सी. आर. दास, सी. राजगोपालाचारी और आसफ अली जैसे कई वकीलों ने अपनी प्रैक्टिस छोड़ दी।
▪️इससे विदेशी कपड़े का आयात 1920 और 1922 के बीच बहुत गिर गया।
▪️जैसे-जैसे यह आंदोलन फैलता गया, लोगों ने सभी आयातित कपड़ों को त्यागना शुरू कर दिया और केवल भारतीय कपड़ो को पहनना शुरू कर दिया, जिससे भारतीय कपड़ा मिलों और हैंडलूमों का उत्पादन बढ़ गया।
#किस_कारण_से_असहयोग_आंदोलन_मंद_हो_गया?
▪️स्वराज के अपने स्वयं के अर्थ के साथ लोगों के साथ देश के विभिन्न हिस्सों में हिंसात्मक हो गयी थी।
▪️चौरी चौरा आंदोलन: 5 फरवरी 1922 को नाराज किसानों ने यूपी के चौरी चौरा में एक स्थानीय पुलिस स्टेशन पर हमला किया। इस घटना में दो पुलिसकर्मी मारे गए। इस समय किसानों को उकसाया गया क्योंकि पुलिस ने उनके शांतिपूर्ण प्रदर्शन पर गोलीबारी की थी। इसके चलते गांधीजी ने असहयोग आंदोलन को वापस ले लिया।
[01/12, 8:26 AM] Raj Kumar: #आधुनिक_भारत_का_इतिहास :
#खिलाफत_आंदोलन
प्रथम विश्व युद्ध में तुर्की ने मित्र राष्ट्रों के खिलाफ युद्ध किया था. तुर्की के खलीफा को मुस्लिमों के धार्मिक प्रधान के रूप मे देखा जाता था. उन दिनों यह अफवाह फैली थी कि तुर्की पर ब्रिटिश सरकार अपमानजनक शर्तें लाद रही है. इसी के विरोध स्वरूप 1919-20 में अली बंधु, मालैाना आजाद, हसरत मोहानी तथा हकीम अजमल खान के नेतृत्व में खिलाफत आंदोलन छेड़ा गया. इनकी तीन मांगें थीं –
▪️मुसलमानों के पवित्र स्थानों पर तुर्की के सुल्तान खलीफा का नियंत्रण रहे.
▪️खलीफा के अधीन इतना भूभाग रहे कि वह इस्लाम की रक्षा कर सके.
▪️जारीजात उल अरब (अरब, सीरिया, इराक तथा फिलिस्तीन) पर मुसलमानों की संप्रभुता बनी रहे.
#पृष्ठभूमि :
प्रथम विश्व युद्ध में मुसलामानों का सहयोग लेने लिए अंग्रेजों ने तुर्की के प्रति उदार रवैया अपनाने का वादा किया था. ब्रिटिश प्रधानमंत्री लायड जार्ज ने यह वादा किया था कि, “हम तुर्की को एशिया माइनर और थ्रेस की उस समृद्ध और प्रसिद्ध भूमि से वंचित करने के लिए युद्ध नहीं कर रहे हैं जो नस्ली दृष्टि से मुख्य रूप से तुर्क है.” परन्तु बाद में अंग्रेज इस वादे से मुकर गये. ब्रिटेन तथा उसके सहयोगियों ने उस्मानिया सल्तनत के साथ अपमानजनक व्यवहार किया तथा उसके टुकड़े-टुकड़े कर थ्रेस को हथिया लिया. इससे भारत के राजनैतिक चेतना प्राप्त मुसलमान काफी क्षुब्ध थे. तुर्की के प्रति ब्रिटिश नीति में परिवतर्न लाने के उद्देश्य से भारतीय मुसलामानों ने आंदोलन छेड़ने का निश्चय किया.
शीघ्र ही अली भाइयों (मौलाना अली एवं शाकैत अली), मालैाना आजाद, हकीम अजमल खान और हसरत मोहानी के नेतृत्व में एक खिलाफत कमेटी गठित हुई और देशव्यापी आंदोलन छेड़ दिया गया. वस्तुतः इस आंदोलन के साथ मुस्लिम जनता पूर्ण रूप से राष्ट्रीय आंदोलन में कूद पड़ी. कांग्रेस के नेता भी खिलाफत आंदोलन में शामिल हुए और उन्होंने सारे देश में इसे संगठित करने में मुस्लिम नेताओं की सहायता की. महात्मा गांधी भी खिलाफत आंदोलन में सहयोग देने के इच्छुक थे. उनके लिए खिलाफत आंदोलन हिन्दुओं और मुसलमानों को एकता में बाधने का एक ऐसा सुअवसर था, जो सैकड़ों वर्षों में नहीं आयेगा. शीघ्र ही गांधीजी खिलाफत आन्दोलन के एक मान्य नेता के रूप में उभरे. नवम्बर 1919 में गांधीजी खिलाफत आंदोलन के अध्यक्ष चुने गये. सम्मेलन में उन्होंने मुसलमानों से कहा कि वे मित्र राष्ट्रों की विजय के उपलक्ष्य में आयोजित सार्वजनिक उत्सवों में भाग न लें. उन्होंने धमकी दी कि यदि ब्रिटेन ने तुर्की के साथ न्याय नहीं किया तो बहिष्कार और असहयोग आंदोलन शुरू किया जायेगा. मालैाना आजाद, अकरम और फजलुल हक ने खिलाफत आन्दालेन और हिन्दू-मुस्लिम एकता के पक्ष में बंगाल का दौरा किया.
1920 के प्रारंभ में ही हिन्दुओं और मुसलमानों का एक संयुक्त प्रतिनिधि मंडल वायसराय से मिला, जिन्होंने स्पष्ट शब्दों में कह दिया कि उन्हें ऐसी उम्मीद छोड़ देनी चाहिए. एक प्रतिनिधि मंडल उसके बाद इंग्लैंड गया, परन्तु प्रधानमंत्री लायड जार्ज ने रूखा उत्तर दिया कि “पराजित ईसाई शक्तियों के साथ किए जाने वाले बर्ताव से भिन्न बर्ताव तुर्की के साथ नहीं किया जायेगा.” 1920 तक ब्रिटिश हुकूमत ने खिलाफत नेताओं से यह स्पष्ट कह दिया कि वे अब और अधिक उम्मीद नहीं रखें. तुर्की के साथ पेरिस सम्मेलन में 1920 में की गयी.
‘सेव्रेस की संधि’ इस बात का सबतू थी कि तुर्की के विभाजन का फैसला अंतिम है. इससे नेताओं में बहुत ही रोष फैला. गांधीजी ने खिलाफत कमेटी को अंग्रेजी हुकूमत के विरुद्ध अहिंसक आन्दोलन छेड़ने की सलाह दी. 9 जून, 1920 को इलाहाबाद में खिलाफत कमेटी ने इस सलाह को सवर्सम्मति से स्वीकार कर लिया और गाँधीजी को इस आन्दालेन का नतेृत्व करने का दायित्व सौंपा गया.
#खिलाफत_आन्दोलन_का_पतन :
असहयोग का चार चरणों वाला एक कार्यक्रम घोषित किया गया जिसमें उपाधियों, सिविल सेवाओं, सेना और पुलिस का बहिष्कार और अंततः करों को न देना शामिल था. गांधीजी ने कांग्रेस को भी खिलाफत और अन्य मुद्दों पर असहयोग आन्दोलन छेड़ने के लिए मना लिया. इस तरह दोनों संगठनों ने ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध संघर्ष छेड़ दिया. खिलाफत कमेटी ने मुसलमानों से कहा कि वे सेना में भर्ती न हों. इसके लिए अली बंधुओं को गिरफ्तार कर लिया गया. इस पर कांग्रेस ने सारे भारतीयों से अपील की कि वे किसी भी रूप में सरकार की सेवा न करें. आन्दोलन को दबाने के लिए सरकार ने व्यापक दमन चक्र का सहारा लिया. खिलाफत आन्दोलन अपने मूलभूत उद्देश्यों में सफल नहीं रहा. खिलाफत का प्रश्न जल्दी ही अप्रासंगिक हो गया. तुर्की की जनता मुस्तफा कमाल पाशा के नेतृत्व में उठ खड़ी हुई.
1922 में सुल्तान को सत्ता से वंचित कर दिया गया. कमाल पाशा ने तुर्की के आधुनिकीकरण के लिए तथा इसे धर्मनिरपेक्ष स्वरूप देने के लिए कई कदम उठाये. उसने खिलाफत समाप्त कर दी और संविधान से इस्लाम को निकालकर उसे धर्मनिरपेक्ष राज्य घोषित कर दिया. शिक्षा का राष्ट्रीयकरण हुआ, स्त्रियों को व्यापक अधिकार मिला और उद्योग धंधों का विकास हुआ. इन कदमों से खिलाफत आन्दोलन की बुनियाद ही नष्ट हो गयी. अपने मूलभूत उद्देश्यों को पूरा नहीं करके भी परोक्ष परिस्थितियों की दृष्टि से यह आन्दोलन काफी सफल रहा.
#खिलाफत_आन्दोलन_के_परोक्ष_परिणाम :
▪️मुसलमानों का राष्ट्रीय आन्दोलन में शामिल होना
इस आन्दालेन के फलस्वरूप देश के मसुलमान राष्ट्रीय आन्दालेन में शामिल हुए तथा राष्ट्र की मुख्य धारा से जुड़े. उन दिनों देश में जो राष्ट्रवादी उत्साह तथा उल्लास का वातावरण था, उसे बनाने में काफी हद तक इस आन्दोलन का भी योगदान था.
▪️हिन्दू-मुस्लिम एकता को बल
इस आन्दोलन के फलस्वरूप हिन्दू-मुस्लिम एकता की भावना को बल मिला. दोनों ने मिलकर विदेशी सरकार से संघर्ष किया तथा एक-दूसरे की भावनाओं का आदर किया.
▪️सांप्रदायिकता को बल मिला
ऐसा कहा जाता है कि राष्ट्रीय आन्दोलन द्वारा केवल मुसलमानों की एक मांग उठाने से धार्मिक चेतना का राजनीति में समावेश हुआ और अंततः सांप्रदायिक शक्तियाँ मजबूत हुई. परन्तु राष्ट्रीय आंदोलन द्वारा यह मांग उठाना गलत नहीं था. उस समय यह आवश्यक था कि समाज के विभिन्न अंग अपनी विशिष्ट मांगों और अनुभवों द्वारा स्वतंत्रता की जरुरत को समझें. फिर भी मुसलमानों की धार्मिक चेतना को ऊपर उठाकर उसे धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक चतेना तक ले जाने में राष्ट्रवादी नतेृत्व कुछ सीमा तक असपफल रहा. इस आन्दोलन के फलस्वरूप मुसलमानों में साम्राज्यवाद विरोधी भावनाओं का प्रचार हुआ. इस आंदोलन ने खलीफा के प्रति मुसलमानों की चिंता से भी अधिक साम्राज्यवाद विरोधी भावना का ही प्रतिनिधित्व किया और इसे ठोस अभिव्यक्ति दी. इस तरह खिलाफत आन्दोलन अपने मूलभूत उद्देश्यों में असफल रहा, परन्तु इसके परोक्ष परिणाम महत्त्वपूर्ण सिद्ध हुए.
[01/12, 8:26 AM] Raj Kumar: #आधुनिक_भारत_का_इतिहास :
#रौलट_विरोधी_सत्याग्रह
महात्मा गाँधी ने रौलट एक्ट के विरुद्ध अभियान चलाया और बम्बई में 24 फ़रवरी 1919 ई. को सत्याग्रह सभा की स्थापना की| रौलट विरोधी सत्याग्रह के दौरान,महात्मा गाँधी ने कहा कि “यह मेरा दृढ़ विश्वास है कि हम मुक्ति केवल संघर्ष के द्वारा ही प्राप्त करेंगे न कि अंग्रेजों द्वारा हमें प्रदान किये जा रहे सुधारों से”| 13अप्रैल,1919 को घटित जलियांवाला बाग हत्याकांड के बाद ,रौलट विरोधी सत्याग्रह ने अपनी गति खो दी| यह आन्दोलन प्रेस की स्वतंत्रता पर प्रतिबंधों और बिना ट्रायल के कैद में रखने के विरोध में था|
रौलट एक्ट ब्रिटिशों को बंदी प्रत्यक्षीकरण के अधिकार को स्थगित करने सम्बन्धी शक्तियां प्रदान करता था| इसने राष्ट्रीय नेताओं को चिंतित कर दिया और उन्होंने इस दमनकारी एक्ट के विरुद्ध विरोध प्रदर्शन प्रारंभ कर दिए| मार्च-अप्रैल 1919 के दौरान देश एक अद्भुत राजनीतिक जागरण का साक्षी बना| हड़तालों,धरनों,विरोध प्रदर्शनों का आयोजन किया गया | अमृतसर में 9 अप्रैल को स्थानीय नेता सत्यपाल व किचलू को कैद कर लिया गया | इन स्थानीय नेताओं की गिरफ़्तारी के कारन ब्रिटिश शासन के प्रतीकों पर हमले किये गए और 11अप्रैल को जनरल डायर के में नेतृत्व में मार्शल लॉ लगा दिया गया|
13 अप्रैल,1919 को शांतिपूर्ण व निहत्थी भीड़ (जिसमें अधिकतर वे ग्रामीण शामिल थे जो आस-पास के गावों से बैशाखी उत्सव मानाने आये थे) एक लगभग बंद मैदान(जलियांवाला बाग़) में जनसभा को सुनने के लिए,जनसभाओं पर पाबन्दी के बावजूद,एकत्रित हुए,जिनकी बिना किसी चेतावनी के क्रूरतापूर्वक हत्या कर दी गयी| जलियांवाला बाग़ हत्याकांड ने पूरे देश को स्तब्ध कर दिया और देशभक्तों के मष्तिष्क को उग्र प्रतिशोध के लिए भड़का दिया| हिंसक माहौल के कारण गाँधी जी ने इसे हिमालय के समान गलती मानी और 18 अप्रैल को आन्दोलन को वापस ले लिया|
#निष्कर्ष
13अप्रैल,1919 को घटित जलियांवाला बाग हत्याकांड के बाद ,रौलट विरोधी सत्याग्रह ने अपनी गति खो दी| इसके अलावा पंजाब,बंगाल और गुजरात में हुई हिंसा ने गांधी जी को आहत किया|अतः महात्मा गाँधी ने आन्दोलन को वापस ले लिया|
[01/12, 8:26 AM] Raj Kumar: #भारतीय_राजव्यवस्था_एवं_शासन :
#राज्य_के_नीति_निदेशक_तत्व
हमारे संविधान की एक प्रमुख विशेषता नीति निर्देशक तत्व हैं। विश्व के अन्य देशों के संविधानों में आयरलैण्ड के संविधान को छोड़कर अन्य किसी देश के संविधान में इस प्रकार के तत्व नहीं हैं। भारतीय संविधान के निर्माताओं ने संविधान में केवल राज्य के संगठन की व्यवस्था एवं अधिकार-पत्र का वर्णन ही नहीं किया है, वरन् वह दिशा भी निश्चित की है जिसकी ओर बढ़ने का प्रयत्न भविष्य में भारत राज्य को करना है। संविधान-निर्माताओं का लक्ष्य भारत में लोककल्याणकारी राज्य की स्थापना था, और इसलिए उन्होंने नीति निर्देशक तत्वों में ऐसी बातों का समावेश किया, जिन्हें कार्य रूप में परिणत किये जाने पर एक लोककल्याण राज्य की स्थापना सम्भव हो सकती है।
#नीति_निदेशक_तत्व :
संविधान की धारा 38 से 51 तक में राज्य नीति के निर्देशक तत्वों का वर्णन किया गया है। अध्ययन की सुविधा के लिए इन तत्वों को निम्न वर्गों में बांटा जा सकता है:
1. #आर्थिक_सुरक्षा_सम्बन्धी_निर्देशक_तत्व :
भारतीय संविधान के निर्माताओं का उद्देश्य भारत में एक लोककल्याणकारी राज्य की स्थापना करना था और इस दृष्टि से अधिकांश निर्देशक तत्वों द्वारा आर्थिक सुरक्षा और आर्थिक न्याय के सम्बन्ध में व्यवस्था की गयी है।
संविधान में इस प्रकार के निम्न तत्वों का उल्लेख है:
▪️राज्य प्रत्येक स्त्री और पुरुष को समान रूप से जीविका के साधन प्रदान करने का प्रयत्न करेगा।
▪️राज्य देश के भौतिक साधनों के स्वामित्व और नियन्त्रण की ऐसी व्यवस्था करेगा कि अधिक से अधिक सार्वजनिक हित हो सके।
▪️राज्य इस बात का भी ध्यान रखेगा कि सम्पत्ति और उत्पादन के साधनों का इस प्रकार केन्द्रीकरण न हो कि सार्वजनिक हित की को किसी प्रकार की हानि पहुंचे।
▪️राज्य प्रत्येक नागरिक को चाहे वह स्त्री हो या पुरुष, समान कार्य के लिए समान वेतन प्रदान करेगा।
▪️राज्य श्रमिक पुरुषों और स्त्रियों के स्वास्थ्य और शक्ति तथा बालकों की सुकुमार अवस्था का दुरुपयोग न होने देगा।
▪️मूल संविधान में कहा गया था कि ’राज्य बच्चों तथा युवकों की शोषण से तथा भौतिक या नैतिक परित्याग से रक्षा करेगा।’ 42वें संवैधानिक संशोधन द्वारा उसे इस प्रकार संशोधित किया गया है: ’’राज्य के द्वारा बच्चों को स्वस्थ रूप में विकास के लिए अवसर और सुविधाएं प्रदान की जायेंगी, उन्हें स्वतन्त्रता और सम्मान की स्थिति प्राप्त होगी, बच्चों तथा युवकों की शोषण से तथा भौतिक या नैतिक परित्याग से रक्षा की जायेगी।
▪️राज्य अपने आर्थिक साधनों के अनुसार और विकास की सीमाओं के भीतर यह प्रयास करेगा कि सभी नागरिक अपनी योग्यता के अनुसार रोजगार पा सकें, शिक्षा पा सकें एवं बेकारी, बुढ़ापा, बीमारी और अंगहीनता, आदि दशाओं में सार्वजनिक सहायता प्राप्त कर सकें।
▪️राज्य ऐसा प्रयत्न करेगा कि व्यक्तियों को अपनी अनुकूल अवस्थाओं में ही कार्य करना पड़े तथा स्त्रियों को प्रसूतावस्था में कार्य न करना पड़े।
▪️राज्य इस बात का प्रयत्न करेगा कि कृषि और उद्योग में लगे हुए सभी मजदूरों को अपने जीवन-निर्वाह के लिए यथोचित वेतन मिल सके, उनका जीवन-सतर ऊपर उठ सके, वे अवकाश के समय का उचित उपयोग कर सकें तथा उन्हें सामाजिक और सांस्कृतिक उन्नति का अवसर प्राप्त हो सके।
▪️राज्य का कर्तव्य होगा कि गांवों में व्यक्तिगत अथवा सहकारी आधार पर कुटीर उद्योगों को प्रोत्साहन दे।
▪️वैज्ञानिक आधार पर कृषि का संचालन करना भी राज्य का कर्तव्य होगा।
▪️राज्य पशुपालन की अच्छी प्रणालियों का प्रचलन करेगा और गायों, बछड़ों तथा अन्य दुधारू और वाहक पशुओं की नस्ल सुधारने और उनके वध को रोकने का प्रयत्न करेगा।
▪️नवीन अनुच्छेद 39। के अनुसार, ’’राज्य इस बात का प्रयत्न करेगा कि कानूनी व्यवस्था का संचालन समान अवसर तथा नयाय की प्राप्ति में सहायक हो और उचित व्यवस्थापन, योजना या अन्य किसी प्रकार से समाज के कमजोर वर्गों के लिए निःशुल्क कानूनी सहायता की व्यवस्था करेगा, जिससे आर्थिक असामथ्र्य या अन्य किसी प्रकार से व्यक्ति न्याय प्राप्त करने से वंचित न रहें।’’
▪️नवीन ‘A’के अनुसार, ’’राज्य उचित व्यवस्थापन या अन्य प्रकार से औद्योगिक संस्थानों के प्रबन्ध में कर्मचारियों के भागीदार बनाने के लिए कदम उठायेगा।’’
44वें संवैधानिक संशोधन (अप्रैल 1979) द्वारा आर्थिक सुरक्षा सम्बन्धी निर्देशक तत्वों में एक और तत्व जोड़ा गया है। इसमें कहा गया है कि ’’राज्य न केवल व्यक्तियों की आय और उनके सामाजिक स्तर, सुविधाओं और अवसरों सम्बनधी भेदभाव को कम से कम करने का प्रयत्न करेगा, वरन् विभिन्न क्षेत्रों में रहने वाले और विभिन्न व्यवसायों में लगे हुए व्यक्तियों के समुदायों के बीच विद्यमान आय, सामाजिक स्तर, सुविधाओं और अवसरों सम्बन्धी भेदभाव को भी कम से कम करने का प्रयत्न करेगा।’’
2. #सामाजिक_हित_सम्बन्धी_निर्देशक_तत्व :
इस सम्बन्ध में राज्य के अधोलिखित कर्तव्य निश्चित किये गये हैं:
▪️राज्य लोगों के जीवन-स्तर को सुधारने और स्वास्थ्य सुधारने के लिए प्रयत्न करेगा। इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए औषधि में प्रयोग किये जाने के अतिरिक्त स्वास्थ्य के लिए हानिकारक मादक द्रव्यों तथा अन्य पदार्थों के सेवन पर प्रतिबनध लगायेगा।
▪️राज्य जनता के दुर्बलतर अंगों के, विशेषतया अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित जनजातियों के, शिक्षा तथा अर्थ सम्बन्धी हितों की विशेष सावधानी से उन्नति करेगा और सामाजिक अन्याय तथा सभी प्रकार के शोधण से उनकी रक्षा करेगा।
3. #न्याय_शिक्षा_और_प्रजातन्त्र_सम्बन्धी_निर्देशक #तत्व :
भारत में सुगम और सुलभ न्याय व्यवस्था, शिक्षा के प्रचार और प्रसार तथा प्रजातन्त्र की भावना के विकास के लिए भी कुछ निर्देशक तत्वों का वर्णन किया गया है, जो इस प्रकार हैं:
▪️न्याय की प्राप्ति हेतु राज्य सभी नागरिकों के लिए समान कानून बनायेगा और अपनी सेवाओं में न्यायपालिका को कार्यपालिका से अलग करने का प्रयत्न करेगा।
▪️शिक्षा के सम्बनध में यह प्रस्तावित किया गया है कि विधान के लागू होने के 10 वर्ष के समय में राज्य 14 वर्ष तक के बालकों के लिए निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा प्रदान करने की व्यवस्था करेगा।
▪️प्रजातन्त्र की भावना के विकास के लिए निर्देशक तत्वों में कहा गया है कि राज्य ग्राम पंचायतों के संगठन की ओर कदम उठायेगा और इन्हें उतने अधिकार प्रदान किये जायेंगे कि वे स्वायत्ता शासन की इकाइयों के रूप में कार्य कर सकें।
(4) #प्राचीन_स्मारकों_की_रक्षा_सम्बन्धी_निर्देशक #तत्व :
इन तत्वों द्वारा प्राचीन स्मारकों, कलात्मक महत्व के स्थानों और राष्ट्रीय महत्व के भवनों की रक्षा का कार्य भी राज्य को सौंपा गया है। राज्य का कर्तव्य निश्चित किया गया है कि वह प्रत्येक स्मारक, कलात्मक या ऐतिहासिक रुचि के स्थानों को, जिसे संसद ने राष्ट्रीय महत्व का घोषित कर दिया हो, रक्षा करने का प्रयत्न करेगा।
42वें संवैधानिक संशोधन में कहा गया है कि राज्य ’देश के पर्यावरण
(Environment) की रक्षा और उसमें सुधार का प्रयास करेगा। (अनुच्छेद 48’A’)
5. #अन्तर्राष्ट्रीय_शान्ति_और_सुरक्षा_सम्बन्धी_तत्व :
हमारे देश का आदर्श सदैव ही ’वसुधैव कुटुम्बकम्’ का रहा है और हमने सदैव ही शान्ति तथा ’जीओ और जीने दो’ के सिद्धान्त को अपनाया है। इसी आदर्श को हमारे संविधान के अन्तिम निर्देशक तत्व में इस प्रकार बताया है:
राज्य अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में निम्नलिखित आदर्शों को लेकर चलने का प्रयत्न करेगा:
(अ) अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति और सुरक्षा में वृद्धि,
(ब) राष्ट्रों के बीच न्याय और सम्मानूपूर्ण सम्बन्ध स्थापित रखना,
(स) राष्ट्रों के आपसी व्यवहार में अन्तर्राष्ट्रीय कानून और सन्धियों के प्रति आदर का भाव बढ़ाना,
(द) अन्तर्राष्ट्रीय झगड़ों को मध्यस्थता द्वारा सुलझाने के लिए प्रोत्साहित करना।
निर्देशक तत्वों के इस वर्णन के आधार पर कहा जा सकता है कि इन तत्वों के आधार पर भारत में वास्तविकता प्रजातन्त्र की स्थापना हो सकेगी और हमारा देश एक ऐसा लोककल्याणकारी राज्य बन सकेगा जिसमें प्रत्येक व्यक्ति को स्वतन्त्रता, समता तथा सामाजिक न्याय प्राप्त हो सके।.
#राज्य_की_नीति_के_निदेशक_तत्व :
▪️अनुच्छेद 38:-राज्य लोक कल्याण की अभिवृद्धि के लिए सामाजिक व्यवस्था बनाएगा।.
▪️अनुच्छेद 39 क:-समान न्याय और निःशुल्क विधिक सहायता.
▪️अनुच्छेद 40:-ग्राम पंचायतों का संगठन.
अनुच्छेद 41:-कुछ दशाओं में काम, शिक्षा और लोक सहायता पाने का अधिकार.
▪️अनुच्छेद 42:-काम की न्यायसंगत और मानवोचित दशाओं का तथा प्रसूति सहायता का उपबन्ध.
अनुच्छेद 43:-कर्मकारों के लिए निर्वाह मजदूरी आदि.
▪️43क:-उद्योगों के प्रबन्ध में श्रमिकों का भाग लेना.
अनुच्छेद 44:-नागरिकों के लिए एक समान सिविल संहिता.
▪️अनुच्छेद 45:-बालकों के लिए निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा का उपबन्ध.
▪️अनुच्छेद 46:-अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और अन्य दुर्बल वर्गों के शिक्षा और अर्थ सम्बन्धी हितों की अभिवृद्धि.
▪️अनुच्छेद 47:-पोषाहार स्तर और जीवन स्तर को ऊंचा करने तथा लोक स्वास्थ्य का सुधार करने का राज्य का कर्तव्य.
▪️अनुच्छेद 48:-कृषि और पशुपालन का संगठन.
48क:-पर्यावरण का संरक्षण तथा संवर्धन और वन एवं वन्य जीवों की रक्षा.
▪️अनुच्छेद 49:-राष्ट्रीय महत्व के स्मारकों, स्थानों और वस्तुओं का संरक्षण.
▪️अनुच्छेद 50:-कार्यपालिका से न्यायपालिका का पृथक्करण.
▪️अनुच्छेद 51:-अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति और सुरक्षा की अभिवृद्धि.
[01/12, 8:26 AM] Raj Kumar: #आधुनिक_भारत_का_इतिहास :
#जलियांवाला_बाग_हत्याकांड
बात 13 अप्रैल 1919 की है जब एक प्रतिबंधित मैदान हो रहे जनसभा के एकत्रित निहत्थी भीड़ पर, बगैर किसी चेतावनी के, जनरल डायर के आदेश पर ब्रिटिश सैनिकों ने अंधा-धुंध गोली चला दी थी। यह जनसभा जलियाँवाला बागमें हो रही थी, इसलिए इसे जलियाँवाला बाग हत्याकांड भी बोला जाता है। इस जनसभा की मुखबिरी हंसराज नामक भारतीय ने किया था और उसके सहयोग से इस हत्याकांड की साज़िश रची गयी थी।
13 अप्रैल को यहाँ एकत्रित यह भीड़ दो राष्ट्रीय नेताओं –सत्यपाल और डॉ.सैफुद्दीन किचलू ,की गिरफ्तारी का विरोध कर रही थी। अचानक ब्रिटिश सैन्य अधिकारी जनरल डायर ने अपनी सेना को निहत्थी भीड़ पर,तितर-बितर होने का मौका दिए बगैर, गोली चलाने के आदेश दे दिए और 10 मिनट तक या तब तक गोलियां चलती रहीं जब तक वे ख़त्म नहीं हो गयीं। इन 10 मिनटों, (कांग्रेस की गणना के अनुसार) एक हजार लोग मारे गए और लगभग दो हजार लोग घायल हुए। गोलियों के निशान अभी भी जलियांवाला बाग़ में देखे जा सकते है,जिसे कि अब राष्ट्रीय स्मारक घोषित कर दिया गया है। यह नरसंहार पूर्व-नियोजित था और जनरल डायर ने गर्व के साथ घोषित किया कि उसने ऐसा सबक सिखाने के लिए किया था और अगर वे लोग सभा जारी रखते तो उन सबको वह मार डालता। उसे अपने किये पर कोई शर्मिंदगी नहीं थी। जब वह इंग्लैंड गया तो कुछ अंग्रेजों ने उसका स्वागत करने के लिए चंदा इकट्ठा किया। जबकि कुछ अन्य डायर के इस जघन्य कृत्य से आश्चर्यचकित थे और उन्होंने जांच की मांग की । एक ब्रिटिश अख़बार ने इसे आधुनिक इतिहास का सबसे ज्यादा खून-खराबे वाला नरसंहार कहा।
21 वर्ष बाद ,13 मार्च,1940 को,एक क्रांतिकारी भारतीय ऊधम सिंह ने माइकल ओ डायर की गोली मारकर ह्त्या कर दी क्योंकि जलियांवाला हत्याकांड की घटना के समय वही पंजाब का लेफ्टिनेंट गवर्नर था। नरसंहार ने भारतीय लोगों में गुस्सा भर दिया जिसे दबाने के लिए सरकार को पुनः बर्बरता का सहारा लेना पड़ा। पंजाब के लोगों पर अत्याचार किये गए,उन्हें खुले पिंजड़ों में रखा गया और उन पर कोड़े बरसाए गए। अख़बारों पर प्रतिबन्ध लगा दिए गए और उनके संपादकों को या तो जेल में डाल दिया गया या फिर उन्हें निर्वासित कर दिया गया। एक आतंक का साम्राज्य ,जैसा कि 1857 के विद्रोह के दमन के दौरान पैदा हुआ था,चारों तरफ फैला हुआ था। रविन्द्रनाथ टैगोर ने अंग्रेजों द्वारा उन्हें प्रदान की गयी नाईटहुड की उपाधि वापस कर दी। ये नरसंहार भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में एक महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुआ।
#जलियांवाला_बाग_हत्याकांड_में_कितने_लोग
#मारे_गए?
जलियांवाला बाग हत्याकांड के दौरान हुई मौतों की संख्या पर कोई आधिकारिक डेटा नहीं था। लेकिन अमृतसर के डिप्टी कमिश्नर कार्यालय में 484 शहीदों की सूची है, जबकि जलियांवाला बाग में कुल 388 शहीदों की सूची है। ब्रिटिश राज के अभिलेख इस घटना में 200 लोगों के घायल होने और 379 लोगों के शहीद होने की बात स्वीकार करते है जिनमें से 337 पुरुष, 41 नाबालिग लड़के और एक 6-सप्ताह का बच्चा था। अनाधिकारिक आँकड़ों के अनुसार 1000 से अधिक लोग मारे गए और 2000 से अधिक घायल हुए।
दिसंबर,1919 में अमृतसर में कांग्रेस का अधिवेशन हुआ। इसमें किसानों सहित बड़ी संख्या में लोगों ने भाग लिया। यह स्पष्ट है कि इस नरसंहार ने आग में घी का काम किया और लोगों में दमन के विरोध और स्वतंत्रता के प्रति इच्छाशक्ति को और प्रबल कर दिया।
भारतीय_राजव्यवस्था_एवं_शासन #मूल_कर्तव्य
भारतीय_राजव्यवस्था_एवं_शासन
#मूल_कर्तव्य
42वें संशोधन अधिनियम 1976 द्वारा हमारे वर्तमान संविधान के भाग 4 में मौलिक कर्तव्य शामिल किये थे। वर्तमान में अनुच्छेद 51 A के तहत हमारे संविधान में 11 मौलिक कर्तव्य हैं जो कानून द्वारा वैधानिक कर्तव्य हैं और प्रवर्तनीय भी हैं। मौलिक अधिकारों को स्थापित करने के पीछे का उद्देश्य नागरिकों द्वारा अपने मौलिक अधिकारों का आदान-प्रदान कर अपने कर्तव्यों के दायित्वों पर जोर देकर उनका आनंद उठाना था।
#हमारे_संविधान_में_निम्नलिखित_कर्तव्य_हैं :
1. संविधान का पालन करे और उसके आदर्शों एवं संस्थाओं, राष्ट्रध्वज तथा राष्ट्रगान का आदर करे
संविधान का पालन करने और इसके आदर्शों एवं संस्थानों, राष्ट्रीय ध्वज और राष्ट्र गान के संदर्भ में- प्रत्येक नागरिक का यह कर्तव्य है कि वह आदर्शों का सम्मान करे जिसमें स्वतंत्रता, न्याय, समानता, भाईचारा और संस्थाएं अर्थात् संस्थान, कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका शामिल है। इसलिए किसी भी अंसंवैधानिक गतिविधियों में लिप्त हुए बिना संविधान की गरिमा बनाए रखना हम सब का कर्तव्य है। संविधान में यह भी उल्लेख किया गया है कि यदि कोई भी नागरिक को राष्ट्रध्वज तथा राष्ट्रगान का अनादर करता है तो संविधान के प्रति वह दंड का भागीदार होगा। एक संप्रभु राष्ट्र के नागरिक के रूप संविधान का आदर करना सबका कर्तव्य है।
2. स्वतंत्रता के लिए हमारे राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन को प्रेरित करने वाले उच्च आदर्शों का सम्मान करे
भारत के नागरिक को उन महान आदर्शों का ध्यान रखते हुए पालन करना चाहिए जो स्वतंत्रता के लिए हमारे राष्ट्रीय आंदोलन की प्रेरणा का स्त्रोत बने। एक समाज का निर्माण और स्वतंत्रता, समानता, अहिंसा, भाईचारा और विश्व शांति के लिए एक संयुक्त राष्ट्र का निर्माण करना हमारे आदर्श है। यदि भारत के नागरिक इन आर्दशों के प्रति सचेत और प्रतिबद्ध हैं, तो अलगाववादी प्रवृत्तियां कहीं भी कहीं भी जन्म नहीं ले सकती है।
3. भारत की समप्रभुता, एकता और अखंडता की रक्षा करे और अक्षुण्ण बनाए रखे:
यह भारत के सभी नागरिकों के सबसे प्रतिष्ठित राष्ट्रीय दायित्वों में से एक है। भारत में जाति, धर्म, लिंग, भाषा के आधार पर लोगों की विशाल विविधता है। यदि देश की आजादी और एकता पर कोई खतरा उत्पन्न होता है तो तब संयुक्त राष्ट्र की कल्पना करना संभंव नहीं है। इसलिए संप्रभुता लोगों के पास हमेशा रहती हैं। इसे फिर से स्मरित किया जाता है जैसा कि प्रस्ताव में इसका उल्लेख पहले भी किया गया है और मौलिक अधिकारों की धारा 19 (2) के तहत भारत की संप्रभुता और अखंडता के हित में भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के उचित प्रतिबंधों की अनुमति प्रदान की गयी है।
4. देश की रक्षा करे तथा बुलाए जाने पर राष्ट्र की सेवा करे
बाहरी दुश्मनों के खिलाफ खुद की रक्षा करना हमारा एक मौलिक कर्तव्य है। प्रौद्योगिकी और परमाणु शक्तियों में सुधार होने से युद्ध केवल भूमि पर ही नहीं लड़े जा रहें हैं इसलिए सभी नागरिक इसके लिए बाध्य हैं कि कोई भी संदिग्ध तत्व जो भारत में प्रवेश करते हैं, के प्रति जागरूक रहें और जरूरत पड़ने पर स्वयं का बचाव करने के लिए हथियार उठाने को भी तैयार रहें। थल सेना, नौसेना और वायु सेना के अलावा इसमें सभी नागरिकों को शामिल किया गया है।
5. धर्म, भाषा और प्रबंध या वर्ग पर आधारित सभी भेदभाव से परे भारत के लोगों में समरसता और समान बंधुत्व की भावना का निर्माण करें, स्त्रियों के सम्मान के विरूद्ध प्रथाओं का त्याग करें
लोगों के बीच विभिन्न विविधताएं प्रदान की गयी हैं और एक ध्वज और भाईचारे की एक नागरिकता की भावना की उपस्थिति सभी नागरिकों में स्वाभाविक रूप से होनी चाहिए। यह उल्लेख भी किया गया है कि सभी नागरिकों को संकीर्ण सास्कृतिक मतभेदों से उपर उठकर सामूहिक गतिविधि के सभी क्षेत्रों में उत्कृष्टता की दिशा में प्रयास करने की आवश्यकता है।
6. हमारी संस्कृति की गौरवशाली परंपरा का महत्व समझे और उसका परीक्षण करे
हमारी सांस्कृतिक विरासत, सबसे अमीर और समृद्ध विरासतों में से एक है, यह पृथ्वी की विरासत का भी एक हिस्सा है। इसलिए यह हमारा कर्तव्य है कि हमें अतीत से जो भी विरासत में मिला है उसकी रक्षा करें और इसे भविष्य की पीढ़ियों के लिए बनाए रखें। भारत की सभ्यता दुनिया की सबसे प्राचीन सभ्यताओं में से एक है। कला, विज्ञान, साहित्य के प्रति हमारे योगदान को पूरे विश्व में जाना जाता है और यह देश हिंदू धर्म, जैन धर्म और बौद्ध धर्म की भी जन्म भूमि रही है।
7. प्राणिमात्र के लिए दयाभाव रखे तथा प्रकृति पर्यावरण जिसके अंतर्गत झील, वन, नदी और अन्य वन्य जीव हैं, की रक्षा का संवर्धन करे
हमारे देश में प्राकृतिक भंडार और संसाधन हैं इसलिए इनकी रक्षा करना प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है। बढते हुए प्रदूषण और बड़े पैमाने पर हो रही जंगलों की गिरावट से पृथ्वी पर रहने वाली सभी मानव जातियों को भारी नुकसान हो सकता है। बढती हुयी प्राकृतिक आपदाएं इसका प्रमाण भी हैं। राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों के अंतर्गत अनुच्छेद 48 ए के तहत अन्य संवैधानिक प्रावधानों में इसे और अधिक मजबूत बनाया गया है जिसमें यह उल्लेख किया गया है कि राज्य पर्यावरण की रक्षा और इसमें सुधार करेगा तथा जंगलों व अन्य वन्य जीवों का संरक्षण करेगा।
8. मानववाद, वैज्ञानिक दृष्टिकोण तथा ज्ञानार्जन एवं सुधार की भावना का विकास करे
यह एक विदित हकीकत है कि अपने विकास के लिए लिए यह जरूरी है कि हम दुनिया भर के अनुभवों और घटनाओं से सीख लें। प्रत्येक नागरिक का यह कर्तव्य है कि तेजी से बदलती हुयी दुनिया के साथ सामंजस्य बनाए रखने के लिए वह वैज्ञानिक सोच और भावना को बढावा दें।
9. हिंसा से दूर रहें तथा सार्वजनिक संपति सुरक्षित रखें
यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि एक देश जो पूरी दुनिया में अहिंसा का उपदेश देता है वहां हम समय- समय पर निर्थक हिंसा और सार्वजनिक संपत्ति के नुकसान की घटनाओं के साक्षी बनते हैं। सभी मौलिक कर्तव्यों के उल्लंघनों के बीच यह धारा अभी बाकी है। जब भी कोई हड़ताल या बंद या फिर रैली होती है तो वहाँ उपस्थित भीड़ बसों, इमारतों जैसी सार्वजनिक संपत्तियों को नुकसान पहुंचाने तथा उन्हें लूटने की मानसिकता को विकसित करती है और नागिरक जो संरक्षक हैं वो मूक दर्शक रहते हैं।
10. व्यक्तिगत एवं सामूहिक गतिविधियों के सभी क्षेत्रों में उत्कर्ष की ओर बढने का सतत प्रयास करे जिससे राष्ट्र निरंतर बढते हुए प्रयत्न तथा उपलब्धियों की नयी ऊचाइंयों को छूए
एक जिम्मेदार नागरिक होने के रूप में हम जो भी कार्य अपने हाथों में लें वह उत्कृष्ट लक्ष्य को प्राप्त करने की दिशा में आगे बढ़ना चाहिए, जिससे हमारा देश निरंतर उपलब्धियों के शीर्ष स्तर तक पहुंच सके। इस अनुच्छेद में देश को न केवल पुर्नजीवित करने और फिर से संगठित करने की क्षमता है बल्कि इसे उत्कृष्टता के उच्चतम संभव स्तर तक पहुंचाने की क्षमता है।
11. प्रत्येक माता पिता या संरक्षक द्वारा 6 से 14 वर्ष के बच्चों के लिए प्राथमिक शिक्षा प्रदान करना
यह राष्ट्रीय आयोग की सिफारिश थी कि 6 से 14 साल की उम्र के बीच के सभी बच्चों को कानूनी रूप से मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा प्रदान करने के लिए संविधान की कार्यप्रणाली की समीक्षा हो। 86 वां संशोधन अधिनियम, कानूनी रूप से 6 से 14 वर्ष के सभी बच्चों को मुफ्त औऱ अनिवार्य शिक्षा का मौलिक अधिकार प्रदान करता है
#मौलिक_कर्तव्यों_की_आलोचना :
▪️मौलिक कर्तव्यों को आम लोगों द्वारा समझना मुश्किल होता है
▪️मौलिक कर्तव्यों की गैर न्यायोचित प्रकृति के कारण नैतिक उपदेशों के रूप में आलोचना
▪️लोगों द्वारा सभी का पालन करने के बाद लागू करने की कोई आवश्यकता नहीं है।
▪️भाग 4 शामिल करने के बाद मौलिक अधिकारों का मूल्य और महत्व कम हो गया है।
▪️सबसे महत्वपूर्ण यह है जिसकी सिफारिश स्वर्ण सिंह समिति ने की थी वे इसमें शामिल नहीं थे, जो इस प्रकार हैं:
1. संसद के पास कर्तव्यों के अनुपालन नहीं करने की स्थिति में जुर्माना या दंड लगाने की शक्ति है
2. यदि किसी धारा से ऊपर की सजा दी जाती है तो इस पर किसी भी आधार पर किसी भी न्यायालय में प्रश्न नहीं किया जा सकता है।
3. करों का भुगतान करने को मौलिक कर्तव्य के रूप में शामिल किया जाना।
▪️अन्य महत्वपूर्ण कर्तव्यों में परिवार नियोजन, मतदान आदि शामिल हैं।
इस प्रकार, अंत में यह कहा जा सकता है कि सरकार के प्रय़ास तब तक सफल नहीं हो सकते हैं जब तक देश के नागरिक आम तौर पर सरकार के निर्णय लेने की प्रक्रिया में भाग नहीं लेते। यहाँ तक कि मतदान जैसे अघोषित कर्तव्यों को प्रभावी ढंग से लोगों द्वारा लागू किया जाना चाहिए। सार्वजनिक उत्साही लोगों और नेताओं को स्थानीय समुदाय की समस्याओं में रुचि लेने के लिए आगे आना चाहिए। हर नागरिक में पारिवारिक मूल्यों और शिक्षा के मामले में जिम्मेदार पितृत्व की भावना होनी चाहिए तथा बच्चे के शारीरिक नैतिक विकास को ठीक से पूरा किया जाना चाहिए।
[01/12, 8:26 AM] Raj Kumar: #आधुनिक_भारत_का_इतिहास :
#रॉलेट_एक्ट
भारत में ब्रिटिश सरकार ने जब राज किया था तब उन्होंने भारत में कुछ ऐसे कानून बनाये थे जिसका विरोध करने पर हजारों लोगों की मृत्यु हो गई थी. आज हम इस लेख में ब्रिटिश सरकार द्वारा बनाये गये ऐसे ही एक कानून के बारे बताने जा रहे हैं जिसका नाम है रॉलेट एक्ट. आइए जानते हैं इस कानून के बारे में विस्तृत तरीके से -
#रॉलेट_एक्ट_क्या_था ?
रॉलेट एक्ट, सन 1919 में मार्च महीने की 10 तारीख को ब्रिटिश भारत की लेजिस्लेचर एवं इम्पिरियल लेजिस्लेटिव कांउसिल द्वारा पारित किया गया एक कानून था. इस कानून के तहत भारतीय ब्रिटिश सरकार को लोगों पर अधिकार करने की अधिक शक्ति मिल गई थी. इस एक्ट को रॉलेट कमीशन भी कहा जाता है क्योंकि इस एक्ट को लाने के लिए एक कमेटी बनाई गई थी और इसके अध्यक्ष ब्रिटिश न्यायाधीश सर सिडनी रॉलेट थे. जिनके नाम पर इस एक्ट का नाम रखा गया था. इसके अलावा इसे ब्लैक एक्ट भी कहा जाता है।
#रॉलेट_एक्ट_लाने_का_कारण :
सन 1910 के दशक में यूरोप के अधिकतर देशों में प्रथम विश्व युद्ध हुआ था, इस युद्ध में ब्रिटेन की जीत हुई थी. और इस युद्ध में ब्रिटेन के जीत हासिल कर लेने के बाद उन्होंने भारत पर अधिकार जमाना शुरू कर दिया. उन्होंने सन 1918 में युद्ध समाप्त होने के बाद देश में उनके खिलाफ क्रांतिकारियों द्वारा की जा रही गतिविधियों एवं आंदोलनों को दबाने के लिए रॉलेट एक्ट कानून लाने का फैसला किया था, ताकि कोई भी भारतीय ब्रिटिशों के खिलाफ आवाज न उठा सके. हालाँकि ब्रिटिश सरकार का इस एक्ट को लागू करने का उद्देश्य देश में होने वाली आतंकवादी गतिविधियों को समाप्त कर देश में शांति लाना भी था।
#रॉलेट_एक्ट_के_तहत_ब्रिटिश_सरकार_के_अधिकार :
इस एक्ट के तहत ब्रिटिश सरकार को निम्न अधिकार मिल गए थे –
▪️सबसे पहले तो उन्हें यह अधिकार मिल गया था कि वे किसी भी ऐसे व्यक्ति को, जोकि आतंकवाद, देशद्रोह और विद्रोह में शामिल होता हुआ दिखेगा, उसे तुरंत गिरफ्तार कर सकते हैं. और वो भी बिना किसी वारंट के केवल शक के आधार पर।
▪️इसके अलावा गिरफ्तार किये गये लोगों को बिना किसी भी कार्यवाही के एवं बिना किसी को जमानत दिए 2 साल तक जेल में रखने का अधिकार भी ब्रिटिश सरकार को प्राप्त था. यहाँ तक कि गिरफ्तार किये गए लोगों को यह भी नहीं बताया जाता था कि उन्हें किस धारा के तहत जेल में डाल दिया गया है. और उन्हें अनिश्चितकाल तक नजरबंद भी रखा जाता था. इसके साथ ही भारतीयों को यह अधिकार भी नहीं दिया गया कि वे अपने पक्ष कुछ बोल सकें।
▪️ब्रिटिश सरकार को यह भी अधिकार प्राप्त था कि उन्होंने पुलिस को प्रेस को अधिक सख्ती से नियंत्रित करने की शक्ति दे दी थी।
▪️जेल में डाले गये दोषियों को अपने अच्छे व्यवहार को सुनिश्चित करने के लिए सिक्योरिटीज को जमा करने के बाद ही रिहा किया जाता था।
▪️भारतियों को राजनीतिक, धार्मिक या शैक्षिक गतिविधियों में हिस्सा लेने पर भी प्रतिबंध लगा दिए गये थे।
#रॉलेट_एक्ट_का_भारतियों_द्वारा_किया_गया_विरोध :
इस एक्ट का भारतीयों द्वारा विरोध किया गया था, क्योंकि उनका मानना था कि ब्रिटिश सरकार द्वारा उनके ऊपर यह कानून लागू करना अन्याय है. इस कानून के साथ भारतीय जनता काफी गुस्से में थी. उनकी ब्रिटिश सरकार से नाराजगी पहले की तुलना में और अधिक बढ़ गई थी. इस एक्ट का विरोध करने वालों में प्रमुख मजहर उल हक, मदन मोहन मालवीय जैसे स्वतंत्रता कार्यकर्ता एवं नेता शामिल थे. इन सभी ने अपने बाकी भारतीय सहयोगियों के साथ मिलकर इस एक्ट के खिलाफ सर्वसम्मति से मतदान करने के बाद काउंसिल से इस्तीफा देने का फैसला किया।
[01/12, 8:26 AM] Raj Kumar: #भारतीय_राजव्यवस्था_एवं_शासन :
#मौलिक_अधिकार
भारतीय संविधान में नागरिकों के मौलिक अधिकारों का वर्णन संविधान के तीसरे भाग में अनुच्छेद 12 से 35 तक किया गया है। इन अधिकारों में अनुच्छेद 12, 13, 33, 34 तथा 35 का संबंध अधिकारों के सामान्य रूप से है। 44 वें संशोधन के पास होने के पूर्व संविधान में दिये गये मौलिक अधिकारों को सात श्रेणियों में बांटा जाता था परंतु इस संशोधन के अनुसार संपति के अधिकार को सामान्य कानूनी अधिकार बना दिया गया। भारतीय नागरिकों को छ्ह मौलिक अधिकार प्राप्त है :-
1. समानता का अधिकार : अनुच्छेद 14 से 18 तक।
2. स्वतंत्रता का अधिकार : अनुच्छेद 19 से 22 तक।
3. शोषण के विरुध अधिकार : अनुच्छेद 23 से 24 तक।
4. धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार : अनुच्छेद 25 से 28 तक।
5. सांस्कृतिक तथा शिक्षा सम्बंधित अधिकार : अनुच्छेद 29 से 30 तक।
6. संवैधानिक उपचारों का अधिकार : अनुच्छेद 32
#मूल_अधिकार_एक_दृष्टि_में :
#मूल_अधिकार_साधारण
▪️अनुच्छेद 12 (परिभाषा)
▪️अनुच्छेद 13 (मूल अधिकारों से असंगत या उनका अल्पीकरण करने वाली विधियां।)
1. #समता_का_अधिकार :
▪️अनुच्छेद 14 (विधि के समक्ष समता)
▪️अनुच्छेद 15 (धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्मस्थान के आधार पर विभेद का प्रतिषेध)
▪️अनुच्छेद 16 (लोक नियोजन के विषय में अवसर की समता)
▪️अनुच्छेद 17 (अस्पृश्यता का अंत)
▪️अनुच्छेद 18 (उपाधियों का अंत)
2. #स्वातंत्रय_अधिकार
▪️अनुच्छेद 19 (वाक्–स्वातंत्र्य आदि विषयक कुछ अधिकारों का संरक्षण)
▪️अनुच्छेद 20 (अपराधों के लिए दोषसिद्धि के संबंध में संरक्षण)
▪️अनुच्छेद 21 (प्राण और दैहिक स्वतन्त्रता का संरक्षण)
3. #शोषण_के_विरूद्ध_अधिकार :
▪️अनुच्छेद 23 (मानव के दुर्व्यापार और बलात्श्रय का प्रतिषेध)
▪️अनुच्छेद 24 (कारखानों आदि में बालकों के नियोजन का प्रतिषेध)
4. #धर्म_की_स्वतन्त्रता_का_अधिकार
▪️अनुच्छेद 25 (अंत: करण की और धर्म के अबोध रूप में मानने, आचरण और प्रचार करने की स्वतंत्रता)
▪️अनुच्छेद 26 (धार्मिक कार्यों के प्रबंध की स्वतंत्रता)
▪️अनुच्छेद 27 (किसी विशिष्ट धर्म की अभिवृद्धि के लिए करांे के संदाय के बारे में स्वतंत्रता)
▪️अनुच्छेद 28 (कुछ शिक्षा संस्थाओं में धार्मिक शिक्षा या धार्मिक उपासना में उपस्थित होने के बारे में स्वतंत्रता)
5. #संस्कृति_और_शिक्षा_संबंधी_अधिकार
▪️अनुच्छेद 29 (अल्पसंख्यक वर्गों के हितों का संरक्षण)
▪️अनुच्छेद 30 (शिक्षा संस्थाओं की स्थापना और प्रशासन करनेका अल्पसंख्यक वर्गों का अधिकार)
▪️अनुच्छेद 31 (निरसति)
#कुछ_विधियों_की_व्यावृत्ति
▪️अनुच्छेद 31क (संपदाओं आदि के अर्जन के लिए उपबंध करने वाली विधियों की व्यावृत्ति)
▪️अनुच्छेद 31ख (कुछ अधिनियमों और विनिमयों का विधिमान्यकरण)
▪️अनुच्छेद 31ग (कुछ निदेशक तत्वों को प्रभावी करने वाली विधियों की व्यावृत्ति)
▪️अनुच्छेद 31घ (निरसित)
6. #सांविधानिक_उपचारों_का_अधिकार
▪️अनुच्छेद 32 (इस भाग द्वारा प्रदत्त अधिकारों को प्रवर्तित करने के लिए उपचार)
▪️अनुच्छेद 32क (निरसति) ।
▪️अनुच्छेद 33 (इस भाग द्वारा प्रदत्त अधिकारों का, बलों आदि को लागू होने में, उपांतरण करने की संसद की शक्ति)
▪️अनुच्छेद 34 (जब किसी क्षेत्र में सेना विधि प्रवृत्त है तब इस भाग द्वारा प्रदत्त अधिकारों का निर्बधन
▪️अनुच्छेद 35 (इस भाग के उपबंधों को प्रभावी करने के लिए विधान)
#मौलिक_अधिकारों_का_निलम्बन :
निम्नलिखित दशाओं में मौलिक अधिकार सीमित या स्थगित किये जा सकते हैं:-
▪️संविधान में संशोधन करने का अधिकार भारतीय संसद को है. वह संविधान में संशोधन कर मौलिक अधिकारों को स्थगित या सीमित कर सकती है. भारतीय संविधान में इस उद्देश्य से बहुत-से संशोधन किये जा चुके हैं. इसके लिए संसद को राज्यों के विधानमंडलों की स्वीकृति की आवश्यकता नहीं रहती.
▪️संकटकालीन अवस्था की घोषणा होने पर अधिकार बहुत ही सीमित हो जाते हैं.
▪️संविधान के अनुसार स्वतंत्रता के अधिकार और वैयक्तित्व अधिकार कई परिस्थतियों में सीमित किये जा सकते हैं; जैसे- सार्वजनिक सुव्यवस्था, राज्य की सुरक्षा, नैतिकता, साधारण जनता के हित में या अनुसूचित जातियों की रक्षा इत्यादि के हित में राज्य इन स्वतंत्रताओं पर युक्तिसंगत प्रतिबंध लगा सकता है.
▪️जिस क्षेत्र में सैनिक कानून लागू हो, उस क्षेत्र में उस समय अधिकारीयों द्वारा मौलिक अधिकारों का अतिक्रमण या स्थगन हो सकता है.
▪️संविधान में यह कहा गया है कि सशस्त्र सेनाओं या अन्य सेना के सदस्यों के मामले में संसद् मौलिक अधिकारों (fundamental rights) को सीमित या प्रतिबंधित कर सकती है.
[01/12, 8:26 AM] Raj Kumar: #आधुनिक_भारत_का_इतिहास :
#महात्मा_गांधी_एवं_उनके_प्रारंभिक_आंदोलन
महात्मा गांधी जिन का नाम लेते ही हमारा दिमाग अहिंसा की तस्वीर उकेरने लगता है.जिन्हें हम 'बापू' के नाम से भी जानते हैं.जिन्हे भारत सरकार द्वारा राष्ट्रपिता की उपाधि से सम्मानित किया गया है. जिनके अथक प्रयासों से हमें 1746 से चली आ रही 200 सालों की अंग्रेजों की गुलामी से 15 अगस्त 1947 के दिन आजादी मिली.
यूं तो हमें आजादी दिलाने में गांधी जी के अलावा अनेकों स्वतंत्रता सेनानियों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है. हमारे प्रिय स्वतंत्रता सेनानी सरदार भगत सिंह,राजगुरु, चंद्रशेखर आजाद, जिन्होंने भारत को स्वतंत्र कराने में अपने प्राणों की आहुति तक दे डाली. हमें आजादी दिलाने में इन महान क्रांतिवीरो का भी अहम् योगदान रहा है.
लेकिन महात्मा गांधी जी द्वारा चलाये गए अहिंसा के आंदोलनों ने अंग्रेजी हुकूमत की रीड तोड़ कर रख दी. क्योंकि हिंसात्मक आंदोलनों को तो अंग्रेजी सरकार हिंसा के दम पर तोड़ना जानती थी लेकिन जिन आंदोलनों की बुनियाद ही सत्य और अहिंसा पर टिकी हो उसके आगे अंग्रेजी हुकूमत भी बेबस नजर आती थी. यही अहम् कारण थे कि महात्मा गांधी के चलाये गए आंदोलन सफल रहे और तिथि 15 अगस्त 1947 को अंग्रेजों को भारत छोड़कर जाना पड़ा.
दोस्तों आज हम आपसे इन्हीं महान पुरुष के जीवन तथा इनके प्रारंभिक आंदोलनों की दिलचस्प जानकारी सांझा कर रहे हैं. इस जानकारी को पढ़कर आप इन्हें तथा इनके आंदोलनों को और गहराई से जान पाएंगे.
तो चलिए जानते हैं भारत के राष्ट्रपिता मोहनदास करमचंद गांधी अर्थात महात्मा गांधी के जीवन तथा उनके आंदोलन से जुड़ी दिलचस्प जानकारी.
▪️पूरा नाम – मोहनदास करमचंद गांधी
▪️जन्म – 2 अक्टूबर 1869
▪️जन्मस्थान – पोरबंदर (गुजरात)
▪️पिता – करमचंद गाँधी
▪️माता – पुतलीबाई
▪️मृत्यु – 30 जनवरी 1948
महात्मा गांधी का जन्म 2 अक्टूबर 1869 के दिन गुजरात राज्य के पोरबंदर नामक स्थान पर हुआ था. उनके पिता का नाम श्री करमचंद्र गांधी तथा माता का नाम पुतलीबाई था. महात्मा गांधी के पिता पोरबंदर के दीवान थे तथा उनकी माता पुतलीबाई ग्रहणी तथा धार्मिक प्रवृत्ति की महिला थी. महात्मा गांधी की माता पढ़ी-लिखी नहीं थी लेकिन वह धार्मिक विचारों का पालन पूरी लगन से करती थी इन्हीं धार्मिक विचारों, धार्मिक सोच का गांधी जी के जीवन पर अहम प्रभाव बचपन से ही शुरू हो गया था.
महात्मा गांधी का बचपन का नाम मोहनदास गांधी था.महात्मा गांधी का विवाह बाल अवस्था में ही हो गया था.उनके पिता करमचंद गांधी ने मात्र 13 वर्ष की आयु में महात्मा गांधी का विवाह कस्तूरबा माखन से कर दिया था. कस्तूरबा, गांधी जी से उम्र में 1 साल बड़ी थी.
सन् 1885 में गांधीजी के घर पुत्र का जन्म हुआ पर कुछ समय बाद उसकी मृत्यु हो गई. इसके कुछ समय बाद उनके पिता करमचंद गांधी भी चल बसे.
मोहनदास और कस्तूरबा गांधी के कुल 4 पुत्र हुए. जिनका नाम हीरालाल गांधी , मणिलाल गांधी, रामदास गांधी और देवदास गांधी था.
#शिक्षा :
गांधी जी की प्रारंभिक शिक्षा राजकोट से शुरू हुई. सन 1881 में उन्होंने हाई स्कूल में प्रवेश लिया तथा सन 1887 में गांधीजी ने मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की.मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद उन्होंने भावनगर के सामलदास कॉलेज में प्रवेश लिया किंतु परिवार वालों के कहने पर उन्होंने अपनी पढ़ाई पूरी करने के लिए इंग्लैंड जाने का निर्णय लिया. इंग्लैंड में उन्होंने अपनी वकालत की पढ़ाई पूरी की तथा सन् 1891 में वे बैरिस्ट्रर बनकर भारत लौटे.
गाँधी 24 साल की उम्र में दक्षिण अफ्रीका पहुंचे. उन्होंने अपने जीवन के 21 साल दक्षिण अफ्रीका में बिताये. जहाँ उनके राजनैतिक विचार और नेतृत्व कौशल का विकास हुआ. वह प्रिटोरिया स्थित कुछ भारतीय व्यापारियों के न्यायिक सलाहकार के तौर पर वहां गए थे. दक्षिण अफ्रीका में गाँधी जी को अपमान का सामना करना पड़ा. गांधीजी को रेल द्वारा प्रीटोरिया की यात्रा करते समय अपमानजनक तरीके से ट्रेन से उतार फेंका गया. गाँधी जी का ये अपमान उनके काळा भारतीय होने के कारण हुआ था. दक्षिण अफ्रीका के गोरों ने अपनी अश्वेत नीति के तहत उनके साथ यह दुर्व्यवहार किया था.
गांधीजी का हुआ ये अपमान उनके सीने में घर कर गया. अपने साथ हुए इस अपमान का बदला लेने के लिए गाँधी जी ने भारतीयों के साथ मिलकर गोरी सरकार के विरुद्ध संघर्ष का संकल्प ले लिया. गाँधी जी ने यहां रह रहे प्रवासी भारतीयों के साथ मिलकर एक संगठन बनाया और सत्याग्रह छेड़ किया.
दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों के सम्मान के लिए, भारतीयों के प्रबंधित स्थानों पर प्रवेश के लिए, महात्मा गांधी ने आवाज बुलंद की. दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों के हितो की आवाज उठाते -२ गाँधी जी को भारत में ब्रिटिश सरकार की हुकूमत को लेकर विरोधी आभाष होने लगा. उन्हें भारतीयों का भविष्य ब्रिटिश सरकार की गुलामी में नजर आ रहा था. वे भारत के भविष्य को लेकर चिंतित थे.
वर्ष 1915 में गांधी दक्षिण अफ्रीका से भारत वापस लौट आये. इस समय तक गांधी एक राष्ट्रवादी नेता और संयोजक के रूप में पहचान बना चुके थे. वह उदारवादी कांग्रेस नेता गोपाल कृष्ण गोखले के कहने पर भारत आये थे और शुरूआती दौर में गाँधी के विचार बहुत हद तक गोखले के विचारों से प्रभावित थे. प्रारंभ में गाँधी ने देश के विभिन्न भागों का दौरा किया और देश के राजनैतिक, आर्थिक और सामाजिक मुद्दों को समझने की कोशिश की.
#गाँधी_जी_से_जुड़े_प्रारंभिक_आंदोलन :
#चंपारण_आंदोलन :
गांधी जी द्वारा सन 1917 में चंपारण आंदोलन चलाया गया.यह आंदोलन बिहार के चंपारण जिले में चलाया गया था. चंपारण आंदोलन को चंपारण सत्याग्रह के नाम से भी जाना जाता है. यह आंदोलन लैंडलॉर्ड द्वारा किसानों पर हो रहे अत्याचार के विरोध में चलाया गया था. लैंडलॉर्ड किसानों को नील की खेती करने के लिए मजबूर कर रहे थे और उन्हें एक निश्चित मूल्य पर बेचने के लिए विवश कर रहे थे. किसानों को लैंडलॉर्ड का किया यह अत्याचार रास नहीं आ रहा था. किसान इस से मुक्ति पाना चाहते थे तथा किसानों ने इस अत्याचार से बचने के लिए गांधी जी से मदद मांगी. गांधी जी चंपारण के हालात को देखने के लिए चंपारण गए. जहां हजारों की भीड़ ने गांधीजी को घेर लिया और किसानों ने अपनी सारी समस्याएं गांधी जी को बताई. गांधी जी के साथ इस जनसमूह को देखकर ब्रिटिश सरकार भी हरकत में आ गई और सरकार ने अपनी पुलिस के द्वारा गांधी जी को जिला छोड़ने का आदेश दिया. गांधी जी ने यह आदेश मानने से इनकार कर दिया इस पर पुलिस ने गांधीजी को गिरफ्तार कर लिया. गांधी जी को अगले दिन कोर्ट में हाजिर होना था. लेकिन गांधीजी के हाजिर होने से पहले ही कोर्ट में हजारों किसानों की भीड़ जमा हो गई गांधी जी के समर्थन में नारे लगने लगे.तभी मैजिस्ट्रेट ने गांधीजी को बिना जमानत के छोड़ने का आदेश दे दिया लेकिन गांधीजी ने इस आदेश को नहीं माना और उन्होंने कानून के अनुसार सजा की मांग की.परन्तु मजिस्ट्रेट ने फैसला स्थगित कर दिया और इसके बाद गांधी जी अपने कार्य पर निकल पड़े और चंपारण आंदोलन की शुरुआत हो गई. गांधी जी के आंदोलन में किसानों के साथ आम जनता ने भी साथ दिया तथा मजबूर होकर ब्रिटिश सरकार को एक कमेटी गठित करनी पड़ी तथा महात्मा गांधी को उस का सदस्य बनाया गया. गांधीजी ने उन सभी प्रस्ताव को स्तगित कर दिया जो किसानो के विरोध में थे. इस तरह गाँधी जी के भारत में चलाये गए प्रथम चम्पारण सत्याग्रह जीत हुई.
#खेड़ा_सत्याग्रह :
सन 1918 में गुजरात के खेड़ा नामक गांव में बाढ़ आ गई तथा किसानों की फसल तबाह हो गई. जिससे किसान ब्रिटिश सरकार द्वारा लगाए जाने वाले टैक्स भरने में अक्षम हो गए. किसानों ने इस दुविधा से निकलने के लिए गांधीजी की सहायता मांगी तब गांधी जी ने किसानों को टैक्स में छूट दिलाने के लिए आंदोलन किया जिसे 'खेड़ा सत्याग्रह' के नाम से जाना जाता है इस आंदोलन में गांधी जी को किसानों के साथ जनता का भरपूर समर्थन मिला और आखिरकार मई 1918 में ब्रिटिश सरकार को अपने टैक्स संबंधी नियमों में संशोधन कर किसानों को राहत देने की घोषणा करनी पड़ी और इस तरह यह आंदोलन भी सफल हुआ.
[01/12, 8:26 AM] Raj Kumar: #भारतीय_राजव्यवस्था_एवं_शासन :
#नागरिकता
नागरिकता शब्द से उल्लेख है किसी भी समुदाय के पूर्ण सदस्यता का आनंद प्राप्त करना या राज्य जिसमें नागरिक रहता है वह राजनैतिक और नागरिक अधिकार प्राप्त करता है| इसे एक विशेष राज्य के व्यक्ति के कानूनी सम्बन्धों के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जिसे वह राज्य के प्रति अपनी वफादारी निभाने के लिए प्रतिज्ञाबद्ध रहता है और अपने कर्तव्यों को निभाकर जैसे कर अदा करना, जरूरत के समय सेना की मदद करना, राष्ट्रीय सिद्धांतों और मूल्यों का सम्मान करना आदि आता है|
#संवैधानिक_प्रावधान :
संसद के कानून द्वारा नागरिकता को विनियमित करने के लिए संविधान सभा अनुच्छेद 11 के माध्यम से एक सामान्यीकृत प्रावधान शामिल किया गया। हालांकि, जब इस संविधान को अपनाया गया, तब अनुच्छेद 5-11 रूप में नागरिकता के संविधान भाग 2 लागू किया गया जोकि निम्न प्रकार से उल्लेख करता है :
▪️अनुच्छेद 5 के अनुसार “प्रत्येक व्यक्ति” जो भारत के क्षेत्र में रहता है और
• जो भारत के क्षेत्र में पैदा हुआ था या
• जिसके माता पिता भारत के क्षेत्र में पैदा हुए थे या
• कम से कम 5 साल के लिए भारत के सामान्य नागरिक रहें तुरंत इस प्रक्रिया के आरंभ होने के बाद भारत का नागरिक बन सकता है|
▪️अनुच्छेद 6- कुछ भारतियों को नागरिकता का अधिकार जो पाकिस्तान से भारत आ गए हैं उन्हें संविधान के प्रारंभ में नागरिकता के तहत शामिल करना।
▪️अनुच्छेद 7- नागरिकता का अधिकार कुछ पाकिस्तानी प्रवासियों के लिए – ये उन लोगों के लिए विशेष प्रावधान है जो मार्च 1, 1947 के बाद पाकिस्तान चले गए परंतु बाद में भारत लौट आए थे।
▪️अनुच्छेद 8- ये नागरिकता का अधिकार उन व्यक्तियों के लिए है जो भारतीय मूल के होते हुए भारत से बाहर रोजगार, शिक्षा, और शादी या अनुच्छेद 8 के आगे रख देने के उद्देश्य से दिया गया है।
▪️अनुच्छेद 9– वह व्यक्ति जो स्वेच्छा से विदेशी राज्य की नागरिकता हासिल करता है, वह भारत का नागरिक नहीं होगा।
▪️अनुच्छेद 10– वह व्यक्ति जो भारत का नागरिक है इस भाग के किसी भी प्रावधान के तहत, जो संसद द्वारा बनाया गया हो के अधीन होगा|
#नागरिकता_अधिनियम_1955_और_इसका
#संशोधन :
1. #1955_का_नागरिकता_अधिनियम -- संविधान के प्रारंभ होने के बाद नागरिकता का अधिग्रहण और समाप्ति से संबन्धित है।
▪️वह व्यक्ति जो 26 जनवरी 1950 के बाद भारत में पैदा हुआ हो, वह भारत का नागरिक हो सकता है लेकिन राजनायिकों के बच्चे भारत के नागरिक नहीं हो सकते|
▪️26 जनवरी 1950 के बाद पैदा हुए कोई भी व्यक्ति नागरिक तभी कहलाएगा जब वह कुछ शर्तों को पूरा करेगा जैसे या तो माता पिता भारत के नागरिक हों, या पिता नागरिक हो आदि|
▪️कुछ विदशी कुछ शर्तों को पूरा करके द्वारा भारतीय नागरिकता हासिल कर सकते हैं|
▪️यदि कोई भी क्षेत्र भारत का हिस्सा बन जाता है, भारत सरकार उन्हें नागरिक बनने के लिए शर्तों को निर्दिष्ट कर सकता है|
▪️नागरिकता कुछ आधारों जैसे पर त्याग, वर्खास्त्गी, आदि से खो सकती है|
▪️एक राष्ट्रमंडल देश के नागरिक को भारत में राष्ट्रमंडल नागरिकता का दर्जा दिया जाएगा।
2.#1986_का_नागरिकता (संशोधन) अधिनियम—यह अधिनियम विशेष रूप से असम राज्य की नागरिकता से संबंधित है। इसमें उल्लेख किया गया है कि यह नागरिकता पाने के लिए अवैध प्रवासियों को निर्धारित प्रारूप में भारतीय वाणिज्य दूतावास के साथ पंजीकृत होने की जरूरत है|
3. #1992_का_नागरिकता(संशोधन ) अधिनियम—इस अधिनियम के अनुसार, भारत के बाहर पैदा हुए किसी भी व्यक्ति को वंश परंपरा के द्वारा नागरिकता मिल सकती है यदि उसके माता-पिता दोनों में से कोई भी अपने जन्म के समय भारत के नागरिक रहे हों|
4. #2003_का_नागरिकता (संशोधन) अधिनियम—यह अधिनियम अधिकारों का परिचय देता है जिसमें उनके पंजीकरण से संबन्धित विदेशी नागरिकों के लिए प्रावधान दिये गए हैं|
5. #2005_का_नागरिकता_अधिनियम – यह अधिनियम गृह मंत्रालय की संसदीय स्थायी समिति की सिफारिश के आधार निर्भर करता है। यह PIO’s के 16 देशों के लिए दोहरी नागरिकता का प्रावधान प्रदान करता है।
#नागरिकता_के_अधिग्रहण_की_विधियां :
1. जन्म के द्वारा -इस धारा के तहत नागरिकता का अनुदान संशोधन के अनुसार उस जगह के समय के अनुसार परिवर्तन के अधीन है।
2. नागरिकता, पंजीकरण के द्वारा प्राप्त की जा सकती है।
3. वंश के आधार पर नागरिकता प्राप्त की जा सकती है।
4. देशीकरण द्वारा भी नागरिकता प्राप्त की जा सकती है।
5. किसी क्षेत्र के अपने देश में समावेश द्वारा भी नागरिकता प्राप्त की जा सकती है।
#नागरिकता_का_खो_जाना :
1955 का नागरिकता अधिनियम नागरिकता के खो जाने के साथ साथ अधिग्रहण करने के प्रावधानों के बारे में भी बताता है:
1. त्याग के द्वारा -किसी भी व्यक्ति द्वारा अपनी इच्छा के अनुसार नागरिकता का त्याग करने की घोषणा करना, जिससे उससे भारत की नागरिकता ले ली जाये।
2. निष्कासन के द्वारा – यदि एक व्यक्ति स्वेच्छा से जानबूझकर किसी भी अन्य देशका नागरिक बन जाता है।
#भारत_के_विदेशी_नागरिक :
2003 की नागरिकता (संशोधन) अधिनियम के अनुसार भारत के विदेशी नागरिक में वह व्यक्ति भी शामिल है।
• भारतीय मूल का नागरिक होने के बाद किसी और देश का नागरिक हो जाने वाला व्यक्ति (PIO)
• दूसरे देश की नागरिकता प्राप्त करने के तुरंत बाद भारत का नागरिकता छोड़ देनी तथा केंद्र सरकार द्वारा OCI के रूप में पंजीकृत कराना।
#अनिवासी_भारतीय
एक NRI भारत का नागरिक होता है जिसके पास भारतीय पासपोर्ट होता है और अस्थायी रूप से या तो रोजगार या शिक्षा या इस तरह के किसी भी अन्य कारण से अन्य देश में आकर बस जाता है।
#भारतीय_मूल_के_व्यक्ति :
जिनके माता-पिता या दादा-दादी भारत के नागरिक हैं लेकिन वह भारत का नागरिक नहीं है, क्योकि वह किसी दूसरे देश का नागरिक है परन्तु माता-पिता भारतीय मूल के होने के कारण वह भी भारतीय नागरिक कहा जायेगा।
नागरिकता का मुद्दा एक लोकतांत्रिक राष्ट्र राज्य के अंतर्गत एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है और इसलिए नागरिकता एक लोकतांत्रिक व्यवस्था की एक महत्वपूर्ण नींव है।
[01/12, 8:26 AM] Raj Kumar: #भारतीय_राजव्यवस्था_एवं_शासन :
#संविधान_की_शासन_प्रणाली
सरकार की लोकतांत्रिक प्रणाली को कार्यपालिका और विधायिका के बीच के रिश्तों के आधार पर संसदीय और राष्ट्रपति प्रणाली में बांटा जा सकता है। संसदीय प्रणाली में कार्यकारी विधायिका के हिस्से होते हैं जो कानून को लागू करने और उसे बनाने में सक्रिए भूमिका निभाते हैं।
संसदीय प्रणाली में, राज्य का प्रमुख एक सम्राट या राष्ट्रपति/ अध्यक्ष हो सकता है लेकिन ये दोनों ही पद नियमानुसार/ औपचारिक हैं। सरकार का प्रमुख जिसे आम तौर पर प्रधानमंत्री कहा जाता है, वही वास्तविक प्रमुख होता है। इसलिए, सभी वास्तविक कार्यकारिणी शक्तियां प्रधानमंत्री के पास होती हैं। मंत्रिमंडल में कार्यकारिणी शक्तियां होने की वजह से संसदीय सरकार को कैबिनेट सरकार भी कहते हैं। अनुच्छेद 74 और 75 केंद्र में संसदीय प्रणाली और अनुच्छेद 163 और 164 राज्य में संसदीय प्रणाली के बारे में है।
#संसदीय_प्रणाली_के_तत्व_और_विशेषताएं :
नीचे संसदीय प्रणाली के तत्व और विशेषताएं बताईं गईं हैं
1. #नाममात्र_का_और_वास्तविक_प्रमुखः राज्य का प्रमुख औपचारिक पद पर होता है और वह नाममात्र का कार्यकारी होता है। उदाहरण के लिए, राष्ट्रपति।
भारत में, सरकार का प्रमुख प्रधानमंत्री होता है जो वास्तविक कार्यकारी है। भारतीय संविधान का अनुच्छेद 75 राष्ट्रपति द्वारा प्रधानमंत्री को नियुक्त किए जाने की बात कहता है। अनुच्छेद 74 के अनुसार मंत्रिपरिषद की अध्यक्षता करने वाले प्रधानमंत्री राष्ट्रपति को उनके कार्यों को करने में सहायता और परामर्श देंगे।
2. #कार्यकारिणी_विधायिका_का_एक_हिस्सा_है– कार्यकारिणी विधायिका का हिस्सा है। भारत में, किसी व्यक्ति को कार्यकारिणी का सदस्य बनने के लिए उसे संसद का सदस्य होना चाहिए। हालांकि, संविधान यह सुविधा प्रदान करता है कि अगर कोई व्यक्ति संसद सदस्य नहीं है तो उसे अधिकतम लगातार छह माह की अवधि तक मंत्री नियुक्त किया जा सकता है, उसके बाद वह व्यक्ति मंत्री पद पर नहीं रह सकता (यदि वह छह माह के अन्दर संसद का सदस्य नहीं बनता है तो)।
3. #बहुमत_दल_नियमः लोकसभा चुनावों में अधिक सीटों पर जीत दर्ज करने वाला दल सरकार बनाता है। भारत में राष्ट्रपति, लोकसभा में बहुमत दल के नेता को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित करते हैं। राष्ट्रपति इस नेता को प्रधानमंत्री के रूप में नियुक्त करते हैं और बाकी के मंत्रियों की नियुक्ति राष्ट्रपति प्रधानमंत्री की सलाह पर करते हैं। अगर किसी भी दल को बहुमत प्राप्त नहीं होता, तो ऐसी स्थिति में, राष्ट्रपति दलों के गठबंधन को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित कर सकते हैं।
4. #सामूहिक_जिम्मेदारीः मंत्री परिषद संसद के लिए सामूहिक रूप से जिम्मेदार होता है। संसद का निचला सदन अविश्वास प्रस्ताव पारित कर सरकार को बर्खास्त कर सकता है। भारत में, जब तक लोकसभा में बहुमत रहता है तभी तक सरकार रहती है। इसलिए, लोकसभा के पास सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाने का अधिकार होता है।
5. #सत्ता_के_केंद्र_में_प्रधानमंत्रीः भारत में प्रधानमंत्री वास्तविक कार्यकारी होते हैं। वे सरकार, मंत्रिपरिषद और सत्तारूढ़ सरकार के प्रमुख होते हैं। इसलिए, सरकार के कामकाज में उन्हें महत्वपूर्ण भूमिका निभानी होती है।
6. #संसदीय_विपक्षः संसद में कोई भी सरकार शत– प्रतिशत बहुमत प्राप्त नहीं कर सकती। विपक्ष राजनीतिक कार्यकारी द्वारा अधिकार के मनमाने ढंग से उपयोग की जांच में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
7. #स्वतंत्र_लोक_सेवाः लोक सेवक सरकार को परामर्श देते हैं औऱ उनके फैसलों को लागू करते हैं। मेधा– आधारित चयन प्रक्रिया के आधार पर लोक सेवकों की स्थायी नियुक्ति की जाती है। सरकार बदलने के बाद भी उनकी नौकरी की निरंतरता बनी रहती है। लोक सेवा कर्तव्यों और जिम्मेदारियों के निष्पादन में दक्षता सुनिश्चित करता है।
8. #दो_सदनों_वाली_विधायिकाः भारत समेत, अधिकांश देश संसदीय प्रणाली अपनाते हैं और वहां दो सदनों वाली विधायिका है। इन सभी देशों के निचले सदन के सदस्यों का चुनाव जनता करती है। निचला सदन सरकार के कार्यकाल पूरा होने या बहुमत की कमी की वजह से सरकार न बना पाने की वजह से भंग किया जा सकता है। भारत में राष्ट्रपति प्रधानमंत्री की अनुशंसा पर लोकसभा भंग कर सकते हैं।
9. #गोपनीयताः इस प्रणाली में कार्यकारिणी के सदस्यों को कार्यवाहियों, कार्यकारी बैठकों, नीतिनिर्माण आदि जैसे मामलों में गोपनीयता के सिद्धांत का पालन करना होगा। भारत में, अपने कार्यालय में प्रवेश से पहले मंत्री गोपनीयता की शपथ लेते हैं।
#संसदीय_प्रणाली_के_लाभ :
राष्ट्रपति प्रणाली की तुलना में संसदीय प्रणाली के निम्नलिखित लाभ हैं–
1. #विभिन्न_प्रकार_के_समूहों_का_प्रतिनिधित्वः सरकार का संसदीय स्वरूप कानून और नीति निर्माण में विभिन्न जातीय, नस्ली, भाषाई और वैचारिक समूहों को अपने विचार साझा करने का अवसर मुहैया कराता है। भारत जैसे देश में जहां विविधता का स्तर बहुत अधिक है, वहां, समाज के विभिन्न वर्गों के लिए राजनीतिक स्थान उपलब्ध करा कर लोगों का जीवन सरल बनाता है।
2. #विधायिका_और_कार्यपालिका_के_बीच_बेहतर #समन्वयः कार्यकारिणी, विधायिका का हिस्सा है। चूंकि सरकार को निचले सदन में सदस्यों का बहुमत प्राप्त होता है, विविदों और झगड़ों की प्रवृत्ति कम हो जाती है। यह सरकार के लिए संसद में कानून पारित कराना और उसे लागू करना आसान बनाता है।
3. #अधिनायकवाद_को_रोकता_हैः संसदीय प्रणाली में, एक ही व्यक्ति के पास सभी शक्तियों के बजाए शक्ति मंत्रि परिषद के पास होती है जिससे अधिनायकवाद की प्रवृत्ति कम हो जाती है। संसद अविश्वास प्रस्ताव के माध्यम से सरकार को हटा सकती है।
4. #जिम्मेदार_सरकारः संसद कार्यकारिणी की गतिविधि की जांच कर सकती है क्योंकि कार्यकारिणी संसद के लिए जिम्मेदार होती है। राष्ट्रपति प्रणाली में, राष्ट्रपति विधायिका के लिए जिम्मेदार नहीं होता। संसद के सदस्य सरकार पर दबाव बनाने के लिए प्रश्न पूछ सकते हैं, प्रस्ताव ला सकते हैं और जनता के महत्व के मामलों पर चर्चा कर सकते हैं। ऐसे प्रावधान राष्ट्रपति प्रणाली में नहीं हैं।
5. #वैकल्पिक_सरकार_की_उपलब्धताः संसद का निचला सदन ( लोकसभा) अविश्वास प्रस्ताव ला सकता है और उसे पारित कर सकता है। ऐसी स्थिति में राष्ट्रपति, देश की प्रमुख विपक्षी पार्टी के नेता को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित करता है। यूनाइटेड किंग्डम में, विपक्ष सरकार के मंत्रिमंडल के लिए छाया मंत्रिमंडल (शैडो कैबिनेट) बनाता है ताकि वे इस प्रकार की भूमिका निभाने के लिए तैयार रहें।
[01/12, 8:26 AM] Raj Kumar: #आधुनिक_भारत_का_इतिहास :
#ट्रेड_यूनियन_एवं_साम्यवादी_दल
भारत का पहला अधुनिक मजदूर संगठन था- बी.पी. वाडिया द्वारा गठित मद्रास संघ, 1918 ई. में अन्तर्राष्ट्रीय श्रम संगठन की स्थापना तथा उसमें भारत की सदस्यता का परिणाम आॅल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस की स्थापना के रूप में सामने आया। एटक का पहला सम्मेलन 1920 ई. में बम्बई में आयोजित किया गया जिसकी अध्यक्षता तत्कानीन कांग्रेस अध्यक्ष लाला लाजपत राय ने की। 1920 ई. तथा 1922 के मध्य यह संगठन कांग्रेस से सम्बद्ध था। कांग्रेस के गया अधिवेशन (1922) में श्रमिकों को संगठित करने के लिए कांग्रेस ने सहयोग करने का निर्णय लिया।
कालांतर में लाल लाजपत राय सी.आर.दास जी.ए. सेन गुप्त, सी.एफ. एन्डूज, सुभाषचंन्द्र बोस तथा जवाहरलाल नेहरू जेसे नेताओं ने एटक की अध्यक्षता की। 1926 ई. में भारतीय मजदूर संघ अधिनियम पारित हुआ। जिससे मजदूर संघो को कानूनी दर्जा प्रदान किया गया। श्रमिक संघों में वामपंथी विचारधारा के प्रचार-प्रसार के कारण 1929 ई. में एटक का विवभाजन हो गया। 1929 में एटक से अलग हुए साम्यवादी नेता देशपाण्डेय ने लाल ट्रेड यूनियन का गठन किया।
1934 ई.में कांग्रेस के अन्दर गठित समाजवादी कांग्रेस दल के प्रयासों से विभाजित एटक में एक बार फिर से एकता कायम हो गयी। कांग्रेस में ही वामपंथी विचारधारा वाले नेता जैसे श्रीपाद अमृत डांगे, मुजफ्फर हमद, पूरणचन्द्र जोशी तथा सोहन सिंह जोश ने कामगार किसान पार्टी की स्थापना की। केन्द्रीय संघ के संगठनों को एक करने के परिणामस्वरूप 1933 ई. में राष्ट्रीय मजदूर संघ परिसंघ स्थापना हुई। 1938 ई. में एटक तथा छज्न्थ् की नागपुर में एक संयुक्त बैठक हुई पहले विभाजन के 11 वर्ष बाद अर्थात् 1940 में दोनों में एकता स्थापित हो गयी। बाद में छज्न्थ् का विघटन हो गया तथा उसके मजदूर संघ एटक से जुड़ गये।
श्रमिक आंदोलन 1930-36 के बीच कमजोर पड़ गया। इसका परिणाम हुआ कि 1932-34 ई. में शुरू हुए द्वितीय विनय अवज्ञा आंदोलन में मजदूरों की भागीदारी कम रही। 1935 ई के अधिनियम के बाद लोकप्रय मंत्रिमंडलों के सत्ता में आने से मजदूर संघों की संख्या में अत्याधिक वृद्धि हुई। आमतौर पर कांग्रेस मंत्रिमंडल श्रमिकों की मांगों के प्रति सहानुभूति रखते थे। उसके कार्यकाल मे कांग्रेस मंत्रिमंडलों द्वारा 1938 ई. के बम्बई औद्योगिक विवाद अधिनियम तथा 1939 ई. के दुकान और संस्थान अधिनियम जैसे विभिन्न श्रम अधिनियम पारित किए गए।
द्वितीय विश्वयुद्ध का श्रमिक संघ आंदोलन पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा। युद्ध के परिणाम स्वरूप पहले तो मूल्यों में वृद्धि हुई और जरूरी वस्तुओं का आभाव हो गया। दूसरे युद्ध की माॅग को पूरा करने के लिए औद्योगिक क्रियाकालापों में अत्याधिक वृद्धि हुई। कांग्रेस मंत्रिणमंडल पहले ही त्याग-पत्र दे चुके थे। श्रमिकों ने महगाई भत्ता तथा बोनस की मांग की परंतु सरकार ने भारत सुरक्षा अधिनियम के तहत सभी हड़तालों पर प्रतिबन्ध लगा दिया। तथापि, युद्ध से उत्पन्न स्थितियाॅ श्रमिक संघों के विकास में सहायक हुई। लाहौर में नवम्बर 1941 में श्रमिक संघों के बहुत बडे़ सम्मेलन का आयोजन किया गया। इसमें विशाल संख्या में श्रमिक संघों ने भाग लिया। इसी सम्मूलन में भारतीय श्रमिक परिस्ंाघ नाम से नए केन्द्रीय मजदूर संघ के गठन का निर्णय लिया गया। लेकिन द्वितीय विश्वयुद्ध के प्रारम्भ से ही भारत की स्वतंत्रताप्राप्ति तक श्रमिक संघों की गतिवधियाॅ बहुत धीमी रहीं 1940 ई. के बाद से ही साम्यवादी युद्ध प्रयासों का समर्थन कर रहे थे तथा वे हड़ताल के समर्थन में नहीं थे। इसके अलावा, केंग्रेस के श्रमिक संघों के अधिकतर नेता 1942 ई. के भारत छोडों आंदोलन में गिरफ्तार किएजा चुके थे। स्वतंत्रताप्राप्ति से से पूर्व श्रमिक संघ आंदोलन के इतिहास में युगांतरकारी घटना मई 1944 में भारतीय राष्ट्रीय ट्रेड यूनियन की स्थापना थी। इसका लक्ष्य श्रमिक आंदोलन को गंाधीवादी आदर्शों पर चलाना था। इस संगठन के गठन का प्रमुख कारण 1938ई. में नागपुर एकता के बाद साम्यवादियों द्वारा एटक पर अपना प्रभुत्व जमा लेना था। राष्ट्रवादियों ने सरदार बल्लभभाई पटेल के नेतृत्व में मई 1947 में एटक से अलग होकर भारतीय राष्ट्रीय ट्रेड यूनियन बना ली।
देश में 1918 ई0 में प्रथम श्रमिक संघ के गठन के साथ श्रमिक आंदोलनो की विकास-यात्रा आंरभ हुई। इसके विकास का अनुमान इस बात से लाया जा सकता है कि भारत जब आजाद हुआ तब इन संघों की संख्या 195 तक पहुॅच गयी थी। फिर भी, स्वंतत्रताप्राप्ति से पूर्व भारतीय श्रमिक संघ आंदोलन में अधिकांश औद्योगिक श्रमिकों की निरक्षरता, बाम्ह नेतृत्व पर उनकी निर्भरता तथा राजनीति चेतना का आभाव आदि प्रमुख कारण थे, जिनके परिणामस्वरूप यह आंदोलन कई धाराओं में विभक्त हो गया था इसे आपसी फूट का शिकार होना पड़ा।
#श्रमिक_संघों_के_गठन_के_कारण :
श्रमिक संघों के गठन संबधी प्रमुख कारणों में सर्वोंपरि थे- ग्रामीण गरीबी तथा ऋणग्रस्तता। गरीबी के कारण शहर आने वाले श्रमिक उन बिचैलियों की दया पर निर्भर होते थे, जो उन्हें नौकरी दिलाने में मदद करते थे। ये श्रमिक देश के विभिन्न भागों से आते थे और धर्म, जाति, सम्प्रदाय एवं भाषा भेद के कारणों से एक दूसरे के स्वभाव से परिचित नहीं थे। इस परिवेश में रहने के कारण श्रमिकों को एकता एवं संगठन में निहित शक्ति का ज्ञान प्राप्त करने में काफी समय लगा। इसी बीच प्रथम विश्व युद्ध तथा मन्दी के कारण आर्थिक संकट का भार श्रमिकों के कंधों पर आ पड़ा। भारत में यह स्थिति संगठित मजदूर आंदोलन के विकास के लिए एकदम उपयुक्त थी।
#वामपंथी_विचाधारा_का_विकास :
वामपंथी एवं दक्षिणपंथी फ्रांसीसी क्रांति की देन हैं। राजा के समर्थक दक्षिणपंथी तथा राजा के विरोधी वामपंथी कहलाए। कालांतर में समाज वादी तथा साम्यवादी विचारधाराओं के संदर्भ में वामपंथी। शब्द का प्रयोग किया जाने लगा।
प्राचीन भारतीय परंपरा में चोलकाल के अंतर्गत भी दो वर्ग थे- वैलगै तथा इड़गै। वैलंगे समर्थकों का वर्ग था जबकि इड़गै राजा के विरोधियों का प्रतिनिधत्व करते थे। अठरहवीं शताब्दी के अंतिम दशक में इंग्लैण्ड में हुई औद्योगिक क्रांति के पश्चात् समाज में दो नए वर्गों पूंजीपति एव मजदूर वर्ग का उदय हुआ। धीरे-धीरे इन मजदूरों की दशा बहुत खराब होने लगी। कार्ल माक्र्स एवं फैडरिक एंजिल्स द्वारा सन् 1848 ई. में प्रसिद्ध प्रस्तक कम्युनिस्ट लिखी गई, जिसमें जिसमें सर्व प्रथम साम्यवाद शब्द का प्रयोग हुआ।
भारत में प्रथम विश्व युद्ध के पश्चात् साम्यवादी विचारधारा का प्रचलन हुआ। इस विचारधारा का प्रसार सबसे अधिक औद्योगिक नगरों जैसे बंबई, कलकत्ता, मद्रास, लाहौर, में हुआ। लाहौर में गुलाम हुसैन के संपादन में इकलाब, बम्बई में एस.ए. डांगे के संपादन में सोशल्सिट बंगाल मे मुजफ्फर अहमद के संपादन में नवयुग ने वामपंथी विचारधारा का प्रतिनिधित्व किया तथा पद्रास में सिंगारबेलु चेट्टियार ने कृषकों तथा मजदूरों को समर्थन देकर साम्यवादी विचारधारा के प्रचार-प्रसार में महत्वपूर्ण भमिका निभाई। भारत में वामपंथी आंदोलन का दो विचारधाराओं – साम्यवाद एवं कांग्रेस सोशलिस्ट दल के रूप में विकास हुआ। कांग्रेस सोशलिस्ट दल को भारतीय राष्ट्रीय का समर्थन प्राप्त था। जबकि सम्यवाद को रूस के साम्यवादी संगठन कमिन्टर्न का समर्थन प्राप्त था।
#भारतीय_कम्युनिस्ट_पार्टी_का_उदय :
1920 में ताशकंद (तत्कालीन सोवियत रूस) में एम.एन. राय एवं उनके कुछ सहयोगियों ने मिलकर साम्यवादी दल के गठन की घोषणा की। एम.एन. राय कम्युनिस्ट इंटरनेशल की सदस्यता पाने वाले प्रथम भारतीय थे। सन् 1925 ई. में कानपुर में भारतीय कम्युनिट पार्टी का गठन हुआ। जिसके महामंत्री का पदभार एस.पी. घाटे ने संभाला। साम्यवादी दल के चर्चित होने का मुख्य कारण पेशावर षड्यंत्र केस (1922-24) कानपुर षड्यंत्र मामला (1924)ई0 तथा मेरठ षड्यंत्र केस 1929-33 ई में इस दल से संबंधित व्यक्तियों की संलिप्तता थी। इन मकदमों से निपटने के लिए कांग्रेस ने केन्द्रीय सुरक्षा समिति का गठन किया। पं. जवाहर लाल नेहरू, कैलाशनाथ काटजू एवं डाॅ.एफ.एच. अंसारी ने इन मुकदमों की सुनवाई के दौरान प्रतिवादी की ओर से पैरवी की। 1934 ई. के साम्यवादी दल के आंदोलनों ने भारत में काफी प्रसिद्धि प्राप्त कर ली थी, जिसके परिणमस्वरूप सन् 1934 ई. में ब्रिटिश सरकार ने साम्यवादी दल पर प्रतिबंध लगा दिया।
#कांग्रेस_समाजवादी_दल_का_उदय (1934 ) :
1934 में आचार्य नरेन्द्र जय प्रकाश नारायण, मीनू मसानी एवं अशोक मेहता के सम्मिलित प्रयासों के फलस्वरूप कांग्रेस समाजवादी दल की स्थापना हुई। इसका प्रथम सम्मेलन सन्-1934 ई में पटना में हुआ। कांग्रेस की नीतियों में समाजवादी विचारधारा को सम्मिलित करना तथा भारत के आर्थिक विकास की प्रक्रिया के नियंत्रण एवं नियम हेतु राज्य की सर्वोच्चता को स्वीकार करना समाजवादी दल की स्थापना का उद्देश्य था। साथ ही, राजाओं और जमींदारों की प्रथा का उन्मूलन बिना मुआवजे के करना, इसके अन्य उदेश्यों में शामिल था। जुलाई 1931 में बिहार में समाजवादी दल की स्थापना जयप्रकाश नारायण, फूलन प्रसाद वर्मा तथा अन्य व्यक्तियों ने की। पंजाब में भी सन् 1933 में एक समाजवादी दल की स्थापना की गई। दौरान आचार्य नरेन्द्र देव की समाजवाद एवं राष्ट्रीय आंदोलन तथा प्रकाश नारायण की ’समाजवाद ही क्यों’ नामक पुस्तकें प्रकाशित हुई।
सुभाषचंन्द्र बोस द्वारा 1939 ई. में गठित फाॅरवर्ड ब्लाॅक अन्य वामपंथी संस्थाओं में प्रमुख है। सन् 1940 ई. में क्रांतिकारी समाजवादी दल का गठन हुआ, जिसका उद्देश्य अंग्रेजों को शक्ति द्वारा भारत से निकाल फेंकना था तथा भारत में समाजवाद की स्थापना करना था। एन. दत्त मजूमदार द्वारा सन् 1939 ई. में बोल्शेविक दल और सौम्येन्द्रनाथ टैगोर द्वारा सन् 1942 ई. में क्रांतिकारी साम्यवादी दल का गठन किया गया। सन् 1941 में बोल्शेविक लेनिनिस्ट दल की स्थापना का श्रेय क्रांतिकारी नेताओं अजीय राय एवं इन्द्रसेन को जाता है। अतिवादी लोकतंत्र दल का गठन भारतीय साम्यवादी दल के जनक एम. एन. द्वारा 1940 ई. में किया गया।
[01/12, 8:26 AM] Raj Kumar: #भारतीय_राजव्यवस्था_एवं_शासन :
#संविधान_की_प्रस्तावना_या_उद्देशिका
▪️उद्देशिका संविधान के आदर्शोँ और उद्देश्योँ व आकांक्षाओं का संछिप्त रुप है।
▪️अमेरिका का संविधान प्रथम संविधान है, जिसमेँ उद्देशिका सम्मिलित है।
▪️भारत के संविधान की उद्देशिका जवाहरलाल नेहरु द्वारा संविधान सभा मेँ प्रस्तुत उद्देश्य प्रस्ताव पर आधारित है।
▪️उद्देश्यिका 42 वेँ संविधान संसोधन (1976) द्वारा संशोधित की गयी। इस संशोधन द्वारा समाजवादी, पंथनिरपेक्ष और अखंडता शब्द सम्मिलित किए गए।
▪️प्रमुख संविधान विशेषज्ञ एन. ए. पालकीवाला ने प्रस्तावना को संविधान का परिचय पत्र कहा है।
हम भारत के लोग भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न समाजवादी पंथ निरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिक को : सामाजिक, आर्थिक, और राजनैतिक नयाय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त कराने के लिए, तथा उन सब मेँ व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखंडता सुरक्षा सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढ़ाने के लिए दृढ संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा मेँ आज तारीख 26 नवंबर 1949 ई. (मिति मार्गशीर्ष शुक्ल सप्तमी संवत २००६ विक्रमी) को एतद् द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित, और आत्मार्पित करते हैं।
#प्रस्तावना_का_उद्देश्य :
▪️सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक न्याय उपलब्ध कराना।
▪️विचार, मत, विश्वास, धर्म तथा उपासना की स्वतंत्रता प्रदान करना।
▪️पद और अवसर की समानता देना।
▪️व्यक्ति की गरिमा एवं राष्ट्र की एकता और अखंडता को सुनिश्चित करने वाली बंधुता स्थापित करना।
#आवश्यक_तत्व :
▪️उद्घोषित करती है कि भारत की संप्रभुता भारत के लोगोँ मेँ समाहित है।
▪️उद्घोषित करती है कि भारत भारतीय राज्य की प्रकृति संप्रभु, समाजवादी, पंथ निरपेक्ष, लोकतांत्रिक और गणतांत्रिक है।
▪️उद्घोषित करती है कि भारत के लोगोँ का उद्देश्य न्याय, स्वतंत्रता, समानता प्राप्त करना है तथा बंधुत्व की भावना का विकास करना है।
▪️उद्घोषित करती है कि भारत का संविधान 26 नवंबर 1949 को अंगीकृत, अधिनियमित, आत्मार्पित किया गया है।
#परिभाषिक_शब्दों_के_भावार्थ :
#हम_भारत_के_लोग : हम भारत के लोग संपूर्ण भारतीय राजव्यवस्था का मूल आधार है। इन शब्दोँ का महत्व इस अर्थ मेँ है कि अपने संपूर्ण इतिहास मेँ पहली बार भारत के लोग इस स्थिति मेँ हैं कि अपने भाग्य का निर्माण करने का निर्णय स्वयं कर सकें।
▪️यह शब्दावली भारतीय समाज के अंतिम व्यक्ति की इच्छा का प्रतिनिधित्व करती है कि हमारे भारत और उसकी व्यवस्था का स्वरुप क्या हो। ध्यान रहे कि इससे पूर्व सभी अधिनियमों को ब्रिटेन ने पारित किया था जबकि यह संविधान भारत की प्रमुख प्रभुत्व संपन्न संविधान सभा ने भारत के लोगोँ की और से अधिनियमित किया था।
#संप्रभुता : इस शब्द का अर्थ है कि भारत ने अपने आंतरिक और वाह्य मामलोँ मेँ पूर्णतः स्वतंत्र है। अन्य कोई सत्ता इसे अपने आदेश के पालन के लिए विवश नहीँ कर सकती है।
▪️भारत मेँ स्वतंत्र होने के बाद से 1949 मेँ राष्ट्रमंडल की सदस्यता स्वेच्छा से की थी। अतः यह भारत की संप्रभुता का उल्लंघन नहीँ है।
#समाजवादी : यह शब्द एक विशिष्ट आर्थिक व्यवस्था का द्योतक है जिसमेँ राष्ट्र की आर्थिक गतिविधियोँ पर सरकार के माध्यम से पूरे समाज का अधिकार होने को मान्यता दी जाती है।
▪️यह पूंजी तथा व्यक्तिगत पूंजी पर आधारित आर्थिक व्यवस्था, पूंजीवाद के विपरीत संकल्पना है।
▪️42 वेँ संविधान संशोधन द्वारा शामिल किए जाने से पूर्व यह नीति निर्देशक तत्वों के माध्यम से संविधान मेँ शामिल था। समाजवादी शब्द को उद्देशिका मेँ सम्मिलित करना हमारे राष्ट्रीय आंदोलन के उद्देश्यों के अनुरुप है।
#पंथनिरपेक्ष : यह शब्द घोषित करता है कि भारत एक राष्ट्र के रुप मेँ किसी धर्म विदेश विशेष को मान्यता नहीँ देता है। इससे यह भी घोषित होता है कि भारत सभी धर्मो का आदर समान रुप से करता है।
▪️सभी नागरिक अपने व्यक्तिगत विश्वास, आस्था और धर्म का पालन, संरक्षण और संवर्धन करने के लिए स्वतंत्र है।
▪️यह शब्दावली भी 42 वेँ संविधान संशोधन द्वारा उद्देशिका मेँ सम्मिलित की गयी। यद्यपि पंथनिरपेक्षता के मूल तत्व संविधान के अनुच्छेद 25 से 28 मेँ समाहित हैं।
#लोकतंत्रात्मक : यह अत्यंत व्यापक अर्थों वाली शब्दावली है जिससे ध्वनित होता है कि आम आदमी की आवाज महत्वपूर्ण है। शासन प्रणाली हो या समाज व्यवस्था सभी क्षेत्रोँ मेँ लोकतंत्र की स्थापना के उद्देश्य का तात्पर्य यह घोषित करता है कि हम सभी समान है तथा क्योंकि हम मनुष्य है इसलिए अपने वर्तमान और भविष्य के उद्देश्यों, नीतियो को तय करना हम सब का समान अधिकार है।
▪️उद्देशिका मेँ प्रयुक्त लोकतांत्रिक शब्द भारत को लोकतंत्रात्मक प्रणाली का राष्ट्र घोषित करता है। भारत ने अप्रत्यक्ष लोकतंत्र के अंतर्गत संसदीय प्रणाली को अपने ऐतिहासिक अनुभवो के आधार पर चुना।
#गणराज्य : शब्द का तात्पर्य है कि राष्ट्र का प्रमुख या अध्यक्ष नियमित अंतराल पर नियमित कार्यकाल के लिए चुना जाता है।
▪️ब्रिटेन में वंशानुगत अधार पर राजा या रानी राष्ट्र का प्रतिनिधिनित्व हारते हैं, जबकि शासन की बागडोर प्रधानमंत्री के हाथ मेँ होती है।
▪️भारत मेँ गणतंत्र त्वक व्यवस्था के अंतर्गत राष्ट्र और शासन का प्रमुख एक ही पदाधिकारी राष्ट्रपति होता है।
#सामाजिक_आर्थिक_एवं_राजनैतिक_न्याय : उद्देशिका भारत के नागरिकोँ को आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक नयाय प्राप्त कराने के उद्देश्य की घोषणा करती है।
▪️न्याय का सामान्य अर्थ होता है कि भेद-भाव की समाप्ति। राजनीतिक न्याय सहित आर्थिक और सामाजिक नयाय के उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए नीति-निदेशक तत्वों (भाग-4), मूल अधिकारोँ (भाग-3) मेँ विभिन्न प्रावधान किए गए हैं।
▪️सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक नयाय का लक्ष्य 1917 की रुसी क्रांति से प्रेरित है।
▪️विचार अभिव्यक्ति विश्वास धर्म और उपासना की स्वतंत्रता : इस शब्द का नकारात्मक अर्थ होता है – प्रतिबंधोँ का अभाव, जबकि सामान्य अर्थ होता है व्यक्तिगत विकास हेतु समान अवसरोँ की उपलब्धता।
▪️उद्देशिका मेँ वर्णित इन आदर्शोँ की प्राप्ति के लिए संविधान के भाग-3 मेँ मूल अधिकारोँ के अंतर्गत प्रावधान किया गया है।
#प्रतिष्ठा_और_अवसर_की_समता : इस शब्द का तात्पर्य है कि अतार्किक विशेषाधिकारोँ की समाप्ति, आगे बढ़ने के समान अवसर तथा मानव होने के आधार पर सभी समान हैं। इससे संबंधित प्रावधान संविधान के भाग-3 और भाग-4 मेँ उल्लिखित हैं।
▪️व्यक्ति की गरिमा, राष्ट्र की एकता और अखंडता सुनिश्चित करने वाली बंधुता : बंधुता शब्द राष्ट्र के सभी नागरिकोँ के बीच भावनात्मक संबंधों को दृढ़ करने का आदर्श प्रस्तुत करता है, जैसा की परिवार के सदस्योँ के बीच मेँ होता है।
▪️भावनात्मक एकता के अभाव मेँ न तो व्यक्ति के सम्मान की रक्षा की जा सकती है और न राष्ट्र की एकता और अखंडता संरक्षित रह सकती है।
▪️अखंडता शब्द 42-वेँ संविधान संशोधन द्वारा उद्देशिका मे शामिल किया गया। वस्तुतः स्वतंत्रता, समता और बंधुता का उद्देश्य फ्रांसीसी क्रांति (1889) से प्रभावित है।
▪️उद्देशिका : संविधान का भाग है या नहीँ? के संबंध संदर्भ मेँ न्यायिक निर्णय, सर्वोच्च नयायालय के दृष्टिकोण मेँ संविधान की प्रस्तावना संविधान के निर्माताओं के मन को खोलने की कुंजी है।
▪️1960 के बेरुबाड़ी वाद मेँ यह प्रश्न निर्णय हेतु सर्वोच्च यायालय के समक्ष प्रस्तुत हुआ तो सर्वोच्चन न्यायालय ने माना की यद्यपि उद्देशिका संविधान के उद्देश्योँ का संघीभूत रुप है तथा संविधान निर्माताओं के लक्ष्योँ की कुंजी है, लेकिन यह संविधान का भाग नहीँ है।
▪️1973 के केशवानन्द भारती वाद और 1995 के एल. आई. सी. वाद में सर्वोच्च न्यायालय ने अपनी पूर्व की मान्यता के विपरीत माना कि उद्देशिका संविधान का भाग है क्योंकि संविधान अनुच्छेदों में वर्णित प्रावधानोँ की व्याख्या मेँ सहायक है।
▪️केशवानंद भारती के वाद मेँ उच्चतम न्यायालय ने स्पष्ट कर दिया कि संविधान के किसी भाग मेँ संशोधन का अधिकार है लेकिन उस भाग मेँ संशोधन नहीँ किया जा सकता, जो आधारभूत ढांचे से संबंधित है।
▪️संविधान सभा ने भी सभी भागोँ को अधिनियमित करने के बाद उद्देशिका को संविधान के भाग के रुप मेँ अधिनियमित किया गया था। अतः उद्देशिका संविधान का भाग है। परंतु इसे नयायालय मेँ वैधानिक की प्रस्थिति प्राप्त नहीँ है।
▪️उद्देशिका : संशोधन योग्य है या नहीँ? के संदर्भ मेँ न्यायिक निर्णय – इसकी प्रकृति ऐसी है कि इनका प्रवर्तन नयायालय मेँ नहीँ हो सकता है अर्थात यह न्यायालय मेँ अप्रवर्तनीय है।
▪️संविधान के अनुच्छेद 368 मेँ संविधान संसोधन की शक्ति और प्रक्रिया सन्निहित है।
▪️1973 के केशवानन्द भारती वाद मेँ उद्देशिका के संशोधन योग्य होने या न होने का प्रश्न सर्वोच्च यायालय के समक्ष आया, तो न्यायालय ने माना की उद्देशिका संविधान का भाग है अतः यह अनुच्छेद 368 के अंतर्गत संशोधनीय है लेकिन एक शर्त रखी कि अनुच्छेद 368 के अंतर्गत किए गए संशोधन से संविधान के मूल तत्वों मेँ कोई परिवर्तन नहीँ होना चाहिए। अतः उद्देशिका संशोधन योग्य है और यह शक्ति मात्र संसद को प्राप्त है। संविधान के मूल तत्वों के प्रतिबंध के अंतर्गत रहते हुए 1976 मेँ 42 वेँ संविधान संशोधन द्वारा उद्देशिका मेँ समाजवादी, पंथ निरपेक्ष और अखंडता शब्द जोड़े गए।
#उद्देशिका_का_महत्व :
▪️संविधान के मूल सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक दर्शन की अभिव्यक्ति है।
▪️संविधान निर्माताओं के महान और आदर्श विचारोँ की कुंजी है।
▪️सर अल्लादी कृष्णास्वामी अय्यर के अनुसार उद्देशिका हमारे स्वप्नों और विचारोँ का प्रतिनिधित्व करती है।
▪️के. एम. मुंशी के अनुसार उद्देशिका हमारे प्रभुत्व संपन्न, लोकतंत्रात्मक गणराज्य की जन्मकुंडली है।
▪️सर अर्नेस्ट वार्कर ने उद्देशिका को अपने सामाजिक, राजनैतिक विचारोँ की कुंजी माना तथा अपनी पुस्तक प्रिंसिपल्स ऑफ सोशल एंड पोलिटिकल थ्योरी मेँ आमुख के रूप मेँ शामिल किया।
▪️एम. हिदायतुल्ला के अनुसार उद्देशिका हमारे संविधान की आत्मा है।
#प्रमुख_आवश्यक_तथ्य :
▪️भारत का संविधान भारत के लोगोँ द्वारा संविधान सभा के माध्यम से 26 नवंबर, 1949 को स्वीकार किया गया लेकिन 26 जनवरी, 1950 से संपूर्ण लागू किया गया।
▪️उद्देशिका, नीति-निदेशक तत्वों तथा मूल कर्तव्य की तरह ही वाद योग्य नहीँ है, अर्थात इसके उल्लंघन के विरुद्ध कोई वाद नहीँ लाया जा सकता है और न ही कानून के द्वारा लागू किया जा सकता है।
▪️13 दिसंबर, 1946 को पंडित नेहरु ने उद्देश्य प्रस्ताव संविधान सभा के समक्ष रखा।
▪️डेमोक्रेसी शब्द के दो यूनानी शब्दो डेमो और क्रेटिया शब्द से बना है, जिसका अर्थ है लोगों का शासन।
▪️प्रत्येक संविधान का अपना एक दर्शन होता है, हमारे भारतीय संविधान का दर्शन पंडित नेहरु के ऐतिहासिक उद्देश्य संकल्प से लिया गया है, जिसे संविधान सभा ने 22 जनवरी, 1947 को अंगीकार किया था।
▪️उच्चतम न्यायालय ने इस बात से सहमत प्रकट की थी कि उद्देशिका संविधान निर्माताओं के मन की कुंजी है, जहाँ अस्पष्ट शब्द पर जाएं या उनका अर्थ स्पष्ट ना हो, वहाँ संविधान निर्माताओं के आशय को समझने के लिए उद्देश्यिका की सहायता ली जा सकती है।
▪️उद्देशिका मेँ लिखित है कि हम भारत के लोग इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं। इस प्रकार भारत की संप्रभुता भारत की जनता मेँ निहित है।
▪️भारत को 26 जनवरी, 1950 को एक गणराज्य घोषित किया गया, जिसका तात्पर्य है, भारत का राष्ट्राध्यक्ष निर्वाचित होगा, अनुवांशिक नहीँ।
▪️उद्देशिका मेँ संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न, समाजवादी, पंथ निरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य, सामाजिक, आर्थिक, और राजनीतिक नयाय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म, उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समानता, व्यक्ति की गरिमा, राष्ट्र की एकता और अखंडता आदि प्रमुख शब्द प्रयोग किए गए हैं।
▪️भारत मेँ प्रतिनिध्यात्मक लोकतंत्र अपनाया गया है। जहाँ संसद सदस्यों और विधायकों का प्रत्यक्ष चुनाव होता है।
▪️इस व्यवस्था को और अधिक मजबूत बनाने के लिए इसकी शुरुआत पंचायती तथा नगर निगम निकायोँ से (73 वें और 74 वेँ संवैधानिक संसोधन 1992 द्वारा) शुरु की गयी।
▪️इस प्रकार संविधान की प्रस्तावना मेँ राजनीतिक लोकतंत्र के अलावा आर्थिक एवं सामाजिक लोकतंत्र को भी अपनाया गया है। गणराज्य या गणतांत्रिक व्यवस्था का तात्पर्य राष्ट्र का अध्यक्ष, आनुवांशिक न होकर निर्वाचित होगा।
▪️संविधान की उद्देशिका मेँ न्याय की परिभाषा सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक न्याय के रुप मेँ की गयी है, जिसमेँ राजनैतिक न्याय के द्वारा राज्य को ज्यादा कल्याणकारी बनाकर सामाजिक एवं आर्थिक न्याय के उद्देश्योँ को प्राप्त किया जा सकता है।
▪️स्वतंत्रता मेँ विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता सम्मिलित है।
▪️स्वतंत्रता एक अनिवार्य तत्व है। किसी भी समाज के व्यक्तियो के व्यक्तिगत बौद्धिक, आध्यात्मिक, विकास के लिए समानता का अर्थ है – प्रतिष्ठा एवं अवसर की समानता।
▪️हमारे संविधान मेँ किसी भी तरह के भेदभाव को अवैधानिक करार दिया गया है। चाहे वह धर्म के आधार पर हो, जाति, लिंग, जन्म अथवा राष्ट्रीयता के आधार पर। अंतिम लक्ष्य है, कि व्यक्ति की गरिमा तथा राष्ट्र की एकता सुनिश्चित करना, इस प्रकार उद्देशिका यह घोषणा करती है कि भारत के लोग संविधान के मूल स्रोत हैं, भारतीय राजव्यवस्था में प्रभुता लोगोँ मेँ निहित है और भारतीय राज्य लोकतंत्रात्मक व्यवस्था है, जिसमे लोगों को मूल अधिकारोँ तथा स्वतंत्रताओं की गारंटी दी गयी है तथा राष्ट्र की एकता सुनिश्चित की गयी है।
[01/12, 8:26 AM] Raj Kumar: #आधुनिक_भारत_का_इतिहास :
#होमरुल_लीग_आंदोलन
प्रथम विश्वयुद्ध से उत्पन्न परिस्थितियों की एक अन्य कम नाटकीय लेकिन अधिक प्रभावशाली प्रतिक्रिया हुई- ऐनी बेसेंट और लोकमान्य तिलक का होमरूल लीग। होमरूल लीग आंदोलन, प्रथम विश्वयुद्ध के पश्चात् उत्पन्न हुयी परिस्थितियों में भारतीयों की कम प्रभावशाली प्रतिक्रिया के रूप में सामने आया, किन्तु स्वतंत्रता आंदोलन की प्रक्रिया में इसने अपनी महत्वपूर्ण छाप छोड़ी। यद्यपि यह आंदोलन स्थिरता के साथ प्रारम्भ हुआ था लेकिन आगे चलकर इसने तत्कालीन सभी आंदोलनों को पीछे छोड़ दिया।
भारतीय होमरूल लीग का गठन आयरलैंड के होमरूल लीग के नमूने पर किया गया था, जो तत्कालीन परिस्थितियों में तेजी से उभरती हुयी प्रतिक्रियात्मक राजनीति के नये स्वरूप का प्रतिनिधित्व करता था। ऐनी बेसेंट और तिलक इस नये स्वरुप के अगुवा थे।
#होमरूल_आंदोलन_प्रारम्भ_होने_के_उत्तरदायी
#कारक
▪️राष्ट्रवादियों के एक वर्ग का मानना था कि सरकार का ध्यान आकर्षित करते हुए उस पर दबाव डालना आवश्यक है।
▪️मार्ले-मिंटो सुधारों का वास्तविक स्वरुप सामने आने पर नरमपंथियों का भ्रम सरकार की निष्ठा से टूट गया।
▪️प्रथम विश्व युद्ध में ब्रिटेन द्वारा भारतीय संसाधनों का खुल कर प्रयोग किया गया। इस क्षतिपूर्ति के लिये युद्ध के उपरांत भारतीयों पर भारी कर आरोपित किये गये तथा आवश्यक वस्तुओं की कीमतें आसमान छूने लगीं। इन कारणों से भारतीय त्रस्त हो गये तथा वे ऐसे किसी भी सरकार विरोधी आंदोलन में भाग लेने हेतु तत्पर थे।
▪️यह विश्वयुद्ध तत्कालीन विश्व की प्रमुख महाशक्तियों के बीच अपने-अपने हितों को लेकर लड़ा गया था तथा इससे अन्य ताकतों के साथ ब्रिटेन का वास्तविक चेहरा भी उजागर हो गया था। युद्ध के पश्चात् श्वेतों की अजेयता का भ्रम भी टूट गया।
▪️जून 1914 में बाल गंगाधर तिलक जेल से रिहा हो गये। भारतीय स्वतंत्रता के संघर्ष में सक्रिय भूमिका निभाने हेतु वे पुनः किसी सुअवसर की तलाश में थे। उन्होंने सरकार को अपना सहयोगात्मक रुख समझाने का प्रयत्न किया।
आयरलैण्ड के होमरूल लीग के तर्ज पर उन्होंने प्रशासकीय सुधारों की मांग की। तिलक ने कहा हिंसा के प्रयोग से भारतीय स्वतंत्रता की प्रक्रिया में रुकावट आ सकती है। फलतः उन्होंने आयरिस होमरूल जैसे आदोलन के द्वारा भारतीयों की दशा में सुधार लाने की वकालत शुरू कर दी। उन्होंने यहां तक कहा कि संकट के इन क्षणों में हमें ब्रिटेन का सहयोग करना चाहिये।
1896 में आयरलैण्ड की थियोसोफिस्ट महिला ऐनी बेसेंट भारत आयीं थीं। प्रथम विश्वयुद्ध के उपरांत उन्होंने भी भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन को समर्थन देने हेतु आयरिस होमरूल लीग के नमूने पर भारत में आंदोलन प्रारम्भ करने का निर्णय किया। इस लीग के माध्यम से वे अपने विचारों को जनता में प्रसारित कर अपना कार्य क्षेत्र बढ़ाना चाहती थीं।
बालगंगाधर तिलक तथा एनी बेसेंट दोनों की होमरूल लीग ने यह महसूस किया कि आन्दोलन की सफलता के लिए उदारवादियों के नेतृत्व वाली कांग्रेस के साथ ही अतिवादी राष्ट्रवादियों का भी समर्थन आवश्यक है। 1914 में नरमपंथियेां एवं अतिवादियों के मध्य समझौता प्रयासों के असफल हो जाने के पश्चात् बालगंगाधर तिलक एवं ऐनी बेसेंट दोनों ने स्वयं के प्रयासों से राजनीतिक गतिविधियों को जीवंत करने का निश्चय किया।
1915 के प्रारम्भ से एनी बेसेंट ने भारत एवं अन्य उपनिवेशों में स्वशासन की स्थापना हेतु अभियान प्रारम्भ कर दिया। उन्होंने जनसभायें आयोजित कीं तथा न्यू इण्डिया एवं कामनवील नामक पत्र का प्रकाशन प्रारम्भ किया। इन पत्रों के माध्यम से उन्होंने अंग्रेज सरकार के सम्मुख भारत में स्वशासन की स्थापना की मांग को दृढ़ता के साथ उठाया। 1915 के कांग्रेस के वार्षिक अधिवेशन में तिलक एवं ऐनी बेसेंट को अपने प्रयासों में थोड़ा सफलता मिली। इस अधिवेशन में यह निर्णय लिया गया कि उग्रवादियों को पुनः कांग्रेस में सम्मिलित किया जायेगा। यद्यपि ऐनी बेसेंट प्रारंभ में अपने इस प्रयास में सफल नहीं हो सकी थीं। अधिवेशन में एनी बेसेंट अपनी होमरूल लीग योजना के लिये कांग्रेस का समर्थन प्राप्त करने में असफल रहीं किन्तु कांग्रेस, शिक्षा के माध्यम से राजनीतिक मांगों का प्रचार-प्रसार करने तथा स्थानीय कांग्रेस कमेटियों को पुनः सक्रिय करने पर अवश्य सहमत हो गयी। इसके पश्चात् ऐनी बेसेंट ने कांग्रेस की स्वीकृति प्राप्त होने का इंतजार न करते हुये स्वयं के प्रयासों से होमरूल लीग के कार्यों को आगे बढ़ाने का निर्णय लिया। उन्होंने घोषित किया कि चूंकि कांग्रेस ने उनकी लीग को स्वीकृति प्रदान करने में अनिवार्य कदम नहीं उठाये हैं फलतः लीग के माध्यम से वे अपने उद्देश्यों को स्वयं प्राप्त करने हेतु स्वतंत्र हैं।
बालगंगाधर तिलक तथा एनी बेसेंट ने किसी प्रकार के आपसी टकरावकी संभावनाओं को दूर करने के लिए पृथक-पृथक लीग स्थापित करने का निर्णय लिया।
#तिलक_की_होमरूल_लीग :
बाल गंगाधर तिलक ने होमरूल लीग की स्थापना अप्रैल 1916 में की। इसकी शाखायें महाराष्ट्र, कर्नाटक, मध्य प्रांत एवं बरार में खोली गयीं। इसे 6 शाखाओं में संगठित किया गया। स्वराज्य की मांग, भाषायी प्रांतों की स्थापना तथा शिक्षा के प्रचार-प्रसार को लीग ने अपना मुख्य लक्ष्य घोषित किया।
#बेसेंट_की_होमरुल_लीग :
ऐनी बेसेंट ने सितम्बर 1916 में मद्रास में होमरूल लीग की स्थापना की घोषणा की। मद्रास के अतिरिक्त लगभग पूरे भारत में इसकी शाखायें खोली गयीं। इसकी लगभग 200 शाखायें थीं। जार्ज अरूंडेल को लीग का संगठन सचिव नियुक्त किया गया। यद्यपि बेसेंट की लीग का संगठन तिलक की होमरूल लीग की तुलना में कमजोर था किन्तु इसके सदस्यों की काफी बड़ी संख्या थी। बेसेंट की लीग में अरूंडेल के अलावा बी.एम. वाडिया एवं सी.पी. रामास्वामी अय्यर ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभायी।
धीरे-धीरे होमरूल लीग आंदोलन लोकप्रिय होने लगा तथा इसके समर्थकों की संख्या बढ़ने लगी। अनेक प्रमुख राष्ट्रवादी नेताओं ने लीग की सदस्यता ग्रहण की, जिनमे मोतीलाल नेहरु, जवाहर लाल नेहरु, भूलाभाई देसाई, चितरंजन दास, मदन मोहन मालवीय, मोहम्मद अली जिन्ना, तेज बहादुर सप्रू एवं लाला लाजपत राय प्रमुख थे। इनमें से कुछ नेताओं को स्थानीय शाखाओं का प्रमुख नियुक्त किया गया। अनेक अतिवादी राष्ट्रवादी, जिनका कांग्रेस की कार्यप्रणाली से मोहभंग हो चुका था, होमरूल लीग आंदोलन में शामिल हो गये। गोपाल कृष्ण गोखले की सर्वेट आफ इंडिया सोसायटी के अनेक सदस्यों ने भी आंदोलन की सदस्यता ग्रहण कर ली। फिर भी एंग्लो-इण्डियन्स (आंग्ल-भारतीय), बहुसंख्यक मुसलमान तथा दक्षिण भारत की गैर-ब्राह्मण जातियां इस आंदोलन से दूर रहीं क्योंकि उनका विश्वास था कि होमरूल का तात्पर्य हिन्दुओं मुख्यतया उच्च जातियों के शासन से है।
#होमरूल_लीग_आंदोलन_के_कार्यक्रम :
होमरूल लीग आंदोलन का मुख्य उद्देश्य भारतीय जनमानस को होमरूल अर्थात् स्वशासन के वास्तविक अर्थ से परिचित कराना था। इसने भारतीयों को राजनैतिक रूप से जागृत करने के पिछले सभी आन्दोलनों को पीछे छोड़ दिया तथा भारत के राजनितिक दृष्टिकोण से पिछड़े क्षेत्रों जैसे- गुजरात एवं सिंध तक अपनी पैठ बनायी। आंदोलन का उद्देश्य पुस्तकालयों एवं अध्ययन कक्षों (जिनमें राष्ट्रीय राजनीति से संबंधित पुस्तकों का संग्रह हो) तथा जनसभाओं एवं सम्मेलनों का आयोजन कर भारतीयों में राजनीतिक शिक्षा को प्रोत्साहित करना था। इसके लिये लीग ने समाचार- पत्रों, राजनीतिक विषयों पर विद्यार्थियों की कक्षाओं का आयोजन, पैम्फलेट्स, पोस्टर, पोस्टकार्ड, नाटकों एवं धार्मिक गीतों जैसे माध्यमों को भी अपने प्रयासों में सम्मिलित किया।
लीग ने अपने उद्देश्यों की सफलता के लिये कोष बनाया तथा धन एकत्रित किया, सामाजिक कार्यों का आयोजन किया तथा स्थानीय प्रशासन के कार्यों में भागेदारी निभायी। लीग ने स्थानीय कार्यों के माध्यम से बहुसंख्यक भारतीयों से जुड़ने का प्रयास किया। 1917 की रूसी क्रांति से भी लीग के कार्यों में सहायता मिली।
#लीग_के_प्रति_सरकार_का_रुख :
सरकार ने लीग के समर्थकों पर कड़ी कार्यवाही की तथा लीग के कार्यक्रमों को रोकने के लिये दमन का सहारा लिया। मद्रास में सरकार ने छात्रों पर कठोर कार्यवाई की तथा राजनीतिक सभाओं में उनके भाग लेने पर प्रतिबंध लगा दिया गया। बाल गंगाधर तिलक के विरुद्ध न्यायालय में मुकदमा दायर किया गया। उनके पंजाब एवं दिल्ली में प्रवेश करने पर रोक लगा दी गयी। जून 1917 में ऐनी बेसेंट एवं उनके सहयोगियों बी.पी. वाडिया एवं जार्ज अरुंडेल को गिरफ्तार कर लिया गया। इन गिरफ्तारियों के विरुद्ध राष्ट्रव्यापी प्रतिक्रिया हुयी। अत्यन्त नाटकीय ढंग से सर एस. सुब्रह्मण्यम अय्यर ने अपनी ‘सर’ की उपाधि त्याग दी तथा तिलक ने सरकारी दमन के विरोध में अहिंसात्मक प्रतिरोध कार्यक्रम प्रारम्भ करने की वकालत की।
सरकार को विश्वास था कि इन कार्यवाइयों से होमरूल आंदोलन स्वतः समाप्त हो जायेगा किन्तु इसका उल्टा प्रभाव पड़ा। सरकारी कुचक्र के विरोध में आंदोलनकारी और संगठित हो गये तथा कई अन्य राष्ट्रवादी इसमें शामिल हो गये। तिलक ने घोषणा की कि यदि ऐनी बेसेंट को रिहा नहीं किया गया तो भारतीय जनता सरकार के विरुद्ध सत्याग्रह करेगी। 20 अगस्त 1917 को भारत सचिव ई.एस. मांग्टेग्यू के माध्यम से ब्रिटिश सरकार ने घोषणा की कि युद्ध के बाद भारत में स्वायत्त संस्थाओं के क्रमिक विकास की प्रक्रिया प्रारम्भ की जायेगी। सरकार ने भी सितम्बर 1917 में ऐनी बेसेंट को जेल से रिहा कर दिया। इसके पश्चात् होमरूल लीग आंदोलन स्थगित कर दिया गया।
#आंदोलन_की_उपलब्धियां :
होमरूल लीग आंदोलन की अनेक उपलब्धियां भी रहीं। जो इस प्रकार हैं-
▪️आंदोलन ने केवल शिक्षित वर्ग के स्थान पर जनसामन्य की महत्ता की प्रतिपादित किया तथा सुधारवादियों द्वारा तय किये गये स्वतंत्रता आंदोलन की मानचित्रावली को स्थायी तौर पर परिवर्तित कर दिया।
▪️इसने देश एवं शहरों के मध्य सांगठनिक सम्पर्क स्थापित किया। आदोलन की यह उपलब्धि बाद के वर्षों में अत्यन्त उपयोगी सिद्ध हुयी। विशेषकर भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के चरमोत्कर्ष में देश के हर शहर ने सक्रिय भूमिका निभायी। जो इस आंदोलन के सांगठनिक स्वरूप की देन ही थी।
▪️आंदोलन ने जुझारू राष्ट्रवादियों की एक नयी पीढ़ी को जन्म दिया।
▪️उसने भारतीय जनसमुदाय की राजनीति के गांधीवादी आदशों के प्रयोग हेतु प्रशिक्षित किया।
▪️अगस्त 1917 में मांटेग्यू की घोषणायें तथा मोन्टफोर्ड सुधार काफी हद तक होमरूल लीग आांदोलन से प्रभावित थे।
▪️तिलक एवं ऐनी बेसेंट के प्रयासों से कांग्रेस के लखनऊ अधिवेशन (1916) में नरमदल एवं गरमदल के राष्ट्रवादियों के मध्य समझौता होने में अत्यन्त सहायता मिली। लीग के नेताओं का यह योगदान राष्ट्रीय आंदोलन की प्रक्रिया में मील का पत्थर था।
▪️होमरूल लीग आंदोलन ने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन को एक नयी दिशा व नया आयाम प्रदान किया।
[01/12, 8:26 AM] Raj Kumar: #आधुनिक_भारत_का_इतिहास :
#दिल्ली_दरबार_और_राजधानी_परिवर्तन
दिल्ली दरबार भारत में औपनिवेशिक काल में राजसी दरबार होता था। यह इंग्लैण्ड के महाराजा या महारानी के राजतिलक की शोभा में सजाया जाता था। ब्रिटिश साम्राज्य के चरम काल में, सन 1877 से 1911 के बीच तीन दिल्ली दरबार लगे। सन 1911 का दरबार एकमात्र ऐसा था, जिसमें सम्राट जॉर्ज पंचम स्वयं पधारे थे। इसी तीसरे दरबार में दिल्ली को राजधानी बनाने का ऐलान किया गया था। आइए जानते हैं तीनों दिल्ली दरबार के बारे में क्रमबद्ध तरीके से-
#पहला_दिल्ली_दरबार (1877) :
पहला दरबार लॉर्ड लिटन ने आयोजित किया था, जिसमें महारानी विक्टोरिया को भारत की साम्राज्ञी घोषित किया गया। इस दरबार की शान-शौक़त पर बेशुमार धन खर्च किया गया, जबकि 1876-1878 ई. तक दक्षिण के लोग अकाल से पीड़ित थे, जिसमें हज़ारों की संख्या में व्यक्तियों की जानें गईं। इस समय दरबार के आयोजन को जन-धन की बहुत बड़ी बरबादी समझा गया।
#दूसरा_दिल्ली_दरबार (1903) :
दूसरा दरबार लॉर्ड कर्ज़न ने 1903 ई. में आयोजित किया, जिसमें बादशाह एडवर्ड सप्तम की ताज़पोशी की घोषणा की गई। यह दरबार पहले से भी ज़्यादा ख़र्चीला सिद्ध हुआ। इसका कुछ नतीजा नहीं निकला। यह केवल ब्रिटिश सरकार का शक्ति प्रदर्शन ही था।
#तीसरा_दिल्ली_दरबार (1911) :
तीसरा दरबार लॉर्ड हार्डिंग के जमाने में 1911 में आयोजित हुआ। बादशाह जॉर्ज पंचम और उसकी महारानी इस अवसर पर भारत आये थे और उनकी ताज़पोशी का समारोह भी हुआ था। इसी दरबार में एक घोषणा के द्वारा बंगाल के विभाजन को भी रद्द कर दिया गया, साथ ही राजधानी को कलकत्ता से दिल्ली लाने की घोषणा भी की गई।
#ब्रिटिश_सरकार_द्वारा_नई_दिल्ली_को_राजधानी
#बनाने_का_मुख्य_कारण :
कोलकाता की जगह नई दिल्ली को भारत की राजधानी बनाने की एक बड़ी वजह यह थी कि दिल्ली कई साम्राज्यों की वित्तीय और राजनीतिक केंद्र थी। दिल्ली सल्तनत के साथ-साथ यहां 1649-1857 तक मुगलों का शासन भी रहा। भारत में अंग्रेजों के आने के बाद काफी बदलाव हुए थे। 1900 के शुरुआती दौर में ब्रिटिश प्रशासन ने नई दिल्ली को राजधानी का प्लान किया था।दिसंबर 1911 में दिल्ली को राजधानी बनाने की आधारशिला रखी गई थी ब्रिटिश सरकार ने दिल्ली शहर को राजधानी बनाने के पीछे हवाला दिया था कि कोलकाता देश के पूर्वी तटीय भाग में और दिल्ली शहर उत्तरी भाग में है। इससे देश पर शासन करना आसान और अधिक सुविधाजनक होगा। ऐसे में दिसंबर 1911 को दिल्ली दरबार में ऐलान किया गया कि बहुत जल्द दिल्ली शहर भारत की राजधानी होगा। इस दाैरान ही इसकी आधारशिला भी रखी गई थी। प्रथम विश्व युद्ध के बाद इसका निर्माण कार्य शुरू हुआ और 1931 तक पूरा निर्माण समाप्त हो गया। राजधानी के कोलकाता से नई दिल्ली स्थानांतरण में सरकारी काम में कोई परेशानी न हो इसका विशेष ध्यान भी रखा गया था।
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