Learn to Smile at Every Situation And Live Your Life Simple...Hi Guy's...I wish to Informe You All...This is knowledge portal website which will provide for you all wonderful and amazing tricks...Spiritual,Motivational and Inspirational Education along with Education for all Competition Exams Question with answer...By Raj Sir
Wednesday, February 24, 2021
प्राचीन_भारत_का_इतिहास : #गुप्त_वंश_गुप्तकाल
प्राचीन_भारत_का_इतिहास :
#गुप्त_वंश_गुप्तकाल
गुप्त साम्राज्य की नींव रखने वाला शासक श्री गुप्त था। श्री गुप्त ने ही 275 ई. में गुप्त वंश की स्थापना की थी। मौर्य काल के बाद गुप्त काल को भी भारतीय इतिहास का स्वर्णिम युग माना गया है।
गुप्त वंश की जानकारी वायुपुराण से प्राप्त होती है। गुप्तकाल की राजकीय भाषा संस्कृत थी। ये भी माना जाता है कि दशमलव प्रणाली की शुरुआत भी गुप्तकाल में ही हुई थी। और मंदिरों का निर्माण कार्य भी गुप्तकाल में ही शुरू हुआ था।
यह भी माना जाता है कि बाल विवाह की प्रथा सम्भवतः गुप्त काल से ही प्रारम्भ हुई थी। गुप्त कालीन स्वर्ण मुद्रा को दीनार कहा जाता था। गुप्त काल के सर्वाधिक सिक्के सोने के बनाये जाते थे। पंचतंत्र की रचना भी गुप्तकाल में ही हुई थी।
गुप्त साम्राज्य में ब्राह्मणों को कर रहित कृषि भूमि दी जाती थी। जबकि अन्य लोगों को उनकी उपज का छठा भाग भूमि राजस्व के रूप में राजा को देना होता था। गुप्त राजवंश अपने साम्राज्यवाद के कारण प्रसिद्ध था।
महान खगोल विज्ञानी और गणितज्ञ आर्यभट्ट और वराहमिहिर का सम्बन्ध गुप्त काल से ही था। वराहमिहिर ने ही खगोल विज्ञान के भारतीय महाग्रंथ ‘पञ्चसिद्धान्तिका‘ की रचना की थी। आयुर्विज्ञान सम्बन्धी रचना करने वाले रचनाकार सुश्रुत का सम्बन्ध भी गुप्त काल से ही था।
#गुप्तवंश_का_उदय
#श्रीगुप्त :
श्रीगुप्त गुप्तवंश का प्रथम शासक और गुप्त वंश की स्थापना करने वाला शासक था। पूना से प्राप्त ताम्रपत्र में श्रीगुप्त को ‘आदिराज‘ नाम से सम्बोधित किया गया है।
#घटोत्कच_गुप्त :
श्रीगुप्त के बाद उसका पुत्र घटोत्कच गुप्त सिंहासन पर आसीन हुआ। कुछ अभिलेखों में घटोत्कच को गुप्त वंश का प्रथम राजा बताया गया है।
#चन्द्रगुप्त_प्रथम :
चन्द्रगुप्त घटोत्कच गुप्त का पुत्र था, जिसने घटोत्कच गुप्त के बाद सत्ता की बागडोर संभाली। चन्द्रगुप्त को महाराजाधिराज चन्द्रगुप्त के नाम से भी जाना जाता है, महाराजाधिराज एक उपाधि थी, जो चन्द्रगुप्त प्रथम को दी गयी थी। संभवतः यह उपाधि उसके महान कार्यों के कारण ही उसे दी गयी होगी।
गुप्त वंश का प्रथम महान सम्राट चन्द्रगुप्त प्रथम को ही माना जाता है। गुप्त संवत शुरू करने का श्रेय चन्द्रगुप्त प्रथम को ही दिया जाता है। गुप्त काल में सर्वप्रथम सिक्कों का चलन भी चन्द्रगुप्त प्रथम ने ही किया था।
#समुद्रगुप्त :
चन्द्रगुप्त के पश्चात 350 ईसा पूर्व के आस-पास उसका पुत्र समुद्रगुप्त सिंहासन पर बैठा। समुद्रगुप्त ने एक विशाल साम्राज्य का निर्माण किया था जोकि पूर्व में बंगाल की खाड़ी से लेकर पश्चिम में स्थित पूर्वी मालवा तक तथा उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में विंध्य पर्वत तक फैला हुआ था। इलाहबाद शिलालेख के अनुसार समुद्रगुप्त एक महान कवि और संगीतकार था। समुद्र्गुप्त को उसकी राज्य प्रसार नीतियों के कारण ‘भारत का नेपोलियन‘ भी कहा गया है।
#चन्द्रगुप्त_द्वितीय :
गुप्त राजवंश का अगला शासक चन्द्रगुप्त द्वितीय था, जो समुद्रगुप्त का पुत्र था, जिसे विक्रमादित्य और देवगुप्त के नाम से भी जाना गया। विक्रमादित्य इसकी उपाधि थी। इसे ‘शक-विजेता‘ के नाम से भी पुकारा जाता है। चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य ने लगभग 40 वर्षों तक राज किया। विक्रमादित्य के शासन काल को भारतीय कला व साहित्य का स्वर्णिम युग कहा जाता है, साथ ही यह भारत के इतिहास का भी स्वर्णिम युग था।
चन्द्रगुप्त द्वितीय का विशाल साम्राज्य उत्तर में हिमालय के तलहटी इलाकों से लेकर दक्षिण में नर्मदा नदी के तटों तक तथा पूर्व में बंगाल से लेकर पश्चिम में गुजरात तक फैला हुआ था। चन्द्रगुप्त द्वितीय की प्रथम राजधानी पाटलिपुत्र थी और द्वितीय राजधानी उज्जयिनी (उज्जैन) थी।
प्रसिद्ध कवि कालिदास चन्द्रगुप्त द्वितीय का दरबारी था, जिसे दरबार में सम्मिलित नौरत्नों में प्रधान माना जाता था। जिनमें प्रसिद्ध चिकित्सक धन्वंतरि भी शामिल थे, जिन्हें आयुर्वेद के वैद्य ‘चिकित्सा का भगवान‘ मानते हैं। अन्य सात रत्न अमर सिंह, शंकु, क्षपणक (ज्योतिष), बेताल भट, वराहमिहिर, घटकर्पर और वररुचि थे।
चीनी यात्री फह्यान या फाहियान चन्द्रगुप्त द्वितीय के शासन काल में ही भारत आया था। रजत (चाँदी) के सिक्के शुरू करने वाला प्रथम शासक चन्द्रगुप्त द्वितीय था, जिन्हें रूपक या रप्यक कहा जाता था।
महरोली स्थित राजचन्द्र के लोहस्तम्भ को चन्द्रगुप्त द्वितीय ने बनवाया था।
#कुमारगुप्त_प्रथम :
चन्द्रगुप्त द्वितीय की मृत्यु के पश्चात उसका पुत्र कुमारगुप्त प्रथम सिंहासन पर आसीन हुआ। कुमारगुप्त प्रथम ने अश्वमेध यज्ञ करवाया था और महेन्द्रादित्य की उपाधि धारण की थी। कुमारगुप्त प्रथम के ही शासन काल में नालंदा विश्वविद्यालय की स्थापना की थी। कुमारगुप्त प्रथम ने अपने पिता चन्द्रगुप्त द्वितीय की ही भाँति राज्य को सुव्यवस्था और सुशासन से चलाया था और अपने पिता के दिये साम्राज्य को ज्यों का त्यों ही बनाये रखा था।
#स्कंदगुप्त :
कुमारगुप्त की मृत्यु के पश्चात उसका उत्तराधिकारी पुत्र स्कंदगुप्त राजसिहांसन पर विराजमान हुआ। उसे काफी लोक हितकारी सम्राट माना गया है। उसे क्रमादित्य और विक्रमादित्य आदि उपाधियाँ प्राप्त की थी। स्कंदगुप्त ने हूणों के आक्रमण से भी देश को बचाया था।
स्कंदगुप्त के पश्चात कोई भी गुप्तवंश का राजा अपना प्रभुत्व इतना न बढ़ा सका जिसकी जानकारी इतिहास के पन्नों में दर्ज हो। जिस कारण स्कंदगुप्त के उत्तराधिकारियों की स्पष्ट जानकारी उपलब्ध नहीं है।
गुप्त वंश का अंतिम शासक विष्णुगुप्त था।
#गुप्त_वंश_के_पतन_का_कारण :
गुप्तवंश के पतन का कारण पारिवारिक कलह और बार-बार होने वाले विदेशी आक्रमण माने जाते हैं। जिनमें हूणों द्वारा आक्रमण को मुख्य कारण माना जाता है।
[01/12, 8:26 AM] Raj Kumar: #भारत_के_राष्ट्रपति_का_चुनाव_किस_प्रकार_होता_है
राष्ट्रपति का निर्वाचन आनुपातिक प्रतिनिधित्व के अनुसार एकल संक्रमणीय मत और गुप्त मतदान द्वारा होता है| किसी उम्मीदवार को, इस चुनाव में निर्वाचित होने के लिए कुल मतों का एक निश्चित भाग प्राप्त करना होता है| राष्ट्रपति का निर्वाचन जनता प्रत्यक्ष मतदान से नही करती है बल्कि एक निर्वाचन मंडल के सदस्यों द्वारा इसका निर्वाचन किया जाता है|
भारत का राष्ट्रपति, देश का प्रथम नागरिक होने के साथ साथ तीनों सेनाओं का प्रमुख भी होता है | भारत विदेश में जितने भी समझौते करता है वे सभी राष्ट्रपति के नाम से ही किये जाते हैं| भारतीय संविधान के भाग V के अनुच्छेद 52 से 58 तक संघ की कार्यपालिका का वर्णन है| संघ की कार्यपालिका में राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री तथा महान्यायवादी शामिल होते हैं| भारत के वर्तमान राष्ट्रपति श्री प्रणव मुखर्जी ने 25 जुलाई, 2012 भारत के 14वें राष्ट्रपति (13वें व्यक्ति) के रुप में कार्यभार सँभाला था।
#राष्ट्रपति_के_पद_हेतु_अहर्ताएं
1. भारत का नागरिक हो
2. 35 वर्ष की आयु पूरी कर चुका हो
3. लोक सभा का सदस्य चुने जाने की योग्यता रखता हो
4. किसी भी लाभ के पद पर न हो
इसके अतिरिक्त चुनाव के नामांकन के लिए कम से कम 50 लोगों ने उसके नाम का प्रस्ताव रखा हो और इतने ही लोगों ने अनुमोदन किया हो |
राष्ट्रपति के पद की अवधि, पद धारण की तारीख से 5 साल तक होती है| हालांकि वह इससे पहले भी कभी भी उपराष्ट्रपति को अपना त्याग पत्र दे सकता है|
#राष्ट्रपति_के_निर्वाचन_में_कौन_कौन_वोट_डालता_है
राष्ट्रपति का निर्वाचन आनुपातिक प्रतिनिधित्व के अनुसार एकल संक्रमणीय मत और गुप्त मतदान द्वारा होता है| किसी उम्मीदवार को, इस चुनाव में निर्वाचित होने के लिए कुल मतों का एक निश्चित भाग प्राप्त करना होता है | राष्ट्रपति का निर्वाचन जनता प्रत्यक्ष मतदान से नही करती है बल्कि एक निर्वाचन मंडल के सदस्यों द्वारा इसका निर्वाचन किया जाता है| इस चुनाव में इस बात का भी ध्यान रखा जाता है कि इसमें सभी राज्यों का सामान प्रतिनिधित्व हो| इस निर्वाचन में निम्न लोग वोट डालते हैं :
1. लोकसभा तथा राज्यसभा के निर्वाचित सदस्य (राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत सदस्य नही)
2. राज्य विधान सभा के निर्वाचित सदस्य
3. दिल्ली और पुदुचेरी विधान सभाओं के निर्वाचित सदस्य (केवल इन्ही दो केंद्र शासित प्रदेशों के सदस्य इसमें भाग लेते हैं)
#राष्ट्रपति_के_निर्वाचन_की_प्रक्रिया_इस_प्रकार_है
राज्य विधान सभाओं तथा संसद के प्रत्येक सदस्य के मतों की संख्या निम्न प्रकार निर्धारित होती है :-
a. प्रत्येक विधान सभा के निर्वाचित सदस्य के मतों की संख्या, उस राज्य की जनसंख्या को, उस राज्य की विधान सभा के निर्वाचित सदस्यों तथा 1000 के गुणनफल से प्राप्त संख्या द्वारा भाग देने प्राप्त होती है |
एक विधयक के मत का मूल्य = राज्य की कुल जनसंख्या
विधान सभा के निर्वाचित सदस्य x 1000
b. संसद के प्रत्येक सदन के निर्वाचित सदस्यों के मतों की संख्या, सभी राज्यों के विधायकों के मतों के मूल्य को संसद के कुल सदस्यों की संख्या से भाग देने पर प्राप्त होती है |
एक संसद सदस्य के मतों का मूल्य = सभी राज्यों के विधायकों के मतों का कुल मूल्य
#संसद_के_निर्वाचित_सदस्यों_की_कुल_संख्या
इस पूरी चुनाव प्रक्रिया को एक राज्य बिहार के उदाहरण की सहायता से इस प्रकार समझा जा सकता है:
चुनाव के बाद गणना के प्रथम चरण में प्रथम वारीयत के मतों की गणना होती है | यदि उम्मीदवार निर्धारित मत प्राप्त कर लेता है तो वह निर्वाचित घोषित हो जाता है अन्यथा मतों के स्थानांतरण की प्रक्रिया अपनाई जाती है और यह प्रक्रिया तब तक चलती रहती है जब तक कि कोई उम्मीदवार निर्धारित मत प्राप्त नही कर लेता है |
राष्ट्रपति चुनाव से सम्बंधित सभी विवादों की जांच व फैसले उच्चतम न्यायालय में होते है और उसका निर्णय अंतिम होता है|
#निम्न_कारणों_से_राष्ट्रपति_का_पद_खाली_हो
#सकता_है
1. कार्यकाल समाप्ति पर
2. उसके त्यागपत्र देने पर
3. महाभियोग द्वारा हटाये जाने पर
4. उसकी मृत्यु पर
5. यदि उसका निर्वाचन अवैध घोषित हो जाये
#राष्ट्रपति_पर_महाभियोग_शुरू_करने_की_प्रक्रिया
#क्या_है
केवल कदाचार अर्थात "संविधान का उल्लंघन" के मामले में ही महाभियोग लगाकर उसे पद से हटाया जा सकता है| महाभियोग पर आरोप संसद के किसी भी सदन में शुरू किया जा सकता है| कदाचार के आरोपों पर सदन(जिस सदन नेआरोप लगाये हों) के एक चौथाई सदस्यों के हस्ताक्षर होने चाहिए और राष्ट्रपति को 14 दिन का नोटिस दिया जाना चाहिए | महाभियोग का प्रस्ताव दो तिहाई बहुमत से पारित होने के पश्चात् इसे दूसरे सदन में भेजा जाता है, जो कि लगाये गए आरोपों की जाँच करता है| यदि दूसरा सदन इन आरोपों को सही पाता है और महाभियोग प्रस्ताव को दो तिहाई बहुमत से पारित कर देता है तो राष्ट्रपति को विधेयक पारित होने की तिथि से अपने पद से हटा दिया जाता है| ज्ञातब्य है कि इस महाभियोग की प्रक्रिया में राष्ट्रपति द्वारा नामित किये गए सदस्य भाग नही लेते हैं|
#राष्ट्रपति_की_संवैधानिक_स्थिति
भारत के संविधान में सरकार का स्वरुप संसदीय है| यहाँ पर राष्ट्रपति केवल कार्यकारी प्रधान होता है और मुख्य शक्तियां प्रधानमंत्री के नेतृत्व वाले मंत्रिमंडल में निहित होती हैं अर्थात भारत का राष्ट्रपति अपने अधिकारों का प्रयोग प्रधानमंत्री के नेतृत्व वाले मंत्रिमंडल की सलाह पर करता है |
डॉक्टर आंबेडकर की नजरों में राष्ट्रपति की स्थिति इस प्रकार :
‘भारतीय संविधान में, भारतीय संघ के कार्यकलापों का एक प्रमुख होगा जिसे संघ का राष्ट्रपति कहा जायेगा |’
#अर्थात_भारत_का_राष्ट्रपति:-
1. भारतीय संविधान के अंतर्गत राष्ट्रपति की स्थिति वही होगी जो कि ब्रिटेन में राजा की है |
2. वह राष्ट्र का प्रमुख होता है, परन्तु कार्यकारी नही होता है क्योंकि भारत के संविधान में कार्यकारी प्रमुख तो यहाँ का प्रधानमंत्री होता है |
3. वह राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करता है, उस पर शासन नही करता है |
4. वह राष्ट्र का प्रतीक होता है, सभी विदेशी समझौते उसी के नाम से किया जाते हैं |
इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि भारत के राष्ट्रपति चुनाव की प्रक्रिया बहुत ही कठिन है लेकिन इससे एक यह बात भी स्पष्ट हो जाती है कि इस चुनाव में सभी राज्यों को उनकी जनसंख्या के हिसाब से पूरा प्रतिनिधित्व दिया गया है |
[01/12, 8:26 AM] Raj Kumar: #प्राचीन_भारत_का_इतिहास :
#मौर्य_राजवंश
चौथी सदी BC में नन्दा के राजाओं ने मगध राजवंश पर शासन किया और यह राजवंश उत्तर का सबसे ताकतवर राज्य था | एक ब्राह्मण मंत्री चाणक्य जिसे कौटिल्य / विष्णुगुप्त ने नाम से भी जाना गया ने मौर्य परिवार से चन्द्रगुप्त नामक नवयुवक को प्रशिक्षण दिया | चन्द्रगुप्त ने अपने सेना का अपने आप संगठन किया और 322 BC में नन्दा का तख़्ता पलट दिया |
अतः चन्द्रगुप्त मौर्य को मौर्य राजवंश का प्रथम राजा और संस्थापक माना जाता है| इसकी माता का नाम मुर था, इसीलिए इसे संस्कृत में मौर्य कहा जाता था जिसका अर्थ है मुर का बेटा और इसके राजवंश को मौर्य राजवंश कहा गया |
#मगध_साम्राज्य_के_कुछ_महत्वपूर्ण_शासक :
#चन्द्रगुप्त_मौर्य_322_से_298_BC
विद्वानों के अनुसार चन्द्रगुप्त मौर्य केवल 25 वर्ष का था जब उसने नन्दा के राजा धाना नन्द को पराजित कर पाटलीपुत्र पर कब्जा कर लिया था | सबसे पहले इसने अपनी शक्तियाँ भारत गंगा के मैदानो में स्थापित की और बाद में वह पश्चिमी उत्तर की तरफ बढ़ गया | चन्द्रगुप्त ने शीघ्र ही पंजाब के पूरे प्रांत पर विजय प्राप्त की | सेल्यूकस निकेटर, अलेक्जेंडर के यूनानी अधिकारी ने उत्तर के दूरत्तम में कुछ जमीन पर अपनी पकड़ बना ली | अतः, चन्द्रगुप्त मौर्य को उसके खिलाफ एक लंबा युद्ध करना पड़ा और अंत में 305 BC के लगभग उसे हरा दिया और एक संधि पर हस्ताक्षर किए गए | इस संधि के अनुसार, सेल्यूकस निकेटर ने सिंधु के पार के क्षेत्र सौंपे – नामतः आरिया(हृदय), अर्कोजिया (कंधार ), गेड्रोसिया(बालूचिस्तान ) और परोपनिशे (काबुल) को मौर्य साम्राज्य को दे दिया गया और बदले में चन्द्रगुप्त ने सेल्यूकस को 500 हाथी भेंट स्वरूप दिये | सेल्यूकस ने अपनी पुत्री भी मौर्य राजकुमार को दे दी या यह माना जाता है कि चन्द्रगुप्त ने सेलेकुस की पुत्री ( यूनानी मकेदोनियन राजकुमारी ) से विवाह किया ताकि इस गठबंधन को पक्का कर ;लिया जाये |इस तरह उसने सिंधु प्रांत पर नियंत्रण पा लिया जिसका कुछ भाग अब आधुनिक अफगानिस्तान में है | बाद में चन्द्रगुप्त मौर्य मध्य भारत की तरफ चला गया और नर्मदा नदी के उत्तर प्रांत पर कब्ज़ा कर लिया |
इस संधि के अलावा, सेल्यूकस ने मगस्थेनेस को चन्द्रगुप्त मौर्य और दैमकोस को बिन्दुसार के सभा में यूनानी दूत बनाकर भेजा | चन्द्रगुप्त ने अपने जीवन के अंत में जैन धर्म को अपना लिया और अपने पुत्र बिन्दुसार के लिए राजगद्दी छोड़ दी | बाद में चन्द्रगुप्त, भद्रबाहु के नेतृत्व में जैन संतों के साथ मैसूर के निकट स्रवना बेल्गोला चले गए और अपने आप को भूखा रखकर जैन प्रथा के अनुसार मृत्यु ( संथारा) प्राप्त की |
#बिन्दुसार_297_से_272_BC
चन्द्रगुप्त ने 25 साल तक शासन किया और उसके बाद इसने अपने पुत्र बिन्दुसार के लिए राजगद्दी छोड़ दी |बिन्दुसार को यूनानियों द्वारा “अमित्रघटा “ कहा गया जिसका मतलब “दुश्मनों का कातिल” होता है | कुछ विद्वानों के अनुसार, बिन्दुसार ने दक्कन को मैसूर तक जीता | तारानाथ एक तिब्बत भिक्षु ने यह पुष्टि की है कि बिन्दुसार ने दो समुद्रों के बीच की भूमि जिसमे 16 राज्य थे को जीत लिया था | संगम साहित्य के अनुसार मौर्य ने दूरतम दक्षिण तक हमला किया | अतः यह कहा जा सकता है कि मौर्य राजवंश का विस्तार मैसूर में दूर तक हुआ और इसलिए इसमे पूरे भारत को शामिल किया परंतु कलिंग के निकट के पास बेरोजगार परीक्षण और वन क्षेत्रों और चरम दक्षिण के राज्यों में एक छोटे से हिस्से को साम्राज्य से बाहर रखा गया | बिन्दुसार के सेलेकुड सीरिया के राजा अंटिओचूस I के साथ संबंध थे, जिसने डैमचुस को दूत बनाकर इसकी (बिन्दुसार) सभा में भेजा था | बिन्दुसार ने अंटिओचूस को मदिरा, सूखे अंजीरों और कुतर्की देनी चाही | सब कुछ भेज दिया गया पर कुतर्की को नहीं भेजा गया क्यूंकि यूनानी कानून के अनुसार कुतर्की भेजने पर प्रतिबंध था | बिन्दुसार ने एक धर्म संप्रदाय, आजीविकास में अपनी रुचि बनाए रखी | बिन्दुसार ने अपने पुत्र अशोक को उज्जयिनी का राज्यपाल नियुक्त कर दिया जिसने बाद में तक्षिला के विद्रोह को दबा दिया |
#महान_अशोक_268_से_232_BC
अशोक के शासन में मौर्य साम्राज्य चरम पर पहुंचा | पहली बार पूरे उपमहाद्वीप, दूरतम दक्षिण को छोड़कर, शाही नियंत्रण में थे |
अशोक के राजगद्दी पर बैठने (273 BC ) और उसके वास्तविक राजतिलक (269 (BC ) के बीच चार साल का अंतराल था | अतः उपलबद्ध साक्ष्यों से यह पता चलता है कि बिन्दुसार की मृत्यु के बाद राजगद्दी के लिए संघर्ष हुआ था |
हालांकि, अशोक का उत्तराधिकारी बनना एक विवाद था | अशोक के शासन की सबसे महत्वपूर्ण घटना उसका कलिंग के साथ 261 BC में विजयी युद्ध था | युद्ध के असली कारणो का कोई साक्ष्य मौजूद नहीं था परंतु दोनों तरफ भारी हुआ था | अशोक इन घावों से दुखी था और उसने खुद युद्ध के परिणामों का उल्लेख शिलालेख XIII में किया था | युद्ध के समाप्त होने के ठीक बाद मौर्य समाज से कलिंग को जोड़ लिया और आगे कोई भी युद्ध न करने का निश्चय किया | कलिंग युद्ध का एक अन्य सबसे महत्वपूर्ण परिणाम था अशोक का बौद्ध भिक्षु उपगुप्ता से प्रभावित होकर बौद्ध धर्म को अपना लेना | अशोक ने जबकि एक बड़ी और ताकतवर सेना को शांति और सत्ता के लिए बनाए रखा, उसने अपने दोस्ताना रिश्ते एशिया और यूरोपे के पार भी बनाए और बौद्ध धर्म के प्रचारक मंडलों को आर्थिक संरक्षण भी दिया | अशोक ने चोल और पाण्ड्य के राज्यों और यूनानी राजाओं द्वारा शासित पाँच प्रदेशों में धर्म प्रचारक मण्डल भेजे | इसने सीलोन और सुवर्णभूमि (बर्मा) और दक्षिण पूर्व एशिया के हिस्सों में भी धर्म प्रचारक मण्डल भेजे |
महेंद्र , तिवरा/ तिवला ( केवल एक जिसका अभिलेखों में उल्लेख किया गया है ) कुनाल और तालुक अशोक के पुत्रों में विशिष्ट थे | इसकी दो पुत्रियाँ संघमित्रा और चारुमति थीं |
#बाद_के_मौर्य_232_से_184_BC
232 BC में अशोक की मृत्यु के बाद मौर्य साम्राज्य दो भागों में विभाजित हो गया | ये दो भाग थे पूर्वी और पश्चिमी | अशोक के पुत्र कुणाल ने पश्चिमी भाग पर शासन किया जबकि पूर्वी भाग पर अशोक के पोते दसरथ ने शासन किया और बाद में समराती, सलिसुक, देवरमन, सतधनवान और अंत में बृहदरथ ने शासन किया | बृहदरथ, (अंतिम मौर्य शासक), की पुष्यमित्रा शुंग के द्वारा 184 BC में हत्या कर दी गई |पुष्यमित्रा शुंग ने बाद में शुंग राजवंश’ वंश की स्थापना की ‘|
[01/12, 8:26 AM] Raj Kumar: #प्राचीन_भारत_का_इतिहास :
#मौर्योत्तर_काल
मौर्य साम्राज्य के पतन के साथ ही भारतीय इतिहास की राजनीतिक एकता कुछ समय के लिए विखंडित हो गई। अब ऐसा कोई राजवंश नहीं था जो हिंदुकुश से लेकर कर्नाटक एवं बंगाल तक आधिपत्य स्थापित कर सके। दक्षिण में स्थानीय शासक स्वतंत्र हो उठे। मगध का स्थान साकल, प्रतिष्ठान, विदिशा आदि कई नगरों ने ले लिया।
#शुंग_वंश (184 ईसा पूर्व से 75 ईसा पूर्व तक)
अन्तिम मौर्य शासक बृहद्रथ की हत्या कर पुष्यमित्र शुंग ने जिस नवीन राजवंश की नींव डाली, वह शुंग वंश के नाम से जाना जाता है। शुंग वंश के इतिहास के बारे में जानकारी साहित्यिक एवं पुरातात्विक दोनों साक्ष्यों से प्राप्त होती है, जिनका विवरण निम्नलिखित है-
#साहित्यिक_स्रोत :-
• पुराण (वायु और मत्स्य पुराण) – इससे पता चलता है कि शुगवंश का संस्थापक पुष्यमित्र शुंग था।
• हर्षचरित – इसकी रचना बाणभट्ट ने की थी। इसमें अंतिम मौर्य शासक बृहद्रथ की चर्चा है।
• पतंजलि का महाभाष्य – पतंजलि पुष्यमित्र शुंग के पुरोहित थे। इस ग्रंथ में यवनों के आक्रमण की चर्चा है।
• गार्गी संहिता – इसमें भी यवन आक्रमण का उल्लेख मिलता है।
• मालविकाग्निमित्र – यह कालिदास का नाटक है जिससे शुंगकालीन राजनीतिक गतिविधियों का ज्ञान प्राप्त होता है।
• दिव्यावदान – इसमें पुष्यमित्र शुंग को अशोक के 84,000 स्तूपों को तोड़ने वाला बताया गया है।
#पुरातात्विक_स्रोत :
• अयोध्या अभिलेख – इस अभिलेख को पुष्यमित्र शुंग के उत्तराधिकारी धनदेव ने लिखवाया था। इसमें पुष्यमित्र शुंग द्वारा कराये गये दो अश्वमेध यज्ञ की चर्चा है।
• बेसनगर का अभिलेख – यह यवन राजदूत हेलियोडोरस का है जो गरुड़-स्तंभ के ऊपर खुदा हुआ है। इससे भागवत धर्म की लोकप्रियता सूचित होती है।
• भरहुत का लेख – इससे भी शुंगकाल के बारे में जानकारी प्राप्त होती है।
उपर्युक्त साक्ष्यों के अतिरिक्त साँची, बेसनगर, बोधगया आदि स्थानों से प्राप्त स्तूप एवं स्मारक शुंगकालीन कला एवं स्थापत्य की विशिष्टता का ज्ञान कराते हैं। शुंगकाल की कुछ मुद्रायें-कौशाम्बी, अहिच्छत्र, अयोध्या तथा मथुरा से प्राप्त हुई हैं जिनसे तत्कालीन ऐतिहासिक जानकारी प्राप्त होती हैै।
#पुष्यमित्र_शुंग :
पुष्यमित्र मौर्य वंश के अन्तिम शासक बृहद्रथ का सेनापति था। इसके प्रारंभिक जीवन के बारे में जानकारी प्राप्त नहीं है। पुष्यमित्र शुंग ने दो अश्वमेध यज्ञ किये जिसे प्राचीन भारत में राजसत्ता का प्रतीक माना गया था। परवर्ती मौर्यों के कमजोर शासन में मगध का प्रशासन तंत्र शिथिल पड़ गया था तथा देश को आंतरिक एवं वाह्य संकटों का खतरा था। इसी समय पुष्यमित्र शुंग ने मगध साम्राज्य पर अपना अधिकार जमाकर न सिर्फ यवनों के आक्रमण से देश की रक्षा की बल्कि वैदिक धर्म के आदर्शों को, जो अशोक के शासन काल में उपेक्षित हो गये थे, पुनः प्रतिष्ठित किया। इसलिए पुष्यमित्र शुंग के काल को वैदिक पुनर्जागरण का काल भी कहा जाता है।
बौद्ध रचनाओं से ज्ञात होता है कि पुष्यमित्र बौद्ध धर्म का उत्पीड़क था। पुष्यमित्र ने बौद्ध विहारों को नष्ट किया तथा बौद्ध भिक्षुओं की हत्या की थी। यद्यपि शुंगवशीय राजा ब्राह्मण धर्म के अनुयायी थे, तथापि उनके शासनकाल में भरहुत स्तूप का निर्माण और साँची स्तूप की वेदिकाएँ (रेलिंग) बनवाई गई।
लगभग 36 वर्ष तक पुष्यमित्र शुंग ने राज्य किया। पुष्यमित्र की मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र अग्निमित्र शुंग वंश का राजा हुआ जो अपने पिता के शासनकाल में विदिशा का उपराजा था। पुराणों के अनुसार शुंगवंश का अंतिम शासक देवभूति था।
#कण्व_वंश (75 ईसा पूर्व से 30 ईसापूर्व तक)
शुंग वंश का अंतिम राजा देवभूति विलासी प्रवृत्ति का था। अपने शासन के अंतिम दिनों में अपने ही अमात्य वसुदेव के हाथों उसकी हत्या कर दी गई। इसकी जानकारी हर्षचरित से प्राप्त होती है। वसुदेव ने जिस नवीन वंश की स्थापना की वह कण्व वंश के नाम से जाना जाता है। इसमें केवल चार ही शासक हुए-वसुदेव, भूमिमित्र, नारायण और सुशर्मा। इन्होंने 300 ईसा पूर्व तक राज्य किया।
1. कण्व वंश के बाद मगध पर शासन करने वाले दो वंशों की जानकारी मिलती है।
2. पुराणों के अनुसार-आन्ध्रभितियों के शासन का उल्लेख है।
3. अन्य साक्ष्यों में-मित्रवंश का शासन।
#चेदि_तथा_सातवाहन :
प्रथम शताब्दी ईसा पूर्व में विन्घ्य पर्वत के दक्षिण में दो शक्तियों का उदय हुआ-कलिंग का चेदि तथा दक्कन का सातवाहन।
#कलिंग_का_चेदि_या_महामेघवाहन_वंश :
• इस वंश का सर्वाधिक शक्तिशाली शासक खारवेल हुआ जो इस वंश का तीसरा शासक था।
• यह जैन धर्म का संरक्षक था। जैनियों के लिए उदयगिरि एवं खण्ड गिरि में पहाडि़यों का निर्माण करवाया। ख्गुफा-रानी व अनंतगुफा,
• उदयगिरि पहाड़ी में स्थित हाथीगुंफा अभिलेख से खारवेल के बारे में विस्तार से जानकारी मिलती है एवं इसी अभिलेख से जनगणना का प्रथम साक्ष्य मिलता है। इसमें कलिंग की आबादी 35,000 बतायी गयी है।
#आन्ध्र_सातवाहन_वंश :
• सातवाहन वंश का शासन क्षेत्र मुख्यतः महाराष्ट्र, आंध्र और कर्नाटक था। पुराणों में इन्हें आंध्र भृत्य कहा गया है तथा अभिलेखों में सातवाहन कहा गया है। पुराणों में इस वंश का संस्थापक सिमुक (सिन्धुक) को माना गया है जिसने कण्व वंश के राजा सुशर्मा को मारकर सातवाहन वंश की नींव रखी। सातवाहन वंश से संबंधित जानकारी हमें अभिलेख, सिक्के तथा स्मारक तीनों से प्राप्त होते हैं। अभिलेखों में नागनिका का नानाघाट (महाराष्ट्र, पूना) अभिलेख, गौतमीपुत्र शातकर्णी के नासिक से प्राप्त दो गुहालेख गौतमी पुत्र बलश्री का नासिक गुहालेख, वशिष्ठीपुत्र पुलुमावी का नासिक गुहालेख, वसिष्ठीपुत्र पुलुमावी का कार्ले गुहालेख, यज्ञ श्री शातकर्णी का नासिक गुहालेख महत्वपूर्ण है।
• उपर्युक्त लेखों के साथ-साथ विभिन्न स्थानों से सातवाहन राजाओं के बहुसंख्यक सिक्के भी मिले हैं। इससे राज्य विस्तार, धर्म तथा व्यापार-वाणिज्य की प्रगति के संबंध में विस्तृत जानकारी प्राप्त होती है। नासिक के जोगलथम्बी नामक स्थल से क्षहरात शासक नहपान के सिक्कों का ढेर मिलता है। इसमें अनेक सिक्के गौतमीपुत्र शातकर्णी द्वारा पुनः अंकित कराये गये हैं। इससे नहपान पर सातवाहन शासक के विजय की जानकारी मिलती है। यज्ञश्री शातकर्णी के एक सिक्के पर जलपोत के चिन्ह उत्कीर्ण हैं। इससे पता चलता है कि समुद्र के ऊपर उनका अधिकार था। सातवाहन सिक्के सीसा, ताँबा तथा पोटीन (ताँबा, जिंक, सीसा तथा टिन मिश्रित धातु) में ढलवाये गये थे। इन पर मुख्यतः अश्व, सिंह, वृष, गज, पर्वत, जहाज, चक्र, स्वास्तिक, कमल, त्रिरत्न, क्राॅस से जुड़े चार बाल (उज्जैन चिन्ह) आदि का अंकन मिलता है।
• विदेशी विवरण से भी सातवाहन वंश पर प्रकाश पड़ता है। इनमें प्लिनी, टाॅलमी तथा पेरीप्लस आॅफ एरिथ्रियन सी क ेलेखक के विवरण महत्वपूर्ण है। पेरीप्लस के अज्ञात लेखक ने पश्चिमी भारत के बंदरगाहों का स्वंय निरीक्षण किया था तथा वहाँ के व्यापार-वाणिज्य के प्रत्यक्ष अनुभव के आधार पर जानकारी दी है। सातवाहन काल के अनेक चैत्य एवं विहार नासिक, भाजा, कार्ले आदि जगहों से प्राप्त हुए हैं।
• अगला प्रमुख शासक शातकर्णी प्रथम था एवं इसने भी 18 वर्ष तक शासन किया। कालांतर में शकों की विजयों के फलस्वरूप सातवाहनों का अपने क्षेत्रों से अधिकार समाप्त हो गया। किन्तु, गौतमी पुत्र शातकर्णी ने सातवाहन वंश की प्रतिष्ठा पुनः स्थापित करने में सफलता प्राप्त की। गौतमी पुत्र शातकर्णी ने शकों, यवनों, पहलवों तथा क्षहरातों का नाशकर सातवाहन वंश की पुनः प्रतिष्ठा स्थापित की। शातकर्णी ने नहपान को हराकर उसके चाँदी के सिक्कों पर अपना नाम अंकित कराया। नासिक के जोगलथम्बी से प्राप्त सिक्कों के ढेर में चाँदी के बहुत से ऐसे सिक्के हैं जो नहपान ने चलाए थे और इस पर पुनः गौतमीपुत्र की मुद्रा अंकित है।
• गौतमी पुत्र शातकर्णी के बाद उसका पुत्र वशिष्ठीपुत्र पुलुमावि राजगद्दी पर बैठा। उसके अभिलेख अमरावती, कार्ले और नासिक से मिले हैं। यज्ञश्री शातकर्णी सातवाहन वंश का अन्तिम शक्तिशाली राजा हुआ। इसकी मृत्यु के बाद सातवाहन साम्राज्य के विघटन की प्रक्रिया जारी हुई तथा यह अनेक छोटे-छोटे राज्यों में विभक्त हो गया।
#विविध_तथ्य :
• शातकर्णी प्रथम ने दो अश्वमेध तथा एक राजसूय यज्ञ का अनुष्ठान किया था। इसने गोदावरी तट पर स्थित प्रतिष्ठान को अपनी राजधानी बनायी।
• सातवाहन शासक हाल स्वयं एक कवि तथा कवियों एवं विद्वानों का आश्रयदाता था। इसने ’गाथा सप्तशती’ नामक मुक्तक काव्य की रचना हाल ने प्राकृत भाषा में की। हाल की राजसभा में वृहत्कथा के रचयिता गुणाढ्य तथा ’कातंत्र’ नामक संस्कृत व्याकरण के लेखक शववर्मन निवास करते थे।
• गौतमीपुत्र शातकर्णी ने वेणकटक स्वामी की उपाधि धारण की तथा वेणकटक नामक नगर की स्थापना की।
• वशिष्ठी पुत्र पुलमावि ने अपने को प्रथम आंध्र सम्राट कहा।
• गौतमीपुत्र शातकर्णी ने अपने वशिष्ठिपुत्र पुलमावि का विवाह रूद्रदामन की पुत्री से किया था।
• पुलमावि को दक्षिणापथेश्वर कहा गया है। पुराणों में इसका नाम पुलोमा मिलता है।
• ब्राह्मणों को भूमिदान या जागीर देने वाले प्रथम शासक सातवाहन ही थे, किन्तु उन्होंने अधिकतर भूमिदान बौद्ध भिक्षुओं को ही दिया।
• भड़ौच सातवाहन काल का प्रमुख बंदरगाह एवं व्यापारिक केन्द्र था।
• सातवाहन काल में व्यापार व्यवसाय में चाँदी एवं ताँबे के सिक्कों का प्रयोग होता था जिसे ’काषार्पण’ कहा जाता था।
• सातवाहन काल में निर्मित दक्कन की सभी गुफाएँ बौद्ध धर्म से सम्बन्धित थीं।
• सातवाहन राजाओं के नाम मातृप्रधान है लेकिन राजसिंहासन का उत्तराधिकारी पुत्र ही होता था।
• सामंतवाद् का प्रथम लक्षण सातवाहन काल से ही दिखायी पड़ता है।
• सातवाहनों की राजकीय भाषा प्राकृत तथा लिपि ब्राह्मी थी।
• गौतमीपुत्र शातकर्णी ने स्वयं को कृष्ण, बलराम और संकर्षण का रूप स्वीकार किया।
• गौतमीपुत्र शातकर्णी को ’वेदों का आश्रय’ दाता कहा गया है।
#हिन्द_यवन_या_बैक्ट्रीयाई_आक्रमण :
• मौर्यों के पतन के पश्चात् पश्मिोत्तर भारत में मौर्यों के स्थान पर मध्य एशिया से आयी कई वाह्यशक्तियों ने अपना साम्राज्य स्थापित किया।
• मौर्योत्तर काल में भारत पर आक्रमण करने वालों में प्रथम सफल आक्रमण यूथीडेमस वंश के हिन्द-यवन (इंडो-ग्रीक) शासक ’डेमेट्रियस’ ने किया। उसने सिंध और पंजाब पर अपना आधिपत्य स्थापित किया। उसकी राजधानी ’साकल’ थी। साकल शिक्षा के प्रमुख केन्द्र के रूप में प्रसिद्ध था तथा इसकी तुलना पाटलिपुत्र से की जाती थी। हिन्द-यवन शासकों में सबसे प्रसिद्ध शासक मिनांडर था। वह डेªमेट्रियस का सेनापति था। उसकी राजधानी स्यालकोट या साकल थी। भारत में हिन्द-यवन शासकों ने लेखयुक्त सिक्के चलाये। महायान बौद्ध ग्रंथ मिलिन्दपन्हों में बौद्ध विद्वान नागसेन तथा मिनांडर के बीच दार्शनिक विवादों का उल्लेख है। मिनांडर ने बौद्ध धर्म को स्वीकार कर लिया था।
• जिस समय डेमेट्रियस अपनी भारतीय विजयों में उलझा हुआ था, उसी वक्त यूक्रेटाइडीज नामक व्यक्ति ने बैक्ट्रिया में विद्रोह कर दिया। कालांतर में उसने भारत (सिंध प्रदेश) की भी विजय की और हिंद-यवन राज्य स्थापित किए। इस तरह पश्चिमोत्तर भारत में दो यवन-राज्य स्थापित हो गए-पहला, यूथीडेमस के वंशजों का तथा दूसरा यूक्रेटाइडीज के वंशजों का राज्य। यूक्रेटाइडीज वंश में दो शासक हुए-एंटिआल्किडस तथा हर्मियस इस वंश का अन्तिम हिन्द-यवन शासक था। उसके साथ ही पश्चिमोत्तर भारत से यवनों का शासन समाप्त हो गया।
#शक_शासक :
शक मूलतः मध्य एशिया की एक खानाबदोश तथा बर्बर जाति थी। लगभग 165 ईसा पूर्व में इन्हें मध्य एशिया से भगा दिया गया। वहाँ से हटाये जाने के कारण वे सिंध प्रदेश में आ गये। भारत में शक राजा अपने को क्षत्रप कहते थे। उनकी शक्ति का केन्द्र सिंध था। वहाँ से वे भारत के पंजाब, सौराष्ट्र आदि स्थानों पर फैल गये। इनकी पाँच शाखाएँ थी।
कालांतर में शक शासकों की भारत में दो शाखाएँ हो गई थी। एक उत्तरी क्षत्रप जो पंजाब (तक्षशिला) एवं मथुरा में थे और दूसरा पश्चिमी क्षत्रप जो नासिक एवं उज्जैन में थे। पश्चिमी क्षत्रप अधिक प्रसिद्ध थे। उत्तरी क्षत्रप का भारत में प्रथम शासक मोयेज ;डवलमेद्ध या मोग था। नासिक के क्षत्रप (पश्चिमी क्षत्रप) क्षहरात वंश से संबंधित थे जिसका पहला शासक भूमक था। वे अपने को क्षहरात क्षत्रप कहते थे। भूमक के द्वारा चलाये गये सिक्कों पर ’क्षत्रप’ लिखा है। नहपान इस वंश का प्रसिद्ध शासक था। अभिलेखों के आधार पर कहा जा सकता है कि नहपान का राज्य उत्तर में राजपूताना तक था। नहपान के समय भड़ौच एक बंदरगाह था। यहीं से शक शासक वस्तुएँ पश्चिमी देशों को भेजते थे।
उज्जैन के शक वंश (कार्दमक वंश) का संस्थापक चष्टण था। इसने अपने अभिलेखों में शक संवत् का प्रयोग किया है। उज्जैन के शक क्षत्रपों में सबसे प्रसिद्ध शासक रूद्रदामन (130 ई0 से 150 ई0) था। इसके जूनागढ़ अभिलेख से प्रतीत होता है कि पूर्वी और पश्चिमी मालवा, सौराष्ट्र, कच्छ (गुजरात), उत्तरी कोंकण, आदि प्रदेश उसके राज्य में सम्मिलित थे। रूद्रदामन ने वशिष्ठी पुत्र पुलुमावि को पराजित किया था। रूद्रदामन ने सुदर्शन झाील का पुर्ननिर्माण करवाया था जिसे चन्द्रगुप्त मौर्य ने बनवाया था और जिसकी मरम्मत अशोक ने करवाई थी। रूद्रदामन संस्कृत का प्रेमी था। इसी ने सबसे पहले विशुद्ध संस्कृत अभिलेख (जूनागढ़ अभिलेख) जारी किया। पहले इस क्षेत्र में जो भी अभिलेख पाए गए वे प्राकृत भाषा में थे।
इस वंश का अंतिम राजा रूद्रसिंह तृतीय था। गुप्त शासक चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य ने उसे मारकर उसका राज्य गुप्त साम्राज्य में मिला लिया।
#पह्लव_वंश_या_पार्थियन_साम्राज्य :
उत्तर-पश्चिम भारत पर ईसा पूर्व पहली सदी के अंत में पार्थियन नाम के कुछ शासक शासन कर रहे थे जिन्हें भारतीय स्रोतों में पह्लव नाम से जाना गया है। पह्लव शक्ति का वास्तविक संस्थापक मिथ्रेडेट्स (मिथ्रदात) प्रथम था। मिश्रदात द्वितीय इस वंश का सबसे प्रतापी राजा था जिसने शकों को परास्त किया। पह्लव शासकों में सबसे शक्तिशाली शासक गोण्डोफर्नीज था। उसके शासनकाल के ’तख्तबही’ अभिलेख से ज्ञात होता है कि पेशावर जिले पर उसका अधिकार था। सेंट टाॅमस नामक पादरी इसाई प्रचार के लिए इसी समय भारत आया था। पार्थियन राजाओं के सिक्कों पर धर्मिय (धार्मिक) उपाधि उत्कीर्ण मिलती हैं। पह्लव राज्य का अंत कुषाणों ने किया।
#कुषाण_वंश :
• मौर्योत्तर कालीन विदेशी आक्रमणकारियों में कुषाण वंश सबसे महत्वपूर्ण है। पह्लवों के बाद भारतीय क्षेत्र में कुषाण आए जिन्हें यूची और तोखरी भी कहा जाता है। कुषाणों ने सर्वप्रथम बैक्ट्रिया और उत्तरी अफगानिस्तान पर अपना शासन स्थापित किया तथा वहाँ से शक् शासकों को भगा दिया। अन्ततः उन्होंने सिंधु घाटी (निचले) तथा गंगा के मैदान के अधिकांश क्षेत्र पर अधिकार कर लिया।
• कुषाण वंश का संस्थापक कुजुल कडफिसेस था। इसने ताँबे का सिक्का चलाया था। सिक्कों के एक भाग पर यवन शासक हर्मियस का नाम उल्लिखित है तथा दूसरे भाग पर कुजुल का नाम खरोष्ठी लिपि में खुदा हुआ है। कुजुल कडफिसेस के बाद विम कडफिसेस शासक बना जिसने सर्वप्रथम सोने का सिक्का जारी किया। इसके सिक्कों पर शिव, नंदी तथा त्रिशूल की आकृति एवं महेश्वर की उपाधि उत्कीर्ण हैं। इसने अपना राज्य सिंधु नदी के पूरब में फैलाया एवं रोम के साथ इसके अच्छे व्यापारिक संबंध थे। विम कडफिसेस के बाद कनिष्क ने कुषाण साम्राज्य की सत्ता संभाली। कनिष्क कुषाण वंश का महानतम शासक था। इसके कार्यकाल का आरम्भ 78ई0 माना जाता है। क्योंकि इसी ने 78 ई0 में शक् संवत आरम्भ किया। इसके साम्राज्य में अफगानिस्तान, सिंध, बैक्ट्रिया तथा पार्थिया के क्षेत्र सम्मिलित थे। कनिष्क ने भारत में अपना साम्राज्य विस्तार मगध तक किया तथा यहीं से वह प्रसिद्ध विद्वान अश्वघोष को अपनी राजधानी पुरुषपुर ले गया। उसने कश्मीर को विजित कर वहाँ कनिष्कपुर नामक नगर बसाया। कनिष्क बौद्ध धर्म की महायान शाखा का संरक्षक था। उसने कश्मीर में चतुर्थ बौद्ध संगीति का आयोजन किया। कनिष्क कला और संस्कृत साहित्य का संरक्षक था। कनिष्क की राजसभा में पाश्र्व, वसुमित्र और अश्वघोष जैसे बौद्ध दार्शनिक विद्यमान थे। नागार्जुन और चरक भी (चिकित्सक) कनिष्क के राजदरबार में थे।
• कनिष्क के बाद कुषाण साम्राज्य का पतन प्रारंभ हुआ। उसका उत्तराधिकारी हुविष्क के पश्चात् कनिष्क द्वितीय शासक बना जिसने ’सीजर’ की उपाधि ग्रहण की। कुषाण वंश का अंतिम शासक वासुदेव था जिसने अपना नाम भारतीय नाम पर रख लिया। वासुदेव शैव मतानुयायी था। इसके सिक्कों पर शिव के साथ गज की आकृति मिली हैं।
[01/12, 8:26 AM] Raj Kumar: #भारत_के_सभी_राष्ट्रपतियों_की_सूची_कार्यकाल
#एवं_उनका_राजनीतिक_सफर
राष्ट्रपति को भारत में प्रथम नागरिक माना जाता है. यह देश का सर्वोच्च संवैधानिक पद है. निर्वाचक मंडल भारत के राष्ट्रपति का चुनाव करता है. राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के बिना भारत में कोई भी कानून लागू नहीं हो सकता है. इस लेख के माध्यम से अब तक जितने राष्ट्रपति चुने गए है उनकी सूची दी जा रही है और साथ ही उनसे जुड़े कुछ महत्वपूर्ण तथ्यों का विवरण दिया जा रहा है.
राष्ट्रपति का चुनाव संसद और राज्य के विधानमंडल के चुने हुए प्रतिनिधियों द्वारा किया जाता हैं. निर्वाचक मंडल भारत के राष्ट्रपति का चुनाव करता है और इनके सदस्यों का प्रतिनिधित्व अनुपातिक होता है. उनका वोट सिंगल ट्रांसफीरेबल होता है और उनकी दूसरी पसंद की भी गिनती होती है. राष्ट्रपति का कार्यकाल 5 वर्ष का होता है और राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के बिना भारत में कोई भी कानून लागू नहीं हो सकता है.
1. #डॉ_राजेन्द्र_प्रसाद
भारत के एकमात्र राष्ट्रपति थे, जिन्होंने दो कार्यकालों तक राष्ट्रपति पद पर कार्य किया. वे संविधान सभा के अध्यक्ष भी थे और भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन के प्रमुख नेता. उनको 1962 में भारत रत्न दिया गया था.
2. #डॉ_सर्वपल्ली_राधाकृष्णन
डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन का जन्म 5 सितम्बर 1888 को हुआ था और इसी दिन को शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाता है. उनको 1954 में भारत रत्न दिया गया था।
3. #डॉ_जाकिर_हुसैन
डॉ जाकिर हुसैन भारत के पहले मुस्लिम राष्ट्रपति बनें और इनकी मृत्यु पद पर रहते ही हुई थी. तात्कालिक उपराष्ट्रपती वी.वी गीरि को कार्यवाहक राष्ट्रपति बनाया गया था. उसके बाद सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश मोहम्मद हिदायतुल्लाह 20 जुलाई 1969 से 24 अगस्त 1969 तक कार्यवाहक राष्ट्रपति बने. यह भारत के सबसे प्रसिद्ध तबला वादक थे.
मोहम्मद हिदायतुल्लाह को 2002 में भारत सरकार द्वारा कला के क्षेत्र में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था. इनको भारत में शिक्षा की क्रांति लाने के लिए भी याद किया जाता है. इनके नेतृत्व में राष्ट्रीय मुस्लिम विश्वविद्यालय जामिया मिलिया इस्लामिया स्थापित किया गया था.
4. #वी_वी_गिरि
वी. वी गिरी भारत के चौथे राष्ट्रपति थे. इनका पूरा नाम वराहगिरी वेंकटगिरी है. इनके समय में दुसरे चक्र की मतगणना करनी पड़ी थी. यह पहले भारत के कार्यवाहक राष्ट्रपति रहे थे. 1975 में उनको भारत रत्न से सम्मानित किया गया था.
5. #फखरुद्दीन_अली_अहमद
फखरुद्दीन अली अहमद भारत के पांचवे राष्ट्रपति थे. दुसरे राष्ट्रपति जिनकी मृत्यु राष्ट्रपति के पद पर ही हो गई थी. बी.डी जत्ती को कार्यवाहक राष्ट्रपति बनाया गया था.
6. #नीलम_संजीव_रेड्डी
भारत के छठे राष्ट्रपति बने और आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री भी रहे हैं. वे भारत के ऐसे राष्ट्रपति थे जिन्हें राष्ट्रपति के उम्मीदवार होते हुए प्रथम बार विफलता प्राप्त हुई और दूसरी बार उम्मीदवार बनाए जाने के बाद वह राष्ट्रपति पद पर निर्वाचित हुए थे.
7. #ज्ञानी_जैल_सिंह
राष्ट्रपति बनने से पहले वे पंजाब के मुख्यमंत्री और केंद्र में भी मंत्री रहे थे. भारतीय डाक घर से संबंधी विधेयक पर उन्होंने पॉकेट वीटो का भी प्रयोग किया था. उनके राष्ट्रपति कार्यकाल में बहुत सी घटनाये घटी जैसे ऑपरेशन ब्लू स्टार, इंदिरा गाँधी की हत्या और 1984 में सिख विरोधी दंगा.
8. #आर_वेंकटरमण
आर. वेंकटरमण 1984 से 87 तक भारत के उपराष्ट्रपति रहे थे. वे एक भारतीय वकील, स्वतंत्रता संग्रामी और महान राजनेता थे. उन्होंने अपने राष्ट्रपति काल में सर्वाधिक प्रधानमंत्री को उनकी पद की शपथ दिलाई थी.
9. #डॉ_शंकर_दयाल_शर्मा
वे अपने राष्ट्रपति पद से पहले, भारत के आठवें उप राष्ट्रपति थे. 1952 से 56 तक वे भोपाल के मुख्य मंत्री रहे थे और 1956 से 67 तक कैबिनेट मिनिस्टर. इंटरनेशनल बार एसोसिएशन ने उनको लीगल प्रोफेशन में बहु-उपलब्धियों के कारण ‘लिविंग लीजेंड ऑफ़ लॉ अवार्ड ऑफ़ रिकग्निशन’ दिया था.
10. #के_आर_नारायणन
के. आर. नारायणन भारत के प्रथम दलित राष्ट्रपति तथा प्रथम मलयाली व्यक्ति थे जिन्हें देश का सर्वोच्च पद प्राप्त हुआ था. वे लोकसभा चुनाव मतदान करने वाले तथा राज्य की विधानसभा को सम्बोधित करने वाले पहले राष्ट्रपति थे.
11. #डॉ_ए_पी_जे_अब्दुल_कलाम
डॉ ए. पी. जे. अब्दुल कलाम भारत के मिसाईल मेन नाम से भी जाने जाते हैं. वे पहले वैज्ञानिक थे जिन्होंने राष्ट्रपति पद को संभाला और भारत के पहले राष्ट्रपति जो सर्वाधिक मतों से जीते थे. उनके निर्देशन में रोहिणी-1 उपग्रह, अग्नि और पृथ्वी मिसाइलो का सफल प्रक्षेपण किया गया था. यहा तक कि 1974 एवं 1998 में भारत के परमाणु परीक्षण में उनका महत्वपूर्ण योगदान रहा था. 1997 में उन्हें भारत रत्न से सम्मानित किया गया था.
12. #श्रीमती_प्रतिभा_सिंह_पाटिल
वह राष्ट्रपति बनने से पहले राजस्थान की राज्यपाल रहीं थी. 1962 से 85 तक वह पांच बार महाराष्ट्र की विधानसभा की सदस्य रही और 1991 में लोकसभा के लिए अमरावती से चुनी गई थी. इतना ही नहीं वह सुखोई विमान उड़ाने वाली पहली महिला राष्ट्रपति भी हैं.
13. #प्रणब_मुखर्जी
प्रणब मुखर्जी राष्ट्रपति चुनाव लड़ने से पहले केंद्र सरकार में वित्त मंत्री के पद पर थे. उनको 1997 में सर्वश्रेष्ठ सांसद का पुरस्कार एवं 2008 में भारत का दूसरा सबसे बड़ा असैनिक सम्मान पद्म विभूषण प्रदान किया गया था.
14. #राम_नाथ_कोविंद
राम नाथ कोविंद का जन्म 1 अक्टूबर, 1945 को उत्तर प्रदेश, भारत में हुआ था. वह एक वकील और राजनेता हैं. वे भारत के 14वें और वर्तमान राष्ट्रपति हैं. राम नाथ कोविंद 25 जुलाई, 2017 को राष्ट्रपति बने और भारतीय जनता पार्टी के सदस्य रहे. राष्ट्रपति बनने से पहले वे बिहार के पूर्व गवर्नर थे. राजनीतिक समस्याओं के प्रति उनके दृष्टिकोण ने उन्हें राजनीतिक स्पेक्ट्रम में प्रशंसा दिलाई. एक राज्यपाल के रूप में, उनकी उपलब्धियां विश्वविद्यालयों में भ्रष्टाचार की जांच के लिए न्यायिक आयोग का निर्माण करना था.
[01/12, 8:26 AM] Raj Kumar: #भारत_में_महत्वपूर्ण_समितियों_और_आयोगों
#की_सूची
भारत में विभिन्न क्षेत्रों में कई समितियाँ और आयोग बने हैं. इन समितियों और आयोगों की सिफारिशों के आधार पर हमारे देश में कई सुधार हुए हैं. यह देखा गया है कि इन समितियों और आयोगों के आधार पर परीक्षा में कई प्रश्न पूछे जाते हैं. इसलिए प्रतियोगी छात्रों की मदद के लिए हमने यह आर्टिकल भारत में गठित समितियों और आयोगों और उनके कार्यक्षेत्रों के आधार पर बनाया है.
1. अभिजीत सेन समिति (2002): दीर्घकालिक खाद्य नीति
2. आबिद हुसैन समिति: लघु उद्योग पर
3. अजीत कुमार समिति: सेना वेतनमान
4. अथरेया समिति: आईडीबीआई का पुनर्गठन
5. बेसल समिति: बैंकिंग पर्यवेक्षण
6. भूरेलाल समिति: मोटर वाहन कर में वृद्धि
7. बिमल जालान समिति: पूंजी बाजार बुनियादी ढांचा संस्थानों (MII) के कामकाज पर रिपोर्ट
8. बिमल जालान कमेटी (2018): आरबीआई के पास मौजूद कैपिटल रिजर्व की समीक्षा के लिए
9. सी. बाबू राजीव समिति: शिप एक्ट 1908 और शिप ट्रस्ट अधिनियम 1963 में सुधार
10. सी. रंगराजन समिति (2012): गरीबी रेखा के निर्धारण के लिए
11. चंद्र शेखर समिति: वेंचर कैपिटल
12. चंद्रात्रे समिति की रिपोर्ट (1997): सुरक्षा विश्लेषण और निवेश प्रबंधन
13. K.B. कोर कमेटी: कैश क्रेडिट सिस्टम के संचालन की समीक्षा करने के लिए
14. दवे समिति (2000): असंगठित क्षेत्र के लिए पेंशन योजना
15. दीपक पारेख समिति: पीपीपी मॉडल के माध्यम से बुनियादी ढांचे के लिए वित्त की व्यवस्था
16. सुमा वर्मा समिति (2006): बैंकिंग लोकपाल
17. जी. वी. रामकृष्ण समिति: विनिवेश पर
18. गोइपोरिया समिति: प्राथमिक (शहरी) सहकारी बैंकों में ग्राहक सेवा में सुधार
19. हनुमंत राव समिति: उर्वरक
20. जे. आर. वर्मा समिति: करंट अकाउंट कैरी फॉरवर्ड प्रैक्टिस
21. जानकीरमण समिति: प्रतिभूति लेनदेन
22. जे. जे. ईरानी समिति: कंपनी कानून सुधार
23. के. सी. चक्रवर्ती समिति: भारत में क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की वित्तीय स्थिति का विश्लेषण करने के लिए
24. के. कस्तूरीरंगन (2017): राष्ट्रीय शिक्षा नीति का मसौदा तैयार करने के लिए
25. केलकर समिति (2002): कर संरचना सुधार
26. कोठारी आयोग (1964): भारत में शैक्षिक क्षेत्र के सभी पहलुओं की जांच करना
27. खान वर्किंग ग्रुप: वित्त विकास संस्थान
28. खुसरो समिति: कृषि ऋण प्रणाली
29. कुमारमंगलम बिड़ला रिपोर्ट: कॉरपोरेट गवर्नेंस
30. एमबी शाह कमेटी: विदेशों में जमा काले धन की जांच के लिए
31. महाजन समिति (1997): चीनी उद्योग
32. मालेगाम समिति: प्राथमिक बाजार में सुधार और यूटीआई का पुनर्गठन
33. मल्होत्रा समिति: बीमा क्षेत्र की व्यापक रूपरेखा
34. मराठे समिति: शहरी सहकारी बैंकों के विकास में बाधाओं को दूर करना
35. माशेलकर समिति (2002): ऑटो ईंधन नीति
36. मैकिन्से रिपोर्ट: एसबीआई के साथ 7 एसोसिएट बैंकों का विलय
37. मीरा सेठ समिति: हथकरघा का विकास
38. नचिकेत मोर समिति: छोटे व्यवसायों और कम आय वाले परिवारों को वित्तीय सेवा से जोड़ना
39. नरसिम्हन समिति (1991): बैंकिंग क्षेत्र सुधार
40. एन.एन. वोहरा समिति (1993): संगठित अपराधियों, माफिया और नेताओं के बीच के संबंधों की जांच के लिए
41. पारेख समिति: इन्फ्रास्ट्रक्चर फाइनेंसिंग
42. पर्सी मिस्त्री समिति: मुंबई को अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय केंद्र बनाना
43. पी. जे. नायक समिति: बैंकों के बोर्ड के शासन का मूल्यांकन करने और निदेशकों, साथ ही साथ उनके कार्यकाल का चयन करने के लिए मानदंडों की जांच करना
44. प्रसाद पैनल: अंतर्राष्ट्रीय व्यापार और सेवाएँ
45. राधा कृष्णन आयोग (1948): विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की स्थापना
46. आर. वी. गुप्ता समिति: लघु बचत
47. राजा चेल्या समिति: कर सुधार
48. रेखी समिति: अप्रत्यक्ष कर
49. आर.वी. गुप्ता समिति: कृषि ऋण
50. सरकारिया आयोग: केंद्र-राज्य संबंध
51. के. संथानम समिति: सीबीआई की स्थापना
52. एस. पी. तलवार समिति: कमजोर सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक का पुनर्गठन
53. सुरेश तेंदुलकर समिति: गरीबी रेखा को पुनर्परिभाषित करना और उसकी गणना सूत्र
54. सप्त ऋषि समिति (जुलाई 2002): घरेलू चाय उद्योग का विकास
55. शाह समिति: गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियों (NFBCs) से संबंधित सुधार
56. शिवरामन समिति (1979): नाबार्ड की स्थापना
57. एस.एन. वर्मा समिति (1999): वाणिज्यिक बैंकों का पुनर्गठन
58. स्वामीनाथन आयोग (2004): किसानों के सामने आने वाली समस्याओं का पता लगाना
59. सुखमय चक्रवर्ती समिति (1982): भारतीय मौद्रिक प्रणाली के कामकाज का आकलन करने के लिए
60. टंडन समिति: बैंकों द्वारा कार्यशील पूंजी वित्तपोषण की प्रणाली
61. तारापोर समिति (1997): पूंजी खाता परिवर्तनीयता पर रिपोर्ट
62. उदेश कोहली समिति: विद्युत क्षेत्र में फण्ड की आवश्यकता का विश्लेषण
63. यू.के. शर्मा समिति: आरआरबी में नाबार्ड की भूमिका
64. वाघुल समिति: भारत में मुद्रा बाजार
65. वासुदेव समिति: एनबीएफसी सेक्टर में सुधार
66. वाई. बी. रेड्डी समिति (2001): आयकर छूट की समीक्षा
67. न्यायमूर्ति ए.के. माथुर आयोग: 7 वां वेतन आयोग
68. बलवंतराय मेहता समिति (1957): पंचायती राज संस्थाएँ
भारत में विभिन्न क्षेत्रों में कई समितियाँ और आयोग बने हैं. इन समितियों की सिफारिशों के आधार पर हमारे देश में कई सुधार हुए हैं.विगत वर्षों में ऐसा देखा गया है कि इन समितियों और आयोगों पर आधारित कई प्रश्न परीक्षा में पूछे गये हैं. इसलिए छात्रों को इन समितियों और आयोगों के नाम और उनके सम्बद्ध क्षेत्र को ध्यान से याद करना चाहिए
[01/12, 8:26 AM] Raj Kumar: #प्राचीन_भारत_का_इतिहास :
#मौर्य_युग_के_पूर्व_विदेशी_आक्रमण
#ईरानी_फारसी_आक्रमण
पूर्वोत्तर भारत में धीरे-धीरे छोटे गणराज्यों और रियासतों का विलय मगध साम्राज्य के साथ कर दिया था। लेकिन उत्तर-पश्चिम भारत में विदेशी आक्रमण से क्षेत्र की रक्षा करने keके लिए कोई भी मजबूत साम्राज्य नहीं था। यह क्षेत्र धनवान भी था और इसमें हिंदू कुश के माध्यम से आसानी से प्रवेश किया जा सकता था।
518 ई.पू. में ईरानी आक्रमण और 326 ई.पू. में मकदूनियाई आक्रमण के रूप में भारतीय उप-महाद्वीप के दो प्रमुख विदेशी आक्रमण हुए थे।
आर्कमेनियन शासक डारियस प्रथम ने 518 ईसा पूर्व में भारत के उत्तर-पश्चिम सीमांत पर आक्रमण किया और राजनीतिक एकता के अभाव का लाभ लेते हुए पंजाब पर आक्रमण कर दिया।
#ईरानी_आक्रमण_के_प्रभाव
आक्रमण से इंडो-ईरानी व्यापार और वाणिज्य में वृद्धि हुई। ईरानियों ने भारतीयों के लिए एक नई लेखन लिपि की शुरूआत की जिस खरोष्ठी के रूप में जाना जाता था।
#मकदूनियाई_सिकंदर_के_आक्रमण
सिकंदर 20 साल की उम्र में अपने पिता की जगह लेते हुए मैसेडोनिया के सिंहासन आसीन हुआ। उसका सपना विश्व विजेता बनने का था और 326 ईसा पूर्व भारत पर आक्रमण करने से पहले उसने कई क्षेत्रों पर विजय प्राप्त कर ली थी। अम्भी (तक्षशिला के शासक) और अभिसार ने उसके आगे आत्मसमर्पण कर दिया था लेकिन पंजाब के शासक ने ऐसा करने से मना कर दिया था।
सिकंदर और पोरस की सेनाओं के बीच झेलम नदी के पास शुरू हुए युद्ध को हेडास्पेस के युद्ध के नाम से जाना जाता है। हांलाकि इस युद्ध में पोरस हार गया था लेकिन सिकन्दर ने उसका उदारतापूर्वक व्यवहार किया था।
हालांकि, यह जीत भारत में उसकी आखिरी बड़ी जीत साबित हुई क्योंकि उसकी सेना ने इसके बाद आगे जाने से इनकार कर दिया था। वे सिकंदर के अभियान के साथ जाने से काफी थक गए थे और वापस घर लौटना चाहते थे। इसके अलावा, मगधियन साम्राज्य (नंदा शासक) की ताकत से भी वो भयभीत थे।
विजय प्राप्त प्रदेशों के लिए आवश्यक प्रशासनिक व्यवस्था करने के बाद सिकंदर 325 ईसा पूर्व वापस चले गया। 33 वर्ष की आयु में जब वह बेबीलोन में था तब उसका निधन हो गया।
#आक्रमण_के_प्रभाव
इस आक्रमण से भारत में राजनीतिक एकता की जरूरत महसूस की गयी जिससे चंद्रगुप्त मौर्य और उसके वंश का उदय हुआ है जिन्होंनो अपने शासन के दौरान भारत को एकजुट किया।
सिकंदर के आक्रमण के परिणामस्वरूप, भारत में इंडो-बैक्टेरियन और इंडो-पर्थिनयन राज्य स्थापित किये गये जिसने भारतीय वास्तुकला, सिक्कों और खगोल विज्ञान को प्रभावित किया था।
#निष्कर्ष:
व्यापार, वाणिज्य, कला और संस्कृति के विकास साथ विदेशी आक्रमणों ने भारतीय उपमहाद्वीप के राजनीतिक एकीकरण में मदद की।
[01/12, 8:26 AM] Raj Kumar: #भारत_की_मुख्य_योजनाएं_जिन्हें_विश्व_बैंक
#की_सहायता_प्राप्त_है?
2 फरवरी, 2018 को भारत सरकार और विश्व बैंक ने वाराणसी से हल्दिया के बीच गंगा नदी पर अपना पहला आधुनिक अंतर्देशीय जल परिवहन विकसित करने के लिए $ 375 मिलियन के ऋण समझौते पर हस्ताक्षर किए. इस लेख में द्वारा भारत में विश्व बैंक की सहायता से चलायी जा रही कुछ महत्वपूर्ण योजनाओं के बारे में बताया गया है.
विश्व बैंक अपने सदस्य देशों को विकास परियोजनाएं चलाने के लिए IDA के माध्यम से सस्ती दरों पर लोन मुहैया कराता है. वर्ष 2017 में भारत ने विश्व बैंक से 1776 मिलियन डॉलर का कर्ज लिया था इस मामले में चीन का नंबर पहला है क्योंकि उसने 2420 मिलियन डॉलर का कर्ज लिया हुआ है. वर्तमान में विश्व बैंक, भारत के 783 से ज्यादा प्रोजेक्ट्स में आर्थिक सहायता दे रहा है. इस लेख में द्वारा भारत में विश्व बैंक की सहायता से चलायी जा रही कुछ महत्वपूर्ण योजनाओं के बारे में बताया गया है.
आइये कुछ योजनाओं के बारे में जानते हैं;
1. #कौशल_भारत_मिशन_ऑपरेशन
स्वीकृति तिथि : 23 जून, 2017
समाप्ति तिथि : 31 मार्च, 2023 को
कुल परियोजना लागत : यूएस $ 3188.88 मिलियन
विश्व बैंक सहायता: यूएस $ 250 मिलियन
उधारकर्ता: आर्थिक मामलों का विभाग, मंत्रालय
कार्यान्वयन एजेंसी: कौशल विकास और उद्यमिता मंत्रालय
2. #स्वच्छ_भारत_मिशन
स्वीकृति तिथि : 15 दिसंबर, 2015
समाप्ति तिथि : 31 जनवरी, 2021
कुल परियोजना लागत : यूएस $ 22000 मिलियन
विश्व बैंक सहायता: यूएस $ 1500 मिलियन अमरीकी डालर
उधारकर्ता: भारत सरकार
कार्यान्वयन एजेंसी: पेयजल और स्वच्छता मंत्रालय
3. #राष्ट्रीय_गंगा_नदी_बेसिन_परियोजना
स्वीकृति तिथि : 31 मई, 2011
समाप्ति तिथि : 31 दिसंबर, 2019
कुल परियोजना लागत : यूएस $ 1556 मिलियन
विश्व बैंक सहायता: यूएस $1000 मिलियन अमरीकी डालर
उधारकर्ता: भारत सरकार
कार्यान्वयन एजेंसी: पर्यावरण और वन मंत्रालय
किस व्यक्ति के मरने पर कई देशों की करेंसी बदल जाएगी?
4. #प्रधानमन्त्री_ग्रामीण_सड़क_परियोजना
स्वीकृति तिथि : 20 दिसंबर, 2010
समाप्ति तिथि : 15 दिसंबर, 2020
कुल परियोजना लागत : यूएस $ 1500 मिलियन
विश्व बैंक सहायता: यूएस $ 1500 मिलियन अमरीकी डालर
उधारकर्ता: भारत सरकार
कार्यान्वयन एजेंसी: राष्ट्रीय ग्रामीण मार्ग विकास एजेंसी
5. #राष्ट्रीय_ग्रामीण_आजीविका_परियोजना
स्वीकृति तिथि : 5 जुलाई, 2011
समाप्ति तिथि : 30 जून, 2023
कुल परियोजना लागत : यूएस $ 1171 मिलियन
विश्व बैंक सहायता: यूएस $ 1000 मिलियन अमरीकी डालर
उधारकर्ता: भारत सरकार
कार्यान्वयन एजेंसी: ग्रामीण विकास मंत्रालय, भारत सरकार
6. #समन्वित_बाल_विकास_सेवाएं (ICDS)
स्वीकृति तिथि : 6 सितंबर, 2012
समाप्ति तिथि : 30 अगस्त, 2022
कुल परियोजना लागत : यूएस $ 151.50 मिलियन
विश्व बैंक सहायता: $ 106 मिलियन अमरीकी डालर
उधारकर्ता: भारत सरकार
कार्यान्वयन एजेंसी: भारत सरकार
7. #राष्ट्रीय_एड्स_नियंत्रण_सहायता_परियोजना
स्वीकृति तिथि : 1 मई, 2013
समाप्ति तिथि : 31 दिसंबर, 2019
कुल परियोजना लागत : यूएस $ 510 मिलियन
विश्व बैंक सहायता: यूएस $ 255 मिलियन अमरीकी डालर
उधारकर्ता: भारत सरकार
कार्यान्वयन एजेंसी: राष्ट्रीय एड्स नियंत्रण संगठन
8. #गरीबों_के_लिए_आवास_योजना
स्वीकृति तिथि : 14 मई, 2013
समाप्ति तिथि : 31 दिसंबर, 2018
कुल परियोजना लागत : यूएस $ 100 मिलियन
विश्व बैंक सहायता: यूएस $ 100 मिलियन
उधारकर्ता: भारत सरकार
कार्यान्वयन एजेंसी: राष्ट्रीय आवास बैंक
9. #MSME_विकास_नवाचार_और_समावेशी
#वित्त_परियोजना
स्वीकृति तिथि : 24 फरवरी, 2015
समाप्ति तिथि : 31 मार्च, 2020
कुल परियोजना लागत : यूएस $ 550 मिलियन
विश्व बैंक सहायता: यूएस $ 550 मिलियन
उधारकर्ता: सिडबी
कार्यान्वयन एजेंसी: सिडबी
10. #राष्ट्रीय_जल_विज्ञान_परियोजना
स्वीकृति तिथि : 15 मार्च, 2017
समाप्ति तिथि : 31 मार्च, 2025
कुल परियोजना लागत : यूएस $ 350 मिलि
विश्व बैंक सहायता: यूएस $ 175 मिलियन अमरीकी डालर
उधारकर्ता: आर्थिक मामले विभाग, भारत सरकार
कार्यान्वयन एजेंसी: जल संसाधन मंत्रालय, भारत सरकार
11. #उत्तर_प्रदेश_के_गरीबों_के_लिए_पर्यटन
#विकास_परियोजना
स्वीकृति तिथि : 20 दिसंबर, 2017
समाप्ति तिथि : 30 दिसंबर, 2022
कुल परियोजना लागत : यूएस $ 57.14 मिलियन
विश्व बैंक सहायता: यूएस $ 40 मिलियन
उधारकर्ता: भारत सरकार
कार्यान्वयन एजेंसी: उत्तर प्रदेश पर्यटन विभाग
12. #पूर्वी_समर्पित_फ्रेट_कॉरिडोर_3
स्वीकृति तिथि : 30 जून, 2015
समाप्ति तिथि : 30 नवंबर, 2021
कुल परियोजना लागत : यूएस $ 1107 मिलियन
विश्व बैंक सहायता: यूएस $ 650 मिलियन
उधारकर्ता: समर्पित फ्रेट कॉरिडोर (लिमी), भारत
कार्यान्वयन एजेंसी: N/A
13. #अटल_भूजल_योजना (अभय)
स्वीकृति तिथि : 5 जून, 2018
समाप्ति तिथि : N/A
कुल परियोजना लागत : यूएस $ 1000 मिलियन
विश्व बैंक सहायता: यूएस $ 500 मिलियन अमरीकी डालर
उधारकर्ता: आर्थिक मामले विभाग, वित्त मंत्रालय
कार्यान्वयन एजेंसी: जल संसाधन, नदी विकास और गंगा संरक्षण मंत्रालय
ऊपर लिखी गयी योजनाओं से स्पष्ट हो जाता है कि विश्व बैंक भारत की विकास योजनाओं में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है. हालाँकि इन सभी प्रोजेक्ट्स की पूरी लागत विश्व बैंक से प्राप्त नहीं हो रही है लेकिन फिर भी इस दिशा में विश्व बैंक का योगदान सराहनीय अवश्य है.
[01/12, 8:26 AM] Raj Kumar: #प्राचीन_भारत_का_इतिहास :
#कनिष्क_कुषाण_राजवंश_78_ईस्वी_से_103_ईस्वी
कनिष्क कुषाण साम्राज्य का सबसे शक्तिशाली शासक था। उसके साम्राज्य की राजधानी पुरूषपुर (पेशावर) थी। उसके शासन के दौरान, कुषाण साम्राज्य उज्बेकिस्तान, ताजिकिस्तान से लेकर मथुरा और कश्मीर तक फैल गया था। रबातक शिलालेख से प्राप्त जानकारी के अनुसार कनिष्क विम कदफिसेस का उत्तराधिकारी था जिसने कुषाण राजाओं की एक प्रभावशाली वंशावली स्थापित की।
#कनिष्क_साम्राज्य_का_विस्तार:
कनिष्क साम्राज्य निश्चित रूप से बहुत बड़ा था। यह दक्षिणी उज्बेकिस्तान और ताजिकिस्तान से उत्तर पश्चिम में अमू दरिया के उत्तर (ऑक्सस) से पश्चिम पाकिस्तान और उत्तरी भारत के साथ-साथ दक्षिण पूर्व में मथुरा (रबातक शिलालेख में यहां तक दावा किया गया है कि उसने पाटलिपुत्र और श्री चंपा को संघटित कर लिया था) तक फैल गया था और कश्मीर को भी अपने अधिकार क्षेत्र में शामिल कर लिया था जहां कनिष्कपुर नाम का एक शहर था। उसके नाम से बारामूला दर्रा ज्यादा दूर नहीं था जिसमें अभी भी एक बड़े स्तूप का आधार मौजूद है।
#कनिष्क_से_संबंधित_कुछ_महत्वपूर्ण_तथ्य_निम्न #प्रकार_से_हैं:
कनिष्क के शासनकाल के दौरान बौद्ध धर्म महायान और हीनयान में विभाजित किया गया था।
वह 78 ईस्वी शक युग का संस्थापक था।
उसने पाटलिपुत्र पर आक्रमण किया था और पुरूषपुर से बौद्ध भिक्षु अश्वघोष को ले लिया था।
चरक और सुश्रुत कनिष्क के दरबार में रहते थे।
कनिष्क बौद्ध धर्म का संरक्षक था और उसने 78 ईस्वी में कश्मीर के कुंडलवन में चौथी बौद्ध परिषद बुलायी थी।
परिषद की अध्यक्षता वासुमित्र द्वारा की गयी थी और इस परिषद के दौरान बौद्ध ग्रंथों का संग्रह लाया गया था और टिप्पणियों को ताम्र पत्र पर उत्कीर्ण किया गया था।
कनिष्क के दरबार में रहने वाले विद्वानों में वासुमित्र, अश्वघोष, नागार्जुन, चरक और पार्श्व शामिल थे
कनिष्क ने चीन में हान राजवंश के राजा हान हो-ती के खिलाफ युद्ध किया। कनिष्क ने दूसरे प्रयास में चीनी राजा को पराजित किया था।
[01/12, 8:26 AM] Raj Kumar: #पंचायतों_से_संबंधित_महत्वपूर्ण_संवैधानिक_प्रावधान:
*****************************************
भारत के संविधान के नीति निदेशक तत्वों के अंतर्गत अनुच्छेद 40 में यह निर्देश है कि "राज्य ग्राम पंचायतों का संगठन करेगा और उनको एसी शक्तियाँ और प्राधिकार प्रदान करेगा जो उन्हें स्वायत्त शासन की इकाइयों के रूप में कार्य करने के लिए आवश्यक हों. इस निर्देश के अनुसरण में भारत सरकार ने 73वें संविधान (संशोधन) अधिनियम, 1992 द्वारा पंचायतों को संवैधानिक दर्जा प्रदान किया और भाग 9 में इसके लिए उपबंध किया है.
संविधान के भाग 9 में अनुच्छेद 243 के अंतर्गत त्रिस्तरीय पंचायती राज व्यवस्था के बारे में उपबंध किया गया है. इस पंचायती राज व्यवस्था के महत्वपूर्ण प्रावधानों का विवरण निम्नानुसार है.
#ग्राम_सभा:
************
अनुच्छेद 243 में दी गयी परिभाषा के अनुसार किसी ग्राम पंचायत के पंचायती क्षेत्र में आने वाले गाँव/गाँवों में जितने लोग निर्वाचक नामावली में रजिस्ट्रीकृत हैं, उनका समूह ही ग्राम सभा कहलाता है. राज्य सरकार ग्राम सभा को विभिन्न शक्तियाँ और प्राधिकार प्रदान कर सकती है. ग्राम सभा, ग्राम पंचायत से भिन्न होती है और वास्तव में यही ग्राम पंचायत के सदस्यों का निर्वाचन करने वाला निर्वाचक मंडल होती है.
#ग्राम_पंचायत_और_तीनों_स्तरों_की_पंचायतों_की #संरचना:
****************************************
अनुच्छेद 242ख में तीन स्तरीय पंचायतों की स्थापना का प्रावधान है. अर्थात प्रत्येक राज्य में ग्राम, मध्यवर्ती और जिला स्तर पर पंचायतें गठित की जायेंगी. अलग-अलग राज्यों में इनके नामों में भिन्नता भी है. जिस राज्य की जनसँख्या 20 लाख से अधिक नहीं है वहाँ मध्यवर्ती स्तर की पंचायत का गठन नहीं किया जा सकता.
किसी भी स्तर की पंचायत में स्थान प्रत्यक्ष निर्वाचन के द्वारा भरे जाते हैं और इसके लिए उस पंचायत क्षेत्र को उतने निर्वाचन क्षेत्रों में विभाजित किया जाता है जितने उस पंचायत में स्थान होते हैं. पंचायत का सदस्य चुने जाने ले लिए न्यूनतम आयु 21 वर्ष होना चाहिए. प्रत्यक्ष निर्वाचन के अतिरिक्त कुछ स्थान, यदि राज्य का विधानमंडल इस संबंध में उपबंध करता है तो, निम्न प्रकार से भरे जा सकते हैं, अर्थात -
1. ग्राम पंचायतों के मुखिया, मध्यवर्ती पंचायत के सदस्य हो सकेंगे और जहाँ मध्यवर्ती पंचायतें नहीं हैं वहाँ वो जिला पंचायत के सदस्य हो सकेंगे.
2. मध्यवर्ती पंचायत के मुखिया/अध्यक्ष, जिला पंचायत के सदस्य हो सकेंगे.
3. लोक सभा के सदस्य और विधानसभा के सदस्य भी उन मध्यवर्ती और जिला पंचायतों के सदस्य हो सकेंगे जो उनके संसदीय या विधानसभा निर्वाचन क्षेत्र के भीतर पूर्णत: या भागत: आती हैं.
4. राज्य सभा और राज्य की विधानपरिषद के सदस्य उन मध्यवर्ती और जिला पंचायत के सदस्य हो सकेंगे जिनके क्षेत्रों में वे निर्वाचक के रूप में रजिस्ट्रीकृत हैं.
पंचायतों के अधिवेशन में सभी सदस्यों को मत देने का अधिकार होता है, चाहे वे निर्वाचित हों या किसी अन्य तरीके से सदस्य बने हों.
ग्राम पंचायतों में अध्यक्ष का निर्वाचन, राज्य सरकार द्वारा तय किये गए उपबंधों के अनुसार किया जाता है, जबकि मध्यवर्ती और जिला स्तर की पंचायतों में अध्यक्ष का निर्वाचन उनके सभी सदस्यों द्वारा अपने में से किया जाता है.
#पंचायतों_में_स्थानों_का_आरक्षण:
*********************************
प्रत्येक स्तर की पंचायत में अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और महिलाओं के लिए स्थान आरक्षित होते हैं. यदि राज्य सरकार को आवश्यक लगे तो वह अन्य पिछड़े वर्गों के लिए भी स्थान आरक्षित कर सकती है.
पंचायत के कुल स्थानों में से, अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए उसी अनुपात में स्थान आरक्षित होते हैं जिस अनुपात में उस पंचायत क्षेत्र की जनसंख्या में उनकी संख्या है. उनके लिए आरक्षित इन स्थानों में से भी एक- तिहाई स्थान इन्हीं वर्गों की स्त्रियों के लिए आरक्षित होते हैं.
इसके अतिरिक्त, पंचायत के कुल स्थानों में से एक-तिहाई स्थान स्त्रियों के लिए आरक्षित होते हैं, लेकिन ध्यान रहे की स्त्रियों के लिए आरक्षित इस एक-तिहाई की गणना करते समय इसमें SC/ST की स्त्रियों के लिए आरक्षित स्थानों को भी शामिल किया जाता हैं.
SC/ST और स्त्रियों के लिए आरक्षित ये स्थान पूरे पंचायत क्षेत्र में विभिन्न निर्वाचन क्षेत्रों को प्रत्येक निर्वाचन के दौरान चक्रीय क्रम में विभाजित किये जाते हैं.
प्रत्येक स्तर की पंचायतों में अध्यक्षों के पदों की कुल संख्या के भी एक-तिहाई पद स्त्रियों के लिए, और SC/ST के लिए जनसंख्या में उनके अनुपात के अनुसार आरक्षित रहते हैं. ये पद भी विभिन्न निर्वाचन क्षेत्रों को चक्रीय क्रम में आबंटित किये जाते हैं.
#पंचायतों_का_कार्यकाल:
***********************
प्रत्येक पंचायत अपने प्रथम अधिवेशन की तारीख से पाँच वर्ष तक कार्य करती है और नयी पंचायत के लिए निर्वाचन इस कार्यकाल के समाप्त होने से पहले करा लिया जाता है.
लेकिन जहाँ कोई पंचायत अपना 5 साल का कार्यकाल समाप्त करने से पहले ही विघटित हो गयी हो वहाँ नयी पंचायत के लिए निर्वाचन इस प्रकार विघटन की तारीख से 6 महीने के अन्दर कराना होता है और इस प्रकार गठित नयी पंचायत, पिछली पंचायत के विघटन के बाद के बचे हुए कार्यकाल के लिए ही होती हैं.
परन्तु जहाँ किसी पंचायत का विघटन उस समय हुआ हो जब उसका कार्यकाल केवल 6 महीने का ही बचा हो, तब निर्वाचन इस बचे हुए कार्यकाल के लिए नहीं कराया जाता, अर्थात तब निर्वाचन के बाद गठित नयी पंचायत पाँच साल के लिए होती है, बशर्ते उसका बीच में ही किसी कारण विघटन न हो जाए.
#पंचायतों_की_शक्तियाँ_प्राधिकार_और_उत्तरदायित्व:
***************************************
राज्य का विधान मंडल पंचायतों को एसी शक्तियाँ और प्राधिकार प्रदान कर सकता है जो उन्हें स्वायत्त शासन की संस्थाओं के रूप में कार्य करने के लिए आवश्यक हैं. इसके अंतर्गत निन्मलिखित के संबंध में शक्तियाँ और उत्तरदायित्व शामिल होंगे, अर्थात -
1. आर्थिक विकास और सामजिक न्याय के लिए योजनायें बनाना, और
2. आर्थिक विकास और सामजिक न्याय की उन योजनाओं को कार्यान्वित करना जो उन्हें सौंपी जाएँ. इसके अंतर्गत 11वीं अनुसूची में शामिल विषयों से संबंधित योजनायें भी हैं. उल्लेखनीय है की 11वीं अनुसूची में कुल 29 विषय शामिल हैं.
उपरोक्त शक्तियों के अलावा राज्य सरकार पंचायतों को कुछ प्रकार के कर, शुल्क, पथकर, फीसें आदि भी लगाने, वसूलने और उन्हें खर्च करने का अधिकार प्रदान कर सकता है और राज्य की संचित निधि में से पंचायतों के लिए सहायता अनुदान का उपबंध कर सकता है.
#पंचायतों_के_लिए_वित्त_आयोग:
**********************************
अनुच्छेद 243झ में उपबंध है कि राज्य का राज्यपाल प्रत्येक पांचवें वर्ष की समाप्ति पर वित्त आयोग का गठन करेगा जो पंचायतों की वित्तीय स्थिति की जाँच-पड़ताल करता हैं. यह वित्त आयोग, इस बारे में सिफारिश करता है की राज्य द्वारा वसूले जाने वाले करों का राज्य सरकार और पंचायतों के बीच कैसे बंटवारा हो और जो कर पंचायतों को दिए जाने हैं वे पंचायतों के विभिन्न स्तरों के बीच कैसे विभाजित किये जाएँ. आयोग, राज्य की संचित निधि में से पंचायतों के लिए सहायता अनुदान दिए जाने के लिए सिद्दांतों के बारे में और पंचायतों की वित्तीय स्थिति सुधारने के लिए आवश्यक उपायों के बारे में भी सिफारिश करता है.
वित्त आयोग अपनी ये सिफारिशें राज्य के राज्यपाल को देता है और राज्यपाल इन सिफारिशों को राज्य के विधानमंडल के समक्ष विचार के लिए रखवाता हैं.
वित्त आयोग की संरचना, उसके सदस्यों की योग्यता और उनकी नियुक्ति रीति आदि का निर्धारण राज्य सरकार कानून बनाकर कर सकती है. आयोग को अपनी प्रक्रिया स्वयं निर्धारित करने की शक्ति होती है, और अपने कृत्यों के पालन में एसी अन्य शक्तियाँ होती हैं जो उसे राज्य सरकार विधि बनाकर प्रदान करे. यही वित्त आयोग नगरपालिकाओं के संबंध में भी इन्ही सभी कृत्यों का पालन करता है.
राज्य का विधान मंडल पंचायतों द्वारा लेखे रखे जाने और उन लेखाओं की संपरीक्षा करने के बारे में भी उपबंध कर सकता है.
#पंचायतों_के_लिए_निर्वाचन:
*****************************
पंचायतों के निर्वाचन के लिए निर्वाचन नामावली तैयार कराने और इन सभी निर्वाचनों के संचालन का अधीक्षण, निदेशन और नियंत्रण राज्य निर्वाचन आयोग में निहित होता है. राज्य निर्वाचन आयोग में एक राज्य निर्वाचन आयुक्त होता है जो राज्य के राज्यपाल द्वारा नियुक्त किया जाता है.
राज्य निर्वाचन आयुक्त की सेवा शर्तें और पदावधि राज्य के विधानमंडल की विधि के अनुसार राज्यपाल द्वारा निर्धारित की जाती है. लेकिन राज्य निर्वाचन आयुक्त को उसके पद से हटाने के आधार और रीति वही होती है जो उच्च न्यायालय के किसी न्यायाधीश के लिए हैं. राज्य निर्वाचन आयुक्त की सेवा शर्तों में उसकी नियुक्ति के बाद अलाभकारी परिवर्तन नहीं किया जा सकता.
#पंचायती_राज्य_व्यवस्था_का_विस्तार:
*********************************
पंचायती राज व्यवस्था के उपबंध संघराज्य क्षेत्रों को लागू होते हैं. किन्तु ये उपबंध अनुच्छेद 244 में उल्लिखित अनुसूचित क्षेत्रों और जनजाति क्षेत्रों में लागू नहीं होती. हालांकि संसद को इस उपबंध में कोई परिवर्तन करने की शक्ति है.
प्राचीन_भारत_का_इतिहास : #महाजनपद
#प्राचीन_भारत_का_इतिहास :
#महाजनपद
छठी शताब्दी ईसा पूर्व में कुछ साम्राज्यों के विकास में वृद्धि हुयी थी जो बाद में प्रमुख साम्राज्य बन गये और इन्हें महाजनपद या महान देश के नाम से जाना जाने लगा था। इन्होंने उत्तर पश्चिमी पाकिस्तान से पूर्वी बिहार तक तथा हिमालय के पहाड़ी क्षेत्रों से दक्षिण में गोदावरी नदी तक अपना विस्तार किया। आर्य यहां की सबसे प्रभावशाली जनजाति थी जिन्हें 'जनस' कहा जाता था। इससे जनपद शब्द की उतपत्ति हुयी थी जहां जन का अर्थ "लोग" और पद का अर्थ "पैर" होता था। जनपद वैदिक भारत के प्रमुख साम्राज्य थे। महाजनपदों में एक नये प्रकार का सामाजिक-राजनीतिक विकास हुआ था। महाजनपद विशिष्ट भौगोलिक क्षेत्रों में स्थित थे। 600 ईसा पूर्व से 300 ईसा पूर्व के दौरान भारतीय उप-महाद्वीपों में सोलह महाजनपद थे।
#उनके_नाम_थे:-
अंग
अश्मक
अवंती
छेदी
गांधार
कम्बोज
काशी
कौशल
कुरु
मगध
मल्ल
मत्स्य
पंचाल
सुरसेन
वज्जि
वत्स
#मगध_साम्राज्य:
मगध साम्राज्य ने 684 ईसा पूर्व से 320 ईसा पूर्व तक भारत में शासन किया।
इसका उल्लेख महाभारत और रामायण में भी किया गया है।
यह सोलह महाजनपदों में सबसे अधिक शक्तिशाली था।
साम्राज्य की स्थापना राजा बृहदरथ द्वारा की गयी थी।
राजगढ (राजगिर) मगध की राजधानी थी, लेकिन बाद में चौथी सदी ईसा पूर्व इसे पाटलिपुत्र में स्थानांतरित कर दिया गया था।
यहां लोहे का इस्तेमाल उपकरणों और हथियारों का निर्माण करने के लिए किया जाता था।
हाथी जंगल में पाये जाते थे जिनका इस्तेमाल सेना में किया जाता था।
गंगा और उसकी सहायक नदियों के तटीय मार्गों ने संचार को सस्ता और सुविधाजनक बना दिया था।
बिम्बिसार, अजातशत्रु और महापदम नंद जैसे क्रूर और महत्वाकांक्षी राजाओं की कुशल नौकरशाही द्वारा नीतियों के कार्यान्वयन से मगध समृद्ध बन गया था।
मगध का पहला राजा बिम्बिसार था जो हर्यंक वंश का था।
अवंती मगध का मुख्य प्रतिद्वंदी था, लेकिन बाद में एक गठबंधन में शामिल हो गया था।
शादियों ने राजनीतिक गठबंधनों के निर्माण में मदद की थी और राजा बिम्बिसार ने पड़ोसी राज्यों की कई राजकुमारियों से शादी की थी।
#हर्यंक_राजवंश:
यह बृहदरथ राजवंश के बाद मगध पर शासन करने वाला यह दूसरा राजवंश था।
शिशुनाग इसका उत्तराधिकारी था।
राजवंश की स्थापना बिम्बिसार के पिता राजा भाट्य द्वारा की गयी थी।
राजवंश ने 6 वीं शताब्दी ईसा पूर्व से 413 ईसा पूर्व तक मगध पर शासन किया था।
हर्यंक राजवंश के राजा इस प्रकार थे:
भाट्य
बिम्बिसार
अजातशत्रु
उदयभद्र
अनुरूद्ध
मुंडा
नागदशक
#बिम्बिसार:
बिम्बिसार ने मगध पर 544 ईसा पूर्व से 492 ईसा पूर्व तक, 52 वर्ष शासन किया था।
उसने विस्तार की आक्रामक नीति का पालन किया और काशी, कौशल और अंग के पड़ोसी राज्यों के साथ कई युद्ध लड़े।
बिम्बिसार गौतम बुद्ध और वर्द्धमान महावीर का समकालीन था।
उसका धर्म बहुत स्पष्ट नहीं है। बौद्ध ग्रंथों में उल्लेख के अनुसार वह बुद्ध का एक शिष्य था, जबकि जैन शास्त्रों में उसका वर्णन महावीर के अनुयायी के रूप तथा राजगीर के राजा श्रेनीका के रूप में मिलता है।
बाद में बिम्बिसार को उसके पुत्र अ़जातशत्रु द्वारा कैद कर लिया गया जिसने मगध के सिंहासन पर आधिपत्य स्थापित कर लिया था। बाद में कारावास के दौरान बिम्बिसार की मृत्यु हो गई।
#अजातशत्रु
अजातशत्रु ने 492- 460 ईसा पूर्व तक मगध पर शासन किया था।
उसने वैशाली के साथ 16 वर्षों तक युद्ध किया था और अंत में कैटापोल्ट्स की मदद से साम्राज्य को शिकस्त दी।
उसने काशी और वैशाली पर आधिपत्य स्थापित करने के बाद मगध साम्राज्य का विस्तार किया था।
उसने राजधानी राजगीर को मजबूत बनाया जो पाँच पहाड़ियों से घिरी हुई थी जिससे यह लगभग अभेद्य बन गयी थी।
#उदयन:
उदयन या उदयभद्र अजातशत्रु का उत्तराधिकारी था।
उसका शासनकाल 460 ईसा पूर्व से 444 ईसा पूर्व तक चला था।
उसने पटना (पाटलिपुत्र) के किले का निर्माण कराया था जो मगध साम्राज्य का केंद्र था
उदयन का उत्तराधिकारी शिशुनाग था।
शिशुनाग ने अवंती साम्राज्य का विलय मगध में कर दिया था।
बाद में उसका उत्तराधिकारी नंद राजवंश बना।
#नंद_राजवंश:
राजवंश का शासनकाल 345 ईसा पूर्व से 321 ईसा पूर्व तक चला था।
महापदम नंद, नंद राजवंश का पहला राजा था जिसने कलिंग का विलय मगध साम्राज्य में कर दिया था।
उसे सबसे शक्तिशाली और क्रूर माना जाता था यहां तक कि सिकंदर भी उसके खिलाफ युद्ध लड़ना नहीं चाहता था।
नंद वंश बेहद अमीर बन गया था। उन्होंने अपने पूरे साम्राज्य में सिंचाई परियोजनाओं और मानकीकृत व्यापारिक उपायों की शुरूआत की थी।
हर्ष और कठोर कराधान प्रणाली ने नंदों को अलोकप्रिय बना दिया था।
अंतिम नंद राजा, घानानंद को चंद्रगुप्त मौर्य ने पराजित कर दिया था।
[01/12, 8:26 AM] Raj Kumar: #प्राचीन_भारत_का_इतिहास :
#सातवाहन_का_युग
सातवाहन ने भारतीय राज्यों के उनके शासकों की छवि के साथ वाले सिक्के जारी किए | इन्होने सांस्कृतिक पुल का निर्माण किया और व्यापार में एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा की और अपने विचारों और संस्कृति को इंडो गंगा के मैदान से भारत के दक्षिण के सिरे तक आदान प्रदान किया |
सातवाहन के लोग खेती और लोहे के बारे में पूर्ण रूप से परिचित थे |
#सामाजिक_संगठन
सातवाहन साम्राज्य का समाज चार वर्गों के अस्तित्व को दर्शाता है :
प्रथम वर्ग उन लोगों से बना है जो जिलों का देखरेख और नियंत्रण करते थे |
द्वितीय वर्ग अधिकारियों से बना था |
तीसरा वर्ग में किसान और वैद्यों आते थे |
चौथे वर्ग में आम नागरिक आते थे |
परिवार का मुखिया गृहपति था |
#प्रशासन_का_स्वरूप
सातवाहन साम्राज्य पाँच प्रान्तों में विभाजित था | नासिक के पश्चिमी प्रांत पर अभिरस का शासन था | इक्ष्वाकू ने कृष्ण-गुंटूर प्रांत के पूर्वी प्रांत में शासन किया | चौतस ने दक्षिण पश्चिमी भाग पर कब्जा किया और अपने प्रांत का उत्तर और पूर्व तक विस्तार किया | पहलाव ने दक्षिण पूर्वी भाग पर नियंत्रण किया |
अधिकारियों को आमात्य और महामंत्र के रूप में जाना जाता था | सेनापति को प्रांतीय राज्यपाल के तौर पर नियुक्त किया जाता था | गौल्मिका के पास सैन्य पलटनों का जिम्मा होता था जिसमे 9 हाथी, 9 रथ, 25 घोड़े और 45 पैदल सैनिक होते थे |
सातवाहन राज्य में तीन दर्जे के सामंत थे | उच्च दर्जा राजा का होता था जिसके पास सिक्कों के छापने का अधिकार था जबकि दूसरा दर्जा महाभोज का और तीसरा दर्जा सेनापति का था |
हमे कतक और स्कंधावरस जैसे शब्दों की जानकारी हमें इस युग के अभिलेखों से मिलती है |
#धर्म :
बौद्ध और ब्राह्मण धर्म दोनों सातवाहन शासन के दौरान प्रचलित हुए | विभिन्न संप्रदाय के लोगों के बीच राज्य में विभिन्न धर्म में धार्मिक सहिष्णुता का अस्तित्व रहा |
#वास्तुकला
सातवाहन के शासन के दौरान, चैत्य और विहार बड़ी महीनता के साथ ठोस चट्टानों से काटे गए | चैत्य बौद्ध के मंदिर थे और मोनास्ट्री को विहार के नाम से भी जाना जाता था | सबसे प्रसिद्ध चैत्य पश्चिमी दक्कन के नाशिक, करले इत्यादि में स्थित है | इस समय में चट्टानों से काटकर बनाया गया वास्तुशिल्प भी मौजूद था |
#भाषा
सातवाहना के शासकों ने दस्तावेज़ों पर आधिकारिक भाषा के रूप में प्राकृत भाषा का इस्तेमाल किया | सभी अभिलेखों को प्राकृत भाषा में बनाया गया और ब्रहमी लिपि में लिखा गया |
#महत्व_और_पतन
सातवाहन ने शुंग और मगध के कनव के साथ अपना साम्राज्य को स्थापित करने के लिए मुक़ाबला किया | बाद में इन्होने भारत के बहुत बड़े हिस्से को विदेशी आक्रमणकारियों जैसे पहलाव, शक और यवना से बचाने के लिए एक बड़ी भूमिक अदा की | गौतमीपुत्र सत्कर्णी और श्री यजना सत्कर्णी इस राजवंश के कुछ प्रमुख शासक थे |
कुछ समय के लिए सातवाहन ने पश्चिमी क्षत्रपस के साथ संघर्ष किया | तीसरी सदी AD में साम्राज्य छोटे छोटे राज्यों में बाँट गया |
[01/12, 8:26 AM] Raj Kumar: #भारत_की_परमाणु_नीति_क्या_है?
भारत ने अपना पहला परमाणु परीक्षण मई 1974 में पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी के शासनकाल में किया था. इस परमाणु परीक्षण का नाम "स्माइलिंग बुद्धा" था. इसके बाद पोखरण-2 परीक्षण मई 1998 में पोखरण परीक्षण रेंज पर किये गए पांच परमाणु बम परीक्षणों की श्रृंखला का एक हिस्सा था. भारत ने 11 और 13 मई, 1998 को राजस्थान के पोरखरण परमाणु स्थल पर 5 परमाणु परीक्षण किये थे.
इस कदम के साथ ही भारत की दुनिया भर में धाक जम गई. भारत पहला ऐसा परमाणु शक्ति संपन्न देश बना जिसने परमाणु अप्रसार संधि (NPT) पर हस्ताक्षर नहीं किए हैं. भारत द्वारा किये गए इन परमाणु परीक्षणों की सफलता ने विश्व समुदाय की नींद उड़ा दी थी.
इन परीक्षणों के कारण विश्व समुदाय ने भारत के ऊपर कई तरह के प्रतिबन्ध लगाये थे. इसी कारण भारत ने विश्व समुदाय से कहा था भारत एक जिम्मेदार देश है और वह अपने परमाणु हथियारों को किसी देश के खिलाफ “पहले इस्तेमाल” नही करेगा; जो कि भारत की परमाणु नीति का हिस्सा है.
#भारत_ने_2003_में_अपनी_परमाणु_नीति_बनायीं
#थी_भारत_की_परमाणु_नीति_की_विशेषताएं_इस #प्रकार_हैं?
1. भारत की परमाणु नीति का मूल सिद्धांत " पहले उपयोग नही" है. इस नीति के अनुसार भारत किसी भी देश पर परमाणु हमला तब तक नही करेगा जब तक कि शत्रु देश भारत के ऊपर हमला नही कर देता.
2. भारत अपनी परमाणु नीति को इतना सशक्त रखेगा कि दुश्मन के मन में भय बना रहे।
3. यदि किसी देश ने भारत पर परमाणु हमला किया तो उसका प्रतिशोध इतना भयानक होगा कि दुश्मन को अपूर्णीय क्षति हो और वह जल्दी इस हमले से उबर ना सके.
4. दुश्मन के खिलाफ परमाणु हमले की कार्यवाही करने के अधिकार सिर्फ जनता द्वारा चुने गए प्रतिनिधियों अर्थात देश के राजनीतिक नेतृत्व को ही होगा हालाँकि परमाणु कमांड अथॉरिटी का सहयोग जरूरी होगा.
5. जिन देशों के पास परमाणु हथियार नही हैं उनके खिलाफ परमाणु हथियारों का इस्तेमाल नही किया जायेगा.
6. यदि भारत के खिलाफ या भारतीय सुरक्षा बलों के खिलाफ किसी कोई रासायनिक या जैविक हमला होता है तो भारत इसके जबाब में परमाणु हमले का विकल्प खुला रखेगा.
7. परमाणु एवं प्रक्षेपात्र सम्बन्धी सामग्री तथा प्रौद्योगिकी के निर्यात पर कड़ा नियंत्रण जारी रहेगा तथा परमाणु परीक्षणों पर रोक जारी रहेगी.
8. भारत परमाणु मुक्त विश्व बनाने की वैश्विक पहल का समर्थन करता रहेगा तथा भेदभाव मुक्त परमाणु निःशस्त्रीकरण के विचार को आगे बढ़ाएगा.
न्यूक्लियर कमांड अथॉरिटी के अंतर्गत एक राजनीतिक परिषद् तथा एक कार्यकारी परिषद् होती है. राजनीतिक परिषद् के अध्यक्ष प्रधानमन्त्री होते हैं जबकि कार्यकारी परिषद् के अध्यक्ष राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार (NSA) होते हैं. NSA न्यूक्लियर कमांड अथॉरिटी को निर्णय लेने के लिए जरूरी सूचनाएँ उपलब्ध कराते हैं तथा राजनीतिक परिषद् द्वारा किये गए निर्देशों का क्रियान्वयन करते हैं.
यह सच है कि भारत में परमाणु हमला करने का निर्णय सिर्फ प्रधानमन्त्री के पास होता है. हालाँकि प्रधानमन्त्री अकेले निर्णय नही ले सकता है. प्रधानमन्त्री के पास एक स्मार्ट कोड जरूर होता है जिसके बिना परमाणु बम को नही छोड़ा जा सकता है. परमाणु बम को दागने का असली बटन तो परमाणु कमांड की सबसे निचली कड़ी या टीम के पास होता है जिसे परमाणु मिसाइल दागनी होती है.
#प्रधानमंत्री_निम्न_लोगों_से_राय_लेकर_ही_हमले
#का_निर्णय_ले_सकता_है;
1. सुरक्षा मामलों की कैबिनेट कमेटी
2. राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार
3. चेयरमैन ऑफ़ चीफ ऑफ़ स्टाफ कमेटी
इस प्रकार ऊपर लिखे गए बिन्दुओं से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि भारत का परमाणु कार्यक्रम किसी देश को धमकाने या उस पर हमला करके कब्ज़ा करने के लिए नही बल्कि भारत की संप्रभुता और सीमाओं की रक्षा करने के लिए है.
[01/12, 8:26 AM] Raj Kumar: #प्राचीन_भारत_का_इतिहास :
#मगध_का_साम्राज्य
मगध साम्राज्य ने भारत में 684 BC – 320 BC तक शासन किया | मगध साम्राज्य का दो महान काव्य रामायण और महाभारत में उल्लेख किया गया है | मगध साम्राज्य पर 544 BC से 322 BC तक शासन करने वाले तीन राजवंश थे | पहला था हर्यंका राजवंश (544 BC से 412 BC ), दूसरा था शिशुनाग राजवंश (412 BC से 344 BC ) और तीसरा था नन्दा राजवंश (344 BC से 322 BC )|
#हर्यंका_राजवंश:
हर्यंका राजवंश में तीन महत्वपूर्ण राजा थे बिंबिसार, अजातशत्रु और उदयीन
#बिंबिसार_546_494_BC
बिंबिसार ने 52 साल तक 544 BC से 492 BC तक शासन किया | इसको इसी के ही पुत्र अजातशत्रु (492-460 BC ) ने बंदी बना लिया और हत्या कर दी | बिंबिसार मगध का शासक था।वह हर्यंका राजवंश से था।
वैवाहिक गठबंधन के माध्यम से इसने अपनी स्थिति और समृद्धि को मजबूत किया | इसका पहला विवाह कोशल देवी नामक महिला से कोशल परिवार में हुआ | बिंबिसार को दहेज में काशी प्रांत दिया गया |
बिंबिसार ने वैशाली के लिच्छवि परिवार की चेल्लाना नामक राजकुमारी से विवाह किया |अब इस वैवाहिक गठबंधन ने इसे उत्तरी सीमा में सुरक्षित कर दिया | बिंबिसार ने दुबारा एक और विवाह मध्य पंजाब के मद्रा के शाही परिवार की खेमा से किया |इसने अंग के ब्रहमदत्ता को पराजित कर उसके साम्राज्य पर कब्जा कर लिया | बिंबिसार के अवन्ती राज्य के साथ अच्छे तालुक थे |
#अजातशत्रु_494_462_BC
अजात शत्रु ने अपने पिता की हत्या कर राज्य को छीन लिया | अजात शत्रु अपने पूरे शासन काल के दौरान तेज़ विस्तार के लिए आक्रामक नीति का पालन करता रहा | इस नीति ने उसे काशी और कौशल की तरफ धकेल दिया | मगध और कौशल के बीच लंबी अशांति शुरू हो गई |कौशल के राजा को मजबूरन शांति के लिए अपनी बेटी का विवाह अजातशत्रु से करना पड़ा और उसे काशी भी दे दिया |अजातशत्रु ने वैशाली के लिच्छवियों के खिलाफ भी युद्ध की घोषणा कर दी और वैशाली गणराज्य को जीत लिया | यह युद्ध 16 साल तक चला |
शुरुआत में वह जैन धर्म का अनुयायी था पर बाद में उसने बौद्ध धर्म को अपनाना शुरू कर दिया |अजातशत्रु ने कहा कि वह गौतम बुद्ध से मिला था | यह दृश्य बरहुत की मूर्तियों में दिखाया गया है | इसने कई चैत्यों और विहारों का निर्माण करवाया | वह बौद्ध की मृत्यु के बाद राजगृह में प्रथम बौद्ध परिषद में भी था |
#उदयीन
उदयीन, अजातशत्रु का उत्तराधिकारी बना | इसने पाटलीपुत्र की नींव राखी और राजधानी को राजगृह से पाटलीपुत्र स्थानत्रित किया |
नाग –दसक हर्यंका राजवंश का अंतिम शासक था | इसे लोगों द्वारा शासन करने के लिए अयोग्य पाया गया और
उसे अपने मंत्री शिशुनाग के लिए राजगद्दी से हाथ पीछे खींचना पड़ा |
#शिशुनाग_राजवंश
शिशुनाग के शासन के दौरान अवन्ती राज्य को जीत लिया गया और मगध साम्राज्य के कब्जे में लिया गया | शिशुनाग का उत्तराधिकारी कालाशोक बना | उसने 383 BC में वैशाली में दूसरी बौद्ध परिषद बुलाई |
#नन्दा_राजवंश
नन्दा राजवंश के संस्थापक महापद्म के द्वारा शिशुनाग राजवंश के अंतिम राजा का तख़्ता पलट कर दिया गया था।
इसे सर्वक्षत्रांतक (पुराण ) और उग्रसेना (एक बड़ी सेना का स्वामी ) के नाम से भी जाना गया | महापद्म को पुराण में एक्राट (एकमात्र सम्राट) के नाम से भी जाना गया | यहाँ तक कि इसे भारतीय इतिहास में पहला साम्राज्य निर्माता के तौर पर जाना गया है | धन नन्द, नन्दा राजवंश का अंतिम शासक था | इसे यूनानी पुस्तकों में अग्राम्मेस या क्षाण्ड्रेमेस भी कहा गया | इसके शासन काल के दौरान अलेक्जेंडर ने भारत पर आक्रमण किया था ।
#निष्कर्ष
धन नन्दा का तख़्ता पलट चन्द्र गुप्त मौर्य द्वारा 322 BC में किया गया जिसने मगध के नए शासन की स्थापना की जिसे मौर्य राजवंश के नाम से जाना गया |
Sunday, November 1, 2020
भारतीय राजव्यवस्था एवं शासन...
भारतीय राजव्यवस्था एवं शासन...
प्राचीन भारत में संवैधानिक शा सन प्रणाली...
प्राचीन भारत में शासन धर्म से बंधे हुए थे कोई भी व्यक्ति धर्म का उल्लंखन नहीं कर सकता था। ऐसे प्रयाप्त प्रमाण सामने आए है जिसमे पता चलता है की प्राचीन भारत के अनेक भागो में गणतंत्र शासन प्रणाली प्रतिनिधि विचारण मंडल और स्थानीय स्वशासी संस्थाए विधमान थी और बैदिक काल (3000-1000 ई.पू. के पास) से ही लोकतान्त्रिक चिंतन तथा वयवहार लोगो के जीवन के विभिन्न पहलुओ में घर कर गए थे। ऋग्वेद तथा अथर्ववेद में सभा (आम सभा) तथा समिति (वयो वृद्धो की सभा) का उल्लेख मिलता है। एतरेय ब्राह्मण पाणिनि की अष्टध्यायी, कौटिल्य का अर्थशास्त्र, महाभारत, अशोक स्तंभों पर उत्कीर्ण शिलालेख, उस काल के बौद्ध् तथा जैन ग्रन्थ और मनुस्मृति – ये सभी इस बात के साक्ष्य है की भारतीय इतिहास के वैदिकोत्तर काल में अनेक सक्रिय गणतंत्र विद्यमान थे। विशेष रूप से महाभारत के बाद विशाल साम्राज्यों के स्थान पर अनेक छोटे-छोटे गणतंत्र राज्य अस्तित्व में आ गए। दसवी शताब्दी में शुक्राचार्य ने ‘नीतिसार’ की रचना की जो संविधान पर लिखी पुस्तक है।
अंग्रेजी_शासन...
31 दिसम्बर, 1600 को लन्दन के चंद व्यापारीयो द्वारा बनाई गई ईस्ट इंडिया कम्पनी ने महारानी एलिजाबेथ से शाही चार्टर प्राप्त कर लिया और उस चार्टर द्वारा कम्पनी को प्रारंभ में 15 वर्ष की अवधी के लिए भारत तथा दक्षिण-पूर्व एशिया के कुछ क्षेत्रो के साथ व्यापार करने का एकाधिकार दे दिया गया था। (इसमें कम्पनी का संविधान, उसकी शक्तियां और उसके विशेषाधिकार निर्धारित थे।) औरंगजेब की मृत्यु (1707) के बाद मुग़ल साम्राज्य के विघटन की स्थिति का लाभ उठाते हुए कम्पनी एक प्रभावी शक्ति के रूप में उभर कर सामने आ गई। 1757 में बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला के खिलाफ प्लासी की लड़ाई में कम्पनी की विजय के साथ इसकी पकड़ और भी मजबूत हो गई और भारत में अंग्रेजी शासन की नीव पड़ी।
रेगुलेटिंग_एक्ट – (1773)...
भारत में कम्पनी के प्रशासन पर ब्रिटीश संसदीय नियंत्रण के प्रयासों की शुरुआत थी। कम्पनी के शासनाधीन क्षेत्रो का प्रशासन अब कम्पनी के व्यापारियो का निजी मामला नहीं रहा। 1773 के रेगुलेटिंग एक्ट में भारत में कम्पनी का शासन के लिए पहली बार एक लिखित संविधान प्रस्तुत किया गया।
चार्टर_एक्ट (1833)...
भारत में अंग्रेजी राज के दौरान संविधान निर्माण के प्रथम धुंधले से संकेत 1833 के चार्टर एक्ट में मिलते है। भारत में अंग्रेजी शासनाधीन सभी क्षेत्रो में सम्पूर्ण सिविल तथा सैनिक शासन तथा राजस्व की निगरानी, निर्देशन और नियंत्रण स्पष्ट रूप से गवर्नर जर्नल ऑफ़ इंडिया इन कौंसिल (सपरिषद भारतीय गवर्नर जर्नल) को सौप दिया गया। इस प्रकार गवर्नर जर्नल की सरकार भारत सरकार और उसकी परिषद् ‘भारत परिषद्’ के रूप में मानी जाती है। विधायी कार्य के परिषद का विस्तार करते हुए पहले के तीन सदस्यों के अतिरिक्त उसमे एक ‘विधि सदस्य’ और जोड़ दिया गया। गवर्नर जर्नल ऑफ़ इंडिया इन कौंसिल को अब कतिपय प्रतिबंधो के अधीन रहते हुए, भारत में अंग्रेजी शासनाधीन सम्पूर्ण क्षेत्रो के लिए कानून बनाने की अन्य शक्तियाँ मिल गई।
चार्टर_एक्ट (1853)...
1853 का चार्टर एक्ट अंतिम चार्टर एक्ट था. इस एक्ट के तहत भारतीय विधान तंत्र में महत्वपूर्ण परिवर्तन किये गए। यधपि भारतीय गवर्नर जर्नल की परिषद को ऐसे विधायी प्राधिकरण के रूप में जारी रखा गया जो समूचे ब्रिटिश भारत के लिए विधियाँ बनाने में सक्षम थी। विधायी कार्यो के लिए परिषद में छः विशेष सदस्य जोरकर इसका विस्तार कर दिया गया। इन सदस्यों को विधियाँ तथा विनियम बनाने के लिए बुलाई गई बैठको के अलावा परिषद् में बैठने तथा मतदान करने का अधिकार नहीं था। इन सदस्यों को विधायी पार्षद कहा जाता था। परिषद् में गवर्नर जर्नल, कमांडर-इन-चीफ, मद्रास, बम्बई, कलकत्ता और आगरा के स्थानीय शासको के चार प्रतिनिधियों समेत अब बारह सदस्य हो गए थे।
1858_का_एक्ट ...
भारत में अंग्रेजी शासन के मजबुती के साथ स्थापित हो जाने के बाद 1857 का विद्रोह अंग्रेजी शासन का तख्ता पलट देने का पहला संगठित प्रयास था। उसे अंग्रेज इतिहासकारों ने भारतीय ग़दर तथा भारतीयों ने स्वाधीनता के लिए प्रथम युद्ध का नाम दिया। यह एक्ट अंततः 1858 का भारत के उत्तम प्रशासन के लिए एक्ट बना। इस एक्ट के अधीन उस समय जो भी भारतीय क्षेत्र कम्पनी के कब्जे में थे वे सब crawn में निहित हो गए और उन पर (भारत के लिए) प्रिंसिपल सेक्रेटरी ऑफ़ स्टेट के माध्यम से कार्य करते हुए crawn द्वारा तथा उसके नाम सीधे शासन किया जाने लगा।
भारतीय_परिषद_एक्ट ( 1861)...
इसके बाद शीघ्र ही सरकार ने ये यह जरुरी समझा की वह भारतीय प्रशासन की सुधार सम्बन्धी निति का निर्धारण करे। यह ऐसे साधनों तथा उपायों पर विचार करे जिसके द्वारा देश के जनमत से निकट संपर्क स्थापित किया जा सके और भारत की सलाहकार परिषद में यूरोपीय तथा भारतीय गैर सरकारी सदस्यों को शामिल किया जा सके ताकि सरकार द्वारा प्रस्तावित विधानों के बारे में बाहरी जनता से विचारो तथा भावनाओ की अभिव्यक्ति यथा समय हो सके।
1861 का भारतीय परिषद एक्ट भारत के संवैधानिक इतिहास में एक महत्वपूर्ण और युगांतकारी घटना है। यह दो कारणों से महत्वपूर्ण है। एक तो यह की इसने गवर्नर जर्नल को अपनी विस्तारित परिषद में भारतीय जनता के प्रतिनिधियों को नामजद करके उन्हें विधायी कार्य से संवाद करने का अधिकार दे दिया। दूसरा यह की इसने गवर्नर जर्नल की परिषद की विधायी शक्तियों का विकेन्द्रीयकरण कर दिया तथा उन्हें बम्बई तथा मद्रास की सरकारों में निहित कर दिया। विधायी कार्यो से लिए कम-से-कम छः तथा अधिक-से-अधिक बारह अतिरिक्त सदस्य सम्मिलित किये गए। उनमे से कम-से-कम आधे सदस्यों का गैर सरकारी होना जरुरी था. 1862 में गवर्नर जर्नल, लार्ड कैनिंग ने नवगठित विधान परिषद् में तिन भारतीयों – पटियाला के महाराजा, बनारस के राजा और सर दिनकर राव को नियुक्त किया। भारत में अंग्रेजी राज की शुरूआत के बाद पहली बार भारतीयों को विधायी कार्य के साथ जोड़ा गया। 1861 के एक्ट में अनेक त्रुटियाँ थी। इनके अलावा यह भारतीय आकांक्षाओ को भी पूरा नहीं करता था इससे गवर्नर जर्नल को सर्वशक्तिमान बना दिया था। गैर सरकारी सदस्य कोई भी प्रभावी भूमिका अदा नहीं कर सकता था। न तो कोई प्रश्न पुछा जा सकता था और न ही बजट पर बहस हो सकती थी। अनाज की भारी किल्लत हो गई और 1877 में जबरदस्त अकाल पड़ा। इससे व्यापक असंतोष फैल गया और स्थिति विस्फोटक बन गई।
1857 के विद्रोह के बाद जो दमनचक्र चला उसके कारणअंग्रेजो के खिलाफ लोगो की भावनाए भड़क उठी थी इनमे और भी तेजी आई, जब यूरोपियो और आंगल भारतीयों ने इल्वर्ट विधेयक का जमकर विरोध किया। इल्वर्ट विधेयक में सिविल सेवाओ के यूरोपियो तथा भारतीय सदस्यों के बीच घिनौना भेद को समाप्त करने की व्यवस्था की गई थी।
भारतीय_राष्ट्रीय_कांग्रेस_का_ जन्म...
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का श्रीगणेश 1805 में हुआ। ए ओ ह्यूम इसके प्रेनेता थे और प्रथम अध्यक्ष बने डब्लु सी बनर्जी। श्री ह्यूम अंग्रेज थे। 28 दिसम्बर, 1885 को श्री डब्लु सी बनर्जी की अध्यक्षता में हुए इसके पहले अधिवेशन में ही कांग्रेश ने विधान परिषदों में सुधार तथा इनके विस्तार की मांग की।
कांग्रेश के पांचवे अधिवेशन (1889) में इस विषय पर बोलते हुए श्री सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने कहा था “यदि आपकी यह मांग पूरी हो जाती है, तो आपकी अन्य सभी मांगे पूरी हो जाएगी, इस पर देश का समूचा भविष्य तथा हमारी प्रशासन व्यवस्था का भविष्य निर्भर करता है। 1889 के अधिवेशन में जो प्रस्ताव पारित किया गया, उसमे गवर्नर जर्नल की परिषद् तथा प्रांतीय विधान परिषदों में सुधार तथा उनके पुनर्गठन के लिए एक योजना की रुपरेखा दी गई थी और उसे ब्रिटिश पार्लियामेंट में पेश किये जानेवाले बिल में शामिल करने का सुझाव भी दिया गया था।
इस योजना में अन्य बातो के साथ-साथ यह मांग की गई थी की भारत में 21 वर्ष से ऊपर के सभी पुरुष ब्रिटिश नागरिको को मताधिकार तथा गुप्त मतदान पद्धति द्वारा मतदान करना का अधिकार दिया जाये।
भारतीय_परिषद्_एक्ट_1892...
भारतीय परिषद् एक्ट 1892 मुख्यतया भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेश के 1889 से 1891 तक के अधिवेशनो में स्वीकार किये गए प्रस्तावों से प्रभावित होकर पारित किया गया था। 1892 के एक्ट के अधिन गवर्नर जर्नल की परिषद् में अतिरिक्त सदस्यों की संख्या बढाकर कम से कम 10 तथा अधिक से अधिक 16 कर दी गई (इससे पहले इनकी न्यूनतम संख्या 6 और अधिकतम संख्या 12 थी। परिषदों को उनके विधायी कार्यो के अलावा अब कतिपय शर्तो तथा प्रतिबंधो के साथ वार्षिक वितीय वितरण या बजट पर विचार-विमर्श करने की इजाजत दे दी गई।
मिन्टो_मार्ले_सुधार...
एक ओर रास्ट्रीय आन्दोलन में गरमपंथियों की शक्ति बढती जा रही थी दूसरी ओर भारतीय कांग्रेस में नरमपंथी लोग देश के कार्य संचालन में भारतीयों के और अधिक प्रतिनिधित्व के लिए अनथक अभियान चला रहे थे. इसे देखते हुए तत्कालीन सेक्रेटरी ऑफ़ स्टेट फॉर इंडिया लार्ड मार्ले तथा तत्कालीन वायसराय लार्ड मिन्टो ने मिलकर 1906-08 के दौरान कतिपय संवैधानिक सुधार प्रस्ताव तैयार किये, इन्हें आमतौर पर मिन्टो-मार्ले सुधार प्रस्ताव कहा जाता है।
इनका मकसद था कि विधान परिषदों का विस्तार किया जाए तथा उनकी शक्तियों और कार्य क्षेत्र को बढ़ाया जाए, प्रशासी परिषदों में भारतीय सदस्य नियुक्ति किये जाए, जहाँ पर ऐसी परिषदे नहीं है वहां पर ऐसी परिषदे स्थापित की जाए, और स्थानीय स्वशासन प्रणाली का और विकाश की जाए।
भारतीय_परिषद्_एक्ट (1909)...
1909 के एक्ट और इसके अधीन बनाए गए विनियमों द्वारा परिषदों तथा उनके कार्य क्षेत्र का और अधीन विस्तार करके उन्हें अधिक विस्तार करके उन्हें अधिक प्रतिनिधित्व एवम प्रभावी बनाने के लिए उपबंध किये गये। भारतीय विधान परिषद् के अतिरिक्त सदस्यों की अधिकतम संख्या 16 से बढाकर 60 कर दी गई। इस एक्ट के अधीन अप्रत्यक्ष निर्वाचक के सिद्धांत को मान्यता दी गई। निर्वाचित सदस्य ऐसे निर्वाचक क्षेत्रो से चुने जाने थे यथा नगरपालिकाये जिला तथा स्थानीय बोर्ड विश्वविधालय वाणिज्य तथा व्यापार संघ मंडल और जमींदारो या चाय बागान मालिको जैसे लोगो के समूह। ऐसे नियम बना दिए गए जिससे सभी प्रांतीय विधान परिषदों में गैर सरकारी सदस्यों का बहुमत हो, किन्तु केन्द्रीय विधान परिषद में सरकारी सदस्यों का ही बहुमत बना रहे। इन विनियमों में मुस्लिम सम्प्रदाय के लिए पृथक निर्वाचक मंडल तथा पृथक प्रतिनिधित्व की व्यवस्था भी कर दी गई। इस प्रकार पहली बार सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व के घातक सिद्धांत का सूत्रपात हुआ। इस एक्ट के द्वारा लागु किये गए सुधार जिम्मेदार सरकार की मांग को न तो पूरा करते थे, क्योंकि उसके अधीन स्थापित परिषदों में जिम्मेदारी का अभाव था जो जन-निर्वाचित सरकार की विशेषता होती है।
मोंटेग्यू_घोषणा...
20 अगस्त, 1917 को अंग्रेजी राज के दौड़ान भारत के उतार-चढ़ाव वाले इतिहास में पहली बार इस वक्यत्व्य के द्वारा भारत में जिम्मेदार सरकार की स्थापना का वादा किया गया।
मोंटफोर्ट_रिपोर्ट_1918...
भारतीय संवैधानिक सुधार सम्बन्धी रिपोर्ट मोंटेग्यू चेम्सफोर्ड या मोंटफोर्ट रिपोर्ट के नाम से जानी जाती है।इसे सेक्रेटरी ऑफ़ स्टेट फॉर इंडिया श्री मोंटेग्यू तथा भारत के वायसराय लार्ड चेम्सफोर्ड ने संयुक्त रूप से तैयार किया जिसे जुलाई 1918 में प्रकाशित की गई। इस रिपोर्ट में स्वशासी डोमिनियन के दर्जे की मांग की पूर्ण उपेक्षा की गई।
संविधान of India...
भारत का संविधान,भारत का सर्वोच्च विधान है जो संविधान सभा द्वारा 26 नवम्बर 1949 को पारित हुआ तथा 26 जनवरी 1950 से प्रभावी हुआ। यह दिन (26 नवम्बर) भारत के संविधान दिवस के रूप में घोषित किया गया है जबकि 26 जनवरी का दिन भारत में गणतन्त्र दिवस के रूप में मनाया जाता है। भारत का संविधान विश्व के किसी भी गणतांत्रिक देश का सबसे लंबा लिखित संविधान है।
संविधान_क्या_है ?...
▪️किसी भी देश का संविधान उसकी राजनीतिक व्यवस्था का वह बुनियादी ढ़ांचा होता है जिसके अंतर्गत उसकी जनता शासित होती है।
▪️यह राज्य की कार्यपालिका, विधायिका, न्यायपालिका जैसे प्रमुख अंगो की स्थापना करता है तथा उनकी शक्तियों की व्याख्या करता है उसके दायित्वों का सीमांकन करता है और उनके पारम्परिक तथा जनता के साथ सम्बन्धो का विनियमन करता है।
संवैधानिक_विधि...
▪️विशेष रूप से इनका सरोकार राज्य के विभिन्न अंगो के बीच और संघ तथा इकाइयो के बीच शक्तियो के वितरण के ढ़ांचे की बुनियादी विषताओ से होता है।
भारत_का_संविधान...
▪️संविधान सभा द्वारा 26 नवम्बर 1949 को अंगीकार किया गया था।
▪️यह 26 जनवरी 1950 से पूर्णरूपेन लागु हो गया।
▪️संविधान में 22 भाग, 395 अनुच्छेद और 8 अनुसूचीयां थी।
▪️किन्तु सन्दर्भ में सुभीते की दृष्टी से संविधान के भागो और अनुच्छेदो की मूल संख्याओ में परिवर्तन नहीं किया गया।
▪️वर्तमान समय में गणना की दृष्टि के कुल अनुच्छेद वस्तुतया 448 हो गया है अनुचियाँ 8 से बढ़कर 12 हो गई है।
▪️पिछले 53 वर्षों में 94 संविधान संशोधन विधेयक पारित हो चुके है।
संविधान_के_श्रोत...
▪️राज्य के निति निर्देशक तत्वों के अंतर्गत ग्राम पंचायतो के संगठन का उल्लेख स्पस्ट रूप से महात्मा गाँधी तथा प्राचीन भारतीयों स्वशासी संस्थानों से प्रेरित होकर किया गया था जिसे 73वे तथा 74वे संविधान संसोधन अधिनियमों ने उन्हें अब और अधिक सार्थक तथा महत्वपूर्ण बना दिया है।
▪️उल्लेखनीय है की नेहरु कमिटी की रिपोर्ट में जो 19 मूल अधिकार शामिल किये गए थे उनमे से 10 को भारत के संविधान में बिना किसी खास परिवर्तन के शामिल कर लिया गया।
▪️मूल संविधान में मूल कर्तव्यो का कोई उल्लेख नहीं था किन्तु बाद में 1976 में संविधान (42वा) संसोधन अधिनियम द्वारा इस विषय पर भी एक नया अध्याय संविधान में जोर दिया गया।
▪️संविधान का लगभग 75% अंश भारत शासन अधिनियम 1935 से लिया गया था।
▪️राज्य व्यवस्था का बुनियादी ढ़ांचा तथा संघ एवं राज्यों के संबंधो, आपात स्थिति की घोषणा आदि को विनियमित करनेवाले उपबंध अधिकांशतः 1935 के अधिनियम पर आधारित थे।
▪️निदेशक तत्व की संकल्पना आयरलैंड के संविधान से ली गई है।
▪️विधायिका के प्रति उत्तरदायी मंत्रियो वाली संसदीय प्रणाली अंग्रेजो से आई और राष्ट्रपति में संघ की कार्यपालिका शक्ति तथा संघ के रक्षा बलो का सर्वोच्च समादेश निहित करना और उपराष्ट्रपति को राज्य सभा का पदेन सभापति बनाने के उपबंध अमरीकी संविधान पर आधारित थे।
▪️संघीय ढ़ांचे और संघ तथा राज्यों के संबंधो एवं संघ तथा राज्यों के बीच शक्तियों के वितरण से सम्बंधित उपबंध कनाडा के संविधान से प्रभावित है।
▪️सप्तम अनुसूची में समवर्ती अनुसूची, व्यापार, वाणिज्य तथा समागम, वित्त आयोग और संसदीय विशेषाधिकार से सम्बंधित उपबंध, आस्टेलियाई संविधान के आधार पर तैयार किये गए है।
▪️आपात स्थिति से सम्बंधित उपबंध अन्य बातों के साथ-साथ जर्मन राज्य संविधान द्वारा प्रभावित हुए थे।
▪️न्यायिक आदेशो तथा संसदीय विशेषाधिकारो के विवाद से सम्बंधित उपबंधो की परिधि तथा उनके विस्तार को समझने के लिए अभी भी ब्रिटिश संविधान का hi....
संविधान_पर_विदेशी_प्रभाव...
भारतीय संविधान पर प्रभाव डालने वाले देशी और विदेशी दोनों स्त्रोत हैं, लेकिन ‘भारतीय शासन अधिनियम 1935’ का संविधान पर गहरा प्रभाव है । भारतीय संविधान सबसे बड़ा लिखित संविधान है । भारत का संविधान 10 देशों के संविधान का मिश्रण है, जो कि उन देशों के संविधान से प्रमुख तथ्यों को लेकर बनाया गया है। जिसके कारण भारतीय संविधान को उधार का थैला भी कहा जाता है । आइये जानते हैं उन तथ्यों के बारे में जिनसे भारतीय संविधान का निर्माण हुआ।
(A) #आतंरिक_स्त्रोत –
#भारतीय_शासन_अधिनियम_1935 –
▪️संघीय तंत्र
▪️राज्यपाल का कार्यकाल
▪️न्यायपालिका
▪️लोक सेवा आयोग
▪️आपातकालीन उपबंध व प्रसानिक विवरण आदि प्रमुख तथ्य
▪️भारतीय शासन अधिनियम 1935 के अनुसार संविधान के 395 अनुच्छेदों में से लगभग 250 अनुच्छेद ऐसे हैं,जो इस अधिनियम से कुछ जस के तस तथा कुछ में बदलाव करके लिया गया है.
(B) #विदेशी_स्त्रोत –
विदेशी स्त्रोत के अंतर्गत बहुत से देशों से लिए गए उपबंध सम्मिलित हैं। जो कि निम्नलिखित हैं –
#ब्रिटेन_से_लिए_गए_उपबंध –
▪️संसदीय शासन
▪️बहुल मत प्रणाली
▪️विधि के समक्ष समता
▪️विधि निर्माण प्रक्रिया
▪️रिट या आलेख
▪️राष्ट्रपति का अभिभाषण
▪️एकल नागरिकता
▪️नाभिनाद संभद
#संयुक्त_राज्य_अमेरिका_से_लिए_ गए_उपबंध –
▪️मूल अधिकार
▪️न्यायिक पुनरावलोकन
▪️राष्ट्रपति पर महाभियोग
▪️निर्वाचित राष्ट्रपति
▪️उपराष्ट्रपति का पद
▪️विधि का सामान संरक्षण
▪️स्वतंत्र न्यायपालिका
▪️सामुदायिक विकास कार्यक्रम
▪️संविधान की सर्वोच्चता
▪️वित्तीय आपात
▪️उच्चतम न्यायलय या उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों को हटाने की प्रक्रिया
▪️संविधान संशोधन में राज्य की विधायिकाओं द्वारा अनुमोदन
▪️“हम भारत के लोग”
#सोवियत_संघ_से_लिए_गए_उपबंध –
▪️मूल कर्तव्य
▪️पंचवर्षीय योजना
#कनाडा_से_लिए_गए_उपबंध –
▪️राज्यों क संघ
▪️संघीय व्यवस्था
▪️राजयपाल की नियुक्ति विषयक प्रक्रिया
▪️राजयपाल द्वारा विधेयक राष्ट्रपति के लिए आरक्षित रखना
▪️प्रसादपर्यन्त और असमर्थ तथा सिद्ध कदाचार
तदर्थ नियुक्ति
#ऑस्ट्रेलिया_से_लिए_गए_उपबंध –
▪️समवर्ती सूची का प्रावधान
▪️प्रस्तावना की भाषा
▪️संसदीय विशेषाधिकार
▪️व्यापारिक वाणिज्यिक और समागम की स्वतंत्रता
▪️केंद्र व राज्य के मध्य शक्तियों का विभाजन एवं संबंध
▪️प्रस्तावना में निहित भावना ( स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व को छोड़कर )
#आयरलैंड_से_लिए_गए_उपबंध –
▪️राज्य की नीति के निर्देशक तत्व ( DPSP )
▪️आपातकालीन उपबंध
▪️राष्ट्रपति की निर्वाचन प्रणाली
▪️राज्यसभा में मनोनयन ( कला, विज्ञान, साहित्य, समाजसेवा इत्यादि क्षेत्र से )
#जापान_से_लिए_गए_उपबंध –
▪️अनुच्छेद – 21 की शब्दाबली – विधि की स्थापित प्रक्रिया ( शब्द के स्थान पर भावनाओं को महत्त्व )
#दक्षिण_अफ्रीका_से_लिए_गए_उपबं ध –
▪️संविधान संशोधन की प्रक्रिया का प्रावधान
▪️राज्य विधान मण्डलों द्वारा राज्य विधानसभा में आनुपातिक प्रतिनिधित्व
#जर्मनी_से_लिए_गए_उपबंध –
▪️आपात के दौरान राष्ट्रपति को मूल अधिकारों के निलंबन संबंधी शक्तियां
#फ्रांस_से_लिए_गए_उपबंध –
▪️गणतंत्र
▪️स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व की भावना ( सम्पूर्ण विश्व ने फ्रांस से ही ली )
#स्विटजरलैंड_से_लिए_गए_उपबंध –
▪️सामाजिक नीतियों के सन्दर्भ में DPSP का उपबंध
भारतीय_संविधान_सभा...
भारतीय संविधान सभा एक संप्रभु ढांचा था जिसका गठन कैबिनेट मिशन की सिफारिश पर किया गया था जिसने देश के लिए एक संविधान का मसौदा तैयार करने के लिए 1946 में भारत का दौरा किया था। भारत के लिए एक संवैधानिक मसौदा तैयार करने के लिए डॉ. बी. आर. अम्बेडकर की अध्यक्षता में एक मसौदा समिति का गठन किया गया था। हालांकि, बाद में संविधान सभा को अपने गठन के बाद कुछ आलोचनाओं का सामना भी करना पड़ा था।
भारतीय_संविधान_सभा_का_संरचना...
कैबिनेट मिशन द्वारा प्रदत्त ढांचे के आधार पर 9 दिसंबर, 1946 को एक संविधान सभा का गठन किया गया। संविधान निर्माण संस्था का चुनाव 389 सदस्यों वाली प्रांतीय विधान सभा द्वारा किया गया था जिसमें रियासतों से 93 और ब्रिटिश भारत से 296 सदस्य शामिल थे। रियासतों और ब्रिटिश भारत प्रांतों को उनकी संबंधित आबादी और मुस्लिम, सिख तथा अन्य समुदायों के आधार पर अनुपात में विभाजित किया गया था। सीमित मताधिकार के बावजूद भी संविधान सभा में भारतीय समाज के सभी वर्गों को प्रतिनिधित्व मिला था। संविधान सभा की पहली बैठक 9 दिसंबर 1946 को नई दिल्ली में हुई थी। डॉ सच्चिदानंद को सभा के अंतरिम अस्थायी अध्यक्ष के रूप में निर्वाचित किया गया था। हालांकि, 11 दिसंबर, 1946 को डॉ राजेन्द्र प्रसाद को स्थायी अध्यक्ष और एच. सी. मुखर्जी को संविधान सभा का उपाध्यक्ष निर्वाचित किया गया।
#संविधान_सभा_के_कार्य :
▪️संविधान तैयार करना।
▪️अधिनियमित कानूनों को निर्णय लेने की प्रक्रिया में शामिल किया गया।
▪️22 जुलाई, 1947 को संविधान सभा द्वारा राष्ट्रीय ध्वज को अपनाया गया।
▪️इसने मई 1949 में ब्रिटिश राष्ट्रमंडल में भारत की सदस्यता को स्वीकार कर मंजूरी दे दी थी।
▪️24 जनवरी 1950 को भारत के प्रथम राष्ट्रपति के रूप में डॉ राजेन्द्र प्रसाद को चुना गया था ।
▪️24 जनवरी 1950 को इसने राष्ट्रीय गान को अपनाया।
▪️24 जनवरी 1950 को इसने राष्ट्रीय गीत को अपनाया।
#उद्देश्य_प्रस्ताव (ऑब्जेक्टिव रेजॉल्यूशन) :
▪️उद्देश्य प्रस्ताव को पंडित जवाहर लाल नेहरू द्वारा 13 दिसंबर, 1946 को स्थानांतरित कर दिया गया था जिसने संविधान तैयार करने के लिए दर्शन मार्गदर्शक सिद्धांत प्रदान किये थे और इसने भारतीय संविधान की प्रस्तावना का रूप ले लिया था। हालांकि, इस प्रस्ताव को सर्वसम्मति से 22 जनवरी को संविधान सभा द्वारा अपनाया गया था।
▪️प्रस्ताव में कहा गया कि संविधान सभा सबसे पहले भारत को एक स्वतंत्र संप्रभु गणराज्य के रूप में घोषित करेगी जिसमें सभी प्रदेशों, स्वायत्त इकाइयों को बनाए रखना और अवशिष्ट शक्तियों के अधिकारी; भारत के सभी लोगों को न्याय, स्थिति की समानता, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, आस्था, पूजा, पेशे, संघ की स्वतंत्रता की गारंटी देना और कानून एवं सार्वजनिक नैतिकता के तहत अल्पसंख्यकों, पिछड़े, दलित वर्गों को पर्याप्त सुरक्षा उपाय प्रदान करना; गणराज्य के क्षेत्र की अखंडता और भूमि, समुद्र और हवा पर अपना संप्रभु अधिकार तथा इस प्रकार भारत का विश्व शांति को बढ़ावा देने के लिए और मानव जाति के कल्याण के लिए योगदान देना शामिल है।
#संविधान_सभा_की_समितियां :
▪️संविधान सभा ने संविधान बनाने के विभिन्न पहलुओं पर अध्ययन के लिए आठ प्रमुख समितियों का गठन किया था- केंद्रीय शक्तियों वाली समिति, केंद्रीय संविधान समिति, प्रांतीय संविधान समिति, मसौदा समिति, मौलिक अधिकारों और अल्पसंख्यकों के लिए सलाहकार समिति, प्रक्रिया समिति के नियम, राज्यों की समिति (राज्यों के साथ बातचीत के लिए समिति), जवाहर लाल नेहरू, संचालन समिति।
▪️इन आठ प्रमुख समितियों के अलावा, सबसे महत्वपूर्ण मसौदा समिति थी। 29 अगस्त 1947 को संविधान सभा ने भारतीय संविधान का मसौदा तैयार करने के लिए डॉ बी.आर. अम्बेडकर की अध्यक्षता में एक मसौदा समिति का गठन किया था।
#संविधान_सभा_की_आलोचना :
जिन बिंदुओं के आधार पर संविधान सभा की आलोचना की गयी थी वो इस प्रकार हैं:
▪️एक लोकप्रिय ढांचा नहीं: आलोचकों का मानना है कि संविधान सभा के सदस्यों का चुनाव सीधे भारत की जनता द्वारा नहीं किया गया था। प्रस्तावना कहती है कि संविधान, भारत के लोगों द्वारा अपनाया गया है जबकि इसे कुछ व्यक्तियों द्वारा अपनाया गया था जो भारतीय लोगों द्वारा निर्वाचित तक नहीं थे।
▪️एक संप्रभु विहीन ढांचा: आलोचक इस बात को लेकर बहस करते हैं कि संविधान सभा का ढांचा संप्रभु नहीं है क्योंकि इसका निर्माण भारत के लोगों के द्वारा नहीं किया गया था। यह भारत की आजादी से पहले कार्यकारी कार्रवाई के माध्यम से ब्रिटिश शासकों के प्रस्तावों द्वारा बनाया गया था तथा इसकी संरचना का निर्धारण भी उन्हीं के द्वारा किया गया था।
▪️वक्त की बर्बादी: आलोचकों का हमेशा से यह मानना रहा है कि संविधान तैयार करने के लिए लिया गया समय दूसरे देशों की तुलना में बहुत ज्यादा था। अमेरिका के संविधान निर्माताओं ने संविधान तैयार करने के लिए केवल चार महीने का समय लिया जो कि आधुनिक दुनिया में अग्रणी था।
▪️कांग्रेस का बोलबाला: आलोचक हमेशा इस बात को लेकर आलोचना करते हैं कि संविधान सभा में कांग्रेस का काफी दबदबा था और अपने द्वारा तैयार संविधान के मसौदे के माध्यम से उसने देश के लोगों पर अपनी सोच थोप दी थी।
▪️एक समुदाय का बोलबाला: कुछ आलोचकों के अनुसार, संविधान सभा में धार्मिक विविधता का अभाव था और केवल हिंदुओं का वर्चस्व था।
▪️वकीलों का बोलबाला: आलोचकों का यह भी मानना है कि संविधान संभा में वकीलों के प्रभुत्व की वजह से यह काफी भारी और बोझिल बन गया था उन्होंने एक आम आदमी को समझने के लिए संविधान की भाषा को मुश्किल बना दिया था। संविधान का मसौदा तैयार करने के दौरान समाज के अन्य वर्ग अपनी चिंताओं को जाहिर नहीं कर पाये और निर्णय लेने की प्रक्रिया में भाग नहीं ले सके थे।
इसलिए, संविधान सभा भारत की अस्थायी संसद बन गयी और महत्वपूर्ण रूप से भारत के ऐतिहासिक संविधान का मसौदा तैयार करने में अपना योगदान दिया और बाद में इसने भारतीय राजनीतिक व्यवस्था का निर्माण करने में मदद की...
भारत_में_संवैधानिक_विकास...
भारत में संवैधानिक विकास की शुरुआत ईस्ट इंडिया कम्पनी की स्थापना (1600 ई०) से माना जा सकता है। ईस्ट इंडिया कंपनी अंग्रेज व्यापारियों का एक समूह था। इसे ब्रिटिश सरकार ने भारत के साथ व्यापार करने का एकाधिकार प्रदान किया था। व्यापार की रक्षा के नाम पर यूरोपीय कंपनियों ने भारत में किलेबंदी करना और सेना रखना शुरू कर दिया। अपनी सैनिक शक्ति के दम पर ईस्ट इंडिया कंपनी जल्द ही भारतीय रियासतों के राजनीतिक एवं आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करने लगी और भारत की सबसे बड़ी राजनीतिक शक्ति बन गई। 1757 की प्लासी की लड़ाई के बाद ईस्ट इंडिया कंपनी भारत में एक मुख्य राजनीतिक ताकत बन गई। 1764 के बक्सर के युद्ध तथा 1765 की इलाहाबाद की संधि से तो कंपनी बंगाल, बिहार और उड़ीसा में सर्वेसर्वा हो गई। भारत में कंपनी की आर्थिक और राजनीतिक सफलताओं एवं कारगुजारियों की वजह से ब्रिटेन में यह जरूरी समझा गया कि भारत में उसके क्रियाकलापों नियंत्रित किया जाए।
#रेग्युलेटिंग_एक्ट (1773) :
▪️रेग्ययुलेटिंग एक्ट जैसा कि इसके नाम से ही स्पष्ट है इस अधिनियम के द्वारा ब्रिटिश सरकार तथा संसद ने पहली बार कंपनी की गतिविधियों को रेग्युलेट करने या नियंत्रित करने के लिए नियम बनाकर हस्तक्षेप किया।
▪️रेग्युलेटिंग एक्ट के द्वारा बंगाल के गवर्नर को बंगाल का गवर्नर जनरल कहा जाने लगा तथा बंबई और मद्रास प्रेसीडेंसी के गवर्नरों को बंगाल के गवर्नर जनरल के नियंत्रण में रखा गया।
▪️1773 में कलकत्ता में एक सुप्रीम कोर्ट की स्थापना की गई। इसका कार्य क्षेत्र बंगाल, बिहार और उड़ीसा तक था। सर एलीजा इम्पे को मुख्य न्यायाधीश नियुक्त किया गया।
▪️कंपनी के कर्मचारियों निजी व्यापार नहीं कर सकते थे।.
▪️वे उपहार भी नहीं ले सकते थे।
▪️कोर्ट आफ डायरेक्टर का कार्यकाल 1 वर्ष से बढ़ाकर 4 वर्ष कर दिया गया।
#पिट्स_इंडिया_एक्ट (1784) :
▪️यह अधिनियम ब्रिटेन के तत्कालीन प्रधानमंत्री विलियम पिट जुनियर द्वारा लाया गया था।
▪️रेग्युलेटिंग एक्ट की कमियों को दूर करने के लिए यह अधिनियम पारित किया गया।
▪️पिट्स इंडिया एक्ट में कंपनी प्रशासित क्षेत्र को पहली बार ब्रिटिश राज्य क्षेत्र कहा गया।
▪️बंगाल के गवर्नर जनरल की नियुक्ति पहले की तरह बोर्ड आफ डायरेक्टर्स करता था परंतु इससे पहले बोर्ड आफ कंट्रोल की अनुमति लेना जरूरी हो गया। और इस प्रकार नियुक्त गवर्नर जनरल को सम्राट जब चाहे वापस बुला सकता था।
▪️गवर्नर जनरल के कौंसिल के सदस्यों की संख्या चार से घटाकर तीन कर दिया गया। एक सदस्य प्रधान सेनापति होता था।
▪️सपरिषद् (कौंसिल सहित) गवर्नर जनरल को युद्ध, राजस्व तथा राजनीतिक मामलों में बंबई और मद्रास प्रेसीडेंसी पर अधिक नियंत्रण प्रदान किया गया।
▪️इसी प्रकार गवर्नर जनरल बिना बोर्ड आफ कंट्रोल की अनुमति के देशी राज्यों के प्रति युद्ध या शांति या किसी अन्य विषय में किसी भी प्रकार की नीति नहीं अपना सकता था।
▪️बाद में एक्ट में संशोधन कर यह प्रावधान किया गया कि यदि गवर्नर जनरल जरूरी समझे तो अपनी परिषद के निर्णय को अस्वीकार कर दे।
▪️पिट के भारत अधिनियम के द्वारा भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी के क्षेत्रों में ब्रिटिश सरकार का पहले से अधिक नियंत्रण स्थापित किया गया। ऐसा एक प्रकार का दोहरा शासन स्थापित करके किया गया।
▪️इंग्लैंड में एक नियंत्रण बोर्ड (बोर्ड आफ कंट्रोल) की स्थापना की गई। इसमें छः सदस्य होते थे। इंग्लैंड का वित्त मंत्री तथा राज्य सचिव (सेकेट्री आफ स्टेट) इसके सदस्य होते थे। चार अन्य सदस्यों की नियुक्ति सम्राट द्वारा की जाती थी। यह नियंत्रण बोर्ड कंपनी के संचालकों के बोर्ड (बोर्ड आफ डायरेक्टर्स) से ऊपर होता था। कंपनी के मालिकों का बोर्ड भी बोर्ड आफ कंट्रोल के नियंत्रण में होता था। बोर्ड आफ कंट्रोल को कंपनी के सैनिक, असैनिक तथा राजस्व संबंधी सभी मामलों की देखरेख तथा नियंत्रण-निर्देशन का अधिकार था। बोर्ड आफ कंट्रोल कंपनी के संचालकों के नाम आदेश भी जारी कर सकता था। इस प्रकार बोर्ड आफ कंट्रोल के माध्यम से ब्रिटेन की सरकार का कंपनी की गतिविधियों पर मजबूत नियंत्रण स्थापित हो गया। कंपनी के संचालक मंडल को भारत से प्राप्त तथा भारत भेजे जाने वाले सभी कागजात की प्रतिलिपि बोर्ड आफ कंट्रोल के समक्ष रखनी पड़ती थी, जिन्हें वह चाहे तो अस्वीकार भी सकती थी या उसमें परिवर्तन भी करके नया रूप भी दे सकती थी। इस प्रकार बोर्ड आफ कंट्रोल द्वारा स्वीकृत या संशोधित आदेश को संचालक मंडल को मानना ही पड़ता था।
▪️इस तरह संचालक मंडल (बोर्ड आफ डायरेक्टर्स) को बोर्ड आफ कंट्रोल के आदेशों और निर्देशों को मानना ही होता था।
▪️इस अधिनियम के द्वारा संचालक मंडल को केवल कंपनी के व्यापारिक कार्यों के प्रबंधन की शक्ति प्रदान की गई।
▪️संचालक मंडल कंपनी के अधिकारियों और कर्मचारियों की नियुक्ति कर सकता था परंतु यदि सम्राट चाहे तो ऐसी किसी भी नियुक्ति को निरस्त भी कर सकता था। लेकिन गवर्नर जनरल की नियुक्ति के लिए बोर्ड आफ कंट्रोल की अनुमति लेना आवश्यक था।
#1793_का_चार्टर_एक्ट :
▪️भारत के साथ व्यापार के कंपनी के अधिकार को 20 वर्षों के लिए और बढ़ा दिया गया।
▪️मद्रास और बंबई प्रेसीडेंसी के गवर्नर भी अपने परिषदों के निर्णयों को निरस्त करने का अधीकार दिया गया।
#1813_का_चार्टर_एक्ट :
▪️इस चार्टर एक्ट के द्वारा भारत के साथ कंपनी के व्यापार का एकाधिकार समाप्त कर दिया गया। लेकिन चीन के साथ कंपनी के व्यापार और चाय के व्यापार पर एकाधिकार सुरक्षित रखा गया।
▪️भारतीयों की शिक्षा के लिए एक लाख रुपए वार्षिक की व्यवस्था की गई।
▪️ईसाई मिशनरियों को भारत में धर्म प्रचार की अनुमति दी गई।
#1833_का_चार्टर_एक्ट :
▪️कंपनी के चाय के व्यापार के एकाधिकार और चीन के साथ व्यापार के एकाधिकार को समाप्त कर दिया गया तथा कंपनी को पूर्णता राजनीतिक और प्रशासनिक मशीनरी बना दिया गया ।
▪️इस चार्टर एक्ट के द्वारा बंगाल के गवर्नर जनरल को भारत का गवर्नर जनरल कहा गया। लार्ड विलियम बैंटिक भारत का प्रथम गवर्नर जनरल बना।
▪️एक विधि आयोग का गठन किया गया। लार्ड मैकाले विधि आयोग का प्रथम अध्यक्ष बनाया गया।
▪️दास प्रथा गैर कानूनी घोषित हुई।
▪️कंपनी के अधीन किसी पद पर नियुक्ति के मामले में भारतीयों से किसी भी प्रकार का भेदभाव निषिद्ध किया गया।
▪️संपूर्ण भारत के लिए अधिनियम बनाने का अधिकार सपरिषद् गवर्नर जनरल को दिया गया।
#भारतीय_शासन_अधिनियम (1858) :
▪️इस अधिनियम के द्वारा कंपनी का शासन समाप्त कर दिया गया और अब भारत का शासन सम्राट के नाम से किया जाने लगा।
▪️भारत का गवर्नर जनरल अब वायसराय कहा जाने लगा, जो सम्राट के प्रतिनिधि के रूप में भारत का शासन चलाता था।
▪️लार्ड कैनिंग पहला वायसराय बना।
▪️भारत सचिव का एक नया पद बनाया गया। भारत सचिव ब्रिटिश मंत्रिमंडल का एक सदस्य होता था। 15 सदस्यों का एक भारत परिषद बनाया गया। यह परिषद भारत सचिव को उसके कार्य में सहायता देती थी। ▪️नियंत्रण बोर्ड और निदेशक मंडल को समाप्त कर दिया गया तथा इन दोनों का कार्य भारत सचिव को दे दिया गया।
▪️इस तरह 1858 के भारत शासन अधिनियम से द्वैध शासन समाप्त हुआ।
#भारतीय_परिषद_अधिनियम (1861) :
▪️इस अधिनियम के द्वारा गवर्नर जनरल को अपनी परिषद में भारतीय सदस्यों को मनोनीत करने का अधिकार दिया गया। परंतु ये सदस्य न तो बजट पर बहस कर सकते थे और न ही प्रश्न कर सकते थे।
▪️अब सपरिषद प्रांतीय गवर्नर अर्थात् बंबई और मद्रास के गवर्नर भी कानून बना सकते थे। यह एक तरह से विकेंद्रीकरण की शुरुआत थी ।
#भारतीय_परिषद_अधिनियम (1892) :
▪️गवर्नर जनरल की परिषद में गैर सरकारी सदस्यों की संख्या बढ़ा दी गई। परंतु अभी सरकारी सदस्यों का बहुमत बना रहा।
▪️सीमित रूप में तथा अप्रत्यक्ष पद्धति से ही सही, अब परिषद के सदस्यों का चुनाव शुरू किया गया। अर्थात् भारत में निर्वाचन प्रणाली की शुरुआत हो गई।
▪️सदस्य गण अब बजट पर बहस कर सकते थे परंतु आर्थिक मुद्दों पर मतदान नहीं कर सकते थे। वे प्रश्न भी कर सकते थे, परंतु पूरक प्रश्न नहीं कर सकते थे। उनके प्रश्नों का उत्तर दिया जाना भी जरूरी नहीं था।
▪️यह अधिनियम भारत के किसी भी राजनीतिक गुट को संतुष्ट नहीं कर सका। यहां तक कि नरम दल भी इस अधिनियम से असंतुष्ट रहा।
#1909_का_भारतीय_परिषद_अधिनियम
▪️भारत सचिव जान मार्ले और वायसराय लॉर्ड मिंटो ने सुधार का एक मसौदा पेश किया जिसके आधार पर 1909 का भारतीय परिषद अधिनियम पारित हुआ इसलिए इसे मार्ले-मिंटो सुधार भी कहते हैं।
▪️1909 के भारतीय परिषद अधिनियम के केंद्रीय और प्रांतीय विधानसभाओं में सदस्यों की संख्या बढ़ा दी गई।
▪️गवर्नर जनरल की कार्यकारिणी में एक भारतीय सदस्य की नियुक्ति का भी प्रावधान किया गया।
▪️सदस्यों को प्रस्ताव रखने, बजट पर बहस करने, प्रश्न करने तथा मतदान का भी अधिकार दिया गया। लेकिन व्यावहारिक रूप में यह सब अधिकार नहीं थे।
▪️सांप्रदायिक निर्वाचन प्रणाली 1909 के भारतीय परिषद अधिनियम की सबसे खराब बात थी। इसके द्वारा मुस्लिमों के लिए पृथक निर्वाचन क्षेत्रों की व्यवस्था की गई, जहां मुस्लिम प्रतिनिधियों का चुनाव केवल मुस्लिम मतदाताओं को करना था। इस तरह अंग्रेजों ने भारत में बढ़ती हुई राष्ट्रवाद की भावना को कमजोर करने के लिए फूट डालो और राज करो की नीति के तहत साम्प्रदायिकता का जहर बो दिए।
#मांटेग्यू_घोषणा :
20 अगस्त 1917 को भारत सचिव मांटेग्यू ने हाउस आफ कामन्स में एक महत्वपूर्ण घोषणा की। यह घोषणा में भारत में अंग्रेजी सरकार के उद्देश्य और नीतियों से संबंधित थी। इसमें मांटेग्यू ने कहा कि भारत में स्वशासी शासनिक संस्थानो का धीरे-धीरे क्रमशः इस प्रकार विकास किया जाएगा कि भारत ब्रिटिश साम्राज्य के अभिन्न अंग के रूप में प्रगति करते हुए उत्तरदायी शासन प्रणाली की दिशा में आगे बढ़े तथा शासन के प्रत्येक विभाग में भारतीयों की भागीदारी बढ़े। और यह सब भारतीयों के सहयोग तथा जवाबदारी निभाने की क्षमता पर निर्भर करेगा। लेकिन इस दिशा में कब और किस मात्रा में प्रगति होगी इसका निर्धारण भारत सरकार और ब्रिटिश सरकार ही करेंगे।
#मांटफोर्ड_रिपोर्ट (1918) :
भारत सचिव एडविन मांटेग्यू और वायसराय चेम्सफोर्ड ने 1917 के 20,अगस्त की घोषणा को लागू करने के लिए एक मसौदा पेश किया। इसे ही मांटफोर्ड रिपोर्ट कहा गया। इसकी मुख्य बातें निम्नलिखित है-
▪️नगरपालिकाओं, जिला बोर्डों आदि स्थानीय निकायों में पूर्ण लोकप्रिय नियंत्रण।
▪️प्रांतों में आंशिक रूप से उत्तरदायी शासन की स्थापना।.
▪️केंद्रीय असेंबली का विस्तार तथा उसमें भारतीयों को अधिक प्रतिनिधित्व देना।
यही रिपोर्ट 1919 के भारत शासन अधिनियम का आधार बनी। इसे मान्टेग्यू चेम्सफोर्ड सुधार भी कहते हैं।
#भारत_सरकार_अधिनियम (1919) :
(क) प्रांतों से संबंधित उपबंध:
इस अधिनियम का सबसे महत्वपूर्ण भाग प्रांतों में दोहरा शासन या द्वैध शासन लागू करना था। इसके लिए शासन के विषयों को प्रांतीय और केंद्रीय सूचियों में बांट दिया गया-
1. केंद्रीय विषयों में रक्षा, विदेशी मामले, मुद्रा और टंकण, आयात-निर्यात कर इत्यादि थे।
2. शांति और व्यवस्था, स्थानीय स्वशासन, शिक्षा, चिकित्सा प्रशासन और कृषि आदि को प्रांतीय विषयों की सूची में शामिल किया गया था।
प्रांतीय विषयों को फिर दो भागों में बांटा गया- हस्तांतरित और आरक्षित। हस्तांतरित विषयों (जैसे, स्थानीय स्वशासन, शिक्षा, अस्पताल, उद्योग, कृषि आदि) का प्रशासन लोकप्रिय मंत्रियों को सौंपा जाना था। जबकि शांति और व्यवस्था, पुलिस, वित्त, भूमि कर और श्रम जैसे कुछ अन्य विषय गवर्नर के लिए आरक्षित किए गए जिनका प्रशासन उसे सरकारी सदस्यों के सहयोग से चलाना था।
प्रांतीय परिषदों का विस्तार भी किया गया तथा निर्वाचित सदस्यों की संख्या बढ़ा दी गई। मताधिकार का विस्तार किया गया। दुर्भाग्यवश सांप्रदायिक निर्वाचन मंडल को न केवल बनाए रखा गया बल्कि और बढ़ा दिया गया। अब मुसलमानों के साथ-साथ सिखों, यूरोपीयों, भारतीय ईसाइयों तथा एंग्लो इंडियन को भी पृथक प्रतिनिधित्व मिला।
1. प्रांतों के गवर्नर आरक्षित विषयों में गवर्नर जनरल या भारत सचिव के प्रति उत्तरदायी था। हस्तांतरित विषयों में भी वह सांवैधानिक मुखिया का कार्य न करके अक्सर मंत्रियों की सलाह के विरुद्ध काम करता था। वह किसी भी विधेयक को रोक सकता था तथा विधान मंडल द्वारा अस्वीकृत विधेयक को प्रमाणित कर सकता था। वह अध्यादेश जारी कर सकता था। विधान मंडल को भंग करके समस्त प्रशासन अपने हाथ में ले सकता था। वह विधानमंढल का कार्यकाल एक साल के लिए बढ़ा भी सकता था।
(ख) केंद्र में परिवर्तन :
केंद्रीय स्तर पर पहले की तरह ही निरंकुश सरकार चलती रही और वह सैद्धांतिक रूप से केवल ब्रिटेन की संसद के प्रति उत्तरदायी थी। केंद्रीय विधान मंडल को द्विसदनात्मक बना दिया गया। मताधिकार अब भी सीमित था। यद्यपि दोनों सदनों में निर्वाचित सदस्यों का बहुमत रखा गया परन्तु गवर्नर जनरल की शक्तियां बढ़ा दी गईं। वह कटौतियों का पुनः स्थापन कर सकता था, विधेयकों को प्रमाणित कर सकता था और अध्यादेश जारी कर सकता था।
कमियां: भारत शासन अधिनियम 1919 के द्वारा प्रांतों में लागू किया गया दोहरा शासन बहुत ही भद्दा, भ्रममय और जटिल था। इसके द्वारा बहुत ही चालाकी से भारतीय राजनेताओं को आरक्षित और हस्तांतरित विषयों की चूहा-दौड़ में फंसा दिया गया। इसी तरह केंद्र में गवर्नर जनरल के अत्यधिक शक्तिशाली हो जाने से गैर सरकारी सदस्यों का बहुमत भी छलावा मात्र था। कहने की आवश्यकता नहीं है कि भारत शासन अधिनियम 1919 भारतीय जनता की आकांक्षाओं को पूरा नहीं कर सकता था इसलिए शीघ्र ही असहयोग आंदोलन शुरू हो गया।.
#भारत_शासन_अधिनियम (1935) :
▪️प्रांतीय स्वायत्तता भारत शासन अधिनियम 1935 की मुख्य विशेषता थी। अब प्रांतों का शासन लोकप्रिय मंत्रियों की सलाह से गवर्नर द्वारा चलाया जाना था।
▪️प्रांतीय और केंद्रीय विधान मंडलों की सदस्य संख्या बढ़ा दी गई।
▪️प्रांतों में दोहरा शासन समाप्त कर दिया गया लेकिन इसे केंद्र में लागू कर दिया गया।
▪️केंद्र के प्रशासनिक विषयों को दो प्रकारों में संरक्षित और हस्तांतरित में बांटा गया। संरक्षित विषयों का प्रशासन गवर्नर जनरल सरकारी सदस्यों की सहायता से करता था, जो विधानमंडल के प्रति उत्तरदायी नहीं थे। ▪️हस्तांतरित विषयों का प्रशासन लोकप्रिय मंत्रियों के द्वारा किया जाता था तो विधानमंडल के सदस्यों में से होते थे और उसी के प्रति जवाबदार होते थे।
▪️भारत शासन अधिनियम 1935 में एक अखिल भारतीय संघ का प्रस्ताव था, जो ब्रिटिश भारत के प्रांतों, चीफ कमिश्नरों के क्षेत्रों और देशी रियासतों से मिलाकर बनाया जाना था। लेकिन देशी रियासतों के लिए इस प्रस्तावित संघ में शामिल होना अनिवार्य नहीं होकर वैकल्पिक था इसलिए यह व्यवस्था अमल में नहीं आ सकी।
▪️मताधिकार का विस्तार किया गया।
▪️पृथक निर्वाचन की व्यवस्था को और बढ़ाते हुए हरिजनों को भी इसमें शामिल किया गया।
▪️बर्मा को भारत से अलग कर दिया गया।
▪️सिंध प्रांत को बंबई से अलग कर दिया गया।
▪️‘बिहार और उड़ीसा’ प्रांत का विखंडन करके बिहार तथा उड़ीसा नाम से दो नए प्रांत बनाए गए।
▪️भारत मंत्री के अधिकारों में कटौती की गई तथा ‘भारत परिषद’ को समाप्त कर दिया गया।
▪️एक संघीय न्यायालय तथा रिजर्व बैंक आफ इंडिया की स्थापना की गई।
#संविधान_सभा_का_गठन :
केबिनेट मिशन योजना (1946) के अंतर्गत एक संविधान निर्मात्री सभा के गठन का प्रावधान था। जुलाई 1946 में संविधान सभा के सदस्यों का चुनाव हुआ। इसकी प्रथम बैठक 09, दिसंबर 1946 को हुई। संविधान सभा ने 2 वर्ष 11 माह और 18 दिनों के अथक परिश्रम के बाद भारत का संविधान बनाया। इस संविधान पर 26 नवंबर 1949 को सदस्हयों हस्ताक्षर हुए। संविधान के नागरिकता आदि से संबंधित कुछ उपबंध तत्काल लागू हो गये। संविधान पूर्ण रूप से 26 जनवरी 1950 को लागू हुआ।
संविधान_में_अनुसूची...
#अनुसूची :
भारतीय संविधान की अनुसूची में कुल 12 अनुसूचियां हैं, जो इस प्रकार हैं:
#प्रथम_अनुसूची : इसमें भारतीय संघ के घटक राज्यों (29 राज्य) एवं संघ शासित (सात) क्षेत्रों का उल्लेख है.
नोट: संविधान के 62वें संशोधन के द्वारा दिल्ली को राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र का दर्जा दिया गया है.
नोट: 2 जून 2014 को आंध्र प्रदेश से पृथक तेलंगाना राज्य बनाया गया. इससे पहले राज्यों की संख्या 28 थी.
#द्वितीय_अनुसूची : इसमें भारत राज-व्यवस्था के विभिन्न पदाधिकारियों (राष्ट्रपति, राज्यपाल, लोकसभा के अध्यक्ष और उपाध्यक्ष, राज्य सभा के सभापति एवं उपसभापति, विधान सभा के अध्यक्ष और उपाध्यक्ष, विधान परिषद के सभापति एवं उपसभापति, उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों और भारत के नियंत्रक महालेखा परीक्षक आदि) को प्राप्त होने वाले वेतन, भत्ते और पेंशन का उल्लेख किया गया है.
#तृतीय_अनुसूची : इसमें विभिन्न पदाधिकारियों (राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, मंत्री, उच्चतम एवं उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों) द्वारा पद-ग्रहण के समय ली जाने वाली शपथ का उल्लेख है.
#चौथी_अनुसूची : इसमें विभिन्न राज्यों तथा संघीय क्षेत्रों की राज्य सभा में प्रतिनिधित्व का विवरण दिया गया है.
#पांचवीं_अनुसूची : इसमें विभिन्न अनुसूचित क्षेत्रों और अनुसूचित जनजाति के प्रशासन और नियंत्रण के बारे में उल्लेख है.
#छठी_अनुसूची : इसमें असम, मेघालय, त्रिपुरा, मिजोरम राज्यों के जनजाति क्षेत्रों के प्रशासन के बारे में प्रावधान है.
#सांतवी_अनुसूची : इसमें केंद्र एवं राज्यों के बीच शक्तियों के बंटवारे के बारे में बताया गया है, इसके अन्तगर्त तीन सूचियाँ है- संघ सूची, राज्य सूची एवं समवर्ती सूची:
▪️(1) संघ सूची: इस सूची में दिए गए विषय पर केंद्र सरकार कानून बनाती है. संविधान के लागू होने के समय इसमें 97 विषय थे, वर्तमान समय में इसमें 98 विषय हैं.
▪️(2) राज्य सूची: इस सूची में दिए गए विषय पर राज्य सरकार कानून बनाती है. राष्ट्रीय हित से संबंधित होने पर केंद्र सरकार भी कानून बना सकती है. संविधान के लागू होने के समय इसके अन्तर्गत 66 विषय थे, वर्तमान समय में इसमें 62 विषय हैं.
▪️(3) समवर्ती सूची: इसके अन्तर्गत दिए गए विषय पर केंद्र एवं राज्य दोनों सरकारें कानून बना सकती हैं. परंतु कानून के विषय समान होने पर केंद्र सरकार केंद्र सरकार द्वारा बनाया गया कानून ही मान्य होता है. राज्य सरकार द्वारा बनाया गया कानून केंद्र सरकार के कानून बनाने के साथ ही समाप्त हो जाता है. संविधान के लागू होने के समय समवर्ती सूची में 47 विषय थे, वर्तमान समय में इसमें 52 विषय हैं.
#आठवीं_अनुसूची : इसमें भारत की 22 भाषाओँ का उल्लेख किया गया है. मूल रूप से आंठवीं अनुसूची में 14 भाषाएं थीं, 1967 ई० में सिंधी को और 1992 ई० में कोंकणी, मणिपुरी तथा नेपाली को आंठवीं अनुसूची में शामिल किया गया. 2004 ई० में मैथिली, संथाली, डोगरी एवं बोडो को आंठवीं अनुसूची में शामिल किया गया.
#नौवीं_अनुसूची : संविधान में यह अनुसूची प्रथम संविधान संशोधन अधिनियम, 1951 के द्वारा जोड़ी गई. इसके अंतर्गत राज्य द्वारा संपत्ति के अधिग्रहण की विधियों का उल्लेख किया गया है. इन अनुसूची में सम्मिलित विषयों को न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती है. वर्तमान में इस अनुसूची में 284 अधिनियम हैं.
▪️नोट: अब तक यह मान्यता थी कि नौवीं अनुसूची में सम्मिलित कानूनों की न्यायिक समीक्षा नहीं की जा सकती. 11 जनवरी, 2007 के संविधान पीठ के एक निर्णय द्वारा यह स्थापित किया गया कि नौवीं अनुसूची में सम्मिलित किसी भी कानून को इस आधार पर चुनौती दी जा सकती है कि वह मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है तथा उच्चतम न्यायालय इन कानूनों की समीक्षा कर सकता है.
#दसवीं_अनुसूची : यह संविधान में 52वें संशोधन, 1985 के द्वारा जोड़ी गई है. इसमें दल-बदल से संबंधित प्रावधानों का उल्लेख है.
#ग्यारहवीं_अनुसूची : यह अनुसूची संविधान में 73वें संवैधानिक संशोधन (1993) के द्वारा जोड़ी गई है. इसमें पंचायतीराज संस्थाओं को कार्य करने के लिए 29 विषय प्रदान किए गए हैं.
#बारहवीं_अनुसूची : यह अनुसूची 74वें संवैधानिक संशोधन (1993) के द्वारा जोड़ी गई है इसमें शहरी क्षेत्र की स्थानीय स्वशासन संस्थाओं को कार्य करने के लिय 18 विषय प्रदान किए गए हैं.
नार्को टेस्ट क्या होता है और इसे कैसे किया जाता है?...
नार्को टेस्ट क्या होता है और इसे कैसे किया जाता है?...
👉Narco Test: नार्को टेस्ट में अपराधी या किसी व्यक्ति को ट्रुथ ड्रग नाम की एक साइकोएक्टिव दवा दी जाती है या फिर सोडियम पेंटोथोल का इंजेक्शन लगाया जाता है. इस दवा का असर होते ही व्यक्ति ऐसी अवस्था में पहुँच जाता है जिसमें व्यक्ति पूरी तरह से बेहोश भी नहीं होता और पूरी तरह से होश में भी नहीं रहता है.
👉पुलिस विभाग में एक कहावत है कि "पुलिस की मार के आगे, गूंगा भी बोलने लगता है", लेकिन यह कहावत कभी-कभी ठीक सिद्ध नहीं होती है. ऐसी परिस्थिति में पुलिस अन्य तरीकों का सहारा लेती है. इसी एक तरीके में शामिल है
💟👉नार्को टेस्ट क्या होता है? (What is Narco Test)
👉इस टेस्ट को अपराधी या आरोपी व्यक्ति से सच उगलवाने के लिए किया जाता है. इस टेस्ट को फॉरेंसिक एक्सपर्ट, जांच अधिकारी, डॉक्टर और मनोवैज्ञानिक आदि की मौजूदगी में किया जाता है.
👉नार्को टेस्ट (Narco Test) के अंतर्गत अपराधी को कुछ दवाइयां दी जाती है जिससे उसका सचेत दिमाग सुस्त अवस्था में चला जाता है और अर्थात व्यक्ति को लॉजिकल स्किल थोड़ी कम पड़ जाती है. कुछ अवस्थाओं में व्यक्ति अपराधी या आरोपी बेहोशी की अवस्था में भी पहुँच जाता है. जिसके कारण सच का पता नहीं चल पाता है.
👉यहाँ पर यह बताना जरूरी है कि ऐसा नहीं है कि नार्को टेस्ट (Narco Test) में अपराधी/आरोपी हर बार सच बता देता है और केस सुलझ जाता है. कई बार अपराधी/आरोपी ज्यादा चालाक होता है और टेस्ट में भी जांच करने वाली टीम को चकमा दे देता है.
💟👉नार्को टेस्ट करने से पहले व्यक्ति का परीक्षण;
👉किसी भी अपराधी/आरोपी का नार्को टेस्ट करने से पहले उसका शारीरिक परीक्षण किया जाता है जिसमें यह चेक किया जाता है कि क्या व्यक्ति की हालात इस टेस्ट के लायक है या नहीं. यदि व्यक्ति; बीमार, अधिक उम्र या शारीरिक और दिमागी रूप से कमजोर होता है तो इस टेस्ट का परीक्षण नहीं किया जाता है.
👉व्यक्ति की सेहत, उम्र और जेंडर के आधार पर उसको नार्को टेस्ट की दवाइयां दी जाती है. कई बार दवाई के अधिक डोज के कारण यह टेस्ट फ़ैल भी हो जाता है इसलिए इस टेस्ट को करने से पहले कई जरुरी सावधानियां बरतनी पड़तीं हैं.
👉कई केस में इस टेस्ट के दौरान दवाई के अधिक डोज के कारण व्यक्ति कोमा में जा सकता है या फिर उसकी मौत भी हो सकती है इस वजह से इस टेस्ट को काफी सोच विचार करने के बाद किया जाता है.
💟👉नार्को टेस्ट कैसे किया जाता है? (How is Narco Test Conducted)
👉इस टेस्ट में अपराधी या किसी व्यक्ति को "ट्रुथ ड्रग" नाम की एक साइकोएक्टिव दवा दी जाती है या फिर " सोडियम पेंटोथल या सोडियम अमाइटल" का इंजेक्शन लगाया जाता है.
👉इस दवा का असर होते ही व्यक्ति ऐसी अवस्था में पहुँच जाता है. जहां व्यक्ति पूरी तरह से बेहोश भी नहीं होता और पूरी तरह से होश में भी नहीं रहता है. अर्थात व्यक्ति की तार्किक सामर्थ्य कमजोर कर दी जाती है जिसमें व्यक्ति बहुत ज्यादा और तेजी से नहीं बोल पाता है. इन दवाइयों के असर से कुछ समय के लिए व्यक्ति के सोचने समझने की छमता खत्म हो जाती है.
👉इस स्थिति में उस व्यक्ति से किसी केस से सम्बंधित प्रश्न पूछे जाते हैं. चूंकि इस टेस्ट को करने के लिये व्यक्ति के दिमाग की तार्किक रूप से या घुमा फिराकर सोचने की क्षमता ख़त्म हो जाती है इसलिए इस बात की संभावना बढ़ जाती कि इस अवस्था में व्यक्ति जो भी बोलेगा सच ही बोलेगा.
💟👉नार्को टेस्ट के लिए कानून: (Laws for the Narco Test)
👉वर्ष 2010 में K.G. बालाकृष्णन वाली 3 जजों की खंडपीठ ने कहा था कि जिस व्यक्ति का नार्को टेस्ट या पॉलीग्राफ टेस्ट लिया जाना है उसकी सहमती भी आवश्यक है. हालाँकि सीबीआई और अन्य एजेंसियों को किसी का नार्को टेस्ट लेने के लिए कोर्ट की अनुमति लेना भी जरूरी होता है.
👉ज्ञातव्य है कि झूठ बोलने के लिए ज्यादा दिमाग का इस्तेमाल होता है जबकि सच बोलने के लिए कम दिमाग का इस्तेमाल होता है क्योंकि जो सच होता है वह आसानी से बिना ज्यादा दिमाग पर जोर दिए बाहर आता है लेकिन झूठ बोलने के लिए दिमाग को इस्तेमाल करते हुए घुमा फिरा के बात बनानी पड़ती है.
👉इस टेस्ट में व्यक्ति से सच ही नहीं उगलवाया जाता बल्कि उसके शरीर की प्रतिक्रिया भी देखी जाती है. कई केस में सिर्फ यहीं पता करना होता है कि व्यक्ति उस घटना से कोई सम्बन्ध है या नहीं. ऐसे केस में व्यक्ति को कंप्यूटर स्क्रीन के सामने लिटाया जाता है और उसे कंप्यूटर स्क्रीन पर विजुअल्स दिखाए जाते हैं.
👉पहले तो नार्मल विजुअल्स जैसे पेड़, पौधे, फूल और फल इत्यादि दिखाए जाते हैं. इसके बाद उसे उस केस से जुड़ी तस्वीर दिखाई जाती है फिर व्यक्ति की बॉडी को रिएक्शन चेक किया जाता है. ऐसी अवस्था में अगर दिमाग और शरीर कुछ अलग प्रतिक्रिया देता है तो इससे पता चल जाता है कि व्यक्ति उस घटना या केस से जुड़ा हुआ हैं.
👉यहाँ पर यह बताना जरूरी है कि नार्को टेस्ट की सफलता इस बात पर भी निर्भर करती है कि किस तरह के सवाल पूछे जाते हैं? आपने देखा होगा कि "तलवार" मूवी में भी आरोपियों का नार्को टेस्ट किया जाता है और जब उस टेस्ट का क्रॉस एग्जामिनेशन होता है तो पाया जाता है कि टेस्ट में जिस तरह के प्रश्न पूछे गए थे वे 'पहले से तय रिजल्ट' के अनुसार ही पूछे गये थे.
👉इस प्रकार नार्को टेस्ट के बारे में यह कहा जा सकता है कि यह टेस्ट कई मुश्किल मामलों में पुलिस और सीबीआईको सुराख़ अवश्य देता है.
नील आर्मस्ट्रॉन्ग के अलावा ये हैं वो 11 एस्ट्रोनॉट्स जो चांद की धरती पर कदम रख चुके हैं ...
नील आर्मस्ट्रॉन्ग के अलावा ये हैं वो 11 एस्ट्रोनॉट्स जो चांद की धरती पर कदम रख चुके हैं
ISRO के चंद्रयान-2 मिशन ने चांद को एक बार फिर चर्चा में ला दिया है. इसरो का ये मिशन चांद पर मानव को भेजने की ही कवायद है. इसरो ही नहीं, चांद पर कदम रखने के लिए दुनियाभर की स्पेस एजेंसियां बेताब हैं. अमेरिका के नील आर्मस्ट्रॉन्ग चांद पर कदम रखने वाले पहले इंसान हैं. लेकिन उनके अलावा भी कई और एस्ट्रोनॉट चांद की ज़मीं पर चहलकदमी कर चुके हैं. आइए जानते हैं ऐसे ही अंतरिक्ष यात्रियों के बारे में…
1. नील आर्मस्ट्रॉन्ग
1969 में अमेरिका ने चांद पर अपोलो-11 यान भेजा था, जिसमें एस्ट्रोनॉट नील आर्मस्ट्रॉन्ग भी मौजूद थे. 20 जुलाई 1969 को वो चांद पर कदम रखने वाले दुनिया के पहले शख़्स बन गए थे.
2. बज एल्ड्रिन
अपोलो-11 में बज एल्ड्रिन भी मौजूद थे. नील आर्मस्ट्रांग के बाद चांद पर दूसरा कदम उन्होंने ही रखा था.
3. पेटे कॉनराड
चांद पर कदम रखने वाले तीसरे व्यक्ति हैं पेटे कॉनराड. अमेरिका ने नवंबर 1969 में जो अपोलो-12 मिशन भेजा, वो उसका हिस्सा थे.
4. एलन बीन
अपोलो-12 मिशन में एस्ट्रोनॉट एलन बीन भी शामिल थे. इस तरह वो भी चांद की सतह पर कदम रखने वाले शख़्स बन गए. उनका नंबर चौथा था.
5. एलन शेपर्ड
अमेरिका के अपोलो-14 मिशन का हिस्सा थे एलन शेपर्ड. उन्होंने फ़रवरी 1971 में मून पर कदम रखा था.
6. एडगर मिशेल
एलन शेपर्ड के साथ ही गए एडगर मिशेल को भी चांद की धरती पर चलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था. ऐसा करने वाले मिशेल छठे शख़्स थे.
7. डेविड स्कॉट
अपोलो-15 मिशन पर एस्ट्रोनॉट डेविड स्कॉट 1971 में जुलाई-अगस्त में चांद पर गए थे. रिटायर होने के बाद उन्होंने बतौर लेखक ख़ूब नाम कमाया था.
8. जेम्स इरविन
चांद की धरती पर चलने वाले आठवें शख़्स थे जेम्स इरविन. वो एक एयफ़ोर्स पायलट थे, जो 1966 में एस्ट्रोनॉट बने थे.
9. जॉन यंग
मून पर कदम रखने वाले जॉन यंग 9वें व्यक्ति थे. वो 1972 में भेजे गए अपोलो-16 मिशन का हिस्सा थे.
10. चॉर्ल्स ड्यूक
अपोलो-16 के साथ गए चॉर्ल्स ड्यूक को भी चांद पर कदम रखने का मौका मिला था. ऐसा करने वाले वो 10वें इंसान बने.
11. हैरिसन श्मिट
अपोलो-17 के साथ चांद पर जाने वाले हैरिसन श्मिट 11वें व्यक्ति हैं, जिन्होंने चांद पर कदम रखा था.
12. यूजीन सेरनन
अपोलो-17 के साथ ही जाने वाले एस्ट्रोनॉट यूजीन सेरनन ने भी चांद पर कदम रखा था. वो आख़िरी बार इन्होंने ही मून पर चहलकदमी की थी.
Subscribe to:
Posts (Atom)