Some Important History of India
आधुनिक_भारत_का_इतिहास :
#भारतीय_प्रेस_का_विकास
1780 ई. में जेम्स ऑगस्टस हिक्की ने ‘बंगाल गजट’ या ‘कलकत्ता जनरल एडवरटाइजर’ पत्र शुरू किया जिसे 1872 ई. में सरकार की स्पष्ट आलोचना करने के कारण जब्त कर लिया गया|लेकिन हिक्की के इस प्रयास ने भारत में प्रेस की स्थापना की |बाद में अनेक समाचार पत्र और जर्नल प्रकाशित हुए,जैसे- बंगाल जर्नल,कलकत्ता क्रोनिकल,मद्रास कोरियर और बॉम्बे हेराल्ड| भारतीय प्रेस का विकासक्रम नीचे वर्णित है-
• लॉर्ड वेलेजली ने भारत पर फ्रेंच हमले की आशंका के चलते प्रेस एक्ट,1799 के तहत प्रेस पर सेंसरशिप लगा दी |
• प्रेस एक्ट,1835 या मेटकाफ एक्ट: मेटकाफ (गवर्नर जनरल,1835-36) ने 1823 के आपत्तिजनक अध्यादेश को वापस ले लिया ,इसी कारण से उन्हें ‘भारतीय प्रेस का मुक्तिदाता’ कहा जाता है|
• लाइसेंसिंग एक्ट,1857: इस अधिनियम ने लाइसेंस प्रतिबन्ध लागू किया और पुस्तकों के प्रकाशन व वितरण ,समाचार पत्र व अन्य छपी हुई सामग्री को रोकने का अधिकार सरकार को प्रदान कर दिया गया|
• रजिस्ट्रेशन एक्ट,1867: इस अधिनियम ने 1935 के मेटकाफ एक्ट द्वारा लगाये प्रतिबंधों में ढील प्रदान की और कहा कि सरकार नियामकीय भूमिका निभाए न कि प्रतिबंधात्मक |
• वर्नाकुलर प्रेस एक्ट,1878: इसका निर्माण देशी भाषा के पत्रों पर बेहतर नियंत्रण स्थापित करने,प्रभावी दण्ड देने और सरकार विरोधी लेखन के दमन हेतु किया गया था| इस एक्ट के प्रावधान निम्नलिखित हैं-
1. जिला मजिस्ट्रेट को यह शक्ति प्रदान की गयी कि वह किसी भी देशी भाषा के समाचार पत्र के प्रकाशक व मुद्रक को को बुलाकर सरकार के साथ एक ऐसे अनुबंधपत्र पर हस्ताक्षर करने को कह सकता है जिसमे यह वर्णित होता था कि सरकार के विरुद्ध किसी भी तरह की सामग्री प्रकाशित नहीं करेगा और न ही विभिन्न धर्मों,जातियों,प्रजातियों के लोगों के मध्य विद्वेष फ़ैलाने वाली सामग्री प्रकाशित करेगा| मुद्रक व प्रकाशक को प्रतिभूति राशि भी जमा करनी पड़ती थी जिसे अनुबंधपत्र का उल्लंघन करने पर जब्त भी किया जा सकता था|
2. मजिस्ट्रेट का निर्णय अंतिम होता था जिसके विरुद्ध न्यायालय में अपील नहीं की जा सकती थी|
3. देशी भाषा के समाचार पत्र को इस एक्ट से तभी छूट मिल सकती थी जब वह प्रकाशन से पूर्व सम्बंधित सामग्री को सरकार के पास जमा करे|
• समाचार पत्र(अपराध हेतु प्रेरणा)एक्ट ,1908: इस एक्ट द्वारा मजिस्ट्रेट को यह अधिकार दिया गया कि वह आपत्तिजनक सामग्री,जैसे-हत्या हेतु भड़काना,हिंसा को बढ़ावा देना आदि,को प्रकाशित करने वाले पत्र की प्रेस संपत्ति को जब्त कर सकता है|
• भारतीय प्रेस एक्ट,1910: यह वर्नाकुलर एक्ट का ही नया रूप था जो स्थानीय सरकार को यह अधिकार देता था कि वे रजिस्ट्रेशन के समय मुद्रक/प्रकाशक से प्रतिभूति राशि की जमा कराये और यदि समाचार पत्र द्वारा किसी प्रकार का कोई उल्लंघन किया किया जाता है तो उसे जब्त कर सकती है या फिर रजिस्ट्रेशन रद्द कर सकती है|साथ ही समाचार पत्र के मुद्रक को प्रत्येक संसकरण की दो प्रतियाँ स्थानीय सरकार के पास जमा करनी पड़ती थीं|
#निष्कर्ष
अतः भारतीय प्रेस का उद्भव विकासात्मक कठिनाइयों,निरक्षरता,औपनिवेशिक प्रतिबंधों और दमन से भरा हुआ था| इसने स्वतंत्रता के विचार को लोगों तक पहुँचाया और स्वतंत्रता संग्राम के लिए महत्वपूर्ण उपकरण बन गया|
मध्यकालीन_भारत_का_इतिहास :
#अकबर_1556_1605_ई०
जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर मुग़ल साम्राज्य के दूसरे शासक हुमायूँ और हमीदा बानू बेगम का बेटा था। अकबर का जन्म 15 अक्टूबर, 1542 को मुग़ल साम्राज्य की राजधानी में न होकर अमरकोट के राजा वीरमाल के महल में हुआ था। क्यूंकि 1540 ई० को बिलग्राम (कन्नौज) में हुमायूँ और शेरशाह सूरी के बीच युद्ध हुआ था, जिसमें हुमायूँ पराजित हुआ और दिल्ली पर शेरशाह सूरी ने कब्ज़ा कर लिया। तब हुमायूँ को दिल्ली छोड़कर भागना पड़ा और उसने अमरकोट के राजा वीरमाल के यहाँ शरण ली और कुछ समय बाद वह ईरान जा पहुंचा। लेकिन कुछ समय पश्चात ही शेरशाह सूरी के वंशज को हराकर हुमायूँ ने पुनः दिल्ली की गद्दी पर कब्ज़ा कर लिया।
हुमायूँ की मृत्यु के पश्चात पंजाब के कलानौर नामक स्थान पर 14 फरवरी, 1556 को 14 वर्ष की अल्पायु में ही अकबर का राज्याभिषेक हो गया था। अल्पायु के कारण बैरम खाँ को अकबर का संरक्षक नियुक्त किया गया था। जिसे अकबर ने अपना वजीर नियुक्त किया और खान-ए-खाना की उपाधि से नवाजा था। 1556 से 1560 तक अकबर बैरम खां के संरक्षण में रहा था।
5 नवम्बर, 1556 को पानीपत का द्वितीय युद्ध हुआ था, इस युद्ध में अकबर की सेना का मुकाबला सेनापति हेमू से हुआ था। हेमू अफगान शासक मुहम्मद आदिल शाह का सेनापति था। इस युद्ध में हेमू पराजित हुआ और मारा गया।
अकबर के शासन के शुरुआत के दिनों में 1560 ई० से 1562 ई० तक वह अपनी धाय माँ महम अनगा या महिम अनगा, उसके पुत्र आदम खां व उसके सम्बन्धियों के साथ रहता था। जिस कारण अकबर के शासन पर उसके सम्बन्धियों का काफी प्रभाव था। इन दो वर्ष के शासन काल को ‘पर्दा शासन‘ या ‘पेटीकोट सरकार‘ कहा गया है।
अकबर ने अपने शासन काल में सती प्रथा[1] को समाप्त करने का भी प्रयास किया था। साथ ही अकबर ने विधवा विवाह को क़ानूनी मान्यता भी प्रदान की थी। अकबर द्वारा विवाह के लिए उम्र का निर्धारण भी किया गया था, जिसमें लड़कों के लिये कम-से-कम उम्र 16 वर्ष तथा लड़कियों के लिए उम्र 14 वर्ष थी। 1562 ई० में अकबर ने दास प्रथा[2] को भी समाप्त किया था। साथ ही 1563 ई० में तीर्थयात्रा पर लगने वाले कर को भी समाप्त किया था। 1564 ई० में अकबर ने गैर मुस्लिम प्रजा पर लगने वाले जजिया[3] कर की भी समाप्ति की थी।
1571 ई० में अकबर ने फतेहपुर सीकरी नामक नगर की स्थापना की थी तथा अपनी राजधानी आगरा से फतेहपुर सीकरी स्थानांतरित की थी। फतेहपुर सीकरी में 1575 ई० में अकबर ने इबादत खाना (पूजा गृह) स्थापित किया था। इसमें इस्लामी विद्वानों को ही आने की इजाजत थी। परन्तु इस्लामी विद्वानों की बेअदबी से नाराज होकर 1578 ई० में सभी धर्मों के विद्वानों को इबादत खाने में आमंत्रित किया जाने लगा। इस इबादत खाना को बनवाने का उद्देश्य धार्मिक विषयों पर विचार-विमर्श करना था।
18 जून, 1576 ई. को अकबर और महाराणा प्रताप के मध्य हल्दी घाटी का युद्ध हुआ था। इस युद्ध में मुग़ल सेना का नेतृत्व राजा मानसिंह ने किया था। यह मुगलों और राजपूतों के मध्य हुआ भीषण युद्ध था जिसमें राजपूतों का साथ स्थानीय भील जाति के लोगों ने दिया था। यह युद्ध इतना भीषण और विध्वंसकारी था कि कुछ विद्वान् इसकी तुलना महाभारत युद्ध से भी करते हैं। इतिहासकारों का मत है कि इस युद्ध में कोई पराजित नहीं हुआ परन्तु मुट्ठी भर राजपूतों द्वारा विशाल मुग़ल सेना के छक्के छुड़ा देना महाराणा प्रताप की जीत के समान है।
1579 ई० में अकबर ने महजर अथवा अमोघवृत्त की घोषणा भी की थी। इस मजहर का अर्थ था ‘कि अगर कभी किसी धार्मिक विषय पर कोई वाद-विवाद की स्थति प्रकट होती है, तो अकबर का फैसला सर्वोपरि होगा और वही फैसला सबको स्वीकार करना पड़ेगा।‘
अकबर ने 1582 ई० में एक नए धर्म ‘दीन-ए-इलाही‘ का निर्माण किया, जिसे ‘तोहिद-ए-इलाही‘ भी कहा जाता है, जिसका अर्थ है दैवीय एकेश्वरवाद। ‘दीन-ए-इलाही’ धर्म में कई धर्मों जैसे मुख्यतः हिन्दू और मुस्लिम धर्म, जैन, बौद्ध, पारसी, ईसाई आदि कई धर्मों के अच्छे सिद्धांतों का समावेश था। ‘दीन-ए-इलाही’ धर्म या सम्प्रदाय का प्रधान पुरोहित अबुल फज़ल को बनाया गया था, जो अकबर के नो रत्नों में से एक थे। वहीँ कई मत ये भी हैं कि अकबर स्वयं ही इस धर्म का प्रधान पुरोहित था। इस धर्म में शामिल होने वाला प्रथम हिन्दू व्यक्ति राजा बीरबल थे, व अंतिम हिन्दू भी राजा बीरबल ही थे। अकबर हिन्दू धर्म से अत्यधिक प्रभावित था, माथे पर तिलक लगाना और हिन्दू त्यौहार मनाना आदि हिन्दू धर्म से लिये गए हैं। इस धर्म को बनाने का मकसद मुख्यतः हिन्दू और मुस्लिम धर्म के बीच की दूरियां मिटाना था।
अकबर का दरबार नवरत्नों की वजह से प्रसिद्ध था। नवरत्न असल में नौ लोगों का समूह था, जिनमें तानसेन, राजा बीरबल, टोडरमल, मुल्ला दो प्याजा, अब्दुर्रहीम खान-ए-खाना, अबुल फज़ल, मानसिंह, फैजी और हाकिम हुमाम शामिल थे। इन सब में बीरबल को श्रेष्ठ माना जाता था। बीरबल का वास्तविक नाम महेश था। बीरबल को कविप्रिय या कविराज की उपाधि अकबर द्वारा दी गयी थी।
नवरत्नों में शामिल फैजी, अबुल फज़ल का बड़ा भाई था। अबुल फज़ल अकबर के दरबार का राजकवि था। अबुल फज़ल ने ही अकबरनामा और आईने अकबरी नामक प्रसिद्ध पुस्तकों की रचना की है। इनमें अकबर की जीवनी और उसकी शासन प्रणाली की व्याख्या की गयी है। नवरत्न तानसेन दरबार के प्रमुख संगीतज्ञ थे। जो सभी संगीतज्ञों में सर्वोपरि थे। अकबर के समकालीन सूफी संत शेक सलीम चिश्ती थे।
1582 ई० में अकबर ने गुजरात से जैन धर्म के जैनाचार्य ‘हरी विजय सूरी‘ को जगत गुरु की उपाधि प्रदान की थी। साथ ही 1591 ई० में गतखर गच्छ सम्प्रदाय के विद्वान् ‘जिनचंद्र सूरी‘ को युग प्रधान की उपाधि भी प्रदान की थी।
अकबर ने 1583 ई० में नए कैलेंडर संवत ‘इलाही संवत‘ की शुरुआत भी की थी। जो सूर्य पर आधारित था। अकबर ने गुजरात विजय की याद में फतेहपुर सीकरी में बुलंद दरवाजा बनवाया था। अकबर ने अपने पुरे साम्राज्य में एक सरकारी भाषा ‘फ़ारसी’ के प्रयोग की शुरुआत की थी। साथ ही पूर्ण साम्राज्य में एक समान मुद्रा प्रणाली की शुरुआत तथा एक समान बाट व माप-तौल की प्रक्रिया भी प्रांरभ की थी। अकबर द्वारा भूमि-राजस्व सुधार के कई मापदंड शेरशाह सूरी (शेर खां) के भू-राजस्व (भूमि-राजस्व) सुधारों से ही लिये गए थे।
अकबर को इतिहास में उसके सर्व धर्म सहिष्णुता के लिए जाना जाता है। साथ ही अकबर के शासन में ही मुग़ल साम्राज्य नयी बुलंदियों पर पहुँचा था और एक विशाल मुग़ल साम्राज्य का उद्भव हुआ था।
1605 ई० को अतिसार रोग के कारण अकबर की मृत्यु हो गयी थी। अकबर को सिकन्दरबाद के पास दफनाया गया था। उसके बाद अकबर का बेटा सलीम जिसे जहांगीर के नाम से भी जाना जाता है, मुग़ल तख़्त पर बैठा।
इतिहासकार लेनपूल ने अकबर के शासन काल को ‘मुग़ल साम्राज्य का स्वर्णिम काल कहा है।‘
[1] सती प्रथा – हिन्दु समुदाय में प्रचलित एक ऐसी धार्मिक प्रथा या कहा जाये कि कुप्रथा थी, जिसमें किसी पुरुष की मृत्यु के बाद उसकी विधवा हुई पत्नी को अपने पति के अंतिम संस्कार के दौरान उसकी जलती हुई चिता में कूद कर आत्मदाह (आत्महत्या) कर लेना होता था।
[2] दास प्रथा – युद्ध में बंदी बनाये जाने वाले सैनिकों को दास (गुलाम) बनाये जाने की प्रथा।
[3] जजिया कर – इस्लाम को न मानने वाले लोग या कहा जाये कि गैर मुस्लिम लोगों पर यह कर लगाया जाता था।
[4] हल्दी घाटी – राजस्थान के उदयपुर से करीब 40 किलोमीटर उत्तर में स्थित एक संकरी पहाड़ी घाटी है।
मध्यकालीन_भारत_का_इतिहास :
#मुग़ल_साम्राज्य
पानीपत के मैदान में 21 अप्रैल, 1526 को इब्राहिम लोदी और चुगताई तुर्क जलालुद्दीन बाबर के बीच युद्ध लड़ा गया, जिसमें लोदी वंश के अंतिम शासक इब्राहिम लोदी को पराजित कर खानाबदोश[1] बाबर ने तीन शताब्दियों से सत्तारूढ़ तुर्क अफगानी-सुल्तानों की दिल्ली सल्तनत का तख्ता पलट कर दिया और मुग़ल साम्राज्य और मुग़ल सल्तनत की नींव रखी। गुप्त वंश के पश्चात मध्य भारत में केवल मुग़ल साम्राज्य ही ऐसा साम्राज्य था, जिसका एकाधिकार हुआ था।
#बाबर – (1526-1530 ई०)
बाबर का जन्म छोटी सी रियासत ‘फरगना‘ में 1483 ई० में हुआ था। बाबर अपने पिता की मृत्यु के पश्चात मात्र 11 वर्ष की आयु में ही फरगना का शासक बन गया था। बाबर को भारत आने का निमंत्रण पंजाब के सूबेदार दौलत खाँ लोदी और इब्राहिम लोदी के चाचा आलम खाँ लोदी ने भेजा था।
पानीपत का प्रथम युद्ध बाबर का भारत पर उसके द्वारा किया गया पांचवा आक्रमण था, जिसमें उसने इब्राहिम लोदी को हराकर विजय प्राप्त की थी और मुग़ल साम्राज्य की स्थापना की थी। उसकी विजय का मुख्य कारण उसका तोपखाना और कुशल सेना प्रतिनिधित्व था। भारत में तोप का सर्वप्रथम प्रयोग बाबर ने ही किया था। पानीपत के इस प्रथम युद्ध में बाबर ने उज्बेकों की ‘तुलगमा युद्ध पद्धति‘ तथा तोपों को सजाने के लिये ‘उस्मानी विधि‘ जिसे ‘रूमी विधि‘ भी कहा जाता है, का प्रयोग किया था। पानीपत के युद्ध में विजय की खुशी में बाबर ने काबुल के प्रत्येक निवासी को एक चाँदी का सिक्का दान में दिया था। अपनी इसी उदारता के कारण बाबर को ‘कलन्दर‘ भी कहा जाता था।
बाबर ने दिल्ली सल्तनत के पतन के पश्चात उनके शासकों (दिल्ली शासकों) को ‘सुल्तान‘ कहे जाने की परम्परा को तोड़कर अपने आपको ‘बादशाह‘ कहलवाना शुरू किया।
पानीपत के युद्ध के बाद बाबर का दूसरा महत्वपूर्ण युद्ध राणा सांगा के विरुद्ध 17 मार्च, 1527 ई० में आगरा से 40 किमी दूर खानवा नामक स्थान पर हुआ था। जिसमें विजय प्राप्त करने के पश्चात बाबर ने गाज़ी की उपाधि धारण की थी। इस युद्ध के लिये अपने सैनिकों का मनोबल बढ़ाने के लिये बाबर ने ‘जिहाद‘[2] का नारा दिया था। साथ ही मुसलमानों पर लगने वाले कर ‘तमगा‘ की समाप्ति की घोषणा की थी, यह एक प्रकार का व्यापारिक कर था। राजपूतों के विरुद्ध इस ‘खानवा के युद्ध‘ का प्रमुख कारण बाबर द्वारा भारत में ही रुकने का निश्चय था।
29 जनवरी, 1528 को बाबर ने चंदेरी के शासक मेदिनी राय पर आक्रमण कर उसे पराजित किया था। यह विजय बाबर को मालवा जितने में सहायक रही थी। इसके बाद बाबर ने 06 मई, 1529 में ‘घाघरा का युद्ध‘ लड़ा था। जिसमें बाबर ने बंगाल और बिहार की संयुक्त अफगान सेना को हराया था।
बाबर ने अपनी आत्मकथा ‘बाबरनामा‘ का निर्माण किया था, जिसे तुर्की में ‘तुजुके बाबरी‘ कहा जाता है। जिसे बाबर ने अपनी मातृभाषा चागताई तुर्की में लिखा है। इसमें बाबर ने तत्कालीन भारतीय दशा का विवरण दिया है। जिसका फारसी अनुवाद अब्दुर्रहीम खानखाना ने किया है और अंग्रेजी अनुवाद श्रीमती बेबरिज द्वारा किया गया है।
बाबर ने अपनी आत्मकथा ‘बाबरनामा’ में कृष्णदेव राय तत्कालीन विजयनगर के शासक को समकालीन भारत का शक्तिशाली राजा कहा है। साथ ही पांच मुस्लिम और दो हिन्दू राजाओं मेवाड़ और विजयनगर का ही जिक्र किया है।
बाबर ने ‘रिसाल-ए-उसज‘ की रचना की थी, जिसे ‘खत-ए-बाबरी‘ भी कहा जाता है। बाबर ने एक तुर्की काव्य संग्रह ‘दिवान‘ का संकलन भी करवाया था। बाबर ने ‘मुबइयान‘ नामक पद्य शैली का विकास भी किया था।
बाबर ने संभल और पानीपत में मस्जिद का निर्माण भी करवाया था। साथ ही बाबर के सेनापति मीर बाकी ने अयोध्या में मंदिरों के बीच 1528 से 1529 के मध्य एक बड़ी मस्जिद का निर्माण करवाया था, जिसे बाबरी मस्जिद[3] के नाम से जाना गया।
बाबर ने आगरा में एक बाग का निर्माण करवाया था, जिसे ‘नूर-ए-अफगान‘ कहा जाता था, जिसे वर्तमान में ‘आराम-बाग‘ के नाम से जाना जाता है। इसमें चारबाग शैली का प्रयोग किया गया है। यहीं पर 26 दिसम्बर, 1530 को बाबर की मृत्यु के बाद उसको दफनाया गया था। परन्तु कुछ समय बाद बाबर के शव को उसके द्वारा ही चुने गए स्थान काबुल में दफनाया गया था।
बाबर के चार पुत्र हिन्दाल, कामरान, अस्करी और हुमायूँ थे। जिनमें हुमायूँ सबसे बड़ा था फलस्वरूप बाबर की मृत्यु के पश्चात उसका सबसे बड़ा पुत्र हुमायूँ अगला मुग़ल शासक बना।
#खानाबदोश – मानवों का ऐसा समुदाय या समूह, जो एक ही स्थान पर रहने के बजाय, एक स्थान से दूसरे स्थान पर निरन्तर भ्रमणशील रहते हैं।
#जिहाद – इस्लाम की रक्षा के लिये किए जाने वाले धर्म युद्ध को जिहाद कहा जाता है।
#बाबरी_मस्जिद – यह एक विवादास्पद घटना है, जोकि वर्तमान में भी विवादों में है। इस घटना ने दो धर्मों के मध्य झगडे को पैदा किया। अयोध्या में राम मंदिर था या बाबरी मस्जिद इसको लेकर वर्तमान सुप्रीम कोर्ट में केस काई वर्षों तक चला है, जिसके बाद कोर्ट ने माना है कि वहां राम मंदिर स्थित था।
#आधुनिक_भारत_का_इतिहास :
#शिक्षा_का_विकास
शिक्षा एक ऐसा शक्तिशाली औजार है जो स्वतंत्रता के स्वर्णिम द्वार को खोलकर दुनिया को बदल सकने की क्षमता रखता है| ब्रिटिशों के आगमन और उनकी नीतियों व उपायों के कारण परंपरागत भारतीय शिक्षा प्रणाली की विरासत का पतन हो गया और अधीनस्थ वर्ग के निर्माण हेतु अंग्रेजियत से युक्त शिक्षा प्रणाली का आरम्भ किया गया|
प्रारंभ में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी शिक्षा प्रणाली के विकास के प्रति गंभीर नहीं थी क्योकि उनका प्राथमिक उद्देश्य व्यापार करना और लाभ कमाना था| भारत में शासन करने के लिए उन्होंने उच्च व मध्यम वर्ग के एक छोटे से हिस्से को शिक्षित करने की योजना बनायीं ताकि एक ऐसा वर्ग तैयार किया जाये जो रक्त और रंग से तो भारतीय हो लेकिन अपनी पसंद और व्यवहार के मामले में अंग्रेजों के समान हो और सरकार व जनता के बीच आपसी बातचीत को संभव बना सके| इसे ‘निस्पंदन सिद्धांत’ की संज्ञा दी गयी| शिक्षा के विकास हेतु ब्रिटिशों ने निम्नलिखित कदम उठाये-
#शिक्षा_और_1813_का_अधिनियम
• चार्ल्स ग्रांट और विलियम विल्बरफोर्स,जोकि मिशनरी कार्यकर्ता थे ,ने ब्रिटिशों पर अहस्तक्षेप की नीति को त्यागने और अंग्रेजी शिक्षा के प्रसार हेतु दबाव डाला ताकि पाश्चात्य साहित्य को पढ़ा जा सके और ईसाईयत का प्रचार हो सके| अतः ब्रिटिश संसद ने 1813 के अधिनियम में यह प्रावधान किया की ‘सपरिषद गवर्नर जनरल’ एक लाख रुपये शिक्षा के विकास हेतु खर्च कर सकते है और ईसाई मिशनरियों को भारत में अपने धर्म के प्रचार-प्रसार की अनुमति प्रदान कर दी|
• इस अधिनियम का इस दृष्टि से महत्व है कि यह पहली बार था जब ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारत में शिक्षा के विकास हेतु कदम उठाया |
• राजा राममोहन राय के प्रयासों से पाश्चात्य शिक्षा प्रदान करने के लिए ‘कलकत्ता कॉलेज’ की स्थापना की गयी | कलकत्ता में तीन संस्कृत कॉलेज भी खोले गए|
#जन_निर्देश_हेतु_सामान्य_समिति,1823
इस समिति का गठन भारत में शिक्षा के विकास की समीक्षा के लिए किया गया था| इस समिति में प्राच्यवादियों का बाहुल्य था,जोकि अंग्रेजी के बजाय प्राच्य शिक्षा के बहुत बड़े समर्थक थे |इन्होने ब्रिटिश सरकार पर पाश्चात्य शिक्षा के प्रोत्साहन हेतु दबाव डाला परिणामस्वरूप भारत में शिक्षा का प्रसार प्राच्यवाद और अंग्रेजी शिक्षा के भंवर में फंस गयी |अंततः मैकाले के प्रस्ताव के आने से ब्रिटिश शिक्षा प्रणाली का स्वरुप स्पष्ट हो सका|
#लॉर्ड_मैकाले_की_शिक्षा_प्रणाली,1835
• यह भारत में शिक्षा प्रणाली की स्थापना का एक प्रयास था जिसमें समाज के केवल उच्च वर्ग को अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा प्रदान करने की बात थी|
• फारसी की जगह अंग्रेजी को न्यायालयों की भाषा बना दिया गया |
• अंग्रेजी पुस्तकों की छपाई मुफ्त में होने लगी और उन्हें सस्ते दामों पर बेचा जाने लगा |
• प्राच्य शिक्षा की अपेक्षा अंग्रेजी शिक्षा को अधिक अनुदान मिलने लगा |
• 1849 में बेथुन ने ‘बेथुन स्कूल’ की स्थापना की |
• पूसा (बिहार) में कृषि संस्थान खोला गया |
• रुड़की में इंजीनियरिंग संस्थान खोला गया|
#वुड_डिस्पैच ,1854
• इसे ‘भारत में अंग्रेजी शिक्षा का मैग्नाकार्टा’ कहा जाता है क्योकि इसमें भारत में शिक्षा के प्रसार के लिए समन्वित योजना प्रस्तुत की गयी|
• इसमें जनता में शिक्षा के प्रसार की जिम्मेदारी राज्य को सौंपने की बात कही गयी|
• इसने शिक्षा के एक पदानुक्रम का प्रस्ताव दिया-सबसे निचले स्तर पर वर्नाकुलर प्राथमिक स्कूल, जिला स्तर पर वर्नाकुलर हाईस्कूल और सम्बद्ध कॉलेज ,और कलकत्ता, मद्रास व बम्बई प्रेसिडेंसी के सम्बद्ध विश्वविद्यालय |
• इसने उच्च शिक्षा हेतु अंग्रेजी माध्यम और स्कूल शिक्षा के लिए देशी भाषा (वर्नाकुलर) माध्यम की वकालत की|
#हंटर_आयोग(1882-83)
• इस आयोग का गठन डब्लू.डब्लू.हंटर की अध्यक्षता में 1854 के वुड डिस्पैच के तहत विकास की समीक्षा हेतु किया गया था|
• इसने प्राथमिक और सेकेंडरी शिक्षा में सुधार व प्रसार में सरकार की भूमिका को महत्व दिया |
• इसने शिक्षा के नियंत्रण की जिम्मेदारी जिला और म्युनिसिपल बोर्डों को देने की बात कही|
• इसने सेकेंडरी शिक्षा के दो रूपों में विभाजन किया –विश्विद्यालय तक साहित्यिक;वाणिज्यिक भविष्य हेतु रोजगारपरक शिक्षा |
#सैडलर_आयोग
• वैसे तो इस आयोग का गठन कलकत्ता विश्विद्यालय की समस्याओं की के अध्ययन हेतु किया गया था लेकिन इसके सुझाव अन्य विश्वविद्यालयों पर भी लागू होते थे|
• इसके सुझाव निम्नलिखित थे:
a. 12 वर्षीय स्कूल पाठ्यक्रम
b. 3 वर्षीय डिग्री पाठ्यक्रम(इंटरमीडिएट के बाद)
c. विश्वविद्यालयों की केंद्रीकृत कार्यप्रणाली,
d. प्रयोगात्मक वैज्ञानिक और तकनीकी शिक्षा हेतु सुविधाओं में वृद्धि,शिक्षक के प्रशिक्षण और महिला शिक्षा का सुझाव दिया|
#निष्कर्ष
अतःहम कह सकते है की ब्रिटिश शिक्षा प्रणाली ईसाई मिशनरियों की आकांक्षाओं से प्रभावित थी| इसका वास्तविक उद्देश्य कम खर्च पर अधीनस्थ प्रशासनिक पदों पर शिक्षित भारतीयों को नियुक्त करना और ब्रिटिश वाणिज्यिक हितों की पूर्ति करना था| इसीलिए उन्होंने शिक्षा के माध्यम के रूप में अंग्रेजी को महत्त्व दिया और ब्रिटिश प्रशासन व ब्रिटिशों की विजयगाथाओं को महिमामंडित किया |
#आधुनिक_भारत_का_इतिहास :
#राममोहन_रॉय_और_ब्रह्म_समाज
सामाजिक और धार्मिक जीवन के कुछ पहलुओं के सुधार से प्रारंभ होने वाला जागरण ने समय के साथ देश के सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक जीवन के सभी पहलुओं को प्रभावित किया।18वीं सदी के उत्तरार्ध में कुछ यूरोपीय और भारतीय विद्वानों ने प्राचीन भारतीय दर्शन,विज्ञान,धर्म और साहित्य का अध्ययन प्रारंभ किया। इस अध्ययन के द्वारा भारतीय अपने प्राचीन भारतीय ज्ञान से परिचित हुए,जिसने उनमें अपनी सभ्यता के प्रति गौरव का भाव जाग्रत किया।
इसने सुधारकों को उनके सामाजिक और धार्मिक सुधारों के कार्य में भी सहयोग प्रदान किया। उन्होंने सामाजिक रूढ़ियों, अंधविश्वासों और अमानवीय व्यवहारों व परम्पराओं के प्रति अपने संघर्ष में जनमत तैयार करने के लिए प्राचीन भारतीय ग्रंथों के ज्ञान का उपयोग किया। ऐसा करने के दौरान, उनमें से अधिकांश ने विश्वास और आस्था के स्थान पर तर्क का सहारा लिया। अतः भारतीय सामाजिक व धार्मिक सुधारकों ने अपने उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए एक तरफ अपने पाश्चात्य ज्ञान का प्रयोग किया तो दूसरी तरफ प्राचीन भारतीय विचारों को भी महत्व प्रदान किया।
#राजा_राममोहन_राय
राजा राममोहन राय का जन्म,संभवतः1772 ई. में,बंगाल के एक सम्पन्न परिवार में हुआ था। उन्होंने पारंपरिक संस्कृत शिक्षा बनारस में और पारसी व अरबी का ज्ञान पटना में प्राप्त किया। बाद में उन्होंने अंग्रेजी,ग्रीक और हिब्रू भाषा भी सीखी ।वे फ्रेंच और लैटिन भाषा के भी जानकार थे। उन्होंने न केवल हिन्दू बल्कि इस्लाम,ईसाई और यहूदी धर्म का भी गहन अध्ययन किया था। उन्होंने संस्कृत,बंगाली,हिंदी,पारसी और अंग्रेजी भाषा में अनेक पुस्तकें लिखी थी। उन्होंने एक बंगाली भाषा में और एक पारसी भाषा में अर्थात दो समाचार पत्र भी निकाले। मुग़ल शाशकों ने उन्हें ‘राजा’ की उपाधि प्रदान की और अपने दूत के रूप में इंग्लैंड भेजा।
वे 1831 ई. में इंग्लैंड पहुचे और वहीँ 1833 में उनकी मृत्यु हो गयी। वे भारत में अंग्रेजी शिक्षा के समर्थक थे और मानते थे कि नवजागरण के प्रसार और विज्ञान की शिक्षा के लिए अंग्रेजी का ज्ञान आवश्यक है। वे प्रेस की स्वतंत्रता के प्रबल पक्षधर थे और इसी कारण उन्होंने प्रेस पर लगे प्रतिबंधों को हटाने के लिए आन्दोलन भी चलाया।
राजा राममोहन राय का मानना था कि हिन्दू धर्म में प्रवेश कर चुकी बुराईयों को दूर करने के लिए और उसके शुध्दिकरण के लिए उस धर्म के मूल ग्रंथों के ज्ञान से लोगों को परिचित करना आवश्यक है। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए ही उन्होनें वेदों व उपनिषदों का बंगाली भाषा में अनुवाद कर प्रकाशित करने का कठिन कार्य किया।
वे एक ऐसे सार्वभौमिक धर्म के समर्थक थे जोकि एक परम-सत्ता के सिद्धांत पर आधारित था। उन्होनें मूर्ति-पूजा और अंधविश्वासों व पाखंडों का विरोध किया।
#ब्रह्म_समाज
धार्मिक सुधारों के क्षेत्र में उनका सबसे बड़ा योगदान उनके द्वारा 1928 ई. में ब्रहम समाज की स्थापना करना था जोकि धार्मिक सुधार आन्दोलन के तहत स्थापित प्रथम महत्वपूर्ण संगठन था। उन्होनें मूर्ति-पूजा और अतार्किक अंधविश्वासों व पाखंडों का विरोध किया। ब्रहम समाज के सदस्य किसी भी धर्म पर हमले के खिलाफ थे।
सामाजिक सुधारों के अंतर्गत ब्रहम समाज का सबसे बड़ा योगदान 1829 ई. में सती प्रथा का उन्मूलन था।उन्होंने देखा था कि कैसे उनके बड़े भाई की पत्नी को जबरदस्ती सती होने के लिए विवश किया गया था। उन्हें सती प्रथा का विरोध करने के कारण रूढ़िवादी हिन्दुओं का तीव्र विरोध भी झेलना पड़ा था। राममोहन राय के अनुसार सती प्रथा का प्रमुख कारण हिन्दू महिलाओं की अत्यधिक निम्न स्थिति थी। वे बहुविवाह के खिलाफ थे और महिलाओं को शिक्षित करने तथा उन्हें पैतृक संपत्ति प्राप्त करने के अधिकार प्रदान के पक्षधर थे।
ब्रहम समाज का प्रभाव बढता गया और देश के विभिन्न भागों में ब्रहम समाज शाखाएं खुल गयीं। ब्रहम समाज के दो महत्वपूर्ण नेता देवेन्द्रनाथ टैगोर और केशवचंद्र सेन थे। ब्रहम समाज के सन्देश को प्रसारित करने के लिए केशवचंद्र सेन ने मद्रास और बम्बई प्रेसिडेंसी की यात्राएँ की और बाद में उत्तर भारत में भी यात्राएँ कीं।
1866 ई. में ब्रहम समाज का विभाजन हो गया क्योकि केशवचंद्र सेन के विचार मूल ब्रहम समाज के विचारों की तुलना में अत्यधिक क्रांतिकारी व उग्र थे।वे जाति व रीति-रिवाजों के बंधन और धर्म-ग्रंथों के प्राधिकार से मुक्ति के पक्षधर थे । उन्होंने अंतर-जातीय विवाह और विधवा-पुनर्विवाह की वकालत की और ऐसे अनेक विवाह सम्पन्न भी करायें,पर्दा-प्रथा का विरोध किया और जाति-गत विभाजन की आलोचना की। उन्होंने जाति-गत कठोरता पर हमला किया,तथाकथित हिन्दू निम्न जातियों व अन्य धर्मों के व्यक्तियों के यहाँ भोजन करने लगे,खान-पान पर लगे प्रतिबंधों का विरोध किया,अपना संपूर्ण जीवन शिक्षा के प्रसार हेतु समर्पित कर दिया और समुद्री यात्राओं पर प्रतिबन्ध जैसे पुराने हिन्दू विचारों का विरोध किया।इस आन्दोलन ने देश के अन्य भागों में भी ऐसे ही अनेक सुधार-आन्दोलनों को प्रेरित किया ।लेकिन इस समूह का प्रभाव बढ़ता गया जबकि अन्य समूह,जोकि सामाजिक सुधारों के प्रति उनके उतने अधिक प्रतिबद्ध नहीं थे, का पतन हो गया।
#आधुनिक_भारत_का_इतिहास :
#थिओसोफिकल_समाज_एवं_एनी_वेसेंट
थिओसोफी’ सभी धर्मों में निहित आधारभूत ज्ञान है लेकिन यह प्रकट तभी होता है जब वे धर्म अपने-अपने अन्धविश्वासों से मुक्त हो| वास्तव में यह एक दर्शन है जो जीवन को बुद्धिमत्तापूर्वक प्रस्तुत करता है और हमें यह बताता है की ‘न्याय’ तथा ‘प्यार’ ही वे मूल्य है जो संपूर्ण विश्व को दिशा प्रदान करते है| इसकी शिक्षाएं,बिना किसी बाह्य परिघटना पर निर्भरता के, मानव के अन्दर छुपी हुई आध्यात्मिक प्रकृति को उद्घाटित करती हैं|
#थिओसोफी_क्या_है?
‘थिओसोफी’ एक ग्रीक शब्द है;जिसका शाब्दिक अर्थ है-“ईश्वरीय ज्ञान”|यह उन गूढ़ दर्शनों की ओर संकेत करता है और उनके बारे में प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त करना चाहता , जो अस्तित्व और प्रकृति के,विशेष रूप से ईश्वरीय/दैवीय प्रकृति के,पूर्व-अनुमानित रहस्यों से सम्बंधित हैं|सार रूप में यह उस छुपे हुए ज्ञान की ओर संकेत करता है जो व्यक्ति को प्रबोधन और मोक्ष की ओर ले जाता है|थिओसोफर ब्रह्माण्ड के उन रहस्यों और संबंधों को जानने की कोशिश करता है जो ब्रह्माण्ड, ईश्वर व मानवीयता को जोड़े रखते हैं| अतः ‘थिओसोफी’ का उद्देश्य ईश्वरत्व ,मानवीयता तथा ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति का अन्वेषण करना है|इन विषयों के अनुसन्धान के माध्यम से,थिओसोफर ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति एवं उसके उद्देश्य की संगत व्याख्या करना चाहता है|
‘थिओसोफिकल सोसाइटी’ की स्थापना मैडम ब्लावात्सकी और कर्नल अल्कॉट द्वारा 1875 ई में न्यूयॉर्क में की गयी थी ,लेकिन भारतीय समाज एवं संस्कृति में इस दर्शन की जड़ें 1879 ई में ही पनपनी शुरू हुईं |भारत में इसकी शाखा मद्रास प्रेसीडेंसी में स्थापित हुई जिसका मुख्यालय अड्यार में था| भारत में इस आन्दोलन का प्रचार-प्रसार एनी बेसेंट द्वारा किया गया था|थिओसोफी निम्नलिखित तीन सिद्धांतो पर आधारित थी:
1.विश्ववंधुत्व की भावना
2.धर्मं एवं दर्शन का तुलनात्मक अध्ययन
3.अव्याख्यायित रहस्यमयी नियमों को समझने के लिए प्राकृतिक नियमों का अनुसन्धान
‘थिओसोफिस्त’ सभी धर्मों का समान रूप से आदर करते थे|वे धर्मान्तरण के खिलाफ थे और अंतःकरण की शुध्दता तथा पंथ रहस्यवाद में विश्वास रखते थे|थिओसोफिकल सोसाइटी भारत में हिन्दू धर्म के पुनरुत्थान का अभिन्न अंग थी,जिसने कुछ सीमा तक सामाजिक सौहार्द्र की भी स्थापना की|एनी बेसेंट के अनुसार “हिन्दू धर्मं के बिना भारत का कोई भविष्य नहीं है|हिन्दू धर्म वह जमीन है जिस पर भारत की जड़ें जमी हुई है और उससे अलग होने पर भारत वैसा ही हो जायेगा जैसे किसी पेड़ को उसके स्थान से उखाड़ दिया जाये|”
‘थिओसोफिस्तों’ ने जाति एवं अछूत व्यवस्था के उन्मूलन का भी प्रयास किया तथा आत्मसात्वीकरण के दर्शन में विश्वास प्रकट किया| उन्होंने हाशिये के समाज को सामाजिक स्वीकार्यता दिलाने के लिये सच्चे मन से कार्य किया|वे सामाजिक रूप से अस्वीकार्य वर्गों को शिक्षित कर उनकी परिस्थितियों में सुधार लाना चाहते थे|इसीलिए एनी बेसेंट ने अनेक शिक्षा समितियां स्थापित कीं और आधुनिक शिक्षा की पुरजोर वकालत की| शिक्षा,दर्शन एवं राजनीति उन कुछ विषयों में शामिल थे जिन पर ‘थिओसोफिकल सोसाइटी’ ने कार्य किया|
#एनी_बेसेंट_का_परिचय:
एनी बेसेंट 1889 ई में ‘थिओसोफिकल सोसाइटी’ में शामिल हुई|वे वेदों एवं उपनिषदों की शिक्षाओं में गहरा विश्वास रखती थीं और भारत को मुक्ति एवं प्रबोधन की भूमि मानती थी|बाद में उन्होंने इसे ही अपना राष्ट्र और स्थायी घर बना लिया |उन्होंने उस समय के भारतीय समाज में व्याप्त बाल-विवाह,अछूत-व्यवस्था और विधवा-पुनर्विवाह की मनाही जैसी बुराइयों के खिलाफ आवाज उठायी|शिक्षा को सभी तक पहुचाने के लिए उन्होंने ‘बनारस सेंट्रल स्कूल’ शुरू किया जो बाद में ‘बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय’ के रूप में परिवर्तित हो गया|दक्षिण भारत में भी उनके प्रयासों से अनेक स्कूलों व महाविद्यालयों की स्थापना की गयी|
एनी बेसेंट ने ‘आयरिश लीग आन्दोलन’ की तर्ज पर भारत में 1916 ई| में ‘होम-रूल लीग’ की स्थापना की| एनी बेसेंट एक प्रसिद्ध एवं प्रभावशाली लेखक भी थीं|थिओसोफिकल सोसाइटी के दृष्टिकोण को प्रसारित करने के लिए “द न्यू इंडिया” एवं “कॉमन वील” नाम के दो पत्रों का प्रकाशन भी उनके द्वारा किया गया|हालांकि थिओसोफिकल आन्दोलन का प्रभाव सामान्य-जन की तुलना में बौद्धिक वर्ग पर अधिक पड़ा, फिर भी उसने उन्नीसवीं सदी में अपनी एक पहचान बनायीं|
#थिओसोफिकल_सोसाइटी_के_मुख्य_बिंदु
I. ‘थिओसोफिकल सोसाइटी’ के अनुसार चिंतन-मनन, प्रार्थना एवं श्रवण के माध्यम से ईश्वर एवं व्यक्ति के अंतःकरण के मध्य एक विशिष्ट सम्बन्ध की स्थापना की जा सकती है|
II. ‘थिओसोफिकल सोसाइटी’ ने पुनर्जन्म एवं कर्म जैसी हिन्दू मान्यताओं को स्वीकार किया और उपनिषद, सांख्य,योग एवं वेदांत दर्शनों से प्रेरणा ग्रहण की|
III. इसने प्रजाति,जाति,रंग एवं लालच जैसे भेदों से ऊपर उठकर विश्वबंधुत्व का आह्वाहन किया|
IV. सोसाइटी प्रकृति के अव्याख्यायित नियमों और मानव के अन्दर छुपी हुई शक्ति की खोज करना चाहती थी|
V. इस आन्दोलन ने पाश्चात्य प्रबोधन के माध्यम से हिन्दू आध्यात्मिक ज्ञान की खोज करनी चाही |
VI. इस सोसाइटी ने हिन्दुओं के प्राचीन सिद्धांतों तथा दर्शनों का नवीनीकरण किया और उनसे सम्बंधित विश्वासों को मजबूती प्रदान की|
VII. आर्य दर्शन व धर्मं का अध्ययन तथा प्रचार किया |
VIII. इस सोसाइटी का मानना था कि उपनिषद परमसत्ता,ब्रह्माण्ड व जीवन के सत्य का उद्घाटन करते है|
IX. इसका दर्शन इतना सार्वभौम था कि धर्म के सभी रूपों तथा उपासना के सभी प्रकारों की प्रशंसा करता था |
X. सोसाइटी ने आध्यात्मिक एवं दार्शनिक विमर्शों के अतिरिक्त अपनी अनुसन्धान तथा साहित्यिक गतिविधियों द्वारा हिन्दुओं के जागरण में महत्वपूर्ण योगदान दिया|
XI. इसने हिन्दू धर्म-ग्रंथों का प्रकाशन एवं अनुवाद भी किया |
XII. सोसाइटी ने सुधारों को प्रेरित किया और उन पर कार्य करने के लिए शिक्षा-नीतियाँ तैयार कीं|
#आधुनिक_भारत_का_इतिहास :
#ब्रिटिश_शासन_में_सामाजिक_अधिनियम
19वीं सदी की शुरुआत में ब्रिटिशों की नीतियों ने हालाँकि तत्कालीन सामाजिक समाज में व्याप्त बुराइयों के उन्मूलन में सहयोग दिया लेकिन धीरे-धीरे भारत की सामाजिक-धार्मिक बुनावट को कमजोर करने का कार्य भी किया क्योकि वे मुख्यतः अंग्रेजी सोच व समझ पर आधारित थीं|
प्राच्यवाद के व्याख्याताओं ने कहा कि भारतीय समाज को आधुनिकीकरण और पश्चिमीकरण की आवश्यकता है|उन्हें अनेक विचारधाराओं की तीव्र आलोचना का सामना करना पड़ा|विलियम विल्बरफोर्स व चार्ल्स ग्रांट जैसे व्यक्तियों के अनुसार ‘भारतीय समाज अंधविश्वासों,मूर्ति पूजा व पुजारियों की तानाशाही से भरा पड़ा है|’
उन्होंने भारत का आधुनिकीकरण ईसाई मिशनरियों के माध्यम से करना चाहा | ब्रिटिशों ने भारत के सामाजिक व्यवहारों में अनेक परिवर्तन किये| ब्रिटिशों ने महिलाओं की स्थिति को सुधारने और अनेक सामाजिक बुराइयों को समाप्त करने के लिए निम्नलिखित कदम उठाये-
#बालिका_भ्रूण_हत्या:यह प्रथा उच्च वर्ग के बंगालियों व राजपूतों, जोकि महिलाओं को आर्थिक बोझ मानते थे, में बहुत प्रचलित थी| अतः भारतीय समाज की सोच में सुधार लाने के क्रम में 1795 व 1804 के बंगाल रेगुलेशन एक्ट ने बालिका शिशु की हत्या को अवैध घोषित किया और 1870 में बालिका शिशु हत्या पर प्रतिबन्ध लगाने के लिए एक अधिनियम भी पारित किया गया था| इस अधिनियम के द्वारा माता-पिता द्वारा सभी बच्चों के जन्म का पंजीकरण कराना अनिवार्य बना दिया गया और बालिका शिशु के सन्दर्भ में जन्म के बाद के कुछ वर्षों तक भी निगरानी रखने की व्यवस्था थी| इसे वैसे क्षेत्रों में विशेष रूप से लागू किया गया जहाँ यह प्रथा अधिक प्रचलन में थी|
#सती_प्रथा_की_समाप्ति: यह राजा राममोहन राय के प्रयासों से प्रभावित था| ब्रिटिश सरकार ने सती प्रथा या विधवा स्त्री को जिन्दा जलाने की प्रथा को समाप्त करने का निर्णय लिया और इसे आपराधिक हत्या घोषित कर दिया|1829 का सती प्रथा उन्मूलन कानून पहले बंगाल तक सीमित था लेकिन 1830 में उसे कुछ संसोधनों के साथ मद्रास व बम्बई प्रेसिडेसियों में भी लागू कर दिया गया|
#दास_प्रथा_का_उन्मूलन: यह एक अन्य कुप्रथा थी जो ब्रिटिशों की नजर में आई और उन्होंने 1833 के चार्टर अधिनियम द्वारा भारत में दास प्रथा को समाप्त कर दिया तथा 1843 के पांचवे एक्ट द्वारा इस प्रथा को क़ानूनी रूप से समाप्त कर दिया गया और गैर-क़ानूनी घोषित किया गया|
#विधवा_पुनर्विवाह: ब्रहम समाज ने इसे सर्वाधिक महत्व प्रदान किया और लोगों का ध्यान इस ओर आकर्षित किया| विधवा पुनर्विवाह को प्रोत्साहित करने के लिए अनेक महिला कॉलेज,विश्वविद्यालय ,संगठनों की स्थापना की गयी और वैदिक युग से विधवा पुनर्विवाह के पक्ष में प्रमाण जुटाए गए |
#बाल_विवाह_पर_रोक: 1872 का नेटिव मैरिज एक्ट (सिविल मैरिज एक्ट) इसे रोकने के उद्देश्य से ही लाया गया था लेकिन वह अधिक प्रभावी नहीं रहा क्योकि वह हिन्दू,मुस्लिम व अन्य कई धर्मों पर लागू नहीं होता था|1891 ई. में बी.एम.मालाबारी के प्रयासों से एज ऑफ़ कंसेंट एक्ट पारित किया गया और 12 वर्षा से कम उम्र की लड़की के विवाह पर रोक लगा दी गयी| अंततः स्वतंत्रता के बाद बाल विवाह निरोध (संशोधन) अधिनियम द्वारा इसमें बदलाव किया गया और विवाह की आयु लड़की के लिए 18 वर्ष व लड़के के लिए 21 वर्ष निर्धारित की गयी|
[5/27, 11:47 AM] Raj Kumar: #मध्यकालीन_भारत_का_इतिहास
#हुमायूँ_1530_1556_ई०
बाबर की मृत्यु के बाद मुग़ल साम्राज्य की गद्दी पर बाबर का बड़ा बेटा हुमायूँ बैठा। 30 वर्ष की आयु में आगरा में हुमायूँ को मुग़ल सल्तनत का ताज पहनाया गया था। हुमायूँ को नासिर-उद-दीन मुहम्मद के नाम से भी जाना जाता था। हुमायूँ ने अपने मुग़ल साम्रज्य को अपने तीन भाइयों (कामरान, अस्करी और हिन्दाल) के बीच बाँटा था, जिसे इतिहासकार हुमायूँ की बड़ी भूल मानते हैं।
हुमायूँ ने सर्वप्रथम 1531 ई० में कालिंजर पर आक्रमण किया। जहाँ का शासक रुद्रदेव था। हुमायूँ ने उसे हराकर दुर्ग पर कब्ज़ा कर लिया पर रुद्रदेव से संधि कर दुर्ग पर बिना अपना अधिकार किये वहां से अपनी सेना को हटा दिया। इतिहासकारों ने इसे हुमायूं की दूसरी बड़ी भूल माना है।
बाबर के समय से ही मुगल सल्तनत के सबसे बड़े शत्रु अफगान थे। इसलिए हुमायूँ ने 1532 ई० में शेर खाँ पर हमला कर दिया यह युद्ध दोहरिया नामक स्थल पर हुआ था। इस युद्ध में अफगानों की तरफ से नेतृत्व महमूद लोदी ने किया था। इसे युद्ध में अफगानों को पराजय का सामना करना पड़ा। और हुमायूँ ने चुनार के किले पर धावा बोल उसे अपने कब्जे में ले लिया, जो उस समय अफगानी मूल के शासक शेर खाँ का किला था, शेर खां को शेरशाह सूरी के नाम से भी जाना जाता है। परन्तु शेर खाँ के आत्मसमर्पण कर देने और हुमायूँ की अधीनता स्वीकार कर लेने के कारण हुमायूँ ने उसका किला उसीको वापिस कर दिया। फल स्वरूप शेर खाँ ने अपने पुत्र क़ुतुब खाँ के साथ एक अफगान टुकड़ी हुमायूँ की सेवा में भेज दी।
इसी बीच चित्तोड़ की रानी और राजमाता कर्णवती (कर्मवती) ने हुमायूँ को राखी भेज गुजरात के शासक बहादुरशाह से बचाव की गुहार लगायी। बहादुरशाह एक महत्वकांक्षी शासक था वो पहले ही मालवा (1531), रायसीन (1532) और सिसोदिया वंश के शासक को पराजित कर चित्तोड़ पर अपना अधिपत्य जमा चुका था। बहादुरशाह की बढ़ती शक्ति देख हुमायूँ पहले से ही परेशान था। अतः 1535 ई० में हुमायूँ और बहादुरशाह के बीच मंदसौर में युद्ध हुआ, जिसमें हुमायूँ ने बहादुरशाह को पराजित कर दिया पर हुमायूँ की ये जीत ज्यादा दिन न रह सकी, शीघ्र ही बहादुरशाह ने पुर्तगालियों की सहायता से पुनः गुजरात और मालवा पर फिर से अपना कब्ज़ा कर लिया।
वहीं दूसरी तरफ शेर खाँ की शक्ति बढ़ने लगी थी, इसलिए हुमायूँ ने दूसरी बार 1538 ई० में चुनारगढ़ के किले पर आक्रमण कर दिया, पर 6 महीने तक किले को घेरे रखने के बाद भी हुमायूँ सफल न हो सका। अंततः गुजरात के शासक बहादुरशाह की सेना में तोपची रहे रूमी खाँ, जोकि मंदसौर युद्ध के बाद हुमायूँ के साथ हो गया था, रूमी खाँ के कूटनीतिक प्रयास के कारण हुमायूँ किले पर कब्ज़ा करने में कामयाब रहा।
इसके बाद 1538 ई० में हुमायूँ ने बंगाल पर आक्रमण कर वहां पर मुग़ल साम्राज्य का आधिपत्य जमा लिया। परन्तु वहां से वापस आते समय 26 जून, 1539 को हुमायूँ और शेर खाँ (शेरशाह सूरी) के बीच कर्मनाशा नदी के नजदीक चौसा नामक स्थान पर ‘चौसा का युद्ध‘ लड़ा गया, इस युद्ध में हुमायूँ बुरी तरह पराजित हुआ। इस जीत से खुश होकर शेर खाँ ने अल-सुल्तान-आदिल या शेरशाह की उपाधि धारण की और अपने नाम के सिक्के जारी किये और खुतबा (प्रशंसा का भाषण) भी पढ़वाया।
इसके बाद 17 मई, 1540 को फिर से हुमायूँ और शेर खाँ के बीच कन्नौज में एक और युद्ध लड़ा गया जिसमें शेर खाँ की जीत हुई और एक बार फिर दिल्ली पर अफगानों का शासन फिर से स्थापित हुआ, जहाँ पर मुग़ल साम्राज्य से पहले अफगानों की दिल्ली सल्तनत का राज था।
कन्नौज के युद्ध में हारकर हुमायूँ कुछ समय आगरा, लाहौर, सिंध में व्यतीत करते हुए ईरान जा पहुंचा और 1540 से 1555 तक लगभग 15 वर्षों तक घुमक्कड़ों की तरह जीवन यापन किया। परन्तु अपने देश निकाला से पहले हुमायूँ ने अपने भाई हिन्दाल के आध्यात्मिक गुरु ‘शियमीर‘ की पुत्री हमीदा बेगम से 29 अगस्त, 1541 ई. में निकाह किया और हमीदा ने कुछ समय पश्चात एक पुत्र को जन्म दिया जिसे अकबर के नाम से जाना गया जो आगे चलकर मुग़ल साम्राज्य का सबसे महान शासक बना।
1544 ई० में हुमायूँ ने ईरान के शाह तहमस्प के यहाँ शरण लेकर रहने लगा और युद्ध की तैयारी करने लगा। हुमायूँ ने अपने भाई कामरान से काबुल और कन्धार को छीन लिया और 15 वर्ष निर्वासन में रहने के बाद, हुमायूँ ने अपने विश्वसनीय सेनापति बैरम खाँ की मदद से 15 मई को मच्छीवाड़ा और 22 जून, 1555 को सरहिन्द के युद्ध में शेर खाँ (शेर शाह सूरी) के वंशज सिकंदर शाह सूरी को पराजित कर फिर एक बार दिल्ली पर अपना आधिपत्य कर लिया और मुग़ल साम्राज्य को आगे बढ़ाया।
परन्तु दूसरी बार हुमायूँ तख्त और राजपाठ का सुख ज्यादा दिन न भोग सका 27 जनवरी, 1556 को दिल्ली के किले दीनपनाह के शेरमंडल नामक पुस्तकालय की सीढ़ी से गिरकर हुमायूँ की मृत्यु हो गयी। हुमायूँ को दिल्ली में ही दफनाया गया। दिल्ली में यमुना नदी के किनारे 1535 ई० में हुमायूँ ने ही ‘दीन-पनाह‘ नामक नये शहर की स्थापना की थी। हुमायूँ की मृत्यु के पश्चात उसका पुत्र अकबर मुग़ल साम्राज्य के राज सिहांसन पर बैठा।
इतिहासकार लेनपूल ने हुमायूँ के बारे में टिपण्णी करते हुए कहा है कि “हुमायूँ गिरते-पड़ते ही इस जीवन से मुक्त हो गया, उसी तरह जैसे वह ताउम्र गिरते-पड़ते जिंदगी में चलता रहा।“
#मध्यकालीन_भारत_का_इतिहास :
#लोदी_वंश
सैयद वंश का अंत कर बहलोल लोदी ने 1451 ई. में लोदी वंश की दिल्ली सल्तनत में स्थापना की थी। यह वंश 1526 ई. तक सत्ता में रहा और सफलतापूर्वक शासन किया। यह राजवंश दिल्ली सल्तनत का अंतिम सत्तारूढ़ परिवार था, जो अफगान मूल से था।
#लोदी_वंश_के_शासक :-
▪️बहलोल लोदी (1451 – 1489 ई.)
▪️सिकंदर लोदी (1489 – 1517 ई.)
▪️इब्राहिम लोदी (1517 – 1526 ई.)
#बहलोल_लोदी (1451 – 1489 ई.)
बहलोल लोदी ने 1451 ई. में लोदी राजवंश की स्थापना की और 1489 ई. तक दिल्ली सल्तनत पर शासन किया। सैयद वंश के अंतिम शासक आलम शाह ने बहलोल लोदी के पक्ष में दिल्ली सल्तनत के सिंहासन पर स्वेच्छा से त्याग दिया था। बहलोल लोदी अफगान मूल का था। वह एक पश्तून परिवार में पैदा हुआ था। बहलोल लोदी, सय्यद वंश के मुहम्मद शाह के शासनकाल के दौरान, सरहिंद का राज्यपाल था, जो वर्तमान पंजाब के फतेहगढ़ साहिब में स्थित है। बहलोल लोदी ने दिल्ली सल्तनत में बैठने के बाद “बहलोल शाह्गाजी” की उपाधि ली। उसने सरहिन्द के एक हिंदू सुनार की बेटी से शादी की।
🔹मृत्यु
▪️बहलोल लोदी की 1489 ई. में मृत्यु हो गई। उनकी मृत्यु के बाद, उसका पुत्र सिकन्दर लोदी दिल्ली सल्तनत के सिंहासन पर बैठा।
#सिकंदर_लोदी (1489 – 1517 ई.)
1489 ई. में बहलोल लोदी के मृत्यु के बाद सिकंदर लोदी दिल्ली सल्तनत का उत्तराधिकारी हो गए और लोदी राजवंश के दूसरे शासक बना। उसके बचपन का नाम निजाम खान था, लेकिन सत्ता सम्भालने के बाद उसने अपना नाम “सुल्तान सिकन्दर शाह” रख दिया जो बाद में सिकन्दर लोदी के नाम से प्रसिद्ध हुआ। उन्होंने 1489 ई. से 1517 ई. तक दिल्ली सल्तनत पर शासन किया। सिकंदर लोदी, बहलोल लोदी का दूसरा पुत्र था और बारबक शाह, बहलोल लोदी का सबसे बड़ा पुत्र था, जो जौनपुर का वायसराय था।
🔹सिकंदर लोदी के प्रमुख कार्य
▪️उसने बंगाल, बिहार, चंदैरी, अवध व बुदेलखंड के राजाओ पर नियंत्रण करके दिल्ली सल्तनत को दोबारा स्थापित करने का प्रयास किया।
▪️भूमि मापन के लिए प्रमाणिक पैमाना गजे सिकन्दरी का प्रचलन किया।
▪️उसने 1503 ई. मे आगरा शहर बसाया और 1506 ई. मे अपनी राजधानी दिल्ली से आगरा ले आया।
▪️उसने नगरकोट के ज्वालामुखी मन्दिर की मूर्ति को तोडकर उसके टुकडो को कसाइयो को माँस तोलने के लिए दे दिया था और हिंदूओ पर जज़िया लगाया।
▪️मुसलमानों के ताजीया निकालने एवं मुसलमान स्त्रियों के पीरो एवं संतो के मजार पर जाने पर प्रतिबन्ध लगा दिया।
▪️उसने ग्वालियर के किले पर पांच बार आक्रमण किया लेकिन राजा मानसिंह ने हर बार उसे हरा दिया।
🔹मृत्यु
▪️सिकंदर लोदो की मृत्यु 1517 ई. में गले के बीमारी की वजह से हुई उसके बाद उसका बेटा इब्राहिम लोदी राजा बना।
#इब्राहिम_लोदी (1517 – 1526 ई.)
इब्राहिम लोदी, सिकंदर लोदी का सबसे छोटा बेटा था। सिकंदर लोदी की मृत्यु के बाद इब्राहिम लोदी 1517 ई. में राजगद्दी पर बैठा और 1526 ई. तक दिल्ली सल्तनत पर शासन किया। वह लोदी राजवंश के अंतिम राजा और दिल्ली सल्तनत का अंतिम सुल्तान था।
🔹शासन काल में कार्य
▪️वह एक साहसी राजा था उसके शासनकाल में बहुत से विद्रोह हुए।
▪️जौनपुर और अवध मे विद्रोह का नेतृत्व दरिया खान ने किया ।
▪️दौलत खान ने पंजाब में विद्रोह किया।
▪️खतौली की लड़ाई 1518 ई. में राणा सांगा के हाथों पराजित होना पड़ा।
▪️उसके ज़मींदार व चाचा आलम खान काबुल भाग गया और बाबर को भारत पर हमला करने का न्यौता दिया।
▪️पानीपत का प्रथम युद्ध 21 अप्रैल 1526 को बाबर और इब्राहिम लोदी के मध्य हुआ और इसमें लोदी की हार हुई।
🔹मृत्यु
▪️बाबर ने पानीपत के प्रथम युद्ध में 21 अप्रैल 1526 को पराजित कर इसे मार डाला और आगरा तथा दिल्ली की गद्दी पर अधिकार कर लिया।
1526 में पानीपत की लड़ाई के बाद बाबर ने मुगल वंश की नींव रखी जिसने लगभग 500 साल तक भारत पर राज किया। इस तरह दिल्ली सल्तनत का अंत हुआ ।
#आधुनिक_भारत_का_इतिहास :
#मुस्लिम_सुधार_आन्दोलन
19 वीं सदी के आरम्भ में मुस्लिम उद्बोधन के चिन्ह उत्तर प्रदेश में बरेली के सर सैय्यद अहमद खां और बंगाल के शरीयतुल्ला के नेतृत्व में उभरकर सामने आये|ऐसा ईसाई मिशनरियों,पश्चिमी विचारों के प्रभाव और आधुनिक शिक्षा के कारण संभव हो सका| उन्होंने स्वयं को इस्लाम के शुद्धिकरण व उसे मजबूत बनाने और इस्लामिक शिक्षाओं के प्रोत्साहन के लिए समर्पित कर दिया था|