Some History of India
#आधुनिक_भारत_का_इतिहास :
#डच_उपनिवेश_की_स्थापना
हॉलैंड (वर्त्तमान नीदरलैंड) के निवासी डच कहलाते है। पुर्तगालियो के बाद डचों ने भारत में अपने कदम रखे। ऐतिहासिक दृष्टि से डच समुद्री व्यापार में निपुण थे। 1602 ईमें नीदरलैंड की यूनाइटेड ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना की गयी और डच सरकार द्वारा उसे भारत सहित ईस्ट इंडिया के साथ व्यापार करने की अनुमति प्रदान की गयी।
#डचों_का_उत्थान
1605 ई में डचों ने आंध्र प्रदेश के मुसलीपत्तनम में अपनी पहली फैक्ट्री स्थापित की। बाद में उन्होंने भारत के अन्य भागों में भी अपने व्यापारिक केंद्र स्थापित किये। डच सूरत और डच बंगाल की स्थापना क्रमशः 1616 और 1627 में की गयी थी। डचों ने 1656 ई में पुर्तगालियों से सीलोन जीत लिया और 1671 ई में पुर्तगालियों के मालाबार तट पर स्थित किलों पर भी कब्ज़ा कर लिया। पुर्तगालियों से नागापट्टिनम जीतने के बाद डच काफी सक्षम गए और दक्षिण भारत में अपने पैर जमा लिए। उन्होंने काली मिर्च और मसालों के व्यापार पर एकाधिकार स्थापित कर आर्थिक दृष्टि से अत्यधिक लाभ कमाया। कपास, अफीम, नील, रेशम और चावल वे प्रमुख भारतीय वस्तुएं है जिनका व्यापार डचों द्वारा किया जाता था।
#डच_सिक्के
डचों ने भारत में रहने के दौरान सिक्कों की ढलाई पर भी हाथ आजमाए। जैसे जैसे उनके व्यापार में वृद्धि होती गयी उन्होंने कोचीन, मूसलीपत्तनम, नागापट्टिनम , पोंडिचेरी और पुलीकट में टकसालों की स्थापना की। पुलीकट स्थित टकसाल से भगवान वेंकटेश्वर (भगवान विष्णु) के चित्र वाले सोने के पैगोडा सिक्के जारी किये गए। डचों द्वारा जारी किये गए सभी सिक्के स्थानीय सिक्का ढलाई के नमूनों पर आधारित थे।
#डच_शक्ति_का_पतन
भारतीय उप-महाद्वीप पर डचों की उपस्थिति 1605 ई से लेकर 1825 ई तक रही थी। पूर्व के साथ व्यापार में ब्रिटिश शक्ति के उदय ने डचों के व्यापारिक हितों के प्रति एक चुनौती प्रस्तुत की जिसके परिणामस्वरूप दोनों के मध्य खूनी संघर्ष हुए। इन संघर्षों में स्पष्ट रूप से ब्रिटिशों की विजय हुई क्योकि उनके पास अधिक संसाधन थे। अम्बोयना में डचों द्वारा कुछ ब्रिटिश व्यापारियों की नृशंस हत्या ने परिस्थितियों को और बिगाड़ दिया। ब्रिटिशों द्वारा एक के बाद एक लगभग सभी डच क्षेत्रों को अपने कब्जे में ले लिया गया।
#मालाबार_क्षेत्र_में_डच_शक्ति_की_घोर_पराजय
डच-अंग्रेज संघर्ष के मध्य त्रावणकोर के राजा मार्तंड वर्मा द्वारा 1741 ई में कोलाचेल के युद्ध में डच ईस्ट इंडिया कंपनी को पराजित करने के साथ ही मालाबार क्षेत्र में डच शक्ति का पूर्णतः पतन हो गया।
#ब्रिटिशों_के_साथ_संधियाँ_और_संघर्ष
हालाँकि 1814 ई की एंग्लो-डच संधि के तहत डच कोरोमंडल और डच बंगाल पुनः डच शासन के अधीन आ गए थे लेकिन 1824 ई में हस्ताक्षरित एंग्लो-डच संधि के प्रावधानों के तहत फिर से ब्रिटिश शासन के अधीन आ गए क्योकि इस संधि के तहत डचों के लिये 1 मार्च 1825 ई तक सारी संपत्ति और क्षेत्रों को हस्तांतरित करना बाध्यकारी बना दिया गया। 1825 ई के मध्य तक डच भारत में अपने सभी व्यापारिक क्षेत्रों से वंचित हो चुके थे। एक समझौते के तहत ब्रिटिशों ने आपसी अदला-बदली के तरीके के आधार पर खुद को इंडोनेशिया के साथ व्यापार से अलग कर लिया और बदले में डचों ने भारत के साथ अपना व्यापार बंद कर दिया।
#भारत_में_डेनिश_औपनिवेशिक_क्षेत्र
डेनमार्क से सम्बंधित किसी भी व्यक्ति या वस्तु को डेनिश कहा जाता है। डेनमार्क द्वारा लगभग 225 वर्षों तक भारत में अपने उपनिवेश बनाये रखे गए। भारत में स्थापित डेनिश बस्तियों मे त्रंकोबार (तमिलनाडु) ,सेरामपुर (पश्चिम बंगाल) और निकोबार द्वीप शामिल थे।
#डेनिश_व्यापारिक_एकाधिकार_की_स्थापना
एक डच साहसी मर्सलिस दे बोशौवेर ने भारतीय उप-महाद्वीप में डेनिश हस्तक्षेप के लिए प्रेरणा प्रदान की। वह सहयोगी दलों से सभी तरह के व्यापार पर एकाधिकार के वादे के साथ पुर्तगालियों के विरुद्ध सैन्य सहयोग चाहता था। उसकी अपील ने डेनमार्क-नॉर्वे के राजा क्रिस्चियन चतुर्थ को प्रभावित किया जिसने बाद में 1616 ई में एक चार्टर जारी किया जिसके तहत डेनिश ईस्ट इंडिया कंपनी को डेनमार्क और एशिया के मध्य होने वाले व्यापार पर बारह वर्षों के लिए एकाधिकार प्रदान कर दिया गया।
#डेनिश_चार्टर्ड_कंपनियां
दो डेनिश चार्टर्ड कंपनियां थी। प्रथम कंपनी डेनिश ईस्ट इंडिया कंपनी थी ,जिसका कार्यकाल 1616 ई से लेकर 1650 ई तक था। डेनिश ईस्ट इंडिया कंपनी और स्वीडिश ईस्ट इंडिया कंपनी मिलकर ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी से ज्यादा चाय का आयात करती थीं और उसमे से अधिकांश को अत्यधिक लाभ पर अवैध तरीके से ब्रिटेन में बेचता था। इस कंपनी का 1650 ई में विलय कर दिया गया। दूसरी कंपनी 1670 ई से लेकर 1729 ई तक सक्रिय रही । 1730 ई में एशियाटिक कंपनी के रूप में इसकी पुनः स्थापना की गयी। 1732 ई में इसे शाही लाइसेंस प्रदान कर अगले चालीस वर्षों के लिए आशा अंतरीप के पूर्व से होने वाले डेनिश व्यापार पर एकाधिकार प्रदान कर दिया गया। 1750 ई तक भारत से 27 जहाज भेजे गए जिनमे से 22 जहाज सफलतापूर्वक यात्रा पूरी कर कोपेनहेगेन पहुचे। लेकिन 1722 ई में कंपनी ने अपना एकाधिकार खो दिया।
#सेरामपुर_मिशन_प्रेस
यहाँ यह उल्लेख करना जरुरी है कि सेरामपुर मिशन प्रेस की स्थापना ,जोकि एक ऐतिहासिक एवं युगांतरकारी कदम था, सेरामपुर में डेनिश मिशनरी द्वारा 1799 ई में की गयी थी। 1801 ई से लेकर 1832 ई तक सेरामपुर मिशन प्रेस ने 40 विभिन्न भाषाओं में किताबों की 212,000 प्रतियाँ छापीं।
#भारत_में_डेनिश_बस्तियों_की_समाप्ति
नेपोलियन युद्ध (1803-1815 ई।) के दौरान ब्रिटिशों ने डेनिश जहाजों पर हमला कर डेनिश ईस्ट इंडिया कंपनी के भारत के साथ होने वाले व्यापर को नष्ट कर दिया और अंततः डेनिश बस्तियों पर कब्ज़ा कर उन्हें ब्रिटिश भारत का हिस्सा बना लिया। अंतिम डच बस्ती सेरामपुर को 1845 ई में डेनमार्क द्वारा ब्रिटेन को हस्तांतरित कर दिया गया।
[5/8, 8:28 AM] Raj Kumar: #भारत_के_प्रमुख_पठार
भारत का प्रायद्वीपीय पठार एक मेज की आकृति वाला स्थल है जो पुराने क्रिस्टलीयए आग्नेय तथा रूपांतरित शैलों से बना है। यह गोंडवाना भूमि के टूटने एवं अपवाह के कारण बना था तथा यही कारण है कि यह प्राचीनतम भूभाग का एक हिस्सा है। इस पठारी भाग में चौड़ी तथा छिछली घाटियाँ एवं गोलाकार पहाड़ियाँ हैं। इस पठार के दो मुख्य भाग हैं-
1.मध्य उच्चभूमि
2.दक्कन का पठार
#मध्य_उच्चभूमि
नर्मदा नदी के उत्तर में प्रायद्वीपीय पठार का वह भाग जो कि मालवा के पठार के अधिकतर भागों पर फैला है उसे मध्य उच्चभूमि के नाम से जाना जाता है। विंध्य शृंखला दक्षिण में मध्य उच्चभूमि तथा उत्तर-पश्चिम में अरावली से घिरी है। पश्चिम में यह धीरे-धीरे राजस्थान के बलुई तथा पथरीले मरुस्थल से मिल जाता है। इस क्षेत्र में बहने वाली नदियाँ चंबल, सिंध, बेतवा तथा केन दक्षिण-पश्चिम से उत्तर-पूर्व की तरफ बहती हैं इस प्रकार वे इस क्षेत्र के ढाल को दर्शाती हैं। मध्य उच्चभूमि पश्चिम में चौड़ी लेकिन पूर्व में संकीर्ण है। इस पठार के पूर्वी विस्तार को स्थानीय रूप से बुंदेलखंड तथा बघेलखंड के नाम से जाना जाता है। इसके और पूर्व के विस्तार को दामोदर नदी द्वारा अपवाहित छोटा नागपुर पठार दर्शाता है। दक्षिण का पठार एक त्रिभुजाकार भूभाग है जो नर्मदा नदी के दक्षिण में स्थित है। उत्तर में इसके चौड़े आधार पर सतपुड़ा की शृंखला है जबकि महादेव की पहाड़ी तथा मैकाल शृंखला इसके पूर्वी विस्तार हैं।
#दक्कन_का_पठार
दक्कन का पठार जिसे विशाल प्रायद्वीपीय पठार के नाम से भी जाना जाता है, भारत का विशालतम पठार है, यह पठार त्रिभुजाकार है, जिसके पठार का एक भाग उत्तर-पूर्व में भी देखा जाता है जिसे स्थानीय रूप से ‘मेघालय या शिलांग का पठार’ तथा ‘उत्तर कचार पहाड़ी’ के नाम से जाना जाता है। यह एक भ्रंश के द्वारा छोटा नागपुर पठार से अलग हो गया है। पश्चिम से पूर्व की ओर तीन महत्त्वपूर्ण शृंखलाएँ गारो खासी तथा जयंतिया हैं। दक्षिण (दक्कन) के पठार के पूर्वी एवं पश्चिमी सिरे पर क्रमशः पूर्वी तथा पश्चिमी घाट स्थित हैं। पश्चिमी घाटए पश्चिमी तट के समानांतर स्थित है। वे सतत् हैं तथा उन्हें केवल दर्रों के द्वारा ही पार किया जा सकता है।
पश्चिमी घाटए पूर्वी घाट की अपेक्षा ऊंचे हैं।
प्रायद्वीपीय पठार की एक विशेषता यहाँ पायी जाने वाली काली मृदा है, जिसे ” दक्कन ट्रैप ” के नाम से भी जाना जाता है। इसकी उत्पत्ति ज्वालामुखी से हुई है इसलिए इसके शैल आग्नेय ( Igneous Shell) हैं। वास्तव में इन शैलों का समय के साथ अपरदन हुआ है जिनसे काली मृदा का निर्माण हुआ है। अरावली की पहाड़ियाँ प्रायद्वीपीय पठार के पश्चिमी एवं उत्तर-पश्चिमी किनारे पर स्थित है। ये बहुत अधिक अपरदित एवं खंडित पहाड़ियाँ हैं। ये गुजरात से लेकर दिल्ली तक दक्षिण-पश्चिम एवं उत्तर-पूर्व दिशा में विस्तृत हैं।
#आधुनिक_भारत_का_इतिहास :
#पुर्तगाली_उपनिवेश_की_स्थापना
पुर्तगाली पहले यूरोपीय थे जिन्होंने भारत तक सीधे समुद्री मार्ग की खोज की । 20 मई 1498 को पुर्तगाली नाविक वास्को-डी-गामा कालीकट पहुंचा, जो दक्षिण-पश्चिम भारत में स्थित एक महत्वपूर्ण समुद्री बंदरगाह है। स्थानीय राजा जमोरिन ने उसका स्वागत किया और कुछ विशेषाधिकार प्रदान किये। भारत में तीन महीने रहने के बाद वास्को-डी-गामा सामान से लदे एक जहाज के साथ वापस लौट गया और उस सामान को उसने यूरोपीय बाज़ार में अपनी यात्रा की कुल लागत के साठ गुने दाम में बेचा।
1501 ई.में वास्को-डी-गामा दूसरी बार फिर भारत आया और उसने कन्नानौर में एक व्यापारिक फैक्ट्री स्थापित की। व्यापारिक संबंधों की स्थापना हो जाने के बाद भारत में कालीकट, कन्नानौर और कोचीन प्रमुख पुर्तगाली केन्द्रों के रूप में उभरे। अरब व्यापारी, पुर्तगालियो की सफलता और प्रगति से जलने लगे और इसी जलन ने स्थानीय राजा जमोरिन और पुर्तगालियो के बीच शत्रुता को जन्म दिया। यह शत्रुता इतनी बढ़ गयी कि उन दोनों के बीच सैन्य संघर्ष की स्थिति पैदा हो गयी। राजा जमोरिन को पुर्तगालियों ने हरा दिया और इसी जीत के साथ पुर्तगालियों की सैनिक सर्वोच्चता स्थापित हो गयी।
#भारत_में_पुर्तगाली_शक्ति_का_उदय
1505 ई में फ्रांसिस्को दे अल्मीडा को भारत का पहला पुर्तगाली गवर्नर बनाया गया। उसकी नीतियों को ब्लू वाटर पालिसी कहा जाता था क्योकि उनका मुख्य उद्देश्य हिन्द महासागर को नियंत्रित करना था। 1509 ई में फ्रांसिस्को दे अल्मीडा की जगह अल्बुकर्क भारत में पुर्तगाली गवर्नर बनकर आया जिसने 1510 ई.में बीजापुर के सुल्तान से गोवा को अपने कब्जे में ले लिया। उसे भारत में पुर्तगाली शक्ति का वास्तविक संस्थापक माना जाता है। बाद में गोवा भारत में पुर्तगाली बस्तियों का मुख्यालय बन गया। तटीय क्षेत्रों पर पकड़ और नौसेना की सर्वोच्चता ने भारत में पुर्तगालियों के स्थापित होने में काफी मदद की ।16 वीं सदी के अंत तक पुर्तगालियों ने न केवल गोवा,दमन,दीव और सालसेट पर कब्ज़ा कर लिया बल्कि भारतीय तट के सहारे विस्तृत बहुत बड़े क्षेत्र को भी अपने प्रभाव में ले लिया।
#पुर्तगाली_शक्ति_का_पतन
भारत में पुर्तगाली शक्ति अधिक समय तक टिक नहीं सकी क्योकि नए यूरोपीय व्यापारिक प्रतिद्वंदियों ने उनके सामने चुनौती पेश कर दी। विभिन्न व्यापारिक प्रतिद्वंदियों के मध्य हुए संघर्ष में पुर्तगालियों को अपने से शक्तिशाली और व्यापारिक दृष्टि से अधिक सक्षम प्रतिद्वंदी के समक्ष समर्पण करना पड़ा और धीरे धीरे वे सीमित क्षेत्रों तक सिमट कर रह गए।
#पुर्तगाली_शक्ति_के_पतन_के_मुख्य_कारण
भारत में पुर्तगाली शक्ति के पतन के प्रमुख कारणों में निम्नलिखित शामिल है-
पुर्तगाल एक देश के रूप में इतना छोटा था कि वह अपने देश से दूर स्थित व्यापारिक कॉलोनी के भार को वहन नही कर सकता था।
उनकी समुद्री डाकुओं के रूप में प्रसिद्धि ने स्थानीय शासकों के मन में उनके विरुद्ध शत्रुता का भाव पैदा कर दिया।
पुर्तगालियो की कठोर धार्मिक नीति ने उन्हें भारत के हिन्दू और मुसलमानों दोनों से दूर कर दिया।
इसके अतिरिक्त डच और ब्रिटिशो के भारत में आगमन ने भी पुर्तगालियो के पतन में योगदान दिया।
विडंबना यह है कि पुर्तगाली शक्ति, जो भारत में सबसे पहले आने वाली यूरोपीय शक्ति थी ,वही 1961 ई.में भारत से लौटने वाली अंतिम यूरोपीय शक्ति भी थी, जब भारत सरकार ने गोवा ,दमन और दीव को उनसे पुनः अपने कब्जे में ले लिया।
#भारत_को_पुर्तगालियो_की_देन
उन्होंने भारत में तंबाकू की कृषि आरंभ की।
उन्होंने भारत के पश्चिमी और पूर्वी तट पर कैथोलिक धर्म का प्रसार किया।
उन्होंने 1556 ई.में गोवा में भारत की पहली प्रिंटिग प्रेस की स्थापना की। द इंडियन मेडिसनल प्लांट्स पहला वैज्ञानिक कार्य था जिसका प्रकाशन 1563 ई.में गोवा से किया गया ।
सर्वप्रथम उन्होंने ही कार्टेज प्रणाली के माध्यम से यह बताया कि कैसे समुद्र और समुद्री व्यापार पर सर्वोच्चता स्थापित की जाए। इस प्रणाली के तहत कोई भी जहाज अगर पुर्तगाली क्षेत्रोँ से गुजरता है तो उसे पुर्तगालियों से परमिट लेना पडेगा अन्यथा उन्हें पकड़ा जा सकता है।
वे भारत और एशिया में ईसाई धर्म का प्रचार करने वाले प्रथम यूरोपीय थे।
विश्व_विरासत_स्थल :
#दिल्ली_का_लाल_किला
यमुना नदी के दाएँ किनारे पर स्थित दिल्ली के प्रसिद्ध लाल किले का निर्माण सन् 1639 में प्रारंभ किया गया था और इसे पूरा करने में 9 वर्ष लगे। दिल्ली के लाल किले की दीवारों, द्वारों और कुछ अन्य संरचनाओं का निर्माण लाल बलुआ पत्थर से किया गया है, इसीलिए इसे 'लाल किला' कहा जाता है | वर्ष 2007 में युनेस्को द्वारा दिल्ली के लाल किले को ‘विश्व विरासत स्थल’ का दर्जा प्रदान किया गया |
#दिल्ली_के_लाल_किले_से_संबन्धित_तथ्य:
1. सन् 1638 में शाहजहाँ (1628-58ई.) ने अपनी राजधानी आगरा से दिल्ली स्थानान्तरित की और उसी समय शाहजहाँनाबाद की स्थापना की थी, जो दिल्ली का सातवां नगर है। इसका प्रसिद्ध नगर दुर्ग ‘लाल किला’ है, जो नगर के उत्तरी किनारे पर स्थित है।
2. दिल्ली का लाल किला अनगढ़े पत्थर की दीवार से घिरा हुआ है, जिस पर बीच बीच में बुर्ज, द्वार और विकेट बने हुए हैं।
3. इसके चौदह दरवाजों में से मोरी गेट, अजमेरी गेट, तुर्कमान गेट, कश्मीरी गेट और दिल्ली गेट सबसे महत्वपूर्ण हैं। इनमें से कुछ पहले ही ध्वस्त हो चुके हैं।
4. दिल्ली का लाल किला आगरे के लाल किले से इस मायने में भिन्न है कि इसे एक सुनियोजित ढंग से बनाया गया है और यह एक ही व्यक्ति का कार्य था।
5. दिल्ली का लाल किला 254.67 एकड़ (103.06 हे.) में विस्तृत है और 2.41 किमी. की रक्षा प्राचीर से घिरा हुआ है |
6. ताजमहल के वास्तुकार उस्ताद अहमद लाहौरी ने ही दिल्ली के लाल किले का भी डिजायन तैयार किया था |
7. दिल्ली का लाल किला एक असाधारण अष्टकोण के आकार का है, जिसके पूर्व और पश्चिम में दो बड़े-बड़े पार्श्व और दो मुख्य द्वार हैं | इनमें से एक द्वार पश्चिम में और दूसरा द्वार दक्षिण में स्थित है, जिन्हें क्रमश: 'लाहौरी गेट' और 'दिल्ली गेट' कहा जाता है।
8. हयात बख्श बाग (जीवन देने वाला बाग) के मध्य में स्थित तालाब के मध्य भाग में लाल पत्थर का मंडप है, जिसे ‘जफर महल’ कहते हैं और इसे लगभग सन् 1842 में बहादुरशाह द्वितीय द्वारा बनवाया गया था।
9. दिल्ली के लाल किले की दीवारों, द्वारों और कुछ अन्य संरचनाओं का निर्माण लाल बलुआ पत्थर से किया गया है लेकिन महलों में संगमरमर का अधिक प्रयोग किया गया है।
10..किले के अंदर स्थित ‘मोती मस्जिद’ का निर्माण बाद में औरंगजेब (1658-1707 ई.) अपनी निजी मस्जिद के रूप में कराया था |
11. ‘दीवाने-ए-आम’ के पीछे लेकिन महल से पृथक रंग महल (चित्रित महल) था, जिसे इसकी भीतरी रंगीन सजावट के कारण ऐसा नाम दिया गया था।
12. मेहराबदार तोरणपथ, जिसे ‘छत्ताचौक’ कहते हैं, से होकर गुजरने के बाद पश्चिमी द्वार से नौबत-या नक्कार खाना (ड्रम-हाउस) पहुंचा जाता है जहां दिन में पांच बार संगीत बजता था और जो दीवाने-ए-आम में प्रवेश के लिए प्रवेश द्वार था। इसकी ऊपरी मंजिल में आजकल ‘इण्डियन वॉर मेमोरियल म्यूजियम’ है।
13..‘दीवाने-ए-आम’ (आम जनता के लिए हॉल) एक आयताकार हॉल है, जिसके तीन लंबे गलियारे हैं और अग्रभाग में नौ मेहराबें हैं। हाल के पिछवाड़े एक शयनकक्ष है जहां संगमरमर की छतरी के नीचे शाही सिंहासन स्थित है |
14. ‘दीवाने-ए-खास’ (खास लोगों के लिए) अत्यधिक अलंकृत स्तंभ वाला हाल है, जिसकी दांतेदार मेहराब पर टिकी समतल छत है। इसके ऊपरी भाग पर मूलरूप से सोने का मुलम्मा चढ़ा हुआ था। कहा जाता है कि इसका प्रसिद्ध मोर वाला सिंहासन (मयूर सिंहासन) संगमरमर की चौकी पर टिका हुआ था जिसे बाद में पारसी आक्रमणकारी नादिर शाह सन् 1939 में भारत से ले गया था।
15. ‘तस्बीह खाना’ (व्यक्तिगत प्रार्थनाओं के लिए कक्ष) में तीन कमरे हैं, जिसके पीछे ‘ख्वाबगाह’ (सोने का कमरा/शयनकक्ष) है। तस्बीहखाना के उत्तरी आवरण पर न्याय के पैमानों (न्याय तुला) को दिखाया गया है, जो तारों और बादलों के बीच आए अर्धचन्द्र पर लटके हुए दर्शाए गए हैं।
16. ‘ख्वाबगाह’ की पूर्वी दीवार के निकट अष्टभुजाकार ‘मुसम्मन-बुर्ज’ है, जहां से सम्राट हर सुबह अपनी प्रजा को दर्शन देते थे। बुर्ज से बाहर को निकली हुई एक छोटी बॉलकनी (छज्जा) सन् 1808 में अकबर शाह द्वारा बनवाई गई थी | यह वही बॉलकनी थी, जहां से सम्राट जॉर्ज और महारानी मेरी दिसम्बर, 1911 में दिल्ली की जनता के समक्ष प्रस्तुत हुए थे।
17..‘मुमताज महल’, जो मूल रूप में शाही हरम का एक महत्वपूर्ण हिस्सा था, में आजकल दिल्ली पुरातत्व संग्रहालय स्थित है।
18. प्रतिवर्ष दिल्ली के लाल किले की प्राचीर से भारत के प्रधानमंत्री 15 अगस्त के दिन राष्ट्र को संबोधित करते हैं और लाल किले पर तिरंगे को फहराते हैं |
19..दिल्ली का लाल किला सूर्योदय से सूर्यास्त तक खुला रहता है और यहाँ का प्रवेश शुल्क भारतीय नागरिक और सार्क देशों (बांग्लादेश, नेपाल, भूटान, श्रीलंका, पाकिस्तान, मालदीव और अफगानिस्तान) और बिमस्टेक देशों (बांग्लादेश, नेपाल, भूटान, श्रीलंका, थाइलैंड और म्यांमार) के पर्यटकों के लिए 10 रूपए प्रति व्यक्ति और अन्य के लिए 05 अमरीकी डालर या 250 रूपए प्रति व्यक्ति है | लाल किले में 15 वर्ष तक की आयु के बच्चों के लिए प्रवेश नि:शुल्क है|
विश्व_विरासत_स्थल :
#छत्रपति_शिवाजी_टर्मिनस
छत्रपति शिवाजी टर्मिनस, इसे पहले विक्टोरिया टर्मिनस स्टेशन के नाम से जाना जाता था, मुंबई में है और भारत में विक्टोरियन गॉथिक वास्तुकला का उत्कृष्ट उदारहण है। इस भवन का डिजाइन ब्रिटिश शिल्पकार एफ. डब्ल्यू. स्टीवेंस ने बनाया था, इसने बॉम्बे को 'गॉथिक सिटी' का प्रतीक बनाया। बॉम्बे भारत का प्रमुख अंतरराष्ट्रीय व्यापारिक बंदरगाह भी था। रोजाना 30 लाख से अधिक यात्री इस रेलवे स्टेशन का इस्तेमाल करते हैं। वर्ष 1878 में इसका निर्माण कार्य शुरु हुआ था और दस वर्षों के बाद यह बनकर तैयार हुआ। यह इस उपमहाद्वीप का पहला टर्मिनस स्टेशन था।
#तथ्यों_पर_एक_नजरः
1..पत्थरों से बने इसके गुंबद, बुर्ज, नुकीले मेहराब और उत्केंद्रित भू–योजना परंपरागत भारतीय महल वास्तुकला के काफी करीब हैं।
2. यह दो संस्कृतियों (ब्रिटिश और भारतीय वास्तुकला) के मेल का अद्भुत उदाहरण है।
3. 21 अप्रैल, 1997 को महाराष्ट्र राज्य सरकार अधिनियम के संकल्प के तहत इसे ' विरासत ग्रेड-1' संरचना घोषित किया गया था।
4. इसके सभी कानूनी अधिकार भारत सरकार के रेल मंत्रालय के पास हैं।
5. मुंबई, भारत का पहला शहर है जहां विरासत कानून है। इस कानून को 1995 में सरकारी विनियमन द्वारा अधिनियमित किया गया था।
6. पूरे शहर में 624 सूचिबद्ध भवन है, जिनमें से 63 भवनों को ग्रेड–1 संरचना का खिताब दिया गया है। टर्मिनस का भवन इन्हीं भवनों में से एक है।
7. भारत सरकार, टर्मिनस स्टेशन के प्रबंधन के लिए धन उपलब्ध कराती है।
8..छत्रपति शिवाजी टर्मिनस (भूतपूर्व विक्टोरिया टर्मिनस) के प्रवेश द्वार पर दो स्तंभ हैं, एक पर शेर (यूनाइटेड किंगडम का प्रतिनिधित्व दर्शाता है) और दूसरे पर बाघ (भारत का प्रतिनिधित्व दर्शाता है) बना हुआ है। यहां अभिव्यक्ति करते मोर भी बने हैं।
9. इसका निर्माण सफेद चूना पत्थर से किया गया है। दरवाजे और खिड़कियां बर्मा सागौन लकड़ियों से बनी हैं। कुछ खिड़कियां इस्पात की भी बनी लगी हैं।
10. भवन का परिसर सख्त संरक्षित इलाका है जिसका रख– रखाव भारतीय रेलवे करती है।
11..यह संपत्ति (शिवाजी टर्मिनस) 90.21 हेक्टेयर के बफर जोन से संरक्षित है।
12. यह टर्मिनस मुंबई के प्रमुख रेलवे स्टेशनों में से एक है।
13. 2 जुलाई, 2004 को इस स्टेशन को यूनेस्को की विश्व धरोहर समिति द्वारा ‘विश्व धरोहर स्थल’ घोषित किया गया था।
14. यह इस उपमहाद्वीप का पहला टर्मिनस स्टेशन था।
आंकड़ों के अनुसार यह स्टेशन ताजमहल के बाद; भारत का सर्वाधिक छायाचित्रित स्मारक है।
विश्व_विरासत_स्थल :
#वेल्हा_गोवा_में_चर्च_और_आश्रम
भारत के पश्चिमी तट पर स्थित इस राज्य के वेल्हा (पुराने) गोवा के चर्च और आश्रम, पुर्तगाली शासन के युग से ही हैं। 16वीं और 17वीं शताब्दी के बीच पुराने गोवा में व्यापक स्तर पर चर्चों और गिरजाघरों का निर्माण किया गया था, इनमें शामिल हैं– बेसिलिका ऑफ बोम जीसस, सेंट कैथेड्रल, सेंट फ्रांसिस असीसी के चर्च और आश्रम, चर्च ऑफ लेडी ऑफ रोजरी, चर्च ऑफ सेंट. ऑगस्टीन और सेंट कैथरीन चैपल। इन चर्चों और आश्रमों को 1986 में विश्व धरोहर स्थल घोषित किया गया था।
#वेल्हा (पुराने) में चर्चों और आश्रमों के बारे में तथ्यों पर एक नजरः
गोवा की खूबसूरती चर्चों में प्रदर्शित कई प्राचीन उत्कृष्ट कलाकृतियों की उपस्थिति में दुगनी हो जाती है। गोवा के आश्रमों और चर्चों पर पुर्तगाल की संस्कृति का बहुत प्रभाव है। उनकी वास्तुकला कल्पना और पुनर्जागरण शैली का संयोजन हैं। इन चर्चों को बनाने में मुख्य रूप से चूना प्लास्टर और लैटेराइट का प्रयोग किया गया है।
इन चर्चों में रखे गए अधिकांश चित्र लकड़ी के बॉर्डर से घिरे हैं। ये संत जेवियर के मकबरे को सजाने के लिए इस्तेमाल किए गए फूलों के डिजाइन जैसे ही हैं। पत्थर की कुछ मूर्तियों के अलावा बाकी सभी मूर्तियां लकड़ी की बनी हैं और उन पर उत्कृष्ट नक्काशी की हुई है। यहां वेदी को सजाने में इस्तेमाल किए जाने वाले प्रभु यीशु, मां मैरी और संतों की कुछ उत्कृष्ट पेंटिंग्स भी हैं।
#द_बेसिलिका_ऑफ_बोम_जीसस :
बोम जीसस का शाब्दिक अर्थ है "शिशु यीशु" या "अच्छा यीशु"। द बोम जेसु बेसिलिका या बोम जीसस बेसिलिका पुराने गोवा में स्थित है। पुराना गोवा पुर्तगाल के शासन के आरंभिक दिनों में उसकी राजधानी हुआ करता था। यहां गोवा की राजधानी पंजिम से दस किलोमीटर की दूरी पर एक चर्च है।
सेंट फ्रांसिस के आश्रम के पास स्थित यह स्थान सेंट फ्रांसिस जेवियर के पार्थिव शरीर और कब्र के लिए प्रसिद्ध है। माना जाता है कि सेंट फ्रांसिस जेवियर पुर्तगाली काफिले के साथ भारत आए थे और उन्होंने भारत में ईसाई धर्म का प्रचार– प्रसार किया था। वे सोसायटी ऑफ जीसस से जुड़े थे।
#से_कैथेड्रल :
से कैथेड्रल गोवा का सबसे लोकप्रिय और प्राचीन धार्मिक स्थान है। से कैथेड्रल पूरे एशियाई क्षेत्र का सबसे बड़ा चर्च है। उपलब्ध आंकड़े बताते हैं कि यह चर्च 80 वर्षों में बन कर तैयार हुआ था। यह चर्च सिकंदरिया की कैथरीन को समर्पित है। यह पुराने गोवा में स्थित है। पूरे विश्व के ईसाई समुदाय द्वारा उच्च सम्मान और पवित्रता के इस स्थल का दौरा कर आप पुर्तगाली कला, मूर्तिकला और उनकी राजसी गौरव का आसानी से अनुभव कर सकते हैं। यूनेस्को ने ‘से कैथेड्रल’ को विश्व धरोहर स्थल का दर्जा दिया है।
#चर्च_ऑफ_सेंट_फ्रांसिस_ऑफ_असीसी :
से कैथेड्रल के पश्चिम दिशा में सेंट फ्रांसिस ऑफ असीसी चर्च स्थित है। इसे शुरुआत में प्रार्थनाघर के तौर पर बनाया गया था। वर्ष 1521 में इसका पुनर्निर्माण किया गया और पूर्ण रूप से काम करने वाले चर्च का रूप दिया गया। 2 अगस्त 1602 को इस चर्च को प्रभु यीशू को समर्पित किया गया। फ्रांसीसी भिक्षुक आश्रमों का प्रयोग अपने निवास स्थान के तौर पर करते थे और वर्ष 1559 में इन आश्रमों का जीर्णोद्धार किया गया था। हालांकि, 1835 में पुर्तगाल प्रशासन ने इन आश्रमों को बंद कर दिया था। वर्ष 1964 में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने इस चर्च को संग्रहालय बना दिया था। इस चर्च में मूर्तियों, पेंटिंग और कलाकृतियों का विशाल खजाना है।
चर्च में मोजेक– कोरिंथियन शैली और टस्कन संस्कृति का मिला जुला स्वरुप देखने को मिलता है। पहली शैली का प्रयोग चर्च की आंतरिक सज्जा में जबकि बाद की शैली का प्रयोग चर्च के बाहरी हिस्सों की सज्जा में किया गया है। चर्च के भीतरी दीवारों को बाइबल की महत्वपूर्ण विचारों और जटिल फूलदार डिजाइनों से सजाया गया है। चर्च के सामने वाले हिस्से में संत माइकल की मूर्ति है। इसके अलावा एक चैपल में कुर्सी पर सेंट फ्रांसिस असीसी के लकड़ी की मूर्ती भी सजा कर रखी गई है।
#चर्च_ऑफ_लेडी_ऑफ_रोजरी :
द लेडी ऑफ रोजरी चर्च मोंटे सैंटो या पवित्र पहाड़ी के पश्चिम की तरफ स्थित है। कई ऐतिहासिक तथ्य यह बताते हैं कि यह वही स्थान हैं जहां अलफांसो डी अलबुकरी ने अपनी सेना तैयार की थी और 1510 में विजेता बन कर उभरा था। इस स्थान पर 1950 की अवधि के कुछ शिलालेख भी मिले हैं। वर्ष 1543 में इस इलाके को फिर से बनाया गया और चर्च का रूप दिया गया। बाद में इसे देखभाल के लिए फ्रांसिसियों के हवाले कर दिया गया था। यह चर्च लोगों के उच्च सम्मान और भावना का प्रतीक है क्योंकि यह सेंट फ्रांसिस जेवियर द्वारा दी जाने वाली शिक्षा का केंद्र था। उन्होंने एक छोटी सी घंटी की आवाज सुनकर वहां इकठ्ठा होने वाले स्थानीय लोगों को पढाना शुरु किया था।
इस चर्च के भीतर और बाहर का डिजाइन बहुत सहज है। ‘ग्रेसिया डी सा’ गोवा के पहले राज्यपाल में से एक थे। उन्होंने समाधि के सामने एक पत्थर रखा था। यह पत्थर "Manueline" वास्तुकला शैली और फिर पुर्तगाली शैली का शास्त्रीय उदाहरण है। भीतर का डिजाइन बहुत सामान्य है और इसमें पांच वेदियां हैं। लेडी ऑफ रोजरी या नोस्सा सेनहोरा डी रोजारीयो की तस्वीर मुख्य वेदी पर रखी गई है।
#चर्च_ऑफ_सेंट_ऑगस्टिन :
सेंट. ऑगस्टिन चर्च का निर्माण बारह (12) ऑगस्टिन संन्यासियों ने 3 सितंबर 1572 को गोवा पहुंचने के बाद 1572 में किया था। यह चर्च 1962 में पूरा हुआ। वर्तमान में आश्रम और चर्च दोनों ही क्षतिग्रस्त स्थिति में हैं। वर्ष 1835 तक यह चर्च बहुत मजबूत था। फिर पुर्तगाल के प्रशासन द्वारा धार्मिक आदेश पारित किए जाने के बाद यह उपेक्षित हो गया। वर्ष 1842 में इसके मेहराब के गिरने से यह बुरी तरह से क्षतिग्रस्त हो गया। इस प्राचीन स्मारक का एक मात्र बचा हुआ हिस्सा घंटाघर है जो बिना किसी घंटे के आज भी खड़ा है। घंटाघर के घंटे को हटा दिया गया था और वर्ष 1841 से 1871के बीच इसे अगुआदा लाइट हाउस किले पर लगाया गया था। इसके बाद उसे पंजिम स्थित चर्च ऑफ लेडी ऑफ इम्युकुलेट कॉन्सेप्शन को दे दिया गया। यह अभी भी वहां सही तरीके से काम कर रहा है।
#महारानी_विक्टोरिया_की_घोषणा_तथा_1858
#का_अधिनियम
1 नवम्बर, 1858 ई0 को ब्रिटेन की रानी विक्टोरिया ने एक घोषणा की जिसे भारत के प्रत्येक शहर में पढ़कर सुनाया गयां इस घोषणा में ब्रिटिश सरकार ने उन मुख्य सिद्धान्तों का विवरण दिया जिसके आधार पर भारत का भविष्य का शासन निर्भर करता था। इस घोषणा का कोई कानूनी आधार न था क्योंकि इसे ब्रिटिश संसद ने स्वीकार किया था। परन्तु तब भी इनमें दिये गये सिद्धान्त, आश्वासन आदि कानून के समकक्ष स्थान रखते थे क्योंकि इसे ब्रिटेन के मंत्रीमण्डल की स्वीकृति प्राप्त थी। इसमें मुख्यत: निम्नलिखित बाते सम्मिलित थी :
1. इसके द्वारा घोषित किया गया कि भारत में ईस्ट इंडिया कम्पनी द्वारा प्रशासित क्षेत्रों का शासन अब प्रत्यक्ष रूप से ब्रिटेन के क्राउन द्वारा किया जायेगा।
2.इसके द्वारा गवर्नर-जनरल लार्ड कैनिंग को वायसराय क्राउन का प्रतिनिधि का पद भी प्रदान किया गया।
3. इसके द्वारा कम्पनी के सभी असैनिक और सैनिक पदाधिकारियों को ब्रिटिश क्राउन की सेवा में ले लिया गया तथा उनके संबंध में बने हुए सभी नियमों को स्वीकार किया गया।
4. इसके द्वारा भारतीय नरेशों के साथ कम्पनी द्वारा की गई सभी संधियों और समझौतों को ब्रिटिश क्राउन के द्वारा यथावत स्वीकार कर लिया गया, भारतीय नरेशों को बच्चा गोद लेने का अधिकार दिया गया तथा उन्हें यह आश्वासन भी दिया गया कि ब्रिटिश क्राउन अब भारत में राज्य - विस्तार की आकांक्षा नहीं करता और भारतीय नरेशों के अधिकारो, गौरव एवं सम्मान का उतना ही आदर करेगा जितना कि वह स्वयं का करता है।
5. इसके द्वारा साम्राज्ञी ने अपनी भारतीय प्रजा को आश्वासन दिया कि उनके धार्मिक विश्वासों में कोई हस्तक्षेप नहीं किया जायेगा बल्कि उनके प्राचीन विश्वासो, आस्थाओं और परम्पराओं का सम्मान किया जायेगा।
6. इसके द्वारा भारतीयों को जाति या धर्म के भेदभाव के बिना उनकी योग्यता, शिक्षा, निष्ठा और क्षमता के आधार पर सरकारी पदों पर नियुक्त किये जाने का समान अवसर पद्र ान करने का आश्वासन दिया गया।
7. इसके द्वारा यह आश्वासन दिया गया कि रानी की सरकार सार्वजनिक भलाई, लाभ और उन्नति के प्रयत्न करेगी तथा शासन इस प्रकार चलायेगी जिससे उसकी समस्त प्रजा का हितसाधन हो।
8. 1857 ई0 के विद्रोह में भाग लेने वाले अपराधियों में से केवल उनको छोडकर जिन पर अंग्रेजों की हत्या का आरोप था, बाकी सभी को क्षमा प्रदान कर दी गयी।
◾1858 ई. के कानून की शर्तें :
1. इसके द्वारा भारत का शासन ब्रिटेन की संसद को दे दिया गया।
2. डायरेक्टरों की सभा और अधिकार सभा को समाप्त कर दिया गया तथा उनके समस्त अधिकार भारत -सचिव को दे दिये गये। भारत-सचिव अनिवार्यत: ब्रिटिश संसद और ब्रिटिश मंत्रिमण्डल का सदस्य होता था।
3. भारत-सचिव की सहायता के लिये 15 सदस्यों की एक सभा- भारत-परिषद की स्थापना की गयी। इसके 7 सदस्यों की नियुक्ति का अधिकार ब्रिटेन के क्राउन को तथा शेष सदस्यों के चयन का अधिकार कम्पनी के डायरेक्टरों को दिया गया परन्तु प्रत्येक स्थिति में यह आवश्यक था कि इसके आधे सदस्य ऐसे हो जो कम से कम दस वर्ष तक भारत सेवा-कार्य कर चुके हो।
4. अर्थव्यवस्था और अखिल भारतीय सेवाओं के विषय में भारत-सचिव, भारत-परिषद् की राय को मानने के लिये बाध्य था। अन्य सभी विषयों पर वह उसकी राय को ठुकरा सकता था। उसे अपने कार्यों की वार्षिक रिपोर्ट ब्रिटिश संसद के समक्ष प्रस्तुत करनी पड़ती है।
5. भारतीय गवर्नर-जनरल को भारत-सचिव की आज्ञानुसार कार्य करने के लिये बाध्य किया गया। गवर्नर-जनरल भारत में ब्रिटिश सम्राट के प्रतिनिधियों के रूप में कार्य करने लगा और इस कारण उसे वायसराय भी कहा गयां.
महाराणा प्रताप
(महापराक्रमी वीर राजा, मेवाड़ के एक राजपूत शासक थे)
महाराणा प्रताप सिंह सिसोदिया ( ज्येष्ठ शुक्ल तृतीया रविवार विक्रम संवत १५९७ तदनुसार ९ मई १५४०–१९ जनवरी १५९७) उदयपुर, मेवाड में सिसोदिया राजपूत राजवंश के राजा थे। उनका नाम इतिहास में वीरता और दृढ प्रण के लिये अमर है। उन्होंने मुगल सम्राट अकबर की अधीनता स्वीकार नहीं की और कई सालों तक संघर्ष किया। महाराणा प्रताप सिंह ने मुगलों को कईं बार युद्ध में भी हराया।
राज्याभिषेक:- 28 फ़रवरी1572
पूर्ववर्ती :- महाराणा उदयसिंह
उत्तरवर्ती:- महाराणा अमर सिंह
जन्म:- 9 मई 1540
कुम्भलगढ़ दुर्ग, पाली, राजस्थान, भारत।
निधन:- 19 जनवरी 1597
पूरा नाम:- महाराणा प्रताप सिसोदिया
घराना:- सिसोदिया
पिता:- महाराणा उदयसिंह
माता:- महाराणी जयवंताबाई
धर्म:- सनातन धर्म
उनका जन्म वर्तमान राजस्थान के कुम्भलगढ़ में महाराणा उदयसिंह एवं माता राणी जयवंत कँवर के घर हुआ था। लेखक जेम्स टॉड के अनुसार महाराणा प्रताप का जन्म मेवाड़ के कुंभलगढ में हुआ था । इतिहासकार विजय नाहर के अनुसार राजपूत समाज की परंपरा व महाराणा प्रताप की जन्म कुंडली व कालगणना के अनुसार महाराणा प्रताप का जन्म पाली के राजमहलों में हुआ। १५७६ के हल्दीघाटी युद्ध में ५०० भील लोगो को साथ लेकर राणा प्रताप ने आमेर सरदार राजा मानसिंह के ८०,००० की सेना का सामना किया। हल्दीघाटी युद्ध में भील सरदार राणा पूंजा जी का योगदान सराहनीय रहा। शत्रु सेना से घिर चुके महाराणा प्रताप को झाला मानसिंह ने आपने प्राण दे कर बचाया ओर महाराणा को युद्ध भूमि छोड़ने के लिए बोला। शक्ति सिंह ने आपना अश्व दे कर महाराणा को बचाया। प्रिय अश्व चेतक की भी मृत्यु हुई। यह युद्ध तो केवल एक दिन चला परन्तु इसमें १७,००० लोग मारे गए। मेवाड़ को जीतने के लिये अकबर ने सभी प्रयास किये। महाराणा की हालत दिन-प्रतिदिन चिंताजनक होती चली गई । २५,००० सैनिकों के १२ साल तक गुजारे लायक अनुदान देकर भामाशाह भी अमर हुआ।
जन्म स्थान:-
महाराणा प्रताप के जन्मस्थान के प्रश्न पर दो धारणाएँ है । पहला महाराणा प्रताप का जन्म कुम्भलगढ़ दुर्ग में हुआ था क्योंकि महाराणा उदयसिंह एवम जयवंताबाई का विवाह कुंभलगढ़ महल में हुआ। दूसरी धारणा यह है कि जन्म पाली के राजमहलों में हुआ। महाराणा प्रताप की माता का नाम जयवंता बाई था, जो पाली के सोनगरा अखैराज की बेटी थी। महाराणा प्रताप को बचपन में कीका के नाम से पुकारा जाता था। लेखक विजय नाहर की पुस्तक हिन्दुवा सूर्य महाराणा प्रताप के अनुसार जब प्रताप का जन्म हुआ था उस समय उदयसिंह युद्व और असुरक्षा से घिरे हुए थे। कुंभलगढ़ किसी तरह से सुरक्षित नही था। जोधपुर का राजा मालदेव उन दिनों उत्तर भारत मे सबसे शक्तिसम्पन्न था। एवं जयवंता बाई के पिता एवम पाली के शाषक सोनगरा अखेराज मालदेव का एक विश्वसनीय सामन्त एवं सेनानायक था। इस कारण पाली और मारवाड़ हर तरह से सुरक्षित था। अतः जयवंता बाई को पाली भेजा गया। वि. सं. ज्येष्ठ शुक्ला तृतीया सं 1597 को प्रताप का जन्म पाली मारवाड़ में हुआ। प्रताप के जन्म का शुभ समाचार मिलते ही उदयसिंह की सेना ने प्रयाण प्रारम्भ कर दिया और मावली युद्ध मे बनवीर के विरूद्ध विजय श्री प्राप्त कर चित्तौड़ के सिंहासन पर अपना अधिकार कर लिया। भारतीय प्रशासनिक सेवा से सेवानिवत्त अधिकारी देवेंद्र सिंह शक्तावत की पुस्तक महाराणा प्रताप के प्रमुख सहयोगी के अनुसार महाराणा प्रताप का जन्म स्थान महाराव के गढ़ के अवशेष जूनि कचहरी पाली में विद्यमान है। यहां सोनागरों की कुलदेवी नागनाची का मंदिर आज भी सुरक्षित है। पुस्तक के अनुसार पुरानी परम्पराओं के अनुसार लड़की का पहला पुत्र अपने पीहर में होता है। इतिहासकार अर्जुन सिंह शेखावत के अनुसार महाराणा प्रताप की जन्मपत्रिका पुरानी दिनमान पद्धति से अर्धरात्रि 12/17 से 12/57 के मध्य जन्मसमय से बनी हुई है। 5/51 पलमा पर बनी सूर्योदय 0/0 पर स्पष्ट सूर्य का मालूम होना जरूरी है इससे जन्मकाली इष्ट आ जाती है। यह कुंडली चित्तौड़ या मेवाड़ के किसी स्थान में हुई होती तो प्रातः स्पष्ट सूर्य का राशि अंश कला विक्ला अलग होती। पण्डित द्वारा स्थान कालगणना पुरानी पद्धति से बनी प्रातः सूर्योदय राशि कला विकला पाली के समान है। डॉ हुकमसिंह भाटी की पुस्तक सोनगरा सांचोरा चौहानों का इतिहास 1987 एवं इतिहासकार मुहता नैणसी की पुस्तक ख्यातमारवाड़ रा परगना री विगत में भी स्पष्ट है "पाली के सुविख्यात ठाकुर अखेराज सोनगरा की कन्या जैवन्ताबाई ने वि. सं. 1597 जेष्ठ सुदी 3 रविवार को सूर्योदय से 47 घड़ी 13 पल गए एक ऐसे देदीप्यमान बालक को जन्म दिया। धन्य है पाली की यह धरा जिसने प्रताप जैसे रत्न को जन्म दिया।"
जीवन:-
राणा उदयसिंह केे दूसरी रानी धीरबाई जिसे राज्य के इतिहास में रानी भटियाणी के नाम से जाना जाता है, यह अपने पुत्र कुंवर जगमाल को मेवाड़ का उत्तराधिकारी बनाना चाहती थी | प्रताप केे उत्तराधिकारी होने पर इसकेे विरोध स्वरूप जगमाल अकबर केे खेमे में चला जाता है |
महाराणा प्रताप का प्रथम राज्याभिषेक मेंं 28 फरवरी, 1572 में गोगुन्दा में होता हैै, लेकिन विधि विधानस्वरूप राणा प्रताप का द्वितीय राज्याभिषेक 1572 ई. में ही कुुंभलगढ़़ दुुर्ग में हुआ, दूूूसरे राज्याभिषेक में जोधपुर का राठौड़ शासक राव चन्द्रसेेन भी उपस्थित थे |
राणा प्रताप ने अपने जीवन में कुल ११ शादियाँ की थी उनके पत्नियों और उनसे प्राप्त उनके पुत्रों पुत्रियों के नाम है:-
महारानी अजाब्दे पंवार :- अमरसिंह और भगवानदास
अमरबाई राठौर :- नत्था
शहमति बाई हाडा :-पुरा
अलमदेबाई चौहान:- जसवंत सिंह
रत्नावती बाई परमार :-माल,गज,क्लिंगु
लखाबाई :- रायभाना
जसोबाई चौहान :-कल्याणदास
चंपाबाई जंथी :- कल्ला, सनवालदास और दुर्जन सिंह
सोलनखिनीपुर बाई :- साशा और गोपाल
फूलबाई राठौर :-चंदा और शिखा
खीचर आशाबाई :- हत्थी और राम सिंह
महाराणा प्रताप के शासनकाल में सबसे रोचक तथ्य यह है कि मुगल सम्राट अकबर बिना युद्ध के प्रताप को अपने अधीन लाना चाहता था इसलिए अकबर ने प्रताप को समझाने के लिए चार राजदूत नियुक्त किए जिसमें सर्वप्रथम सितम्बर 1572 ई. में जलाल खाँ प्रताप के खेमे में गया, इसी क्रम में मानसिंह (1573 ई. में ), भगवानदास ( सितम्बर, 1573 ई. में ) तथा राजा टोडरमल ( दिसम्बर,1573 ई. ) प्रताप को समझाने के लिए पहुँचे, लेकिन राणा प्रताप ने चारों को निराश किया, इस तरह राणा प्रताप ने मुगलों की अधीनता स्वीकार करने से मना कर दिया जिसके परिणामस्वरूप हल्दी घाटी का ऐतिहासिक युद्ध हुआ।
आप सभी को महाराणा प्रताप जयंती की हार्दिक शुभकामनाएं।
#आधुनिक_भारत_का_इतिहास :
#फ्रांसीसी_उपनिवेश_की_स्थापना
भारत आने वाले यूरोपीय व्यापारी फ्रांसीसी थे। फ्रांसीसी ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना 1664 ई में लुई सोलहवें के शासनकाल में भारत के साथ व्यापार करने के उद्देश्य से की गयी थी। फ्रांसीसियों ने 1668 ई में सूरत में पहली फैक्ट्री स्थापित की और 1669 ई में मसुलिपत्तनम में एक और फैक्ट्री स्थापित की।1673 ई में बंगाल के मुग़ल सूबेदार ने फ्रांसीसियों को चन्द्रनगर में बस्ती बनाने की अनुमति प्रदान कर दी।
#पोंडिचेरी_और_फ्रांसीसी_वाणिज्यिक_वृद्धि: 1674 ई में फ्रांसीसियों ने बीजापुर के सुल्तान से पोंडिचेरी नाम का गाँव प्राप्त किया और एक सम्पन्न शहर की स्थापना की जो बाद में भारत में फ्रांसीसियों का प्रमुख केंद्र बनकर उभरा। धीरे धीरे फ़्रांसीसी ईस्ट इंडिया कंपनी ने माहे,कराइकल, बालासोर और कासिम बाज़ार में अपनी व्यापारिक बस्तियां स्थापित कर लीं। फ्रांसीसियों का भारत आने का प्रमुख उद्देश्य व्यापर एवं वाणिज्य था। भारत आने से लेकर 1741 ई तक फ्रांसीसियों का प्रमुख उद्देश्य ,ब्रिटिशों के समान,पूर्णतः वाणिज्यिक ही था। फ्रांसीसी ईस्ट इंडिया कंपनी ने 1723 ई में यनम, 1725 ई में मालाबार तट पर माहे और 1739 ई में कराइकल पर कब्ज़ा कर लिया।
#फ्रांसीसियों_के_राजनीतिक_उद्देश्य_और_महत्वाकांक्षा: समय के गुजरने के साथ साथ फ्रांसीसियों का उद्देश्यों में भी परिवर्तन होने लगा और भारत को अपने एक उपनिवेश के रूप में मानने लगे। 1741 ई में जोसफ फ़्रन्कोइस डूप्ले को फ्रांसीसी ईस्ट इंडिया कंपनी का गवर्नर बनाया जाना इस (उपनिवेश) वास्तविकता और उद्देश्य की तरफ उठाया गया पहला कदम था। उसके काल में कंपनी के राजनीतिक उद्देश्य स्पष्ट रूप से सामने आने लगे और कहीं कहीं तो उन्हें कंपनी के वाणिज्यिक उद्देश्यों से ज्यादा महत्व दिया जाने लगा। डूप्ले अत्यधिक बुद्धिमान था जिसने स्थानीय राजाओं की आपसी दुश्मनी का फायदा उठाया और इसे भारत में फ्रासीसी साम्राज्य की स्थापना हेतु भगवान द्वारा दिए गए मौके के रूप में स्वीकार किया। उसने अपनी चतुरता और कूटनीति के बल पर भारतीय राजनीतिक परिदृश्य में सम्मानित स्थान प्राप्त किया। लेकिन ब्रिटिशों ने डूप्ले और फ्रांसीसियों के समक्ष चुनौती प्रस्तुत की जो बाद में दोनों शक्तियों के बीच संघर्ष का कारण बना। डूप्ले की सेना ने मार्क्विस दी बुस्सी के नेतृत्व में हैदराबाद और केप कोमोरिन के मध्य के क्षेत्र पर कब्ज़ा कर लिया। 1744 ई में ब्रिटिश अफसर रोबर्ट क्लाइव भारत आया जिसने डूप्ले को पराजित किया। इस पराजय के बाद 1754 ई में डूप्ले को वापस फ्रांस बुला लिया गया।
#कुछ_क्षेत्रों_पर_फ्रांसीसी_प्रतिबन्ध: लाली, जिसे फ्रांसीसी सरकार द्वारा भारत से ब्रिटिशों को बाहर करने लिए भेजा गया था, को प्रारंभ में कुछ सफलता जरुर मिली ,जैसे 1758 ईमें कुद्दलौर जिले के फोर्ट सेंट डेविड पर विजय प्राप्त करना। लेकिन ब्रिटिशों और फ्रांसीसियों के मध्य हुई बांदीवाश की लड़ाई में हैदराबाद क्षेत्र को खो देने के कारण फ्रांसीसियों की कमर टूट गयी और इसी का फायदा उठाकर 1760 ई में ब्रिटिशों ने पोंडिचेरी की घेराबंदी कर दी। 1761 ई में ब्रिटिशों ने पोंडिचेरी को नष्ट कर दिया और अंततः फ्रांसीसी दक्षिण भारत पर पकड़ खो बैठे । बाद में 1763 ई में ब्रिटिशों के साथ हुई शान्ति-संधि की शर्तों के अधीन 1765 ई में पोंडिचेरी को फ्रांसीसियों को लौटा दिया । 1962 ई में भारत और फ्रांस के मध्य हुई एक संधि के तहत भारत में स्थित फ्रांसीसी क्षेत्रों को वैधानिक रूप से पुनः भारत में मिला लिया गया
Summary of the Indian national movement
भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन का सारांश
यह देखा गया है कि भारत में स्वतंत्रता संघर्ष कई राजनीतिक, सामाजिक– सांस्कृतिक और आर्थिक कारकों के श्रृंखला का मेल था जिसने राष्ट्रवाद को बढ़ाने का काम किया।
28 दिसंबर 1885 को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (आईएनसी) का गठन गोकुलदास तेजपाल संस्कृत स्कूल, बॉम्बे में किया गया। इसकी अध्यक्षता डब्ल्यू.सी. बैनर्जी ने की थी और इसमें 72 प्रतिनिधियों ने भाग लिया था। ए.ओ. ह्यूम ने आईएनसी के गठन में अहम भूमिका निभाई थी और इनका उद्देश्य था ब्रिटिश सरकार को सेफ्टी वॉल्व प्रदान करना।
ए.ओ. ह्यूम ने आईएनसी के पहले महासचिव के तौर पर काम किया।
कांग्रेस का मुख्य उद्देश्य भारतीय युवाओं को राजनीतिक आंदोलन में प्रशिक्षित करना और देश में जनता की राय बनाना था। इसके लिए इन्होंने वार्षिक सत्र पद्धति को अपनाया जहां वे समस्याओं पर चर्चा करते थे और संकल्प पारित करते थे।
भारतीय राष्ट्रवाद का पहला या आरंभिक चरण मध्यम दर्जे (नरमदल) का चरण (1885-1905) भी कहलाता है। नरमदल के नेता थे, डब्ल्यू.सी. बनर्जी, गोपाल कृष्ण गोखले, आर.सी. दत्ता, फीरोजशाह मेहता, जॉर्ज यूल आदि
नरमपंथी नेताओं को ब्रिटिश सरकार में पूर्ण विश्वास था और उन्होंने पीपीपी मार्ग यानि विरोध, प्रार्थना और याचिका, को अपनाया था।
काम के नरमपंथी तरीकों से मोहभंग होने के कारण, 1892 के बाद कांग्रेस मेंचरमपंथ विकसित होने लगा। चरमपंथी नेता थे– लाला लाजपत राय, बाल गंगाधर तिलक, बिपिनचंद्र पाल और अरबिंदो घोष। पीपीपी मार्ग के बजाए इन्होंने आत्म– निर्भरता, रचनात्मक कार्य और स्वदेशी पर जोर दिया।
प्रशासनिक सुविधा के लिए लॉर्ड कर्जन द्वारा बंगाल विभाजन (1905) की घोषणा के बाद, 1905 में स्वदेशी और बहिष्कार संकल्प पारित किया गया था।
स्वदेशी आंदोलन के दौरान कांग्रेस के सत्रः
1905 – बनारस में कांग्रेस सत्र। गोपाल कृष्ण गोखले ने अध्यक्षता की।
1906– कलकत्ता में कांग्रेस सत्र। दादाभाई नैरोजी ने अध्यक्षता की।
1907– ताप्ती नदी के किनारे सूरत में कांग्रेस का सत्र। फिरोजशाह मेहता ने अध्यक्षता की जिसमें नरमपंथी और चरमपंथियों के बीच मतभेदों की वजह से कांग्रेस में विभाजन हो गया।
आगा खान III और मोहसिन मुल्क द्वारा 1906 में मुस्लिम लीग का गठन किया गया।
1909 के मॉर्ले– मिंटो सुधार अधिनियम द्वारा अलग निर्वाचन मंडल प्रस्तुत किया गया था।
लाला हरदयाल ने 1913 में गदर आंदोलन शुरु किया था और कोटलैंड में 1 नवंबर 1913 को गदर पार्टी की स्थापना की थी। इसका मुख्यालय सैन फ्रांसिस्को के युगांतर आश्रम में था और गदर पत्रिका का प्रकाशन शुरु किया गया था।
कोमागाटा मारू घटना सितंबर 1914 में हुई थी और इसके लिए भारतीयों ने शोर कमिटि नाम से एक समिति बनाई थी जो यात्रियों की कानूनी लड़ाई लड़ती थी।
1914 में पहला विश्व युद्ध आरंभ हुआ था।
अप्रैल 1916 में तिलक ने होम रूल आंदोलन की शुरुआत की थी। इसका मुख्यालय पूना में था और इसमें स्वराज की मांग की गई थी।
सितंबर 1916 में एनीबेसेंट ने होम रूल आंदोलन शुरु किया और इसका मुख्यालय मद्रास के करीब अडियार में था।
वर्ष 1916 में हुए कांग्रेस के लखनउ अधिवेशन की अध्यक्षता अम्बिका चरण मौजूमदार (नरमपंथी नेता) ने की थी जहां चरमपंथी और नरमपंथी दोनों प्रकार के नेता एक जुट हुए थे।
भारत सरकार अधिनियम 1919 या मोंटागू– चेम्सफोर्ड रिफॉर्म एक्ट को भारत में जिम्मेदार सरकार की स्थापना के लिए पारित किया गया था।
9 जनवरी 1915 को गांधी जी 46 वर्ष की उम्र में दक्षिण अफ्रीका से भारत वापस आए थे।
1916 में गांधी जी ने सत्य और अहिंसा के विचार के प्रचार के लिए अहमदाबाद (गुजरात) में साबरमती आश्रम की स्थापना की।
चंपारण सत्याग्रह– 1917
खेड़ा सत्याग्रह– 1917
अहमदाबाद मिल हड़ताल– 1918
रॉलेक्ट एक्ट सत्याग्रह– फरवरी, 1919
गांधी जी ने फरवरी, 1919 में सत्याग्रह सभा की स्थापना की। इस आंदोलन में छात्र, मध्यम वर्ग, मजदूर और पूंजीपतियों ने हिस्सा लिया और संगठन के तौर पर कांग्रेस कहीं नहीं थी। यह गांधी जी का पहला जन आंदोलन था।
जलियांवाला बाग नरसंहार – 13 अप्रैल 1919। 13 अप्रैल 1919 को लोग अमृतसर के जलियांवाला बाग में सैफुद्दीन किचलू और सत्यपाल की गिरफ्तारी का विरोध करने के लिए इक्ट्ठा हुए थे।
1 अगस्त 1920 को खिलाफत समिति ने तीन मुद्दों– पंजाब में हुई बेइंसाफी, खिलाफत का मुद्दा और स्वराज की मांग, पर असहयोग आंदोलन की शुरुआत की।
इसके बाद 1920 में असहयोग – आंदोलन की शुरुआत हुई।
अक्टूबर 1920 में एन.एम. जोशी, राय चौधरी ने बॉम्बे में अखिल भारतीय व्यापार संघ कांग्रेस की स्थापना की। अध्यक्षता लाला लाजपत राय ने की थी।
अकाली आंदोलन 1920 में शुरु हुआ था।
वर्ष 1925 में एसजीपीसी (शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमिटि) का गठन हुआ था।
सी.आर दास और मोतिलाल नेहरू ने कांग्रेस खिलाफत स्वराज पार्टी का गठन किया था। यह कांग्रेस में दूसरे विभाजन के नाम से भी जाना जाता है।
वर्ष 1927 में, श्रमिक और किसान पार्टी (डब्ल्यूपीपी) का गठन एस.एस. मिराजकर, के. एन. जुगलेकर और एस. वी. घाटे ने बॉम्बे में किया था।
वर्ष 1924 में, एच.आर.ए. (हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन) का कानपुर में गठन हुआ था। सी.एस आजाद, सचिन सान्याल और रामप्रसाद बिस्मिल इसके सदस्य थे।
वर्ष 1929 में, एचएसआरए ( हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन) का फिरोजशाह कोटला दिल्ली में गठन हुआ। भगत सिंह एचएसआरए में शामिल हुए।
9 अगस्त 1925 को, काकोरी रेल डकैती हुई, इस षड़यंत्र में राम प्रसाद बिस्मिल, राजेन्द्र लाहिड़ी, रौशन लाल और अशफाकुल्लाह खान को फांसी की सजा दी गई।
23 मार्च 1931 को भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को लाहौर षड़यंत्र मामले में फांसी की सजा दी गई।
8 नवंबर 1927 को स्टेनली बाल्डविन के तहत ब्रिटिश कंजर्वेटिव सरकार द्वारा साइमन कमिशन बनाया गया था।
कमिशन का गठन 1919 के सुधार अधिनियम के बाद देश में सरकार की कार्य प्रणाली की जांच करने के लिए किया गया था।
नेहरू रिपोर्ट– 1928, राष्ट्र का दर्जा, सार्वभौमिक व्यस्क मताधिकार आदि के लिए।
जिन्ना का 14 सूत्री कार्यक्रम– 31 मार्च 1929
आईएनसी का 1929 में हुआ लाहौर अधिवेशन, अध्यक्षता जवाहरलाल नेहरू ने की। इसमें पूर्ण स्वराज का संकल्प कांग्रेस द्वारा पारित किया गया और गांधी जी के नेतृत्व में सविनय अवज्ञा आंदोलन करने का फैसला किया गया।
26 जनवरी 1930 को पहली बार स्वतंत्रता दिवस मनाया गया।
दांडी मार्च के साथ सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरु किया गया था। 12 मार्च से 6 अप्रैल 1930 तक गांधी जी ने अपने 78 अनुयायियों के साथ साबरमती आश्रम से दांडी तक की यात्रा की और 6 अप्रैल 1930 को नमक बनाकर नमक कानून को तोड़ा।
12 नवंबर 1930 को पहला गोलमेज सम्मेलन आयोजित किया गया था।
5 मार्च 1931 को गांधी – इरविन समझौते पर हस्ताक्षर।
23 मार्च 1931 को भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव का ट्रायल।
29 मार्च 1931, आईएनसी का कराची अधिवेशन, वल्लभ भाई पटेल ने अध्यक्षता की। इस अधिवेशन में पहली बार मौलिक अधिकारों और आर्थिक नीति का संकल्प पारित किया गया।
7 सितंबर 1931 को दूसरा गोलमेज सम्मेलन हुआ जिसमें कांग्रेस की तरफ से गांधी जी ने हिस्सा लिया।
16 अगस्त 1932 को सांप्रदायिक या रामसे मैकडोनाल्ड पुरस्कार की घोषणा हुई।
26 सितंबर 1932, पूना पैक्ट पर हस्ताक्षर किए गए।
नवंबर 1932 में तीसरा गोलमेज सम्मेलन आयोजित किया गया था।
1935 में, भारत सरकार अधिनियम को अखिल भारतीय संघ, प्रांतीय स्वायत्तता और केंद्र में द्वैध शासन पद्धित होनी चाहिए, को बनाने के लिए पारित किया गया था।
भारत छोड़ो आंदोलन की ओर
महत्वपूर्ण कांग्रेस सत्रः
1936 – लखनउ (उ.प्र.)– अध्यक्षता – जे.एल.नेहरू
1937 – फैजपुर (महाराष्ट्र)– अध्यक्षता– जे.एल.नेहरू (गांव में आयोजित पहला अधिवेशन)
1938 –हरीपुरा (गुजरात)– एस.सी.बोस ने अध्यक्षता की
1939 –त्रिपुरी (एम.पी.)– एस.सी. बोस ने अध्यक्षता की
सितंबर 1939 में द्वितीय विश्व युद्ध छिड़ा और भारत की सहमति के बिना उसका सहयोगी घोषित कर दिया गया ।
1939 में एस. सी. बोस ने फॉर्वाड ब्लॉक की स्थापना की। यह एक वाम पार्टी (left party) थी।
10 अगस्त 1940– द्वितीय विश्व युद्ध में भारतीयों के समर्थन पाने के लिए लॉर्ड लिनलिथगो वायसराय ने अगस्त प्रस्ताव की घोषणा की थी।
11 मार्च 1942 को प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल ने भारतीयों के संवैधानिक गतिरोध और समस्याओं का समाधान ढूंढ़ने के लिए सर स्टाफोर्ड क्रिप्स की अध्यक्षता में मिशन भेजने की घोषणा की।
क्रिप्स मिशन की असफलता के साथ 1942 में भारतीय नेताओं द्वारा भारत छोड़ो आंदोलन की शुरुआत हुई और भारत छोड़ों का संकल्प गांधी जी ने तैयार किया। गांधी जी ने करो या मरो का नारा दिया था।
1942 में कैप्टन मोहन सिंह और निरंजन गिल द्वारा सिंगापुर में इंडियन नेशनल आर्मी की स्थापना की गई। एस.सी. बोस ने सिंगापुर और रंगूनन के दूसरे मुख्यालय का पदभार संभाला।
21 अक्टूबर 1943 को– एस.सी. बोस के अधीन सिंगापुर में आजाद हिंद सरकार बनी। इसमें एक महिला रेजिमेंट भी थी जिसका नाम रानी झांसी रखा गया था।
1945 में, द्वितीय विश्व युद्ध समाप्त हुआ।
1945 में, राजनीतिक गतिरोध को दूर करने के लिए लॉर्ड वावेल द्वारा वावेल योजना या शिमला सम्मेलन का प्रस्ताव किया गया था।
1946 में, पीएम क्लिमेंट एट्टली द्वारा कैबिनेट मिशन प्लान की घोषणा।
2 सितंबर 1946 को, जे.एल. नेहरू के नेतृत्व में अंतरिम सरकार का गठन हुआ।
मार्च 1947 – लॉर्ड माउंटबेटन को सत्ता के हस्तांतरण के लिए रास्ता ढूंढ़ने के उद्देश्य के साथ भारत भेजा गया। इसे बालकन योजना के नाम से भी जाना जाता है।
3 जून को इंडिपेंडेस ऑफ इंडिया एक्ट 1947 पारित किया गया जिसके द्वारा सत्ता को दो प्रभुत्व राष्ट्रों – भारत और पाकिस्तान, को सौंपा गया।
#आधुनिक_भारत_का_इतिहास :
#बक्सर_की_लड़ाई
बक्सर का युद्ध बंगाल के नवाब मीर कासिम,अवध के नवाब सुजाउद्दौला व मुग़ल शासक शाह आलम द्वितीय की संयुक्त सेना और अंग्रेजों के मध्य लड़ा गया था | यही वह निर्णायक युद्ध था जिसने अंग्रेजों को अगले दो सौ वर्षों के लिए भारत के शासक के रूप में स्थापित कर दिया| यह युद्ध अंग्रेजों द्वारा फरमान और दस्तक के दुरुपयोग और उनकी विस्तारवादी व्यापारिक आकांक्षाओं का परिणाम था|
22 अक्टूबर,1764 ई. को लड़े गए बक्सर के युद्ध में संयुक्त भारतीय सेना की पराजय हुई| बक्सर का युद्ध भारतीय इतिहास की युगांतरकारी घटना साबित हुई |1765 ई. में सुजाउद्दौला और शाह आलम ने इलाहाबाद में कंपनी गवर्नर क्लाइव के साथ संधि पर हस्ताक्षर किये| इस संधि के तहत,कंपनी को बंगाल,बिहार और उड़ीसा के दीवानी अधिकार प्रदान कर दिए गए, जिसने कंपनी को इन क्षेत्रों से राजस्व वसूली के लिए अधिकृत कर दिया|कंपनी ने अवध के नवाब से कड़ा और इलाहाबाद के क्षेत्र लेकर मुग़ल शासक को सौंप दिए,जोकि अब इलाहाबाद में अंग्रेजी सेना के संरक्षण में रहने लगा था|कंपनी ने मुगल शासक को प्रतिवर्ष 26 लाख रुपये के भुगतान का वादा किया लेकिन थोड़े समय बाद ही कंपनी द्वारा इसे बंद कर दिया गया|कंपनी ने नवाब को किसी भी आक्रमण के विरुद्ध सैन्य सहायता प्रदान करने का वादा किया लेकिन इसके लिए नवाब को भुगतान करना होगा|अतः अवध का नवाब कंपनी पर निर्भर हो गया| इसी बीच मीर जाफर को दोबारा बंगाल का नवाब बना दिया गया| उसकी मृत्यु के बाद उसके पुत्र को नवाब की गद्दी पर बैठाया गया| कंपनी के अफसरों ने नवाब से धन ऐंठ कर व्यक्तिगत रूप से काफी लाभ कमाया|
#युद्ध_के_लिए_जिम्मेदार_घटनाएँ
ब्रिटिशों द्वारा दस्तक और फरमान का दुरुपयोग,जिसने मीर कासिम के प्राधिकार और प्रभुसत्ता को चुनौती दी
ब्रिटिशों के आतंरिक व्यापार पर सभी तरह के शुल्कों की समाप्ति
कंपनी के कर्मचारियों का दुर्व्यवहार : उन्होंने भारतीय दस्तकारों, किसानोंऔर व्यापारियों को अपना माल सस्ते में बेचने के लिए बाध्य किया और रिश्वत व उपहार लेने की परंपरा की भी शुरुआत कर दी|
ब्रिटिशों का लुटेरों जैसा व्यवहार जिसने न केवल व्यापार के नियमों का उल्लंघन किया बल्कि नवाब के प्राधिकार को भी चुनौती दी|
#निष्कर्ष
बक्सर का युद्ध भारतीय इतिहास की युगांतरकारी घटना साबित हुई | ब्रिटिशों की रूचि तीन तटीय क्षेत्रों कलकत्ता ,बम्बई और मद्रास में अधिक थी| अंग्रेजों व फ्रांसीसियों के बीच लड़े गए कर्नाटक युद्ध ,प्लासी के युद्ध और बक्सर के युद्ध ने भारत में ब्रिटिश सफलता के दौर को प्रारंभ कर दिया|1765 ई. तक ब्रिटिश बंगाल,बिहार और उड़ीसा के वास्तविक शासक बन गए| अवध और कर्नाटक के नवाब(जिसे उन्होंने ही नवाब बनाया था) उन पर निर्भर हो गए|
#आधुनिक_भारत_का_इतिहास :
#अंग्रेज_उपनिवेश_की_स्थापना
अंग्रेजों का भारत आगमन और ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना का प्रमुख कारण पुर्तगाली व्यापारियों द्वारा भारत में अपनी वस्तुओं को बेचने से होने वाला अत्यधिक लाभ था जिसने ब्रिटिश व्यापारियों को भारत के साथ व्यापार करने के लिए प्रोत्साहित किया । अतः पुर्तगाली व्यापारियों की व्यापारिक सफलता से प्रेरित होकर अंग्रेज व्यापारियों के एक समूह –मर्चेंट एडवेंचरर्स ने 1599 ई. में ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना की । महारानी स्वयं भी ईस्ट इंडिया कंपनी की साझेदार/शेयरहोल्डर थीं|
#पश्चिम_और_दक्षिण_में_विस्तार
बाद में 1608 ई. में ईस्ट इंडिया कंपनी ने शाही संरक्षण प्राप्त करने के लिए कैप्टन हॉकिन्स को मुग़ल शासक जहाँगीर के दरबार में भेजा । वह भारत के पश्चिमी तट पर अपनी फैक्ट्रियां स्थापित करने हेतु शाही परमिट प्राप्त करने में सफल रहा। 1605 ई. में इंग्लैंड के राजा जेम्स प्रथम ने सर थॉमस रो को कंपनी के लिए और अधिक छूटें प्राप्त करने के उद्देश्य से जहाँगीर के दरबार में भेजा। रो बहुत कुटनीतिज्ञ था और अपनी कूटनीति के बल पर वह पूरे मुग़ल क्षेत्र पर स्वन्त्रतापूर्वक व्यापार करने हेतु शाही चार्टर प्राप्त करने में सफल रहा । बाद के वर्षों में ईस्ट इंडिया कंपनी अपने आधार को विस्तृत करती गयी । कंपनी को पुर्तगाली, डच और फ़्रांसीसी व्यापारियों द्वारा प्रस्तुत चुनौतियों का भी सामना करना पड़ा। निर्णायक क्षण तब आया जब 1662 ई. में इंग्लैंड के चार्ल्स द्वितीय का विवाह पुर्तगाली राजकुमारी कैथरीन से हुआ और इंग्लैंड को बम्बई. दहेज़ के रूप में प्राप्त हुआ । इंग्लैंड द्वारा 1668 ई. में बम्बई. को दस पौंड प्रतिवर्ष की दर पर ईस्ट इंडिया कंपनी को सौंप दिया गया। कंपनी ने अपने पश्चिमी तट पर अपना व्यापारिक मुख्यालय सूरत से बम्बई. स्थानांतरित कर दिया। 1639 ई. में ईस्ट इंडिया कंपनी ने स्थानीय राजा से मद्रास को पट्टे पर प्राप्त कर लिया और वहां पर अपनी फैक्ट्री की सुरक्षा हेतु फोर्ट सेंट जॉर्ज का निर्माण कराया । बाद में मद्रास कंपनी का दक्षिण भारतीय मुख्यालय बन गया।
#पूर्व_में_कंपनी_का_विस्तार
दक्षिण एवं पश्चिमी भारत में सफलतापूर्वक अपनी फैक्ट्रियां स्थापित करने के बाद कंपनी ने पूर्व की ओर ध्यान केन्द्रित किया । कम्पनी ने पूर्व में अपना ध्यान मुख्य रूप से मुग़ल प्रान्त बंगाल पर लगाया। बंगाल के गवर्नर सुजाउद्दीन ने 1651 ई. में ईस्ट इंडिया कंपनी को बंगाल में अपनी व्यापारिक गतिविधियां चलने हेतु अनुमति प्रदान कर दी। हुगली में एक फैक्ट्री स्थापित की गयी और 1668 ई. में फैक्ट्री स्थापित करने हेतु सुतानती,गोविंदपुर व कोलकाता नाम के तीन गावों को खरीद लिया गया। बाद में फैक्ट्री की सुरक्षा के लिए उसके चारों ओर फोर्ट विलियम का निर्माण कराया गया। इसी स्थान पर वर्त्तमान कोलकाता शहर का विकास हुआ|
#फर्रुख्सियर_द्वारा_जारी_शाही_फरमान
मुग़ल शासक फर्रुख्सियर ने 1717 ई. में शाही फरमान जारी कर कंपनी को बंगाल में कुछ व्यापारिक विशेषाधिकार प्रदान कर दिए ,जिसमे बगैर कर अदा किये बंगाल में ब्रिटिश वस्तुओं के आयात-निर्यात की अनुमति भी शामिल थी। इस फरमान द्वारा कंपनी को वस्तुओं की आवाजाही हेतु दस्तक (पास ) जारी करने का अधिकार भी प्रदान कर दिया गया।
व्यापार एवं वाणिज्य के क्षेत्र में मजबूती से स्थापित होने के बाद कंपनी ने भारत में सत्ता प्राप्त करने के सपने देखना शुरू कर दिया|
#भारत_में_ब्रिटिश_सत्ता_के_उदय_में_सहायक_प्रमुख #कारक
प्रमुख कारण,जिन्होनें ब्रिटिशों को लगभग दो सौ वर्षों तक भारत पर शासन करने का अवसर प्रदान किया,निम्नलिखित है-
1707 ई. में औरंगजेब की मृत्यु के साथ ही भारत में मुग़ल साम्राज्य का पतन की ओर अग्रसर होना तथा भारत में मुगलों जैसी किसी केंद्रीय शक्ति का उपस्थित न होना |
तत्कालीन भारतीय शासकों में राजनीतिक एकजुटता का आभाव था और वे प्रायः अपनी सुरक्षा हेतु अंग्रेजों की मदद पर निर्भर थे । ऐसे में अंग्रेजों ने उनकी कमजोरी का फायदा उठाया और अपने हित के लिए राज्यों के आतंरिक मामलों में हस्तक्षेप करने लगे|
#यूरोपीय_शक्तियों_के_बीच_संघर्ष
#भारत_में_प्रमुख_यूरोपीय_शक्तियाँ:पुर्तगाली,डच ,
अंग्रेज और फ्रांसीसी चार प्रमुख यूरोपीय शक्तियां थी जो व्यापारिक संबंधों की स्थापना हेतु भारत आये लेकिन बाद में उन्होंने यहाँ अपने उपनिवेश स्थापित किये। इन यूरोपीय शक्तियों के बीच वाणिज्यिक और राजनीतिक प्रभुता हेतु छोटे-मोटे संघर्ष होते रहते थे लेकिन अंत में ब्रिटिश सबसे ताकतवर शक्ति के रूप में उभरे जिन्होंने अन्य तीनों शक्तियों को पीछे छोड़ लगभग दो सौ सालों तक भारत पर शासन किया। भारत में सबसे पहले पुर्तगाली आये जिन्होनें अपनी फैक्ट्रियां और औपनिवेशिक बस्तियां स्थापित की । डचों के साथ उन्हें कड़ी प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ा लेकिन डच उनके सामने कमजोर साबित हुए और पुर्तगाली व ब्रिटिशों की प्रतिस्पर्धा के सामने टिक न सकने के कारण डच वापस चले गए|
#मुख्य_प्रतिस्पर्धी: ब्रिटिशों को भारत में प्रवेश करने के समय से ही डच,पुर्तगाली और फ़्रांसीसी शक्तियों से प्रतिस्पर्धा करनी पड़ी थी लेकिन पुर्तगाली व डच प्रतिस्पर्धी न तो अधिक गंभीर थे और न ही अधिक सक्षम । अतः ब्रिटिशों के सबसे मजबूत प्रतिद्वंदी फ्रांसीसी थे,जो भारत में सबसे बाद में आये थे। ब्रिटिशों द्वारा भारत के व्यापार एवं वाणिज्य पर पूर्ण एकाधिकार प्राप्त करने के प्रयासों ने फ्रांसीसियों के साथ उनके संघर्ष को जन्म दिया|1744 ई. से लेकर 1763 ई. के मध्य के 20 वर्षों में वाणिज्यिक व क्षेत्रीय नियंत्रण के उद्देश्यों को लेकर ब्रिटिशों व फ्रांसीसियों के मध्य तीन बड़े युद्ध लड़ें गए। अंतिम और निर्णायक युद्ध 22 जनवरी, 1763 ई. को बांडीवाश में लड़ा गया था|
#कर्नाटक_युद्ध: कर्नाटक और हैदराबाद दोनों राज्यों में उत्तराधिकार को लेकर विवाद था जिसने ब्रिटिश और फ्रांसीसी शक्तियों के लिए मध्यस्थ की भूमिका निभाने के द्वार खोल दिए । इन दोनों यूरोपीय शक्तियों अपनी आपसी शत्रुता की आड़ में कर्नाटक और हैदराबाद के उत्तराधिकार हेतु अलग-अलग भारतीय दावेदारों का समर्थन किया । उत्तराधिकार के इस संघर्ष में पोंडिचेरी के गवर्नर डूप्ले के नेतृत्व में फ्रांसीसियों की जीत हुई. और अपने दावेदारों को गद्दी पर बिठाने के एवज में उन्हें उत्तरी सरकार का क्षेत्र प्राप्त हुआ जिसे फ्रांसीसी अफसर बुस्सी ने सात सालों तक नियंत्रित किया। लेकिन फ्रांसीसियों की यह जीत बहुत कम समय की थी क्योकि 1751 ई. में रोबर्ट क्लाइव के नेतृत्व में ब्रिटिश शक्ति ने युद्ध की परिस्थितियाँ बदल दी थी। रोबर्ट क्लाइव के नेतृत्व में ब्रिटिश शक्ति ने एक साल बाद ही उत्तराधिकार हेतु फ्रांसीसी समर्थित दावेदारों को पराजित कर दिया|अंततः फ्रांसीसियों को ब्रिटिशों के साथ त्रिचुरापल्ली की संधि करनी पड़ी|
अगले सात वर्षीय युद्ध (1756-1763 ई.।) अर्थात तृतीय कर्नाटक युद्ध में दोनों यूरोपीय शक्तियों की शत्रुता फिर से सामने आ गयी । इस युद्ध की शुरुआत फ्रांसीसी सेनापति काउंट दे लाली द्वारा मद्रास पर आक्रमण के साथ हुई. थी |लाली को ब्रिटिश सेनापति सर आयरकूट द्वारा हरा दिया गया|1761 ई. में ब्रिटिशों ने पोंडिचेरी पर कब्ज़ा कर लिया और लाली को जिंजी और कराइकल के समर्पण हेतु बाध्य कर दिया|अतः फ्रांसीसी बांडीवाश में लडे गये तीसरे कर्नाटक युद्ध(1760 ई.) में हार गए और बाद में यूरोप में उन्हें ब्रिटेन के साथ पेरिस की संधि करनी पड़ी|
#ब्रिटिश_सर्वोच्चता_की_स्थापना
कर्नाटक के युद्ध में प्राप्त विजय ने भारत में ब्रिटिश सर्वोच्चता की स्थापना हेतु जमीन तैयार कर दी थी और साथ ही फ्रांसीसियों के भारतीय साम्राज्य के सपने को चकनाचूर कर दिया था। इस जीत के बाद भारत में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी का कोई. यूरोपीय प्रतिद्वंदी नहीं बचा था। ब्रिटिशों को सर आयरकूट,मेजर स्ट्रिंगर लॉरेंस ,रोबर्ट क्लाइव जैसे कुशल नेतृत्वकर्ताओं के साथ साथ एक मजबूत नौसैनिक शक्ति होने का भी लाभ मिला। इन कारकों के कारण ही वे भारत के विश्वसनीय शासक बन सके|
#हड़प्पा_सभ्यता :
#कला_और_वास्तुकला_एक_नज़र_में
भारतीय कला और वास्तुकला विकास पर निर्भर करती है और इसके पीछे अपनी एक कहानी है | जैसे की महान साम्राज्यों का उद्धभव और पतन , शासको का आक्रमण , विभिन्न शैल्लियों का संगम और ये सब कला और वास्तुकला को ही तो जन्म देते है |
पश्चिम भारत के विशाल भाग में, तीसरी शताब्दी के इसा पूर्व में सिन्धु नदी के तट पर एक समुद्र सभ्यता का प्रादुर्भाव हुआ जिसे हड़प्पा या सिन्धु घाटी सभ्यता के रूप में जाना जाने लगा |यहा की विशिष्ट सभ्यता, कला अनेकानेक मूर्तियां, मोहरें, मृदभांड और आभूषणों से पता चलता है | उधारण के लिए मोहनजोदड़ों और हड़प्पा जो कि नगरीय सभ्यता है|
#सिन्धु_घाटी_सभ्यता_के_महत्वपूर्ण_स्थल_और #पुरातात्विक_प्राप्तियां_इस_प्रकार_है|
- धौलावीरा (गुजरात) : विशाल जलाशय , स्टेडियम , बांध और तटबंध आदि |
- लोथल (गुजरात) : इसे सिन्धु घाटी सभ्यता का मानचेस्टर कहाँ जाता है| धन की भूसी , घोड़े और जहाज की टेराकोटा आक्रति आदि|
- हड़प्पा (वर्तमान पाकिस्तान) : मातृदेवी की मूर्ति , गेहूं और जौ, पासा ,ताम्र तुला और दर्पण , लाल बलुआ पत्थर आदि |
- मोहनजोदड़ों (वर्तमान पाकिस्तान) : वृहत स्नानागार, वृहत अन्नागार , दाढ़ी वाले पुजारी की मूर्ति आदि |
- कालीबंगा (राजस्थान) : चूड़ी कारखाना , अलंकृत ईंटें आदि |
- बनावली (हरियाणा) : खिलौना हल , जौ, अंडाकार की बस्ती आदि |
- सुर्कोटदा (गुजरात) : घोड़े की हड्डियों का पहला वास्तविक अवशेष |
- रोपड़ (पंजाब)
- राखीगढ़ी (हरयाणा)
- अलमगीरपुर (उत्तर प्रदेश)
#हड़प्पा_सभ्यता_की_वास्तुकला_के_बारे_में :
हड़प्पा और मोहनजोदड़ों में जो अवशेष पाए गए है वो नगर नियोजन के बारें में बताते है | जैसे कि वहा के नगर अयातकार ग्रिड पैटर्न पर आधारित थे | सड़कें उत्तर–दक्षिण और पूर्व–पश्चिम दिशा में जाती थीं और एक-दुसरे को समकोण पर काटती थी | नगर को अनेक खण्डों में विभाजित करती थी बड़ी सड़कें और छोटी सड़कें अलग-अलग घरों और बहुमंजिला इमारतों को जोड़ने में|
उत्खनन स्थलों में मुख्य रूप से तीन भवन पाए गए है – निवास ग्रह , सार्वजनिक भवन और सार्वजानिक स्नानागार |हड़प्पा के लोग निर्माण के लिए पकी हुई ईंटों का प्रयोग करते थे और इन ईंटों की परत बिछाकर उनको गारे से जोड़ा जाता था | नगर दो भागों में विभाजित था – गढ़ और निचला नगर | पश्चिमी भाग में अन्नागार , प्रशासनिक भवन , स्थम्भों वालें भवन और आंगन पाए गए है | अन्नागारों को वायुसंचार वाहिकाओं और उचें चबूतरों के साथ डिजाईन किया गया था |
सार्वजनिक स्नानागारों का प्रचलन हड़प्पा नगरों की एक प्रमुख विशेषता थी और इसका सबसे अच्छा उधाहरण मोहनजोदड़ों का वृहत स्नानागार है |
हड़प्पा सभ्यता की सबसे प्रमुख विशेषता उन्नत जल निकास व्यवस्था थी | हर घर से निकलने वाली छोटी नालियां मुख्य सड़क के साथ –साथ बड़ी नालियों से जुड़ी थी और साफ –सफाई का ध्यान रखते हुए इन्हें ढका गया था और तो और थोड़ी –थोड़ी दूरी पर मलकुंड (सिसपिट) बनाएं गए थे|
#हड़प्पा_सभ्यता_की_मूर्तियां :
यहाँ से सबसे ज्यादा मोहरें, कास्यं मूर्तियां और मृदभांड प्राप्त हुए है |
मोहरें : पुरातत्वविदों को उत्खन्न वाली जगहों पर अलग –अलग प्रकार की मोहरें मिली है जैसे कि वर्गाकार, त्रिकोणीय, आयातकर आदि | और इन मोहरों को बनाने में मुलायम पत्थर स्टेटाइट का सबसे ज्यादा प्रयोग किया जाता था | अधिकांश मोहरों पर चित्राक्षर लिपि (पिक्टोग्राफिक स्क्रिप्ट) में मुद्रलेख भी है, पर इन्हें अभी तक पढ़ा नही जा सका है | मुद्रालेख को दाई से बाई और लिखा गया है | इन पर कई पशुओं की आक्रति भी पाई गई है जैसे बैल, गेंडा, हाथी आदि पर गाय का कोई साक्ष्य नही मिला है |मोहरों का मुख्य रूप से वाणिज्यिक प्रयोजनों के लिए प्रयोग किया जाता था और हो सकता है कि इनका प्रयोग शैक्षणिक उद्देश्यों के लिए भी किया जाता होगा | उदाहरण के तौर पर पशुपति की मोहर , यूनिकॉर्न वाली मोहर आदि |
कास्य की मूर्तियां : व्यापक स्तर पर देखे तो हडप्पा सभ्यता कासें की ढलाई की प्रथा की साक्षी थी | जैसे कि मोहनजोदड़ों की कासें की नर्तकी, कालीबंगा का कांसे का बैल आदि |
टेराकोटा : पकी हुई मिट्टी से टेराकोटा की मूर्तियां बनाई जाती थी| अधिकांश्त: ऐसी मूर्तियां गुजरात और कालीबंगा के स्थलों से मिली है | उदाहरण मातृदेवी, सींग वाले देवता का मुखौटा आदि |
मृदभांड : जो मृदभांड उत्खन्न स्थल से मिले है उनको दो भागों में वर्गीक्रत किया जा सकता है – सादे मृदभांड और चित्रित मृदभांड| चित्रित मृदभांड को लाल व काले मृदभांडों के रूप मे भी जाना जाता है| वृक्ष, पक्षी, पशुओं की आक्रतियाँ और ज्यामितीय प्रतिरूप चित्रों के आवर्ती विषय थे |
आभूषण : हड़प्पा के लोग मूल्यवान धातुओं और रत्नों से लेकर हड्डियों और यहाँ तक कि पकी हुई मिट्टी जैसी सामग्री का इस्तेमाल किया करते थे आभूषण बनाने के लिए | उदाहरण अंगूठियाँ, बाजूबंद इत्यादि आभूषण पुरुष एवम महिलाएं पहनते थे | पर करधनी, झुमके और पायल केवल महिलाएं ही पहनती थी | कर्निलीयन , नीलम , क्वार्टज, स्टेटाइट आदि से बने हुए मनके भी काफी लोकप्रिय थे और बढ़े पैमाने पर इनका निर्माण किया जाता था | इस बात का साक्ष्य चंदहुदड़ों और लोथल में मिले कारखानों से स्पष्ट है| सर्वश्रेष्ठ उदाहरण में दाढ़ी वाले पुजारी की अर्द्ध – प्रतिमा सिन्धु घाटी की सभ्यता से प्राप्त हुई है |
Sanskaar Academy presentation...
*कम्प्यूटर का पितामह – चार्ल्स बैबेज
* ATM (Automated Teller Machine) के आविष्कारक का नाम है- जॉन शेफर्ड बार्नेस (स्कॉटलैंड, इंग्लैंड)।
* वल्र्ड वाइल्ड फंड ( WWF ) के संस्थापक – पीटर स्काट माउंटफोर्ट एवं मैक्स निकोलसन
* इंटरनेट के जनक – विन्टन जी. सर्प
* होम्योपैथी के जनक – सेम्युअल हेनीमैन
* रेड क्रास के संस्थापक – हेनरी डयूनांट
* रूसी क्रांति का जनक – लेनिन
* अमरीका के खोजकर्ता – कोलम्बस (1492)
* पक्की सड़कों को जन्मदाता – जान लंदन
* राष्ट्रसंघ के संस्थापक – बुडरो विल्सन
* मोबाइल फोन के जनक – मार्टिन कूपर
* ब्रेल लिपि के खोजकर्ता – लुई बेल
* फासिस्टवाद के जनक – मुसोलिनी
* प्रत्यक्षवाद के जनक – अगस्त काम्टे
* आधुनिक टुर्की का निर्माता –मुस्तफा कमाल पाशा
* संयुक्त राष्ट्र संघ के संस्थापक – फ्रेकलिन रूजवेल्ट
* डायनामाइट के अविष्कारक – अल्फ्रेड नोबेल
* समाज शास्त्र के जनक – अगस्त काम्टे
* ऐलोपैथी चिकित्सा के जनक – हिप्पोक्रेट्स
* कागज का अविष्कारक – साईलुन
* अमरीकी क्रांति के जन्मदाता – जार्ज वाशिंगटन
* होम्योपैथी के जनक – सेम्युअल हेनीमैन
* www वल्र्ड वाइड वेव के जनक – टिम बनर्स और रॉबर्ट कैल्लिअउ
* टेलीफोन के अविष्कारक – अलेक्जेंडर ग्राहम बेल
* टेलीविजन का अविष्कार – जे. एल. बेयर्ड (John Logie Baird)
* x-किरणों के खोजकर्ता –रोन्ट्जन
* रिवाल्वर के अविष्कारक – कोल्ट
* डाइनामाइट के अविष्कारक – अल्फ्रेड नोबल
* रेबिज के टीके के खोजकर्ता –लुई पाश्चर
* हैजा व टीबी के जीवाणुओं के खोजकर्ता –राबर्ट कोच(1982)
* स्कूटर के अविष्कारक –ब्राड शा
* रडार का अविष्कार – टेलर एवं यंग
* गुरूत्वाकर्षण के खोजकर्ता –न्युटन
* विटामिन ‘डी’ के खोजकर्ता – एफ. जी. हॉपकिंस
* विटामिन ‘सी’ के खोजकर्ता – युजोक्स होल्कट
* विटामिन ‘बी’ के खोजकर्ता – मैकुलन
* विटामिन ‘ए’ के खोजकर्ता – मैकुलन
* विटामिन के खोजकर्ता – फंक
* बैक्टीरिया के खोजकर्ता – ल्यूवेनहॉक
* बिजली के अविष्कारक – बेंजामिन फ्रेंकलिन
* आधुनिक खगोल विज्ञान के अविष्कारक – निकोलस कोपरनिकस
* प्रोटॉन के खोजकर्ता – गोल्डस्टीन
* इलेक्ट्रॉन के खोजकर्ता – जे०जे०थॉमसन
* न्यूट्रॉन के खोजकर्ता-जेम्स चैडविक
* भाप इंजन के खोजकर्ता – जेम्स वाट
* रेल इंजन के खोजकर्ता – जॉर्ज स्टीफेंसन
* रेडियम के खोजकर्ता – मैडम क्यूरी
* दूरबीन के खोजकर्ता – गैलेलियो
* डाइनामाइट के अविष्कारक – अल्फ्रेड नोबल
* डी.एन. ए. संरचना का अविष्कारक –वाटसन व क्रिक
* ऑक्सीजन के खोजकर्ता – जे. प्रिस्टले
* नाइट्रोजन के खोजकर्ता –डेनियल रदरफोर्ड
* थर्मस फ्लास्क के खोजकर्ता – डैवार
* टेली प्रिंटर के खोजकर्ता- इमइल वैनडोट और जॉन जार्ज हलसिक
* टेरीलीन के खोजकर्ता – जे. व्हिलफिल्ड तथा एच. डिक्सन
* टैंक के खोजकर्ता – सर एमेस्ट स्विंग्टन
* ऐरकण्डीशनर के अविष्कारक – विल्स हैवीलैंड कैरियर
* आर्क लैंप के अविष्कारक – डेवी
* थर्मामीटर के अविष्कारक – गैलीलियो गैलिलाई
* ट्रांजिस्टर के अविष्कारक – बार्डीन तथा शोकले
* टाइपराइटर के अविष्कारक – क्रस्टोफर शोलेज और कार्लोस ग्लिडन
* टेपरिकॉर्डर के अविष्कारक – पाउलसेन
* ए. सी. मोटर के अविष्कारक – निकोला टेसला
* ऐरोप्लेन के अविष्कारक – राईटबंधु
* एटॉमिक रिएक्टर के खोजकर्ता – एनरिको फर्मी
* जेट इंजन के खोजकर्ता – सर फ्रैंक व्हिटल
* लिफ्ट के खोजकर्ता – इलिसा ग्राविस ओटिस
* लाउडस्पीकर के खोजकर्ता – होरेस शार्ट
* मलेरिया की चिकित्सा के खोजकर्ता – डॉ. रोनेल्ड रॉस
* क्लोरोफार्म के खोजकर्ता – सर जेम्स हैरिसनt
* ओज़ोन के खोजकर्ता – क्रिस्पियन स्कोनबैन
* हैजे का टिका के खोजकर्ता – राबर्ट कौच
* बेरी- बेरी की चिकित्सा के खोजकर्ता – ओईजकमैन
* चेचक का टिका के खोजकर्ता – एडवर्ड जेनर
* टॉयफाइड के जीवाणु के खोजकर्ता – रोबर्थ
* टी. बी. की चिकित्सा के खोजकर्ता – राबर्ट कौच
* टेरामाइसिन के खोजकर्ता – फिनले
* फाउंटेन पेन की अविष्कारक – एल. ई. वाटरमैन
* ग्लाइडर के खोजकर्ता – जार्ज कैले
* होलोग्राफी के खोजकर्ता – डेनिस गबोर
* लोकोमोटिव के खोजकर्ता – रिचर्ड ट्रेविथिक
* रेडियम के खोजकर्ता – मैरी तथा पियरे क्यूरी
* रेडिओ के खोजकर्ता – जी. मारकोनी
* रेयन के खोजकर्ता – अमेरिकन विस्कोज कंपनी
* सेफ्टी लैम्प के खोजकर्ता – सर हम्फ्री डेली
* सेफ्टी पिन के खोजकर्ता – वाल्टर हण्ट
* सापेक्षता का सिद्धांत का अविष्कारक- अल्बर्ट आइंस्टाइन
* कॉम्पैक्ट डिस्क (सीडी) अविष्कारक – आरसीए
* धुलाई मशीन के अविष्कारक – एल्वा फिशर
* टेप रेकॉर्डर के अविष्कारक – वाल्डेमर पौल्सेन
* प्लास्टिक के खोजकर्ता –अलैक्जेण्डर पार्क्स
* सिलाई मशीन के खोजकर्ता – एलियास होवे
* एसी डॉयनेमो के खोजकर्ता – माइकल फैराडे
* कोका-कोला के खोजकर्ता – जॉन पेम्बर्टन
* डीजल इंजन के खोजकर्ता
* मोटरसाईकल के खोजकर्ता – एडवर्ड बटलर
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Sanskaar academy presentation...
*संविधान संसोधन तालिका*
✍✍✍✍✍ नौवीं अनुसूची को शामिल किया गया।
● दूसरा संशोधन (1952)
→संसद में राज्यों के प्रतिनिधित्व को निर्धारित किया गया।
● सातवां संशोधन (1956)
→ इस संशोधन द्वारा राज्यों का अ, ब, स और द वर्गों में विभाजन समाप्त कर उन्हें 14 राज्यों और 6 केंद्रशासित क्षेत्रों में विभक्त कर दिया गया।
● दसवां संशोधन (1961)
→ दादरा और नगर हवेली को भारतीय संघ में शामिल कर उन्हें संघीय क्षेत्र की स्थिति प्रदान की गई।
● 12वां संशोधन (1962)
→ गोवा, दमन और दीव का भारतीय संघ में एकीकरण किया गया।
● 13वां संशोधन (1962)
→ संविधान में एक नया अनुच्छेद 371 (अ) जोड़ा गया, जिसमें नागालैंड के प्रशासन के लिए कुछ विशेष प्रावधान किए गए। 1दिसंबर, 1963 को नागालैंड को एक राज्य की स्थिति प्रदान कर दी गई।
● 14वां संशोधन (1963)
→ पांडिचेरी को संघ राज्य क्षेत्र के रूप में प्रथम अनुसूची में जोड़ा गया तथा इन संघ राज्य क्षेत्रों (हिमाचल प्रदेश, गोवा, दमन और दीव, पांडिचेरी और मणिपुर) में विधानसभाओं की स्थापना की व्यवस्था की गई।
● 21वां संशोधन (1967)
→ आठवीं अनुसूची में ‘सिंधी’ भाषा को जोड़ा गया।
● 22वां संशोधन (1968)
→ संसद को मेघालय को एक स्वतंत्र राज्य के रूप में स्थापित करने तथा उसके लिए विधानमंडल और मंत्रिपरिषद का उपबंध करने की शक्ति प्रदान की गई।
● 24वां संशोधन (1971)
→ संसद को मौलिक अधिकारों सहित संविधान के किसी भी भाग में संशोधन का अधिकार दिया गया।
● 27वां संशोधन (1971)
—उत्तरी-पूर्वी क्षेत्र के पाँच राज्यों तत्कालीन असम, नागालैंड, मेघालय, मणिपुर व त्रिपुरा तथा दो संघीय क्षेत्रों मिजोरम और अरुणालच प्रदेश का गठन किया गया तथा इनमें समन्वय और सहयोग के लिए एक ‘पूर्वोत्तर सीमांत परिषद्’ की स्थापना की गई।
● 31वां संशोधन (1974)
→लोकसभा की अधिकतम सदंस्य संख्या 547 निश्चित की गई। इनमें से 545 निर्वाचित व 2 राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत होंगे।
● 36वां संशोधन (1975)
→ सिक्किम को भारतीय संघ में संघ के 22वें राज्य के रूप में प्रवेश प्रदान किया गया।
● 37वां संशोधन (1975)
→ अरुणाचल प्रदेश में व्यवस्थापिका तथा मंत्रिपरिषद् की स्थापना की गई।
● 42वां संशोधन (1976)
→ इसे ‘लघु संविधान’ (MINI CONSTITUTION) की संज्ञा प्रदान की गई है।
→ इसके द्वारा संविधान की प्रस्तावना में ‘धर्मनिरपेक्ष’, ‘समाजवादी’ और ‘अखंडता’ शब्द जोड़े गए।
→ इसके द्वारा अधिकारों के साथ-साथ कत्र्तव्यों की व्यवस्था करते हुए नागरिकों के 10 मूल कर्त्तव्य निश्चित किए गए।
→ लोकसभा तथा विधानसभाओं के कार्यकाल में एक वर्ष की वृद्धि की गई।
→ नीति-निर्देशक तत्वों में कुछ नवीन तत्व जोड़े गए।
→ इसके द्वारा शिक्षा, नाप-तौल, वन और जंगली जानवर तथा पक्षियों की रक्षा, ये विषय राज्य सूची से निकालकर समवर्ती सूची में रख दिए गए।
→ यह व्यवस्था की गई कि अनुच्छेद 352 के अन्तर्गत आपातकाल संपूर्ण देश में लागू किया जा सकता है या देश के किसी एक या कुछ भागों के लिए।
→ संसद द्वारा किए गए संविधान संशोधन को न्यायालय में चुनौती देने से वर्जित कर दिया गया।
● 44वां संशोधन (1978)
→ संपत्ति के मूलाधिकार को समाप्त करके इसे विधिक अधिकार बना दिया गया।
→ लोकसभा तथा राज्य विधानसभाओं की अवधि पुनः 5 वर्ष कर दी गई।
→ राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और लोकसभा अध्यक्ष्ज्ञ के चुनाव विवादों की सुनवाई का अधिकार पुनः सर्वोच्च तथा उच्च न्यायालय को ही दे दिया गया।
→ मंत्रिमंडल द्वारा राष्ट्रपति को जो भी परामार्श दिया जाएगा, राष्ट्रपति मंत्रिमंडल को उस पर दोबारा विचार करने लिए कह सकेंगे लेकिन पुनर्विचार के बाद मंत्रिमंडल राष्ट्रपति को जो भी परामर्श देगा, राष्ट्रपति उस परामर्श को अनिवार्यतः स्वीकार करेंगे।
→ ‘व्यक्ति के जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार’ को शासन के द्वारा आपातकाल में भी स्थगित या सीमित नहीं किया जा सकता, आदि।
● 52वां संशोधन (1985)
→ इस संशेधन द्वारा संविधान में दसवीं अनुसूची जोड़ी गई। इसके द्वारा राजनीतिक दल-बदल पर कानूनी रोक लगाने की चेष्टा की गई है।
● 55वां संशोधन (1986)
→ अरुणाचल प्रदेश को भारतीय संघ के अन्तर्गत राज्य की दर्जा प्रदान किया गया।
● 56वां संशोधन (1987)
→ इसमें गोवा को पूर्ण राज्य का दर्जा देने तथा ‘दमन व दीव’ को नया संघीय क्षेत्र बनाने की व्यवस्था है।
● 61वां संशोधन (1989)
→ मताधिकार के लिए न्यूनतम आवश्यक आयु 21 वर्ष से घटाकर 18 वर्ष कर दी गई।
● 65वां संशोधन (1990)
→ ‘अनुसूचित जाति तथा जनजाति आयोग’ के गठन की व्यवस्था की गई।
● 69वां संशोधन (1991)
→ दिल्ली का नाम ‘राष्ट्रीय राजधानी राज्य क्षेत्र दिल्ली’ किया गया तथा इसके लिए 70 सदस्यीय विधानसभा तथा 7 सदस्यीय मंत्रिमंडल के गठन का प्रावधान किया गया।
● 70वां संशोधन (1992)
→ दिल्ली तथा पांडिचेरी संघ राज्य क्षेत्रों की विधानसभाओं के सदस्यों को राष्ट्रपति के निर्वाचक मंडल में शामिल करने का प्रावधान किया गया।
● 71वां संशोधन (1992)
→ तीन और भाषाओं कोंकणी, मणिपुरी और नेपाली को संविधान की आठवीं अनुसूची में सम्मिलित किया गया।
● 73वां संशोधन (1992)
→ संविधान में एक नया भाग 9 तथा एक नई अनुसूची ग्यारहवीं अनुसूची जोड़ी गई और पंचायती राज व्यवस्था को संवैधानिक दर्जा प्रदान किया गया।
● 74वां संशोधन (1993)
→ संविधान में एक नया भाग 9क और एक नई अनुसूची 12वीं अनुसूची जोड़कर शहरी क्षेत्र की स्थानीय स्वशासन संस्थाओं को संवैधानिक दर्जा प्रदान किया गया।
● 91वां संशोधन (2003)
→ इसमें दल-बदल विरोधी कानून में संशोधन किया गया।
● 92वां संशोधन (2003)
→ इसमें आठवीं अनुसूची में चार और भाषाओं-मैथिली, डोगरी, बोडो और संथाली को जोड़ा गया।
● 93वां संशोधन (2005)
→ इसमें एससी/एसटी व ओबीसी बच्चों के लिए गैर-सहायता प्राप्त स्कूलों में 25 प्रतिशत सीटें आरक्षित रखने का प्रावधान किया गया।
● 97वां संशोधन (2011)
→ इसमें संविधान के भाग 9 में भाग 9ख जोड़ा गया और हर नागरिक को कोऑपरेटिव सोसाइटी के गठन का अधिकार दिया !
#आधुनिक_भारत_का_इतिहास :
#1857_की_क्रांति
1857 के संघर्ष को लेकर इतिहासकारों के विचार एक समान नहीं हैं। कुछ विद्वानों का यह मानना है कि 4 महीनों का यह उभार किसान विद्रोह था तो कुछ इस महान घटना को सैन्य विद्रोह मानते हैं। वी.डी. सावरकर की पुस्तक “द इंडियन वॉर ऑफ़ इंडिपेंडेंस” (1909 में प्रकाशित) में इसे प्रथम स्वतंत्रता संग्राम माना गया था। 20वीं सदी के शुरुआती दौर के इतिहास लेखन (राष्ट्रवादी इतिहासकार) में इसे वीर स्वतंत्रता सेनानियों का संघर्ष दिखाया गया है जो ग़दर के रूप में वर्णित भी है। मंगल पांडे के द्वारा कलकत्ता के निकट बैरकपुर छावनी में किए गए विद्रोह को एक महत्वपूर्ण घटना माना गया है जो स्वतन्त्रता की प्रथम लड़ाई में परिवर्तित हो गया।
भारत में ईस्ट इंडिया कम्पनी काल में ब्रिटिश उपनिवेशवादी शासन की स्थापना के केंद्र में सेना की भूमिका महत्वपूर्ण थी। गवर्नर जनरल के तौर पर वारेन हैस्टिंग के शासन काल के दौरान ईस्ट इंडिया कम्पनी द्वारा राज्यों के क्रमश: अधिग्रहण से उसके क्षेत्र का, साथ ही सेना का लगातार विस्तार हो रहा था। ब्रिटिश सेना में 80 प्रतिशत से अधिक भारतीय मूल के लोग ही नियुक्त थे। यूरोपीय सैनिकों के विपरीत उन्हें सिपाही का दर्जा मिला था। अभी तक हम प्लासी और बक्सर की लड़ाई में इन सिपाहियों की भक्ति ईस्ट इंडिया कम्पनी के प्रति देख चुके हैं।
1857 के विद्रोह के तात्कालिक कारणों में यह अफवाह थी कि 1853 की राइफल के कारतूस की खोल पर सूअर और गाय की चर्बी लगी हुई है। यह अफवाह हिन्दू एवं मुस्लिम दोनों धर्म के लोगों की भावनाओं को ठेस पहुंचा रही थी। ये राइफलें 1853 के राइफल के जखीरे का हिस्सा थीं।
1857 का विद्रोह कोई आकस्मिक घटना नहीं थी, अपितु यह अनेक कारणों का परिणाम थी, जो इस प्रकार थे-
#राजनीतिक_कारण
#डलहौज़ी_की_साम्राज्यवादी_नीति :- लार्ड डलहौजी (1848 – 56) ने भारत में अपना साम्राज्य विस्तार करने के लिए विभिन्न अन्यायपूर्ण तरीके अपनाए। अतः देशी रियासतों एवं नवाबों में कंपनी के विरूद्ध गहरा असंतोष फैला। उसने लैप्स के सिद्धांत को अपनाया। इस सिद्धांत का तात्पर्य है, “जो देशी रियासतें कंपनी के अधीन हैं, उनको अपने उत्तराधिकारियों के बारे में ब्रिटिश सरकार के मान्यता व स्वीकृति लेनी होगी। यदि रियासतें ऐसा नहीं करेंगी, तो ब्रिटिश सरकार उत्तराधिकारियों को अपनी रियासतों का वैद्य शासक नहीं मानेंगी।” इस नीति के आधार पर डलहौजी ने निःसन्तान राजाओं के गोद लेने पर प्रतिबन्ध लगा दिया तथा इस आधार पर उसने सतारा, जैतपुर, सम्भलपुर, बाघट, उदयपुर, झाँसी, नागपुर आदि रियासतों को ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिया। उसने अवध के नवाब पर कुशासन का आरोप लगाते हुए 1856 ई. में अवध का ब्रिटिश साम्राज्य में विलय कर लिया। डलहौज़ी की साम्राज्यवादी नीति ने भारतीय नरेशों में ब्रिटिशों के प्रति गहरा असंतोष एवं घृणा की भावना उत्पन्न कर दी। इसके साथ ही राजभक्त लोगों को भी अपने अस्तित्व पर संदेह होने लगा। वस्तुतः डलहौज़ी की इस नीति ने भारतीयों पर बहुत गहरा प्रभाव डाला। इन परिस्थितियों में ब्रिटिश साम्राज्य के विरूद्ध विद्रोह एक मानवीय आवश्यकता बन गया था।
#समकालीन_परिस्थितियाँ :- भारतीय लोग पहले ब्रिटिश सैनिकों को अपराजित मानते थे, किंतु क्रिमिया एवं अफ़ग़ानिस्तान के युद्धों में ब्रिटिशों की जो दुर्दशा हुई, उसने भारतीयों के इस भ्रम को मिटा दिया। इसी समय रूस द्वारा क्रीमिया की पराजय का बदला लेने के लिए भारत आक्रमण करने तथा भारत द्वारा उसका साथ देने की योजना की अफ़वाह फैली। इससे भारतीयों में विद्रोह की भावना को बल मिला। उन्होंने सोचा कि ब्रिटिशों के रूस के विरूद्ध व्यस्त होने के समय वे विद्रोह करके ब्रिटिशों को भारत से खदेड़ सकते हैं।
#मुग़ल_सम्राट_बहादुरशाह_के_साथ_दुर्व्यवहार :- मुग़ल सम्राट बहादुरशाह भावुक एवं दयालु प्रकृति के थे। देशी राजा एवं भारतीय जनता अब भी उनके प्रति श्रद्धा रखते थे। ब्रिटिशों ने मुग़ल सम्राट बहादुरशाह के साथ बड़ा दुर्व्यवहार किया। अब ब्रिटिशों ने मुग़ल सम्राट को नज़राना देना एवं उनके प्रति सम्मान प्रदर्शित करना समाप्त कर दिया। मुद्रा पर से सम्राट का नाम हटा दिया गया।
#नाना_साहब_के_साथ_अन्याय :- लार्ड डलहौज़ी ने बाजीराव द्वितीय के दत्तक पुत्र नाना साहब के साथ भी बड़ा दुर्व्यवहार किया। नाना साहब की 8 लाख रुपये की पेन्शन बंद कर दी गई। फलतः नाना साहब ब्रिटिशों के शत्रु बन गए और उन्होंने 1857 ई. के विप्लव का नेतृत्व किया।
#आर्थिक_कारण:
#व्यापार_का_विनाश :- ब्रिटिशों ने भारतीयों का जमकर आर्थिक शोषण किया था। ब्रिटिशों ने भारत में लूट-मार करके धन प्राप्त किया तथा उसे इंग्लैंड भेज दिया। ब्रिटिशों ने भारत से कच्चा माल इंग्लेण्ड भेजा तथा वहाँ से मशीनों द्वारा माल तैयार होकर भारत आने लगा। इसके फलस्वरूप भारत दिन-प्रतिदिन निर्धन होने लगा। इसके कारण भारतीयों के उद्योग धंधे नष्ट होने लगे। इस प्रकार ब्रिटिशों ने भारतीयों के व्यापार पर अपना नियंत्रण स्थापित कर भारतीयों का आर्थिक शोषण किया।
#किसानों_का_शोषण :- ब्रिटिशों ने कृषकों की दशा सुधार करने के नाम पर स्थाई बंदोबस्त, रैय्यवाड़ी एवं महालवाड़ी प्रथा लागू की, किंतु इस सभी प्रथाओं में किसानों का शोषण किया गया तथा उनसे बहुत अधिक लगान वसूल किया गया। इससे किसानों की हालत बिगड़ती गई। समय पर कर न चुका पाने वाले किसानों की भूमि को नीलाम कर दिया जाता था।
#अकाल :- अंग्रेजों के शासन काल में बार-बार अकाल पड़े, जिसने किसानों की स्थिति और ख़राब हो गई।
#इनाम_की_जागीरे_छीनना :- बैन्टिक ने इनाम में दी गई जागीरें भी छीन ली, जिससे कुलीन वर्ग के गई लोग निर्धन हो गए और उन्हें दर-दर की ठोकरें खानी पडीं। बम्बई के विख्यानघ इमाम आयोग ने 1852 में 20,000 जागीरें जब्त कर लीं। अतः कुलीनों में असन्तोष बढ़ने लगा, जो विद्रोह से ही शान्त हो सकता था।
#भारतीय_उद्योगों_का_नाश_तथा_बेरोजगारी :- ब्रिटिशों द्वारा अपनाईं गई आर्थिक शोषण की नीति के कारण भारत के घरेलू उद्योग नष्ट होने लगे तथा देश में व्यापक रूप से बेरोज़गारी फैली।
#सामाजिक_कारण
#ब्रिटिशों_द्वारा_भारतीयो_के_सामाजिक_जीवन_में #हस्तक्षेप :- ब्रिटिशों ने भारतीयों के सामाजिक जीवन में जो हस्तक्षेप किया, उनके कारण भारत की परम्परावादी एवं रूढ़िवादी जनता उनसे रूष्ट हो गई। लार्ड विलियम बैन्टिक ने सती प्रथा को गैर कानूनी घोषित कर दिया और लोर्ड कैनिंग ने विधवा विवाह की प्रथा को मान्यता दे दी। इसके फलस्वरूप जनता में गहरा रोष उत्पन्न हुआ। इसके अलावा 1856 ई. में पैतृतक सम्पति के सम्बन्ध मे एक कानुन बनाकर हिन्दुओं के उत्तराधिकार नियमों में परिवर्तन किया गया। इसके द्वारा यह निश्चित किया गया कि ईसाई धर्म ग्रहण करने वाले व्यक्ति का अपनी पैतृक सम्पति में हिस्सा बना रहेगा। रूढ़िवादी भारतीय अपने सामाजिक जीवन में ब्रिटिशों के इस प्रकार के हस्तक्षेप को पसन्द नहीं कर सकते थे। अतः उन्होंने विद्रोह का मार्ग अपनाने का निश्चय किया।
#पाश्चात्य_संस्कृति_को_प्रोत्साहन :- ब्रिटिशों ने अपनी संस्कृति को प्रोत्साहन दिया तथा भारत में इसका प्रचार किया। उन्होंने युरोपीय चिकित्सा विज्ञान को प्रेरित किया, जो भारतीय चिकित्सा विज्ञान के विरूद्ध था। भारतीय जनता ने तार एवं रेल को अपनी सभ्यता के विरूद्ध समझा। ब्रिटिशों ने ईसाई धर्म को बहुत प्रोत्साहन दिया। स्कूल, अस्पताल, दफ़्तर एवं सेना ईसाई धर्म के प्रचार के केंद्र बन गए। अब भारतीयों को विश्वास हुआ कि ब्रिटिश उनकी संस्कृति को नष्ट करना चाहते हैं। अतः उनमें गहरा असंतोष उत्पन्न हुआ, जिसने क्रांति का रूप धारण कर लिया।
#पाश्चात्य_शिक्षा_का_प्रभाव :- पाश्चात्य शिक्षा ने भारतीय समाज की मूल विशेषताओं को समाप्त कर दिया। आभार प्रदर्शन, कर्तव्यपालन, परस्पर सहयोग आदि भारतीय समाज की परम्परागत विशेषता थी, किन्तु ब्रिटिश शिक्षा ने इसे नष्ट कर दिया। पाश्चात्य सभ्यता ने भारतीयों के रहन-सहन, खान-पान, आचार-विचार, शिष्टाचार एवं व्यवहार में क्रान्तिकारी परिवर्तन किया। इससे भारतीय सामाजिक जीवन की मौलिकता समाप्त होने लगी। ब्रिटिशों द्वारा अपनी जागीरें छीन लेने से कुलीन नाराज थे, ब्रिटिशों द्वारा भारतीयों के सामाजिक जीवन में हस्तक्षेप करने से भारतीयों में यह आशंका उत्पन्न हो गई कि ब्रिटिश पाश्चात्य संस्कृति का प्रसार करना चाहते हैं। भारतीय रूढ़िवादी जनता ने रेल, तार आदि वैज्ञानिक प्रयोगों को अपनी सभ्यता के विरूद्ध माना।
#भारतीयों_के_प्रति_भेद_भाव_नीति :- ब्रिटिश भारतीयों को निम्न कोटि का मानते थे तथा उनसे घृणा करते थे। उन्होंने भारतीयों के प्रति भेद-भाव पूर्ण नीति अपनायी। भारतीयों को रेलों में प्रथम श्रेणी के डब्बे में सफर करने का अधिकार नहीं था। ब्रिटिशों द्वारा संचालित क्लबों तथा होटलों में भारतीयों को प्रवेश नहीं दिया जाता था।
#धार्मिक_कारण
▪️भारत में सर्वप्रथम ईसाई धर्म का प्रचार पुर्तगालियों ने किया था, किन्तु ब्रिटिशों ने इसे बहुत फैलाया। 1831 ई. में चार्टर एक्ट पारित किया गया, जिसके द्वारा ईसाई मिशनरियों को भारत में स्वतन्त्रापूर्वक अपने धर्म का प्रचार करने की स्वतन्त्रता दे दी गई। ईसाई धर्म के प्रचारकों ने खुलकर हिंदू धर्म एवं इस्लाम धर्म की निंदा की। वे हिंदुओं तथा मुसलामानों के अवतारों, पैग़ंबरों एवं महापुरुषों की खुलकर निंदा करते थे तथा उन्हें कुकर्मी कहते थे। वे इन धर्मों की बुराइयों को बढ़-चढ़ाकर बताते थे तथा अपने धर्म को इन धर्मो से श्रेष्ठ बताते थे।
#प्रशासनिक_कारण:
▪️ब्रिटिशों की विविध त्रुटिपूर्ण नीतियों के कारण भारत में प्रचलित संस्थाओं एवं परंपराओं का समापन होता जा रहा था। प्रशासन जनता से पृथक हो रहा था। ब्रिटिशों ने भेद-भाव पूर्ण नीति अपनाते हुए भारतीयों को प्रशासनिक सेवाओं में सम्मिलित नहीं होने दिया। लार्ड कार्नवालिस भारतीयों को उच्च सेवाओं के अयोग्य मानता था। अतः उन्होंने उच्च पदों पर भारतीयों को हटाकर ब्रिटिशों को नियुक्त किया। ब्रिटिश न्याय के क्षेत्र में स्वयं को भारतीयों से उच्च व श्रेष्ठ समझते थे। भारतीय जज किसी ब्रिटिश के विरूद्ध मुकदमे की सुनवाई नहीं कर सकते थे।
▪️भारत में ब्रिटिशों की सत्ता स्थापित होने के पश्चात् देश में एक शक्तिशाली ब्रिटिश अधिकारी वर्ग का उदय हुआ। यह वर्ग भारतीयों से घृणा करता था एवं उससे मिलना पसन्द नहीं करता था। ब्रिटिशों की इस नीति से भारतीय क्रुध्द हो उठे और उनमें असन्तोष की ज्वाला धधकने लगी।
#सैनिक_कारण:
▪️भारतीय सैनिक अनेक कारणों से ब्रिटिशों से रुष्ट थे। वेतन, भत्ते, पदोन्नति आदि के संबंध में उनके साथ पक्षपातपूर्ण व्यवहार किया जाता था। एक साधारण सैनिक का वेतन 7-8 रुपये मासिक होता था, जिसमें खाने तथा वर्दी का पैसा देने के बाद उनके पास एक या डेढ़ रुपया बचता था। भारतीयों के साथ ब्रिटिशों की तुलना में पक्षपात किया जाता था। जैसे भारतीय सूबेदार का वेतन 35 रुपये मासिक था, जबकि ब्रिटिश सूबेदार का वेतन 195 रुपये मासिक था। भारतीयों को सेना में उच्च पदों पर नियुक्त नहीं किया जाता था। उच्च पदों पर केवल ब्रिटिश ही नियुक्त होते थे। डॉ. आर. सी. मजूमदार ने भारतीय सैनिकों के रोष के तीन कारण बतलाए हैं –
1. बंगाल की सेना में अवध के अनेक सैनिक थे। अतः जब 1856 ई. में अवध को ब्रिटिश साम्राज्य में लिया गया, तो उनमें असंतोष उत्पन्न हुआ।
2. ब्रिटिशों ने सिक्ख सैनिकों को बाल कटाने के आदेश दिए तथा ऐसा न करने वालों को सेना से बाहर निकाल दिया।
3. ब्रिटिश सरकार द्वारा ईसाई धर्म का प्रचार करने से भी भारतीय रुष्ट थे।
#तत्कालीन_कारण:
▪️1857 ई. तक भारत में विद्रोह का वातावरण पूरी तरह तैयार हो चूका था और अब बारूद के ढेर में आग लगाने वाली केवल एक चिंगारी की आवश्यकता थी। यह चिंगारी चर्बी वाले कारतूसों ने प्रदान की। इस समय ब्रिटेन में एनफील्ड राइफ़ल का आविष्कार हुआ। इन राइफ़लों के कारतूसों को गाय एवं सुअर की चर्बी द्वारा चिकना बनाया जाता था। सैनिकों को मुँह से इसकी टोपी को काटना पड़ता था, उसके बाद ही ये कारतूस राइफ़ल में डाले जाते थे।इन चर्बी लगे कारतूसों ने विद्रोह को भड़का दिया।
#क्रांति_की_शुरूआत:
1857 की क्रांति का सूत्रपात मेरठ छावनी के स्वतंत्रता प्रेमी सैनिक मंगल पाण्डे ने किया। 29 मार्च, 1857 को नए कारतूसों के प्रयोग के विरुद्ध मंगल पाण्डे ने आवाज उठायी। ध्यातव्य है कि अंग्रेजी सरकार ने भारतीय सेना के उपयोग के लिए जिन नए कारतूसों को उपलब्ध कराया था, उनमें सूअर और गाय की चर्बी का प्रयोग किया गया था। छावनी के भीतर मंगल पाण्डे को पकड़ने के लिए जो अंग्रेज अधिकारी आगे बढ़े, उसे मौत के घाट उतार दिया। 8 अप्रैल, 1857 ई. को मंगल पाण्डे को फांसी की सजा दी गई। उसे दी गई फांसी की सजा की खबर सुनकर सम्पूर्ण देश में क्रांति का माहौल स्थापित हो गया।
मेरठ के सैनिकों ने 10 मई, 1857 ई. को जेलखानों को तोड़ना,भारतीय सैनिकों को मुक्त करना और अंग्रेजो को मारना शुरू कर दिया। मेरठ में मिली सफलता से उत्साहित सैनिक दिल्ली की ओर बढ़े। दिल्ली आकर क्रांतिकारी सेनिकों ने कर्नल रिप्ले की हत्या कर दी और दिल्ली पर अपना अधिकार जमा लिया। इसी समय अलीगढ़, इटावा, आजमगढ़, गोरखपुर, बुलंदशहर आदि में भी स्वतंत्रता की घोषणा की जा चुकी थी।
#विद्रोह_के_प्रमुख_केंद्र_और_केंद्र_के_प्रमुख_नेता
• दिल्ली – जनरल बख्त खान
• कानपुर – नाना साहब
• लखनऊ – बेगम हज़रत महल
• बरेली – खान बहादुर
• बिहार – कुंवर सिंह
• फैज़ाबाद – मौलवी अहमदउल्ला
• झांसी – रानी लक्ष्मी बाई
• इलाहाबाद – लियाकत अली
• ग्वालियर – तात्या टोपे
• गोरखपुर – गजाधर सिंह
#विद्रोह_के_समय_प्रमुख_अंग्रेज_जनरल
• दिल्ली – लेफ्टिनेंट विलोबी ,निकोलसन , हडसन
• कानपुर – सर ह्यू रोज
• बनारस – कर्नल जेम्स नील
#क्रांति_का_दमन :
▪️क्रांति के राष्ट्रव्यापी स्वरूप और भारतीयों में अंग्रेजी सरकार के प्रति बढ़ते आक्रोश सरकार ने निर्ममतापूर्ण दमन की नीति अपनायी। तत्कालीन वायसराय लॉर्ड केनिंग ने बाहर से अंग्रेजी सेनाएं मंगवायीं। जनरल नील के नेतृत्व वाली सेना ने बनारस और इलाहाबाद में क्रांति को जिस प्रकार से कुचला, वह पूर्णतः अमानवीय था। निर्दोषों को भी फांसी की सजा दी गई। दिल्ली में बहादुरशाह को गिरफ्तार कर लेने के बाद नरसंहार शुरू हो गया था। फुलवर, अम्बाला आदि में निर्ममता के साथ लोगों की हत्या करवायी । सैनिक नियमों का उल्लंघन कर कैदी सिपाहियों में से अनेकों को तोप के मुंह पर लगाकर उड़ा दिया गया। पंजाब में सिपाहियों को घेरकर जिन्दा जला दिया गया।
▪️अंग्रेजों ने केवल अपनी सैन्य शक्ति के सहारे ही क्रांति का दमन नहीं किया बल्कि उन्होंने प्रलोभन देकर बहादुरशाह को गिरफ्तार करवा लिया, और उसके पुत्रों की हत्या करवादी, सिक्खों और मद्रासी सैनिकों को अपने पक्ष में कर लिया। वस्तुतः, क्रांति के दमन में सिक्ख रेजिमेण्ट ने यदि अंग्रेजी सरकार की सहायता नहीं की होती तो अंग्रेजी सरकार के लिए क्रांतिकारियों को रोक पाना टेढ़ी-खीर ही साबित होता। क्रांति के दमन में अंग्रेजों को इसलिए भी सहायता मिली कि विभिन्न क्षेत्रों में अलग-अलग समय में क्रांति ने जोर पकड़ा था।
#क्रान्ति_की_असफलता_के_कारण :
▪️यह विद्रोह स्थानीय स्तर तक, असंगठित एवं सीमित था। बम्बई एवं मद्रासकी सेनायें तथा नर्मदा नदी के दक्षिण के राज्यों ने क्रान्ति के इस विद्रोह में अंग्रेज़ों का पूरा समर्थन किया।
▪️अच्छे साधन एवं धनाभाव के कारण भी विद्रोह असफल रहा। अंग्रेज़ी अस्त्र-शस्त्र के समक्ष भारतीय अस्त्र-शस्त्र बौने साबित हुए।
▪️1857 ई. के इस विद्रोह के प्रति ‘शिक्षित वर्ग’ पूर्ण रूप से उदासीन रहा। व्यापारियों एवं शिक्षित वर्ग ने कलकत्ता एवं बम्बई में सभाएँ कर अंग्रेज़ों की सफलता के लिए प्रार्थना भी की थी। यदि इस वर्ग ने अपने लेखों एवं भाषणों द्वारा लोगों में उत्साह का संचार किया होता, तो निःसंदेह ही क्रान्ति के इस विद्रोह का परिणाम कुछ ओर ही होता।
▪️इस विद्रोह में ‘राष्ट्रीय भावना’ का पूणतया अभाव था, क्योंकि भारतीय समाज के सभी वर्गों का सहयोग इस विद्रोह को नहीं मिल सका। सामन्तवादी वर्गों में एक वर्ग ने विद्रोह में सहयोग किया, परन्तु पटियाला, जीन्द, ग्वालियर एवं हैदराबाद के राजाओं ने विद्रोह को कुचलने में अंग्रेज़ों का पूरा सहयोग किया। संकट के समय लॉर्ड कैनिंग ने कहा था कि, “यदि सिन्धिया भी विद्रोह में सम्मिलित हो जाए तो मुझे कल ही भारत छोड़ना पड़ेगा”। विद्रोह दमन के पश्चात् भारतीय राजाओं को पुरस्कृत किया गया। निज़ाम को बरार का प्रान्त लौटा दिया गया और उसके ऋण माफ कर दिये गये। सिन्धिया, गायकवाड़ और राजपूत राजाओं को भी पुरस्कार मिले।
▪️विद्रोहियों में अनुभव, संगठन क्षमता व मिलकर कार्य करने की शक्ति की कमी थी।
▪️सैनिक दुर्बलता का विद्रोह की असफलता में महत्त्वपूर्ण योगदान रहा। बहादुरशाह ज़फ़र एवं नाना साहब एक कुशल संगठनकर्ता अवश्य थे, पर उनमें सैन्य नेतृत्व की क्षमता की कमी थी, जबकि अंग्रेज़ी सेना के पास लॉरेन्स बन्धु, निकोलसन, हेवलॉक, आउट्रम एवं एडवर्ड जैसे कुशल सेनानायक थे।
▪️क्रान्तिकारियों के पास उचित नेतृत्व का अभाव था। वृद्ध मुग़ल सम्राट बहादुरशाह ज़फ़र क्रान्तिकारियों का उस ढंग से नेतृत्व नहीं कर सका, जिस तरह के नेतृत्व की तत्कालीन परिस्थितियों में आवश्यकता थी।
▪️विद्रोही क्रान्तिकारियों के पास ठोस लक्ष्य एवं स्पष्ट योजना का अभाव था। उन्हें अगले क्षण क्या करना होगा और क्या नहीं, यह भी निश्चित नहीं था। वे मात्र भावावेश एवं परिस्थितिवश आगे बढ़े जा रहे थे।
▪️आवागमन एवं संचार के साधनों के उपयोग से अंग्रेज़ों को विद्रोह को दबाने मे काफ़ी सहायता मिली। इस प्रकार आवागमन एवं संचार के साधनों ने भी इस विद्रोह को असफल करने में सहयोग दिया।
#परिणाम :
▪️विद्रोह के समाप्त होने के बाद 1858 ई. में ब्रिटिश संसद ने एक क़ानून पारित कर ईस्ट इंडिया कम्पनी के अस्तित्व को समाप्त कर दिया, और अब भारत पर शासन का पूरा अधिकार महारानी विक्टोरिया के हाथों में आ गया। इंग्लैण्ड में 1858 ई. के अधिनियम के तहत एक ‘भारतीय राज्य सचिव’ की व्यवस्था की गयी, जिसकी सहायता के लिए 15 सदस्यों की एक ‘मंत्रणा परिषद्’ बनाई गयी। इन 15 सदस्यों में 8 की नियुक्ति सरकार द्वारा करने तथा 7 की ‘कोर्ट ऑफ़ हाइरेक्टर्स’ द्वारा चुनने की व्यवस्था की गई।
▪️स्थानीय लोगों को उनके गौरव एवं अधिकारों को पुनः वापस करने की बात कही गई। भारतीय नरेशों को महारानी विक्टोरिया ने अपनी ओर से समस्त संधियों के पालन करने का आश्वासन दिया, लेकिन साथ ही नरेशों से भी उसी प्रकार के पालन की आशा की। अपने राज्य क्षेत्र के विस्तार की अनिच्छा की अभिव्यक्ति के साथ-साथ उन्होंने अपने राज्य क्षेत्र अथवा अधिकारों का अतिक्रमण सहन न करने तथा दूसरों पर अतिक्रमण न करने की बात कही, और साथ ही धार्मिक शोषण खत्म करने एवं सेवाओं में बिना भेदभाव के नियुक्ति की बात की गयी।
▪️सैन्य पुनर्गठन के आधार पर यूरोपीय सैनिकों की संख्या को बढ़ाया गया। उच्च सैनिक पदों पर भारतीयों की नियुक्ति को बंद कर दिया गया। तोपखाने पर पूर्णरूप से अंग्रेज़ी सेना का अधिकार हो गया। अब बंगाल प्रेसीडेन्सी के लिए सेना में भारतीय और अंग्रेज़ सैनिकों का अनुपात 2:1 का हो गया, जबकि मद्रास और बम्बई प्रसीडेन्सियों में यह अनुपात 3:1 का हो गया। उच्च जाति के लोगों में से सैनिकों की भर्ती बन्द कर दी गयी।
▪️1858 ई. के अधिनियम के अन्तर्गत ही भारत में गवर्नर-जनरल के पदनाम में परिवर्ततन कर उसे ‘वायसराय’ का पदनाम दिया गया।
▪️क्रान्ति के विद्रोह के फलस्वरूप सामन्तवादी ढाँचा चरमरा गया। आम भारतीयों में सामन्तवादियों की छवि गद्दारों की हो गई, क्योंकि इस वर्ग ने विद्रोह को दबाने में अंग्रेज़ों को सहयोग दिया था।
▪️विद्रोह के परिणामस्वरूप भारतीयों में राष्ट्रीय एकता की भावना का विकास हुआ और हिन्दू-मुस्लिम एकता ने ज़ोर पकड़ना शुरू किया, जिसका कालान्तर में राष्ट्रीय आंदोलन में महत्त्वपूर्ण योगदान रहा।
▪️1857 ई. की क्रान्ति के बाद साम्राज्य विस्तार की नीति का तो ख़ात्मा हो गया, परन्तु इसके स्थान पर अब आर्थिक शोषण के युग का आरम्भ हुआ।
▪️भारतीयों के प्रशासन में प्रतिनिधित्व के क्षेत्र में अल्प प्रयास के अन्तर्गत 1861 ई. में ‘भारतीय परिषद् अधिनियम’ को पारित किया गया।
▪️इसके अतिरिक्त ईसाई धर्म के प्रचार-प्रसार में कमी, श्वेत जाति की उच्चता के सिद्धान्त का प्रतिपादन और मुग़ल साम्राज्य के अस्तित्व का ख़त्म होना आदि 1857 ई. के विद्रोह के अन्य परिणाम थे।
#प्राचीन_भारत_का_इतिहास :
#ताम्रपाषाण_युग
ताम्रपाषाण युग या ताम्र पाषाण संस्कृति का आरम्भ नवपाषाण युग के बाद हुआ। ताम्रपाषाण युग या ताम्र पाषाण संस्कृति में उपकरण, औजार और हथियार के निर्माण में पत्थर के साथ ताँबें का भी प्रयोग बहुतायत में होने लगा, इसीलिए इस समय को ताम्रपाषाण युग या ताम्रपाषाणिक युग कहते हैं।
▪️नवपाषाण युग के अंत में धातुओं का प्रयोग बढ़ने लगा, सर्वप्रथम धातुओं में ताँबे का प्रयोग किया गया। तो जिस संस्कृति ने पत्थर के साथ-साथ ताँबे का भी प्रयोग किया उसी संस्कृति को ताम्रपाषाणिक कहते हैं, जिसका अर्थ है ‘पत्थर और तांबे के उपयोग की अवस्था।’
▪️तकनिकी दृष्टिकोण से ताम्रपाषाण युग, हड़प्पा की कांस्यकालीन संस्कृति से पहले की है। लेकिन भारत में हड़प्पा की कांस्य संस्कृति पहले आती है और अधिकांश ताम्रपाषाण युग की संस्कृतियाँ बाद में।
▪️ताम्रपाषाण युग के लोग पशुपालन और कृषि किया करते थे। वे मुख्य अनाज गेहूँ, चावल के आलावा बाजरा, मसूर, उड़द और मूँग आदि दलहन फसलें भी उगाया करते थे।
▪️वे लोग भेड़, बकरी, गाय, भैंस और सूअर पाला करते थे। हिरन का शिकार करते थे। वह ऊँट से परिचित थे इस बात के भी साक्ष्य ऊँट के अवशेष के रूप में प्राप्त हुए हैं। सामान्यतः इस संस्कृति या युग के लोग घोड़े से परिचित नहीं थे।
▪️ताम्रपाषाण युग के लोग समुदाय बनाकर कर गांवों में रहते थे तथा देश के विशाल भागों में फैले थे जहाँ पहाड़ी जमींन और नदियाँ स्थित थीं। इतिहासकारों का मत है की ताम्रपाषाण युगीन लोग पक्की ईंटों का प्रयोग नहीं करते थे संभवतः वह पक्की ईंटों से परिचित नहीं थे।
▪️ताम्रपाषाण काल के लोग वस्त्र निर्माण करना जानते थे। साथ ही वह मिट्टी के खिलोने और मूर्ति (टेराकोटा की) के कारीगर थे। साथ ही कुंभकार, धातुकार, हाथी दाँत के शिल्पी और चुना बनाने के कारीगर थे।
▪️ताम्रपाषाण काल के अधिकतर मृदभांड (मिट्टी के बर्तन) काले व लाल रंग के थे, जोकि चाक पर बनते थे कभी-कभार इन पर सफेद रंग की रेखिक आकृतियाँ बनी रहती थी।
▪️मिट्टी की स्त्री रूपी मूर्ति से ज्ञात होता है कि ताम्रपाषाण कालीन लोग मातृ-देवी की पूजा करते थे और संभवतः वृषभ (सांड) धार्मिक पंथ का प्रतीक था।
▪️भारत में ताम्रपाषाण काल की कई बस्तियाँ हैं तिथिक्रम की दृष्टि से कुछ प्राक् तथा हड़प्पीय हैं, कुछ हड़प्पा संस्कृति के समकालीन हैं तो कुछ हड़प्पोत्तर अर्थात हड्डपा संस्कृति के बाद की हैं।
#भारत_में_ताम्रपाषण_युगीन_बस्तियां :
▪️दक्षिण पूर्वी राजस्थान –
• अहार (उदयपुर),
• गिलुंद (राजसमंद)
▪️पश्चिमी महाराष्ट्र –
• जोखे,
• नेवासा, सोनगाँव और दैमाबाद (अहमदनगर),
• चंदौली (कोल्हापुर),
• इनामगाँव – इस युग की सबसे बडी बस्ती यहीं मिली है (पुणे)
▪️पश्चिमी मध्यप्रदेश –
• मालवा (मालवा),
• कयथा (मंडला),
• एरण (गुना)
#आधुनिक_भारत_का_इतिहास :
#व्यपगत_सिद्धांत_या_लार्ड_डलहौजी_की_राज्य
#हड़प_नीति
व्यपगत सिद्धांत या लार्ड डलहौजी की राज्य हड़प नीति या गोद प्रथा निषेध की नीति : व्यपगत सिद्धांत जिसे लार्ड डलहौजी की राज्य हड़प नीति या गोद प्रथा निषेध की नीति के नाम से भी जाना जाता है। इस निति का दुरप्रयोग कर अंग्रेजों ने भारतीय राज्यों और रियासतों को अपने अधीन किया था।
वर्ष 1848 में लार्ड डलहौजी भारत का गवर्नर जनरल बनकर आया। लार्ड वेलेजली के बाद डलहौजी ही अगला महत्वपूर्ण गवर्नर जनरल था। इसे इसकी साम्राज्यवादी नीतियों के लिए याद किया जाता है। गवर्नर जनरल बनते ही उसने अंग्रेजी साम्राज्य की सीमाओं का विस्तार शुरू कर दिया। इसके लिए उसने मुख्यतः तीन नीतियां बनाई
#युद्ध_की_नीति- युद्ध कर अपने सीमाओं का विस्तार करना।
#कुप्रशासन_की_नीति- अपने सहयोगी राज्यों पर कुप्रशासन का आरोप लगाकर उन्हें अधीग्रहित कर लेना।
#व्यपगत_का_सिद्धांत- उत्तराधिकारी न होने पर राज्य को अधीग्रहित करना।
डलहौजी ने भारत के सभी प्रदेशों को अंग्रेजी अधिकार के अन्तर्गत लाने का प्रयास किया। लार्ड डलहौजी की तीनों नीतियों में से सबसे महत्वपूर्ण नीति थी “व्यपगत का सिद्धांत” या “डलहौजी की राज्य हड़प की नीति” या “गोद प्रथा निषेध की नीति”। उसके कार्यकाल को भी इसी नीति के कारण अधिक याद किया जाता है।
#व्यपगत_के_सिद्धांत_नीति_की_विशेषताएं
▪️इस नीति की सबसे प्रमुख विशेषता यह थी कि जिन शासकों का उत्तराधिकारी नहीं होता था वे पुत्र को गोद नहीं ले सकते थे।
▪️इस नीति को लागू करने के लिए डलहौजी ने सभी भारतीय राज्यों/रियासतों को तीन श्रेणियों में विभाजित किया।
#पहली_श्रेणी (अधीनस्थ राज्य)- इस श्रेणी में वे राज्य थे जोकि प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से ब्रिटिश सरकार के सहयोग से असतित्तव में आए, और ये राज्य पूर्णतः कंपनी पर ही आश्रित थे। इन राज्यों के शासकों को निःसंतान होने पर अपने उत्तराधिकारी को गोद लेने का अधिकार नहीं था। शासक की मृत्यु के बाद राज्य सीधे अंग्रेजों के अधीन हो जाएगा।
जैसे- झाँसी, जैतपुर, संभलपुर।
#द्वितीय_श्रेणी (आश्रित राज्य)- इस श्रेणी में वे राज्य थे जोकि प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से ब्रिटिश सरकार के सहयोग से असतित्तव में आए थे परन्तु ये कंपनी के आधीन नहीं थे कैवल बाह्य सुरक्षा हेतु कंपनी पर आश्रित थे। पहली श्रेणी से इतर इन्हे उत्तराधिकारी को गोद लेने की छूट थी परन्तु पहले ब्रिटिश सरकार से इजाजत लेनी थी।
जैसे- अवध, ग्वालियार, नागपुर।
#तृतीय_श्रेणी (स्वतंत्र राज्य)- इस श्रेणी के राज्य को अपने उत्तराधिकारी को गोद लेने की पूर्ण स्वतंत्रता थी।
जैसे- जयपुर, उदयपुर, सतारा।
#व्यपगत_के_सिद्धांत_नीति_के_द्वारा_अधीग्रहित
#किए_गए_प्रमुख_राज्य
डलहौजी ने अपने व्यपगत के सिद्धांत का पालन पूरी कठोरता के साथ किया और कुछ ही समय में कई प्रदेशों और देशी रियासतों को अपने अधिकार में ले लिया।
▪️सतारा (महाराष्ट्र)- 1848,
▪️जैतपुर/ संभलपुर/ बुन्देलखण्ड/ओडीसा- 1849,
▪️बाघाट- 1850,
▪️उदयपुर- 1852,
▪️झाँसी- 1853,
▪️नागपुर- 1854,
▪️अवध- 1856
इन सभी में से सतारा (महाराष्ट्र), झाँसी, अवध और नागपुर महत्वपूर्ण है –
#सतारा– सतारा इस नीति से प्रभावित होने वाला सबसे पहला राज्य बना। यहां के शासक का कोई भी पुत्र नहीं था अतः उसने ब्रिटिश सरकार से पत्र के द्वारा अपने गोद लिए पुत्र मान्यता के लिए आग्रह किया परन्तु डलहौजी ने इसे अस्वीकार कर दिया। 1848 में सतारा के अंतिम शासक की मृत्यु के बाद इसे अंग्रेजी राज्य के अन्तर्गत मिला दिया गया।
#झाँसी- झाँसी की रानी का असली नाम “मनू बाई” था और उनके पति का नाम “गंगाधर राव” था। इनकी संतान की मृत्यु हो गई थी, इसलिए इन्होंने एक पुत्र को गोद लिया था। जिसका नाम दामोधर राव था। 1853 में गंगाधर राव की मृत्यु हो जाने के उपरान्त अंग्रेजों ने आक्रमण कर झाँसी को अपने अधिकार में लेने की कोशिश शुरू कर दी। इसका सामना रानी लक्ष्मी बाई ने बहुत ही बहदुरी के साथ किया परन्तु अंततः अंग्रेजों की विजय हुई और वर्ष 1853 में झाँसी को अधीग्रहित किया गया।
#अवध- 1856 में अवध का नावब वाजिद अली शाह था। अंग्रेजों ने इसके बेटे को देश निकाला दे दिया गया था, और फिर बाद में कुप्रशासन का आरोप लगा कर अवध को हड़प लिया।
#नागपुर- यहां के शासक राघो जी ने भी पत्र के द्वारा अपने गोद लिए पुत्र की मान्यता के लिए ब्रिटिश सरकार से अग्रह किया परन्तु उनकी मृत्यु तक कंपनी ने इस विषय में कोई भी निर्णय नहीं लिया। उनकी मृत्यु के बाद डलहौजी ने उनके दत्तक पुत्र को मान्यता देने से मना कर दिया और राज्य को अपनी अधीनता में ले लिया।
#व्यपगत_सिद्धांत_नीति_की_आलोचना
▪️भारत में पहले से ही उत्तराधिकार के लिए निसंतान राजाओं द्वारा गोद प्रथा का प्रयोग किया जाता था। इस प्रथा की पहले से ही सामाजिक और राजनीतिक स्वीकृती थी। अतः अंग्रेजों द्वारा इस प्रथा का हनन करना सर्वथा गलत था।
▪️1825 में कंपनी ने ये स्वीकार किया था कि वे सभी हिन्दु मान्यताओं को मान्यता देगी। परन्तु एकाएक इस नीति द्वारा कंपनी अपनी बातों से मुकर गई और इस दमनकारी नीति को लागु कर दिया।
▪️जिस समय इस नीति को लागू किया गया उस समय भारत की सर्वोच्च शक्ति मुगल शासक थे। अतः इस प्रकार की कोई भी राष्ट्रव्यापी नीति लागू करने का अधिकार भी उन्हीं को था न कि किसी विदेशी कंपनी को।
▪️सतारा राज्य का अधिग्रहण इस नीति में दिए गए नियमों के अनुरूप भी गलत था। सतारा राज्य न तो ब्रिटिश सरकार के अन्तर्गत था और न ही उसके निर्माण में कंपनी का किसी प्रकार का कोई सहयोग रहा था। अतः वह एक स्वतंत्र राज्य की श्रेणी में था।
लार्ड डलहौजी की इस नीति से कंपनी की साम्राज्यवादी सोच का पता चलता है। यह नीति स्वार्थ और अनैतिकता से भरी थी। इससे कंपनी को आर्थिक और राजनीतिक रूप से तो काफी फायदा पहुँचा, परन्तु भारतीयों में कंपनी के प्रति विद्रोह के बीज भी इस नीति ने ही बोए । जोकि आगे चलकर 1857 की क्रांति में सामने आये।
#प्राचीन_भारत_का_इतिहास :
#प्रागैतिहासिक_काल
प्रागैतिहासिक काल वह काल है जिसकी जानकारी प्रातात्विक स्रोतों से प्राप्त होती है। इस समय के इतिहास की जानकारी लिखित रूप में प्राप्त नहीं हुई है। प्रागैतिहासिक काल को ‘प्रस्तर युग’ भी कहते हैं।
#प्रागैतिहासिक_काल_का_अर्थ : प्रागैतिहासिक काल का अर्थ होता है ‘इतिहास से पूर्व का युग’।
#प्रागैतिहासिक_काल_का_समय : प्रागैतिहासिक काल का समय 5,00,000 ई.पू. से 2,500 ई.पू. तक माना जाता है।
प्रागैतिहासिक काल या प्रागैतिहासिक कालखंड को तीन भागों में विभाजित किया गया है —
#पुरापाषाण_काल (Palaeolithic Age) – 5,00,000 ई.पू. से 50,000 ई.पू. तक
आखेटक एवं खाद्य संग्राहक
#मध्यपाषाण_काल (Mesolithic Age) – 10,000 ई.पू. से 7000 ई.पू. तक
आखेटक एवं पशु पालक
#नवपाषाण_काल (Neolithic Age) – 9,000 ई.पू. (विश्व) व 7,000 ई.पू. (भारत) से 2,500 ई.पू. तक
खाद्य उत्पादक, स्थिर एवं समुदाय में रहना
1. #पुरापाषाण_काल
पुरापाषाण काल को तीन उपभागों में बाँटा जा सकता है —
A. #निम्न_पुरापाषाण_काल :
▪️निम्न पुरापाषाण काल 5,00,000 ई.पू. से 50,000 ई.पू. तक माना जाता है।
▪️इस समय तक मानव आग का अविष्कार कर चूका था।
▪️मानव समूह बनाकर शिकार कर भोजन का संग्रह करता था।
#प्रमुख_स्थल : कश्मीर, राजस्थान का थार, उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर में स्थित बेलन घाटी, भीमबेटका की गुफाएँ, नर्मदा घाटी (मध्य प्रदेश), सोहन नदी घाटी, कर्णाटक एवं आंध्रप्रदेश आदि।
#मुख्य_औजार : क्वार्ट्जाइट पत्थर के बने कुल्हाड़ी, हस्त कुल्हाड़ी या हस्त कुठार (hand-axe), खण्डक (गँड़ासा) (Chopper)।
B. #मध्य_पुरापाषाण_काल :
▪️मध्य पुरापाषाण काल 50,000 ई.पू. से 40,000 ई.पू. तक माना जाता है।
▪️इस काल को फलक संस्कृति (Flake Culture) भी कहते हैं।
▪️आग का प्रयोग व्यापक रूप में किया जाने लगा था।
▪️इस काल में पत्थर के गोले से वस्तुओं का निर्माण होने लगा था।
प्रमुख स्थल : मध्य प्रदेश की नर्मदा घाटी, राजस्थान का डीडवाना, महाराष्ट्र का नेवासा, उत्तर प्रदेश का मिर्जापुर और पश्चिम बंगाल का बाकुण्डा एवं पुरलिया।
मुख्य औजार : पत्थर की पपड़ियों के बने फलक, छेदनी और खुरचनी आदि इस काल के प्रमुख हथियार थे।हथियारों में क्वार्ट्जाइट के आलावा जैस्पर एवं चर्ट आदि पत्थरों का प्रयोग होने लगा था।
C. #उच्च_पुरापाषाण_काल :
▪️उच्च पुरापाषाण काल 40,000 ई.पू. से 10,000 ई.पू. तक माना जाता है।
▪️इस काल में होमो सेपियन्स (Homo Sapiens) अर्थात आधुनिक मानव का उदय हुआ।
▪️इस काल का मानव शैलाश्रयों (Rock shelter) में रहने लगा था।
▪️मानव चित्रकारी और नक्काशी करना जान चूका था।
▪️इस काल के चित्रकारी के साक्ष्य मध्य प्रदेश स्थित ‘भीमबेटका की गुफाओं’ से प्राप्त हुये हैं।
#प्रमुख_स्थल : उत्तर प्रदेश स्थित बेलन घाटी, महाराष्ट्र स्थित बीजापुर एवं इनामगांव, केरल स्थित चित्तूर, झारखण्ड स्थिर छोटानागपुर का पठार आदि।
#प्रमुख_औजार : हड्डियों से बने औजार, फलक, तक्षणी एवं शल्क आदि।
2. #मध्य_पाषाण_काल
▪️मध्य पाषाण काल 10,000 ई.पू. से 7000 ई.पू. तक माना जाता है।
▪️इस काल के मानव मछली पकड़कर, शिकार करके और खाद्य सामग्री एकत्रित कर जीवन यापन करते थे।
▪️मानव द्वारा पशुपालन करने का प्रारम्भिक साक्ष्य इसी काल के मानवों का प्राप्त हुआ है।
▪️मानव द्वारा पशुपालन के साक्ष्य राजस्थान के बागोर और मध्य प्रदेश के आदमगढ़ से प्राप्त हुए हैं।
▪️इस काल के मानव एक ही स्थान पर स्थायी निवास करते थे इसका प्रारंभिक साक्ष्य सराय नाहर राय (प्रतापगढ़, उत्तर प्रदेश) एवं महदहा से स्तम्भगर्त के रूप में मिलता है।
▪️इस काल के मानवों द्वारा एक दूसरे पर आक्रमण और युद्ध करने के प्रारंभिक साक्ष्य भी सराय नाहर राय से प्राप्त हुए हैं।
▪️इतिहासकारों का मत है कि ‘मातृदेवी की उपासना’ और ‘शवाधान की पद्धति’ संभवतः इसी काल में प्रारम्भ हुई होगी।
#प्रमुख_स्थल : बिहार का ‘पायसरा – मुंगेर’, राजस्थान का बागोर, गुजरात का लंघनाज, उत्तर प्रदेश स्थित सराय नाहर राय (प्रतापगढ़) और महागढ, मध्य प्रदेश स्थित आदमगढ़ (होशंगाबाद), भीमबेटका (भोपाल) और बोधोर आदि।
#प्रमुख_औजार :
▪️सर्वप्रथम तीर कमान का अविष्कार इसी काल में हुआ था।
▪️इस काल के हथियार भी पत्थर और हड्डियों के ही बने होते थे लेकिन ये पुरापाषाणकाल की तुलना में बहुत छोटे होते थे, इसलिए इन्हें माइक्रोलिथ अर्थात लघुपाषण कहा जाता है।
▪️हथियारों में लकड़ियों और हड्डियों के हत्थे लगे हंसिए एवं आरी आदि हथियार मिलते हैं।
▪️नुकीले क्रोड, त्रिकोण, ब्लेड और नवचन्द्राकर आदि आकार के प्रमुख हथियार थे।
3. #नवपाषाण_काल
▪️नवपाषाण काल विश्व के लिए 9,000 ई.पू. से और भारत के लिए 7,000 ई.पू. से 2,500 ई.पू. तक माना जाता है।
▪️कृषि कार्य का प्रारम्भ, पशु पालन, पत्थरों को घिसकर औजार और हथियार बनाना आदि इस काल की विशेषता थी।
▪️पत्थर की कुल्हाड़ियों का प्रयोग किया जाता था।
इस काल में मिट्टी के बने बर्तनों (मृदभांडों) का प्रयोग और उनमे विविधता मिलती है।
▪️ग्राम समुदाय का प्रारम्भ और स्थिर ग्राम्य जीवन का विकास भी संभवतः इसी काल में हुआ था, अर्थात मानव घर बना कर एक ही स्थान पर रहता था।
▪️इस काल के मानव गोलाकार और आयतकार घरों में रहा करते थे जिसे मिट्टी और सरकंडों से बनाया जाता था।
▪️बलूचिस्तान के मेहरगढ़ से इस काल की कृषि का प्राचीनतम साक्ष्य प्राप्त हुआ है। मेहरगढ़ से जौ, गेहूँ, खजूर और कपास की फसलों के साक्ष्य प्राप्त हुए हैं। यहाँ के लोग मिट्टी के कच्ची ईटों से बने आयताकार घरों में रहा करते थे।
▪️मानव द्वारा सर्वप्रथम प्रयुक्त अनाज जौ था।
▪️उत्तर प्रदेश के कोलडिहवा (इलाहबाद) से 6,000 ई.पू. के चावल उत्पादन के प्राचीनतम साक्ष्य प्राप्त हुए हैं।
▪️कश्मीर के बुर्जहोम से गर्तावास (गड्ढा रूपी घर), हड्डी के औजार आदि मिले हैं। साथ ही कब्रों में मालिक के शवों के साथ उनके पालतू कुत्तों को भी दफनाया गया है।
▪️सर्वप्रथम इसी काल में कुत्तों को पालतू बनाया गया।
बिहार के चिरांद (सारण) से हड्डी के बने औजार और मुख्य रूप से हिरन के सींगों से बने उपकरण मिले हैं।
कुंभकारी सर्वप्रथम इसी काल में मिलती है, बर्तनों में पॉलिशदार काला मृदभांड, धूसर मृदभांड और चटाई की छाप वाले मृदभांड प्रमुख हैं।
▪️कर्णाटक के पिक्लीहल से राख के ढेर तथा निवास स्थान मिले हैं। यहाँ के निवासी पशु पाला करते थे।
#प्रमुख_स्थल : सरुतरु और मारकडोला (असम), उतनूर (आन्ध्र प्रदेश), चिरांद, सेनुआर (बिहार), बुर्जहोम, गुफ्कराल (कश्मीर), कोलडिहवा, महागढ (उत्तर प्रदेश), पैयमपल्ली (तमिलनाडु), ब्रह्मगिरि, कोडक्कल, पिक्लीहल, हल्लुर, मस्की, संगेनकल्लु (कर्नाटक), मेहरगढ़ (पाकिस्तान)
#सिन्धु_घाटी_सभ्यता [ #हड़प्पा_सभ्यता ]
सिंधु घाटी सभ्यता दुनिया की चार प्रारम्भिक सभ्यताओं (मेसोपोटामिया या सुमेरियन सभ्यता, मिस्र सभ्यता और चीनी सभ्यता) में से एक है|
#संक्षिप्त_विवरण :
1. यह सभ्यता कांस्य युग (ताम्रपाषाण काल) के अंतर्गत आता है|
2. इस सभ्यता का विस्तार पश्चिम में बलूचिस्तान तक, पूर्व में आलमगीरपुर (उत्तर प्रदेश) तक, दक्षिण में दाइमाबाद (महाराष्ट्र) तक और उत्तर में मंदा (जम्मू-कश्मीर) तक था|
3. इस सभ्यता में किसानों और व्यापारियों का प्रभुत्व था जिसके कारण इस सभ्यता को कृषि-वाणिज्यिक सभ्यता के रूप में जाना जाता है|
4. इस सभ्यता को हड़प्पा सभ्यता के नाम से भी जाना जाता है क्योंकि 1921 में सर्वप्रथम हड़प्पा नामक स्थान पर ही दयाराम साहनी की देखरेख में खुदाई के माध्यम से इस सभ्यता की खोज की गई थी|
5. रेडियोकार्बन डेटिंग के आधार पर सिंधु घाटी सभ्यता का काल 2500-1750 ईसा पूर्व के आसपास निर्धारित किया गया है|
6. इस सभ्यता की सबसे प्रमुख विशेषता इसकी “नगर योजना” थी| इस सभ्यता के दौरान शहरों को दो भागों दुर्ग (शासक वर्ग द्वारा अधिकृत) और निचले शहर (आम लोगों का निवास स्थान) में विभाजित किया गया था|
7. धौलावीरा इस सभ्यता का एकमात्र स्थल है जहाँ शहर को तीन भागों में विभाजित किया गया था|
8. चहुन्दरो एकमात्र ऐसा शहर था जहाँ दुर्ग नहीं थे|
9. इस सभ्यता में नगर योजना “ग्रिड प्रणाली” पर आधारित थी| इस सभ्यता के लोग भवन निर्माण के लिए पके हुए ईंटों को इस्तेमाल करते थे| इसके अलावा नालियों का उत्तम प्रबंध, किलाबन्द दुर्ग और लोहे के औजारों की अनुपस्थिति इस सभ्यता की प्रमुख विशेषताएं थी|
10. सिन्धु घाटी सभ्यता के लोगों ने सर्वप्रथम कपास का उत्पादन किया था जिसे ग्रीक भाषा में “सिनडम” कहा जाता है और यह सिंध से प्राप्त हुआ था|
11. सिन्धु घाटी सभ्यता के लोग बड़े पैमाने पर गेहूं और जौ का उत्पादन करते थे| उनके द्वारा उगाये जाने वाले अन्य फसल दाल, धान, कपास, खजूर, खरबूजे, मटर, तिल और सरसों थे।
12. इस काल के ज्ञात पशुओं में बैल, भेड़, भैंस, बकरी, सूअर, हाथी, कुत्ता, बिल्ली, गधा और ऊंट प्रमुख थे।
13. इस सभ्यता का सबसे महत्वपूर्ण पशु “बिना कूबड़ वाले बैल” या “एक सींग वाला गैंडा” था|
14. इस सभ्यता के दौरान बाह्य और आंतरिक व्यापार विकसित अवस्था में था, लेकिन भुगतान “वस्तु-विनिमय प्रणाली” द्वारा होता था|
15. इस सभ्यता के लोगों ने स्वतः ही वजन और माप प्रणाली विकसित की थी, जो 16 के अनुपात में थी|
16. शवों को दफनाने या जलाने का काम उत्तर-दक्षिण दिशा में किया जाता था|
17. हड़प्पा संस्कृति की सबसे कलात्मक कृति “शैलखड़ी की मुहरें” हैं| हड़प्पा कालीन लिपि चित्रात्मक थी लेकिन अभी तक इसे पढ़ा नहीं जा सका है| इस लिपि में पहली पंक्ति दाएं से बाएं ओर और दूसरी पंक्ति बाएं से दाएं ओर लिखी जाती थी| इस शैली को सर्पलेखन (Boustrophedon) कहा जाता है।
18. सिन्धु घाटी सभ्यता की खुदाई से “स्वस्तिक” के निशान भी मिले हैं|
19. मूर्तियों के माध्यम से पता चलता है कि सिन्धु घाटी सभ्यता के दौरान देवी माँ (मातृदेवी या शक्ति) की पूजा होती थी| इसके अलावा “योनि” (महिला यौन अंग) के पूजा के सबूत भी मिले हैं|
20. इस काल के प्रमुख पुरुष देवता “पशुपति महादेव” अर्थात पशुओं के भगवान (आद्य-शिव) थे| जिनकी आकृति खुदाई से प्राप्त एक मुहर पर मिली है| इस आकृति में एक पुरुष योगमुद्रा में बैठे हुए हैं एवं चार जानवर (हाथी, बाघ, गैंडा और भैंस) से घिरे हुए हैं| इसके अलावा उनके पैरों के पास दो हिरण खड़े हैं| सिन्धु घाटी सभ्यता के दौरान “शिवलिंग” की पूजा भी व्यापक रूप से होती थी|
21. इस काल के लोगों का मुख्य व्यवसाय “कताई”, “बुनाई”, “नाव बनाना”, “सोने के आभूषण बनाना”, “मिट्टी के बर्तन बनाना” और “मुहरें बनाना” था|
#आधुनिक_भारत_का_इतिहास :
#सहायक_संधि
ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने हस्तक्षेप की नीति को प्रारंभ किया और और पूर्व में अपने अधीन किये गये शासकों के क्षेत्रों का प्रयोग अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं अर्थात भारतीय राज्यों को ब्रिटिश शक्ति के अधीन लाने के लिए किया| सहायक संधि हस्तक्षेप की नीति थी जिसका प्रयोग भारत के गवर्नर जनरल लॉर्ड वेलेजली (1798-1805 ई.) द्वारा भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की स्थापना के लिए किया गया| इस प्रणाली में यह कहा गया की प्रत्येक भारतीय शासक को अपने राज्य में ब्रिटिश सेना के रख-रखाव के लिए धन का भुगतान करना होगा और इसके बदले में ब्रिटिश उनकी उनके विरोधियों से सुरक्षा करेंगे |इस संधि ने ब्रिटिश साम्राज्य का अत्यधिक विस्तार किया |
इसका सर्वप्रथम प्रयोग लॉर्ड वेलेजली द्वारा किया गया जिसने हस्तक्षेप की नीति को सहायक संधि के रूप में संस्थागत रूप प्रदान किया| उसने ऐसी लगभग सौ संधियों पर हस्ताक्षर के द्वारा नवाबों व निजामों को अपना सहायक बना लिया| इस प्रणाली के मुख्य बिंदु निम्नलिखित हैं-
• सहायक संधि पर हस्ताक्षर करने वाले राज्यों को अपने राज्य में ब्रिटिश सेना की एक स्थायी रेजीमेंट को रखना पड़ता था और उसके रख-रखाव हेतु धन देना पड़ता था|
• ब्रिटिशों की पूर्व अनुमति प्राप्त किये बगैर कोई भी भारतीय शासक किसी भी यूरोपीय को अपनी सेवा में नियुक्त नहीं नहीं कर सकता था|
• भारतीय शासक गवर्नर जनरल से सलाह किये बगैर किसी भी दूसरे भारतीय शासक से कोई समझौता नहीं करेगा|
#संधि_को_स्वीकार_करने_वाले_राज्य
• सर्वप्रथम इस संधि पर हस्ताक्षर हैदराबाद के निज़ाम ने किये थे| 1798 ई. में निज़ाम के फ्रांसीसी संबंधों को समाप्त कर दिया और ब्रिटिश अनुमति के बिना वे मराठों से कोई संधि नहीं कर सकते थे|
• मैसूर दूसरा राज्य था जिसने 1799 ई. में इस संधि पर हस्ताक्षर किये|
• 1801 ई. में वेलेज़ली ने अवध के नवाब को इस संधि पर हस्ताक्षर करने के लिया बाध्य किया|
• 1802 ई. में पेशवा बाजीराव द्वितीय भी अपने राज्य को इस संधि के तहत ले आये |बहुत से अन्य मराठा राज्यों,जैसे 1803 ई. में सिंधिया व भोसले ने भी इस संधि पर हस्ताक्षर किये| अंतिम मराठा संघ जैसे होल्कर ने भी इस संधि की शर्तों को स्वीकार कर लिया|
#निष्कर्ष
सहायक संधि वास्तव में किसी भी राज्य की संप्रुभता को छीनने वाला दस्तावेज था जिसके तहत राज्य को स्वयं अपनी रक्षा करने का, कूटनीतिक सम्बन्ध स्थापित करने का ,विदेशियों को नियुक्त करने का और यहाँ तक कि अपने पड़ोसी के साथ विवादों का समाधान करने का भी अधिकार प्राप्त नहीं था |
#आधुनिक_भारत_का_इतिहास :
#डच_उपनिवेश_की_स्थापना
हॉलैंड (वर्त्तमान नीदरलैंड) के निवासी डच कहलाते है। पुर्तगालियो के बाद डचों ने भारत में अपने कदम रखे। ऐतिहासिक दृष्टि से डच समुद्री व्यापार में निपुण थे। 1602 ईमें नीदरलैंड की यूनाइटेड ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना की गयी और डच सरकार द्वारा उसे भारत सहित ईस्ट इंडिया के साथ व्यापार करने की अनुमति प्रदान की गयी।
#डचों_का_उत्थान
1605 ई में डचों ने आंध्र प्रदेश के मुसलीपत्तनम में अपनी पहली फैक्ट्री स्थापित की। बाद में उन्होंने भारत के अन्य भागों में भी अपने व्यापारिक केंद्र स्थापित किये। डच सूरत और डच बंगाल की स्थापना क्रमशः 1616 और 1627 में की गयी थी। डचों ने 1656 ई में पुर्तगालियों से सीलोन जीत लिया और 1671 ई में पुर्तगालियों के मालाबार तट पर स्थित किलों पर भी कब्ज़ा कर लिया। पुर्तगालियों से नागापट्टिनम जीतने के बाद डच काफी सक्षम गए और दक्षिण भारत में अपने पैर जमा लिए। उन्होंने काली मिर्च और मसालों के व्यापार पर एकाधिकार स्थापित कर आर्थिक दृष्टि से अत्यधिक लाभ कमाया। कपास, अफीम, नील, रेशम और चावल वे प्रमुख भारतीय वस्तुएं है जिनका व्यापार डचों द्वारा किया जाता था।
#डच_सिक्के
डचों ने भारत में रहने के दौरान सिक्कों की ढलाई पर भी हाथ आजमाए। जैसे जैसे उनके व्यापार में वृद्धि होती गयी उन्होंने कोचीन, मूसलीपत्तनम, नागापट्टिनम , पोंडिचेरी और पुलीकट में टकसालों की स्थापना की। पुलीकट स्थित टकसाल से भगवान वेंकटेश्वर (भगवान विष्णु) के चित्र वाले सोने के पैगोडा सिक्के जारी किये गए। डचों द्वारा जारी किये गए सभी सिक्के स्थानीय सिक्का ढलाई के नमूनों पर आधारित थे।
#डच_शक्ति_का_पतन
भारतीय उप-महाद्वीप पर डचों की उपस्थिति 1605 ई से लेकर 1825 ई तक रही थी। पूर्व के साथ व्यापार में ब्रिटिश शक्ति के उदय ने डचों के व्यापारिक हितों के प्रति एक चुनौती प्रस्तुत की जिसके परिणामस्वरूप दोनों के मध्य खूनी संघर्ष हुए। इन संघर्षों में स्पष्ट रूप से ब्रिटिशों की विजय हुई क्योकि उनके पास अधिक संसाधन थे। अम्बोयना में डचों द्वारा कुछ ब्रिटिश व्यापारियों की नृशंस हत्या ने परिस्थितियों को और बिगाड़ दिया। ब्रिटिशों द्वारा एक के बाद एक लगभग सभी डच क्षेत्रों को अपने कब्जे में ले लिया गया।
#मालाबार_क्षेत्र_में_डच_शक्ति_की_घोर_पराजय
डच-अंग्रेज संघर्ष के मध्य त्रावणकोर के राजा मार्तंड वर्मा द्वारा 1741 ई में कोलाचेल के युद्ध में डच ईस्ट इंडिया कंपनी को पराजित करने के साथ ही मालाबार क्षेत्र में डच शक्ति का पूर्णतः पतन हो गया।
#ब्रिटिशों_के_साथ_संधियाँ_और_संघर्ष
हालाँकि 1814 ई की एंग्लो-डच संधि के तहत डच कोरोमंडल और डच बंगाल पुनः डच शासन के अधीन आ गए थे लेकिन 1824 ई में हस्ताक्षरित एंग्लो-डच संधि के प्रावधानों के तहत फिर से ब्रिटिश शासन के अधीन आ गए क्योकि इस संधि के तहत डचों के लिये 1 मार्च 1825 ई तक सारी संपत्ति और क्षेत्रों को हस्तांतरित करना बाध्यकारी बना दिया गया। 1825 ई के मध्य तक डच भारत में अपने सभी व्यापारिक क्षेत्रों से वंचित हो चुके थे। एक समझौते के तहत ब्रिटिशों ने आपसी अदला-बदली के तरीके के आधार पर खुद को इंडोनेशिया के साथ व्यापार से अलग कर लिया और बदले में डचों ने भारत के साथ अपना व्यापार बंद कर दिया।
#भारत_में_डेनिश_औपनिवेशिक_क्षेत्र
डेनमार्क से सम्बंधित किसी भी व्यक्ति या वस्तु को डेनिश कहा जाता है। डेनमार्क द्वारा लगभग 225 वर्षों तक भारत में अपने उपनिवेश बनाये रखे गए। भारत में स्थापित डेनिश बस्तियों मे त्रंकोबार (तमिलनाडु) ,सेरामपुर (पश्चिम बंगाल) और निकोबार द्वीप शामिल थे।
#डेनिश_व्यापारिक_एकाधिकार_की_स्थापना
एक डच साहसी मर्सलिस दे बोशौवेर ने भारतीय उप-महाद्वीप में डेनिश हस्तक्षेप के लिए प्रेरणा प्रदान की। वह सहयोगी दलों से सभी तरह के व्यापार पर एकाधिकार के वादे के साथ पुर्तगालियों के विरुद्ध सैन्य सहयोग चाहता था। उसकी अपील ने डेनमार्क-नॉर्वे के राजा क्रिस्चियन चतुर्थ को प्रभावित किया जिसने बाद में 1616 ई में एक चार्टर जारी किया जिसके तहत डेनिश ईस्ट इंडिया कंपनी को डेनमार्क और एशिया के मध्य होने वाले व्यापार पर बारह वर्षों के लिए एकाधिकार प्रदान कर दिया गया।
#डेनिश_चार्टर्ड_कंपनियां
दो डेनिश चार्टर्ड कंपनियां थी। प्रथम कंपनी डेनिश ईस्ट इंडिया कंपनी थी ,जिसका कार्यकाल 1616 ई से लेकर 1650 ई तक था। डेनिश ईस्ट इंडिया कंपनी और स्वीडिश ईस्ट इंडिया कंपनी मिलकर ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी से ज्यादा चाय का आयात करती थीं और उसमे से अधिकांश को अत्यधिक लाभ पर अवैध तरीके से ब्रिटेन में बेचता था। इस कंपनी का 1650 ई में विलय कर दिया गया। दूसरी कंपनी 1670 ई से लेकर 1729 ई तक सक्रिय रही । 1730 ई में एशियाटिक कंपनी के रूप में इसकी पुनः स्थापना की गयी। 1732 ई में इसे शाही लाइसेंस प्रदान कर अगले चालीस वर्षों के लिए आशा अंतरीप के पूर्व से होने वाले डेनिश व्यापार पर एकाधिकार प्रदान कर दिया गया। 1750 ई तक भारत से 27 जहाज भेजे गए जिनमे से 22 जहाज सफलतापूर्वक यात्रा पूरी कर कोपेनहेगेन पहुचे। लेकिन 1722 ई में कंपनी ने अपना एकाधिकार खो दिया।
#सेरामपुर_मिशन_प्रेस
यहाँ यह उल्लेख करना जरुरी है कि सेरामपुर मिशन प्रेस की स्थापना ,जोकि एक ऐतिहासिक एवं युगांतरकारी कदम था, सेरामपुर में डेनिश मिशनरी द्वारा 1799 ई में की गयी थी। 1801 ई से लेकर 1832 ई तक सेरामपुर मिशन प्रेस ने 40 विभिन्न भाषाओं में किताबों की 212,000 प्रतियाँ छापीं।
#भारत_में_डेनिश_बस्तियों_की_समाप्ति
नेपोलियन युद्ध (1803-1815 ई।) के दौरान ब्रिटिशों ने डेनिश जहाजों पर हमला कर डेनिश ईस्ट इंडिया कंपनी के भारत के साथ होने वाले व्यापर को नष्ट कर दिया और अंततः डेनिश बस्तियों पर कब्ज़ा कर उन्हें ब्रिटिश भारत का हिस्सा बना लिया। अंतिम डच बस्ती सेरामपुर को 1845 ई में डेनमार्क द्वारा ब्रिटेन को हस्तांतरित कर दिया गया।
[5/8, 8:28 AM] Raj Kumar: #भारत_के_प्रमुख_पठार
भारत का प्रायद्वीपीय पठार एक मेज की आकृति वाला स्थल है जो पुराने क्रिस्टलीयए आग्नेय तथा रूपांतरित शैलों से बना है। यह गोंडवाना भूमि के टूटने एवं अपवाह के कारण बना था तथा यही कारण है कि यह प्राचीनतम भूभाग का एक हिस्सा है। इस पठारी भाग में चौड़ी तथा छिछली घाटियाँ एवं गोलाकार पहाड़ियाँ हैं। इस पठार के दो मुख्य भाग हैं-
1.मध्य उच्चभूमि
2.दक्कन का पठार
#मध्य_उच्चभूमि
नर्मदा नदी के उत्तर में प्रायद्वीपीय पठार का वह भाग जो कि मालवा के पठार के अधिकतर भागों पर फैला है उसे मध्य उच्चभूमि के नाम से जाना जाता है। विंध्य शृंखला दक्षिण में मध्य उच्चभूमि तथा उत्तर-पश्चिम में अरावली से घिरी है। पश्चिम में यह धीरे-धीरे राजस्थान के बलुई तथा पथरीले मरुस्थल से मिल जाता है। इस क्षेत्र में बहने वाली नदियाँ चंबल, सिंध, बेतवा तथा केन दक्षिण-पश्चिम से उत्तर-पूर्व की तरफ बहती हैं इस प्रकार वे इस क्षेत्र के ढाल को दर्शाती हैं। मध्य उच्चभूमि पश्चिम में चौड़ी लेकिन पूर्व में संकीर्ण है। इस पठार के पूर्वी विस्तार को स्थानीय रूप से बुंदेलखंड तथा बघेलखंड के नाम से जाना जाता है। इसके और पूर्व के विस्तार को दामोदर नदी द्वारा अपवाहित छोटा नागपुर पठार दर्शाता है। दक्षिण का पठार एक त्रिभुजाकार भूभाग है जो नर्मदा नदी के दक्षिण में स्थित है। उत्तर में इसके चौड़े आधार पर सतपुड़ा की शृंखला है जबकि महादेव की पहाड़ी तथा मैकाल शृंखला इसके पूर्वी विस्तार हैं।
#दक्कन_का_पठार
दक्कन का पठार जिसे विशाल प्रायद्वीपीय पठार के नाम से भी जाना जाता है, भारत का विशालतम पठार है, यह पठार त्रिभुजाकार है, जिसके पठार का एक भाग उत्तर-पूर्व में भी देखा जाता है जिसे स्थानीय रूप से ‘मेघालय या शिलांग का पठार’ तथा ‘उत्तर कचार पहाड़ी’ के नाम से जाना जाता है। यह एक भ्रंश के द्वारा छोटा नागपुर पठार से अलग हो गया है। पश्चिम से पूर्व की ओर तीन महत्त्वपूर्ण शृंखलाएँ गारो खासी तथा जयंतिया हैं। दक्षिण (दक्कन) के पठार के पूर्वी एवं पश्चिमी सिरे पर क्रमशः पूर्वी तथा पश्चिमी घाट स्थित हैं। पश्चिमी घाटए पश्चिमी तट के समानांतर स्थित है। वे सतत् हैं तथा उन्हें केवल दर्रों के द्वारा ही पार किया जा सकता है।
पश्चिमी घाटए पूर्वी घाट की अपेक्षा ऊंचे हैं।
प्रायद्वीपीय पठार की एक विशेषता यहाँ पायी जाने वाली काली मृदा है, जिसे ” दक्कन ट्रैप ” के नाम से भी जाना जाता है। इसकी उत्पत्ति ज्वालामुखी से हुई है इसलिए इसके शैल आग्नेय ( Igneous Shell) हैं। वास्तव में इन शैलों का समय के साथ अपरदन हुआ है जिनसे काली मृदा का निर्माण हुआ है। अरावली की पहाड़ियाँ प्रायद्वीपीय पठार के पश्चिमी एवं उत्तर-पश्चिमी किनारे पर स्थित है। ये बहुत अधिक अपरदित एवं खंडित पहाड़ियाँ हैं। ये गुजरात से लेकर दिल्ली तक दक्षिण-पश्चिम एवं उत्तर-पूर्व दिशा में विस्तृत हैं।
#आधुनिक_भारत_का_इतिहास :
#पुर्तगाली_उपनिवेश_की_स्थापना
पुर्तगाली पहले यूरोपीय थे जिन्होंने भारत तक सीधे समुद्री मार्ग की खोज की । 20 मई 1498 को पुर्तगाली नाविक वास्को-डी-गामा कालीकट पहुंचा, जो दक्षिण-पश्चिम भारत में स्थित एक महत्वपूर्ण समुद्री बंदरगाह है। स्थानीय राजा जमोरिन ने उसका स्वागत किया और कुछ विशेषाधिकार प्रदान किये। भारत में तीन महीने रहने के बाद वास्को-डी-गामा सामान से लदे एक जहाज के साथ वापस लौट गया और उस सामान को उसने यूरोपीय बाज़ार में अपनी यात्रा की कुल लागत के साठ गुने दाम में बेचा।
1501 ई.में वास्को-डी-गामा दूसरी बार फिर भारत आया और उसने कन्नानौर में एक व्यापारिक फैक्ट्री स्थापित की। व्यापारिक संबंधों की स्थापना हो जाने के बाद भारत में कालीकट, कन्नानौर और कोचीन प्रमुख पुर्तगाली केन्द्रों के रूप में उभरे। अरब व्यापारी, पुर्तगालियो की सफलता और प्रगति से जलने लगे और इसी जलन ने स्थानीय राजा जमोरिन और पुर्तगालियो के बीच शत्रुता को जन्म दिया। यह शत्रुता इतनी बढ़ गयी कि उन दोनों के बीच सैन्य संघर्ष की स्थिति पैदा हो गयी। राजा जमोरिन को पुर्तगालियों ने हरा दिया और इसी जीत के साथ पुर्तगालियों की सैनिक सर्वोच्चता स्थापित हो गयी।
#भारत_में_पुर्तगाली_शक्ति_का_उदय
1505 ई में फ्रांसिस्को दे अल्मीडा को भारत का पहला पुर्तगाली गवर्नर बनाया गया। उसकी नीतियों को ब्लू वाटर पालिसी कहा जाता था क्योकि उनका मुख्य उद्देश्य हिन्द महासागर को नियंत्रित करना था। 1509 ई में फ्रांसिस्को दे अल्मीडा की जगह अल्बुकर्क भारत में पुर्तगाली गवर्नर बनकर आया जिसने 1510 ई.में बीजापुर के सुल्तान से गोवा को अपने कब्जे में ले लिया। उसे भारत में पुर्तगाली शक्ति का वास्तविक संस्थापक माना जाता है। बाद में गोवा भारत में पुर्तगाली बस्तियों का मुख्यालय बन गया। तटीय क्षेत्रों पर पकड़ और नौसेना की सर्वोच्चता ने भारत में पुर्तगालियों के स्थापित होने में काफी मदद की ।16 वीं सदी के अंत तक पुर्तगालियों ने न केवल गोवा,दमन,दीव और सालसेट पर कब्ज़ा कर लिया बल्कि भारतीय तट के सहारे विस्तृत बहुत बड़े क्षेत्र को भी अपने प्रभाव में ले लिया।
#पुर्तगाली_शक्ति_का_पतन
भारत में पुर्तगाली शक्ति अधिक समय तक टिक नहीं सकी क्योकि नए यूरोपीय व्यापारिक प्रतिद्वंदियों ने उनके सामने चुनौती पेश कर दी। विभिन्न व्यापारिक प्रतिद्वंदियों के मध्य हुए संघर्ष में पुर्तगालियों को अपने से शक्तिशाली और व्यापारिक दृष्टि से अधिक सक्षम प्रतिद्वंदी के समक्ष समर्पण करना पड़ा और धीरे धीरे वे सीमित क्षेत्रों तक सिमट कर रह गए।
#पुर्तगाली_शक्ति_के_पतन_के_मुख्य_कारण
भारत में पुर्तगाली शक्ति के पतन के प्रमुख कारणों में निम्नलिखित शामिल है-
पुर्तगाल एक देश के रूप में इतना छोटा था कि वह अपने देश से दूर स्थित व्यापारिक कॉलोनी के भार को वहन नही कर सकता था।
उनकी समुद्री डाकुओं के रूप में प्रसिद्धि ने स्थानीय शासकों के मन में उनके विरुद्ध शत्रुता का भाव पैदा कर दिया।
पुर्तगालियो की कठोर धार्मिक नीति ने उन्हें भारत के हिन्दू और मुसलमानों दोनों से दूर कर दिया।
इसके अतिरिक्त डच और ब्रिटिशो के भारत में आगमन ने भी पुर्तगालियो के पतन में योगदान दिया।
विडंबना यह है कि पुर्तगाली शक्ति, जो भारत में सबसे पहले आने वाली यूरोपीय शक्ति थी ,वही 1961 ई.में भारत से लौटने वाली अंतिम यूरोपीय शक्ति भी थी, जब भारत सरकार ने गोवा ,दमन और दीव को उनसे पुनः अपने कब्जे में ले लिया।
#भारत_को_पुर्तगालियो_की_देन
उन्होंने भारत में तंबाकू की कृषि आरंभ की।
उन्होंने भारत के पश्चिमी और पूर्वी तट पर कैथोलिक धर्म का प्रसार किया।
उन्होंने 1556 ई.में गोवा में भारत की पहली प्रिंटिग प्रेस की स्थापना की। द इंडियन मेडिसनल प्लांट्स पहला वैज्ञानिक कार्य था जिसका प्रकाशन 1563 ई.में गोवा से किया गया ।
सर्वप्रथम उन्होंने ही कार्टेज प्रणाली के माध्यम से यह बताया कि कैसे समुद्र और समुद्री व्यापार पर सर्वोच्चता स्थापित की जाए। इस प्रणाली के तहत कोई भी जहाज अगर पुर्तगाली क्षेत्रोँ से गुजरता है तो उसे पुर्तगालियों से परमिट लेना पडेगा अन्यथा उन्हें पकड़ा जा सकता है।
वे भारत और एशिया में ईसाई धर्म का प्रचार करने वाले प्रथम यूरोपीय थे।
विश्व_विरासत_स्थल :
#दिल्ली_का_लाल_किला
यमुना नदी के दाएँ किनारे पर स्थित दिल्ली के प्रसिद्ध लाल किले का निर्माण सन् 1639 में प्रारंभ किया गया था और इसे पूरा करने में 9 वर्ष लगे। दिल्ली के लाल किले की दीवारों, द्वारों और कुछ अन्य संरचनाओं का निर्माण लाल बलुआ पत्थर से किया गया है, इसीलिए इसे 'लाल किला' कहा जाता है | वर्ष 2007 में युनेस्को द्वारा दिल्ली के लाल किले को ‘विश्व विरासत स्थल’ का दर्जा प्रदान किया गया |
#दिल्ली_के_लाल_किले_से_संबन्धित_तथ्य:
1. सन् 1638 में शाहजहाँ (1628-58ई.) ने अपनी राजधानी आगरा से दिल्ली स्थानान्तरित की और उसी समय शाहजहाँनाबाद की स्थापना की थी, जो दिल्ली का सातवां नगर है। इसका प्रसिद्ध नगर दुर्ग ‘लाल किला’ है, जो नगर के उत्तरी किनारे पर स्थित है।
2. दिल्ली का लाल किला अनगढ़े पत्थर की दीवार से घिरा हुआ है, जिस पर बीच बीच में बुर्ज, द्वार और विकेट बने हुए हैं।
3. इसके चौदह दरवाजों में से मोरी गेट, अजमेरी गेट, तुर्कमान गेट, कश्मीरी गेट और दिल्ली गेट सबसे महत्वपूर्ण हैं। इनमें से कुछ पहले ही ध्वस्त हो चुके हैं।
4. दिल्ली का लाल किला आगरे के लाल किले से इस मायने में भिन्न है कि इसे एक सुनियोजित ढंग से बनाया गया है और यह एक ही व्यक्ति का कार्य था।
5. दिल्ली का लाल किला 254.67 एकड़ (103.06 हे.) में विस्तृत है और 2.41 किमी. की रक्षा प्राचीर से घिरा हुआ है |
6. ताजमहल के वास्तुकार उस्ताद अहमद लाहौरी ने ही दिल्ली के लाल किले का भी डिजायन तैयार किया था |
7. दिल्ली का लाल किला एक असाधारण अष्टकोण के आकार का है, जिसके पूर्व और पश्चिम में दो बड़े-बड़े पार्श्व और दो मुख्य द्वार हैं | इनमें से एक द्वार पश्चिम में और दूसरा द्वार दक्षिण में स्थित है, जिन्हें क्रमश: 'लाहौरी गेट' और 'दिल्ली गेट' कहा जाता है।
8. हयात बख्श बाग (जीवन देने वाला बाग) के मध्य में स्थित तालाब के मध्य भाग में लाल पत्थर का मंडप है, जिसे ‘जफर महल’ कहते हैं और इसे लगभग सन् 1842 में बहादुरशाह द्वितीय द्वारा बनवाया गया था।
9. दिल्ली के लाल किले की दीवारों, द्वारों और कुछ अन्य संरचनाओं का निर्माण लाल बलुआ पत्थर से किया गया है लेकिन महलों में संगमरमर का अधिक प्रयोग किया गया है।
10..किले के अंदर स्थित ‘मोती मस्जिद’ का निर्माण बाद में औरंगजेब (1658-1707 ई.) अपनी निजी मस्जिद के रूप में कराया था |
11. ‘दीवाने-ए-आम’ के पीछे लेकिन महल से पृथक रंग महल (चित्रित महल) था, जिसे इसकी भीतरी रंगीन सजावट के कारण ऐसा नाम दिया गया था।
12. मेहराबदार तोरणपथ, जिसे ‘छत्ताचौक’ कहते हैं, से होकर गुजरने के बाद पश्चिमी द्वार से नौबत-या नक्कार खाना (ड्रम-हाउस) पहुंचा जाता है जहां दिन में पांच बार संगीत बजता था और जो दीवाने-ए-आम में प्रवेश के लिए प्रवेश द्वार था। इसकी ऊपरी मंजिल में आजकल ‘इण्डियन वॉर मेमोरियल म्यूजियम’ है।
13..‘दीवाने-ए-आम’ (आम जनता के लिए हॉल) एक आयताकार हॉल है, जिसके तीन लंबे गलियारे हैं और अग्रभाग में नौ मेहराबें हैं। हाल के पिछवाड़े एक शयनकक्ष है जहां संगमरमर की छतरी के नीचे शाही सिंहासन स्थित है |
14. ‘दीवाने-ए-खास’ (खास लोगों के लिए) अत्यधिक अलंकृत स्तंभ वाला हाल है, जिसकी दांतेदार मेहराब पर टिकी समतल छत है। इसके ऊपरी भाग पर मूलरूप से सोने का मुलम्मा चढ़ा हुआ था। कहा जाता है कि इसका प्रसिद्ध मोर वाला सिंहासन (मयूर सिंहासन) संगमरमर की चौकी पर टिका हुआ था जिसे बाद में पारसी आक्रमणकारी नादिर शाह सन् 1939 में भारत से ले गया था।
15. ‘तस्बीह खाना’ (व्यक्तिगत प्रार्थनाओं के लिए कक्ष) में तीन कमरे हैं, जिसके पीछे ‘ख्वाबगाह’ (सोने का कमरा/शयनकक्ष) है। तस्बीहखाना के उत्तरी आवरण पर न्याय के पैमानों (न्याय तुला) को दिखाया गया है, जो तारों और बादलों के बीच आए अर्धचन्द्र पर लटके हुए दर्शाए गए हैं।
16. ‘ख्वाबगाह’ की पूर्वी दीवार के निकट अष्टभुजाकार ‘मुसम्मन-बुर्ज’ है, जहां से सम्राट हर सुबह अपनी प्रजा को दर्शन देते थे। बुर्ज से बाहर को निकली हुई एक छोटी बॉलकनी (छज्जा) सन् 1808 में अकबर शाह द्वारा बनवाई गई थी | यह वही बॉलकनी थी, जहां से सम्राट जॉर्ज और महारानी मेरी दिसम्बर, 1911 में दिल्ली की जनता के समक्ष प्रस्तुत हुए थे।
17..‘मुमताज महल’, जो मूल रूप में शाही हरम का एक महत्वपूर्ण हिस्सा था, में आजकल दिल्ली पुरातत्व संग्रहालय स्थित है।
18. प्रतिवर्ष दिल्ली के लाल किले की प्राचीर से भारत के प्रधानमंत्री 15 अगस्त के दिन राष्ट्र को संबोधित करते हैं और लाल किले पर तिरंगे को फहराते हैं |
19..दिल्ली का लाल किला सूर्योदय से सूर्यास्त तक खुला रहता है और यहाँ का प्रवेश शुल्क भारतीय नागरिक और सार्क देशों (बांग्लादेश, नेपाल, भूटान, श्रीलंका, पाकिस्तान, मालदीव और अफगानिस्तान) और बिमस्टेक देशों (बांग्लादेश, नेपाल, भूटान, श्रीलंका, थाइलैंड और म्यांमार) के पर्यटकों के लिए 10 रूपए प्रति व्यक्ति और अन्य के लिए 05 अमरीकी डालर या 250 रूपए प्रति व्यक्ति है | लाल किले में 15 वर्ष तक की आयु के बच्चों के लिए प्रवेश नि:शुल्क है|
विश्व_विरासत_स्थल :
#छत्रपति_शिवाजी_टर्मिनस
छत्रपति शिवाजी टर्मिनस, इसे पहले विक्टोरिया टर्मिनस स्टेशन के नाम से जाना जाता था, मुंबई में है और भारत में विक्टोरियन गॉथिक वास्तुकला का उत्कृष्ट उदारहण है। इस भवन का डिजाइन ब्रिटिश शिल्पकार एफ. डब्ल्यू. स्टीवेंस ने बनाया था, इसने बॉम्बे को 'गॉथिक सिटी' का प्रतीक बनाया। बॉम्बे भारत का प्रमुख अंतरराष्ट्रीय व्यापारिक बंदरगाह भी था। रोजाना 30 लाख से अधिक यात्री इस रेलवे स्टेशन का इस्तेमाल करते हैं। वर्ष 1878 में इसका निर्माण कार्य शुरु हुआ था और दस वर्षों के बाद यह बनकर तैयार हुआ। यह इस उपमहाद्वीप का पहला टर्मिनस स्टेशन था।
#तथ्यों_पर_एक_नजरः
1..पत्थरों से बने इसके गुंबद, बुर्ज, नुकीले मेहराब और उत्केंद्रित भू–योजना परंपरागत भारतीय महल वास्तुकला के काफी करीब हैं।
2. यह दो संस्कृतियों (ब्रिटिश और भारतीय वास्तुकला) के मेल का अद्भुत उदाहरण है।
3. 21 अप्रैल, 1997 को महाराष्ट्र राज्य सरकार अधिनियम के संकल्प के तहत इसे ' विरासत ग्रेड-1' संरचना घोषित किया गया था।
4. इसके सभी कानूनी अधिकार भारत सरकार के रेल मंत्रालय के पास हैं।
5. मुंबई, भारत का पहला शहर है जहां विरासत कानून है। इस कानून को 1995 में सरकारी विनियमन द्वारा अधिनियमित किया गया था।
6. पूरे शहर में 624 सूचिबद्ध भवन है, जिनमें से 63 भवनों को ग्रेड–1 संरचना का खिताब दिया गया है। टर्मिनस का भवन इन्हीं भवनों में से एक है।
7. भारत सरकार, टर्मिनस स्टेशन के प्रबंधन के लिए धन उपलब्ध कराती है।
8..छत्रपति शिवाजी टर्मिनस (भूतपूर्व विक्टोरिया टर्मिनस) के प्रवेश द्वार पर दो स्तंभ हैं, एक पर शेर (यूनाइटेड किंगडम का प्रतिनिधित्व दर्शाता है) और दूसरे पर बाघ (भारत का प्रतिनिधित्व दर्शाता है) बना हुआ है। यहां अभिव्यक्ति करते मोर भी बने हैं।
9. इसका निर्माण सफेद चूना पत्थर से किया गया है। दरवाजे और खिड़कियां बर्मा सागौन लकड़ियों से बनी हैं। कुछ खिड़कियां इस्पात की भी बनी लगी हैं।
10. भवन का परिसर सख्त संरक्षित इलाका है जिसका रख– रखाव भारतीय रेलवे करती है।
11..यह संपत्ति (शिवाजी टर्मिनस) 90.21 हेक्टेयर के बफर जोन से संरक्षित है।
12. यह टर्मिनस मुंबई के प्रमुख रेलवे स्टेशनों में से एक है।
13. 2 जुलाई, 2004 को इस स्टेशन को यूनेस्को की विश्व धरोहर समिति द्वारा ‘विश्व धरोहर स्थल’ घोषित किया गया था।
14. यह इस उपमहाद्वीप का पहला टर्मिनस स्टेशन था।
आंकड़ों के अनुसार यह स्टेशन ताजमहल के बाद; भारत का सर्वाधिक छायाचित्रित स्मारक है।
विश्व_विरासत_स्थल :
#वेल्हा_गोवा_में_चर्च_और_आश्रम
भारत के पश्चिमी तट पर स्थित इस राज्य के वेल्हा (पुराने) गोवा के चर्च और आश्रम, पुर्तगाली शासन के युग से ही हैं। 16वीं और 17वीं शताब्दी के बीच पुराने गोवा में व्यापक स्तर पर चर्चों और गिरजाघरों का निर्माण किया गया था, इनमें शामिल हैं– बेसिलिका ऑफ बोम जीसस, सेंट कैथेड्रल, सेंट फ्रांसिस असीसी के चर्च और आश्रम, चर्च ऑफ लेडी ऑफ रोजरी, चर्च ऑफ सेंट. ऑगस्टीन और सेंट कैथरीन चैपल। इन चर्चों और आश्रमों को 1986 में विश्व धरोहर स्थल घोषित किया गया था।
#वेल्हा (पुराने) में चर्चों और आश्रमों के बारे में तथ्यों पर एक नजरः
गोवा की खूबसूरती चर्चों में प्रदर्शित कई प्राचीन उत्कृष्ट कलाकृतियों की उपस्थिति में दुगनी हो जाती है। गोवा के आश्रमों और चर्चों पर पुर्तगाल की संस्कृति का बहुत प्रभाव है। उनकी वास्तुकला कल्पना और पुनर्जागरण शैली का संयोजन हैं। इन चर्चों को बनाने में मुख्य रूप से चूना प्लास्टर और लैटेराइट का प्रयोग किया गया है।
इन चर्चों में रखे गए अधिकांश चित्र लकड़ी के बॉर्डर से घिरे हैं। ये संत जेवियर के मकबरे को सजाने के लिए इस्तेमाल किए गए फूलों के डिजाइन जैसे ही हैं। पत्थर की कुछ मूर्तियों के अलावा बाकी सभी मूर्तियां लकड़ी की बनी हैं और उन पर उत्कृष्ट नक्काशी की हुई है। यहां वेदी को सजाने में इस्तेमाल किए जाने वाले प्रभु यीशु, मां मैरी और संतों की कुछ उत्कृष्ट पेंटिंग्स भी हैं।
#द_बेसिलिका_ऑफ_बोम_जीसस :
बोम जीसस का शाब्दिक अर्थ है "शिशु यीशु" या "अच्छा यीशु"। द बोम जेसु बेसिलिका या बोम जीसस बेसिलिका पुराने गोवा में स्थित है। पुराना गोवा पुर्तगाल के शासन के आरंभिक दिनों में उसकी राजधानी हुआ करता था। यहां गोवा की राजधानी पंजिम से दस किलोमीटर की दूरी पर एक चर्च है।
सेंट फ्रांसिस के आश्रम के पास स्थित यह स्थान सेंट फ्रांसिस जेवियर के पार्थिव शरीर और कब्र के लिए प्रसिद्ध है। माना जाता है कि सेंट फ्रांसिस जेवियर पुर्तगाली काफिले के साथ भारत आए थे और उन्होंने भारत में ईसाई धर्म का प्रचार– प्रसार किया था। वे सोसायटी ऑफ जीसस से जुड़े थे।
#से_कैथेड्रल :
से कैथेड्रल गोवा का सबसे लोकप्रिय और प्राचीन धार्मिक स्थान है। से कैथेड्रल पूरे एशियाई क्षेत्र का सबसे बड़ा चर्च है। उपलब्ध आंकड़े बताते हैं कि यह चर्च 80 वर्षों में बन कर तैयार हुआ था। यह चर्च सिकंदरिया की कैथरीन को समर्पित है। यह पुराने गोवा में स्थित है। पूरे विश्व के ईसाई समुदाय द्वारा उच्च सम्मान और पवित्रता के इस स्थल का दौरा कर आप पुर्तगाली कला, मूर्तिकला और उनकी राजसी गौरव का आसानी से अनुभव कर सकते हैं। यूनेस्को ने ‘से कैथेड्रल’ को विश्व धरोहर स्थल का दर्जा दिया है।
#चर्च_ऑफ_सेंट_फ्रांसिस_ऑफ_असीसी :
से कैथेड्रल के पश्चिम दिशा में सेंट फ्रांसिस ऑफ असीसी चर्च स्थित है। इसे शुरुआत में प्रार्थनाघर के तौर पर बनाया गया था। वर्ष 1521 में इसका पुनर्निर्माण किया गया और पूर्ण रूप से काम करने वाले चर्च का रूप दिया गया। 2 अगस्त 1602 को इस चर्च को प्रभु यीशू को समर्पित किया गया। फ्रांसीसी भिक्षुक आश्रमों का प्रयोग अपने निवास स्थान के तौर पर करते थे और वर्ष 1559 में इन आश्रमों का जीर्णोद्धार किया गया था। हालांकि, 1835 में पुर्तगाल प्रशासन ने इन आश्रमों को बंद कर दिया था। वर्ष 1964 में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने इस चर्च को संग्रहालय बना दिया था। इस चर्च में मूर्तियों, पेंटिंग और कलाकृतियों का विशाल खजाना है।
चर्च में मोजेक– कोरिंथियन शैली और टस्कन संस्कृति का मिला जुला स्वरुप देखने को मिलता है। पहली शैली का प्रयोग चर्च की आंतरिक सज्जा में जबकि बाद की शैली का प्रयोग चर्च के बाहरी हिस्सों की सज्जा में किया गया है। चर्च के भीतरी दीवारों को बाइबल की महत्वपूर्ण विचारों और जटिल फूलदार डिजाइनों से सजाया गया है। चर्च के सामने वाले हिस्से में संत माइकल की मूर्ति है। इसके अलावा एक चैपल में कुर्सी पर सेंट फ्रांसिस असीसी के लकड़ी की मूर्ती भी सजा कर रखी गई है।
#चर्च_ऑफ_लेडी_ऑफ_रोजरी :
द लेडी ऑफ रोजरी चर्च मोंटे सैंटो या पवित्र पहाड़ी के पश्चिम की तरफ स्थित है। कई ऐतिहासिक तथ्य यह बताते हैं कि यह वही स्थान हैं जहां अलफांसो डी अलबुकरी ने अपनी सेना तैयार की थी और 1510 में विजेता बन कर उभरा था। इस स्थान पर 1950 की अवधि के कुछ शिलालेख भी मिले हैं। वर्ष 1543 में इस इलाके को फिर से बनाया गया और चर्च का रूप दिया गया। बाद में इसे देखभाल के लिए फ्रांसिसियों के हवाले कर दिया गया था। यह चर्च लोगों के उच्च सम्मान और भावना का प्रतीक है क्योंकि यह सेंट फ्रांसिस जेवियर द्वारा दी जाने वाली शिक्षा का केंद्र था। उन्होंने एक छोटी सी घंटी की आवाज सुनकर वहां इकठ्ठा होने वाले स्थानीय लोगों को पढाना शुरु किया था।
इस चर्च के भीतर और बाहर का डिजाइन बहुत सहज है। ‘ग्रेसिया डी सा’ गोवा के पहले राज्यपाल में से एक थे। उन्होंने समाधि के सामने एक पत्थर रखा था। यह पत्थर "Manueline" वास्तुकला शैली और फिर पुर्तगाली शैली का शास्त्रीय उदाहरण है। भीतर का डिजाइन बहुत सामान्य है और इसमें पांच वेदियां हैं। लेडी ऑफ रोजरी या नोस्सा सेनहोरा डी रोजारीयो की तस्वीर मुख्य वेदी पर रखी गई है।
#चर्च_ऑफ_सेंट_ऑगस्टिन :
सेंट. ऑगस्टिन चर्च का निर्माण बारह (12) ऑगस्टिन संन्यासियों ने 3 सितंबर 1572 को गोवा पहुंचने के बाद 1572 में किया था। यह चर्च 1962 में पूरा हुआ। वर्तमान में आश्रम और चर्च दोनों ही क्षतिग्रस्त स्थिति में हैं। वर्ष 1835 तक यह चर्च बहुत मजबूत था। फिर पुर्तगाल के प्रशासन द्वारा धार्मिक आदेश पारित किए जाने के बाद यह उपेक्षित हो गया। वर्ष 1842 में इसके मेहराब के गिरने से यह बुरी तरह से क्षतिग्रस्त हो गया। इस प्राचीन स्मारक का एक मात्र बचा हुआ हिस्सा घंटाघर है जो बिना किसी घंटे के आज भी खड़ा है। घंटाघर के घंटे को हटा दिया गया था और वर्ष 1841 से 1871के बीच इसे अगुआदा लाइट हाउस किले पर लगाया गया था। इसके बाद उसे पंजिम स्थित चर्च ऑफ लेडी ऑफ इम्युकुलेट कॉन्सेप्शन को दे दिया गया। यह अभी भी वहां सही तरीके से काम कर रहा है।
#महारानी_विक्टोरिया_की_घोषणा_तथा_1858
#का_अधिनियम
1 नवम्बर, 1858 ई0 को ब्रिटेन की रानी विक्टोरिया ने एक घोषणा की जिसे भारत के प्रत्येक शहर में पढ़कर सुनाया गयां इस घोषणा में ब्रिटिश सरकार ने उन मुख्य सिद्धान्तों का विवरण दिया जिसके आधार पर भारत का भविष्य का शासन निर्भर करता था। इस घोषणा का कोई कानूनी आधार न था क्योंकि इसे ब्रिटिश संसद ने स्वीकार किया था। परन्तु तब भी इनमें दिये गये सिद्धान्त, आश्वासन आदि कानून के समकक्ष स्थान रखते थे क्योंकि इसे ब्रिटेन के मंत्रीमण्डल की स्वीकृति प्राप्त थी। इसमें मुख्यत: निम्नलिखित बाते सम्मिलित थी :
1. इसके द्वारा घोषित किया गया कि भारत में ईस्ट इंडिया कम्पनी द्वारा प्रशासित क्षेत्रों का शासन अब प्रत्यक्ष रूप से ब्रिटेन के क्राउन द्वारा किया जायेगा।
2.इसके द्वारा गवर्नर-जनरल लार्ड कैनिंग को वायसराय क्राउन का प्रतिनिधि का पद भी प्रदान किया गया।
3. इसके द्वारा कम्पनी के सभी असैनिक और सैनिक पदाधिकारियों को ब्रिटिश क्राउन की सेवा में ले लिया गया तथा उनके संबंध में बने हुए सभी नियमों को स्वीकार किया गया।
4. इसके द्वारा भारतीय नरेशों के साथ कम्पनी द्वारा की गई सभी संधियों और समझौतों को ब्रिटिश क्राउन के द्वारा यथावत स्वीकार कर लिया गया, भारतीय नरेशों को बच्चा गोद लेने का अधिकार दिया गया तथा उन्हें यह आश्वासन भी दिया गया कि ब्रिटिश क्राउन अब भारत में राज्य - विस्तार की आकांक्षा नहीं करता और भारतीय नरेशों के अधिकारो, गौरव एवं सम्मान का उतना ही आदर करेगा जितना कि वह स्वयं का करता है।
5. इसके द्वारा साम्राज्ञी ने अपनी भारतीय प्रजा को आश्वासन दिया कि उनके धार्मिक विश्वासों में कोई हस्तक्षेप नहीं किया जायेगा बल्कि उनके प्राचीन विश्वासो, आस्थाओं और परम्पराओं का सम्मान किया जायेगा।
6. इसके द्वारा भारतीयों को जाति या धर्म के भेदभाव के बिना उनकी योग्यता, शिक्षा, निष्ठा और क्षमता के आधार पर सरकारी पदों पर नियुक्त किये जाने का समान अवसर पद्र ान करने का आश्वासन दिया गया।
7. इसके द्वारा यह आश्वासन दिया गया कि रानी की सरकार सार्वजनिक भलाई, लाभ और उन्नति के प्रयत्न करेगी तथा शासन इस प्रकार चलायेगी जिससे उसकी समस्त प्रजा का हितसाधन हो।
8. 1857 ई0 के विद्रोह में भाग लेने वाले अपराधियों में से केवल उनको छोडकर जिन पर अंग्रेजों की हत्या का आरोप था, बाकी सभी को क्षमा प्रदान कर दी गयी।
◾1858 ई. के कानून की शर्तें :
1. इसके द्वारा भारत का शासन ब्रिटेन की संसद को दे दिया गया।
2. डायरेक्टरों की सभा और अधिकार सभा को समाप्त कर दिया गया तथा उनके समस्त अधिकार भारत -सचिव को दे दिये गये। भारत-सचिव अनिवार्यत: ब्रिटिश संसद और ब्रिटिश मंत्रिमण्डल का सदस्य होता था।
3. भारत-सचिव की सहायता के लिये 15 सदस्यों की एक सभा- भारत-परिषद की स्थापना की गयी। इसके 7 सदस्यों की नियुक्ति का अधिकार ब्रिटेन के क्राउन को तथा शेष सदस्यों के चयन का अधिकार कम्पनी के डायरेक्टरों को दिया गया परन्तु प्रत्येक स्थिति में यह आवश्यक था कि इसके आधे सदस्य ऐसे हो जो कम से कम दस वर्ष तक भारत सेवा-कार्य कर चुके हो।
4. अर्थव्यवस्था और अखिल भारतीय सेवाओं के विषय में भारत-सचिव, भारत-परिषद् की राय को मानने के लिये बाध्य था। अन्य सभी विषयों पर वह उसकी राय को ठुकरा सकता था। उसे अपने कार्यों की वार्षिक रिपोर्ट ब्रिटिश संसद के समक्ष प्रस्तुत करनी पड़ती है।
5. भारतीय गवर्नर-जनरल को भारत-सचिव की आज्ञानुसार कार्य करने के लिये बाध्य किया गया। गवर्नर-जनरल भारत में ब्रिटिश सम्राट के प्रतिनिधियों के रूप में कार्य करने लगा और इस कारण उसे वायसराय भी कहा गयां.
महाराणा प्रताप
(महापराक्रमी वीर राजा, मेवाड़ के एक राजपूत शासक थे)
महाराणा प्रताप सिंह सिसोदिया ( ज्येष्ठ शुक्ल तृतीया रविवार विक्रम संवत १५९७ तदनुसार ९ मई १५४०–१९ जनवरी १५९७) उदयपुर, मेवाड में सिसोदिया राजपूत राजवंश के राजा थे। उनका नाम इतिहास में वीरता और दृढ प्रण के लिये अमर है। उन्होंने मुगल सम्राट अकबर की अधीनता स्वीकार नहीं की और कई सालों तक संघर्ष किया। महाराणा प्रताप सिंह ने मुगलों को कईं बार युद्ध में भी हराया।
राज्याभिषेक:- 28 फ़रवरी1572
पूर्ववर्ती :- महाराणा उदयसिंह
उत्तरवर्ती:- महाराणा अमर सिंह
जन्म:- 9 मई 1540
कुम्भलगढ़ दुर्ग, पाली, राजस्थान, भारत।
निधन:- 19 जनवरी 1597
पूरा नाम:- महाराणा प्रताप सिसोदिया
घराना:- सिसोदिया
पिता:- महाराणा उदयसिंह
माता:- महाराणी जयवंताबाई
धर्म:- सनातन धर्म
उनका जन्म वर्तमान राजस्थान के कुम्भलगढ़ में महाराणा उदयसिंह एवं माता राणी जयवंत कँवर के घर हुआ था। लेखक जेम्स टॉड के अनुसार महाराणा प्रताप का जन्म मेवाड़ के कुंभलगढ में हुआ था । इतिहासकार विजय नाहर के अनुसार राजपूत समाज की परंपरा व महाराणा प्रताप की जन्म कुंडली व कालगणना के अनुसार महाराणा प्रताप का जन्म पाली के राजमहलों में हुआ। १५७६ के हल्दीघाटी युद्ध में ५०० भील लोगो को साथ लेकर राणा प्रताप ने आमेर सरदार राजा मानसिंह के ८०,००० की सेना का सामना किया। हल्दीघाटी युद्ध में भील सरदार राणा पूंजा जी का योगदान सराहनीय रहा। शत्रु सेना से घिर चुके महाराणा प्रताप को झाला मानसिंह ने आपने प्राण दे कर बचाया ओर महाराणा को युद्ध भूमि छोड़ने के लिए बोला। शक्ति सिंह ने आपना अश्व दे कर महाराणा को बचाया। प्रिय अश्व चेतक की भी मृत्यु हुई। यह युद्ध तो केवल एक दिन चला परन्तु इसमें १७,००० लोग मारे गए। मेवाड़ को जीतने के लिये अकबर ने सभी प्रयास किये। महाराणा की हालत दिन-प्रतिदिन चिंताजनक होती चली गई । २५,००० सैनिकों के १२ साल तक गुजारे लायक अनुदान देकर भामाशाह भी अमर हुआ।
जन्म स्थान:-
महाराणा प्रताप के जन्मस्थान के प्रश्न पर दो धारणाएँ है । पहला महाराणा प्रताप का जन्म कुम्भलगढ़ दुर्ग में हुआ था क्योंकि महाराणा उदयसिंह एवम जयवंताबाई का विवाह कुंभलगढ़ महल में हुआ। दूसरी धारणा यह है कि जन्म पाली के राजमहलों में हुआ। महाराणा प्रताप की माता का नाम जयवंता बाई था, जो पाली के सोनगरा अखैराज की बेटी थी। महाराणा प्रताप को बचपन में कीका के नाम से पुकारा जाता था। लेखक विजय नाहर की पुस्तक हिन्दुवा सूर्य महाराणा प्रताप के अनुसार जब प्रताप का जन्म हुआ था उस समय उदयसिंह युद्व और असुरक्षा से घिरे हुए थे। कुंभलगढ़ किसी तरह से सुरक्षित नही था। जोधपुर का राजा मालदेव उन दिनों उत्तर भारत मे सबसे शक्तिसम्पन्न था। एवं जयवंता बाई के पिता एवम पाली के शाषक सोनगरा अखेराज मालदेव का एक विश्वसनीय सामन्त एवं सेनानायक था। इस कारण पाली और मारवाड़ हर तरह से सुरक्षित था। अतः जयवंता बाई को पाली भेजा गया। वि. सं. ज्येष्ठ शुक्ला तृतीया सं 1597 को प्रताप का जन्म पाली मारवाड़ में हुआ। प्रताप के जन्म का शुभ समाचार मिलते ही उदयसिंह की सेना ने प्रयाण प्रारम्भ कर दिया और मावली युद्ध मे बनवीर के विरूद्ध विजय श्री प्राप्त कर चित्तौड़ के सिंहासन पर अपना अधिकार कर लिया। भारतीय प्रशासनिक सेवा से सेवानिवत्त अधिकारी देवेंद्र सिंह शक्तावत की पुस्तक महाराणा प्रताप के प्रमुख सहयोगी के अनुसार महाराणा प्रताप का जन्म स्थान महाराव के गढ़ के अवशेष जूनि कचहरी पाली में विद्यमान है। यहां सोनागरों की कुलदेवी नागनाची का मंदिर आज भी सुरक्षित है। पुस्तक के अनुसार पुरानी परम्पराओं के अनुसार लड़की का पहला पुत्र अपने पीहर में होता है। इतिहासकार अर्जुन सिंह शेखावत के अनुसार महाराणा प्रताप की जन्मपत्रिका पुरानी दिनमान पद्धति से अर्धरात्रि 12/17 से 12/57 के मध्य जन्मसमय से बनी हुई है। 5/51 पलमा पर बनी सूर्योदय 0/0 पर स्पष्ट सूर्य का मालूम होना जरूरी है इससे जन्मकाली इष्ट आ जाती है। यह कुंडली चित्तौड़ या मेवाड़ के किसी स्थान में हुई होती तो प्रातः स्पष्ट सूर्य का राशि अंश कला विक्ला अलग होती। पण्डित द्वारा स्थान कालगणना पुरानी पद्धति से बनी प्रातः सूर्योदय राशि कला विकला पाली के समान है। डॉ हुकमसिंह भाटी की पुस्तक सोनगरा सांचोरा चौहानों का इतिहास 1987 एवं इतिहासकार मुहता नैणसी की पुस्तक ख्यातमारवाड़ रा परगना री विगत में भी स्पष्ट है "पाली के सुविख्यात ठाकुर अखेराज सोनगरा की कन्या जैवन्ताबाई ने वि. सं. 1597 जेष्ठ सुदी 3 रविवार को सूर्योदय से 47 घड़ी 13 पल गए एक ऐसे देदीप्यमान बालक को जन्म दिया। धन्य है पाली की यह धरा जिसने प्रताप जैसे रत्न को जन्म दिया।"
जीवन:-
राणा उदयसिंह केे दूसरी रानी धीरबाई जिसे राज्य के इतिहास में रानी भटियाणी के नाम से जाना जाता है, यह अपने पुत्र कुंवर जगमाल को मेवाड़ का उत्तराधिकारी बनाना चाहती थी | प्रताप केे उत्तराधिकारी होने पर इसकेे विरोध स्वरूप जगमाल अकबर केे खेमे में चला जाता है |
महाराणा प्रताप का प्रथम राज्याभिषेक मेंं 28 फरवरी, 1572 में गोगुन्दा में होता हैै, लेकिन विधि विधानस्वरूप राणा प्रताप का द्वितीय राज्याभिषेक 1572 ई. में ही कुुंभलगढ़़ दुुर्ग में हुआ, दूूूसरे राज्याभिषेक में जोधपुर का राठौड़ शासक राव चन्द्रसेेन भी उपस्थित थे |
राणा प्रताप ने अपने जीवन में कुल ११ शादियाँ की थी उनके पत्नियों और उनसे प्राप्त उनके पुत्रों पुत्रियों के नाम है:-
महारानी अजाब्दे पंवार :- अमरसिंह और भगवानदास
अमरबाई राठौर :- नत्था
शहमति बाई हाडा :-पुरा
अलमदेबाई चौहान:- जसवंत सिंह
रत्नावती बाई परमार :-माल,गज,क्लिंगु
लखाबाई :- रायभाना
जसोबाई चौहान :-कल्याणदास
चंपाबाई जंथी :- कल्ला, सनवालदास और दुर्जन सिंह
सोलनखिनीपुर बाई :- साशा और गोपाल
फूलबाई राठौर :-चंदा और शिखा
खीचर आशाबाई :- हत्थी और राम सिंह
महाराणा प्रताप के शासनकाल में सबसे रोचक तथ्य यह है कि मुगल सम्राट अकबर बिना युद्ध के प्रताप को अपने अधीन लाना चाहता था इसलिए अकबर ने प्रताप को समझाने के लिए चार राजदूत नियुक्त किए जिसमें सर्वप्रथम सितम्बर 1572 ई. में जलाल खाँ प्रताप के खेमे में गया, इसी क्रम में मानसिंह (1573 ई. में ), भगवानदास ( सितम्बर, 1573 ई. में ) तथा राजा टोडरमल ( दिसम्बर,1573 ई. ) प्रताप को समझाने के लिए पहुँचे, लेकिन राणा प्रताप ने चारों को निराश किया, इस तरह राणा प्रताप ने मुगलों की अधीनता स्वीकार करने से मना कर दिया जिसके परिणामस्वरूप हल्दी घाटी का ऐतिहासिक युद्ध हुआ।
आप सभी को महाराणा प्रताप जयंती की हार्दिक शुभकामनाएं।
#आधुनिक_भारत_का_इतिहास :
#फ्रांसीसी_उपनिवेश_की_स्थापना
भारत आने वाले यूरोपीय व्यापारी फ्रांसीसी थे। फ्रांसीसी ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना 1664 ई में लुई सोलहवें के शासनकाल में भारत के साथ व्यापार करने के उद्देश्य से की गयी थी। फ्रांसीसियों ने 1668 ई में सूरत में पहली फैक्ट्री स्थापित की और 1669 ई में मसुलिपत्तनम में एक और फैक्ट्री स्थापित की।1673 ई में बंगाल के मुग़ल सूबेदार ने फ्रांसीसियों को चन्द्रनगर में बस्ती बनाने की अनुमति प्रदान कर दी।
#पोंडिचेरी_और_फ्रांसीसी_वाणिज्यिक_वृद्धि: 1674 ई में फ्रांसीसियों ने बीजापुर के सुल्तान से पोंडिचेरी नाम का गाँव प्राप्त किया और एक सम्पन्न शहर की स्थापना की जो बाद में भारत में फ्रांसीसियों का प्रमुख केंद्र बनकर उभरा। धीरे धीरे फ़्रांसीसी ईस्ट इंडिया कंपनी ने माहे,कराइकल, बालासोर और कासिम बाज़ार में अपनी व्यापारिक बस्तियां स्थापित कर लीं। फ्रांसीसियों का भारत आने का प्रमुख उद्देश्य व्यापर एवं वाणिज्य था। भारत आने से लेकर 1741 ई तक फ्रांसीसियों का प्रमुख उद्देश्य ,ब्रिटिशों के समान,पूर्णतः वाणिज्यिक ही था। फ्रांसीसी ईस्ट इंडिया कंपनी ने 1723 ई में यनम, 1725 ई में मालाबार तट पर माहे और 1739 ई में कराइकल पर कब्ज़ा कर लिया।
#फ्रांसीसियों_के_राजनीतिक_उद्देश्य_और_महत्वाकांक्षा: समय के गुजरने के साथ साथ फ्रांसीसियों का उद्देश्यों में भी परिवर्तन होने लगा और भारत को अपने एक उपनिवेश के रूप में मानने लगे। 1741 ई में जोसफ फ़्रन्कोइस डूप्ले को फ्रांसीसी ईस्ट इंडिया कंपनी का गवर्नर बनाया जाना इस (उपनिवेश) वास्तविकता और उद्देश्य की तरफ उठाया गया पहला कदम था। उसके काल में कंपनी के राजनीतिक उद्देश्य स्पष्ट रूप से सामने आने लगे और कहीं कहीं तो उन्हें कंपनी के वाणिज्यिक उद्देश्यों से ज्यादा महत्व दिया जाने लगा। डूप्ले अत्यधिक बुद्धिमान था जिसने स्थानीय राजाओं की आपसी दुश्मनी का फायदा उठाया और इसे भारत में फ्रासीसी साम्राज्य की स्थापना हेतु भगवान द्वारा दिए गए मौके के रूप में स्वीकार किया। उसने अपनी चतुरता और कूटनीति के बल पर भारतीय राजनीतिक परिदृश्य में सम्मानित स्थान प्राप्त किया। लेकिन ब्रिटिशों ने डूप्ले और फ्रांसीसियों के समक्ष चुनौती प्रस्तुत की जो बाद में दोनों शक्तियों के बीच संघर्ष का कारण बना। डूप्ले की सेना ने मार्क्विस दी बुस्सी के नेतृत्व में हैदराबाद और केप कोमोरिन के मध्य के क्षेत्र पर कब्ज़ा कर लिया। 1744 ई में ब्रिटिश अफसर रोबर्ट क्लाइव भारत आया जिसने डूप्ले को पराजित किया। इस पराजय के बाद 1754 ई में डूप्ले को वापस फ्रांस बुला लिया गया।
#कुछ_क्षेत्रों_पर_फ्रांसीसी_प्रतिबन्ध: लाली, जिसे फ्रांसीसी सरकार द्वारा भारत से ब्रिटिशों को बाहर करने लिए भेजा गया था, को प्रारंभ में कुछ सफलता जरुर मिली ,जैसे 1758 ईमें कुद्दलौर जिले के फोर्ट सेंट डेविड पर विजय प्राप्त करना। लेकिन ब्रिटिशों और फ्रांसीसियों के मध्य हुई बांदीवाश की लड़ाई में हैदराबाद क्षेत्र को खो देने के कारण फ्रांसीसियों की कमर टूट गयी और इसी का फायदा उठाकर 1760 ई में ब्रिटिशों ने पोंडिचेरी की घेराबंदी कर दी। 1761 ई में ब्रिटिशों ने पोंडिचेरी को नष्ट कर दिया और अंततः फ्रांसीसी दक्षिण भारत पर पकड़ खो बैठे । बाद में 1763 ई में ब्रिटिशों के साथ हुई शान्ति-संधि की शर्तों के अधीन 1765 ई में पोंडिचेरी को फ्रांसीसियों को लौटा दिया । 1962 ई में भारत और फ्रांस के मध्य हुई एक संधि के तहत भारत में स्थित फ्रांसीसी क्षेत्रों को वैधानिक रूप से पुनः भारत में मिला लिया गया
Summary of the Indian national movement
भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन का सारांश
यह देखा गया है कि भारत में स्वतंत्रता संघर्ष कई राजनीतिक, सामाजिक– सांस्कृतिक और आर्थिक कारकों के श्रृंखला का मेल था जिसने राष्ट्रवाद को बढ़ाने का काम किया।
28 दिसंबर 1885 को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (आईएनसी) का गठन गोकुलदास तेजपाल संस्कृत स्कूल, बॉम्बे में किया गया। इसकी अध्यक्षता डब्ल्यू.सी. बैनर्जी ने की थी और इसमें 72 प्रतिनिधियों ने भाग लिया था। ए.ओ. ह्यूम ने आईएनसी के गठन में अहम भूमिका निभाई थी और इनका उद्देश्य था ब्रिटिश सरकार को सेफ्टी वॉल्व प्रदान करना।
ए.ओ. ह्यूम ने आईएनसी के पहले महासचिव के तौर पर काम किया।
कांग्रेस का मुख्य उद्देश्य भारतीय युवाओं को राजनीतिक आंदोलन में प्रशिक्षित करना और देश में जनता की राय बनाना था। इसके लिए इन्होंने वार्षिक सत्र पद्धति को अपनाया जहां वे समस्याओं पर चर्चा करते थे और संकल्प पारित करते थे।
भारतीय राष्ट्रवाद का पहला या आरंभिक चरण मध्यम दर्जे (नरमदल) का चरण (1885-1905) भी कहलाता है। नरमदल के नेता थे, डब्ल्यू.सी. बनर्जी, गोपाल कृष्ण गोखले, आर.सी. दत्ता, फीरोजशाह मेहता, जॉर्ज यूल आदि
नरमपंथी नेताओं को ब्रिटिश सरकार में पूर्ण विश्वास था और उन्होंने पीपीपी मार्ग यानि विरोध, प्रार्थना और याचिका, को अपनाया था।
काम के नरमपंथी तरीकों से मोहभंग होने के कारण, 1892 के बाद कांग्रेस मेंचरमपंथ विकसित होने लगा। चरमपंथी नेता थे– लाला लाजपत राय, बाल गंगाधर तिलक, बिपिनचंद्र पाल और अरबिंदो घोष। पीपीपी मार्ग के बजाए इन्होंने आत्म– निर्भरता, रचनात्मक कार्य और स्वदेशी पर जोर दिया।
प्रशासनिक सुविधा के लिए लॉर्ड कर्जन द्वारा बंगाल विभाजन (1905) की घोषणा के बाद, 1905 में स्वदेशी और बहिष्कार संकल्प पारित किया गया था।
स्वदेशी आंदोलन के दौरान कांग्रेस के सत्रः
1905 – बनारस में कांग्रेस सत्र। गोपाल कृष्ण गोखले ने अध्यक्षता की।
1906– कलकत्ता में कांग्रेस सत्र। दादाभाई नैरोजी ने अध्यक्षता की।
1907– ताप्ती नदी के किनारे सूरत में कांग्रेस का सत्र। फिरोजशाह मेहता ने अध्यक्षता की जिसमें नरमपंथी और चरमपंथियों के बीच मतभेदों की वजह से कांग्रेस में विभाजन हो गया।
आगा खान III और मोहसिन मुल्क द्वारा 1906 में मुस्लिम लीग का गठन किया गया।
1909 के मॉर्ले– मिंटो सुधार अधिनियम द्वारा अलग निर्वाचन मंडल प्रस्तुत किया गया था।
लाला हरदयाल ने 1913 में गदर आंदोलन शुरु किया था और कोटलैंड में 1 नवंबर 1913 को गदर पार्टी की स्थापना की थी। इसका मुख्यालय सैन फ्रांसिस्को के युगांतर आश्रम में था और गदर पत्रिका का प्रकाशन शुरु किया गया था।
कोमागाटा मारू घटना सितंबर 1914 में हुई थी और इसके लिए भारतीयों ने शोर कमिटि नाम से एक समिति बनाई थी जो यात्रियों की कानूनी लड़ाई लड़ती थी।
1914 में पहला विश्व युद्ध आरंभ हुआ था।
अप्रैल 1916 में तिलक ने होम रूल आंदोलन की शुरुआत की थी। इसका मुख्यालय पूना में था और इसमें स्वराज की मांग की गई थी।
सितंबर 1916 में एनीबेसेंट ने होम रूल आंदोलन शुरु किया और इसका मुख्यालय मद्रास के करीब अडियार में था।
वर्ष 1916 में हुए कांग्रेस के लखनउ अधिवेशन की अध्यक्षता अम्बिका चरण मौजूमदार (नरमपंथी नेता) ने की थी जहां चरमपंथी और नरमपंथी दोनों प्रकार के नेता एक जुट हुए थे।
भारत सरकार अधिनियम 1919 या मोंटागू– चेम्सफोर्ड रिफॉर्म एक्ट को भारत में जिम्मेदार सरकार की स्थापना के लिए पारित किया गया था।
9 जनवरी 1915 को गांधी जी 46 वर्ष की उम्र में दक्षिण अफ्रीका से भारत वापस आए थे।
1916 में गांधी जी ने सत्य और अहिंसा के विचार के प्रचार के लिए अहमदाबाद (गुजरात) में साबरमती आश्रम की स्थापना की।
चंपारण सत्याग्रह– 1917
खेड़ा सत्याग्रह– 1917
अहमदाबाद मिल हड़ताल– 1918
रॉलेक्ट एक्ट सत्याग्रह– फरवरी, 1919
गांधी जी ने फरवरी, 1919 में सत्याग्रह सभा की स्थापना की। इस आंदोलन में छात्र, मध्यम वर्ग, मजदूर और पूंजीपतियों ने हिस्सा लिया और संगठन के तौर पर कांग्रेस कहीं नहीं थी। यह गांधी जी का पहला जन आंदोलन था।
जलियांवाला बाग नरसंहार – 13 अप्रैल 1919। 13 अप्रैल 1919 को लोग अमृतसर के जलियांवाला बाग में सैफुद्दीन किचलू और सत्यपाल की गिरफ्तारी का विरोध करने के लिए इक्ट्ठा हुए थे।
1 अगस्त 1920 को खिलाफत समिति ने तीन मुद्दों– पंजाब में हुई बेइंसाफी, खिलाफत का मुद्दा और स्वराज की मांग, पर असहयोग आंदोलन की शुरुआत की।
इसके बाद 1920 में असहयोग – आंदोलन की शुरुआत हुई।
अक्टूबर 1920 में एन.एम. जोशी, राय चौधरी ने बॉम्बे में अखिल भारतीय व्यापार संघ कांग्रेस की स्थापना की। अध्यक्षता लाला लाजपत राय ने की थी।
अकाली आंदोलन 1920 में शुरु हुआ था।
वर्ष 1925 में एसजीपीसी (शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमिटि) का गठन हुआ था।
सी.आर दास और मोतिलाल नेहरू ने कांग्रेस खिलाफत स्वराज पार्टी का गठन किया था। यह कांग्रेस में दूसरे विभाजन के नाम से भी जाना जाता है।
वर्ष 1927 में, श्रमिक और किसान पार्टी (डब्ल्यूपीपी) का गठन एस.एस. मिराजकर, के. एन. जुगलेकर और एस. वी. घाटे ने बॉम्बे में किया था।
वर्ष 1924 में, एच.आर.ए. (हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन) का कानपुर में गठन हुआ था। सी.एस आजाद, सचिन सान्याल और रामप्रसाद बिस्मिल इसके सदस्य थे।
वर्ष 1929 में, एचएसआरए ( हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन) का फिरोजशाह कोटला दिल्ली में गठन हुआ। भगत सिंह एचएसआरए में शामिल हुए।
9 अगस्त 1925 को, काकोरी रेल डकैती हुई, इस षड़यंत्र में राम प्रसाद बिस्मिल, राजेन्द्र लाहिड़ी, रौशन लाल और अशफाकुल्लाह खान को फांसी की सजा दी गई।
23 मार्च 1931 को भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को लाहौर षड़यंत्र मामले में फांसी की सजा दी गई।
8 नवंबर 1927 को स्टेनली बाल्डविन के तहत ब्रिटिश कंजर्वेटिव सरकार द्वारा साइमन कमिशन बनाया गया था।
कमिशन का गठन 1919 के सुधार अधिनियम के बाद देश में सरकार की कार्य प्रणाली की जांच करने के लिए किया गया था।
नेहरू रिपोर्ट– 1928, राष्ट्र का दर्जा, सार्वभौमिक व्यस्क मताधिकार आदि के लिए।
जिन्ना का 14 सूत्री कार्यक्रम– 31 मार्च 1929
आईएनसी का 1929 में हुआ लाहौर अधिवेशन, अध्यक्षता जवाहरलाल नेहरू ने की। इसमें पूर्ण स्वराज का संकल्प कांग्रेस द्वारा पारित किया गया और गांधी जी के नेतृत्व में सविनय अवज्ञा आंदोलन करने का फैसला किया गया।
26 जनवरी 1930 को पहली बार स्वतंत्रता दिवस मनाया गया।
दांडी मार्च के साथ सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरु किया गया था। 12 मार्च से 6 अप्रैल 1930 तक गांधी जी ने अपने 78 अनुयायियों के साथ साबरमती आश्रम से दांडी तक की यात्रा की और 6 अप्रैल 1930 को नमक बनाकर नमक कानून को तोड़ा।
12 नवंबर 1930 को पहला गोलमेज सम्मेलन आयोजित किया गया था।
5 मार्च 1931 को गांधी – इरविन समझौते पर हस्ताक्षर।
23 मार्च 1931 को भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव का ट्रायल।
29 मार्च 1931, आईएनसी का कराची अधिवेशन, वल्लभ भाई पटेल ने अध्यक्षता की। इस अधिवेशन में पहली बार मौलिक अधिकारों और आर्थिक नीति का संकल्प पारित किया गया।
7 सितंबर 1931 को दूसरा गोलमेज सम्मेलन हुआ जिसमें कांग्रेस की तरफ से गांधी जी ने हिस्सा लिया।
16 अगस्त 1932 को सांप्रदायिक या रामसे मैकडोनाल्ड पुरस्कार की घोषणा हुई।
26 सितंबर 1932, पूना पैक्ट पर हस्ताक्षर किए गए।
नवंबर 1932 में तीसरा गोलमेज सम्मेलन आयोजित किया गया था।
1935 में, भारत सरकार अधिनियम को अखिल भारतीय संघ, प्रांतीय स्वायत्तता और केंद्र में द्वैध शासन पद्धित होनी चाहिए, को बनाने के लिए पारित किया गया था।
भारत छोड़ो आंदोलन की ओर
महत्वपूर्ण कांग्रेस सत्रः
1936 – लखनउ (उ.प्र.)– अध्यक्षता – जे.एल.नेहरू
1937 – फैजपुर (महाराष्ट्र)– अध्यक्षता– जे.एल.नेहरू (गांव में आयोजित पहला अधिवेशन)
1938 –हरीपुरा (गुजरात)– एस.सी.बोस ने अध्यक्षता की
1939 –त्रिपुरी (एम.पी.)– एस.सी. बोस ने अध्यक्षता की
सितंबर 1939 में द्वितीय विश्व युद्ध छिड़ा और भारत की सहमति के बिना उसका सहयोगी घोषित कर दिया गया ।
1939 में एस. सी. बोस ने फॉर्वाड ब्लॉक की स्थापना की। यह एक वाम पार्टी (left party) थी।
10 अगस्त 1940– द्वितीय विश्व युद्ध में भारतीयों के समर्थन पाने के लिए लॉर्ड लिनलिथगो वायसराय ने अगस्त प्रस्ताव की घोषणा की थी।
11 मार्च 1942 को प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल ने भारतीयों के संवैधानिक गतिरोध और समस्याओं का समाधान ढूंढ़ने के लिए सर स्टाफोर्ड क्रिप्स की अध्यक्षता में मिशन भेजने की घोषणा की।
क्रिप्स मिशन की असफलता के साथ 1942 में भारतीय नेताओं द्वारा भारत छोड़ो आंदोलन की शुरुआत हुई और भारत छोड़ों का संकल्प गांधी जी ने तैयार किया। गांधी जी ने करो या मरो का नारा दिया था।
1942 में कैप्टन मोहन सिंह और निरंजन गिल द्वारा सिंगापुर में इंडियन नेशनल आर्मी की स्थापना की गई। एस.सी. बोस ने सिंगापुर और रंगूनन के दूसरे मुख्यालय का पदभार संभाला।
21 अक्टूबर 1943 को– एस.सी. बोस के अधीन सिंगापुर में आजाद हिंद सरकार बनी। इसमें एक महिला रेजिमेंट भी थी जिसका नाम रानी झांसी रखा गया था।
1945 में, द्वितीय विश्व युद्ध समाप्त हुआ।
1945 में, राजनीतिक गतिरोध को दूर करने के लिए लॉर्ड वावेल द्वारा वावेल योजना या शिमला सम्मेलन का प्रस्ताव किया गया था।
1946 में, पीएम क्लिमेंट एट्टली द्वारा कैबिनेट मिशन प्लान की घोषणा।
2 सितंबर 1946 को, जे.एल. नेहरू के नेतृत्व में अंतरिम सरकार का गठन हुआ।
मार्च 1947 – लॉर्ड माउंटबेटन को सत्ता के हस्तांतरण के लिए रास्ता ढूंढ़ने के उद्देश्य के साथ भारत भेजा गया। इसे बालकन योजना के नाम से भी जाना जाता है।
3 जून को इंडिपेंडेस ऑफ इंडिया एक्ट 1947 पारित किया गया जिसके द्वारा सत्ता को दो प्रभुत्व राष्ट्रों – भारत और पाकिस्तान, को सौंपा गया।
#आधुनिक_भारत_का_इतिहास :
#बक्सर_की_लड़ाई
बक्सर का युद्ध बंगाल के नवाब मीर कासिम,अवध के नवाब सुजाउद्दौला व मुग़ल शासक शाह आलम द्वितीय की संयुक्त सेना और अंग्रेजों के मध्य लड़ा गया था | यही वह निर्णायक युद्ध था जिसने अंग्रेजों को अगले दो सौ वर्षों के लिए भारत के शासक के रूप में स्थापित कर दिया| यह युद्ध अंग्रेजों द्वारा फरमान और दस्तक के दुरुपयोग और उनकी विस्तारवादी व्यापारिक आकांक्षाओं का परिणाम था|
22 अक्टूबर,1764 ई. को लड़े गए बक्सर के युद्ध में संयुक्त भारतीय सेना की पराजय हुई| बक्सर का युद्ध भारतीय इतिहास की युगांतरकारी घटना साबित हुई |1765 ई. में सुजाउद्दौला और शाह आलम ने इलाहाबाद में कंपनी गवर्नर क्लाइव के साथ संधि पर हस्ताक्षर किये| इस संधि के तहत,कंपनी को बंगाल,बिहार और उड़ीसा के दीवानी अधिकार प्रदान कर दिए गए, जिसने कंपनी को इन क्षेत्रों से राजस्व वसूली के लिए अधिकृत कर दिया|कंपनी ने अवध के नवाब से कड़ा और इलाहाबाद के क्षेत्र लेकर मुग़ल शासक को सौंप दिए,जोकि अब इलाहाबाद में अंग्रेजी सेना के संरक्षण में रहने लगा था|कंपनी ने मुगल शासक को प्रतिवर्ष 26 लाख रुपये के भुगतान का वादा किया लेकिन थोड़े समय बाद ही कंपनी द्वारा इसे बंद कर दिया गया|कंपनी ने नवाब को किसी भी आक्रमण के विरुद्ध सैन्य सहायता प्रदान करने का वादा किया लेकिन इसके लिए नवाब को भुगतान करना होगा|अतः अवध का नवाब कंपनी पर निर्भर हो गया| इसी बीच मीर जाफर को दोबारा बंगाल का नवाब बना दिया गया| उसकी मृत्यु के बाद उसके पुत्र को नवाब की गद्दी पर बैठाया गया| कंपनी के अफसरों ने नवाब से धन ऐंठ कर व्यक्तिगत रूप से काफी लाभ कमाया|
#युद्ध_के_लिए_जिम्मेदार_घटनाएँ
ब्रिटिशों द्वारा दस्तक और फरमान का दुरुपयोग,जिसने मीर कासिम के प्राधिकार और प्रभुसत्ता को चुनौती दी
ब्रिटिशों के आतंरिक व्यापार पर सभी तरह के शुल्कों की समाप्ति
कंपनी के कर्मचारियों का दुर्व्यवहार : उन्होंने भारतीय दस्तकारों, किसानोंऔर व्यापारियों को अपना माल सस्ते में बेचने के लिए बाध्य किया और रिश्वत व उपहार लेने की परंपरा की भी शुरुआत कर दी|
ब्रिटिशों का लुटेरों जैसा व्यवहार जिसने न केवल व्यापार के नियमों का उल्लंघन किया बल्कि नवाब के प्राधिकार को भी चुनौती दी|
#निष्कर्ष
बक्सर का युद्ध भारतीय इतिहास की युगांतरकारी घटना साबित हुई | ब्रिटिशों की रूचि तीन तटीय क्षेत्रों कलकत्ता ,बम्बई और मद्रास में अधिक थी| अंग्रेजों व फ्रांसीसियों के बीच लड़े गए कर्नाटक युद्ध ,प्लासी के युद्ध और बक्सर के युद्ध ने भारत में ब्रिटिश सफलता के दौर को प्रारंभ कर दिया|1765 ई. तक ब्रिटिश बंगाल,बिहार और उड़ीसा के वास्तविक शासक बन गए| अवध और कर्नाटक के नवाब(जिसे उन्होंने ही नवाब बनाया था) उन पर निर्भर हो गए|
#आधुनिक_भारत_का_इतिहास :
#अंग्रेज_उपनिवेश_की_स्थापना
अंग्रेजों का भारत आगमन और ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना का प्रमुख कारण पुर्तगाली व्यापारियों द्वारा भारत में अपनी वस्तुओं को बेचने से होने वाला अत्यधिक लाभ था जिसने ब्रिटिश व्यापारियों को भारत के साथ व्यापार करने के लिए प्रोत्साहित किया । अतः पुर्तगाली व्यापारियों की व्यापारिक सफलता से प्रेरित होकर अंग्रेज व्यापारियों के एक समूह –मर्चेंट एडवेंचरर्स ने 1599 ई. में ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना की । महारानी स्वयं भी ईस्ट इंडिया कंपनी की साझेदार/शेयरहोल्डर थीं|
#पश्चिम_और_दक्षिण_में_विस्तार
बाद में 1608 ई. में ईस्ट इंडिया कंपनी ने शाही संरक्षण प्राप्त करने के लिए कैप्टन हॉकिन्स को मुग़ल शासक जहाँगीर के दरबार में भेजा । वह भारत के पश्चिमी तट पर अपनी फैक्ट्रियां स्थापित करने हेतु शाही परमिट प्राप्त करने में सफल रहा। 1605 ई. में इंग्लैंड के राजा जेम्स प्रथम ने सर थॉमस रो को कंपनी के लिए और अधिक छूटें प्राप्त करने के उद्देश्य से जहाँगीर के दरबार में भेजा। रो बहुत कुटनीतिज्ञ था और अपनी कूटनीति के बल पर वह पूरे मुग़ल क्षेत्र पर स्वन्त्रतापूर्वक व्यापार करने हेतु शाही चार्टर प्राप्त करने में सफल रहा । बाद के वर्षों में ईस्ट इंडिया कंपनी अपने आधार को विस्तृत करती गयी । कंपनी को पुर्तगाली, डच और फ़्रांसीसी व्यापारियों द्वारा प्रस्तुत चुनौतियों का भी सामना करना पड़ा। निर्णायक क्षण तब आया जब 1662 ई. में इंग्लैंड के चार्ल्स द्वितीय का विवाह पुर्तगाली राजकुमारी कैथरीन से हुआ और इंग्लैंड को बम्बई. दहेज़ के रूप में प्राप्त हुआ । इंग्लैंड द्वारा 1668 ई. में बम्बई. को दस पौंड प्रतिवर्ष की दर पर ईस्ट इंडिया कंपनी को सौंप दिया गया। कंपनी ने अपने पश्चिमी तट पर अपना व्यापारिक मुख्यालय सूरत से बम्बई. स्थानांतरित कर दिया। 1639 ई. में ईस्ट इंडिया कंपनी ने स्थानीय राजा से मद्रास को पट्टे पर प्राप्त कर लिया और वहां पर अपनी फैक्ट्री की सुरक्षा हेतु फोर्ट सेंट जॉर्ज का निर्माण कराया । बाद में मद्रास कंपनी का दक्षिण भारतीय मुख्यालय बन गया।
#पूर्व_में_कंपनी_का_विस्तार
दक्षिण एवं पश्चिमी भारत में सफलतापूर्वक अपनी फैक्ट्रियां स्थापित करने के बाद कंपनी ने पूर्व की ओर ध्यान केन्द्रित किया । कम्पनी ने पूर्व में अपना ध्यान मुख्य रूप से मुग़ल प्रान्त बंगाल पर लगाया। बंगाल के गवर्नर सुजाउद्दीन ने 1651 ई. में ईस्ट इंडिया कंपनी को बंगाल में अपनी व्यापारिक गतिविधियां चलने हेतु अनुमति प्रदान कर दी। हुगली में एक फैक्ट्री स्थापित की गयी और 1668 ई. में फैक्ट्री स्थापित करने हेतु सुतानती,गोविंदपुर व कोलकाता नाम के तीन गावों को खरीद लिया गया। बाद में फैक्ट्री की सुरक्षा के लिए उसके चारों ओर फोर्ट विलियम का निर्माण कराया गया। इसी स्थान पर वर्त्तमान कोलकाता शहर का विकास हुआ|
#फर्रुख्सियर_द्वारा_जारी_शाही_फरमान
मुग़ल शासक फर्रुख्सियर ने 1717 ई. में शाही फरमान जारी कर कंपनी को बंगाल में कुछ व्यापारिक विशेषाधिकार प्रदान कर दिए ,जिसमे बगैर कर अदा किये बंगाल में ब्रिटिश वस्तुओं के आयात-निर्यात की अनुमति भी शामिल थी। इस फरमान द्वारा कंपनी को वस्तुओं की आवाजाही हेतु दस्तक (पास ) जारी करने का अधिकार भी प्रदान कर दिया गया।
व्यापार एवं वाणिज्य के क्षेत्र में मजबूती से स्थापित होने के बाद कंपनी ने भारत में सत्ता प्राप्त करने के सपने देखना शुरू कर दिया|
#भारत_में_ब्रिटिश_सत्ता_के_उदय_में_सहायक_प्रमुख #कारक
प्रमुख कारण,जिन्होनें ब्रिटिशों को लगभग दो सौ वर्षों तक भारत पर शासन करने का अवसर प्रदान किया,निम्नलिखित है-
1707 ई. में औरंगजेब की मृत्यु के साथ ही भारत में मुग़ल साम्राज्य का पतन की ओर अग्रसर होना तथा भारत में मुगलों जैसी किसी केंद्रीय शक्ति का उपस्थित न होना |
तत्कालीन भारतीय शासकों में राजनीतिक एकजुटता का आभाव था और वे प्रायः अपनी सुरक्षा हेतु अंग्रेजों की मदद पर निर्भर थे । ऐसे में अंग्रेजों ने उनकी कमजोरी का फायदा उठाया और अपने हित के लिए राज्यों के आतंरिक मामलों में हस्तक्षेप करने लगे|
#यूरोपीय_शक्तियों_के_बीच_संघर्ष
#भारत_में_प्रमुख_यूरोपीय_शक्तियाँ:पुर्तगाली,डच ,
अंग्रेज और फ्रांसीसी चार प्रमुख यूरोपीय शक्तियां थी जो व्यापारिक संबंधों की स्थापना हेतु भारत आये लेकिन बाद में उन्होंने यहाँ अपने उपनिवेश स्थापित किये। इन यूरोपीय शक्तियों के बीच वाणिज्यिक और राजनीतिक प्रभुता हेतु छोटे-मोटे संघर्ष होते रहते थे लेकिन अंत में ब्रिटिश सबसे ताकतवर शक्ति के रूप में उभरे जिन्होंने अन्य तीनों शक्तियों को पीछे छोड़ लगभग दो सौ सालों तक भारत पर शासन किया। भारत में सबसे पहले पुर्तगाली आये जिन्होनें अपनी फैक्ट्रियां और औपनिवेशिक बस्तियां स्थापित की । डचों के साथ उन्हें कड़ी प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ा लेकिन डच उनके सामने कमजोर साबित हुए और पुर्तगाली व ब्रिटिशों की प्रतिस्पर्धा के सामने टिक न सकने के कारण डच वापस चले गए|
#मुख्य_प्रतिस्पर्धी: ब्रिटिशों को भारत में प्रवेश करने के समय से ही डच,पुर्तगाली और फ़्रांसीसी शक्तियों से प्रतिस्पर्धा करनी पड़ी थी लेकिन पुर्तगाली व डच प्रतिस्पर्धी न तो अधिक गंभीर थे और न ही अधिक सक्षम । अतः ब्रिटिशों के सबसे मजबूत प्रतिद्वंदी फ्रांसीसी थे,जो भारत में सबसे बाद में आये थे। ब्रिटिशों द्वारा भारत के व्यापार एवं वाणिज्य पर पूर्ण एकाधिकार प्राप्त करने के प्रयासों ने फ्रांसीसियों के साथ उनके संघर्ष को जन्म दिया|1744 ई. से लेकर 1763 ई. के मध्य के 20 वर्षों में वाणिज्यिक व क्षेत्रीय नियंत्रण के उद्देश्यों को लेकर ब्रिटिशों व फ्रांसीसियों के मध्य तीन बड़े युद्ध लड़ें गए। अंतिम और निर्णायक युद्ध 22 जनवरी, 1763 ई. को बांडीवाश में लड़ा गया था|
#कर्नाटक_युद्ध: कर्नाटक और हैदराबाद दोनों राज्यों में उत्तराधिकार को लेकर विवाद था जिसने ब्रिटिश और फ्रांसीसी शक्तियों के लिए मध्यस्थ की भूमिका निभाने के द्वार खोल दिए । इन दोनों यूरोपीय शक्तियों अपनी आपसी शत्रुता की आड़ में कर्नाटक और हैदराबाद के उत्तराधिकार हेतु अलग-अलग भारतीय दावेदारों का समर्थन किया । उत्तराधिकार के इस संघर्ष में पोंडिचेरी के गवर्नर डूप्ले के नेतृत्व में फ्रांसीसियों की जीत हुई. और अपने दावेदारों को गद्दी पर बिठाने के एवज में उन्हें उत्तरी सरकार का क्षेत्र प्राप्त हुआ जिसे फ्रांसीसी अफसर बुस्सी ने सात सालों तक नियंत्रित किया। लेकिन फ्रांसीसियों की यह जीत बहुत कम समय की थी क्योकि 1751 ई. में रोबर्ट क्लाइव के नेतृत्व में ब्रिटिश शक्ति ने युद्ध की परिस्थितियाँ बदल दी थी। रोबर्ट क्लाइव के नेतृत्व में ब्रिटिश शक्ति ने एक साल बाद ही उत्तराधिकार हेतु फ्रांसीसी समर्थित दावेदारों को पराजित कर दिया|अंततः फ्रांसीसियों को ब्रिटिशों के साथ त्रिचुरापल्ली की संधि करनी पड़ी|
अगले सात वर्षीय युद्ध (1756-1763 ई.।) अर्थात तृतीय कर्नाटक युद्ध में दोनों यूरोपीय शक्तियों की शत्रुता फिर से सामने आ गयी । इस युद्ध की शुरुआत फ्रांसीसी सेनापति काउंट दे लाली द्वारा मद्रास पर आक्रमण के साथ हुई. थी |लाली को ब्रिटिश सेनापति सर आयरकूट द्वारा हरा दिया गया|1761 ई. में ब्रिटिशों ने पोंडिचेरी पर कब्ज़ा कर लिया और लाली को जिंजी और कराइकल के समर्पण हेतु बाध्य कर दिया|अतः फ्रांसीसी बांडीवाश में लडे गये तीसरे कर्नाटक युद्ध(1760 ई.) में हार गए और बाद में यूरोप में उन्हें ब्रिटेन के साथ पेरिस की संधि करनी पड़ी|
#ब्रिटिश_सर्वोच्चता_की_स्थापना
कर्नाटक के युद्ध में प्राप्त विजय ने भारत में ब्रिटिश सर्वोच्चता की स्थापना हेतु जमीन तैयार कर दी थी और साथ ही फ्रांसीसियों के भारतीय साम्राज्य के सपने को चकनाचूर कर दिया था। इस जीत के बाद भारत में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी का कोई. यूरोपीय प्रतिद्वंदी नहीं बचा था। ब्रिटिशों को सर आयरकूट,मेजर स्ट्रिंगर लॉरेंस ,रोबर्ट क्लाइव जैसे कुशल नेतृत्वकर्ताओं के साथ साथ एक मजबूत नौसैनिक शक्ति होने का भी लाभ मिला। इन कारकों के कारण ही वे भारत के विश्वसनीय शासक बन सके|
#हड़प्पा_सभ्यता :
#कला_और_वास्तुकला_एक_नज़र_में
भारतीय कला और वास्तुकला विकास पर निर्भर करती है और इसके पीछे अपनी एक कहानी है | जैसे की महान साम्राज्यों का उद्धभव और पतन , शासको का आक्रमण , विभिन्न शैल्लियों का संगम और ये सब कला और वास्तुकला को ही तो जन्म देते है |
पश्चिम भारत के विशाल भाग में, तीसरी शताब्दी के इसा पूर्व में सिन्धु नदी के तट पर एक समुद्र सभ्यता का प्रादुर्भाव हुआ जिसे हड़प्पा या सिन्धु घाटी सभ्यता के रूप में जाना जाने लगा |यहा की विशिष्ट सभ्यता, कला अनेकानेक मूर्तियां, मोहरें, मृदभांड और आभूषणों से पता चलता है | उधारण के लिए मोहनजोदड़ों और हड़प्पा जो कि नगरीय सभ्यता है|
#सिन्धु_घाटी_सभ्यता_के_महत्वपूर्ण_स्थल_और #पुरातात्विक_प्राप्तियां_इस_प्रकार_है|
- धौलावीरा (गुजरात) : विशाल जलाशय , स्टेडियम , बांध और तटबंध आदि |
- लोथल (गुजरात) : इसे सिन्धु घाटी सभ्यता का मानचेस्टर कहाँ जाता है| धन की भूसी , घोड़े और जहाज की टेराकोटा आक्रति आदि|
- हड़प्पा (वर्तमान पाकिस्तान) : मातृदेवी की मूर्ति , गेहूं और जौ, पासा ,ताम्र तुला और दर्पण , लाल बलुआ पत्थर आदि |
- मोहनजोदड़ों (वर्तमान पाकिस्तान) : वृहत स्नानागार, वृहत अन्नागार , दाढ़ी वाले पुजारी की मूर्ति आदि |
- कालीबंगा (राजस्थान) : चूड़ी कारखाना , अलंकृत ईंटें आदि |
- बनावली (हरियाणा) : खिलौना हल , जौ, अंडाकार की बस्ती आदि |
- सुर्कोटदा (गुजरात) : घोड़े की हड्डियों का पहला वास्तविक अवशेष |
- रोपड़ (पंजाब)
- राखीगढ़ी (हरयाणा)
- अलमगीरपुर (उत्तर प्रदेश)
#हड़प्पा_सभ्यता_की_वास्तुकला_के_बारे_में :
हड़प्पा और मोहनजोदड़ों में जो अवशेष पाए गए है वो नगर नियोजन के बारें में बताते है | जैसे कि वहा के नगर अयातकार ग्रिड पैटर्न पर आधारित थे | सड़कें उत्तर–दक्षिण और पूर्व–पश्चिम दिशा में जाती थीं और एक-दुसरे को समकोण पर काटती थी | नगर को अनेक खण्डों में विभाजित करती थी बड़ी सड़कें और छोटी सड़कें अलग-अलग घरों और बहुमंजिला इमारतों को जोड़ने में|
उत्खनन स्थलों में मुख्य रूप से तीन भवन पाए गए है – निवास ग्रह , सार्वजनिक भवन और सार्वजानिक स्नानागार |हड़प्पा के लोग निर्माण के लिए पकी हुई ईंटों का प्रयोग करते थे और इन ईंटों की परत बिछाकर उनको गारे से जोड़ा जाता था | नगर दो भागों में विभाजित था – गढ़ और निचला नगर | पश्चिमी भाग में अन्नागार , प्रशासनिक भवन , स्थम्भों वालें भवन और आंगन पाए गए है | अन्नागारों को वायुसंचार वाहिकाओं और उचें चबूतरों के साथ डिजाईन किया गया था |
सार्वजनिक स्नानागारों का प्रचलन हड़प्पा नगरों की एक प्रमुख विशेषता थी और इसका सबसे अच्छा उधाहरण मोहनजोदड़ों का वृहत स्नानागार है |
हड़प्पा सभ्यता की सबसे प्रमुख विशेषता उन्नत जल निकास व्यवस्था थी | हर घर से निकलने वाली छोटी नालियां मुख्य सड़क के साथ –साथ बड़ी नालियों से जुड़ी थी और साफ –सफाई का ध्यान रखते हुए इन्हें ढका गया था और तो और थोड़ी –थोड़ी दूरी पर मलकुंड (सिसपिट) बनाएं गए थे|
#हड़प्पा_सभ्यता_की_मूर्तियां :
यहाँ से सबसे ज्यादा मोहरें, कास्यं मूर्तियां और मृदभांड प्राप्त हुए है |
मोहरें : पुरातत्वविदों को उत्खन्न वाली जगहों पर अलग –अलग प्रकार की मोहरें मिली है जैसे कि वर्गाकार, त्रिकोणीय, आयातकर आदि | और इन मोहरों को बनाने में मुलायम पत्थर स्टेटाइट का सबसे ज्यादा प्रयोग किया जाता था | अधिकांश मोहरों पर चित्राक्षर लिपि (पिक्टोग्राफिक स्क्रिप्ट) में मुद्रलेख भी है, पर इन्हें अभी तक पढ़ा नही जा सका है | मुद्रालेख को दाई से बाई और लिखा गया है | इन पर कई पशुओं की आक्रति भी पाई गई है जैसे बैल, गेंडा, हाथी आदि पर गाय का कोई साक्ष्य नही मिला है |मोहरों का मुख्य रूप से वाणिज्यिक प्रयोजनों के लिए प्रयोग किया जाता था और हो सकता है कि इनका प्रयोग शैक्षणिक उद्देश्यों के लिए भी किया जाता होगा | उदाहरण के तौर पर पशुपति की मोहर , यूनिकॉर्न वाली मोहर आदि |
कास्य की मूर्तियां : व्यापक स्तर पर देखे तो हडप्पा सभ्यता कासें की ढलाई की प्रथा की साक्षी थी | जैसे कि मोहनजोदड़ों की कासें की नर्तकी, कालीबंगा का कांसे का बैल आदि |
टेराकोटा : पकी हुई मिट्टी से टेराकोटा की मूर्तियां बनाई जाती थी| अधिकांश्त: ऐसी मूर्तियां गुजरात और कालीबंगा के स्थलों से मिली है | उदाहरण मातृदेवी, सींग वाले देवता का मुखौटा आदि |
मृदभांड : जो मृदभांड उत्खन्न स्थल से मिले है उनको दो भागों में वर्गीक्रत किया जा सकता है – सादे मृदभांड और चित्रित मृदभांड| चित्रित मृदभांड को लाल व काले मृदभांडों के रूप मे भी जाना जाता है| वृक्ष, पक्षी, पशुओं की आक्रतियाँ और ज्यामितीय प्रतिरूप चित्रों के आवर्ती विषय थे |
आभूषण : हड़प्पा के लोग मूल्यवान धातुओं और रत्नों से लेकर हड्डियों और यहाँ तक कि पकी हुई मिट्टी जैसी सामग्री का इस्तेमाल किया करते थे आभूषण बनाने के लिए | उदाहरण अंगूठियाँ, बाजूबंद इत्यादि आभूषण पुरुष एवम महिलाएं पहनते थे | पर करधनी, झुमके और पायल केवल महिलाएं ही पहनती थी | कर्निलीयन , नीलम , क्वार्टज, स्टेटाइट आदि से बने हुए मनके भी काफी लोकप्रिय थे और बढ़े पैमाने पर इनका निर्माण किया जाता था | इस बात का साक्ष्य चंदहुदड़ों और लोथल में मिले कारखानों से स्पष्ट है| सर्वश्रेष्ठ उदाहरण में दाढ़ी वाले पुजारी की अर्द्ध – प्रतिमा सिन्धु घाटी की सभ्यता से प्राप्त हुई है |
Sanskaar Academy presentation...
*कम्प्यूटर का पितामह – चार्ल्स बैबेज
* ATM (Automated Teller Machine) के आविष्कारक का नाम है- जॉन शेफर्ड बार्नेस (स्कॉटलैंड, इंग्लैंड)।
* वल्र्ड वाइल्ड फंड ( WWF ) के संस्थापक – पीटर स्काट माउंटफोर्ट एवं मैक्स निकोलसन
* इंटरनेट के जनक – विन्टन जी. सर्प
* होम्योपैथी के जनक – सेम्युअल हेनीमैन
* रेड क्रास के संस्थापक – हेनरी डयूनांट
* रूसी क्रांति का जनक – लेनिन
* अमरीका के खोजकर्ता – कोलम्बस (1492)
* पक्की सड़कों को जन्मदाता – जान लंदन
* राष्ट्रसंघ के संस्थापक – बुडरो विल्सन
* मोबाइल फोन के जनक – मार्टिन कूपर
* ब्रेल लिपि के खोजकर्ता – लुई बेल
* फासिस्टवाद के जनक – मुसोलिनी
* प्रत्यक्षवाद के जनक – अगस्त काम्टे
* आधुनिक टुर्की का निर्माता –मुस्तफा कमाल पाशा
* संयुक्त राष्ट्र संघ के संस्थापक – फ्रेकलिन रूजवेल्ट
* डायनामाइट के अविष्कारक – अल्फ्रेड नोबेल
* समाज शास्त्र के जनक – अगस्त काम्टे
* ऐलोपैथी चिकित्सा के जनक – हिप्पोक्रेट्स
* कागज का अविष्कारक – साईलुन
* अमरीकी क्रांति के जन्मदाता – जार्ज वाशिंगटन
* होम्योपैथी के जनक – सेम्युअल हेनीमैन
* www वल्र्ड वाइड वेव के जनक – टिम बनर्स और रॉबर्ट कैल्लिअउ
* टेलीफोन के अविष्कारक – अलेक्जेंडर ग्राहम बेल
* टेलीविजन का अविष्कार – जे. एल. बेयर्ड (John Logie Baird)
* x-किरणों के खोजकर्ता –रोन्ट्जन
* रिवाल्वर के अविष्कारक – कोल्ट
* डाइनामाइट के अविष्कारक – अल्फ्रेड नोबल
* रेबिज के टीके के खोजकर्ता –लुई पाश्चर
* हैजा व टीबी के जीवाणुओं के खोजकर्ता –राबर्ट कोच(1982)
* स्कूटर के अविष्कारक –ब्राड शा
* रडार का अविष्कार – टेलर एवं यंग
* गुरूत्वाकर्षण के खोजकर्ता –न्युटन
* विटामिन ‘डी’ के खोजकर्ता – एफ. जी. हॉपकिंस
* विटामिन ‘सी’ के खोजकर्ता – युजोक्स होल्कट
* विटामिन ‘बी’ के खोजकर्ता – मैकुलन
* विटामिन ‘ए’ के खोजकर्ता – मैकुलन
* विटामिन के खोजकर्ता – फंक
* बैक्टीरिया के खोजकर्ता – ल्यूवेनहॉक
* बिजली के अविष्कारक – बेंजामिन फ्रेंकलिन
* आधुनिक खगोल विज्ञान के अविष्कारक – निकोलस कोपरनिकस
* प्रोटॉन के खोजकर्ता – गोल्डस्टीन
* इलेक्ट्रॉन के खोजकर्ता – जे०जे०थॉमसन
* न्यूट्रॉन के खोजकर्ता-जेम्स चैडविक
* भाप इंजन के खोजकर्ता – जेम्स वाट
* रेल इंजन के खोजकर्ता – जॉर्ज स्टीफेंसन
* रेडियम के खोजकर्ता – मैडम क्यूरी
* दूरबीन के खोजकर्ता – गैलेलियो
* डाइनामाइट के अविष्कारक – अल्फ्रेड नोबल
* डी.एन. ए. संरचना का अविष्कारक –वाटसन व क्रिक
* ऑक्सीजन के खोजकर्ता – जे. प्रिस्टले
* नाइट्रोजन के खोजकर्ता –डेनियल रदरफोर्ड
* थर्मस फ्लास्क के खोजकर्ता – डैवार
* टेली प्रिंटर के खोजकर्ता- इमइल वैनडोट और जॉन जार्ज हलसिक
* टेरीलीन के खोजकर्ता – जे. व्हिलफिल्ड तथा एच. डिक्सन
* टैंक के खोजकर्ता – सर एमेस्ट स्विंग्टन
* ऐरकण्डीशनर के अविष्कारक – विल्स हैवीलैंड कैरियर
* आर्क लैंप के अविष्कारक – डेवी
* थर्मामीटर के अविष्कारक – गैलीलियो गैलिलाई
* ट्रांजिस्टर के अविष्कारक – बार्डीन तथा शोकले
* टाइपराइटर के अविष्कारक – क्रस्टोफर शोलेज और कार्लोस ग्लिडन
* टेपरिकॉर्डर के अविष्कारक – पाउलसेन
* ए. सी. मोटर के अविष्कारक – निकोला टेसला
* ऐरोप्लेन के अविष्कारक – राईटबंधु
* एटॉमिक रिएक्टर के खोजकर्ता – एनरिको फर्मी
* जेट इंजन के खोजकर्ता – सर फ्रैंक व्हिटल
* लिफ्ट के खोजकर्ता – इलिसा ग्राविस ओटिस
* लाउडस्पीकर के खोजकर्ता – होरेस शार्ट
* मलेरिया की चिकित्सा के खोजकर्ता – डॉ. रोनेल्ड रॉस
* क्लोरोफार्म के खोजकर्ता – सर जेम्स हैरिसनt
* ओज़ोन के खोजकर्ता – क्रिस्पियन स्कोनबैन
* हैजे का टिका के खोजकर्ता – राबर्ट कौच
* बेरी- बेरी की चिकित्सा के खोजकर्ता – ओईजकमैन
* चेचक का टिका के खोजकर्ता – एडवर्ड जेनर
* टॉयफाइड के जीवाणु के खोजकर्ता – रोबर्थ
* टी. बी. की चिकित्सा के खोजकर्ता – राबर्ट कौच
* टेरामाइसिन के खोजकर्ता – फिनले
* फाउंटेन पेन की अविष्कारक – एल. ई. वाटरमैन
* ग्लाइडर के खोजकर्ता – जार्ज कैले
* होलोग्राफी के खोजकर्ता – डेनिस गबोर
* लोकोमोटिव के खोजकर्ता – रिचर्ड ट्रेविथिक
* रेडियम के खोजकर्ता – मैरी तथा पियरे क्यूरी
* रेडिओ के खोजकर्ता – जी. मारकोनी
* रेयन के खोजकर्ता – अमेरिकन विस्कोज कंपनी
* सेफ्टी लैम्प के खोजकर्ता – सर हम्फ्री डेली
* सेफ्टी पिन के खोजकर्ता – वाल्टर हण्ट
* सापेक्षता का सिद्धांत का अविष्कारक- अल्बर्ट आइंस्टाइन
* कॉम्पैक्ट डिस्क (सीडी) अविष्कारक – आरसीए
* धुलाई मशीन के अविष्कारक – एल्वा फिशर
* टेप रेकॉर्डर के अविष्कारक – वाल्डेमर पौल्सेन
* प्लास्टिक के खोजकर्ता –अलैक्जेण्डर पार्क्स
* सिलाई मशीन के खोजकर्ता – एलियास होवे
* एसी डॉयनेमो के खोजकर्ता – माइकल फैराडे
* कोका-कोला के खोजकर्ता – जॉन पेम्बर्टन
* डीजल इंजन के खोजकर्ता
* मोटरसाईकल के खोजकर्ता – एडवर्ड बटलर
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Sanskaar academy presentation...
*संविधान संसोधन तालिका*
✍✍✍✍✍ नौवीं अनुसूची को शामिल किया गया।
● दूसरा संशोधन (1952)
→संसद में राज्यों के प्रतिनिधित्व को निर्धारित किया गया।
● सातवां संशोधन (1956)
→ इस संशोधन द्वारा राज्यों का अ, ब, स और द वर्गों में विभाजन समाप्त कर उन्हें 14 राज्यों और 6 केंद्रशासित क्षेत्रों में विभक्त कर दिया गया।
● दसवां संशोधन (1961)
→ दादरा और नगर हवेली को भारतीय संघ में शामिल कर उन्हें संघीय क्षेत्र की स्थिति प्रदान की गई।
● 12वां संशोधन (1962)
→ गोवा, दमन और दीव का भारतीय संघ में एकीकरण किया गया।
● 13वां संशोधन (1962)
→ संविधान में एक नया अनुच्छेद 371 (अ) जोड़ा गया, जिसमें नागालैंड के प्रशासन के लिए कुछ विशेष प्रावधान किए गए। 1दिसंबर, 1963 को नागालैंड को एक राज्य की स्थिति प्रदान कर दी गई।
● 14वां संशोधन (1963)
→ पांडिचेरी को संघ राज्य क्षेत्र के रूप में प्रथम अनुसूची में जोड़ा गया तथा इन संघ राज्य क्षेत्रों (हिमाचल प्रदेश, गोवा, दमन और दीव, पांडिचेरी और मणिपुर) में विधानसभाओं की स्थापना की व्यवस्था की गई।
● 21वां संशोधन (1967)
→ आठवीं अनुसूची में ‘सिंधी’ भाषा को जोड़ा गया।
● 22वां संशोधन (1968)
→ संसद को मेघालय को एक स्वतंत्र राज्य के रूप में स्थापित करने तथा उसके लिए विधानमंडल और मंत्रिपरिषद का उपबंध करने की शक्ति प्रदान की गई।
● 24वां संशोधन (1971)
→ संसद को मौलिक अधिकारों सहित संविधान के किसी भी भाग में संशोधन का अधिकार दिया गया।
● 27वां संशोधन (1971)
—उत्तरी-पूर्वी क्षेत्र के पाँच राज्यों तत्कालीन असम, नागालैंड, मेघालय, मणिपुर व त्रिपुरा तथा दो संघीय क्षेत्रों मिजोरम और अरुणालच प्रदेश का गठन किया गया तथा इनमें समन्वय और सहयोग के लिए एक ‘पूर्वोत्तर सीमांत परिषद्’ की स्थापना की गई।
● 31वां संशोधन (1974)
→लोकसभा की अधिकतम सदंस्य संख्या 547 निश्चित की गई। इनमें से 545 निर्वाचित व 2 राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत होंगे।
● 36वां संशोधन (1975)
→ सिक्किम को भारतीय संघ में संघ के 22वें राज्य के रूप में प्रवेश प्रदान किया गया।
● 37वां संशोधन (1975)
→ अरुणाचल प्रदेश में व्यवस्थापिका तथा मंत्रिपरिषद् की स्थापना की गई।
● 42वां संशोधन (1976)
→ इसे ‘लघु संविधान’ (MINI CONSTITUTION) की संज्ञा प्रदान की गई है।
→ इसके द्वारा संविधान की प्रस्तावना में ‘धर्मनिरपेक्ष’, ‘समाजवादी’ और ‘अखंडता’ शब्द जोड़े गए।
→ इसके द्वारा अधिकारों के साथ-साथ कत्र्तव्यों की व्यवस्था करते हुए नागरिकों के 10 मूल कर्त्तव्य निश्चित किए गए।
→ लोकसभा तथा विधानसभाओं के कार्यकाल में एक वर्ष की वृद्धि की गई।
→ नीति-निर्देशक तत्वों में कुछ नवीन तत्व जोड़े गए।
→ इसके द्वारा शिक्षा, नाप-तौल, वन और जंगली जानवर तथा पक्षियों की रक्षा, ये विषय राज्य सूची से निकालकर समवर्ती सूची में रख दिए गए।
→ यह व्यवस्था की गई कि अनुच्छेद 352 के अन्तर्गत आपातकाल संपूर्ण देश में लागू किया जा सकता है या देश के किसी एक या कुछ भागों के लिए।
→ संसद द्वारा किए गए संविधान संशोधन को न्यायालय में चुनौती देने से वर्जित कर दिया गया।
● 44वां संशोधन (1978)
→ संपत्ति के मूलाधिकार को समाप्त करके इसे विधिक अधिकार बना दिया गया।
→ लोकसभा तथा राज्य विधानसभाओं की अवधि पुनः 5 वर्ष कर दी गई।
→ राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और लोकसभा अध्यक्ष्ज्ञ के चुनाव विवादों की सुनवाई का अधिकार पुनः सर्वोच्च तथा उच्च न्यायालय को ही दे दिया गया।
→ मंत्रिमंडल द्वारा राष्ट्रपति को जो भी परामार्श दिया जाएगा, राष्ट्रपति मंत्रिमंडल को उस पर दोबारा विचार करने लिए कह सकेंगे लेकिन पुनर्विचार के बाद मंत्रिमंडल राष्ट्रपति को जो भी परामर्श देगा, राष्ट्रपति उस परामर्श को अनिवार्यतः स्वीकार करेंगे।
→ ‘व्यक्ति के जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार’ को शासन के द्वारा आपातकाल में भी स्थगित या सीमित नहीं किया जा सकता, आदि।
● 52वां संशोधन (1985)
→ इस संशेधन द्वारा संविधान में दसवीं अनुसूची जोड़ी गई। इसके द्वारा राजनीतिक दल-बदल पर कानूनी रोक लगाने की चेष्टा की गई है।
● 55वां संशोधन (1986)
→ अरुणाचल प्रदेश को भारतीय संघ के अन्तर्गत राज्य की दर्जा प्रदान किया गया।
● 56वां संशोधन (1987)
→ इसमें गोवा को पूर्ण राज्य का दर्जा देने तथा ‘दमन व दीव’ को नया संघीय क्षेत्र बनाने की व्यवस्था है।
● 61वां संशोधन (1989)
→ मताधिकार के लिए न्यूनतम आवश्यक आयु 21 वर्ष से घटाकर 18 वर्ष कर दी गई।
● 65वां संशोधन (1990)
→ ‘अनुसूचित जाति तथा जनजाति आयोग’ के गठन की व्यवस्था की गई।
● 69वां संशोधन (1991)
→ दिल्ली का नाम ‘राष्ट्रीय राजधानी राज्य क्षेत्र दिल्ली’ किया गया तथा इसके लिए 70 सदस्यीय विधानसभा तथा 7 सदस्यीय मंत्रिमंडल के गठन का प्रावधान किया गया।
● 70वां संशोधन (1992)
→ दिल्ली तथा पांडिचेरी संघ राज्य क्षेत्रों की विधानसभाओं के सदस्यों को राष्ट्रपति के निर्वाचक मंडल में शामिल करने का प्रावधान किया गया।
● 71वां संशोधन (1992)
→ तीन और भाषाओं कोंकणी, मणिपुरी और नेपाली को संविधान की आठवीं अनुसूची में सम्मिलित किया गया।
● 73वां संशोधन (1992)
→ संविधान में एक नया भाग 9 तथा एक नई अनुसूची ग्यारहवीं अनुसूची जोड़ी गई और पंचायती राज व्यवस्था को संवैधानिक दर्जा प्रदान किया गया।
● 74वां संशोधन (1993)
→ संविधान में एक नया भाग 9क और एक नई अनुसूची 12वीं अनुसूची जोड़कर शहरी क्षेत्र की स्थानीय स्वशासन संस्थाओं को संवैधानिक दर्जा प्रदान किया गया।
● 91वां संशोधन (2003)
→ इसमें दल-बदल विरोधी कानून में संशोधन किया गया।
● 92वां संशोधन (2003)
→ इसमें आठवीं अनुसूची में चार और भाषाओं-मैथिली, डोगरी, बोडो और संथाली को जोड़ा गया।
● 93वां संशोधन (2005)
→ इसमें एससी/एसटी व ओबीसी बच्चों के लिए गैर-सहायता प्राप्त स्कूलों में 25 प्रतिशत सीटें आरक्षित रखने का प्रावधान किया गया।
● 97वां संशोधन (2011)
→ इसमें संविधान के भाग 9 में भाग 9ख जोड़ा गया और हर नागरिक को कोऑपरेटिव सोसाइटी के गठन का अधिकार दिया !
#आधुनिक_भारत_का_इतिहास :
#1857_की_क्रांति
1857 के संघर्ष को लेकर इतिहासकारों के विचार एक समान नहीं हैं। कुछ विद्वानों का यह मानना है कि 4 महीनों का यह उभार किसान विद्रोह था तो कुछ इस महान घटना को सैन्य विद्रोह मानते हैं। वी.डी. सावरकर की पुस्तक “द इंडियन वॉर ऑफ़ इंडिपेंडेंस” (1909 में प्रकाशित) में इसे प्रथम स्वतंत्रता संग्राम माना गया था। 20वीं सदी के शुरुआती दौर के इतिहास लेखन (राष्ट्रवादी इतिहासकार) में इसे वीर स्वतंत्रता सेनानियों का संघर्ष दिखाया गया है जो ग़दर के रूप में वर्णित भी है। मंगल पांडे के द्वारा कलकत्ता के निकट बैरकपुर छावनी में किए गए विद्रोह को एक महत्वपूर्ण घटना माना गया है जो स्वतन्त्रता की प्रथम लड़ाई में परिवर्तित हो गया।
भारत में ईस्ट इंडिया कम्पनी काल में ब्रिटिश उपनिवेशवादी शासन की स्थापना के केंद्र में सेना की भूमिका महत्वपूर्ण थी। गवर्नर जनरल के तौर पर वारेन हैस्टिंग के शासन काल के दौरान ईस्ट इंडिया कम्पनी द्वारा राज्यों के क्रमश: अधिग्रहण से उसके क्षेत्र का, साथ ही सेना का लगातार विस्तार हो रहा था। ब्रिटिश सेना में 80 प्रतिशत से अधिक भारतीय मूल के लोग ही नियुक्त थे। यूरोपीय सैनिकों के विपरीत उन्हें सिपाही का दर्जा मिला था। अभी तक हम प्लासी और बक्सर की लड़ाई में इन सिपाहियों की भक्ति ईस्ट इंडिया कम्पनी के प्रति देख चुके हैं।
1857 के विद्रोह के तात्कालिक कारणों में यह अफवाह थी कि 1853 की राइफल के कारतूस की खोल पर सूअर और गाय की चर्बी लगी हुई है। यह अफवाह हिन्दू एवं मुस्लिम दोनों धर्म के लोगों की भावनाओं को ठेस पहुंचा रही थी। ये राइफलें 1853 के राइफल के जखीरे का हिस्सा थीं।
1857 का विद्रोह कोई आकस्मिक घटना नहीं थी, अपितु यह अनेक कारणों का परिणाम थी, जो इस प्रकार थे-
#राजनीतिक_कारण
#डलहौज़ी_की_साम्राज्यवादी_नीति :- लार्ड डलहौजी (1848 – 56) ने भारत में अपना साम्राज्य विस्तार करने के लिए विभिन्न अन्यायपूर्ण तरीके अपनाए। अतः देशी रियासतों एवं नवाबों में कंपनी के विरूद्ध गहरा असंतोष फैला। उसने लैप्स के सिद्धांत को अपनाया। इस सिद्धांत का तात्पर्य है, “जो देशी रियासतें कंपनी के अधीन हैं, उनको अपने उत्तराधिकारियों के बारे में ब्रिटिश सरकार के मान्यता व स्वीकृति लेनी होगी। यदि रियासतें ऐसा नहीं करेंगी, तो ब्रिटिश सरकार उत्तराधिकारियों को अपनी रियासतों का वैद्य शासक नहीं मानेंगी।” इस नीति के आधार पर डलहौजी ने निःसन्तान राजाओं के गोद लेने पर प्रतिबन्ध लगा दिया तथा इस आधार पर उसने सतारा, जैतपुर, सम्भलपुर, बाघट, उदयपुर, झाँसी, नागपुर आदि रियासतों को ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिया। उसने अवध के नवाब पर कुशासन का आरोप लगाते हुए 1856 ई. में अवध का ब्रिटिश साम्राज्य में विलय कर लिया। डलहौज़ी की साम्राज्यवादी नीति ने भारतीय नरेशों में ब्रिटिशों के प्रति गहरा असंतोष एवं घृणा की भावना उत्पन्न कर दी। इसके साथ ही राजभक्त लोगों को भी अपने अस्तित्व पर संदेह होने लगा। वस्तुतः डलहौज़ी की इस नीति ने भारतीयों पर बहुत गहरा प्रभाव डाला। इन परिस्थितियों में ब्रिटिश साम्राज्य के विरूद्ध विद्रोह एक मानवीय आवश्यकता बन गया था।
#समकालीन_परिस्थितियाँ :- भारतीय लोग पहले ब्रिटिश सैनिकों को अपराजित मानते थे, किंतु क्रिमिया एवं अफ़ग़ानिस्तान के युद्धों में ब्रिटिशों की जो दुर्दशा हुई, उसने भारतीयों के इस भ्रम को मिटा दिया। इसी समय रूस द्वारा क्रीमिया की पराजय का बदला लेने के लिए भारत आक्रमण करने तथा भारत द्वारा उसका साथ देने की योजना की अफ़वाह फैली। इससे भारतीयों में विद्रोह की भावना को बल मिला। उन्होंने सोचा कि ब्रिटिशों के रूस के विरूद्ध व्यस्त होने के समय वे विद्रोह करके ब्रिटिशों को भारत से खदेड़ सकते हैं।
#मुग़ल_सम्राट_बहादुरशाह_के_साथ_दुर्व्यवहार :- मुग़ल सम्राट बहादुरशाह भावुक एवं दयालु प्रकृति के थे। देशी राजा एवं भारतीय जनता अब भी उनके प्रति श्रद्धा रखते थे। ब्रिटिशों ने मुग़ल सम्राट बहादुरशाह के साथ बड़ा दुर्व्यवहार किया। अब ब्रिटिशों ने मुग़ल सम्राट को नज़राना देना एवं उनके प्रति सम्मान प्रदर्शित करना समाप्त कर दिया। मुद्रा पर से सम्राट का नाम हटा दिया गया।
#नाना_साहब_के_साथ_अन्याय :- लार्ड डलहौज़ी ने बाजीराव द्वितीय के दत्तक पुत्र नाना साहब के साथ भी बड़ा दुर्व्यवहार किया। नाना साहब की 8 लाख रुपये की पेन्शन बंद कर दी गई। फलतः नाना साहब ब्रिटिशों के शत्रु बन गए और उन्होंने 1857 ई. के विप्लव का नेतृत्व किया।
#आर्थिक_कारण:
#व्यापार_का_विनाश :- ब्रिटिशों ने भारतीयों का जमकर आर्थिक शोषण किया था। ब्रिटिशों ने भारत में लूट-मार करके धन प्राप्त किया तथा उसे इंग्लैंड भेज दिया। ब्रिटिशों ने भारत से कच्चा माल इंग्लेण्ड भेजा तथा वहाँ से मशीनों द्वारा माल तैयार होकर भारत आने लगा। इसके फलस्वरूप भारत दिन-प्रतिदिन निर्धन होने लगा। इसके कारण भारतीयों के उद्योग धंधे नष्ट होने लगे। इस प्रकार ब्रिटिशों ने भारतीयों के व्यापार पर अपना नियंत्रण स्थापित कर भारतीयों का आर्थिक शोषण किया।
#किसानों_का_शोषण :- ब्रिटिशों ने कृषकों की दशा सुधार करने के नाम पर स्थाई बंदोबस्त, रैय्यवाड़ी एवं महालवाड़ी प्रथा लागू की, किंतु इस सभी प्रथाओं में किसानों का शोषण किया गया तथा उनसे बहुत अधिक लगान वसूल किया गया। इससे किसानों की हालत बिगड़ती गई। समय पर कर न चुका पाने वाले किसानों की भूमि को नीलाम कर दिया जाता था।
#अकाल :- अंग्रेजों के शासन काल में बार-बार अकाल पड़े, जिसने किसानों की स्थिति और ख़राब हो गई।
#इनाम_की_जागीरे_छीनना :- बैन्टिक ने इनाम में दी गई जागीरें भी छीन ली, जिससे कुलीन वर्ग के गई लोग निर्धन हो गए और उन्हें दर-दर की ठोकरें खानी पडीं। बम्बई के विख्यानघ इमाम आयोग ने 1852 में 20,000 जागीरें जब्त कर लीं। अतः कुलीनों में असन्तोष बढ़ने लगा, जो विद्रोह से ही शान्त हो सकता था।
#भारतीय_उद्योगों_का_नाश_तथा_बेरोजगारी :- ब्रिटिशों द्वारा अपनाईं गई आर्थिक शोषण की नीति के कारण भारत के घरेलू उद्योग नष्ट होने लगे तथा देश में व्यापक रूप से बेरोज़गारी फैली।
#सामाजिक_कारण
#ब्रिटिशों_द्वारा_भारतीयो_के_सामाजिक_जीवन_में #हस्तक्षेप :- ब्रिटिशों ने भारतीयों के सामाजिक जीवन में जो हस्तक्षेप किया, उनके कारण भारत की परम्परावादी एवं रूढ़िवादी जनता उनसे रूष्ट हो गई। लार्ड विलियम बैन्टिक ने सती प्रथा को गैर कानूनी घोषित कर दिया और लोर्ड कैनिंग ने विधवा विवाह की प्रथा को मान्यता दे दी। इसके फलस्वरूप जनता में गहरा रोष उत्पन्न हुआ। इसके अलावा 1856 ई. में पैतृतक सम्पति के सम्बन्ध मे एक कानुन बनाकर हिन्दुओं के उत्तराधिकार नियमों में परिवर्तन किया गया। इसके द्वारा यह निश्चित किया गया कि ईसाई धर्म ग्रहण करने वाले व्यक्ति का अपनी पैतृक सम्पति में हिस्सा बना रहेगा। रूढ़िवादी भारतीय अपने सामाजिक जीवन में ब्रिटिशों के इस प्रकार के हस्तक्षेप को पसन्द नहीं कर सकते थे। अतः उन्होंने विद्रोह का मार्ग अपनाने का निश्चय किया।
#पाश्चात्य_संस्कृति_को_प्रोत्साहन :- ब्रिटिशों ने अपनी संस्कृति को प्रोत्साहन दिया तथा भारत में इसका प्रचार किया। उन्होंने युरोपीय चिकित्सा विज्ञान को प्रेरित किया, जो भारतीय चिकित्सा विज्ञान के विरूद्ध था। भारतीय जनता ने तार एवं रेल को अपनी सभ्यता के विरूद्ध समझा। ब्रिटिशों ने ईसाई धर्म को बहुत प्रोत्साहन दिया। स्कूल, अस्पताल, दफ़्तर एवं सेना ईसाई धर्म के प्रचार के केंद्र बन गए। अब भारतीयों को विश्वास हुआ कि ब्रिटिश उनकी संस्कृति को नष्ट करना चाहते हैं। अतः उनमें गहरा असंतोष उत्पन्न हुआ, जिसने क्रांति का रूप धारण कर लिया।
#पाश्चात्य_शिक्षा_का_प्रभाव :- पाश्चात्य शिक्षा ने भारतीय समाज की मूल विशेषताओं को समाप्त कर दिया। आभार प्रदर्शन, कर्तव्यपालन, परस्पर सहयोग आदि भारतीय समाज की परम्परागत विशेषता थी, किन्तु ब्रिटिश शिक्षा ने इसे नष्ट कर दिया। पाश्चात्य सभ्यता ने भारतीयों के रहन-सहन, खान-पान, आचार-विचार, शिष्टाचार एवं व्यवहार में क्रान्तिकारी परिवर्तन किया। इससे भारतीय सामाजिक जीवन की मौलिकता समाप्त होने लगी। ब्रिटिशों द्वारा अपनी जागीरें छीन लेने से कुलीन नाराज थे, ब्रिटिशों द्वारा भारतीयों के सामाजिक जीवन में हस्तक्षेप करने से भारतीयों में यह आशंका उत्पन्न हो गई कि ब्रिटिश पाश्चात्य संस्कृति का प्रसार करना चाहते हैं। भारतीय रूढ़िवादी जनता ने रेल, तार आदि वैज्ञानिक प्रयोगों को अपनी सभ्यता के विरूद्ध माना।
#भारतीयों_के_प्रति_भेद_भाव_नीति :- ब्रिटिश भारतीयों को निम्न कोटि का मानते थे तथा उनसे घृणा करते थे। उन्होंने भारतीयों के प्रति भेद-भाव पूर्ण नीति अपनायी। भारतीयों को रेलों में प्रथम श्रेणी के डब्बे में सफर करने का अधिकार नहीं था। ब्रिटिशों द्वारा संचालित क्लबों तथा होटलों में भारतीयों को प्रवेश नहीं दिया जाता था।
#धार्मिक_कारण
▪️भारत में सर्वप्रथम ईसाई धर्म का प्रचार पुर्तगालियों ने किया था, किन्तु ब्रिटिशों ने इसे बहुत फैलाया। 1831 ई. में चार्टर एक्ट पारित किया गया, जिसके द्वारा ईसाई मिशनरियों को भारत में स्वतन्त्रापूर्वक अपने धर्म का प्रचार करने की स्वतन्त्रता दे दी गई। ईसाई धर्म के प्रचारकों ने खुलकर हिंदू धर्म एवं इस्लाम धर्म की निंदा की। वे हिंदुओं तथा मुसलामानों के अवतारों, पैग़ंबरों एवं महापुरुषों की खुलकर निंदा करते थे तथा उन्हें कुकर्मी कहते थे। वे इन धर्मों की बुराइयों को बढ़-चढ़ाकर बताते थे तथा अपने धर्म को इन धर्मो से श्रेष्ठ बताते थे।
#प्रशासनिक_कारण:
▪️ब्रिटिशों की विविध त्रुटिपूर्ण नीतियों के कारण भारत में प्रचलित संस्थाओं एवं परंपराओं का समापन होता जा रहा था। प्रशासन जनता से पृथक हो रहा था। ब्रिटिशों ने भेद-भाव पूर्ण नीति अपनाते हुए भारतीयों को प्रशासनिक सेवाओं में सम्मिलित नहीं होने दिया। लार्ड कार्नवालिस भारतीयों को उच्च सेवाओं के अयोग्य मानता था। अतः उन्होंने उच्च पदों पर भारतीयों को हटाकर ब्रिटिशों को नियुक्त किया। ब्रिटिश न्याय के क्षेत्र में स्वयं को भारतीयों से उच्च व श्रेष्ठ समझते थे। भारतीय जज किसी ब्रिटिश के विरूद्ध मुकदमे की सुनवाई नहीं कर सकते थे।
▪️भारत में ब्रिटिशों की सत्ता स्थापित होने के पश्चात् देश में एक शक्तिशाली ब्रिटिश अधिकारी वर्ग का उदय हुआ। यह वर्ग भारतीयों से घृणा करता था एवं उससे मिलना पसन्द नहीं करता था। ब्रिटिशों की इस नीति से भारतीय क्रुध्द हो उठे और उनमें असन्तोष की ज्वाला धधकने लगी।
#सैनिक_कारण:
▪️भारतीय सैनिक अनेक कारणों से ब्रिटिशों से रुष्ट थे। वेतन, भत्ते, पदोन्नति आदि के संबंध में उनके साथ पक्षपातपूर्ण व्यवहार किया जाता था। एक साधारण सैनिक का वेतन 7-8 रुपये मासिक होता था, जिसमें खाने तथा वर्दी का पैसा देने के बाद उनके पास एक या डेढ़ रुपया बचता था। भारतीयों के साथ ब्रिटिशों की तुलना में पक्षपात किया जाता था। जैसे भारतीय सूबेदार का वेतन 35 रुपये मासिक था, जबकि ब्रिटिश सूबेदार का वेतन 195 रुपये मासिक था। भारतीयों को सेना में उच्च पदों पर नियुक्त नहीं किया जाता था। उच्च पदों पर केवल ब्रिटिश ही नियुक्त होते थे। डॉ. आर. सी. मजूमदार ने भारतीय सैनिकों के रोष के तीन कारण बतलाए हैं –
1. बंगाल की सेना में अवध के अनेक सैनिक थे। अतः जब 1856 ई. में अवध को ब्रिटिश साम्राज्य में लिया गया, तो उनमें असंतोष उत्पन्न हुआ।
2. ब्रिटिशों ने सिक्ख सैनिकों को बाल कटाने के आदेश दिए तथा ऐसा न करने वालों को सेना से बाहर निकाल दिया।
3. ब्रिटिश सरकार द्वारा ईसाई धर्म का प्रचार करने से भी भारतीय रुष्ट थे।
#तत्कालीन_कारण:
▪️1857 ई. तक भारत में विद्रोह का वातावरण पूरी तरह तैयार हो चूका था और अब बारूद के ढेर में आग लगाने वाली केवल एक चिंगारी की आवश्यकता थी। यह चिंगारी चर्बी वाले कारतूसों ने प्रदान की। इस समय ब्रिटेन में एनफील्ड राइफ़ल का आविष्कार हुआ। इन राइफ़लों के कारतूसों को गाय एवं सुअर की चर्बी द्वारा चिकना बनाया जाता था। सैनिकों को मुँह से इसकी टोपी को काटना पड़ता था, उसके बाद ही ये कारतूस राइफ़ल में डाले जाते थे।इन चर्बी लगे कारतूसों ने विद्रोह को भड़का दिया।
#क्रांति_की_शुरूआत:
1857 की क्रांति का सूत्रपात मेरठ छावनी के स्वतंत्रता प्रेमी सैनिक मंगल पाण्डे ने किया। 29 मार्च, 1857 को नए कारतूसों के प्रयोग के विरुद्ध मंगल पाण्डे ने आवाज उठायी। ध्यातव्य है कि अंग्रेजी सरकार ने भारतीय सेना के उपयोग के लिए जिन नए कारतूसों को उपलब्ध कराया था, उनमें सूअर और गाय की चर्बी का प्रयोग किया गया था। छावनी के भीतर मंगल पाण्डे को पकड़ने के लिए जो अंग्रेज अधिकारी आगे बढ़े, उसे मौत के घाट उतार दिया। 8 अप्रैल, 1857 ई. को मंगल पाण्डे को फांसी की सजा दी गई। उसे दी गई फांसी की सजा की खबर सुनकर सम्पूर्ण देश में क्रांति का माहौल स्थापित हो गया।
मेरठ के सैनिकों ने 10 मई, 1857 ई. को जेलखानों को तोड़ना,भारतीय सैनिकों को मुक्त करना और अंग्रेजो को मारना शुरू कर दिया। मेरठ में मिली सफलता से उत्साहित सैनिक दिल्ली की ओर बढ़े। दिल्ली आकर क्रांतिकारी सेनिकों ने कर्नल रिप्ले की हत्या कर दी और दिल्ली पर अपना अधिकार जमा लिया। इसी समय अलीगढ़, इटावा, आजमगढ़, गोरखपुर, बुलंदशहर आदि में भी स्वतंत्रता की घोषणा की जा चुकी थी।
#विद्रोह_के_प्रमुख_केंद्र_और_केंद्र_के_प्रमुख_नेता
• दिल्ली – जनरल बख्त खान
• कानपुर – नाना साहब
• लखनऊ – बेगम हज़रत महल
• बरेली – खान बहादुर
• बिहार – कुंवर सिंह
• फैज़ाबाद – मौलवी अहमदउल्ला
• झांसी – रानी लक्ष्मी बाई
• इलाहाबाद – लियाकत अली
• ग्वालियर – तात्या टोपे
• गोरखपुर – गजाधर सिंह
#विद्रोह_के_समय_प्रमुख_अंग्रेज_जनरल
• दिल्ली – लेफ्टिनेंट विलोबी ,निकोलसन , हडसन
• कानपुर – सर ह्यू रोज
• बनारस – कर्नल जेम्स नील
#क्रांति_का_दमन :
▪️क्रांति के राष्ट्रव्यापी स्वरूप और भारतीयों में अंग्रेजी सरकार के प्रति बढ़ते आक्रोश सरकार ने निर्ममतापूर्ण दमन की नीति अपनायी। तत्कालीन वायसराय लॉर्ड केनिंग ने बाहर से अंग्रेजी सेनाएं मंगवायीं। जनरल नील के नेतृत्व वाली सेना ने बनारस और इलाहाबाद में क्रांति को जिस प्रकार से कुचला, वह पूर्णतः अमानवीय था। निर्दोषों को भी फांसी की सजा दी गई। दिल्ली में बहादुरशाह को गिरफ्तार कर लेने के बाद नरसंहार शुरू हो गया था। फुलवर, अम्बाला आदि में निर्ममता के साथ लोगों की हत्या करवायी । सैनिक नियमों का उल्लंघन कर कैदी सिपाहियों में से अनेकों को तोप के मुंह पर लगाकर उड़ा दिया गया। पंजाब में सिपाहियों को घेरकर जिन्दा जला दिया गया।
▪️अंग्रेजों ने केवल अपनी सैन्य शक्ति के सहारे ही क्रांति का दमन नहीं किया बल्कि उन्होंने प्रलोभन देकर बहादुरशाह को गिरफ्तार करवा लिया, और उसके पुत्रों की हत्या करवादी, सिक्खों और मद्रासी सैनिकों को अपने पक्ष में कर लिया। वस्तुतः, क्रांति के दमन में सिक्ख रेजिमेण्ट ने यदि अंग्रेजी सरकार की सहायता नहीं की होती तो अंग्रेजी सरकार के लिए क्रांतिकारियों को रोक पाना टेढ़ी-खीर ही साबित होता। क्रांति के दमन में अंग्रेजों को इसलिए भी सहायता मिली कि विभिन्न क्षेत्रों में अलग-अलग समय में क्रांति ने जोर पकड़ा था।
#क्रान्ति_की_असफलता_के_कारण :
▪️यह विद्रोह स्थानीय स्तर तक, असंगठित एवं सीमित था। बम्बई एवं मद्रासकी सेनायें तथा नर्मदा नदी के दक्षिण के राज्यों ने क्रान्ति के इस विद्रोह में अंग्रेज़ों का पूरा समर्थन किया।
▪️अच्छे साधन एवं धनाभाव के कारण भी विद्रोह असफल रहा। अंग्रेज़ी अस्त्र-शस्त्र के समक्ष भारतीय अस्त्र-शस्त्र बौने साबित हुए।
▪️1857 ई. के इस विद्रोह के प्रति ‘शिक्षित वर्ग’ पूर्ण रूप से उदासीन रहा। व्यापारियों एवं शिक्षित वर्ग ने कलकत्ता एवं बम्बई में सभाएँ कर अंग्रेज़ों की सफलता के लिए प्रार्थना भी की थी। यदि इस वर्ग ने अपने लेखों एवं भाषणों द्वारा लोगों में उत्साह का संचार किया होता, तो निःसंदेह ही क्रान्ति के इस विद्रोह का परिणाम कुछ ओर ही होता।
▪️इस विद्रोह में ‘राष्ट्रीय भावना’ का पूणतया अभाव था, क्योंकि भारतीय समाज के सभी वर्गों का सहयोग इस विद्रोह को नहीं मिल सका। सामन्तवादी वर्गों में एक वर्ग ने विद्रोह में सहयोग किया, परन्तु पटियाला, जीन्द, ग्वालियर एवं हैदराबाद के राजाओं ने विद्रोह को कुचलने में अंग्रेज़ों का पूरा सहयोग किया। संकट के समय लॉर्ड कैनिंग ने कहा था कि, “यदि सिन्धिया भी विद्रोह में सम्मिलित हो जाए तो मुझे कल ही भारत छोड़ना पड़ेगा”। विद्रोह दमन के पश्चात् भारतीय राजाओं को पुरस्कृत किया गया। निज़ाम को बरार का प्रान्त लौटा दिया गया और उसके ऋण माफ कर दिये गये। सिन्धिया, गायकवाड़ और राजपूत राजाओं को भी पुरस्कार मिले।
▪️विद्रोहियों में अनुभव, संगठन क्षमता व मिलकर कार्य करने की शक्ति की कमी थी।
▪️सैनिक दुर्बलता का विद्रोह की असफलता में महत्त्वपूर्ण योगदान रहा। बहादुरशाह ज़फ़र एवं नाना साहब एक कुशल संगठनकर्ता अवश्य थे, पर उनमें सैन्य नेतृत्व की क्षमता की कमी थी, जबकि अंग्रेज़ी सेना के पास लॉरेन्स बन्धु, निकोलसन, हेवलॉक, आउट्रम एवं एडवर्ड जैसे कुशल सेनानायक थे।
▪️क्रान्तिकारियों के पास उचित नेतृत्व का अभाव था। वृद्ध मुग़ल सम्राट बहादुरशाह ज़फ़र क्रान्तिकारियों का उस ढंग से नेतृत्व नहीं कर सका, जिस तरह के नेतृत्व की तत्कालीन परिस्थितियों में आवश्यकता थी।
▪️विद्रोही क्रान्तिकारियों के पास ठोस लक्ष्य एवं स्पष्ट योजना का अभाव था। उन्हें अगले क्षण क्या करना होगा और क्या नहीं, यह भी निश्चित नहीं था। वे मात्र भावावेश एवं परिस्थितिवश आगे बढ़े जा रहे थे।
▪️आवागमन एवं संचार के साधनों के उपयोग से अंग्रेज़ों को विद्रोह को दबाने मे काफ़ी सहायता मिली। इस प्रकार आवागमन एवं संचार के साधनों ने भी इस विद्रोह को असफल करने में सहयोग दिया।
#परिणाम :
▪️विद्रोह के समाप्त होने के बाद 1858 ई. में ब्रिटिश संसद ने एक क़ानून पारित कर ईस्ट इंडिया कम्पनी के अस्तित्व को समाप्त कर दिया, और अब भारत पर शासन का पूरा अधिकार महारानी विक्टोरिया के हाथों में आ गया। इंग्लैण्ड में 1858 ई. के अधिनियम के तहत एक ‘भारतीय राज्य सचिव’ की व्यवस्था की गयी, जिसकी सहायता के लिए 15 सदस्यों की एक ‘मंत्रणा परिषद्’ बनाई गयी। इन 15 सदस्यों में 8 की नियुक्ति सरकार द्वारा करने तथा 7 की ‘कोर्ट ऑफ़ हाइरेक्टर्स’ द्वारा चुनने की व्यवस्था की गई।
▪️स्थानीय लोगों को उनके गौरव एवं अधिकारों को पुनः वापस करने की बात कही गई। भारतीय नरेशों को महारानी विक्टोरिया ने अपनी ओर से समस्त संधियों के पालन करने का आश्वासन दिया, लेकिन साथ ही नरेशों से भी उसी प्रकार के पालन की आशा की। अपने राज्य क्षेत्र के विस्तार की अनिच्छा की अभिव्यक्ति के साथ-साथ उन्होंने अपने राज्य क्षेत्र अथवा अधिकारों का अतिक्रमण सहन न करने तथा दूसरों पर अतिक्रमण न करने की बात कही, और साथ ही धार्मिक शोषण खत्म करने एवं सेवाओं में बिना भेदभाव के नियुक्ति की बात की गयी।
▪️सैन्य पुनर्गठन के आधार पर यूरोपीय सैनिकों की संख्या को बढ़ाया गया। उच्च सैनिक पदों पर भारतीयों की नियुक्ति को बंद कर दिया गया। तोपखाने पर पूर्णरूप से अंग्रेज़ी सेना का अधिकार हो गया। अब बंगाल प्रेसीडेन्सी के लिए सेना में भारतीय और अंग्रेज़ सैनिकों का अनुपात 2:1 का हो गया, जबकि मद्रास और बम्बई प्रसीडेन्सियों में यह अनुपात 3:1 का हो गया। उच्च जाति के लोगों में से सैनिकों की भर्ती बन्द कर दी गयी।
▪️1858 ई. के अधिनियम के अन्तर्गत ही भारत में गवर्नर-जनरल के पदनाम में परिवर्ततन कर उसे ‘वायसराय’ का पदनाम दिया गया।
▪️क्रान्ति के विद्रोह के फलस्वरूप सामन्तवादी ढाँचा चरमरा गया। आम भारतीयों में सामन्तवादियों की छवि गद्दारों की हो गई, क्योंकि इस वर्ग ने विद्रोह को दबाने में अंग्रेज़ों को सहयोग दिया था।
▪️विद्रोह के परिणामस्वरूप भारतीयों में राष्ट्रीय एकता की भावना का विकास हुआ और हिन्दू-मुस्लिम एकता ने ज़ोर पकड़ना शुरू किया, जिसका कालान्तर में राष्ट्रीय आंदोलन में महत्त्वपूर्ण योगदान रहा।
▪️1857 ई. की क्रान्ति के बाद साम्राज्य विस्तार की नीति का तो ख़ात्मा हो गया, परन्तु इसके स्थान पर अब आर्थिक शोषण के युग का आरम्भ हुआ।
▪️भारतीयों के प्रशासन में प्रतिनिधित्व के क्षेत्र में अल्प प्रयास के अन्तर्गत 1861 ई. में ‘भारतीय परिषद् अधिनियम’ को पारित किया गया।
▪️इसके अतिरिक्त ईसाई धर्म के प्रचार-प्रसार में कमी, श्वेत जाति की उच्चता के सिद्धान्त का प्रतिपादन और मुग़ल साम्राज्य के अस्तित्व का ख़त्म होना आदि 1857 ई. के विद्रोह के अन्य परिणाम थे।
#प्राचीन_भारत_का_इतिहास :
#ताम्रपाषाण_युग
ताम्रपाषाण युग या ताम्र पाषाण संस्कृति का आरम्भ नवपाषाण युग के बाद हुआ। ताम्रपाषाण युग या ताम्र पाषाण संस्कृति में उपकरण, औजार और हथियार के निर्माण में पत्थर के साथ ताँबें का भी प्रयोग बहुतायत में होने लगा, इसीलिए इस समय को ताम्रपाषाण युग या ताम्रपाषाणिक युग कहते हैं।
▪️नवपाषाण युग के अंत में धातुओं का प्रयोग बढ़ने लगा, सर्वप्रथम धातुओं में ताँबे का प्रयोग किया गया। तो जिस संस्कृति ने पत्थर के साथ-साथ ताँबे का भी प्रयोग किया उसी संस्कृति को ताम्रपाषाणिक कहते हैं, जिसका अर्थ है ‘पत्थर और तांबे के उपयोग की अवस्था।’
▪️तकनिकी दृष्टिकोण से ताम्रपाषाण युग, हड़प्पा की कांस्यकालीन संस्कृति से पहले की है। लेकिन भारत में हड़प्पा की कांस्य संस्कृति पहले आती है और अधिकांश ताम्रपाषाण युग की संस्कृतियाँ बाद में।
▪️ताम्रपाषाण युग के लोग पशुपालन और कृषि किया करते थे। वे मुख्य अनाज गेहूँ, चावल के आलावा बाजरा, मसूर, उड़द और मूँग आदि दलहन फसलें भी उगाया करते थे।
▪️वे लोग भेड़, बकरी, गाय, भैंस और सूअर पाला करते थे। हिरन का शिकार करते थे। वह ऊँट से परिचित थे इस बात के भी साक्ष्य ऊँट के अवशेष के रूप में प्राप्त हुए हैं। सामान्यतः इस संस्कृति या युग के लोग घोड़े से परिचित नहीं थे।
▪️ताम्रपाषाण युग के लोग समुदाय बनाकर कर गांवों में रहते थे तथा देश के विशाल भागों में फैले थे जहाँ पहाड़ी जमींन और नदियाँ स्थित थीं। इतिहासकारों का मत है की ताम्रपाषाण युगीन लोग पक्की ईंटों का प्रयोग नहीं करते थे संभवतः वह पक्की ईंटों से परिचित नहीं थे।
▪️ताम्रपाषाण काल के लोग वस्त्र निर्माण करना जानते थे। साथ ही वह मिट्टी के खिलोने और मूर्ति (टेराकोटा की) के कारीगर थे। साथ ही कुंभकार, धातुकार, हाथी दाँत के शिल्पी और चुना बनाने के कारीगर थे।
▪️ताम्रपाषाण काल के अधिकतर मृदभांड (मिट्टी के बर्तन) काले व लाल रंग के थे, जोकि चाक पर बनते थे कभी-कभार इन पर सफेद रंग की रेखिक आकृतियाँ बनी रहती थी।
▪️मिट्टी की स्त्री रूपी मूर्ति से ज्ञात होता है कि ताम्रपाषाण कालीन लोग मातृ-देवी की पूजा करते थे और संभवतः वृषभ (सांड) धार्मिक पंथ का प्रतीक था।
▪️भारत में ताम्रपाषाण काल की कई बस्तियाँ हैं तिथिक्रम की दृष्टि से कुछ प्राक् तथा हड़प्पीय हैं, कुछ हड़प्पा संस्कृति के समकालीन हैं तो कुछ हड़प्पोत्तर अर्थात हड्डपा संस्कृति के बाद की हैं।
#भारत_में_ताम्रपाषण_युगीन_बस्तियां :
▪️दक्षिण पूर्वी राजस्थान –
• अहार (उदयपुर),
• गिलुंद (राजसमंद)
▪️पश्चिमी महाराष्ट्र –
• जोखे,
• नेवासा, सोनगाँव और दैमाबाद (अहमदनगर),
• चंदौली (कोल्हापुर),
• इनामगाँव – इस युग की सबसे बडी बस्ती यहीं मिली है (पुणे)
▪️पश्चिमी मध्यप्रदेश –
• मालवा (मालवा),
• कयथा (मंडला),
• एरण (गुना)
#आधुनिक_भारत_का_इतिहास :
#व्यपगत_सिद्धांत_या_लार्ड_डलहौजी_की_राज्य
#हड़प_नीति
व्यपगत सिद्धांत या लार्ड डलहौजी की राज्य हड़प नीति या गोद प्रथा निषेध की नीति : व्यपगत सिद्धांत जिसे लार्ड डलहौजी की राज्य हड़प नीति या गोद प्रथा निषेध की नीति के नाम से भी जाना जाता है। इस निति का दुरप्रयोग कर अंग्रेजों ने भारतीय राज्यों और रियासतों को अपने अधीन किया था।
वर्ष 1848 में लार्ड डलहौजी भारत का गवर्नर जनरल बनकर आया। लार्ड वेलेजली के बाद डलहौजी ही अगला महत्वपूर्ण गवर्नर जनरल था। इसे इसकी साम्राज्यवादी नीतियों के लिए याद किया जाता है। गवर्नर जनरल बनते ही उसने अंग्रेजी साम्राज्य की सीमाओं का विस्तार शुरू कर दिया। इसके लिए उसने मुख्यतः तीन नीतियां बनाई
#युद्ध_की_नीति- युद्ध कर अपने सीमाओं का विस्तार करना।
#कुप्रशासन_की_नीति- अपने सहयोगी राज्यों पर कुप्रशासन का आरोप लगाकर उन्हें अधीग्रहित कर लेना।
#व्यपगत_का_सिद्धांत- उत्तराधिकारी न होने पर राज्य को अधीग्रहित करना।
डलहौजी ने भारत के सभी प्रदेशों को अंग्रेजी अधिकार के अन्तर्गत लाने का प्रयास किया। लार्ड डलहौजी की तीनों नीतियों में से सबसे महत्वपूर्ण नीति थी “व्यपगत का सिद्धांत” या “डलहौजी की राज्य हड़प की नीति” या “गोद प्रथा निषेध की नीति”। उसके कार्यकाल को भी इसी नीति के कारण अधिक याद किया जाता है।
#व्यपगत_के_सिद्धांत_नीति_की_विशेषताएं
▪️इस नीति की सबसे प्रमुख विशेषता यह थी कि जिन शासकों का उत्तराधिकारी नहीं होता था वे पुत्र को गोद नहीं ले सकते थे।
▪️इस नीति को लागू करने के लिए डलहौजी ने सभी भारतीय राज्यों/रियासतों को तीन श्रेणियों में विभाजित किया।
#पहली_श्रेणी (अधीनस्थ राज्य)- इस श्रेणी में वे राज्य थे जोकि प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से ब्रिटिश सरकार के सहयोग से असतित्तव में आए, और ये राज्य पूर्णतः कंपनी पर ही आश्रित थे। इन राज्यों के शासकों को निःसंतान होने पर अपने उत्तराधिकारी को गोद लेने का अधिकार नहीं था। शासक की मृत्यु के बाद राज्य सीधे अंग्रेजों के अधीन हो जाएगा।
जैसे- झाँसी, जैतपुर, संभलपुर।
#द्वितीय_श्रेणी (आश्रित राज्य)- इस श्रेणी में वे राज्य थे जोकि प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से ब्रिटिश सरकार के सहयोग से असतित्तव में आए थे परन्तु ये कंपनी के आधीन नहीं थे कैवल बाह्य सुरक्षा हेतु कंपनी पर आश्रित थे। पहली श्रेणी से इतर इन्हे उत्तराधिकारी को गोद लेने की छूट थी परन्तु पहले ब्रिटिश सरकार से इजाजत लेनी थी।
जैसे- अवध, ग्वालियार, नागपुर।
#तृतीय_श्रेणी (स्वतंत्र राज्य)- इस श्रेणी के राज्य को अपने उत्तराधिकारी को गोद लेने की पूर्ण स्वतंत्रता थी।
जैसे- जयपुर, उदयपुर, सतारा।
#व्यपगत_के_सिद्धांत_नीति_के_द्वारा_अधीग्रहित
#किए_गए_प्रमुख_राज्य
डलहौजी ने अपने व्यपगत के सिद्धांत का पालन पूरी कठोरता के साथ किया और कुछ ही समय में कई प्रदेशों और देशी रियासतों को अपने अधिकार में ले लिया।
▪️सतारा (महाराष्ट्र)- 1848,
▪️जैतपुर/ संभलपुर/ बुन्देलखण्ड/ओडीसा- 1849,
▪️बाघाट- 1850,
▪️उदयपुर- 1852,
▪️झाँसी- 1853,
▪️नागपुर- 1854,
▪️अवध- 1856
इन सभी में से सतारा (महाराष्ट्र), झाँसी, अवध और नागपुर महत्वपूर्ण है –
#सतारा– सतारा इस नीति से प्रभावित होने वाला सबसे पहला राज्य बना। यहां के शासक का कोई भी पुत्र नहीं था अतः उसने ब्रिटिश सरकार से पत्र के द्वारा अपने गोद लिए पुत्र मान्यता के लिए आग्रह किया परन्तु डलहौजी ने इसे अस्वीकार कर दिया। 1848 में सतारा के अंतिम शासक की मृत्यु के बाद इसे अंग्रेजी राज्य के अन्तर्गत मिला दिया गया।
#झाँसी- झाँसी की रानी का असली नाम “मनू बाई” था और उनके पति का नाम “गंगाधर राव” था। इनकी संतान की मृत्यु हो गई थी, इसलिए इन्होंने एक पुत्र को गोद लिया था। जिसका नाम दामोधर राव था। 1853 में गंगाधर राव की मृत्यु हो जाने के उपरान्त अंग्रेजों ने आक्रमण कर झाँसी को अपने अधिकार में लेने की कोशिश शुरू कर दी। इसका सामना रानी लक्ष्मी बाई ने बहुत ही बहदुरी के साथ किया परन्तु अंततः अंग्रेजों की विजय हुई और वर्ष 1853 में झाँसी को अधीग्रहित किया गया।
#अवध- 1856 में अवध का नावब वाजिद अली शाह था। अंग्रेजों ने इसके बेटे को देश निकाला दे दिया गया था, और फिर बाद में कुप्रशासन का आरोप लगा कर अवध को हड़प लिया।
#नागपुर- यहां के शासक राघो जी ने भी पत्र के द्वारा अपने गोद लिए पुत्र की मान्यता के लिए ब्रिटिश सरकार से अग्रह किया परन्तु उनकी मृत्यु तक कंपनी ने इस विषय में कोई भी निर्णय नहीं लिया। उनकी मृत्यु के बाद डलहौजी ने उनके दत्तक पुत्र को मान्यता देने से मना कर दिया और राज्य को अपनी अधीनता में ले लिया।
#व्यपगत_सिद्धांत_नीति_की_आलोचना
▪️भारत में पहले से ही उत्तराधिकार के लिए निसंतान राजाओं द्वारा गोद प्रथा का प्रयोग किया जाता था। इस प्रथा की पहले से ही सामाजिक और राजनीतिक स्वीकृती थी। अतः अंग्रेजों द्वारा इस प्रथा का हनन करना सर्वथा गलत था।
▪️1825 में कंपनी ने ये स्वीकार किया था कि वे सभी हिन्दु मान्यताओं को मान्यता देगी। परन्तु एकाएक इस नीति द्वारा कंपनी अपनी बातों से मुकर गई और इस दमनकारी नीति को लागु कर दिया।
▪️जिस समय इस नीति को लागू किया गया उस समय भारत की सर्वोच्च शक्ति मुगल शासक थे। अतः इस प्रकार की कोई भी राष्ट्रव्यापी नीति लागू करने का अधिकार भी उन्हीं को था न कि किसी विदेशी कंपनी को।
▪️सतारा राज्य का अधिग्रहण इस नीति में दिए गए नियमों के अनुरूप भी गलत था। सतारा राज्य न तो ब्रिटिश सरकार के अन्तर्गत था और न ही उसके निर्माण में कंपनी का किसी प्रकार का कोई सहयोग रहा था। अतः वह एक स्वतंत्र राज्य की श्रेणी में था।
लार्ड डलहौजी की इस नीति से कंपनी की साम्राज्यवादी सोच का पता चलता है। यह नीति स्वार्थ और अनैतिकता से भरी थी। इससे कंपनी को आर्थिक और राजनीतिक रूप से तो काफी फायदा पहुँचा, परन्तु भारतीयों में कंपनी के प्रति विद्रोह के बीज भी इस नीति ने ही बोए । जोकि आगे चलकर 1857 की क्रांति में सामने आये।
#प्राचीन_भारत_का_इतिहास :
#प्रागैतिहासिक_काल
प्रागैतिहासिक काल वह काल है जिसकी जानकारी प्रातात्विक स्रोतों से प्राप्त होती है। इस समय के इतिहास की जानकारी लिखित रूप में प्राप्त नहीं हुई है। प्रागैतिहासिक काल को ‘प्रस्तर युग’ भी कहते हैं।
#प्रागैतिहासिक_काल_का_अर्थ : प्रागैतिहासिक काल का अर्थ होता है ‘इतिहास से पूर्व का युग’।
#प्रागैतिहासिक_काल_का_समय : प्रागैतिहासिक काल का समय 5,00,000 ई.पू. से 2,500 ई.पू. तक माना जाता है।
प्रागैतिहासिक काल या प्रागैतिहासिक कालखंड को तीन भागों में विभाजित किया गया है —
#पुरापाषाण_काल (Palaeolithic Age) – 5,00,000 ई.पू. से 50,000 ई.पू. तक
आखेटक एवं खाद्य संग्राहक
#मध्यपाषाण_काल (Mesolithic Age) – 10,000 ई.पू. से 7000 ई.पू. तक
आखेटक एवं पशु पालक
#नवपाषाण_काल (Neolithic Age) – 9,000 ई.पू. (विश्व) व 7,000 ई.पू. (भारत) से 2,500 ई.पू. तक
खाद्य उत्पादक, स्थिर एवं समुदाय में रहना
1. #पुरापाषाण_काल
पुरापाषाण काल को तीन उपभागों में बाँटा जा सकता है —
A. #निम्न_पुरापाषाण_काल :
▪️निम्न पुरापाषाण काल 5,00,000 ई.पू. से 50,000 ई.पू. तक माना जाता है।
▪️इस समय तक मानव आग का अविष्कार कर चूका था।
▪️मानव समूह बनाकर शिकार कर भोजन का संग्रह करता था।
#प्रमुख_स्थल : कश्मीर, राजस्थान का थार, उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर में स्थित बेलन घाटी, भीमबेटका की गुफाएँ, नर्मदा घाटी (मध्य प्रदेश), सोहन नदी घाटी, कर्णाटक एवं आंध्रप्रदेश आदि।
#मुख्य_औजार : क्वार्ट्जाइट पत्थर के बने कुल्हाड़ी, हस्त कुल्हाड़ी या हस्त कुठार (hand-axe), खण्डक (गँड़ासा) (Chopper)।
B. #मध्य_पुरापाषाण_काल :
▪️मध्य पुरापाषाण काल 50,000 ई.पू. से 40,000 ई.पू. तक माना जाता है।
▪️इस काल को फलक संस्कृति (Flake Culture) भी कहते हैं।
▪️आग का प्रयोग व्यापक रूप में किया जाने लगा था।
▪️इस काल में पत्थर के गोले से वस्तुओं का निर्माण होने लगा था।
प्रमुख स्थल : मध्य प्रदेश की नर्मदा घाटी, राजस्थान का डीडवाना, महाराष्ट्र का नेवासा, उत्तर प्रदेश का मिर्जापुर और पश्चिम बंगाल का बाकुण्डा एवं पुरलिया।
मुख्य औजार : पत्थर की पपड़ियों के बने फलक, छेदनी और खुरचनी आदि इस काल के प्रमुख हथियार थे।हथियारों में क्वार्ट्जाइट के आलावा जैस्पर एवं चर्ट आदि पत्थरों का प्रयोग होने लगा था।
C. #उच्च_पुरापाषाण_काल :
▪️उच्च पुरापाषाण काल 40,000 ई.पू. से 10,000 ई.पू. तक माना जाता है।
▪️इस काल में होमो सेपियन्स (Homo Sapiens) अर्थात आधुनिक मानव का उदय हुआ।
▪️इस काल का मानव शैलाश्रयों (Rock shelter) में रहने लगा था।
▪️मानव चित्रकारी और नक्काशी करना जान चूका था।
▪️इस काल के चित्रकारी के साक्ष्य मध्य प्रदेश स्थित ‘भीमबेटका की गुफाओं’ से प्राप्त हुये हैं।
#प्रमुख_स्थल : उत्तर प्रदेश स्थित बेलन घाटी, महाराष्ट्र स्थित बीजापुर एवं इनामगांव, केरल स्थित चित्तूर, झारखण्ड स्थिर छोटानागपुर का पठार आदि।
#प्रमुख_औजार : हड्डियों से बने औजार, फलक, तक्षणी एवं शल्क आदि।
2. #मध्य_पाषाण_काल
▪️मध्य पाषाण काल 10,000 ई.पू. से 7000 ई.पू. तक माना जाता है।
▪️इस काल के मानव मछली पकड़कर, शिकार करके और खाद्य सामग्री एकत्रित कर जीवन यापन करते थे।
▪️मानव द्वारा पशुपालन करने का प्रारम्भिक साक्ष्य इसी काल के मानवों का प्राप्त हुआ है।
▪️मानव द्वारा पशुपालन के साक्ष्य राजस्थान के बागोर और मध्य प्रदेश के आदमगढ़ से प्राप्त हुए हैं।
▪️इस काल के मानव एक ही स्थान पर स्थायी निवास करते थे इसका प्रारंभिक साक्ष्य सराय नाहर राय (प्रतापगढ़, उत्तर प्रदेश) एवं महदहा से स्तम्भगर्त के रूप में मिलता है।
▪️इस काल के मानवों द्वारा एक दूसरे पर आक्रमण और युद्ध करने के प्रारंभिक साक्ष्य भी सराय नाहर राय से प्राप्त हुए हैं।
▪️इतिहासकारों का मत है कि ‘मातृदेवी की उपासना’ और ‘शवाधान की पद्धति’ संभवतः इसी काल में प्रारम्भ हुई होगी।
#प्रमुख_स्थल : बिहार का ‘पायसरा – मुंगेर’, राजस्थान का बागोर, गुजरात का लंघनाज, उत्तर प्रदेश स्थित सराय नाहर राय (प्रतापगढ़) और महागढ, मध्य प्रदेश स्थित आदमगढ़ (होशंगाबाद), भीमबेटका (भोपाल) और बोधोर आदि।
#प्रमुख_औजार :
▪️सर्वप्रथम तीर कमान का अविष्कार इसी काल में हुआ था।
▪️इस काल के हथियार भी पत्थर और हड्डियों के ही बने होते थे लेकिन ये पुरापाषाणकाल की तुलना में बहुत छोटे होते थे, इसलिए इन्हें माइक्रोलिथ अर्थात लघुपाषण कहा जाता है।
▪️हथियारों में लकड़ियों और हड्डियों के हत्थे लगे हंसिए एवं आरी आदि हथियार मिलते हैं।
▪️नुकीले क्रोड, त्रिकोण, ब्लेड और नवचन्द्राकर आदि आकार के प्रमुख हथियार थे।
3. #नवपाषाण_काल
▪️नवपाषाण काल विश्व के लिए 9,000 ई.पू. से और भारत के लिए 7,000 ई.पू. से 2,500 ई.पू. तक माना जाता है।
▪️कृषि कार्य का प्रारम्भ, पशु पालन, पत्थरों को घिसकर औजार और हथियार बनाना आदि इस काल की विशेषता थी।
▪️पत्थर की कुल्हाड़ियों का प्रयोग किया जाता था।
इस काल में मिट्टी के बने बर्तनों (मृदभांडों) का प्रयोग और उनमे विविधता मिलती है।
▪️ग्राम समुदाय का प्रारम्भ और स्थिर ग्राम्य जीवन का विकास भी संभवतः इसी काल में हुआ था, अर्थात मानव घर बना कर एक ही स्थान पर रहता था।
▪️इस काल के मानव गोलाकार और आयतकार घरों में रहा करते थे जिसे मिट्टी और सरकंडों से बनाया जाता था।
▪️बलूचिस्तान के मेहरगढ़ से इस काल की कृषि का प्राचीनतम साक्ष्य प्राप्त हुआ है। मेहरगढ़ से जौ, गेहूँ, खजूर और कपास की फसलों के साक्ष्य प्राप्त हुए हैं। यहाँ के लोग मिट्टी के कच्ची ईटों से बने आयताकार घरों में रहा करते थे।
▪️मानव द्वारा सर्वप्रथम प्रयुक्त अनाज जौ था।
▪️उत्तर प्रदेश के कोलडिहवा (इलाहबाद) से 6,000 ई.पू. के चावल उत्पादन के प्राचीनतम साक्ष्य प्राप्त हुए हैं।
▪️कश्मीर के बुर्जहोम से गर्तावास (गड्ढा रूपी घर), हड्डी के औजार आदि मिले हैं। साथ ही कब्रों में मालिक के शवों के साथ उनके पालतू कुत्तों को भी दफनाया गया है।
▪️सर्वप्रथम इसी काल में कुत्तों को पालतू बनाया गया।
बिहार के चिरांद (सारण) से हड्डी के बने औजार और मुख्य रूप से हिरन के सींगों से बने उपकरण मिले हैं।
कुंभकारी सर्वप्रथम इसी काल में मिलती है, बर्तनों में पॉलिशदार काला मृदभांड, धूसर मृदभांड और चटाई की छाप वाले मृदभांड प्रमुख हैं।
▪️कर्णाटक के पिक्लीहल से राख के ढेर तथा निवास स्थान मिले हैं। यहाँ के निवासी पशु पाला करते थे।
#प्रमुख_स्थल : सरुतरु और मारकडोला (असम), उतनूर (आन्ध्र प्रदेश), चिरांद, सेनुआर (बिहार), बुर्जहोम, गुफ्कराल (कश्मीर), कोलडिहवा, महागढ (उत्तर प्रदेश), पैयमपल्ली (तमिलनाडु), ब्रह्मगिरि, कोडक्कल, पिक्लीहल, हल्लुर, मस्की, संगेनकल्लु (कर्नाटक), मेहरगढ़ (पाकिस्तान)
#सिन्धु_घाटी_सभ्यता [ #हड़प्पा_सभ्यता ]
सिंधु घाटी सभ्यता दुनिया की चार प्रारम्भिक सभ्यताओं (मेसोपोटामिया या सुमेरियन सभ्यता, मिस्र सभ्यता और चीनी सभ्यता) में से एक है|
#संक्षिप्त_विवरण :
1. यह सभ्यता कांस्य युग (ताम्रपाषाण काल) के अंतर्गत आता है|
2. इस सभ्यता का विस्तार पश्चिम में बलूचिस्तान तक, पूर्व में आलमगीरपुर (उत्तर प्रदेश) तक, दक्षिण में दाइमाबाद (महाराष्ट्र) तक और उत्तर में मंदा (जम्मू-कश्मीर) तक था|
3. इस सभ्यता में किसानों और व्यापारियों का प्रभुत्व था जिसके कारण इस सभ्यता को कृषि-वाणिज्यिक सभ्यता के रूप में जाना जाता है|
4. इस सभ्यता को हड़प्पा सभ्यता के नाम से भी जाना जाता है क्योंकि 1921 में सर्वप्रथम हड़प्पा नामक स्थान पर ही दयाराम साहनी की देखरेख में खुदाई के माध्यम से इस सभ्यता की खोज की गई थी|
5. रेडियोकार्बन डेटिंग के आधार पर सिंधु घाटी सभ्यता का काल 2500-1750 ईसा पूर्व के आसपास निर्धारित किया गया है|
6. इस सभ्यता की सबसे प्रमुख विशेषता इसकी “नगर योजना” थी| इस सभ्यता के दौरान शहरों को दो भागों दुर्ग (शासक वर्ग द्वारा अधिकृत) और निचले शहर (आम लोगों का निवास स्थान) में विभाजित किया गया था|
7. धौलावीरा इस सभ्यता का एकमात्र स्थल है जहाँ शहर को तीन भागों में विभाजित किया गया था|
8. चहुन्दरो एकमात्र ऐसा शहर था जहाँ दुर्ग नहीं थे|
9. इस सभ्यता में नगर योजना “ग्रिड प्रणाली” पर आधारित थी| इस सभ्यता के लोग भवन निर्माण के लिए पके हुए ईंटों को इस्तेमाल करते थे| इसके अलावा नालियों का उत्तम प्रबंध, किलाबन्द दुर्ग और लोहे के औजारों की अनुपस्थिति इस सभ्यता की प्रमुख विशेषताएं थी|
10. सिन्धु घाटी सभ्यता के लोगों ने सर्वप्रथम कपास का उत्पादन किया था जिसे ग्रीक भाषा में “सिनडम” कहा जाता है और यह सिंध से प्राप्त हुआ था|
11. सिन्धु घाटी सभ्यता के लोग बड़े पैमाने पर गेहूं और जौ का उत्पादन करते थे| उनके द्वारा उगाये जाने वाले अन्य फसल दाल, धान, कपास, खजूर, खरबूजे, मटर, तिल और सरसों थे।
12. इस काल के ज्ञात पशुओं में बैल, भेड़, भैंस, बकरी, सूअर, हाथी, कुत्ता, बिल्ली, गधा और ऊंट प्रमुख थे।
13. इस सभ्यता का सबसे महत्वपूर्ण पशु “बिना कूबड़ वाले बैल” या “एक सींग वाला गैंडा” था|
14. इस सभ्यता के दौरान बाह्य और आंतरिक व्यापार विकसित अवस्था में था, लेकिन भुगतान “वस्तु-विनिमय प्रणाली” द्वारा होता था|
15. इस सभ्यता के लोगों ने स्वतः ही वजन और माप प्रणाली विकसित की थी, जो 16 के अनुपात में थी|
16. शवों को दफनाने या जलाने का काम उत्तर-दक्षिण दिशा में किया जाता था|
17. हड़प्पा संस्कृति की सबसे कलात्मक कृति “शैलखड़ी की मुहरें” हैं| हड़प्पा कालीन लिपि चित्रात्मक थी लेकिन अभी तक इसे पढ़ा नहीं जा सका है| इस लिपि में पहली पंक्ति दाएं से बाएं ओर और दूसरी पंक्ति बाएं से दाएं ओर लिखी जाती थी| इस शैली को सर्पलेखन (Boustrophedon) कहा जाता है।
18. सिन्धु घाटी सभ्यता की खुदाई से “स्वस्तिक” के निशान भी मिले हैं|
19. मूर्तियों के माध्यम से पता चलता है कि सिन्धु घाटी सभ्यता के दौरान देवी माँ (मातृदेवी या शक्ति) की पूजा होती थी| इसके अलावा “योनि” (महिला यौन अंग) के पूजा के सबूत भी मिले हैं|
20. इस काल के प्रमुख पुरुष देवता “पशुपति महादेव” अर्थात पशुओं के भगवान (आद्य-शिव) थे| जिनकी आकृति खुदाई से प्राप्त एक मुहर पर मिली है| इस आकृति में एक पुरुष योगमुद्रा में बैठे हुए हैं एवं चार जानवर (हाथी, बाघ, गैंडा और भैंस) से घिरे हुए हैं| इसके अलावा उनके पैरों के पास दो हिरण खड़े हैं| सिन्धु घाटी सभ्यता के दौरान “शिवलिंग” की पूजा भी व्यापक रूप से होती थी|
21. इस काल के लोगों का मुख्य व्यवसाय “कताई”, “बुनाई”, “नाव बनाना”, “सोने के आभूषण बनाना”, “मिट्टी के बर्तन बनाना” और “मुहरें बनाना” था|
#आधुनिक_भारत_का_इतिहास :
#सहायक_संधि
ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने हस्तक्षेप की नीति को प्रारंभ किया और और पूर्व में अपने अधीन किये गये शासकों के क्षेत्रों का प्रयोग अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं अर्थात भारतीय राज्यों को ब्रिटिश शक्ति के अधीन लाने के लिए किया| सहायक संधि हस्तक्षेप की नीति थी जिसका प्रयोग भारत के गवर्नर जनरल लॉर्ड वेलेजली (1798-1805 ई.) द्वारा भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की स्थापना के लिए किया गया| इस प्रणाली में यह कहा गया की प्रत्येक भारतीय शासक को अपने राज्य में ब्रिटिश सेना के रख-रखाव के लिए धन का भुगतान करना होगा और इसके बदले में ब्रिटिश उनकी उनके विरोधियों से सुरक्षा करेंगे |इस संधि ने ब्रिटिश साम्राज्य का अत्यधिक विस्तार किया |
इसका सर्वप्रथम प्रयोग लॉर्ड वेलेजली द्वारा किया गया जिसने हस्तक्षेप की नीति को सहायक संधि के रूप में संस्थागत रूप प्रदान किया| उसने ऐसी लगभग सौ संधियों पर हस्ताक्षर के द्वारा नवाबों व निजामों को अपना सहायक बना लिया| इस प्रणाली के मुख्य बिंदु निम्नलिखित हैं-
• सहायक संधि पर हस्ताक्षर करने वाले राज्यों को अपने राज्य में ब्रिटिश सेना की एक स्थायी रेजीमेंट को रखना पड़ता था और उसके रख-रखाव हेतु धन देना पड़ता था|
• ब्रिटिशों की पूर्व अनुमति प्राप्त किये बगैर कोई भी भारतीय शासक किसी भी यूरोपीय को अपनी सेवा में नियुक्त नहीं नहीं कर सकता था|
• भारतीय शासक गवर्नर जनरल से सलाह किये बगैर किसी भी दूसरे भारतीय शासक से कोई समझौता नहीं करेगा|
#संधि_को_स्वीकार_करने_वाले_राज्य
• सर्वप्रथम इस संधि पर हस्ताक्षर हैदराबाद के निज़ाम ने किये थे| 1798 ई. में निज़ाम के फ्रांसीसी संबंधों को समाप्त कर दिया और ब्रिटिश अनुमति के बिना वे मराठों से कोई संधि नहीं कर सकते थे|
• मैसूर दूसरा राज्य था जिसने 1799 ई. में इस संधि पर हस्ताक्षर किये|
• 1801 ई. में वेलेज़ली ने अवध के नवाब को इस संधि पर हस्ताक्षर करने के लिया बाध्य किया|
• 1802 ई. में पेशवा बाजीराव द्वितीय भी अपने राज्य को इस संधि के तहत ले आये |बहुत से अन्य मराठा राज्यों,जैसे 1803 ई. में सिंधिया व भोसले ने भी इस संधि पर हस्ताक्षर किये| अंतिम मराठा संघ जैसे होल्कर ने भी इस संधि की शर्तों को स्वीकार कर लिया|
#निष्कर्ष
सहायक संधि वास्तव में किसी भी राज्य की संप्रुभता को छीनने वाला दस्तावेज था जिसके तहत राज्य को स्वयं अपनी रक्षा करने का, कूटनीतिक सम्बन्ध स्थापित करने का ,विदेशियों को नियुक्त करने का और यहाँ तक कि अपने पड़ोसी के साथ विवादों का समाधान करने का भी अधिकार प्राप्त नहीं था |