Some Important History of India
#भारत_में_वनों_के_प्रकार
भारत में विविध प्रकार के वन पाये जाते हैं, दक्षिण में केरल के वर्षावनों से उत्तर में लद्दाख के अल्पाइन वन, पश्चिम में राजस्थान के मरूस्थल से लेकर पूर्वोत्तर के सदाबहार वनों तक। जलवायु, मृदा का प्रकार, स्थलरूप तथा ऊँचाई वनों के प्रकारों को प्रभावित करने वाले मुख्य कारक हैं। वनों का विभाजन, उनकी प्रकृति, बनावट, जलवायु जिसमें वे पनपते हैं तथा उनके आस-पास के पर्यावरण के आधार पर किया जाता है। वनों के प्रकार
निम्नलिखित है।
#शंकुधारी_वन: उन हिमालय पर्वतीय क्षेत्रों में पाये जाते हैं जहां तापमान कम होता है। इन वनों में सीधे लम्बे वृक्ष पाये जाते हैं जिनकी पत्तियां नुकीली होती हैं तथा शाखाएँ नीचे की ओर झुकी होती है जिससे बर्फ इनकी टहनियों पर जमा नहीं हो पाती। इनमें बीजों के स्थान पर शंकु होते हैं इसलिए इन्हें जिम्नोस्पर्म भी कहा जाता है। चौड़ी पत्तियों वाले वनों के कई प्रकार होते हैं- जैसे सदाबहार वन, पर्णपाती वन, काँटेदार वन, तथा मैंग्रोव वन। इन वनों की पत्तियाँ बड़ी - बड़ी तथा अलग – अलग प्रकार की होती हैं।
#सदाबहार_वन: पश्चिमी घाट पूर्वोत्तर भारत तथा अंडमान निकोबार द्वीप समूह में स्थित उच्च वर्षा क्षेत्रों में पाये जाते हैं। यह वन उन क्षेत्रों में पनपते हैं जहां मानसून कई महीनों तक रहता है। यह वृक्ष एक दूसरे से सटकर लगातार छत का निर्माण करते हैं। इसलिए इन वनों में धरातल तक प्रकाश नहीं पहुंच पाता। जब इस परत से थोड़ा प्रकाश धरातल तक पहुंचता है तब केवल कुछ छायाप्रिय पौधे ही धरती पर पनप पाते हैं। इन वनों में आर्किड्स तथा फर्न बहुतायत में पाये जाते हैं। इन वृक्षों की छाल काई से लिपटी रहती है। यह वन जन्तु तथा कीट जीवन में प्रचुर हैं।
#आर्द्र_सदाबहार_वन: दक्षिण में पश्चिमी घाट के साथ तथा अंडमान – निकोबार द्वीप समूह तथा पूर्वोत्तर में सभी जगह पाये जाते हैं। यह वन लंबे, सीधे सदाबहार वृक्षों से जिनकी तना या जड़े त्रिपदयीय आकार की होती हैं से बनते हैं जिससे ये तूफान में भी सीधे खड़े रहते हैं। यह पेड़ काफी दूरी तक लंबे उगते हैं जिसके पश्चात ये गोभी के फूल की तरह खिलकर फैल जाते हैं। इन वनों के मुख्य वृक्ष जैक फल, सुपारी, पाल्म, जामुन, आम तथा हॉलॉक हैं। इन वनों में तने वाले पौधे जमीन के नजदीक उग जाते हैं, साथ में छोटे वृक्ष तथा फिर लंबे वृक्ष उगते हैं। अलग – अलग रंगों के सुन्दर फर्न तथा अनेक प्रकार के आर्किड्स इन वनों के वृक्षों के साथ उग जाते हैं।
#अर्द्ध_सदाबहार_वृक्ष: इस प्रकार के वन पश्चिमी घाट, अंडमान तथा निकोबार द्वीप समूह तथा पूर्वी हिमालयों में पाये जाते हैं। इन वनों में आर्द्र सदाबहार वृक्ष तथा आर्द्र पर्णपाती वनों का मिश्रण पाया जाता है। यह वन घने होते हैं तथा इनमें अनेक प्रकार के वृक्ष पाये जाते हैं।
#पर्णपाती_वन: यह वन केवल उन्हीं क्षेत्रों में पाये जाते हैं जहां मध्यम स्तर की मौसमी वर्षा जो केवल कुछ ही महीनों तक होती है। अधिकतर वन जिमें टीक के वृक्ष उगते हैं इसी प्रकार के होते हैं। यह वृक्ष सर्दियों तथा गर्मियों के महीनों में अपनी पत्तियां गिरा देते हैं। मार्च तथा अप्रैल के महीनों में इन वृक्षों पर नयी पत्तियां उगने लगती हैं। मानसून आने से पहले ये वृक्ष वर्षा की उपस्थिति में वृद्धि करते हैं। यह पत्तियां गिरने तथा इनकी चौड़ाई बढ़ने का मौसम होता है। क्योंकि प्रकाश इन वृक्षों के बीच से वनों के तल तक पहुंच सकता है। इसलिए इनमें घनी वृद्धि होती है।
#कांटेदार_वन: यह वन भारत में कम नमी वाले स्थानों पर पाये जाते हैं। यह वृक्ष दूर – दूर तथा हरी घास से घिरे रहते हैं। कांटेदार वृक्षों को कहते हैं जो जल को संरक्षित करते हैं। इनमे कुछ वृक्षों की पत्तियां छोटी होती हैं तथा कुछ वृक्षों की पत्तियां मोटी तथा मोम युक्त होती हैं ताकि जल का वाष्पीकरण कम किया जा सके। कांटेदार वृक्षों में लंबी तथा रेशेयुक्त जड़ें होती हैं जिनसे पानी काफी गहराई तक पहुंच पाता है। कई वृक्षों में कांटे होते हैं जो पानी की हानि को कम करते हैं तथा जानवरों से रक्षा करते हैं।
#मैंग्रोव_वन: नदियों के डेल्टा तथा तटों के किनारे उगते हैं। यह वृक्ष लवणयुक्त तथा शुद्ध जल सभी में वृद्धि करते हैं। यह वन नदियों द्वारा बहाकर लायी गई मिट्टियों में अधिक वृद्धि करते हैं। मैंग्रोव वृक्षों की जड़ें कीचड़ से बाहर की ओर वृद्धि करती हैं जो श्वसन भी करती हैं।
: हमारे प्राचीन महादेश का नाम “भारतवर्ष” कैसे पड़ा....????? हमारे लिए यह जानना बहुत ही आवश्यक है भारतवर्ष का नाम भारतवर्ष कैसे पड़ा?
एक सामान्य जनधारणा है,कि महाभारत एक कुरूवंश में राजा दुष्यंत और उनकी पत्नी शकुंतला के प्रतापी पुत्र भरत के नाम पर इस देश का नाम भारतवर्ष पड़ा।
लेकिन वही पुराण इससे अलग कुछ दूसरी साक्षी प्रस्तुत करता है। इस ओर हमारा ध्यान नही गया, जबकि पुराणों में इतिहास ढूंढ़कर अपने इतिहास के साथ और अपने आगत के साथ न्याय करना हमारे लिए बहुत ही आवश्यक था।
विचार करें इस विषय पर:-आज के वैज्ञानिक इस बात को मानते हैं,कि प्राचीन काल में साथ भूभागों में अर्थात महाद्वीपों में भूमण्डल को बांटा गया था। लेकिन सात महाद्वीप किसने बनाए क्यों बनाए और कब बनाए गये। इस ओर अनुसंधान नही किया गया। अथवा कहिए कि जान पूछकर अनुसंधान की दिशा मोड़ दी गयी।
लेकिन वायु पुराण इस ओर बड़ी रोचक कथा हमारे सामने प्रस्तुत करता है। वायु पुराण की कहानी के अनुसार त्रेता युग के प्रारंभ में अर्थात अब से लगभग 22 लाख वर्ष पूर्व स्वयम्भुव मनु के पौत्र और प्रियव्रत के पुत्र ने इस भरत खंड को बसाया था।
प्रियव्रत का अपना कोई पुत्र नही था इसलिए उन्होंने अपनी पुत्री का पुत्र अग्नीन्ध्र को गोद लिया था। जिसका लड़का नाभि था, नाभि की एक पत्नी मेरू देवी से जो पुत्र पैदा हुआ उसका नाम ऋषभ था। इस ऋषभ का पुत्र भरत था। इसी भरत के नाम पर भारतवर्ष इस देश का नाम पड़ा।
उस समय के राजा प्रियव्रत ने अपनी कन्या के दस पुत्रों में से सात पुत्रों को संपूर्ण पृथ्वी के सातों महाद्वीपों के अलग-अलग राजा नियुक्त किया था।
राजा का अर्थ इस समय धर्म, और न्यायशील राज्य के संस्थापक से लिया जाता था। राजा प्रियव्रत ने जम्बू द्वीप का शासक अग्नीन्ध्र को बनाया था। बाद में भरत ने जो अपना राज्य अपने पुत्र को दिया वह भारतवर्ष कहलाया।
भारतवर्ष का अर्थ है भरत का क्षेत्र। भरत के पुत्र का नाम सुमति था। इस विषय में वायु पुराण के निम्न श्लोक पठनीय हैं—
सप्तद्वीपपरिक्रान्तं जम्बूदीपं निबोधत।
अग्नीध्रं ज्येष्ठदायादं कन्यापुत्रं महाबलम।।
प्रियव्रतोअभ्यषिञ्चतं जम्बूद्वीपेश्वरं नृपम्।।
तस्य पुत्रा बभूवुर्हि प्रजापतिसमौजस:।
ज्येष्ठो नाभिरिति ख्यातस्तस्य किम्पुरूषोअनुज:।।
नाभेर्हि सर्गं वक्ष्यामि हिमाह्व तन्निबोधत। (वायु 31-37, 38)
इन्हीं श्लोकों के साथ कुछ अन्य श्लोक भी पठनीय हैं,जो वहीं प्रसंगवश उल्लिखित हैं। स्थान अभाव के कारण यहां उसका उल्लेख करना उचित नही होगा।
हम अपने घरों में अब भी कोई याज्ञिक कार्य कराते हैं,तो उसमें पंडित जी संकल्प कराते हैं। उस संकल्प मंत्र को हम बहुत हल्के में लेते हैं, या पंडित जी की एक धार्मिक अनुष्ठान की एक क्रिया मानकर छोड़ देते हैं।
लेकिन उस संकल्प मंत्र में हमें वायु पुराण की इस साक्षी के समर्थन में बहुत कुछ मिल जाता है। जैसे उसमें उल्लेख आता है-
जम्बू द्वीपे भारतखंडे आर्याव्रत देशांतर्गते….। ये
शब्द ध्यान देने योग्य हैं। इनमें जम्बूद्वीप आज के
यूरेशिया के लिए प्रयुक्त किया गया है। इस जम्बू द्वीप में भारत खण्ड अर्थात भरत का क्षेत्र अर्थात ‘भारतवर्ष’ स्थित है, जो कि आर्याव्रत कहलाता है। इस संकल्प के द्वारा हम अपने गौरवमयी अतीत के गौरवमयी इतिहास का व्याख्यान कर डालते हैं।
अब प्रश्न आता है शकुंतला और दुष्यंत के पुत्र भरत से इस देश का नाम क्यों जोड़ा जाता है? इस विषय में हमें ध्यान देना चाहिए कि महाभारत नाम का ग्रंथ मूलरूप में जय नाम का ग्रंथ था, जो कि बहुत छोटा था लेकिन बाद में बढ़ाते बढ़ाते उसे इतना विस्तार दिया गया कि राजा विक्रमादित्य को यह कहना पड़ा कि यदि इसी प्रकार यह ग्रंथ बढ़ता गया तो एक दिन एक ऊंट का बोझ हो जाएगा।
इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि इस ग्रंथ में कितना घाल मेल किया गया होगा।
अत: शकुंतला, दुष्यंत के पुत्र भरत से इस देश के नाम की उत्पत्ति का प्रकरण जोडऩा किसी घालमेल का परिणाम हो सकता है। जब हमारे पास साक्षी लाखों साल पुरानी है और आज का विज्ञान भी यह मान रहा है,कि धरती पर मनुष्य का आगमन करोड़ों साल पूर्व हो चुका था, तो हम पांच हजार साल पुरानी किसी कहानी पर क्यों विश्वास करें?
दूसरी बात हमारे संकल्प मंत्र में पंडित जी हमें सृष्टिï सम्वत के विषय में भी बताते हैं कि अब एक अरब 96 करोड़ आठ लाख तिरेपन हजार एक सौ तेरहवां वर्ष चल रहा है। बात तो हम एक एक अरब 96 करोड़ आठ लाख तिरेपन हजार एक सौ तेरह पुरानी करें और अपना इतिहास पश्चिम के लेखकों की कलम से केवल पांच हजार साल पुराना पढ़ें या मानें तो यह आत्मप्रवंचना के अतिरिक्त और क्या है?
जब इतिहास के लिए हमारे पास एक से एक बढ़कर साक्षी हो और प्रमाण भी उपलब्ध हो,साथ ही तर्क भी हों तो फिर उन साक्षियों, प्रमाणों और तर्कों के आधार पर अपना अतीत अपने आप खंगालना हमारी जिम्मेदारी बनती है।
हमारे देश के बारे में वायु पुराण में ही उल्लिखित हैकि हिमालय पर्वत से दक्षिण का वर्ष अर्थात क्षेत्र भारतवर्ष है। इस विषय में देखिए वायु पुराण क्या कहता है—-
हिमालयं दक्षिणं वर्षं भरताय न्यवेदयत्।
तस्मात्तद्भारतं वर्ष तस्य नाम्ना बिदुर्बुधा:।।
हमने शकुंतला और दुष्यंत पुत्र भरत के साथ अपने देश के नाम की उत्पत्ति को जोड़करअपने इतिहासको पश्चिमी इतिहासकारों की दृष्टि से पांच हजार साल के अंतराल में समेटने का प्रयास किया है।
यदि किसी पश्चिमी इतिहास कार को हम अपने बोलने में या लिखने में उद्घ्रत कर दें तो यह हमारे लिये शान की बात समझी जाती है, और यदि हम अपने विषय में अपने ही किसी लेखक कवि या प्राचीन ग्रंथ का संदर्भ दें तो रूढि़वादिता का प्रमाण माना जाता है ।
यह सोच सिरे से ही गलत है। अब आप समझें राजस्थान के इतिहास के लिए सबसे प्रमाणित ग्रंथ कर्नल टाड का इतिहास माना जाता है। हमने यह नही सोचा कि एक विदेशी व्यक्ति इतने पुराने समय में भारत में आकर साल, डेढ़ साल रहे और यहां का इतिहास तैयार कर दे, यह कैसे संभव है?
विशेषत: तब जबकि उसके आने के समय यहां यातायात के अधिक साधन नही थे और वह राजस्थानी भाषा से भी परिचित नही था। तब ऐसी परिस्थिति में उसने केवल इतना काम किया कि जो विभिन्न रजवाड़ों के संबंध में इतिहास संबंधी पुस्तकें उपलब्ध थीं उन सबको संहिताबद्घ कर दिया।
इसके बाद राजकीय संरक्षण में करनल टाड की पुस्तक को प्रमाणिक माना जाने लगा। जिससे यह धारणा रूढ हो गयीं कि राजस्थान के इतिहास पर कर्नल टाड का एकाधिकार है। ऐसी ही धारणाएं हमें अन्य क्षेत्रों में भी परेशान करती हैं।
अपने देश के इतिहास के बारे में व्याप्त भ्रांतियों का निवारण करना हमारा ध्येय होना चाहिए। अपने देश के नाम के विषय में भी हमें गंभी चिंतन करना चाहिए, इतिहास मरे गिरे लोगों का लेखाजोखा नही है, जैसा कि इसके विषय में माना जाता है, बल्कि इतिहास अतीत के गौरवमयी पृष्ठों और हमारे न्यायशील और धर्मशील राजाओं के कृत्यों का वर्णन करता है।
‘वृहद देवता’ ग्रंथ में कहा गया है कि ऋषियों द्वारा कही गयी पुराने काल की बात इतिहास है। ऋषियों द्वारा हमारे लिये जो मार्गदर्शन किया गया है उसे तो हम रूढिवाद मानें और दूसरे लोगों ने जो हमारे लिये कुछ कहा है उसे सत्य मानें, यह ठीक नही। इसलिए भारतवर्ष के नाम के विषय में व्याप्त भ्रांति का निवारण किया जाना बहुत आवश्यक है।
इस विषय में जब हमारे पास पर्याप्त प्रमाण हैं तो भ्रांति के निवारण में काफी सहायता मिल जाती है।इस सहायता के आधार पर हम अपने अतीत का गौरवमयी गुणगान करें, तो सचमुच कितना आनंद आएगा?
#आधुनिक_भारत_का_इतिहास :
#रामकृष्ण_मिशन_और_विवेकानंद
19 वीं सदी के धार्मिक मानवों ने न तो किसी सम्प्रदाय का समर्थन किया और न ही मोक्ष का कोई नया रास्ता दिखलाया| उन्होंने ईश्वरीय चेतना का सन्देश दिया|उनके अनुसार ईश्वरीय चेतना के आभाव में परम्पराएँ रूढ़ और दमनात्मक हो जाती है और धार्मिक शिक्षाएं अपनी परिवर्तनकारी शक्ति को खोने लगती है|
#रामकृष्ण_मिशन (1836-1886 ई.)
रामकृष्ण परमहंस कलकत्ता के पास स्थित दक्षिणेश्वर मंदिर के पुजारी थे| अन्य धर्मों के नेताओं के संपर्क में आने के बाद उन्होंने सभी तरह के विश्वासों की पवित्रता को स्वीकार किया| उनके समय के लगभग सभी धार्मिक सुधारक, जिनमें केशवचंद्र सेन और दयानंद भी शामिल थे, उनके पास धार्मिक चर्चाएँ करने और मार्गदर्शन प्राप्त करने के लिए आते थे| समकालीन भारतीय विद्वानों, जिनकी अपनी संस्कृति पर आस्था पश्चिम द्वारा प्रस्तुत चुनौती के कारण डगमगाने लगी थी,के मन में रामकृष्ण की शिक्षाओं के कारण पुनः अपनी संस्कृति के प्रति आस्था का भाव मजबूत हुआ| रामकृष्ण की शिक्षाओं का प्रचार करने और उन्हें व्यवहार में लाने के लिए उनके प्रिय शिष्य विवेकानंद ने 1897 ई. में रामकृष्ण मिशन की स्थापना की थी| मिशन का उद्देश्य समाज सेवा थी क्योकि उसका मानना था की ईश्वर की सेवा करने का सबसे बेहतर तरीका मानवों की सेवा करना है| रामकृष्ण मिशन अपनी स्थापना के समय से ही जन-गतिविधियों के शक्तिशाली केंद्र के रूप में स्थापित हो गया था| इन जन-गतिविधियों में बाढ़,सूखा और महामारी जैसी आपदाओं के समय सहायता पहुँचाना,अस्पतालों की स्थापना करना और शिक्षा संस्थाओं की स्थापना जैसे कार्य शामिल थे|
#विवेकानंद(1863-1902 ई.)
विवेकानंद का चरित्र अपने गुरू के चरित्र से बिल्कुल अलग था| उन्होंने भारतीय व पश्चिमी दर्शनों का अध्ययन किया लेकिन जब तक वे रामकृष्ण से नहीं मिले उन्हें मानसिक शांति नहीं प्राप्त हुई | उनका मन केवल अध्यात्म से ही नहीं जुड़ा था बल्कि अपनी मातृभूमि की तत्कालीन परिस्थितियाँ भी उनके मन को आंदोलित करती रहती थीं|संपूर्ण भारत में भ्रमण करने के बाद उन्होंने पाया कि गरीबी,गन्दगी,मानसिक उत्साह का अभाव और भविष्य के प्रति आशान्वित न होने जैसी परिस्थितियां हर कहीं व्याप्त है|
विवेकानंद ने स्पष्ट रूप से कहा की-“अपनी सभी प्रकार की गरीबी और पतन के लिए स्वयं हम ही जिम्मेदार हैं| उन्होंने अपने देशवासियों को अपनी मुक्ति के लिए स्वयं प्रयास करने का सन्देश दिया| उन्होंने स्वयं भी अपने देशवासियों को जाग्रत करने और उनकी कमजोरियों की ओर उनका ध्यान दिलाने का दायित्व संभाला| उन्होंने उन्हें जीवन भर संघर्ष करने और मृत्यु द्वारा नया रूप धारण करने,गरीबों के प्रति दया-भाव रखने,भूखों को भोजन उपलब्ध कराने और वृहद् स्तर पर लोगों को जागृत करने के लिए प्रेरित किया|
विवेकानंद ने 1893 ई. में अमेरिका के शिकागो में आयोजित विश्व धर्म सभा में भाग लिया| इनके द्वारा वहां दिए गए भाषण ने अन्य देशों के लोगों के मन को गहराई तक प्रभावित किया और विश्व की नजर में भारतीय संस्कृति की प्रतिष्ठा में वृद्धि की|
#निष्कर्ष
रामकृष्ण परमहंस और विवेकानंद का दर्शन धार्मिक सौहार्द्र पर आधारित था और इस सौहार्द्र का अनुभव व्यक्तिगत ईश्वरीय चेतना के आधार पर ही किया जा सकता है|
#मध्यकालीन_भारत_का_इतिहास :
#तुगलक_वंश
खिलज़ी वंश का अंत कर दिल्ली में एक नये वंश का उदय हुआ जिसे तुगलक वंश (Tughlaq Dynasty) कहते है। तुगलक वंश (Tughlaq Dynasty) ने दिल्ली पर 1320 से 1413 ई. तक राज किया। तुगलक वंश का पहला शासक गाज़ी मालिक था. जिसने खुद को गयासुद्दीन तुगलक के रूप में पेश किया।
#तुगलक_वंश_के_शासक :-
▪️गयासुद्दीन तुगलक (1320-25 ई.)
▪️मोहम्मद तुगलक (1325-51 ई.)
▪️फिरोज शाह तुगलक (1351-88 ई.)
▪️मोहम्मद खान (1388 ई.)
▪️गयासुद्दीन तुगलक शाह II (1388 ई.)
▪️अबू बाकर (1389-90 ई.)
▪️नसीरुद्दीन मोहम्मद (1390-94 ई.)
▪️हूंमायू (1394-95 ई.)
▪️नसीरुद्दीन महमूद (1395-1412 ई.)
#गयासुद्दीन_तुगलक (1320-25 ई.)
यह दिल्ली सल्तनत पर तुगलक वंश की स्थापना करने वाला प्रथम शासक था। इसका पूर्व नाम गाजी मलिक था, जिसने दिल्ली सल्तनत के सिंहासन पर बैठने के बाद अपना नाम गयासुद्दीन कर लिया। गयासुद्दीन 8 सितंबर 1320 को यह दिल्ली की गद्दी पर बैठा और अगले पांच वर्ष तक शासन किया। वह पहला एेसा शासक था, जिसने अपने नाम के साथ गाजी शब्द (काफिरों का वध करने वाला) जोड़ा था। इसे तुगलक गाजी भी कहते थे। उसने मंगोलों के 23 आक्रमण विफल किए थे।
🔹गयासुद्दीन तुगलक के सुधार
▪️गयासुद्दीन तुग़लक़ ने आर्थिक सुधार के अन्तर्गत अपनी आर्थिक नीति का आधार संयम, सख्ती एवं नरमी के मध्य संतुलन (रस्म-ए-मियान) को बनाया।
▪️उसने लगान के रूप में उपज का 1/10 या 1/12 हिस्सा ही लेने का आदेश जारी कराया।
▪️ग़यासुद्दीन ने मध्यवर्ती ज़मीदारों विशेष रूप से मुकद्दम तथा खूतों को उनके पुराने अधिकार लौटा दिए, जिससे उनको वही स्थिति प्राप्त हो गयी, जो बलबन के समय में प्राप्त थी।
▪️ग़यासुद्दीन ने अमीरों की भूमि पुनः लौटा दी।
उसने सिंचाई के लिए कुँए एवं नहरों का निर्माण करवाया। सम्भवतः नहर का निर्माण करवाने वाला ग़यासुद्दीन प्रथम सुल्तान था।
▪️सल्तनत काल में डाक व्यवस्था को सुदृढ़ करने का श्रेय ग़यासुद्दीन तुग़लक़ को ही जाता है।
▪️अलाउद्दीन ख़िलजी की कठोर नीति के विरुद्ध उसने उदारता की नीति अपनायी, जिसे बरनी ने ‘रस्मेमियान’ अथवा ‘मध्यपंथी नीति’ कहा है।
▪️उसने अलाउद्दीन ख़िलजी द्वारा चलाई गयी दाग़ने तथा चेहरा प्रथा को प्रभावी तरीक़े से लागू किया।
🔹महत्त्वपूर्ण विजय
▪️वारंगल व तेलंगाना की विजय (1324 ई.)
▪️तिरहुती विजय, मंगोल विजय (1324 ई.)
🔹निर्माण कार्य
▪️तुग़लक़ाबाद नामक एक दुर्ग की नींव रखी।
🔹मृत्यु
▪️जब ग़यासुद्दीन तुग़लक़ बंगाल अभियान से लौट रहा था, तब लौटते समय तुग़लक़ाबाद से 8 किलोमीटर की दूरी पर स्थित अफ़ग़ानपुर में एक महल में सुल्तान ग़यासुद्दीन के प्रवेश करते ही वह महल गिर गया, जिसमें दबकर उसकी मार्च, 1325 ई. को मुत्यृ हो गयी।
ग़यासुद्दीन तुग़लक़ का मक़बरा तुग़लक़ाबाद में स्थित है।
#मोहम्मद_तुगलक (1325-51 ई.)
मुहम्मद बिन तुग़लक़ दिल्ली सल्तनत में तुग़लक़ वंश का शासक था। ग़यासुद्दीन तुग़लक़ की मृत्यु के बाद उसका पुत्र ‘जूना ख़ाँ’, मुहम्मद बिन तुग़लक़ (1325-1351 ई.) के नाम से दिल्ली की गद्दी पर बैठा। इसका मूल नाम ‘उलूग ख़ाँ’ था। मध्यकालीन सभी सुल्तानों में मुहम्मद तुग़लक़ सर्वाधिक शिक्षित, विद्वान एवं योग्य व्यक्ति था। इसके अलावा वह पर्सियन कविता का बहुत बड़ा प्रशंसक था। उसकी सोच उसके समय से बहुत आगे थी। उसने बहुत सारे विचारो पर मंथन किया लेकिन उन विचारो के क्रियान्वयन से जुड़े उसके पैमाने बहुत मजबूत और टिकाऊ नहीं थे इसीलिए वह असफल रहा। उसने अपने राज्य में मध्य राजधानी की स्थापना और टोकन करेंसी (प्रतीक मुद्रा) के रूप में विभिन्न प्रयोग किये लेकिन वह पूरी तरह से असफल रहा। अपनी सनक भरी योजनाओं के कारण इसे ‘स्वप्नशील’, ‘पागल’ एवं ‘रक्त-पिपासु’ कहा गया है।
🔹मुहम्मद बिन तुग़लक़ के कार्य
▪️दोआब क्षेत्र में कर वृद्धि (1326-27 ई.) – मुहम्मद तुग़लक़ ने दोआब के ऊपजाऊ प्रदेश में कर की वृद्धि कर दी (संभवतः 50 प्रतिशत), परन्तु उसी वर्ष दोआब में भयंकर अकाल पड़ गया, जिससे पैदावार प्रभावित हुई। तुग़लक़ के अधिकारियों द्वारा ज़बरन कर वसूलने से उस क्षेत्र में विद्रोह हो गया, जिससे तुग़लक़ की यह योजना असफल रही। मुहम्मद तुग़लक़ ने कृषि के विकास के लिए ‘दिवाण-ए- अमीर कोही’ नामक एक नवीन विभाग की स्थापना की। सरकारी कर्मचारियों के भ्रष्टाचार, किसानों की उदासीनता, भूमि का अच्छा न होना इत्यादि कारणों से कृषि उन्नति सम्बन्धी अपनी योजना को तीन वर्ष पश्चात् समाप्त कर दिया। मुहम्मद बिन तुग़लक़ ने किसानों को बहुत कम ब्याज पर ऋण (सोनथर) उपलब्ध कराया।
▪️राजधानी परिवर्तन (1326-27 ई.) – तुग़लक़ ने अपनी योजना के अन्तर्गत राजधानी को दिल्ली से देवगिरि स्थानान्तरित किया। देवगिरि को “कुव्वतुल इस्लाम” भी कहा गया। सुल्तान कुतुबुद्दीन मुबारक ख़िलजी ने देवगिरि का नाम ‘कुतुबाबाद’ रखा था और मुहम्मद बिन तुग़लक़ ने इसका नाम बदलकर दौलताबाद कर दिया। सुल्तान की इस योजना के लिए सर्वाधिक आलोचना की गई। मुहम्मद तुग़लक़ की यह योजना भी पूर्णतः असफल रही और उसने 1335 ई. में दौलताबाद से लोगों को दिल्ली वापस आने की अनुमति दे दी। राजधानी परिवर्तन के परिणामस्वरूप दक्षिण में मुस्लिम संस्कृति का विकास हुआ, जिसने अंततः बहमनी साम्राज्य के उदय का मार्ग खोला।
▪️सांकेतिक मुद्रा का प्रचलन (1329-30 ई.) – इस योजना के अन्तर्गत मुहम्मद तुग़लक़ ने सांकेतिक व प्रतीकात्मक सिक्कों का प्रचलन करवाया। मुहम्मद तुग़लक़ ने ‘दोकानी’ नामक सिक्के का प्रचलन करवाया। सांकेतिक मुद्रा के अन्तर्गत सुल्तान ने संभवतः पीतल (फ़रिश्ता के अनुसार) और तांबा (बरनी के अनुसार) धातुओं के सिक्के चलाये, जिसका मूल्य चांदी के रुपये टका के बराबर होता था। सिक्का ढालने पर राज्य का नियंत्रण नहीं रहने से अनेक जाली टकसाल बन गये। लगान जाली सिक्के से दिया जाने लगा, जिससे अर्थव्यवसथा ठप्प हो गई। सांकेतिक मुद्रा चलाने की प्रेरणा चीन तथा ईरान से मिली। वहाँ के शासकों ने इन योजनाओं को सफलतापूर्वक चलाया, जबकि मुहम्मद तुग़लक़ का प्रयोग विफल रहा। सुल्तान को अपनी इस योजना की असफलता पर भयानक आर्थिक क्षति का सामना करना पड़ा।
▪️खुरासन एवं काराचिल का अभियान
▪️चौथी योजना के अन्तर्गत मुहम्मद तुग़लक़ के खुरासान एवं कराचिल विजय अभियान का उल्लेख किया जाता है। खुरासन को जीतने के लिए मुहम्मद तुग़लक़ ने 3,70,000 सैनिकों की विशाल सेना को एक वर्ष का अग्रिम वेतन दे दिया, परन्तु राजनीतिक परिवर्तन के कारण दोनों देशों के मध्य समझौता हो गया, जिससे सुल्तान की यह योजना असफल रही और उसे आर्थिक रूप से हानि उठानी पड़ी।
▪️कराचिल अभियान के अन्तर्गत सुल्तान ने खुसरो मलिक के नेतृत्व में एक विशाल सेना को पहाड़ी राज्यों को जीतने के लिए भेजा। उसकी पूरी सेना जंगली रास्तों में भटक गई, इब्न बतूता के अनुसार अन्ततः केवल दस अधिकारी ही बचकर वापस आ सके। इस प्रकार मुहम्मद तुग़लक़ की यह योजना भी असफल रही।
🔹मृत्यु
▪️अपने शासन काल के अन्तिम समय में जब सुल्तान मुहम्मद तुग़लक़ गुजरात में विद्रोह को कुचल कर तार्गी को समाप्त करने के लिए सिंध की ओर बढ़ा, तो मार्ग में थट्टा के निकट गोंडाल पहुँचकर वह गंभीर रूप से बीमार हो गया। यहाँ पर सुल्तान की 20 मार्च 1351 को मृत्यु हो गई।
#फिरोज_शाह_तुगलक (1351-88 ई.)
फ़िरोज़ शाह तुगलक 45 वर्ष की उम्र में दिल्ली सल्तनत की गद्दी पर बैठा। उसके पिता का नाम रज्ज़ब था जोकि गियासुद्दीन तुगलक का छोटा भाई था जबकि उसकी माता दीपालपुर की राजकुमारी थी। गद्दी पर बैठने के बाद उसने बहुत सारे उन निर्णयों को वापस ले लिया जोकि उसके पूर्व के शासक के द्वारा लिए गए थे। उसने शरियत के अनुसार शासन किया और शरियत में जिन करों का उल्लेख नहीं किया गया था उसे बंद कर दिया।
🔹फ़िरोज़ शाह तुग़लक़ के कार्य
▪️राजस्व व्यवस्था के अन्तर्गत फ़िरोज़ ने अपने शासन काल में 24 कष्टदायक करों को समाप्त कर दिया और केवल 4 कर ‘ख़राज’ (लगान), ‘खुम्स’ (युद्ध में लूट का माल), ‘जज़िया’, एवं ‘ज़कात’ (इस्लाम धर्म के अनुसार अढ़ाई प्रतिशत का दान, जो उन लोगों को देना पड़्ता है, जो मालदार हों और उन लोगों को दिया जाता है, जो अपाहिज या असहाय और साधनहीन हों) को वसूल करने का आदेश दिया।
▪️उलेमाओं के आदेश पर सुल्तान ने एक नया सिंचाई (हक ए शर्ब) कर भी लगाया, जो उपज का 1/10 भाग वसूला जाता था।
▪️सुल्तान ने सिंचाई की सुविधा के लिए 5 बड़ी नहरें यमुना नदी से हिसार तक 150 मील लम्बी सतलुज नदी से घग्घर नदी तक 96 मील लम्बी सिरमौर की पहाड़ी से लेकर हांसी तक, घग्घर से फ़िरोज़ाबाद तक एवं यमुना से फ़िरोज़ाबाद तक का निर्माण करवाया।
▪️उसने फलो के लगभग 1200 बाग़ लगवाये।
▪️आन्तरिक व्यापार को बढ़ाने के लिए अनेक करों को समाप्त कर दिया।
▪️नगर एवं सार्वजनिक निर्माण कार्यों के अन्तर्गत सुल्तान ने लगभग 300 नये नगरों की स्थापना की।
▪️जौनपुर नगर की नींव फ़िरोज़ ने अपने चचेरे भाई ‘फ़खरुद्दीन जौना’ (मुहम्मद बिन तुग़लक़) की स्मृति में डाली थी।
▪️उसके शासन काल में ख़िज्राबाद एवं मेरठ से अशोक के दो स्तम्भलेखों को लाकर दिल्ली में स्थापित किया गया।
▪️अपने कल्याणकारी कार्यों के अन्तर्गत फ़िरोज़ ने एक रोज़गार का दफ्तर एवं मुस्लिम अनाथ स्त्रियों, विधवाओं एवं लड़कियों की सहायता हेतु एक नये ‘दीवान-ए-ख़ैरात’ नामक विभाग की स्थापना की।
▪️दारुल-शफ़ा’ (शफ़ा=जीवन का अंतिम किनारा, जीवन का अंतिम भाग) नामक एक राजकीय अस्पताल का निर्माण करवाया, जिसमें ग़रीबों का मुफ़्त इलाज होता था।
▪️फ़िरोज़ के शासनकाल में दासों की संख्या लगभग 1,80,000 पहुँच गई थी। इनकी देखभाल हेतु सुल्तान दे ‘दीवान-ए-बंदग़ान’ की स्थापना की।
🔹संरक्षण
▪️शिक्षा प्रसार के क्षेत्र में सुल्तान फ़िरोज़ ने अनेक मक़बरों एवं मदरसों की स्थापना करवायी। उसने ‘जियाउद्दीन बरनी’ एवं ‘शम्स-ए-सिराज अफीफ’ को अपना संरक्षण प्रदान किया।
▪️बरनी ने ‘फ़तवा-ए-जहाँदारी’ एवं ‘तारीख़-ए-फ़िरोज़शाही’ की रचना की।
▪️फ़िरोज़ ने अपनी आत्मकथा ‘फुतूहात-ए-फ़िरोज़शाही’ की रचना की।
🔹मृत्यु
▪️फ़िरोज़ शाह तुगलक की मृत्यु सितम्बर 1388 ई. में हुई थी। हौज़खास परिसर, दिल्ली में उसे दफ़ना दिया गया।
#मोहम्मद_खान (1388 ई.)
फ़िरोज़ शाह तुगलक की मृत्यु 1388 ई. में हुई थी। उसके बाद दिल्ली सल्तनत में कुछ दिनों के लिए मोहमद खान ने दिल्ली में शासन किया और कुछ दिनों के भीतर ही उनकी हत्या कर दी गई।
#गयासुद्दीन_तुगलक_शाह II (1388 ई.)
फ़िरोज़ शाह तुगलक और मोहमद खान के हत्या के बाद दिल्ली सल्तनत में फ़िरोज़ शाह तुगलक का पोता गियासुद्दीन अगला शासक बना लेकिन 5 महीने के अल्प शासन के बाद उसकी हत्या कर दी गयी।
#अबू_बाकर (1389-90 ई.)
गयासुद्दीन तुगलक शाह II की हत्या करके फ़रवरी 1389 ई. में जफ़र खां के पुत्र अबू बक्र स्वयं सुल्तान बन गया।
#नसीरुद्दीन_मोहम्मद_शाह (1390-94 ई.)
तुगलक शाह की हत्या कर अबू बक्र ने 1389 ई. में सल्तनत पर शासन का आरम्भ किया। दिल्ली के कोतवाल, मुलतान, समाना, लाहौर के अक्त्तादारों ने मुहमद शाह को सहयोग देकर 1390 ई. में अबू बक्र को शासन से हटा दिया और नासिरुद्दीन मुहम्मद शाह स्वयं शासक बन गया। नासिरुद्दीन मुहम्मद शाह ने 1390 से 1394 ई. तक शासन किया।
#हूंमायू (1394-95 ई.)
नासिरुद्दीन मुहम्मद शाह के दिल्ली सल्तनत में उनका पुत्र हुंमायू ने लगभग 3 माह तक शासक किया और उसकी मृत्यु हो गई।
#नसीरुद्दीन_महमूद_शाह (1395-1412 ई.)
मार्च 1394 ई. में दिल्ली सल्तनत का शासक महमूद शाह बना। उसकी दुर्दशा को देखकर व्यंग्य से कहा जाता था – “विश्व के सम्राट तुगलकों का राज्य दिल्ली से पालम तक फैला हुआ था।” 17 दिसम्बर, 1398 ई. को तैमूर का आक्रमण दिल्ली पर हो गया तथा सुल्तान स्वयं गुजरात भाग गया। पुनः वजीर मल्लू खां ने सुल्तान को दिल्ली बुलाकर गद्दी पर बिठाया। सन 1412 ई. में महमूद शाह की मृत्यु हो गई, जिससे तुगलक वंश का अंत हो गया।
#मध्यकालीन_भारत_का_इतिहास :
#चौहान_वंश
चौहान वंश की स्थापना वासुदेव द्वारा 551 ई0 में सपादलक्ष के क्षेत्र में की गयी थी। वासुदेव को ही चौहानों का आदि पुरूष भी कहा जाता है। संभार झील का बिजोलिया शिलालेख चौहान वंश की स्थापना के सम्बन्ध में जानकारी देता है। chauhan dynasty notes in hindi.
#चौहान_वंश_के_प्रमुख_राजाओं_की_सूची_
#निम्नवत_है –
▪️वासुदेव – इन्होंने 551 ई० में चौहान वंश की स्थापना की।
▪️राजा अजयराज(1105-1133 ई०) – इन्होंने ही 1113 ई० में अजमेर नगर की स्थापना की थी
▪️सोमदेव विग्रहराज चतुर्थ(1158-1164) – इनको बीसलदेव के नाम से भी संबोधित किया जाता था। इनके काल को चौहान वंश का स्वर्णिम काल भी कहा जाता है, इन्होंने अपने राज्य का विस्तार दिल्ली तक किया। इन्होंने अजमेर में एक संस्कृत विद्यालय का निर्माण कराया था। जिसे कुतुबुद्दीन ऐबक ने तोड़कर ढाई दिन का झोंपड़ा बनवा दिया।
▪️पृथ्वीराज चौहान तृतीय(1178-1192 ई०) – ये इस वंश के एक शक्तिशाली राजा थे। इनका राज अजमेर से दिल्ली तक था।
#पृथ्वीराज_चौहान_तृतीय (1178-1192)
▪️इनका जन्म अजमेर राज्य के राजा सोमेश्वर के यहां हुआ था। इनकी माता का नाम कर्पूरदेवी था।
▪️पृथ्वीराज चौहान की कुल 12 पत्नियां थी जिनमें से संयोगिता प्रसिद्धतम है। संयोगिता कन्नौज साम्राज्य के राजा जयचन्द्र की पुत्री थी।
▪️तराईन का प्रथम युद्ध 1191 पृथ्वीराज चौहान और मोहम्मद गोरी मध्य हुआ था। इस युद्ध में मोहम्मद गोरी की बुरी तरह हार हुई।
▪️मोहम्मद गोरी का असली नाम मोहम्मद बिन शाम था तथा इसका भारत पर आक्रमण करने का प्रमुख उद्देश्य एक मुस्लिम राष्ट्र स्थापित करना था। ये अफगानिस्तान के ‘गोमल दर्रे’ से होता हुआ भारत आया था। गोमल दर्रा वर्तमान में अफगानिस्तान व पाकिस्तान के मध्य से गुजरने वाली ‘डूरंड रेखा’ पर स्थित है। अफगानिस्तान को पहले ‘घोर’ कहा जाता था इसलिए मोहम्मद बिन शाम, ‘घोरी’ कहा जाने लगा जो कालान्तर में ‘गोरी’ बन गया।
▪️गोमल दर्रे से आते हुए पहले इसने मुलतान फिर कच्छ पर विजय प्राप्त की।
▪️तराईन का दूसरा युद्ध (1192 ई०) में हुआ था। जिसमें मोहम्मद गोरी ने पृथ्वीराज चौहान को बुरी तरह से पराजित किया तथा पृथ्वीराज की मृत्यु हो गयी।
▪️मोहम्मद गोरी ने एक और शक्तिशाली कन्नौज राजपूत शासक जयचंद को 1194 ई० को चंदावर के युद्ध में पराजित किया।
▪️झेलम क्षेत्र में नदी के किनारे मोहम्मद गोरी को खोखर नामक जाट कबीले के लोगों ने अपने ऊपर 1205 ई० में हुए हमलों का बदला लेने के लिए 1206 ई० में मार डाला।
▪️मोहम्मद गोरी की मृत्यु के बाद उसकी कोई संतान न होने के कारण उसके गुलाम कुतुबुद्दीन ऐबक ने अपना राज वंश स्थापित किया। जिसे मामलूक या गुलाम वंश के नाम से जाना जाता है।
#आधुनिक_भारत_का_इतिहास :
#बिजोलिया_किसान_आंदोलन
भारत के इतिहास का सबसे लंबा अहिंसक किसान आदोलन के रूप में प्रख्यात बिजोलिया किसान आंदोलन मेवाड़ क्षेत्र के बिजोलिया (प्राचीन नाम विजयावल्ली) में हुआ था। बिजोलिया ठिकाना उपरमाल की जागीर के अन्तर्गत आता था। उपरमाल की इस जागीर को राणा सांगा द्वारा अशोक परमार नाम के व्यक्ति को खाण्वा के युद्ध में साथ देने के लिए उपहार उपहार स्वरूप दिया गया था।
मूल रूप से यहां पर सर्वाधिक किसान धाकड़ जाति के थे। ठिकानेदार द्वारा किसानों पर विभिन्न प्रकार के 84 दमनकारी (लाग, बाग, बेगार, लाटा, कूंता, चवरी, तलवार बंधाई) कर लगे हुये थे। 1894 ई0 में राव कृष्ण सिंह नया ठिकानेदार बना। इन करो से प्रताणित किसानों को नए ठिकानेदार से करों में राहत करने की उम्मीद थी परन्तु 1897 ई0 तक करों में कोई भी कमी नहीं की गयी। अतः इसी वर्ष 1897 ई0 से ही इस आंदोलन की नींव पड़ी।
#बिजोलिया_किसान_आंदोलन_के_चरण
इस आंदोलन को तीन चरणों में नेतृत्व के आधार पर बाँट कर समझा जा सकता है –
#प्रथम_चरण_1897_1916
#नेतृत्व_साधु_सीतारम_दास
वर्ष 1897 में इसी जागीर के एक गांव गिरधरपुर में एक पंचायत बुलाकर साधु सीतारामदास की अध्यक्षता में यह निर्णय लिया गया कि वर्तमान ठिकानेदार रावकृष्ण सिंह की मेवाड़ के महाराणा से शिकायत की जायेगी। इस कार्य हेतु ठाकरी पटेल एवं नानजी पटेल को नियुक्त किया गया। इस शिकायत पर मेवाड़ महाराणा ने अपने जांच अधिकारी हामिदहुसैन को नियुक्त किया परन्तु जांच उपरान्त कोई भी कार्यवाही नहीं हुई।
जांच उपरान्त कोई भी कार्यवाही नहीं होने से बिजोलिया ठिकाने के ठिकानेदार रावकृष्ण सिंह के हौसले और बुलंद हो गये एवं उसने प्रतिशोधवश शिकायत करने वाले ठाकरी पटेल एवं नानजी पटेल को मेवाड़ से निष्काशित करा दिया। साथ ही वर्ष 1903 ई0 में चंवरी नामक एक नया कर लागू कर दिया जिसके अन्तर्गत लड़की की शादी हेतु 5 रू0 का नकद कर का प्रावधान था।
वर्ष 1906 ई0 में रावकृष्ण सिंह के निःसंतान निधन हो जाने के बाद, रावपृथ्वी सिंह इसका उत्तराधिकारी बना। ठिकानेदार बनते ही उसने तलवार बंधाई कर (उत्तराधिकार कर) लागू कर दिया। जिसका किसानों द्वारा पुरजोर विरोध किया गया।
#द्वितीय_चरण_1916_1923 –
#नेतृत्व_विजय_सिंह_पथिक
वर्ष 1916 ई0 में साधुसीताराम दास के आग्रह पर विजय सिंह पथिक इस आंदोलन से जुडें और इस आंदोलन का नेतृत्व संभाला। इनका मूल नाम भूपसिंह था एवं यह बुलंदशहर (उ0प्र0) के निवासी थे। 1917 ई0 में इनके द्वारा सावन-अमावस्या के दिन उपरामल पंचबोर्ड (13 सदस्य) का गठन किया गया। इस पंचबोर्ड के सरपंच के पद पर मन्ना पेटल को नियुक्त किया गया।
1918 ई0 में विजय सिंह बम्बई में गाँधी जी से मिले तथा इस आंदोलन से अवगत कराया। गाँधी जी इनसे बहुत प्रभावित हुए एवं इन्हे राष्ट्रीय पथिक की उपाधी दी। गाँधी जी ने अपने महासचिव महादेव देशाई को इस आंदोलन की जांच हेतु भेजा।
यहीं 1919 ई0 में विजय सिंह द्वारा वर्धा महाराष्ट्र से राजस्थान केसरी नामक एक पत्र निकाला गया, साथ ही इसी वर्ष यही पर राजस्थान सेवक संघ की स्थापना भी इनके द्वारा की गयी। आगे चल कर कानपुर से छपने वाले समाचार पत्र के माध्यम से बिजोलिया किसान आंदोलन को पुरे भारत वर्ष में फैला दिया गया।
गांधी जी द्वारा इस आंदोलन में रूचि लेने के कारण ब्रिटिश सरकार ने वर्ष 1918-19 में एक और जांच आयोग का गठन बिन्दुलाला भट्टाचार्य की अध्यक्षता में किया। इसी आयोग द्वारा जांच के उपरान्त करों में कुछ कमी की गयी।
10 सितम्बर 1923 में विजय सिंह पथिक को बेंगू नामक एक अन्य किसान आंदोलन से जुडने के कारण गिरफ्तार कर लिया गया।
#तृतीय_चरण_1927_1941 –
#नेतृत्व_माणिक्य_लाल_वर्मा
1927 ई0 से माणिक्य लाल वर्मा ने बिजोलिया किसान आंदोलन का नेतृत्व संभाला। इसमें हरिभाऊ उपाध्याय एवं जमनालाल बजाज ने इनका साथ दिया। 1941 ई0 में माणिक्य लाल वर्मा एवं मेवाड़ के प्रधानमंत्री सर टी0 विजय राघवाचार्य के मध्य एक समझौता हुआ जिसके अन्तर्गत किसानों की सभी मांगे मान ली गयी तथा 44 वर्ष से चल रहे इस आंदोलन का अंत हुआ।
बिजोलिया आंदोलन अपने अहिंसक स्वरूप के कारण अन्य किसान आंदोलनों से अलग था। माणिक्य लाल वर्मा का “पंछिड़ा” गीत जिसने किसानों में जोश भर दिया इसके कुछ प्रमुख बिन्दु रहें। इस आंदोलन में महिलाओं ने भी बढ़-चढ़ कर भाग लिया, जिनमें से अंजना देवी चौधरी, नारायण देवी वर्मा व रमा देवी प्रमुख थीं। अंततः किसानों की जीत के साथ 44 वर्षो तक चले भारत के इस किसान आंदोलन का अंत हुआ।
#आधुनिक_भारत_का_इतिहास :
#नील_आंदोलन_चंपारण_आंदोलन
नील आंदोलन, नील की जबरन खेती के विरूद्ध एक किसान आंदोलन था। ये आंदोलन भारतीय स्वाधीनता आंदोलन में एक मील का पत्थर साबित हुआ। इससे पहले भी समय समय पर नील की खेती के खिलाफ आंदोलन होते रहे थे।
#1859_का_नील_आंदोलन:- वर्ष 1859-60 में बंगाल में निलहे साहबों ने “ददनी” नामक व्यवस्था लागू कर रखी थी। जिसके अन्तर्गत 2रू० प्रति बीघा की दर से खेती करने के लिए किसानों को बाध्य किया जाता था। इसके विरूद्ध बंगाल में आंदोलन हुए तथा बाद में अंग्रेजों द्वारा एक नील आयोग का गठन किया गया जिसका अध्यक्ष सचिन सीटनंकर को बनाया गया। इस आयोग की रिपोर्ट के बाद बंगाल में जबरन नील की खेती पर प्रतिबंध लगा दिया गया।
#चंपारण_आंदोलन:- 20 वी सदी की शुरुआत में इस क्षेत्र में निलहे साहबों द्वारा अंग्रेजी सरकार की सहायता से “तीनकठिया” व्यवस्था लागू कर रखी थी। इस व्यवस्था के अन्तर्गत 1 बीघा भूमि के अन्तर्गत आने वाली बीस कठ्ठे (स्थानीय भूमि माप का पैमाना) में से तीन कठ्ठों में नील की खेती करना अनिवार्य था।
#चंपारण_नील_आंदोलन_के_नेता
चंपारण नील आंदोलन का नेतृत्व सबसे पहले पं० राजकुमार शुक्ल द्वारा किया गया। उन्होंने एक किसान होने के नाते इस शोषण को स्वयं झेला था। अतः उन्होंने इसके खिलाफ आवाज उठाना शुरू किया। वर्ष 1915 में जब महात्मा गांधी जी का भारत आगमन हुआ तब वे गांधी जी से कलकत्ता, कानपुर एवं लखनऊ में मिले तथा उन्हें चंपारण में हो रहे अत्याचार से अवगत कराया एवं उन्हें चंपारण आकर इस आंदोलन में शामिल होने के लिए आमंत्रित किया।
#गांधी_जी_का_चंपारण_आगमन_कब_हुआ ?
गांधी जी पंडित राजकुमार शुक्ल के आमंत्रण पर 10 अप्रैल 1917 को बांकीपुर पहुंचे और फिर मुजफ्फरपुर होते हुए 15 अप्रैल को 1917 को बिहार के चंपारण पहुँचे। तत्कालीन समय चम्पारण बिहार राज्य का एक ज़िला हुआ करता था जिसे अब दो ज़िलों पूर्वी चम्पारण जिला और पश्चिमी चम्पारण जिला में बाँट दिया गया है।
#चंपारण_आंदोलन_कब_हुआ ?
चंपारण आंदोलन 19 अप्रैल 1917 को शुरू हुआ था। जिसका नेतृत्व गांधी जी ने किया। नील की खेती के विरोध में चल रहे नील आंदोलन को ही जब गांधी जी ने बिहार के चम्पारण से शुरू किया तो इसे चम्पारण आंदोलन या चम्पारण सत्याग्रह के नाम से जाना जाने लगा।
गांधी जी को चंपारण के किसानों के साथ-साथ बिहार के बड़े वकीलों का भी सहयोग प्राप्त हुआ। गांधी जी ने कई जन सभाएँ की, नीलहे साहबों के साथ कई बैठके की तथा इसकी जानकारी वे अंग्रेज पदाधिकारियों को पत्रों के माध्यम से देते रहे। यह आंदोलन कुल एक वर्ष तक चला तथा अंत में ब्रिटिश सरकार द्वारा एक जांच समिति गठित की गयी, जिसमें गाँधी जी को भी सदस्य बनाया गया। जिसके फलस्वरूप चंपारण कृषि अधिनियम-1918 बना तथा किसानों को नील की खेती की बाध्यता से मुक्ति मिली।
इसी आंदोलन के दौरान गाँधी जी की मुलाकात डॉ. राजेंद्र प्रसाद से हुई जो आगे चलकर भारत के प्रथम राष्ट्रपति बने।
#चंपारण_आंदोलन_के_सफलता_के_कारण
▪️सत्य एवं अहिंसा पर आधारित अहिंसक आंदोलन होना – गांधी जी के नेतृत्व में चलाया गया चंपारण आंदोलन शांतिपूर्ण अहिंसक आंदोलन था। जिस कारण ब्रिटिश सरकार को उसका दमन कर पाना कठिन पड़ रहा था।
▪️आंदोलन का सही प्रचार एवं प्रसार होना – तत्कालीन समाचार पत्रों द्वारा चंपारण आंदोलन को प्रमुखता से छापा गया। जिससे आंदोलन की लोकप्रियता किसानों में बढ़ी और शिक्षित वर्ग भी गांधी जी के इस आंदोलन से जुड़ता चला गया।
▪️वकीलों का सहयोग प्राप्त होना – क्योंकि गांधी जी भी स्वयं बैरिस्टर (वकील) थे, इसलिए उन्हें बिहार के बड़े वकीलों से काफी सहयोग प्राप्त हुआ।
#चंपारण_आंदोलन_के_परिणाम
▪️किसानों को तीनकठिया व्यवस्था/नीलहे साहब एवं दमनकारी ब्रिटिश कृषि नीतियों से छुटकारा मिला – किसान अब नील की खेती के लिए बाध्य नहीं था। अब किसान अपनी इच्छा अनुसार नगदी फसलों की कृषि को करने के लिए स्वतंत्र था।
▪️विकास की प्रारंभिक पहल – इस आंदोलन के दौरान गांधी जी भारतीयों को यह समझाने में सफल हुए कि स्वच्छता स्वतंत्रता से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है। साथ ही चंपारण में पाठशाला, चिकित्सालय, खादी संस्था, आश्रम भी स्थापित किए जिससे वहां का प्रारंभिक विकास शुरू हुआ।
▪️गांधी जी के महात्मा बनने का सफर – इसी आंदोलन से मोहन दास करम चन्द्र गांधी का महात्मा बनने का सफर भी शुरू हुआ। इस आंदोलन के आगमन के साथ ही उनका व्यक्तित्व मोहन दास करमचंद गाँधी से महात्मा गाँधी की तरफ अग्रसर हुआ।
▪️किसानों का आत्म विश्वास बढ़ा – इस आंदोलन से पहले चंपारण के किसानों की मनोस्थिति आत्महत्या करने की हो चली थी। पर गांधी जी द्वारा सम्पादित इस सफल आंदोलन के बाद भारतीय किसानों का आत्मविश्वास बढ़ा और उन्हें सत्याग्रह एवं एकता की शक्ति का आभास हुआ।
▪️स्वतंत्रता आंदोलन में सहायक – चंपारण आंदोलन में सत्याग्रह का भारत के राष्ट्रीय स्तर पर प्रथम प्रयोग सफल रहा। अहिंसक होने के कारण ब्रिटिश सरकार को भी इसके आगे झुकना पड़ा। यह भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में एक मील का पत्थर साबित हुआ। यह माना जाने लगा कि अगर एकता के साथ सत्याग्रह किया जाये तो अंग्रेजों को भारत छोड़ने के लिए विवश करा जा सकता है।
#मध्यकालीन_भारत_का_इतिहास :
#मामलूक_या_गुलाम_वंश
कुतुबुदीन ऐबक, मुहम्मद गौरी का गुलाम था। उसने भारत में जिस राजवंश की स्थापना की उसे गुलाम वंश (Slave Dynasty) कहते है। इस वंश ने 1206 से 1290 ई. तक 84 साल तक राज किया। इस वंश के शासक या संस्थापक ग़ुलाम (दास) थे न कि राजा। इस लिए इसे राजवंश की बजाय सिर्फ़ वंश कहा जाता है।
#इस_वंश_के_शासक_निम्नलिखित_थे : –
▪️कुतुबुद्दीन ऐबक (1206 – 1210)
▪️आरामशाह (1210)
▪️इल्तुतमिश (1210 – 1236)
▪️रूकुनुद्दीन फ़ीरोज़शाह (1236)
▪️रजिया सुल्तन (1236 – 1240)
▪️मुईज़ुद्दीन बहरामशाह (1240 – 1242)
▪️अलाऊद्दीन मसूदशाह (1242 – 1246)
▪️नासिरूद्दीन महमूद (1246 – 1266)
▪️गयासुद्दीन बलबन (1266 – 1286)
▪️कैकुबाद (1286 – 1290)
▪️शमशुद्दीन क्यूम़र्श (1290)
#कुतुबुद्दीन_ऐबक –(1206 – 1210 ई.)
कुतुबुदीन ऐबक दिल्ली सल्तनत का पहला सुल्तान था। इसी को ही दिल्ली गुलाम वंश का संस्थापक कहा जाता है, कुतुबुदीन ऐबक मुहमंद गौरी का गुलाम था। जब मुहमंद गौरी ने भारत में लूटपाट कर के वापिस अफगान गया तो उसने भारत में अपने दासों को नियुक्त किया जो भारत में उसके नाम से शासन करे।
🔹शासनकाल – 1206 – 1210 ई.
🔹राज्यारोहण – मुहमंद गौरी की मृत्यु के बाद 25 जून 1206 ई. को कुतुबुदीन ऐबक का अनोपचारिक राज्यारोहण लाहोर में हुआ। उसने लाहोर को अपनी राजधानी बनाया था।
🔹गुरु – ख्वाजा कुतुबुद्दीन बख्तियार काका।
🔹प्रमुख_योगदान
▪️दिल्ली सल्तनत की स्थापना की।
▪️दानवीर और उदार होने के कारण ‘लाखबख्श’ के नाम से भी जाना जाता था।
▪️साहित्य और कला का संरक्षक था।
▪️फर्रुखमुद्दार एवं हसन निजामी उसके दरवार के प्रसिद्ध विद्वान थे।
🔹निर्माण_कार्य
▪️दो प्रसिद्ध मस्जिद दिल्ली का कुबत-उल-इस्लाम और अजमेर का ढाई दिन का झोंपड़ा बनवाया।
▪️अपने गुरु ख्वाजा कुतुबुद्दीन बख्तियार काका के स्मृति में कुतुबमीनार का एक मंजिल का निर्माण कराया (इसके मृत्यु के कारण यह अधुरा ही बन पाया)। इसे इल्तुतमिश ने पूरा किया था।
🔹दामाद – इल्तुतमिश ।
🔹पुत्र – आरामशाह (कई इतिहासकार इसे कुतुबुदीन ऐबक का पुत्र नहीं मानते है)।
🔹मृत्यु – नवम्बर 1210 ई. में लाहोर में चोगान (पोलो) खेलते समय घोड़े से गिर जाने के कारण मृत्यु हो गई।
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#आरामशाह – (1210 ई.)
कुतुबुदीन ऐबक के आकस्मिक मृत्यु के बाद तुर्की सरदारों ने उनके पुत्र आरामशाह को 1210 ई. में लाहौर ने सुल्तान बना दिया। उसी बीच कुबाचा और खिलजियों के आक्रमण को आरामशाह नियंत्रण नही कर सका। जिसके फलस्वरूप बदायूं के गवर्नर, इल्तुतमिश को, जो कुतुबुदीन ऐबक का दामाद था तुर्की सरदारों ने सुल्तान बनाना चाहा, जिसका विरोध आरामशाह ने किया। इल्तुतमिश ने आरामशाह को मारकर सत्ता पर अधिकार कर लिया।
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#इल्तुतमिश –(1210 – 1236 ई.)
इल्तुतमिश तुर्किस्तान की इल्बरी काबिले का था। इसका असली नाम ‘अलतमश’ था। खोखरों के विरुद्ध इल्तुतमिश की कार्य कुशलता से प्रभावित होकर मुहम्मद ग़ोरी ने उसे ‘अमीरूल उमरा’ नामक महत्त्वपूर्ण पद दिया था। इसने 1210 ई. से 1236 ई. तक शासन किया। राज्याभिषेक समय से ही अनेक तुर्क अमीरउसका विरोध कर रहे थे।
सुल्तान का पद प्राप्त करने के बाद इल्तुतमिश को कुछ कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। इसके अन्तर्गत इल्तुतमिश ने सर्वप्रथम ‘कुल्बी’ अर्थात कुतुबद्दीन ऐबक के समय सरदार तथा ‘मुइज्जी’ अर्थात् मुहम्मद ग़ोरी के समय के सरदारों के विद्रोह का दमन किया। इल्तुमिश ने इन विद्रोही सरदारों पर विश्वास न करते हुए अपने 40 ग़ुलाम सरदारों का एक गुट या संगठन बनाया, जिसे ‘तुर्कान-ए-चिहालगानी’ का नाम दिया गया। इस संगठन को ‘चरगान’ भी कहा जाता है।
🔹शासनकाल – 1210 – 1236 ई.
🔹राज्यारोहण – ऐबक ने सेनापति अमीद अली इस्माइल के अनुमति से आरामशाह को मारकर 1210 ई. में दिल्ली में ऐबक वंश की जगह इलबरी वंश की स्थापना की।
🔹गुरु – ख्वाजा कुतुबुद्दीन बख्तियार काका।
🔹पुत्री – रजिया सुल्तान।
🔹प्रमुख_योगदान
▪️लाहौर से अपनी राजधानी को दिल्ली ले आया।
▪️सल्तनत के तीन महत्वपूर्ण अंग इक्त्ता, सेना और मुद्रा प्रणाली का गठन किया।
▪️इक्ता – धन के स्थान पर वेतन के रूप में भूमि प्रदान करना।
▪️नए सिक्के चाँदी का टंका तथा तांबे के सिक्के जातल का प्रचलन इल्तुतमिश ने ही किया।
▪️इल्तुमिश ने विद्रोही सरदारों पर विश्वास न करते हुए अपने 40 ग़ुलाम सरदारों का एक गुट या संगठन बनाया, जिसे ‘तुर्कान-ए-चिहालगानी’ का नाम दिया गया। इस संगठन को ‘चरगान’ भी कहा जाता है।
🔹निर्माण_कार्य
▪️ख्वाजा कुतुबुद्दीन बख्तियार काका की स्मृति में 1231 – 32 ई. में कुतुबमीनार को पूरा बनवाया था।
▪️भारत में सम्भवतः पहला मक़बरा निर्मित करवाने का श्रेय भी इल्तुतमिश को दिया जाता है। इल्तुतमिश का मक़बरा दिल्ली में स्थित है, जो एक कक्षीय मक़बरा है।
▪️इल्तुतमिश ने बदायूँ की जामा मस्जिद एवं नागौर में अतारकिन के दरवाज़ा का निर्माण करवाया।
▪️अजमेर की मस्जिद’ का निर्माण इल्तुतमिश ने ही करवाया था।
▪️उसने 1230 में महरौली के हौज-ए-शम्शी (शम्सी ईदगाह) जलाशय का निर्माण किया ।
🔹विद्वानों_का_संरक्षण
▪️तत्कालीन विद्वान दरबारी लेखक मिनहाज उस सिराज थे, जिसने प्रसिध्द ग्रंथ तबकाते-नासिरी की रचना की एवं मलिक ताजूद्दीन को संरक्षण प्रदान किया।
🔹महत्वपूर्ण_युद्ध
▪️इल्तुतमिश ने 1226 ई. में बंगाल पर विजय पाकर बंगाल को दिल्ली सल्तनत का इक्ता (सूबा) बनाया।
▪️इल्तुतमिश ने 1226 ई. में रणथम्भौर जीता तथा परमारों की राजधानी मंदौर पर अधिकार कर लिया।
▪️इल्तुतमिश के काल मे 1221 ई. मंगोलों ने चंगेज खाँ के नेतृत्व में भारत पर आक्रमण किया।
🔹मृत्यु
▪️खोखरो के अभियान को दबाने के दौरान 1236 ई. में मृत्यु हो गई।
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#रूकुनुद्दीन_फ़ीरोज़शाह – (1236 ई.)
रूकुनुद्दीन फ़ीरोज़शाह दिल्ली सल्तनत में ग़ुलाम वंश का शासक था। सन् 1236 में इल्तुतमिश की मृत्यु के बाद वो एक साल से भी कम समय के लिए सत्तासीन रहा। यह इल्तुतमिश का सबसे छोटा बेटा था।
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#रजिया_सुल्ताना – (1236 – 1240 ई.)
रज़िया अल-दिन, शाही नाम “जलॉलात उद-दिन रज़ियॉ” जिसे सामान्यतः “रज़िया सुल्तान” या “रज़िया सुल्ताना” के नाम से जाना जाता है, दिल्ली सल्तनत की सुल्तान थी। वह इल्तुतमिश की पुत्री थी। रज़िया सुल्ताना मुस्लिम एवं तुर्की इतिहास कि पहली महिला शासक थीं।
🔹शासनकाल – 1236 – 1240 ई.
🔹राज्यारोहण – जनता के समर्थन से नवंबर 1236 ई. में राज्यारोहण किया गया।
▪️रजिया सुलतान दिल्ली सल्तनत की पहली और अंतिम महिला सुल्तान थी।
▪️रजिया पुरुषों की तरह चोगा (काबा) कुलाह (टोपी) पहनकर राजदरबार में शासन करती थी।
▪️रज़िया अपनी राजनीतिक समझदारी और नीतियों से सेना तथा जनसाधारण का ध्यान रखती थी।
🔹मृत्यु
▪️रजिया ने लाहौर का विद्रोह सफलतापूर्वक दबा दिया। मगर जब भटिंडा के प्रशासन अल्तुनिया से युद्ध कर वह याकृत के साथ दिल्ली आ रही थी, तो 14 अक्तुबर, 1240 को मार्ग में उसका वध कर दिया गया।
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#मुईज़ुद्दीन_बहरामशाह –(1240 – 1242 ई.)
1240 ई. में रजिया सुल्तान के हत्या कर उसके भाई मुईज़ुद्दीन बहरामशाह (1240 ई.) ने सल्तनत पर अधिकार कर लिया। इसे तुर्की अमीरों ने नायब-ए-मुमलकत (संरक्षक) का पद बनाया था। वह नाममात्र का शासक था, वास्तव में चालीसा ही शासन संभाला रहे थे। तुर्क अमीरों ने 1242 ई. में बहरामशाह की हत्या कर दी।
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#अलाऊद्दीन_मसूदशाह – (1242 – 1246 ई.)
अलाउद्दीन मसूद शाह तुर्की शासक था, जो दिल्ली सल्तनत का सातवां सुल्तान बना। यह भी गुलाम वंश से था। वह रुकुनुद्दीन फ़ीरोज़शाह का पौत्र तथा मुइज़ुद्दीन बहरामशाह का पुत्र था। उसके समय में नाइब का पद ग़ैर तुर्की सरदारों के दल के नेता मलिक कुतुबुद्दीन हसन को मिला क्योंकि अन्य पदों पर तुर्की सरदारों के गुट के लोगों का प्रभुत्व था, इसलिए नाइब के पद का कोई विशेष महत्त्व नहीं रह गया था। शासन का वास्तविक अधिकार वज़ीर मुहाजबुद्दीन के पास था, जो जाति से ताजिक (ग़ैर तुर्क) था। तुर्की सरदारों के विरोध के परिणामस्वरूप यह पद नजुमुद्दीन अबू बक्र को प्राप्त हुआ। इसी के समय में बलबन को हाँसी का अक्ता प्राप्त हुआ। ‘अमीरे हाजिब’ का पद इल्तुतमिश के ‘चालीस तुर्कों के दल’ के सदस्य ग़यासुद्दीन बलबन को प्राप्त हुआ। 1245 में मंगोलों ने उच्छ पर अधिकार कर लिया, परन्तु बलबन ने मंगोलों को उच्छ से खदेड़ दिया, इससे बलबन की प्रतिष्ठा बढ़ गयी। अमीरे हाजिब के पद पर बने रह कर बलबन ने शासन का वास्तविक अधिकार अपने हाथ में ले लिया। अन्ततः बलबन ने नसीरूद्दीन महमूद एवं उसकी माँ से मिलकर अलाउद्दीन मसूद को सिंहासन से हटाने का षडयंत्र रचा। जून, 1246 में उसे इसमें सफलता मिली। बलबन ने अलाउद्दीन मसूद के स्थान पर इल्तुतमिश के प्रपौत्र नसीरूद्दीन महमूद को सुल्तान बनाया।
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#नासिरूद्दीन_महमूद – (1246 – 1266 ई.)
नासिरूद्दीन महमूद तुर्की शासक था, जो दिल्ली सल्तनत का आठवां सुल्तान बना। यह भी गुलाम वंश से था। बलबन ने षड़यंत्र के द्वारा 1246 ई. में सुल्तान मसूद शाह को हटाकर नाशिरुद्दीन महमूद को सुल्तान बनाया। बलबन ने अपनी पुत्री का विवाह नाशिरुद्दीन महमूद से करवाया था। नसिरुद्दीन मधुर एवं धार्मिक स्वभाव का व्यक्ति था। शासक के रूप में नसिरुद्दीन में तत्कालीन पेचीदी परिस्थिति का सामना करने लायक आवश्यक गुणों का काफी अभाव था। नसिरुद्दीन की 12 फरवरी 1266 ई. को मृत्यु हो गई। उसके बाद उसका कोई भी पुरुष उत्तराधिकारी नहीं बचा। इस प्रकार इल्तुतमिश के वंश का अन्त हो गया। तब बलबन, जिसकी योग्यता सिद्ध हो चुकी थी तथा जो स्वर्गीय सुल्तान द्वारा उसका उत्तराधिकारी मनोनीत किया गया,कहा जाता है कि सरदारों एवं पदाधिकारियों की मौन स्वीकृति से सिंहासन पर बैठा।
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#गयासुद्दीन_बलबन – (1266 – 1286 ई.)
गयासुद्दीन बलबन इसका वास्तविक नाम बहाउदीन था। उसने सन् 1266 से 1286 तक राज्य किया। गयासुद्दीन बलबन, जाति से इलबारी तुर्क था। बाल्यकाल में ही मंगोलों ने उसे पकड़कर बगदाद के बाजार में दास के रूप में बेच दिया। ख्वाजा जमालुद्दीन अपने अन्य दासों के साथ उसे 1232 ई. में दिल्ली ले आया। इन सबको सुल्तान इल्तुतमिश ने खरीद लिया। इस प्रकार बलबन इल्तुतमिश के चेहलागान नामक तुर्की दासों के प्रसिद्ध दल का था।
🔹उपाधि – जिल्ला-इलाही।
🔹कार्य
▪️सुल्तान के पद पर बैठते ही चालीसा का परभाव समाप्त कर दिया।
▪️अपनी स्थिति को मजबूत करने के किये इल्तुतमिश के परिवार के शेष लोगो को मरवा दिया।
▪️बंगाल से सूबेदार तुगरिल खां ने 1276 ई. में विद्रोह किया, जिससे क्रुद्ध होकर मरवा दिया।
🔹बलवत का सिद्धांत
▪️बलबन सुल्तान को पृथ्वी पर अल्लाह का प्रतिनिधित्व मानता था।
▪️उसेक अनुसार सुल्तान जिल्ले अल्लाह है अर्थात ईश्वर की परछाई है।
🔹बलवत के द्वारा प्रचलित नियम
▪️सामान्य लोगो से सुल्तान नही मिल सकता था।
▪️सिक्को पर अपना नाम खुदवाया तथा खुतबा में खलीफा का नाम पढ़वाया था।
▪️उच्चवंशाय लोगों को पदाधिकारी बनाया जाता था।
▪️वह एकांत में रहता था, हर्ष या शोक से विचलित नही होता था। शराब पीना एवं मनोरंजन कार्य बंद कर दिए थे।
▪️उसने राजदरबार में सिजदा एवं पेबोस की प्रथा प्रारम्भ की।
▪️कोई भी होठो पर मुस्कुराहट नही ला सकता था।
🔹समकालीन कवि
▪️अमीर खुसरो (तुतिए-हिन्द)
▪️अमीर हसन
🔹मृत्यु
▪️1286 ई. में (मंगोली संघर्ष में अपने जेष्ठ पुत्र के मारे जाने के शोक में)
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#कैकुबाद – (1286 – 1290 ई.)
बलबन ने अपनी मृत्यु के पूर्व अपने जेष्ठ पुत्र के पुत्र अर्थात पौत्र कैखुसरो को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया था। लेकिन दिल्ली के कोतवाल फ़ख़रुद्दीन मुहम्मद ने बलबन की मृत्यु के बाद कूटनीति के द्वारा कैखुसरो को मुल्तान की सूबेदारी देकर कैकुबाद को दिल्ली की राजगद्दी पर बैठा दिया। कैकुबाद अथवा ‘कैकोबाद’ (1286-1290 ई.) को 17-18 वर्ष की अवस्था में दिल्ली की गद्दी पर बैठाया गया था। कैकुबाद ने ग़ैर तुर्क सरदार जलालुद्दीन ख़िलजी को अपना सेनापति बनाया, जिसका तुर्क सरदारों पर बुरा प्रभाव पड़ा। तुर्क सरदार बदला लेने की बात को सोच ही रहे थे कि, कैकुबाद को लकवा मार गया। लकवे का रोगी बन जाने के कारण कैकुबाद प्रशासन के कार्यों में अक्षम हो गया।
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#शमशुद्दीन_क्यूम़र्श – (1290 ई.)
शमशुद्दीन क्यूम़र्श भारत में गुलाम वंश का अतिम शासक था। कैकुबाद को लकवा मार जाने के कारण वह प्रशासन के कार्यों में पूरी तरह से अक्षम हो चुका था। प्रशासन के कार्यों में उसे अक्षम देखकर तुर्क सरदारों ने उसके तीन वर्षीय पुत्र शम्सुद्दीन क्यूम़र्श को सुल्तान घोषित कर दिया। कालान्तर में जलालुद्दीन फ़िरोज ख़िलजी ने उचित अवसर देखकर शम्सुद्दीन का वध कर दिया। शम्सुद्दीन की हत्या के बाद जलालुद्दीन फ़िरोज ख़िलजी ने दिल्ली के तख्त पर स्वंय अधिकार कर लिया। इस प्रकार से बाद में दिल्ली की राजगद्दी पर ख़िलजी वंश की स्थापना हुई।
#मध्यकालीन_भारत_का_इतिहास :
#सैयद_वंश
दिल्ली सल्तनत पर शासन करने वाला चौथा वंश था। इस वंश ने दिल्ली सल्तनत में 1414 से 1451 ई. तक शासन किया। उन्होंने तुग़लक़ वंश के बाद राज्य की स्थापना की। यह वंश मुस्लिमों की तुर्क जाति का यह आख़री राजवंश था।
#सैयद_वंश_के_शासक :-
▪️सैयद ख़िज़्र खाँ (1414 – 1421 ई.)
▪️मुबारक़ शाह (1421 – 1434 ई.)
▪️मुहम्मद शाह (1434 – 1445 ई.)
▪️आलमशाह शाह (1445 – 1476 ई.)
#सैयद_ख़िज़्र_खाँ (1414 – 1421 ई.)
ख़िज़्र ख़ाँ ने य्यद वंश की स्थापना की । ख़िज़्र ख़ाँ ने 1414 ई. में दिल्ली की राजगद्दी पर अधिकार कर लिया। ख़िज़्र ख़ाँ ने सुल्तान की उपाधि न धारण कर अपने को ‘रैयत-ए-आला’ की उपाधि से ही खुश रखा। जब भारत को लूटकर तैमूर लंग वापस जा रहा था, उसने ख़िज़्र ख़ाँ को मुल्तान, लाहौर एवं दीपालपुर का शासक नियुक्त कर दिया था। ख़िज़्र ख़ाँ के शासन काल में पंजाब, मुल्तान एवं सिंध पुनः दिल्ली सल्तनत के अधीन हो गये।
सुल्तान को राजस्व वसूलने के लिए भी प्रतिवर्ष सैनिक अभियान का सहारा लेना पड़ता था। उसने अपने सिक्कों पर तुग़लक़ सुल्तानों का नाम खुदवाया। फ़रिश्ता ने ख़िज़्र ख़ाँ को एक न्यायप्रिय एवं उदार शासक बताया है।
🔹मृत्यु
▪️20 मई, 1421 को ख़िज़्र ख़ाँ की मृत्यु हो गई।
▪️फ़रिश्ता के अनुसार ख़िज़्र ख़ाँ की मृत्यु पर युवा, वृद्ध दास और स्वतंत्र सभी ने काले वस्त्र पहनकर दुःख प्रकट किया।
#मुबारक़_शाह (1421 – 1434 ई.)
ख़िज़्र ख़ाँ की मृत्यु के बाद उनके उत्तराधिकारी के रूप में उनका पुत्र मुबारक शाह ने दिल्ली की सत्ता अपने हाथ में ली। अपने पिता के विपरीत उन्होंने अपने आप को सुल्तान के रूप में घोषित किया।
🔹मुबारक शाह के कार्य
▪️इसने यमुना नदी के किनारे 1434 ई0 में मुबारकबाद नामक नगर की स्थापना की।
▪️मुबारक शाह ने ‘शाह’ की उपाधि ग्रहण कर अपने नाम के सिक्के जारी किये।
▪️उसने अपने नाम से ‘ख़ुतबा (प्रशंसात्मक रचना)’ पढ़वाया और इस प्रकार विदेशी स्वामित्व का अन्त किया।
▪️मुबारक शाह के समय में पहली बार दिल्ली सल्तनत में दो महत्त्वपूर्ण हिन्दू अमीरों का उल्लेख मिलता है।
▪️उसने विद्धान ‘याहिया बिन अहमद सरहिन्दी’ को अपना राज्याश्रय प्रदान किया था। उसके ग्रंथ ‘तारीख़-ए-मुबारकशाही’ से मुबारक शाह के शासन काल के विषय में जानकारी मिलती है।
🔹मृत्यु
▪️मुबारक शाह के वज़ीर सरवर-उल-मुल्क ने षड़यन्त्र द्वारा 19 फ़रवरी, 1434 ई. को मुबारक शाह की हत्या कर दी।
#मुहम्मद_शाह (1434 – 1445 ई.)
मुबारक शाह ले दत्तक पुत्र मुहम्मद शाह (मुहम्मद बिन खरीद खाँ) को वज़ीर सरवर-उल-मुल्क एवं अन्य अमीरों में मिलकर 19 फ़रवरी 1434 को दिल्ली का सुल्तान बना दिया। इसने मुल्तान के सुबेदार वहलोल को ‘खान-ए-खाना’ की उपाधि दी। मुहम्मद शाह नाममात्र का शासक था। शासन पर पूर्ण नियंत्रण वज़ीर सरवर-उल-मुल्क का था। मुहम्मद शाह के शासक बनते ही वजीर ने शस्त्रागार, राजकोष एवं हाथियों पर आधिपत्य कर लिया। मुहम्मद शाह को मरने के लिए वज़ीर सरवर-उल-मुल्क षडयंत्र कर रहा था। इससें पहले ही मुहम्मद शाह ने वजीर व उसके समर्थकों को मार दिया। मुहम्मद शाह ने कमाललमुल्क को नया वजीर बनाया।
1440 ई. में महमूद खिलजी ने मुहम्मद शाह पर आक्रमण किया, लेकिन युद्ध के बाद दोनों में संधि हो गई। बहलोल लोदी को मुहम्मद शाह ने अपने पुत्र की संज्ञा दी।
🔹मृत्यु
▪️बहलोल लोदी ने 1443 ई. में दिल्ली पर आक्रमण कर लिया। उसी दौरान उसकी मृत्यु हो गई। लेकिन कुछ विद्वान् उसकी मृत्यु 1445 ई. में मानते है।
#आलमशाह_शाह (1445 – 1476 ई.)
आलमशाह शाह (अलाउद्दीन शाह), मुहम्मद शाह का पुत्र था। 1445 ई. में मुहम्मद शाह की मृत्यु के बाद सरदारों ने उसके पुत्र को अलाउद्दीन आलमशाह की उपाधि से इस विनिष्ट राज्य का शासक घोषित किया, जिसमें अब केवल दिल्ली शहर और अगल-बगल के गाँव बच गये थे। आलमशाह शाह बहुत कमजोर और अयोग्य था। उसने 1451 ई. में दिल्ली का राजसिंहासन बहलोल लोदी को दे दिया तथा निन्दनीय ढंग से 1447 ई. में दिल्ली छोड़कर अपने प्रिय स्थान बदायूँ चला गया।
🔹मृत्यु
▪️1476 ई. में अलाउद्दीन शाह (आलमशाह शाह) की मृत्यु हो गई।
#आधुनिक_भारत_का_इतिहास :
#राममोहन_रॉय_और_ब्रह्म_समाज
सामाजिक और धार्मिक जीवन के कुछ पहलुओं के सुधार से प्रारंभ होने वाला जागरण ने समय के साथ देश के सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक जीवन के सभी पहलुओं को प्रभावित किया।18वीं सदी के उत्तरार्ध में कुछ यूरोपीय और भारतीय विद्वानों ने प्राचीन भारतीय दर्शन,विज्ञान,धर्म और साहित्य का अध्ययन प्रारंभ किया। इस अध्ययन के द्वारा भारतीय अपने प्राचीन भारतीय ज्ञान से परिचित हुए,जिसने उनमें अपनी सभ्यता के प्रति गौरव का भाव जाग्रत किया।
इसने सुधारकों को उनके सामाजिक और धार्मिक सुधारों के कार्य में भी सहयोग प्रदान किया। उन्होंने सामाजिक रूढ़ियों, अंधविश्वासों और अमानवीय व्यवहारों व परम्पराओं के प्रति अपने संघर्ष में जनमत तैयार करने के लिए प्राचीन भारतीय ग्रंथों के ज्ञान का उपयोग किया। ऐसा करने के दौरान, उनमें से अधिकांश ने विश्वास और आस्था के स्थान पर तर्क का सहारा लिया। अतः भारतीय सामाजिक व धार्मिक सुधारकों ने अपने उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए एक तरफ अपने पाश्चात्य ज्ञान का प्रयोग किया तो दूसरी तरफ प्राचीन भारतीय विचारों को भी महत्व प्रदान किया।
#राजा_राममोहन_राय
राजा राममोहन राय का जन्म,संभवतः1772 ई. में,बंगाल के एक सम्पन्न परिवार में हुआ था। उन्होंने पारंपरिक संस्कृत शिक्षा बनारस में और पारसी व अरबी का ज्ञान पटना में प्राप्त किया। बाद में उन्होंने अंग्रेजी,ग्रीक और हिब्रू भाषा भी सीखी ।वे फ्रेंच और लैटिन भाषा के भी जानकार थे। उन्होंने न केवल हिन्दू बल्कि इस्लाम,ईसाई और यहूदी धर्म का भी गहन अध्ययन किया था। उन्होंने संस्कृत,बंगाली,हिंदी,पारसी और अंग्रेजी भाषा में अनेक पुस्तकें लिखी थी। उन्होंने एक बंगाली भाषा में और एक पारसी भाषा में अर्थात दो समाचार पत्र भी निकाले। मुग़ल शाशकों ने उन्हें ‘राजा’ की उपाधि प्रदान की और अपने दूत के रूप में इंग्लैंड भेजा।
वे 1831 ई. में इंग्लैंड पहुचे और वहीँ 1833 में उनकी मृत्यु हो गयी। वे भारत में अंग्रेजी शिक्षा के समर्थक थे और मानते थे कि नवजागरण के प्रसार और विज्ञान की शिक्षा के लिए अंग्रेजी का ज्ञान आवश्यक है। वे प्रेस की स्वतंत्रता के प्रबल पक्षधर थे और इसी कारण उन्होंने प्रेस पर लगे प्रतिबंधों को हटाने के लिए आन्दोलन भी चलाया।
राजा राममोहन राय का मानना था कि हिन्दू धर्म में प्रवेश कर चुकी बुराईयों को दूर करने के लिए और उसके शुध्दिकरण के लिए उस धर्म के मूल ग्रंथों के ज्ञान से लोगों को परिचित करना आवश्यक है। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए ही उन्होनें वेदों व उपनिषदों का बंगाली भाषा में अनुवाद कर प्रकाशित करने का कठिन कार्य किया।
वे एक ऐसे सार्वभौमिक धर्म के समर्थक थे जोकि एक परम-सत्ता के सिद्धांत पर आधारित था। उन्होनें मूर्ति-पूजा और अंधविश्वासों व पाखंडों का विरोध किया।
#ब्रह्म_समाज
धार्मिक सुधारों के क्षेत्र में उनका सबसे बड़ा योगदान उनके द्वारा 1928 ई. में ब्रहम समाज की स्थापना करना था जोकि धार्मिक सुधार आन्दोलन के तहत स्थापित प्रथम महत्वपूर्ण संगठन था। उन्होनें मूर्ति-पूजा और अतार्किक अंधविश्वासों व पाखंडों का विरोध किया। ब्रहम समाज के सदस्य किसी भी धर्म पर हमले के खिलाफ थे।
सामाजिक सुधारों के अंतर्गत ब्रहम समाज का सबसे बड़ा योगदान 1829 ई. में सती प्रथा का उन्मूलन था।उन्होंने देखा था कि कैसे उनके बड़े भाई की पत्नी को जबरदस्ती सती होने के लिए विवश किया गया था। उन्हें सती प्रथा का विरोध करने के कारण रूढ़िवादी हिन्दुओं का तीव्र विरोध भी झेलना पड़ा था। राममोहन राय के अनुसार सती प्रथा का प्रमुख कारण हिन्दू महिलाओं की अत्यधिक निम्न स्थिति थी। वे बहुविवाह के खिलाफ थे और महिलाओं को शिक्षित करने तथा उन्हें पैतृक संपत्ति प्राप्त करने के अधिकार प्रदान के पक्षधर थे।
ब्रहम समाज का प्रभाव बढता गया और देश के विभिन्न भागों में ब्रहम समाज शाखाएं खुल गयीं। ब्रहम समाज के दो महत्वपूर्ण नेता देवेन्द्रनाथ टैगोर और केशवचंद्र सेन थे। ब्रहम समाज के सन्देश को प्रसारित करने के लिए केशवचंद्र सेन ने मद्रास और बम्बई प्रेसिडेंसी की यात्राएँ की और बाद में उत्तर भारत में भी यात्राएँ कीं।
1866 ई. में ब्रहम समाज का विभाजन हो गया क्योकि केशवचंद्र सेन के विचार मूल ब्रहम समाज के विचारों की तुलना में अत्यधिक क्रांतिकारी व उग्र थे।वे जाति व रीति-रिवाजों के बंधन और धर्म-ग्रंथों के प्राधिकार से मुक्ति के पक्षधर थे । उन्होंने अंतर-जातीय विवाह और विधवा-पुनर्विवाह की वकालत की और ऐसे अनेक विवाह सम्पन्न भी करायें,पर्दा-प्रथा का विरोध किया और जाति-गत विभाजन की आलोचना की। उन्होंने जाति-गत कठोरता पर हमला किया,तथाकथित हिन्दू निम्न जातियों व अन्य धर्मों के व्यक्तियों के यहाँ भोजन करने लगे,खान-पान पर लगे प्रतिबंधों का विरोध किया,अपना संपूर्ण जीवन शिक्षा के प्रसार हेतु समर्पित कर दिया और समुद्री यात्राओं पर प्रतिबन्ध जैसे पुराने हिन्दू विचारों का विरोध किया।इस आन्दोलन ने देश के अन्य भागों में भी ऐसे ही अनेक सुधार-आन्दोलनों को प्रेरित किया ।लेकिन इस समूह का प्रभाव बढ़ता गया जबकि अन्य समूह,जोकि सामाजिक सुधारों के प्रति उनके उतने अधिक प्रतिबद्ध नहीं थे, का पतन हो गया।
#भारत_में_वनों_के_प्रकार
भारत में विविध प्रकार के वन पाये जाते हैं, दक्षिण में केरल के वर्षावनों से उत्तर में लद्दाख के अल्पाइन वन, पश्चिम में राजस्थान के मरूस्थल से लेकर पूर्वोत्तर के सदाबहार वनों तक। जलवायु, मृदा का प्रकार, स्थलरूप तथा ऊँचाई वनों के प्रकारों को प्रभावित करने वाले मुख्य कारक हैं। वनों का विभाजन, उनकी प्रकृति, बनावट, जलवायु जिसमें वे पनपते हैं तथा उनके आस-पास के पर्यावरण के आधार पर किया जाता है। वनों के प्रकार
निम्नलिखित है।
#शंकुधारी_वन: उन हिमालय पर्वतीय क्षेत्रों में पाये जाते हैं जहां तापमान कम होता है। इन वनों में सीधे लम्बे वृक्ष पाये जाते हैं जिनकी पत्तियां नुकीली होती हैं तथा शाखाएँ नीचे की ओर झुकी होती है जिससे बर्फ इनकी टहनियों पर जमा नहीं हो पाती। इनमें बीजों के स्थान पर शंकु होते हैं इसलिए इन्हें जिम्नोस्पर्म भी कहा जाता है। चौड़ी पत्तियों वाले वनों के कई प्रकार होते हैं- जैसे सदाबहार वन, पर्णपाती वन, काँटेदार वन, तथा मैंग्रोव वन। इन वनों की पत्तियाँ बड़ी - बड़ी तथा अलग – अलग प्रकार की होती हैं।
#सदाबहार_वन: पश्चिमी घाट पूर्वोत्तर भारत तथा अंडमान निकोबार द्वीप समूह में स्थित उच्च वर्षा क्षेत्रों में पाये जाते हैं। यह वन उन क्षेत्रों में पनपते हैं जहां मानसून कई महीनों तक रहता है। यह वृक्ष एक दूसरे से सटकर लगातार छत का निर्माण करते हैं। इसलिए इन वनों में धरातल तक प्रकाश नहीं पहुंच पाता। जब इस परत से थोड़ा प्रकाश धरातल तक पहुंचता है तब केवल कुछ छायाप्रिय पौधे ही धरती पर पनप पाते हैं। इन वनों में आर्किड्स तथा फर्न बहुतायत में पाये जाते हैं। इन वृक्षों की छाल काई से लिपटी रहती है। यह वन जन्तु तथा कीट जीवन में प्रचुर हैं।
#आर्द्र_सदाबहार_वन: दक्षिण में पश्चिमी घाट के साथ तथा अंडमान – निकोबार द्वीप समूह तथा पूर्वोत्तर में सभी जगह पाये जाते हैं। यह वन लंबे, सीधे सदाबहार वृक्षों से जिनकी तना या जड़े त्रिपदयीय आकार की होती हैं से बनते हैं जिससे ये तूफान में भी सीधे खड़े रहते हैं। यह पेड़ काफी दूरी तक लंबे उगते हैं जिसके पश्चात ये गोभी के फूल की तरह खिलकर फैल जाते हैं। इन वनों के मुख्य वृक्ष जैक फल, सुपारी, पाल्म, जामुन, आम तथा हॉलॉक हैं। इन वनों में तने वाले पौधे जमीन के नजदीक उग जाते हैं, साथ में छोटे वृक्ष तथा फिर लंबे वृक्ष उगते हैं। अलग – अलग रंगों के सुन्दर फर्न तथा अनेक प्रकार के आर्किड्स इन वनों के वृक्षों के साथ उग जाते हैं।
#अर्द्ध_सदाबहार_वृक्ष: इस प्रकार के वन पश्चिमी घाट, अंडमान तथा निकोबार द्वीप समूह तथा पूर्वी हिमालयों में पाये जाते हैं। इन वनों में आर्द्र सदाबहार वृक्ष तथा आर्द्र पर्णपाती वनों का मिश्रण पाया जाता है। यह वन घने होते हैं तथा इनमें अनेक प्रकार के वृक्ष पाये जाते हैं।
#पर्णपाती_वन: यह वन केवल उन्हीं क्षेत्रों में पाये जाते हैं जहां मध्यम स्तर की मौसमी वर्षा जो केवल कुछ ही महीनों तक होती है। अधिकतर वन जिमें टीक के वृक्ष उगते हैं इसी प्रकार के होते हैं। यह वृक्ष सर्दियों तथा गर्मियों के महीनों में अपनी पत्तियां गिरा देते हैं। मार्च तथा अप्रैल के महीनों में इन वृक्षों पर नयी पत्तियां उगने लगती हैं। मानसून आने से पहले ये वृक्ष वर्षा की उपस्थिति में वृद्धि करते हैं। यह पत्तियां गिरने तथा इनकी चौड़ाई बढ़ने का मौसम होता है। क्योंकि प्रकाश इन वृक्षों के बीच से वनों के तल तक पहुंच सकता है। इसलिए इनमें घनी वृद्धि होती है।
#कांटेदार_वन: यह वन भारत में कम नमी वाले स्थानों पर पाये जाते हैं। यह वृक्ष दूर – दूर तथा हरी घास से घिरे रहते हैं। कांटेदार वृक्षों को कहते हैं जो जल को संरक्षित करते हैं। इनमे कुछ वृक्षों की पत्तियां छोटी होती हैं तथा कुछ वृक्षों की पत्तियां मोटी तथा मोम युक्त होती हैं ताकि जल का वाष्पीकरण कम किया जा सके। कांटेदार वृक्षों में लंबी तथा रेशेयुक्त जड़ें होती हैं जिनसे पानी काफी गहराई तक पहुंच पाता है। कई वृक्षों में कांटे होते हैं जो पानी की हानि को कम करते हैं तथा जानवरों से रक्षा करते हैं।
#मैंग्रोव_वन: नदियों के डेल्टा तथा तटों के किनारे उगते हैं। यह वृक्ष लवणयुक्त तथा शुद्ध जल सभी में वृद्धि करते हैं। यह वन नदियों द्वारा बहाकर लायी गई मिट्टियों में अधिक वृद्धि करते हैं। मैंग्रोव वृक्षों की जड़ें कीचड़ से बाहर की ओर वृद्धि करती हैं जो श्वसन भी करती हैं।
: हमारे प्राचीन महादेश का नाम “भारतवर्ष” कैसे पड़ा....????? हमारे लिए यह जानना बहुत ही आवश्यक है भारतवर्ष का नाम भारतवर्ष कैसे पड़ा?
एक सामान्य जनधारणा है,कि महाभारत एक कुरूवंश में राजा दुष्यंत और उनकी पत्नी शकुंतला के प्रतापी पुत्र भरत के नाम पर इस देश का नाम भारतवर्ष पड़ा।
लेकिन वही पुराण इससे अलग कुछ दूसरी साक्षी प्रस्तुत करता है। इस ओर हमारा ध्यान नही गया, जबकि पुराणों में इतिहास ढूंढ़कर अपने इतिहास के साथ और अपने आगत के साथ न्याय करना हमारे लिए बहुत ही आवश्यक था।
विचार करें इस विषय पर:-आज के वैज्ञानिक इस बात को मानते हैं,कि प्राचीन काल में साथ भूभागों में अर्थात महाद्वीपों में भूमण्डल को बांटा गया था। लेकिन सात महाद्वीप किसने बनाए क्यों बनाए और कब बनाए गये। इस ओर अनुसंधान नही किया गया। अथवा कहिए कि जान पूछकर अनुसंधान की दिशा मोड़ दी गयी।
लेकिन वायु पुराण इस ओर बड़ी रोचक कथा हमारे सामने प्रस्तुत करता है। वायु पुराण की कहानी के अनुसार त्रेता युग के प्रारंभ में अर्थात अब से लगभग 22 लाख वर्ष पूर्व स्वयम्भुव मनु के पौत्र और प्रियव्रत के पुत्र ने इस भरत खंड को बसाया था।
प्रियव्रत का अपना कोई पुत्र नही था इसलिए उन्होंने अपनी पुत्री का पुत्र अग्नीन्ध्र को गोद लिया था। जिसका लड़का नाभि था, नाभि की एक पत्नी मेरू देवी से जो पुत्र पैदा हुआ उसका नाम ऋषभ था। इस ऋषभ का पुत्र भरत था। इसी भरत के नाम पर भारतवर्ष इस देश का नाम पड़ा।
उस समय के राजा प्रियव्रत ने अपनी कन्या के दस पुत्रों में से सात पुत्रों को संपूर्ण पृथ्वी के सातों महाद्वीपों के अलग-अलग राजा नियुक्त किया था।
राजा का अर्थ इस समय धर्म, और न्यायशील राज्य के संस्थापक से लिया जाता था। राजा प्रियव्रत ने जम्बू द्वीप का शासक अग्नीन्ध्र को बनाया था। बाद में भरत ने जो अपना राज्य अपने पुत्र को दिया वह भारतवर्ष कहलाया।
भारतवर्ष का अर्थ है भरत का क्षेत्र। भरत के पुत्र का नाम सुमति था। इस विषय में वायु पुराण के निम्न श्लोक पठनीय हैं—
सप्तद्वीपपरिक्रान्तं जम्बूदीपं निबोधत।
अग्नीध्रं ज्येष्ठदायादं कन्यापुत्रं महाबलम।।
प्रियव्रतोअभ्यषिञ्चतं जम्बूद्वीपेश्वरं नृपम्।।
तस्य पुत्रा बभूवुर्हि प्रजापतिसमौजस:।
ज्येष्ठो नाभिरिति ख्यातस्तस्य किम्पुरूषोअनुज:।।
नाभेर्हि सर्गं वक्ष्यामि हिमाह्व तन्निबोधत। (वायु 31-37, 38)
इन्हीं श्लोकों के साथ कुछ अन्य श्लोक भी पठनीय हैं,जो वहीं प्रसंगवश उल्लिखित हैं। स्थान अभाव के कारण यहां उसका उल्लेख करना उचित नही होगा।
हम अपने घरों में अब भी कोई याज्ञिक कार्य कराते हैं,तो उसमें पंडित जी संकल्प कराते हैं। उस संकल्प मंत्र को हम बहुत हल्के में लेते हैं, या पंडित जी की एक धार्मिक अनुष्ठान की एक क्रिया मानकर छोड़ देते हैं।
लेकिन उस संकल्प मंत्र में हमें वायु पुराण की इस साक्षी के समर्थन में बहुत कुछ मिल जाता है। जैसे उसमें उल्लेख आता है-
जम्बू द्वीपे भारतखंडे आर्याव्रत देशांतर्गते….। ये
शब्द ध्यान देने योग्य हैं। इनमें जम्बूद्वीप आज के
यूरेशिया के लिए प्रयुक्त किया गया है। इस जम्बू द्वीप में भारत खण्ड अर्थात भरत का क्षेत्र अर्थात ‘भारतवर्ष’ स्थित है, जो कि आर्याव्रत कहलाता है। इस संकल्प के द्वारा हम अपने गौरवमयी अतीत के गौरवमयी इतिहास का व्याख्यान कर डालते हैं।
अब प्रश्न आता है शकुंतला और दुष्यंत के पुत्र भरत से इस देश का नाम क्यों जोड़ा जाता है? इस विषय में हमें ध्यान देना चाहिए कि महाभारत नाम का ग्रंथ मूलरूप में जय नाम का ग्रंथ था, जो कि बहुत छोटा था लेकिन बाद में बढ़ाते बढ़ाते उसे इतना विस्तार दिया गया कि राजा विक्रमादित्य को यह कहना पड़ा कि यदि इसी प्रकार यह ग्रंथ बढ़ता गया तो एक दिन एक ऊंट का बोझ हो जाएगा।
इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि इस ग्रंथ में कितना घाल मेल किया गया होगा।
अत: शकुंतला, दुष्यंत के पुत्र भरत से इस देश के नाम की उत्पत्ति का प्रकरण जोडऩा किसी घालमेल का परिणाम हो सकता है। जब हमारे पास साक्षी लाखों साल पुरानी है और आज का विज्ञान भी यह मान रहा है,कि धरती पर मनुष्य का आगमन करोड़ों साल पूर्व हो चुका था, तो हम पांच हजार साल पुरानी किसी कहानी पर क्यों विश्वास करें?
दूसरी बात हमारे संकल्प मंत्र में पंडित जी हमें सृष्टिï सम्वत के विषय में भी बताते हैं कि अब एक अरब 96 करोड़ आठ लाख तिरेपन हजार एक सौ तेरहवां वर्ष चल रहा है। बात तो हम एक एक अरब 96 करोड़ आठ लाख तिरेपन हजार एक सौ तेरह पुरानी करें और अपना इतिहास पश्चिम के लेखकों की कलम से केवल पांच हजार साल पुराना पढ़ें या मानें तो यह आत्मप्रवंचना के अतिरिक्त और क्या है?
जब इतिहास के लिए हमारे पास एक से एक बढ़कर साक्षी हो और प्रमाण भी उपलब्ध हो,साथ ही तर्क भी हों तो फिर उन साक्षियों, प्रमाणों और तर्कों के आधार पर अपना अतीत अपने आप खंगालना हमारी जिम्मेदारी बनती है।
हमारे देश के बारे में वायु पुराण में ही उल्लिखित हैकि हिमालय पर्वत से दक्षिण का वर्ष अर्थात क्षेत्र भारतवर्ष है। इस विषय में देखिए वायु पुराण क्या कहता है—-
हिमालयं दक्षिणं वर्षं भरताय न्यवेदयत्।
तस्मात्तद्भारतं वर्ष तस्य नाम्ना बिदुर्बुधा:।।
हमने शकुंतला और दुष्यंत पुत्र भरत के साथ अपने देश के नाम की उत्पत्ति को जोड़करअपने इतिहासको पश्चिमी इतिहासकारों की दृष्टि से पांच हजार साल के अंतराल में समेटने का प्रयास किया है।
यदि किसी पश्चिमी इतिहास कार को हम अपने बोलने में या लिखने में उद्घ्रत कर दें तो यह हमारे लिये शान की बात समझी जाती है, और यदि हम अपने विषय में अपने ही किसी लेखक कवि या प्राचीन ग्रंथ का संदर्भ दें तो रूढि़वादिता का प्रमाण माना जाता है ।
यह सोच सिरे से ही गलत है। अब आप समझें राजस्थान के इतिहास के लिए सबसे प्रमाणित ग्रंथ कर्नल टाड का इतिहास माना जाता है। हमने यह नही सोचा कि एक विदेशी व्यक्ति इतने पुराने समय में भारत में आकर साल, डेढ़ साल रहे और यहां का इतिहास तैयार कर दे, यह कैसे संभव है?
विशेषत: तब जबकि उसके आने के समय यहां यातायात के अधिक साधन नही थे और वह राजस्थानी भाषा से भी परिचित नही था। तब ऐसी परिस्थिति में उसने केवल इतना काम किया कि जो विभिन्न रजवाड़ों के संबंध में इतिहास संबंधी पुस्तकें उपलब्ध थीं उन सबको संहिताबद्घ कर दिया।
इसके बाद राजकीय संरक्षण में करनल टाड की पुस्तक को प्रमाणिक माना जाने लगा। जिससे यह धारणा रूढ हो गयीं कि राजस्थान के इतिहास पर कर्नल टाड का एकाधिकार है। ऐसी ही धारणाएं हमें अन्य क्षेत्रों में भी परेशान करती हैं।
अपने देश के इतिहास के बारे में व्याप्त भ्रांतियों का निवारण करना हमारा ध्येय होना चाहिए। अपने देश के नाम के विषय में भी हमें गंभी चिंतन करना चाहिए, इतिहास मरे गिरे लोगों का लेखाजोखा नही है, जैसा कि इसके विषय में माना जाता है, बल्कि इतिहास अतीत के गौरवमयी पृष्ठों और हमारे न्यायशील और धर्मशील राजाओं के कृत्यों का वर्णन करता है।
‘वृहद देवता’ ग्रंथ में कहा गया है कि ऋषियों द्वारा कही गयी पुराने काल की बात इतिहास है। ऋषियों द्वारा हमारे लिये जो मार्गदर्शन किया गया है उसे तो हम रूढिवाद मानें और दूसरे लोगों ने जो हमारे लिये कुछ कहा है उसे सत्य मानें, यह ठीक नही। इसलिए भारतवर्ष के नाम के विषय में व्याप्त भ्रांति का निवारण किया जाना बहुत आवश्यक है।
इस विषय में जब हमारे पास पर्याप्त प्रमाण हैं तो भ्रांति के निवारण में काफी सहायता मिल जाती है।इस सहायता के आधार पर हम अपने अतीत का गौरवमयी गुणगान करें, तो सचमुच कितना आनंद आएगा?
#आधुनिक_भारत_का_इतिहास :
#रामकृष्ण_मिशन_और_विवेकानंद
19 वीं सदी के धार्मिक मानवों ने न तो किसी सम्प्रदाय का समर्थन किया और न ही मोक्ष का कोई नया रास्ता दिखलाया| उन्होंने ईश्वरीय चेतना का सन्देश दिया|उनके अनुसार ईश्वरीय चेतना के आभाव में परम्पराएँ रूढ़ और दमनात्मक हो जाती है और धार्मिक शिक्षाएं अपनी परिवर्तनकारी शक्ति को खोने लगती है|
#रामकृष्ण_मिशन (1836-1886 ई.)
रामकृष्ण परमहंस कलकत्ता के पास स्थित दक्षिणेश्वर मंदिर के पुजारी थे| अन्य धर्मों के नेताओं के संपर्क में आने के बाद उन्होंने सभी तरह के विश्वासों की पवित्रता को स्वीकार किया| उनके समय के लगभग सभी धार्मिक सुधारक, जिनमें केशवचंद्र सेन और दयानंद भी शामिल थे, उनके पास धार्मिक चर्चाएँ करने और मार्गदर्शन प्राप्त करने के लिए आते थे| समकालीन भारतीय विद्वानों, जिनकी अपनी संस्कृति पर आस्था पश्चिम द्वारा प्रस्तुत चुनौती के कारण डगमगाने लगी थी,के मन में रामकृष्ण की शिक्षाओं के कारण पुनः अपनी संस्कृति के प्रति आस्था का भाव मजबूत हुआ| रामकृष्ण की शिक्षाओं का प्रचार करने और उन्हें व्यवहार में लाने के लिए उनके प्रिय शिष्य विवेकानंद ने 1897 ई. में रामकृष्ण मिशन की स्थापना की थी| मिशन का उद्देश्य समाज सेवा थी क्योकि उसका मानना था की ईश्वर की सेवा करने का सबसे बेहतर तरीका मानवों की सेवा करना है| रामकृष्ण मिशन अपनी स्थापना के समय से ही जन-गतिविधियों के शक्तिशाली केंद्र के रूप में स्थापित हो गया था| इन जन-गतिविधियों में बाढ़,सूखा और महामारी जैसी आपदाओं के समय सहायता पहुँचाना,अस्पतालों की स्थापना करना और शिक्षा संस्थाओं की स्थापना जैसे कार्य शामिल थे|
#विवेकानंद(1863-1902 ई.)
विवेकानंद का चरित्र अपने गुरू के चरित्र से बिल्कुल अलग था| उन्होंने भारतीय व पश्चिमी दर्शनों का अध्ययन किया लेकिन जब तक वे रामकृष्ण से नहीं मिले उन्हें मानसिक शांति नहीं प्राप्त हुई | उनका मन केवल अध्यात्म से ही नहीं जुड़ा था बल्कि अपनी मातृभूमि की तत्कालीन परिस्थितियाँ भी उनके मन को आंदोलित करती रहती थीं|संपूर्ण भारत में भ्रमण करने के बाद उन्होंने पाया कि गरीबी,गन्दगी,मानसिक उत्साह का अभाव और भविष्य के प्रति आशान्वित न होने जैसी परिस्थितियां हर कहीं व्याप्त है|
विवेकानंद ने स्पष्ट रूप से कहा की-“अपनी सभी प्रकार की गरीबी और पतन के लिए स्वयं हम ही जिम्मेदार हैं| उन्होंने अपने देशवासियों को अपनी मुक्ति के लिए स्वयं प्रयास करने का सन्देश दिया| उन्होंने स्वयं भी अपने देशवासियों को जाग्रत करने और उनकी कमजोरियों की ओर उनका ध्यान दिलाने का दायित्व संभाला| उन्होंने उन्हें जीवन भर संघर्ष करने और मृत्यु द्वारा नया रूप धारण करने,गरीबों के प्रति दया-भाव रखने,भूखों को भोजन उपलब्ध कराने और वृहद् स्तर पर लोगों को जागृत करने के लिए प्रेरित किया|
विवेकानंद ने 1893 ई. में अमेरिका के शिकागो में आयोजित विश्व धर्म सभा में भाग लिया| इनके द्वारा वहां दिए गए भाषण ने अन्य देशों के लोगों के मन को गहराई तक प्रभावित किया और विश्व की नजर में भारतीय संस्कृति की प्रतिष्ठा में वृद्धि की|
#निष्कर्ष
रामकृष्ण परमहंस और विवेकानंद का दर्शन धार्मिक सौहार्द्र पर आधारित था और इस सौहार्द्र का अनुभव व्यक्तिगत ईश्वरीय चेतना के आधार पर ही किया जा सकता है|
#मध्यकालीन_भारत_का_इतिहास :
#तुगलक_वंश
खिलज़ी वंश का अंत कर दिल्ली में एक नये वंश का उदय हुआ जिसे तुगलक वंश (Tughlaq Dynasty) कहते है। तुगलक वंश (Tughlaq Dynasty) ने दिल्ली पर 1320 से 1413 ई. तक राज किया। तुगलक वंश का पहला शासक गाज़ी मालिक था. जिसने खुद को गयासुद्दीन तुगलक के रूप में पेश किया।
#तुगलक_वंश_के_शासक :-
▪️गयासुद्दीन तुगलक (1320-25 ई.)
▪️मोहम्मद तुगलक (1325-51 ई.)
▪️फिरोज शाह तुगलक (1351-88 ई.)
▪️मोहम्मद खान (1388 ई.)
▪️गयासुद्दीन तुगलक शाह II (1388 ई.)
▪️अबू बाकर (1389-90 ई.)
▪️नसीरुद्दीन मोहम्मद (1390-94 ई.)
▪️हूंमायू (1394-95 ई.)
▪️नसीरुद्दीन महमूद (1395-1412 ई.)
#गयासुद्दीन_तुगलक (1320-25 ई.)
यह दिल्ली सल्तनत पर तुगलक वंश की स्थापना करने वाला प्रथम शासक था। इसका पूर्व नाम गाजी मलिक था, जिसने दिल्ली सल्तनत के सिंहासन पर बैठने के बाद अपना नाम गयासुद्दीन कर लिया। गयासुद्दीन 8 सितंबर 1320 को यह दिल्ली की गद्दी पर बैठा और अगले पांच वर्ष तक शासन किया। वह पहला एेसा शासक था, जिसने अपने नाम के साथ गाजी शब्द (काफिरों का वध करने वाला) जोड़ा था। इसे तुगलक गाजी भी कहते थे। उसने मंगोलों के 23 आक्रमण विफल किए थे।
🔹गयासुद्दीन तुगलक के सुधार
▪️गयासुद्दीन तुग़लक़ ने आर्थिक सुधार के अन्तर्गत अपनी आर्थिक नीति का आधार संयम, सख्ती एवं नरमी के मध्य संतुलन (रस्म-ए-मियान) को बनाया।
▪️उसने लगान के रूप में उपज का 1/10 या 1/12 हिस्सा ही लेने का आदेश जारी कराया।
▪️ग़यासुद्दीन ने मध्यवर्ती ज़मीदारों विशेष रूप से मुकद्दम तथा खूतों को उनके पुराने अधिकार लौटा दिए, जिससे उनको वही स्थिति प्राप्त हो गयी, जो बलबन के समय में प्राप्त थी।
▪️ग़यासुद्दीन ने अमीरों की भूमि पुनः लौटा दी।
उसने सिंचाई के लिए कुँए एवं नहरों का निर्माण करवाया। सम्भवतः नहर का निर्माण करवाने वाला ग़यासुद्दीन प्रथम सुल्तान था।
▪️सल्तनत काल में डाक व्यवस्था को सुदृढ़ करने का श्रेय ग़यासुद्दीन तुग़लक़ को ही जाता है।
▪️अलाउद्दीन ख़िलजी की कठोर नीति के विरुद्ध उसने उदारता की नीति अपनायी, जिसे बरनी ने ‘रस्मेमियान’ अथवा ‘मध्यपंथी नीति’ कहा है।
▪️उसने अलाउद्दीन ख़िलजी द्वारा चलाई गयी दाग़ने तथा चेहरा प्रथा को प्रभावी तरीक़े से लागू किया।
🔹महत्त्वपूर्ण विजय
▪️वारंगल व तेलंगाना की विजय (1324 ई.)
▪️तिरहुती विजय, मंगोल विजय (1324 ई.)
🔹निर्माण कार्य
▪️तुग़लक़ाबाद नामक एक दुर्ग की नींव रखी।
🔹मृत्यु
▪️जब ग़यासुद्दीन तुग़लक़ बंगाल अभियान से लौट रहा था, तब लौटते समय तुग़लक़ाबाद से 8 किलोमीटर की दूरी पर स्थित अफ़ग़ानपुर में एक महल में सुल्तान ग़यासुद्दीन के प्रवेश करते ही वह महल गिर गया, जिसमें दबकर उसकी मार्च, 1325 ई. को मुत्यृ हो गयी।
ग़यासुद्दीन तुग़लक़ का मक़बरा तुग़लक़ाबाद में स्थित है।
#मोहम्मद_तुगलक (1325-51 ई.)
मुहम्मद बिन तुग़लक़ दिल्ली सल्तनत में तुग़लक़ वंश का शासक था। ग़यासुद्दीन तुग़लक़ की मृत्यु के बाद उसका पुत्र ‘जूना ख़ाँ’, मुहम्मद बिन तुग़लक़ (1325-1351 ई.) के नाम से दिल्ली की गद्दी पर बैठा। इसका मूल नाम ‘उलूग ख़ाँ’ था। मध्यकालीन सभी सुल्तानों में मुहम्मद तुग़लक़ सर्वाधिक शिक्षित, विद्वान एवं योग्य व्यक्ति था। इसके अलावा वह पर्सियन कविता का बहुत बड़ा प्रशंसक था। उसकी सोच उसके समय से बहुत आगे थी। उसने बहुत सारे विचारो पर मंथन किया लेकिन उन विचारो के क्रियान्वयन से जुड़े उसके पैमाने बहुत मजबूत और टिकाऊ नहीं थे इसीलिए वह असफल रहा। उसने अपने राज्य में मध्य राजधानी की स्थापना और टोकन करेंसी (प्रतीक मुद्रा) के रूप में विभिन्न प्रयोग किये लेकिन वह पूरी तरह से असफल रहा। अपनी सनक भरी योजनाओं के कारण इसे ‘स्वप्नशील’, ‘पागल’ एवं ‘रक्त-पिपासु’ कहा गया है।
🔹मुहम्मद बिन तुग़लक़ के कार्य
▪️दोआब क्षेत्र में कर वृद्धि (1326-27 ई.) – मुहम्मद तुग़लक़ ने दोआब के ऊपजाऊ प्रदेश में कर की वृद्धि कर दी (संभवतः 50 प्रतिशत), परन्तु उसी वर्ष दोआब में भयंकर अकाल पड़ गया, जिससे पैदावार प्रभावित हुई। तुग़लक़ के अधिकारियों द्वारा ज़बरन कर वसूलने से उस क्षेत्र में विद्रोह हो गया, जिससे तुग़लक़ की यह योजना असफल रही। मुहम्मद तुग़लक़ ने कृषि के विकास के लिए ‘दिवाण-ए- अमीर कोही’ नामक एक नवीन विभाग की स्थापना की। सरकारी कर्मचारियों के भ्रष्टाचार, किसानों की उदासीनता, भूमि का अच्छा न होना इत्यादि कारणों से कृषि उन्नति सम्बन्धी अपनी योजना को तीन वर्ष पश्चात् समाप्त कर दिया। मुहम्मद बिन तुग़लक़ ने किसानों को बहुत कम ब्याज पर ऋण (सोनथर) उपलब्ध कराया।
▪️राजधानी परिवर्तन (1326-27 ई.) – तुग़लक़ ने अपनी योजना के अन्तर्गत राजधानी को दिल्ली से देवगिरि स्थानान्तरित किया। देवगिरि को “कुव्वतुल इस्लाम” भी कहा गया। सुल्तान कुतुबुद्दीन मुबारक ख़िलजी ने देवगिरि का नाम ‘कुतुबाबाद’ रखा था और मुहम्मद बिन तुग़लक़ ने इसका नाम बदलकर दौलताबाद कर दिया। सुल्तान की इस योजना के लिए सर्वाधिक आलोचना की गई। मुहम्मद तुग़लक़ की यह योजना भी पूर्णतः असफल रही और उसने 1335 ई. में दौलताबाद से लोगों को दिल्ली वापस आने की अनुमति दे दी। राजधानी परिवर्तन के परिणामस्वरूप दक्षिण में मुस्लिम संस्कृति का विकास हुआ, जिसने अंततः बहमनी साम्राज्य के उदय का मार्ग खोला।
▪️सांकेतिक मुद्रा का प्रचलन (1329-30 ई.) – इस योजना के अन्तर्गत मुहम्मद तुग़लक़ ने सांकेतिक व प्रतीकात्मक सिक्कों का प्रचलन करवाया। मुहम्मद तुग़लक़ ने ‘दोकानी’ नामक सिक्के का प्रचलन करवाया। सांकेतिक मुद्रा के अन्तर्गत सुल्तान ने संभवतः पीतल (फ़रिश्ता के अनुसार) और तांबा (बरनी के अनुसार) धातुओं के सिक्के चलाये, जिसका मूल्य चांदी के रुपये टका के बराबर होता था। सिक्का ढालने पर राज्य का नियंत्रण नहीं रहने से अनेक जाली टकसाल बन गये। लगान जाली सिक्के से दिया जाने लगा, जिससे अर्थव्यवसथा ठप्प हो गई। सांकेतिक मुद्रा चलाने की प्रेरणा चीन तथा ईरान से मिली। वहाँ के शासकों ने इन योजनाओं को सफलतापूर्वक चलाया, जबकि मुहम्मद तुग़लक़ का प्रयोग विफल रहा। सुल्तान को अपनी इस योजना की असफलता पर भयानक आर्थिक क्षति का सामना करना पड़ा।
▪️खुरासन एवं काराचिल का अभियान
▪️चौथी योजना के अन्तर्गत मुहम्मद तुग़लक़ के खुरासान एवं कराचिल विजय अभियान का उल्लेख किया जाता है। खुरासन को जीतने के लिए मुहम्मद तुग़लक़ ने 3,70,000 सैनिकों की विशाल सेना को एक वर्ष का अग्रिम वेतन दे दिया, परन्तु राजनीतिक परिवर्तन के कारण दोनों देशों के मध्य समझौता हो गया, जिससे सुल्तान की यह योजना असफल रही और उसे आर्थिक रूप से हानि उठानी पड़ी।
▪️कराचिल अभियान के अन्तर्गत सुल्तान ने खुसरो मलिक के नेतृत्व में एक विशाल सेना को पहाड़ी राज्यों को जीतने के लिए भेजा। उसकी पूरी सेना जंगली रास्तों में भटक गई, इब्न बतूता के अनुसार अन्ततः केवल दस अधिकारी ही बचकर वापस आ सके। इस प्रकार मुहम्मद तुग़लक़ की यह योजना भी असफल रही।
🔹मृत्यु
▪️अपने शासन काल के अन्तिम समय में जब सुल्तान मुहम्मद तुग़लक़ गुजरात में विद्रोह को कुचल कर तार्गी को समाप्त करने के लिए सिंध की ओर बढ़ा, तो मार्ग में थट्टा के निकट गोंडाल पहुँचकर वह गंभीर रूप से बीमार हो गया। यहाँ पर सुल्तान की 20 मार्च 1351 को मृत्यु हो गई।
#फिरोज_शाह_तुगलक (1351-88 ई.)
फ़िरोज़ शाह तुगलक 45 वर्ष की उम्र में दिल्ली सल्तनत की गद्दी पर बैठा। उसके पिता का नाम रज्ज़ब था जोकि गियासुद्दीन तुगलक का छोटा भाई था जबकि उसकी माता दीपालपुर की राजकुमारी थी। गद्दी पर बैठने के बाद उसने बहुत सारे उन निर्णयों को वापस ले लिया जोकि उसके पूर्व के शासक के द्वारा लिए गए थे। उसने शरियत के अनुसार शासन किया और शरियत में जिन करों का उल्लेख नहीं किया गया था उसे बंद कर दिया।
🔹फ़िरोज़ शाह तुग़लक़ के कार्य
▪️राजस्व व्यवस्था के अन्तर्गत फ़िरोज़ ने अपने शासन काल में 24 कष्टदायक करों को समाप्त कर दिया और केवल 4 कर ‘ख़राज’ (लगान), ‘खुम्स’ (युद्ध में लूट का माल), ‘जज़िया’, एवं ‘ज़कात’ (इस्लाम धर्म के अनुसार अढ़ाई प्रतिशत का दान, जो उन लोगों को देना पड़्ता है, जो मालदार हों और उन लोगों को दिया जाता है, जो अपाहिज या असहाय और साधनहीन हों) को वसूल करने का आदेश दिया।
▪️उलेमाओं के आदेश पर सुल्तान ने एक नया सिंचाई (हक ए शर्ब) कर भी लगाया, जो उपज का 1/10 भाग वसूला जाता था।
▪️सुल्तान ने सिंचाई की सुविधा के लिए 5 बड़ी नहरें यमुना नदी से हिसार तक 150 मील लम्बी सतलुज नदी से घग्घर नदी तक 96 मील लम्बी सिरमौर की पहाड़ी से लेकर हांसी तक, घग्घर से फ़िरोज़ाबाद तक एवं यमुना से फ़िरोज़ाबाद तक का निर्माण करवाया।
▪️उसने फलो के लगभग 1200 बाग़ लगवाये।
▪️आन्तरिक व्यापार को बढ़ाने के लिए अनेक करों को समाप्त कर दिया।
▪️नगर एवं सार्वजनिक निर्माण कार्यों के अन्तर्गत सुल्तान ने लगभग 300 नये नगरों की स्थापना की।
▪️जौनपुर नगर की नींव फ़िरोज़ ने अपने चचेरे भाई ‘फ़खरुद्दीन जौना’ (मुहम्मद बिन तुग़लक़) की स्मृति में डाली थी।
▪️उसके शासन काल में ख़िज्राबाद एवं मेरठ से अशोक के दो स्तम्भलेखों को लाकर दिल्ली में स्थापित किया गया।
▪️अपने कल्याणकारी कार्यों के अन्तर्गत फ़िरोज़ ने एक रोज़गार का दफ्तर एवं मुस्लिम अनाथ स्त्रियों, विधवाओं एवं लड़कियों की सहायता हेतु एक नये ‘दीवान-ए-ख़ैरात’ नामक विभाग की स्थापना की।
▪️दारुल-शफ़ा’ (शफ़ा=जीवन का अंतिम किनारा, जीवन का अंतिम भाग) नामक एक राजकीय अस्पताल का निर्माण करवाया, जिसमें ग़रीबों का मुफ़्त इलाज होता था।
▪️फ़िरोज़ के शासनकाल में दासों की संख्या लगभग 1,80,000 पहुँच गई थी। इनकी देखभाल हेतु सुल्तान दे ‘दीवान-ए-बंदग़ान’ की स्थापना की।
🔹संरक्षण
▪️शिक्षा प्रसार के क्षेत्र में सुल्तान फ़िरोज़ ने अनेक मक़बरों एवं मदरसों की स्थापना करवायी। उसने ‘जियाउद्दीन बरनी’ एवं ‘शम्स-ए-सिराज अफीफ’ को अपना संरक्षण प्रदान किया।
▪️बरनी ने ‘फ़तवा-ए-जहाँदारी’ एवं ‘तारीख़-ए-फ़िरोज़शाही’ की रचना की।
▪️फ़िरोज़ ने अपनी आत्मकथा ‘फुतूहात-ए-फ़िरोज़शाही’ की रचना की।
🔹मृत्यु
▪️फ़िरोज़ शाह तुगलक की मृत्यु सितम्बर 1388 ई. में हुई थी। हौज़खास परिसर, दिल्ली में उसे दफ़ना दिया गया।
#मोहम्मद_खान (1388 ई.)
फ़िरोज़ शाह तुगलक की मृत्यु 1388 ई. में हुई थी। उसके बाद दिल्ली सल्तनत में कुछ दिनों के लिए मोहमद खान ने दिल्ली में शासन किया और कुछ दिनों के भीतर ही उनकी हत्या कर दी गई।
#गयासुद्दीन_तुगलक_शाह II (1388 ई.)
फ़िरोज़ शाह तुगलक और मोहमद खान के हत्या के बाद दिल्ली सल्तनत में फ़िरोज़ शाह तुगलक का पोता गियासुद्दीन अगला शासक बना लेकिन 5 महीने के अल्प शासन के बाद उसकी हत्या कर दी गयी।
#अबू_बाकर (1389-90 ई.)
गयासुद्दीन तुगलक शाह II की हत्या करके फ़रवरी 1389 ई. में जफ़र खां के पुत्र अबू बक्र स्वयं सुल्तान बन गया।
#नसीरुद्दीन_मोहम्मद_शाह (1390-94 ई.)
तुगलक शाह की हत्या कर अबू बक्र ने 1389 ई. में सल्तनत पर शासन का आरम्भ किया। दिल्ली के कोतवाल, मुलतान, समाना, लाहौर के अक्त्तादारों ने मुहमद शाह को सहयोग देकर 1390 ई. में अबू बक्र को शासन से हटा दिया और नासिरुद्दीन मुहम्मद शाह स्वयं शासक बन गया। नासिरुद्दीन मुहम्मद शाह ने 1390 से 1394 ई. तक शासन किया।
#हूंमायू (1394-95 ई.)
नासिरुद्दीन मुहम्मद शाह के दिल्ली सल्तनत में उनका पुत्र हुंमायू ने लगभग 3 माह तक शासक किया और उसकी मृत्यु हो गई।
#नसीरुद्दीन_महमूद_शाह (1395-1412 ई.)
मार्च 1394 ई. में दिल्ली सल्तनत का शासक महमूद शाह बना। उसकी दुर्दशा को देखकर व्यंग्य से कहा जाता था – “विश्व के सम्राट तुगलकों का राज्य दिल्ली से पालम तक फैला हुआ था।” 17 दिसम्बर, 1398 ई. को तैमूर का आक्रमण दिल्ली पर हो गया तथा सुल्तान स्वयं गुजरात भाग गया। पुनः वजीर मल्लू खां ने सुल्तान को दिल्ली बुलाकर गद्दी पर बिठाया। सन 1412 ई. में महमूद शाह की मृत्यु हो गई, जिससे तुगलक वंश का अंत हो गया।
#मध्यकालीन_भारत_का_इतिहास :
#चौहान_वंश
चौहान वंश की स्थापना वासुदेव द्वारा 551 ई0 में सपादलक्ष के क्षेत्र में की गयी थी। वासुदेव को ही चौहानों का आदि पुरूष भी कहा जाता है। संभार झील का बिजोलिया शिलालेख चौहान वंश की स्थापना के सम्बन्ध में जानकारी देता है। chauhan dynasty notes in hindi.
#चौहान_वंश_के_प्रमुख_राजाओं_की_सूची_
#निम्नवत_है –
▪️वासुदेव – इन्होंने 551 ई० में चौहान वंश की स्थापना की।
▪️राजा अजयराज(1105-1133 ई०) – इन्होंने ही 1113 ई० में अजमेर नगर की स्थापना की थी
▪️सोमदेव विग्रहराज चतुर्थ(1158-1164) – इनको बीसलदेव के नाम से भी संबोधित किया जाता था। इनके काल को चौहान वंश का स्वर्णिम काल भी कहा जाता है, इन्होंने अपने राज्य का विस्तार दिल्ली तक किया। इन्होंने अजमेर में एक संस्कृत विद्यालय का निर्माण कराया था। जिसे कुतुबुद्दीन ऐबक ने तोड़कर ढाई दिन का झोंपड़ा बनवा दिया।
▪️पृथ्वीराज चौहान तृतीय(1178-1192 ई०) – ये इस वंश के एक शक्तिशाली राजा थे। इनका राज अजमेर से दिल्ली तक था।
#पृथ्वीराज_चौहान_तृतीय (1178-1192)
▪️इनका जन्म अजमेर राज्य के राजा सोमेश्वर के यहां हुआ था। इनकी माता का नाम कर्पूरदेवी था।
▪️पृथ्वीराज चौहान की कुल 12 पत्नियां थी जिनमें से संयोगिता प्रसिद्धतम है। संयोगिता कन्नौज साम्राज्य के राजा जयचन्द्र की पुत्री थी।
▪️तराईन का प्रथम युद्ध 1191 पृथ्वीराज चौहान और मोहम्मद गोरी मध्य हुआ था। इस युद्ध में मोहम्मद गोरी की बुरी तरह हार हुई।
▪️मोहम्मद गोरी का असली नाम मोहम्मद बिन शाम था तथा इसका भारत पर आक्रमण करने का प्रमुख उद्देश्य एक मुस्लिम राष्ट्र स्थापित करना था। ये अफगानिस्तान के ‘गोमल दर्रे’ से होता हुआ भारत आया था। गोमल दर्रा वर्तमान में अफगानिस्तान व पाकिस्तान के मध्य से गुजरने वाली ‘डूरंड रेखा’ पर स्थित है। अफगानिस्तान को पहले ‘घोर’ कहा जाता था इसलिए मोहम्मद बिन शाम, ‘घोरी’ कहा जाने लगा जो कालान्तर में ‘गोरी’ बन गया।
▪️गोमल दर्रे से आते हुए पहले इसने मुलतान फिर कच्छ पर विजय प्राप्त की।
▪️तराईन का दूसरा युद्ध (1192 ई०) में हुआ था। जिसमें मोहम्मद गोरी ने पृथ्वीराज चौहान को बुरी तरह से पराजित किया तथा पृथ्वीराज की मृत्यु हो गयी।
▪️मोहम्मद गोरी ने एक और शक्तिशाली कन्नौज राजपूत शासक जयचंद को 1194 ई० को चंदावर के युद्ध में पराजित किया।
▪️झेलम क्षेत्र में नदी के किनारे मोहम्मद गोरी को खोखर नामक जाट कबीले के लोगों ने अपने ऊपर 1205 ई० में हुए हमलों का बदला लेने के लिए 1206 ई० में मार डाला।
▪️मोहम्मद गोरी की मृत्यु के बाद उसकी कोई संतान न होने के कारण उसके गुलाम कुतुबुद्दीन ऐबक ने अपना राज वंश स्थापित किया। जिसे मामलूक या गुलाम वंश के नाम से जाना जाता है।
#आधुनिक_भारत_का_इतिहास :
#बिजोलिया_किसान_आंदोलन
भारत के इतिहास का सबसे लंबा अहिंसक किसान आदोलन के रूप में प्रख्यात बिजोलिया किसान आंदोलन मेवाड़ क्षेत्र के बिजोलिया (प्राचीन नाम विजयावल्ली) में हुआ था। बिजोलिया ठिकाना उपरमाल की जागीर के अन्तर्गत आता था। उपरमाल की इस जागीर को राणा सांगा द्वारा अशोक परमार नाम के व्यक्ति को खाण्वा के युद्ध में साथ देने के लिए उपहार उपहार स्वरूप दिया गया था।
मूल रूप से यहां पर सर्वाधिक किसान धाकड़ जाति के थे। ठिकानेदार द्वारा किसानों पर विभिन्न प्रकार के 84 दमनकारी (लाग, बाग, बेगार, लाटा, कूंता, चवरी, तलवार बंधाई) कर लगे हुये थे। 1894 ई0 में राव कृष्ण सिंह नया ठिकानेदार बना। इन करो से प्रताणित किसानों को नए ठिकानेदार से करों में राहत करने की उम्मीद थी परन्तु 1897 ई0 तक करों में कोई भी कमी नहीं की गयी। अतः इसी वर्ष 1897 ई0 से ही इस आंदोलन की नींव पड़ी।
#बिजोलिया_किसान_आंदोलन_के_चरण
इस आंदोलन को तीन चरणों में नेतृत्व के आधार पर बाँट कर समझा जा सकता है –
#प्रथम_चरण_1897_1916
#नेतृत्व_साधु_सीतारम_दास
वर्ष 1897 में इसी जागीर के एक गांव गिरधरपुर में एक पंचायत बुलाकर साधु सीतारामदास की अध्यक्षता में यह निर्णय लिया गया कि वर्तमान ठिकानेदार रावकृष्ण सिंह की मेवाड़ के महाराणा से शिकायत की जायेगी। इस कार्य हेतु ठाकरी पटेल एवं नानजी पटेल को नियुक्त किया गया। इस शिकायत पर मेवाड़ महाराणा ने अपने जांच अधिकारी हामिदहुसैन को नियुक्त किया परन्तु जांच उपरान्त कोई भी कार्यवाही नहीं हुई।
जांच उपरान्त कोई भी कार्यवाही नहीं होने से बिजोलिया ठिकाने के ठिकानेदार रावकृष्ण सिंह के हौसले और बुलंद हो गये एवं उसने प्रतिशोधवश शिकायत करने वाले ठाकरी पटेल एवं नानजी पटेल को मेवाड़ से निष्काशित करा दिया। साथ ही वर्ष 1903 ई0 में चंवरी नामक एक नया कर लागू कर दिया जिसके अन्तर्गत लड़की की शादी हेतु 5 रू0 का नकद कर का प्रावधान था।
वर्ष 1906 ई0 में रावकृष्ण सिंह के निःसंतान निधन हो जाने के बाद, रावपृथ्वी सिंह इसका उत्तराधिकारी बना। ठिकानेदार बनते ही उसने तलवार बंधाई कर (उत्तराधिकार कर) लागू कर दिया। जिसका किसानों द्वारा पुरजोर विरोध किया गया।
#द्वितीय_चरण_1916_1923 –
#नेतृत्व_विजय_सिंह_पथिक
वर्ष 1916 ई0 में साधुसीताराम दास के आग्रह पर विजय सिंह पथिक इस आंदोलन से जुडें और इस आंदोलन का नेतृत्व संभाला। इनका मूल नाम भूपसिंह था एवं यह बुलंदशहर (उ0प्र0) के निवासी थे। 1917 ई0 में इनके द्वारा सावन-अमावस्या के दिन उपरामल पंचबोर्ड (13 सदस्य) का गठन किया गया। इस पंचबोर्ड के सरपंच के पद पर मन्ना पेटल को नियुक्त किया गया।
1918 ई0 में विजय सिंह बम्बई में गाँधी जी से मिले तथा इस आंदोलन से अवगत कराया। गाँधी जी इनसे बहुत प्रभावित हुए एवं इन्हे राष्ट्रीय पथिक की उपाधी दी। गाँधी जी ने अपने महासचिव महादेव देशाई को इस आंदोलन की जांच हेतु भेजा।
यहीं 1919 ई0 में विजय सिंह द्वारा वर्धा महाराष्ट्र से राजस्थान केसरी नामक एक पत्र निकाला गया, साथ ही इसी वर्ष यही पर राजस्थान सेवक संघ की स्थापना भी इनके द्वारा की गयी। आगे चल कर कानपुर से छपने वाले समाचार पत्र के माध्यम से बिजोलिया किसान आंदोलन को पुरे भारत वर्ष में फैला दिया गया।
गांधी जी द्वारा इस आंदोलन में रूचि लेने के कारण ब्रिटिश सरकार ने वर्ष 1918-19 में एक और जांच आयोग का गठन बिन्दुलाला भट्टाचार्य की अध्यक्षता में किया। इसी आयोग द्वारा जांच के उपरान्त करों में कुछ कमी की गयी।
10 सितम्बर 1923 में विजय सिंह पथिक को बेंगू नामक एक अन्य किसान आंदोलन से जुडने के कारण गिरफ्तार कर लिया गया।
#तृतीय_चरण_1927_1941 –
#नेतृत्व_माणिक्य_लाल_वर्मा
1927 ई0 से माणिक्य लाल वर्मा ने बिजोलिया किसान आंदोलन का नेतृत्व संभाला। इसमें हरिभाऊ उपाध्याय एवं जमनालाल बजाज ने इनका साथ दिया। 1941 ई0 में माणिक्य लाल वर्मा एवं मेवाड़ के प्रधानमंत्री सर टी0 विजय राघवाचार्य के मध्य एक समझौता हुआ जिसके अन्तर्गत किसानों की सभी मांगे मान ली गयी तथा 44 वर्ष से चल रहे इस आंदोलन का अंत हुआ।
बिजोलिया आंदोलन अपने अहिंसक स्वरूप के कारण अन्य किसान आंदोलनों से अलग था। माणिक्य लाल वर्मा का “पंछिड़ा” गीत जिसने किसानों में जोश भर दिया इसके कुछ प्रमुख बिन्दु रहें। इस आंदोलन में महिलाओं ने भी बढ़-चढ़ कर भाग लिया, जिनमें से अंजना देवी चौधरी, नारायण देवी वर्मा व रमा देवी प्रमुख थीं। अंततः किसानों की जीत के साथ 44 वर्षो तक चले भारत के इस किसान आंदोलन का अंत हुआ।
#आधुनिक_भारत_का_इतिहास :
#नील_आंदोलन_चंपारण_आंदोलन
नील आंदोलन, नील की जबरन खेती के विरूद्ध एक किसान आंदोलन था। ये आंदोलन भारतीय स्वाधीनता आंदोलन में एक मील का पत्थर साबित हुआ। इससे पहले भी समय समय पर नील की खेती के खिलाफ आंदोलन होते रहे थे।
#1859_का_नील_आंदोलन:- वर्ष 1859-60 में बंगाल में निलहे साहबों ने “ददनी” नामक व्यवस्था लागू कर रखी थी। जिसके अन्तर्गत 2रू० प्रति बीघा की दर से खेती करने के लिए किसानों को बाध्य किया जाता था। इसके विरूद्ध बंगाल में आंदोलन हुए तथा बाद में अंग्रेजों द्वारा एक नील आयोग का गठन किया गया जिसका अध्यक्ष सचिन सीटनंकर को बनाया गया। इस आयोग की रिपोर्ट के बाद बंगाल में जबरन नील की खेती पर प्रतिबंध लगा दिया गया।
#चंपारण_आंदोलन:- 20 वी सदी की शुरुआत में इस क्षेत्र में निलहे साहबों द्वारा अंग्रेजी सरकार की सहायता से “तीनकठिया” व्यवस्था लागू कर रखी थी। इस व्यवस्था के अन्तर्गत 1 बीघा भूमि के अन्तर्गत आने वाली बीस कठ्ठे (स्थानीय भूमि माप का पैमाना) में से तीन कठ्ठों में नील की खेती करना अनिवार्य था।
#चंपारण_नील_आंदोलन_के_नेता
चंपारण नील आंदोलन का नेतृत्व सबसे पहले पं० राजकुमार शुक्ल द्वारा किया गया। उन्होंने एक किसान होने के नाते इस शोषण को स्वयं झेला था। अतः उन्होंने इसके खिलाफ आवाज उठाना शुरू किया। वर्ष 1915 में जब महात्मा गांधी जी का भारत आगमन हुआ तब वे गांधी जी से कलकत्ता, कानपुर एवं लखनऊ में मिले तथा उन्हें चंपारण में हो रहे अत्याचार से अवगत कराया एवं उन्हें चंपारण आकर इस आंदोलन में शामिल होने के लिए आमंत्रित किया।
#गांधी_जी_का_चंपारण_आगमन_कब_हुआ ?
गांधी जी पंडित राजकुमार शुक्ल के आमंत्रण पर 10 अप्रैल 1917 को बांकीपुर पहुंचे और फिर मुजफ्फरपुर होते हुए 15 अप्रैल को 1917 को बिहार के चंपारण पहुँचे। तत्कालीन समय चम्पारण बिहार राज्य का एक ज़िला हुआ करता था जिसे अब दो ज़िलों पूर्वी चम्पारण जिला और पश्चिमी चम्पारण जिला में बाँट दिया गया है।
#चंपारण_आंदोलन_कब_हुआ ?
चंपारण आंदोलन 19 अप्रैल 1917 को शुरू हुआ था। जिसका नेतृत्व गांधी जी ने किया। नील की खेती के विरोध में चल रहे नील आंदोलन को ही जब गांधी जी ने बिहार के चम्पारण से शुरू किया तो इसे चम्पारण आंदोलन या चम्पारण सत्याग्रह के नाम से जाना जाने लगा।
गांधी जी को चंपारण के किसानों के साथ-साथ बिहार के बड़े वकीलों का भी सहयोग प्राप्त हुआ। गांधी जी ने कई जन सभाएँ की, नीलहे साहबों के साथ कई बैठके की तथा इसकी जानकारी वे अंग्रेज पदाधिकारियों को पत्रों के माध्यम से देते रहे। यह आंदोलन कुल एक वर्ष तक चला तथा अंत में ब्रिटिश सरकार द्वारा एक जांच समिति गठित की गयी, जिसमें गाँधी जी को भी सदस्य बनाया गया। जिसके फलस्वरूप चंपारण कृषि अधिनियम-1918 बना तथा किसानों को नील की खेती की बाध्यता से मुक्ति मिली।
इसी आंदोलन के दौरान गाँधी जी की मुलाकात डॉ. राजेंद्र प्रसाद से हुई जो आगे चलकर भारत के प्रथम राष्ट्रपति बने।
#चंपारण_आंदोलन_के_सफलता_के_कारण
▪️सत्य एवं अहिंसा पर आधारित अहिंसक आंदोलन होना – गांधी जी के नेतृत्व में चलाया गया चंपारण आंदोलन शांतिपूर्ण अहिंसक आंदोलन था। जिस कारण ब्रिटिश सरकार को उसका दमन कर पाना कठिन पड़ रहा था।
▪️आंदोलन का सही प्रचार एवं प्रसार होना – तत्कालीन समाचार पत्रों द्वारा चंपारण आंदोलन को प्रमुखता से छापा गया। जिससे आंदोलन की लोकप्रियता किसानों में बढ़ी और शिक्षित वर्ग भी गांधी जी के इस आंदोलन से जुड़ता चला गया।
▪️वकीलों का सहयोग प्राप्त होना – क्योंकि गांधी जी भी स्वयं बैरिस्टर (वकील) थे, इसलिए उन्हें बिहार के बड़े वकीलों से काफी सहयोग प्राप्त हुआ।
#चंपारण_आंदोलन_के_परिणाम
▪️किसानों को तीनकठिया व्यवस्था/नीलहे साहब एवं दमनकारी ब्रिटिश कृषि नीतियों से छुटकारा मिला – किसान अब नील की खेती के लिए बाध्य नहीं था। अब किसान अपनी इच्छा अनुसार नगदी फसलों की कृषि को करने के लिए स्वतंत्र था।
▪️विकास की प्रारंभिक पहल – इस आंदोलन के दौरान गांधी जी भारतीयों को यह समझाने में सफल हुए कि स्वच्छता स्वतंत्रता से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है। साथ ही चंपारण में पाठशाला, चिकित्सालय, खादी संस्था, आश्रम भी स्थापित किए जिससे वहां का प्रारंभिक विकास शुरू हुआ।
▪️गांधी जी के महात्मा बनने का सफर – इसी आंदोलन से मोहन दास करम चन्द्र गांधी का महात्मा बनने का सफर भी शुरू हुआ। इस आंदोलन के आगमन के साथ ही उनका व्यक्तित्व मोहन दास करमचंद गाँधी से महात्मा गाँधी की तरफ अग्रसर हुआ।
▪️किसानों का आत्म विश्वास बढ़ा – इस आंदोलन से पहले चंपारण के किसानों की मनोस्थिति आत्महत्या करने की हो चली थी। पर गांधी जी द्वारा सम्पादित इस सफल आंदोलन के बाद भारतीय किसानों का आत्मविश्वास बढ़ा और उन्हें सत्याग्रह एवं एकता की शक्ति का आभास हुआ।
▪️स्वतंत्रता आंदोलन में सहायक – चंपारण आंदोलन में सत्याग्रह का भारत के राष्ट्रीय स्तर पर प्रथम प्रयोग सफल रहा। अहिंसक होने के कारण ब्रिटिश सरकार को भी इसके आगे झुकना पड़ा। यह भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में एक मील का पत्थर साबित हुआ। यह माना जाने लगा कि अगर एकता के साथ सत्याग्रह किया जाये तो अंग्रेजों को भारत छोड़ने के लिए विवश करा जा सकता है।
#मध्यकालीन_भारत_का_इतिहास :
#मामलूक_या_गुलाम_वंश
कुतुबुदीन ऐबक, मुहम्मद गौरी का गुलाम था। उसने भारत में जिस राजवंश की स्थापना की उसे गुलाम वंश (Slave Dynasty) कहते है। इस वंश ने 1206 से 1290 ई. तक 84 साल तक राज किया। इस वंश के शासक या संस्थापक ग़ुलाम (दास) थे न कि राजा। इस लिए इसे राजवंश की बजाय सिर्फ़ वंश कहा जाता है।
#इस_वंश_के_शासक_निम्नलिखित_थे : –
▪️कुतुबुद्दीन ऐबक (1206 – 1210)
▪️आरामशाह (1210)
▪️इल्तुतमिश (1210 – 1236)
▪️रूकुनुद्दीन फ़ीरोज़शाह (1236)
▪️रजिया सुल्तन (1236 – 1240)
▪️मुईज़ुद्दीन बहरामशाह (1240 – 1242)
▪️अलाऊद्दीन मसूदशाह (1242 – 1246)
▪️नासिरूद्दीन महमूद (1246 – 1266)
▪️गयासुद्दीन बलबन (1266 – 1286)
▪️कैकुबाद (1286 – 1290)
▪️शमशुद्दीन क्यूम़र्श (1290)
#कुतुबुद्दीन_ऐबक –(1206 – 1210 ई.)
कुतुबुदीन ऐबक दिल्ली सल्तनत का पहला सुल्तान था। इसी को ही दिल्ली गुलाम वंश का संस्थापक कहा जाता है, कुतुबुदीन ऐबक मुहमंद गौरी का गुलाम था। जब मुहमंद गौरी ने भारत में लूटपाट कर के वापिस अफगान गया तो उसने भारत में अपने दासों को नियुक्त किया जो भारत में उसके नाम से शासन करे।
🔹शासनकाल – 1206 – 1210 ई.
🔹राज्यारोहण – मुहमंद गौरी की मृत्यु के बाद 25 जून 1206 ई. को कुतुबुदीन ऐबक का अनोपचारिक राज्यारोहण लाहोर में हुआ। उसने लाहोर को अपनी राजधानी बनाया था।
🔹गुरु – ख्वाजा कुतुबुद्दीन बख्तियार काका।
🔹प्रमुख_योगदान
▪️दिल्ली सल्तनत की स्थापना की।
▪️दानवीर और उदार होने के कारण ‘लाखबख्श’ के नाम से भी जाना जाता था।
▪️साहित्य और कला का संरक्षक था।
▪️फर्रुखमुद्दार एवं हसन निजामी उसके दरवार के प्रसिद्ध विद्वान थे।
🔹निर्माण_कार्य
▪️दो प्रसिद्ध मस्जिद दिल्ली का कुबत-उल-इस्लाम और अजमेर का ढाई दिन का झोंपड़ा बनवाया।
▪️अपने गुरु ख्वाजा कुतुबुद्दीन बख्तियार काका के स्मृति में कुतुबमीनार का एक मंजिल का निर्माण कराया (इसके मृत्यु के कारण यह अधुरा ही बन पाया)। इसे इल्तुतमिश ने पूरा किया था।
🔹दामाद – इल्तुतमिश ।
🔹पुत्र – आरामशाह (कई इतिहासकार इसे कुतुबुदीन ऐबक का पुत्र नहीं मानते है)।
🔹मृत्यु – नवम्बर 1210 ई. में लाहोर में चोगान (पोलो) खेलते समय घोड़े से गिर जाने के कारण मृत्यु हो गई।
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#आरामशाह – (1210 ई.)
कुतुबुदीन ऐबक के आकस्मिक मृत्यु के बाद तुर्की सरदारों ने उनके पुत्र आरामशाह को 1210 ई. में लाहौर ने सुल्तान बना दिया। उसी बीच कुबाचा और खिलजियों के आक्रमण को आरामशाह नियंत्रण नही कर सका। जिसके फलस्वरूप बदायूं के गवर्नर, इल्तुतमिश को, जो कुतुबुदीन ऐबक का दामाद था तुर्की सरदारों ने सुल्तान बनाना चाहा, जिसका विरोध आरामशाह ने किया। इल्तुतमिश ने आरामशाह को मारकर सत्ता पर अधिकार कर लिया।
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#इल्तुतमिश –(1210 – 1236 ई.)
इल्तुतमिश तुर्किस्तान की इल्बरी काबिले का था। इसका असली नाम ‘अलतमश’ था। खोखरों के विरुद्ध इल्तुतमिश की कार्य कुशलता से प्रभावित होकर मुहम्मद ग़ोरी ने उसे ‘अमीरूल उमरा’ नामक महत्त्वपूर्ण पद दिया था। इसने 1210 ई. से 1236 ई. तक शासन किया। राज्याभिषेक समय से ही अनेक तुर्क अमीरउसका विरोध कर रहे थे।
सुल्तान का पद प्राप्त करने के बाद इल्तुतमिश को कुछ कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। इसके अन्तर्गत इल्तुतमिश ने सर्वप्रथम ‘कुल्बी’ अर्थात कुतुबद्दीन ऐबक के समय सरदार तथा ‘मुइज्जी’ अर्थात् मुहम्मद ग़ोरी के समय के सरदारों के विद्रोह का दमन किया। इल्तुमिश ने इन विद्रोही सरदारों पर विश्वास न करते हुए अपने 40 ग़ुलाम सरदारों का एक गुट या संगठन बनाया, जिसे ‘तुर्कान-ए-चिहालगानी’ का नाम दिया गया। इस संगठन को ‘चरगान’ भी कहा जाता है।
🔹शासनकाल – 1210 – 1236 ई.
🔹राज्यारोहण – ऐबक ने सेनापति अमीद अली इस्माइल के अनुमति से आरामशाह को मारकर 1210 ई. में दिल्ली में ऐबक वंश की जगह इलबरी वंश की स्थापना की।
🔹गुरु – ख्वाजा कुतुबुद्दीन बख्तियार काका।
🔹पुत्री – रजिया सुल्तान।
🔹प्रमुख_योगदान
▪️लाहौर से अपनी राजधानी को दिल्ली ले आया।
▪️सल्तनत के तीन महत्वपूर्ण अंग इक्त्ता, सेना और मुद्रा प्रणाली का गठन किया।
▪️इक्ता – धन के स्थान पर वेतन के रूप में भूमि प्रदान करना।
▪️नए सिक्के चाँदी का टंका तथा तांबे के सिक्के जातल का प्रचलन इल्तुतमिश ने ही किया।
▪️इल्तुमिश ने विद्रोही सरदारों पर विश्वास न करते हुए अपने 40 ग़ुलाम सरदारों का एक गुट या संगठन बनाया, जिसे ‘तुर्कान-ए-चिहालगानी’ का नाम दिया गया। इस संगठन को ‘चरगान’ भी कहा जाता है।
🔹निर्माण_कार्य
▪️ख्वाजा कुतुबुद्दीन बख्तियार काका की स्मृति में 1231 – 32 ई. में कुतुबमीनार को पूरा बनवाया था।
▪️भारत में सम्भवतः पहला मक़बरा निर्मित करवाने का श्रेय भी इल्तुतमिश को दिया जाता है। इल्तुतमिश का मक़बरा दिल्ली में स्थित है, जो एक कक्षीय मक़बरा है।
▪️इल्तुतमिश ने बदायूँ की जामा मस्जिद एवं नागौर में अतारकिन के दरवाज़ा का निर्माण करवाया।
▪️अजमेर की मस्जिद’ का निर्माण इल्तुतमिश ने ही करवाया था।
▪️उसने 1230 में महरौली के हौज-ए-शम्शी (शम्सी ईदगाह) जलाशय का निर्माण किया ।
🔹विद्वानों_का_संरक्षण
▪️तत्कालीन विद्वान दरबारी लेखक मिनहाज उस सिराज थे, जिसने प्रसिध्द ग्रंथ तबकाते-नासिरी की रचना की एवं मलिक ताजूद्दीन को संरक्षण प्रदान किया।
🔹महत्वपूर्ण_युद्ध
▪️इल्तुतमिश ने 1226 ई. में बंगाल पर विजय पाकर बंगाल को दिल्ली सल्तनत का इक्ता (सूबा) बनाया।
▪️इल्तुतमिश ने 1226 ई. में रणथम्भौर जीता तथा परमारों की राजधानी मंदौर पर अधिकार कर लिया।
▪️इल्तुतमिश के काल मे 1221 ई. मंगोलों ने चंगेज खाँ के नेतृत्व में भारत पर आक्रमण किया।
🔹मृत्यु
▪️खोखरो के अभियान को दबाने के दौरान 1236 ई. में मृत्यु हो गई।
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#रूकुनुद्दीन_फ़ीरोज़शाह – (1236 ई.)
रूकुनुद्दीन फ़ीरोज़शाह दिल्ली सल्तनत में ग़ुलाम वंश का शासक था। सन् 1236 में इल्तुतमिश की मृत्यु के बाद वो एक साल से भी कम समय के लिए सत्तासीन रहा। यह इल्तुतमिश का सबसे छोटा बेटा था।
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#रजिया_सुल्ताना – (1236 – 1240 ई.)
रज़िया अल-दिन, शाही नाम “जलॉलात उद-दिन रज़ियॉ” जिसे सामान्यतः “रज़िया सुल्तान” या “रज़िया सुल्ताना” के नाम से जाना जाता है, दिल्ली सल्तनत की सुल्तान थी। वह इल्तुतमिश की पुत्री थी। रज़िया सुल्ताना मुस्लिम एवं तुर्की इतिहास कि पहली महिला शासक थीं।
🔹शासनकाल – 1236 – 1240 ई.
🔹राज्यारोहण – जनता के समर्थन से नवंबर 1236 ई. में राज्यारोहण किया गया।
▪️रजिया सुलतान दिल्ली सल्तनत की पहली और अंतिम महिला सुल्तान थी।
▪️रजिया पुरुषों की तरह चोगा (काबा) कुलाह (टोपी) पहनकर राजदरबार में शासन करती थी।
▪️रज़िया अपनी राजनीतिक समझदारी और नीतियों से सेना तथा जनसाधारण का ध्यान रखती थी।
🔹मृत्यु
▪️रजिया ने लाहौर का विद्रोह सफलतापूर्वक दबा दिया। मगर जब भटिंडा के प्रशासन अल्तुनिया से युद्ध कर वह याकृत के साथ दिल्ली आ रही थी, तो 14 अक्तुबर, 1240 को मार्ग में उसका वध कर दिया गया।
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#मुईज़ुद्दीन_बहरामशाह –(1240 – 1242 ई.)
1240 ई. में रजिया सुल्तान के हत्या कर उसके भाई मुईज़ुद्दीन बहरामशाह (1240 ई.) ने सल्तनत पर अधिकार कर लिया। इसे तुर्की अमीरों ने नायब-ए-मुमलकत (संरक्षक) का पद बनाया था। वह नाममात्र का शासक था, वास्तव में चालीसा ही शासन संभाला रहे थे। तुर्क अमीरों ने 1242 ई. में बहरामशाह की हत्या कर दी।
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#अलाऊद्दीन_मसूदशाह – (1242 – 1246 ई.)
अलाउद्दीन मसूद शाह तुर्की शासक था, जो दिल्ली सल्तनत का सातवां सुल्तान बना। यह भी गुलाम वंश से था। वह रुकुनुद्दीन फ़ीरोज़शाह का पौत्र तथा मुइज़ुद्दीन बहरामशाह का पुत्र था। उसके समय में नाइब का पद ग़ैर तुर्की सरदारों के दल के नेता मलिक कुतुबुद्दीन हसन को मिला क्योंकि अन्य पदों पर तुर्की सरदारों के गुट के लोगों का प्रभुत्व था, इसलिए नाइब के पद का कोई विशेष महत्त्व नहीं रह गया था। शासन का वास्तविक अधिकार वज़ीर मुहाजबुद्दीन के पास था, जो जाति से ताजिक (ग़ैर तुर्क) था। तुर्की सरदारों के विरोध के परिणामस्वरूप यह पद नजुमुद्दीन अबू बक्र को प्राप्त हुआ। इसी के समय में बलबन को हाँसी का अक्ता प्राप्त हुआ। ‘अमीरे हाजिब’ का पद इल्तुतमिश के ‘चालीस तुर्कों के दल’ के सदस्य ग़यासुद्दीन बलबन को प्राप्त हुआ। 1245 में मंगोलों ने उच्छ पर अधिकार कर लिया, परन्तु बलबन ने मंगोलों को उच्छ से खदेड़ दिया, इससे बलबन की प्रतिष्ठा बढ़ गयी। अमीरे हाजिब के पद पर बने रह कर बलबन ने शासन का वास्तविक अधिकार अपने हाथ में ले लिया। अन्ततः बलबन ने नसीरूद्दीन महमूद एवं उसकी माँ से मिलकर अलाउद्दीन मसूद को सिंहासन से हटाने का षडयंत्र रचा। जून, 1246 में उसे इसमें सफलता मिली। बलबन ने अलाउद्दीन मसूद के स्थान पर इल्तुतमिश के प्रपौत्र नसीरूद्दीन महमूद को सुल्तान बनाया।
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#नासिरूद्दीन_महमूद – (1246 – 1266 ई.)
नासिरूद्दीन महमूद तुर्की शासक था, जो दिल्ली सल्तनत का आठवां सुल्तान बना। यह भी गुलाम वंश से था। बलबन ने षड़यंत्र के द्वारा 1246 ई. में सुल्तान मसूद शाह को हटाकर नाशिरुद्दीन महमूद को सुल्तान बनाया। बलबन ने अपनी पुत्री का विवाह नाशिरुद्दीन महमूद से करवाया था। नसिरुद्दीन मधुर एवं धार्मिक स्वभाव का व्यक्ति था। शासक के रूप में नसिरुद्दीन में तत्कालीन पेचीदी परिस्थिति का सामना करने लायक आवश्यक गुणों का काफी अभाव था। नसिरुद्दीन की 12 फरवरी 1266 ई. को मृत्यु हो गई। उसके बाद उसका कोई भी पुरुष उत्तराधिकारी नहीं बचा। इस प्रकार इल्तुतमिश के वंश का अन्त हो गया। तब बलबन, जिसकी योग्यता सिद्ध हो चुकी थी तथा जो स्वर्गीय सुल्तान द्वारा उसका उत्तराधिकारी मनोनीत किया गया,कहा जाता है कि सरदारों एवं पदाधिकारियों की मौन स्वीकृति से सिंहासन पर बैठा।
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#गयासुद्दीन_बलबन – (1266 – 1286 ई.)
गयासुद्दीन बलबन इसका वास्तविक नाम बहाउदीन था। उसने सन् 1266 से 1286 तक राज्य किया। गयासुद्दीन बलबन, जाति से इलबारी तुर्क था। बाल्यकाल में ही मंगोलों ने उसे पकड़कर बगदाद के बाजार में दास के रूप में बेच दिया। ख्वाजा जमालुद्दीन अपने अन्य दासों के साथ उसे 1232 ई. में दिल्ली ले आया। इन सबको सुल्तान इल्तुतमिश ने खरीद लिया। इस प्रकार बलबन इल्तुतमिश के चेहलागान नामक तुर्की दासों के प्रसिद्ध दल का था।
🔹उपाधि – जिल्ला-इलाही।
🔹कार्य
▪️सुल्तान के पद पर बैठते ही चालीसा का परभाव समाप्त कर दिया।
▪️अपनी स्थिति को मजबूत करने के किये इल्तुतमिश के परिवार के शेष लोगो को मरवा दिया।
▪️बंगाल से सूबेदार तुगरिल खां ने 1276 ई. में विद्रोह किया, जिससे क्रुद्ध होकर मरवा दिया।
🔹बलवत का सिद्धांत
▪️बलबन सुल्तान को पृथ्वी पर अल्लाह का प्रतिनिधित्व मानता था।
▪️उसेक अनुसार सुल्तान जिल्ले अल्लाह है अर्थात ईश्वर की परछाई है।
🔹बलवत के द्वारा प्रचलित नियम
▪️सामान्य लोगो से सुल्तान नही मिल सकता था।
▪️सिक्को पर अपना नाम खुदवाया तथा खुतबा में खलीफा का नाम पढ़वाया था।
▪️उच्चवंशाय लोगों को पदाधिकारी बनाया जाता था।
▪️वह एकांत में रहता था, हर्ष या शोक से विचलित नही होता था। शराब पीना एवं मनोरंजन कार्य बंद कर दिए थे।
▪️उसने राजदरबार में सिजदा एवं पेबोस की प्रथा प्रारम्भ की।
▪️कोई भी होठो पर मुस्कुराहट नही ला सकता था।
🔹समकालीन कवि
▪️अमीर खुसरो (तुतिए-हिन्द)
▪️अमीर हसन
🔹मृत्यु
▪️1286 ई. में (मंगोली संघर्ष में अपने जेष्ठ पुत्र के मारे जाने के शोक में)
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#कैकुबाद – (1286 – 1290 ई.)
बलबन ने अपनी मृत्यु के पूर्व अपने जेष्ठ पुत्र के पुत्र अर्थात पौत्र कैखुसरो को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया था। लेकिन दिल्ली के कोतवाल फ़ख़रुद्दीन मुहम्मद ने बलबन की मृत्यु के बाद कूटनीति के द्वारा कैखुसरो को मुल्तान की सूबेदारी देकर कैकुबाद को दिल्ली की राजगद्दी पर बैठा दिया। कैकुबाद अथवा ‘कैकोबाद’ (1286-1290 ई.) को 17-18 वर्ष की अवस्था में दिल्ली की गद्दी पर बैठाया गया था। कैकुबाद ने ग़ैर तुर्क सरदार जलालुद्दीन ख़िलजी को अपना सेनापति बनाया, जिसका तुर्क सरदारों पर बुरा प्रभाव पड़ा। तुर्क सरदार बदला लेने की बात को सोच ही रहे थे कि, कैकुबाद को लकवा मार गया। लकवे का रोगी बन जाने के कारण कैकुबाद प्रशासन के कार्यों में अक्षम हो गया।
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#शमशुद्दीन_क्यूम़र्श – (1290 ई.)
शमशुद्दीन क्यूम़र्श भारत में गुलाम वंश का अतिम शासक था। कैकुबाद को लकवा मार जाने के कारण वह प्रशासन के कार्यों में पूरी तरह से अक्षम हो चुका था। प्रशासन के कार्यों में उसे अक्षम देखकर तुर्क सरदारों ने उसके तीन वर्षीय पुत्र शम्सुद्दीन क्यूम़र्श को सुल्तान घोषित कर दिया। कालान्तर में जलालुद्दीन फ़िरोज ख़िलजी ने उचित अवसर देखकर शम्सुद्दीन का वध कर दिया। शम्सुद्दीन की हत्या के बाद जलालुद्दीन फ़िरोज ख़िलजी ने दिल्ली के तख्त पर स्वंय अधिकार कर लिया। इस प्रकार से बाद में दिल्ली की राजगद्दी पर ख़िलजी वंश की स्थापना हुई।
#मध्यकालीन_भारत_का_इतिहास :
#सैयद_वंश
दिल्ली सल्तनत पर शासन करने वाला चौथा वंश था। इस वंश ने दिल्ली सल्तनत में 1414 से 1451 ई. तक शासन किया। उन्होंने तुग़लक़ वंश के बाद राज्य की स्थापना की। यह वंश मुस्लिमों की तुर्क जाति का यह आख़री राजवंश था।
#सैयद_वंश_के_शासक :-
▪️सैयद ख़िज़्र खाँ (1414 – 1421 ई.)
▪️मुबारक़ शाह (1421 – 1434 ई.)
▪️मुहम्मद शाह (1434 – 1445 ई.)
▪️आलमशाह शाह (1445 – 1476 ई.)
#सैयद_ख़िज़्र_खाँ (1414 – 1421 ई.)
ख़िज़्र ख़ाँ ने य्यद वंश की स्थापना की । ख़िज़्र ख़ाँ ने 1414 ई. में दिल्ली की राजगद्दी पर अधिकार कर लिया। ख़िज़्र ख़ाँ ने सुल्तान की उपाधि न धारण कर अपने को ‘रैयत-ए-आला’ की उपाधि से ही खुश रखा। जब भारत को लूटकर तैमूर लंग वापस जा रहा था, उसने ख़िज़्र ख़ाँ को मुल्तान, लाहौर एवं दीपालपुर का शासक नियुक्त कर दिया था। ख़िज़्र ख़ाँ के शासन काल में पंजाब, मुल्तान एवं सिंध पुनः दिल्ली सल्तनत के अधीन हो गये।
सुल्तान को राजस्व वसूलने के लिए भी प्रतिवर्ष सैनिक अभियान का सहारा लेना पड़ता था। उसने अपने सिक्कों पर तुग़लक़ सुल्तानों का नाम खुदवाया। फ़रिश्ता ने ख़िज़्र ख़ाँ को एक न्यायप्रिय एवं उदार शासक बताया है।
🔹मृत्यु
▪️20 मई, 1421 को ख़िज़्र ख़ाँ की मृत्यु हो गई।
▪️फ़रिश्ता के अनुसार ख़िज़्र ख़ाँ की मृत्यु पर युवा, वृद्ध दास और स्वतंत्र सभी ने काले वस्त्र पहनकर दुःख प्रकट किया।
#मुबारक़_शाह (1421 – 1434 ई.)
ख़िज़्र ख़ाँ की मृत्यु के बाद उनके उत्तराधिकारी के रूप में उनका पुत्र मुबारक शाह ने दिल्ली की सत्ता अपने हाथ में ली। अपने पिता के विपरीत उन्होंने अपने आप को सुल्तान के रूप में घोषित किया।
🔹मुबारक शाह के कार्य
▪️इसने यमुना नदी के किनारे 1434 ई0 में मुबारकबाद नामक नगर की स्थापना की।
▪️मुबारक शाह ने ‘शाह’ की उपाधि ग्रहण कर अपने नाम के सिक्के जारी किये।
▪️उसने अपने नाम से ‘ख़ुतबा (प्रशंसात्मक रचना)’ पढ़वाया और इस प्रकार विदेशी स्वामित्व का अन्त किया।
▪️मुबारक शाह के समय में पहली बार दिल्ली सल्तनत में दो महत्त्वपूर्ण हिन्दू अमीरों का उल्लेख मिलता है।
▪️उसने विद्धान ‘याहिया बिन अहमद सरहिन्दी’ को अपना राज्याश्रय प्रदान किया था। उसके ग्रंथ ‘तारीख़-ए-मुबारकशाही’ से मुबारक शाह के शासन काल के विषय में जानकारी मिलती है।
🔹मृत्यु
▪️मुबारक शाह के वज़ीर सरवर-उल-मुल्क ने षड़यन्त्र द्वारा 19 फ़रवरी, 1434 ई. को मुबारक शाह की हत्या कर दी।
#मुहम्मद_शाह (1434 – 1445 ई.)
मुबारक शाह ले दत्तक पुत्र मुहम्मद शाह (मुहम्मद बिन खरीद खाँ) को वज़ीर सरवर-उल-मुल्क एवं अन्य अमीरों में मिलकर 19 फ़रवरी 1434 को दिल्ली का सुल्तान बना दिया। इसने मुल्तान के सुबेदार वहलोल को ‘खान-ए-खाना’ की उपाधि दी। मुहम्मद शाह नाममात्र का शासक था। शासन पर पूर्ण नियंत्रण वज़ीर सरवर-उल-मुल्क का था। मुहम्मद शाह के शासक बनते ही वजीर ने शस्त्रागार, राजकोष एवं हाथियों पर आधिपत्य कर लिया। मुहम्मद शाह को मरने के लिए वज़ीर सरवर-उल-मुल्क षडयंत्र कर रहा था। इससें पहले ही मुहम्मद शाह ने वजीर व उसके समर्थकों को मार दिया। मुहम्मद शाह ने कमाललमुल्क को नया वजीर बनाया।
1440 ई. में महमूद खिलजी ने मुहम्मद शाह पर आक्रमण किया, लेकिन युद्ध के बाद दोनों में संधि हो गई। बहलोल लोदी को मुहम्मद शाह ने अपने पुत्र की संज्ञा दी।
🔹मृत्यु
▪️बहलोल लोदी ने 1443 ई. में दिल्ली पर आक्रमण कर लिया। उसी दौरान उसकी मृत्यु हो गई। लेकिन कुछ विद्वान् उसकी मृत्यु 1445 ई. में मानते है।
#आलमशाह_शाह (1445 – 1476 ई.)
आलमशाह शाह (अलाउद्दीन शाह), मुहम्मद शाह का पुत्र था। 1445 ई. में मुहम्मद शाह की मृत्यु के बाद सरदारों ने उसके पुत्र को अलाउद्दीन आलमशाह की उपाधि से इस विनिष्ट राज्य का शासक घोषित किया, जिसमें अब केवल दिल्ली शहर और अगल-बगल के गाँव बच गये थे। आलमशाह शाह बहुत कमजोर और अयोग्य था। उसने 1451 ई. में दिल्ली का राजसिंहासन बहलोल लोदी को दे दिया तथा निन्दनीय ढंग से 1447 ई. में दिल्ली छोड़कर अपने प्रिय स्थान बदायूँ चला गया।
🔹मृत्यु
▪️1476 ई. में अलाउद्दीन शाह (आलमशाह शाह) की मृत्यु हो गई।
#आधुनिक_भारत_का_इतिहास :
#राममोहन_रॉय_और_ब्रह्म_समाज
सामाजिक और धार्मिक जीवन के कुछ पहलुओं के सुधार से प्रारंभ होने वाला जागरण ने समय के साथ देश के सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक जीवन के सभी पहलुओं को प्रभावित किया।18वीं सदी के उत्तरार्ध में कुछ यूरोपीय और भारतीय विद्वानों ने प्राचीन भारतीय दर्शन,विज्ञान,धर्म और साहित्य का अध्ययन प्रारंभ किया। इस अध्ययन के द्वारा भारतीय अपने प्राचीन भारतीय ज्ञान से परिचित हुए,जिसने उनमें अपनी सभ्यता के प्रति गौरव का भाव जाग्रत किया।
इसने सुधारकों को उनके सामाजिक और धार्मिक सुधारों के कार्य में भी सहयोग प्रदान किया। उन्होंने सामाजिक रूढ़ियों, अंधविश्वासों और अमानवीय व्यवहारों व परम्पराओं के प्रति अपने संघर्ष में जनमत तैयार करने के लिए प्राचीन भारतीय ग्रंथों के ज्ञान का उपयोग किया। ऐसा करने के दौरान, उनमें से अधिकांश ने विश्वास और आस्था के स्थान पर तर्क का सहारा लिया। अतः भारतीय सामाजिक व धार्मिक सुधारकों ने अपने उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए एक तरफ अपने पाश्चात्य ज्ञान का प्रयोग किया तो दूसरी तरफ प्राचीन भारतीय विचारों को भी महत्व प्रदान किया।
#राजा_राममोहन_राय
राजा राममोहन राय का जन्म,संभवतः1772 ई. में,बंगाल के एक सम्पन्न परिवार में हुआ था। उन्होंने पारंपरिक संस्कृत शिक्षा बनारस में और पारसी व अरबी का ज्ञान पटना में प्राप्त किया। बाद में उन्होंने अंग्रेजी,ग्रीक और हिब्रू भाषा भी सीखी ।वे फ्रेंच और लैटिन भाषा के भी जानकार थे। उन्होंने न केवल हिन्दू बल्कि इस्लाम,ईसाई और यहूदी धर्म का भी गहन अध्ययन किया था। उन्होंने संस्कृत,बंगाली,हिंदी,पारसी और अंग्रेजी भाषा में अनेक पुस्तकें लिखी थी। उन्होंने एक बंगाली भाषा में और एक पारसी भाषा में अर्थात दो समाचार पत्र भी निकाले। मुग़ल शाशकों ने उन्हें ‘राजा’ की उपाधि प्रदान की और अपने दूत के रूप में इंग्लैंड भेजा।
वे 1831 ई. में इंग्लैंड पहुचे और वहीँ 1833 में उनकी मृत्यु हो गयी। वे भारत में अंग्रेजी शिक्षा के समर्थक थे और मानते थे कि नवजागरण के प्रसार और विज्ञान की शिक्षा के लिए अंग्रेजी का ज्ञान आवश्यक है। वे प्रेस की स्वतंत्रता के प्रबल पक्षधर थे और इसी कारण उन्होंने प्रेस पर लगे प्रतिबंधों को हटाने के लिए आन्दोलन भी चलाया।
राजा राममोहन राय का मानना था कि हिन्दू धर्म में प्रवेश कर चुकी बुराईयों को दूर करने के लिए और उसके शुध्दिकरण के लिए उस धर्म के मूल ग्रंथों के ज्ञान से लोगों को परिचित करना आवश्यक है। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए ही उन्होनें वेदों व उपनिषदों का बंगाली भाषा में अनुवाद कर प्रकाशित करने का कठिन कार्य किया।
वे एक ऐसे सार्वभौमिक धर्म के समर्थक थे जोकि एक परम-सत्ता के सिद्धांत पर आधारित था। उन्होनें मूर्ति-पूजा और अंधविश्वासों व पाखंडों का विरोध किया।
#ब्रह्म_समाज
धार्मिक सुधारों के क्षेत्र में उनका सबसे बड़ा योगदान उनके द्वारा 1928 ई. में ब्रहम समाज की स्थापना करना था जोकि धार्मिक सुधार आन्दोलन के तहत स्थापित प्रथम महत्वपूर्ण संगठन था। उन्होनें मूर्ति-पूजा और अतार्किक अंधविश्वासों व पाखंडों का विरोध किया। ब्रहम समाज के सदस्य किसी भी धर्म पर हमले के खिलाफ थे।
सामाजिक सुधारों के अंतर्गत ब्रहम समाज का सबसे बड़ा योगदान 1829 ई. में सती प्रथा का उन्मूलन था।उन्होंने देखा था कि कैसे उनके बड़े भाई की पत्नी को जबरदस्ती सती होने के लिए विवश किया गया था। उन्हें सती प्रथा का विरोध करने के कारण रूढ़िवादी हिन्दुओं का तीव्र विरोध भी झेलना पड़ा था। राममोहन राय के अनुसार सती प्रथा का प्रमुख कारण हिन्दू महिलाओं की अत्यधिक निम्न स्थिति थी। वे बहुविवाह के खिलाफ थे और महिलाओं को शिक्षित करने तथा उन्हें पैतृक संपत्ति प्राप्त करने के अधिकार प्रदान के पक्षधर थे।
ब्रहम समाज का प्रभाव बढता गया और देश के विभिन्न भागों में ब्रहम समाज शाखाएं खुल गयीं। ब्रहम समाज के दो महत्वपूर्ण नेता देवेन्द्रनाथ टैगोर और केशवचंद्र सेन थे। ब्रहम समाज के सन्देश को प्रसारित करने के लिए केशवचंद्र सेन ने मद्रास और बम्बई प्रेसिडेंसी की यात्राएँ की और बाद में उत्तर भारत में भी यात्राएँ कीं।
1866 ई. में ब्रहम समाज का विभाजन हो गया क्योकि केशवचंद्र सेन के विचार मूल ब्रहम समाज के विचारों की तुलना में अत्यधिक क्रांतिकारी व उग्र थे।वे जाति व रीति-रिवाजों के बंधन और धर्म-ग्रंथों के प्राधिकार से मुक्ति के पक्षधर थे । उन्होंने अंतर-जातीय विवाह और विधवा-पुनर्विवाह की वकालत की और ऐसे अनेक विवाह सम्पन्न भी करायें,पर्दा-प्रथा का विरोध किया और जाति-गत विभाजन की आलोचना की। उन्होंने जाति-गत कठोरता पर हमला किया,तथाकथित हिन्दू निम्न जातियों व अन्य धर्मों के व्यक्तियों के यहाँ भोजन करने लगे,खान-पान पर लगे प्रतिबंधों का विरोध किया,अपना संपूर्ण जीवन शिक्षा के प्रसार हेतु समर्पित कर दिया और समुद्री यात्राओं पर प्रतिबन्ध जैसे पुराने हिन्दू विचारों का विरोध किया।इस आन्दोलन ने देश के अन्य भागों में भी ऐसे ही अनेक सुधार-आन्दोलनों को प्रेरित किया ।लेकिन इस समूह का प्रभाव बढ़ता गया जबकि अन्य समूह,जोकि सामाजिक सुधारों के प्रति उनके उतने अधिक प्रतिबद्ध नहीं थे, का पतन हो गया।
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