Wednesday, June 3, 2020

हमें साधना क्यों करनी चाहिये...

हमें साधना क्यों करनी चाहिये?

साधना का शाब्दिक अर्थ है, 'किसी लक्ष्य की प्राप्ति के लिए किया जाने वाला कार्य'। किन्तु वस्तुतः यह एक आध्यात्मिक क्रिया है। धार्मिक और आध्यात्मिक अनुशासन जैसे कि पूजा, योग, ध्यान, जप, उपवास और तपस्या के करने को साधना कहते हैं। अनुरुद्ध प्रगति के लिए साधना को प्रतिदिन करना चाहिए।

साधना क्या है? यह समझने के लिए अध्यात्म शास्त्र का अध्ययन करना आवश्यक है, जब हमारी बुद्धि साधना का महत्त्व समझ लेती है, तब हम नियमित साधना करने के समर्पित प्रयास कर सकते हैं, अध्यात्म के सिद्धांतों को समझ लेने से अपने जीवनसंबंधी तथा साधनासंबंधी अधिक अच्छे निर्णय लेने की क्षमता हममें विकसित होती है।

जिस पुस्तक का हम अध्ययन करते हैं, आदर्श रूप से वह हमें आगे की साधना की स्पष्ट दिशा देनेवाली होनी चाहिये, पुस्तक में दिया मार्गदर्शन अध्यात्म के छः मूलभूत सिद्धांतों के अनुरूप होना चाहिये, आध्यात्मिक प्रगति के लिए जब हम आध्यात्मिक ग्रंथों का अध्ययन करते हैं, तब हमें संत अथवा गुरु द्वारा रचित साहित्य को प्राथमिकता देनी चाहिये।

इसका कारण यह है कि उनमें चैतन्य होता है, उच्च आध्यात्मिक स्तर के संतों द्वारा रचित साहित्य में शत प्रतिशत चैतन्य होता है, जबकि कनिष्ठ आध्यात्मिक स्तर के लेखकों के आध्यात्मिक लेखों में कुछ प्रतिशत ही चैतन्य होता है, इस प्रकार कनिष्ठ आध्यात्मिक स्तर के लेखकों द्वारा रचित आध्यात्मिक पुस्तक के अध्ययन से हमें अधिक से अधिक बौद्धिक स्तर पर कुछ जानकारी मिल सकती है।

परंतु जब हम संतों द्वारा रचित आध्यात्मिक ग्रंथ पढते हैं, तब पढते समय भी हमें उनसे चैतन्य मिलता है, और साधना करने का उद्देश्य भी चैतन्य की प्राप्ति करना होता है, धार्मिक ग्रंथों का अध्ययन करते समय हमें यह ध्यान रखना चाहियें कि हमें अपनी समझ को मात्र एक संकीर्ण सांप्रदायिक दृष्टिकोण तक सीमित नहीं रखना बल्कि हमें अध्यात्म को अध्यात्मशास्त्रों से जोडने का प्रयास करना चाहिये।

धार्मिक ग्रंथों का अध्ययन करते समय हमें ध्यान में रखना चाहिए कि इस लेखन का भावार्थ क्या है? किसी भी लेखन का एक गूढ रहस्य  होता है यानी भावार्थ, उसका भावार्थ समझ कर, उसे अपने जीवन में उतारना आवश्यक है, अन्यथा अनेक धार्मिक ग्रंथों को पढकर भी आध्यात्मिक प्रगति के संदर्भ में अल्प लाभ होता है, इसका कारण यह है कि धार्मिक ग्रंथों के भावार्थ को समझने के लिए आध्यात्मिक स्तर उच्च होना आवश्यक है।

हो सकता है तक हमारा आध्यात्मिक स्तर इतना अधिक न हो कि हम ग्रंथ में दिए ज्ञान का भावार्थ समझकर उसे आचरण में उतार पायें, हमें अपना अध्ययन आध्यात्मिक ग्रंथों की भूमिका पढकर प्रारंभ करना चाहिये, इससे संकलनकर्ता द्वारा बताए गए आध्यात्मिक सिद्धांतों के संदर्भ को समझने में सहायता होगी, प्रत्येक चरण में हमें स्वयं से प्रश्न पूछना होगा कि हमें ग्रंथ की प्रत्येक पंक्ति का अर्थ समझ में आया है या नहीं।

यदि नहीं, तो हमें अपने आध्यात्मिक मार्गदर्शक अथवा हम जिस सत्संग में जाते हैं, उसके संचालक से उस सूत्र को समझ लेना चाहिये, एक बार ग्रंथ के किसी अनुभाग का अर्थ स्पष्ट हो जाने पर, हमें अपने शब्दों में उसे किसी अन्य को बताना चाहियें, किसी सिद्धांत को अन्य को बताना तथा उसे प्रश्न पूछने के लिए प्रेरित करना, समझने की उचित पद्धति है कि हमने उस सिद्धांत को कितने अच्छे ढंग से समझा है।

हमें यह जांचना चाहिये कि हम जो अध्ययन कर रहे हैं, उसे हमने अनुभव किया है अथवा नहीं,  और यदि नहीं तो क्यों नहीं? क्योंकि पवित्र ग्रंथ पढते समय यदि हमें सत्य की अनुभूति नहीं होती है, तो इसका अर्थ है कि हमें और अधिक साधना की जरूरत है, जो भी हम समझ पायें हैं, उसे क्रियान्वित करने हेतु हमें विशिष्ट योजना बनानी चाहियें।

और समय-समय पर उस पर पुनः-पुनः ध्यान देना चाहिये कि अपेक्षित प्रगति के लक्षणों का अनुभव हमें हो रहा है, अथवा नहीं, हमें एक ही ग्रंथ को बार-बार पढना चाहियें, इसका कारण यह है कि आध्यात्मिक स्तर बढने से ग्रंथ को समझने की क्षमता और उसे अपने आचरण में लाने की क्षमता भी बढती जाती है, अब हमें यह समझना होगा कि ग्रन्थ को  हमें कब तक अध्ययन करना चाहिये?

प्रारंभिक अवस्था के साधकों के लिये  केवल पढना है, क्यों पढ़ना चाहिये?  क्योंकि, जिससे अध्यात्म तथा साधना में थोडा विश्वास उत्पन्न हो, इसके साथ ही हमें ग्रंथ भी वैसे पढने चाहिये जिसमें शब्दार्थ और भावार्थ में कम से कम अंतर हो, कुछ ही समय में साधना आरंभ करने से अनुभूतियां होनी आरंभ हो जाती हैं, जो साधक को साधना पथ पर आगे बढने के लिए प्रोत्साहित करती हैं।

उदाहरण के लिए, यदि हमें अगरबत्ती के न जलते हुए भी उसकी सुगंध की अनुभूति होती है, तब हमें कोई आश्चर्य नहीं होता और न ही हम इसपर अत्यधिक विचार करते हैं, क्योंकि हमने पहले ही इस विषय में पढा हुआ है, यह एक अनुभूति है, माध्यमिक अवस्था के साधकों के लिये अध्ययन की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि अध्यात्म में हमारा विश्वास हो गया है, यद्यपि अभी तक हमें उच्च स्तर की अनुभूति नहीं हुई है।

श्रीशंकराचार्यजी ने कहा है- शब्दों का जाल, घना जंगल है, इससे मन भटकता है, और शंकायें उत्पन्न होती हैं, इसका अर्थ यह हुआ कि अत्यधिक अध्ययन से शंकायें उत्पन्न हो सकती है, प्राय: हम देखते हैं कि लोग सैद्धांतिक वाद-विवाद में तथा आध्यात्मिक शब्दों के जाल में उलझे रहते हैं, उन्होंने कभी भी उच्च आध्यात्मिक स्तर के भाव की अथवा आनंद की अनुभूति नहीं ली है।

अध्ययन तथा साधना, यदि हमने इन दोनों को एक साथ नहीं किया तो ढेर सारा अध्ययन कर, ज्ञान प्राप्त करने से अहं बढ सकता है, जिससे आध्यात्मिक प्रगति के लिए संकट उत्पन्न होगा, साधना के अतिरिक्त अन्य कोई पर्याय नहीं है, इसलिए हमारा संपूर्ण अध्ययन, उच्च आध्यात्मिक स्तर की साधना को जीवन में उतारने में लगाना चाहियें।

हरि ओऊम

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