प्राचीन_भारत_का_इतिहास :
#महाजनपद
छठी शताब्दी ईसा पूर्व में कुछ साम्राज्यों के विकास में वृद्धि हुयी थी जो बाद में प्रमुख साम्राज्य बन गये और इन्हें महाजनपद या महान देश के नाम से जाना जाने लगा था। इन्होंने उत्तर पश्चिमी पाकिस्तान से पूर्वी बिहार तक तथा हिमालय के पहाड़ी क्षेत्रों से दक्षिण में गोदावरी नदी तक अपना विस्तार किया। आर्य यहां की सबसे प्रभावशाली जनजाति थी जिन्हें 'जनस' कहा जाता था। इससे जनपद शब्द की उतपत्ति हुयी थी जहां जन का अर्थ "लोग" और पद का अर्थ "पैर" होता था। जनपद वैदिक भारत के प्रमुख साम्राज्य थे। महाजनपदों में एक नये प्रकार का सामाजिक-राजनीतिक विकास हुआ था। महाजनपद विशिष्ट भौगोलिक क्षेत्रों में स्थित थे। 600 ईसा पूर्व से 300 ईसा पूर्व के दौरान भारतीय उप-महाद्वीपों में सोलह महाजनपद थे।
#उनके_नाम_थे:-
अंग
अश्मक
अवंती
छेदी
गांधार
कम्बोज
काशी
कौशल
कुरु
मगध
मल्ल
मत्स्य
पंचाल
सुरसेन
वज्जि
वत्स
#मगध_साम्राज्य:
मगध साम्राज्य ने 684 ईसा पूर्व से 320 ईसा पूर्व तक भारत में शासन किया।
इसका उल्लेख महाभारत और रामायण में भी किया गया है।
यह सोलह महाजनपदों में सबसे अधिक शक्तिशाली था।
साम्राज्य की स्थापना राजा बृहदरथ द्वारा की गयी थी।
राजगढ (राजगिर) मगध की राजधानी थी, लेकिन बाद में चौथी सदी ईसा पूर्व इसे पाटलिपुत्र में स्थानांतरित कर दिया गया था।
यहां लोहे का इस्तेमाल उपकरणों और हथियारों का निर्माण करने के लिए किया जाता था।
हाथी जंगल में पाये जाते थे जिनका इस्तेमाल सेना में किया जाता था।
गंगा और उसकी सहायक नदियों के तटीय मार्गों ने संचार को सस्ता और सुविधाजनक बना दिया था।
बिम्बिसार, अजातशत्रु और महापदम नंद जैसे क्रूर और महत्वाकांक्षी राजाओं की कुशल नौकरशाही द्वारा नीतियों के कार्यान्वयन से मगध समृद्ध बन गया था।
मगध का पहला राजा बिम्बिसार था जो हर्यंक वंश का था।
अवंती मगध का मुख्य प्रतिद्वंदी था, लेकिन बाद में एक गठबंधन में शामिल हो गया था।
शादियों ने राजनीतिक गठबंधनों के निर्माण में मदद की थी और राजा बिम्बिसार ने पड़ोसी राज्यों की कई राजकुमारियों से शादी की थी।
#हर्यंक_राजवंश:
यह बृहदरथ राजवंश के बाद मगध पर शासन करने वाला यह दूसरा राजवंश था।
शिशुनाग इसका उत्तराधिकारी था।
राजवंश की स्थापना बिम्बिसार के पिता राजा भाट्य द्वारा की गयी थी।
राजवंश ने 6 वीं शताब्दी ईसा पूर्व से 413 ईसा पूर्व तक मगध पर शासन किया था।
हर्यंक राजवंश के राजा इस प्रकार थे:
भाट्य
बिम्बिसार
अजातशत्रु
उदयभद्र
अनुरूद्ध
मुंडा
नागदशक
#बिम्बिसार:
बिम्बिसार ने मगध पर 544 ईसा पूर्व से 492 ईसा पूर्व तक, 52 वर्ष शासन किया था।
उसने विस्तार की आक्रामक नीति का पालन किया और काशी, कौशल और अंग के पड़ोसी राज्यों के साथ कई युद्ध लड़े।
बिम्बिसार गौतम बुद्ध और वर्द्धमान महावीर का समकालीन था।
उसका धर्म बहुत स्पष्ट नहीं है। बौद्ध ग्रंथों में उल्लेख के अनुसार वह बुद्ध का एक शिष्य था, जबकि जैन शास्त्रों में उसका वर्णन महावीर के अनुयायी के रूप तथा राजगीर के राजा श्रेनीका के रूप में मिलता है।
बाद में बिम्बिसार को उसके पुत्र अ़जातशत्रु द्वारा कैद कर लिया गया जिसने मगध के सिंहासन पर आधिपत्य स्थापित कर लिया था। बाद में कारावास के दौरान बिम्बिसार की मृत्यु हो गई।
#अजातशत्रु
अजातशत्रु ने 492- 460 ईसा पूर्व तक मगध पर शासन किया था।
उसने वैशाली के साथ 16 वर्षों तक युद्ध किया था और अंत में कैटापोल्ट्स की मदद से साम्राज्य को शिकस्त दी।
उसने काशी और वैशाली पर आधिपत्य स्थापित करने के बाद मगध साम्राज्य का विस्तार किया था।
उसने राजधानी राजगीर को मजबूत बनाया जो पाँच पहाड़ियों से घिरी हुई थी जिससे यह लगभग अभेद्य बन गयी थी।
#उदयन:
उदयन या उदयभद्र अजातशत्रु का उत्तराधिकारी था।
उसका शासनकाल 460 ईसा पूर्व से 444 ईसा पूर्व तक चला था।
उसने पटना (पाटलिपुत्र) के किले का निर्माण कराया था जो मगध साम्राज्य का केंद्र था
उदयन का उत्तराधिकारी शिशुनाग था।
शिशुनाग ने अवंती साम्राज्य का विलय मगध में कर दिया था।
बाद में उसका उत्तराधिकारी नंद राजवंश बना।
#नंद_राजवंश:
राजवंश का शासनकाल 345 ईसा पूर्व से 321 ईसा पूर्व तक चला था।
महापदम नंद, नंद राजवंश का पहला राजा था जिसने कलिंग का विलय मगध साम्राज्य में कर दिया था।
उसे सबसे शक्तिशाली और क्रूर माना जाता था यहां तक कि सिकंदर भी उसके खिलाफ युद्ध लड़ना नहीं चाहता था।
नंद वंश बेहद अमीर बन गया था। उन्होंने अपने पूरे साम्राज्य में सिंचाई परियोजनाओं और मानकीकृत व्यापारिक उपायों की शुरूआत की थी।
हर्ष और कठोर कराधान प्रणाली ने नंदों को अलोकप्रिय बना दिया था।
अंतिम नंद राजा, घानानंद को चंद्रगुप्त मौर्य ने पराजित कर दिया था।
मौर्यकालीन मूर्तिकला*
●चमकदार पॉलिश (ओप), मूर्तियों की भावाभिव्यक्ति, एकाश्म पत्थर द्वारा निर्मित पाषाण स्तंभ एवं उनके कलात्मक शिखर (शीर्ष) मौर्यकालीन मूर्तिकला की विशेषताएँ हैं।
●मौर्यकाल में जो मूर्तियाँ उपलब्ध हुई हैं उनमें पत्थर व मिट्टी की मूर्ति तो मिली है, किंतु धातु की कोई मूर्ति नहीं मिली है।
●मौर्यकाल में मूर्तियों का निर्माण चिपकवा विधि (अंगुलियों या चुटकियों का इस्तेमाल करके) या साँचे में ढालकर किया जाता था।
●मौर्यकालीन मृणमूर्तियों के विषय हैं- पशु-पक्षी, खिलौना और मानव। अर्थात् ये मृणमूर्तियाँ गैर-धार्मिक उद्देश्य वाली मृणमूर्तियाँ हैं।
●प्रस्तर मूर्तियाँ अधिकांशत: शासकों द्वारा बनवाई गई हैं, फिर भी किसी देवता को अभी प्रस्तर मूर्ति में नहीं ढाला गया है। यानी उद्देश्य सेक्युलर ही है।
●मौर्यकाल में प्रस्तर मूर्ति निर्माण में चुनार के बलुआ पत्थर और पारखम जगह से प्राप्त मूर्ति में चित्तीदार लाल पत्थर का इस्तेमाल हुआ है।
●मौर्यकाल की मूर्तियाँ अनेक स्थानों, यथा- पाटलिपुत्र, वैशाली, तक्षशिला, मथुरा, कौशाम्बी, अहिच्छत्र, सारनाथ आदि से प्राप्त हुई हैं।
●कला, सौंदर्य एवं चमकदार पॉलिश की दृष्टि से सम्राट अशोक के कालखण्ड की मूर्तिकारी को सर्वोत्तम माना गया है।
●पारखम (U.P.) से प्राप्त 7.5 फीट ऊँची पुरुष मूर्ति, दिगंबर प्रतिमा (लोहानीपुर पटना) तथा दीदारगंज (पटना) से प्राप्त यक्षिणी मूर्ति मौर्य कला के विशिष्ट उदाहरण हैं।
●सारनाथ स्तंभ के शीर्ष पर बने चार सिंहों की आकृतियाँ तथा इसके नीचे की चित्र-वल्लरी अशोककालीन मूर्तिकला का बेहतरीन नमूना है, जो आज हमारा राष्ट्रीय चिह्न है।
●कुछ विद्वानों के अनुसार मौर्यकालीन मूर्तिकला पर ईरान एवं यूनान की कला का प्रभाव था।
● *मथुरा शैली* ●
●इसका संबंध बौद्ध, जैन एवं ब्राह्मण-हिन्दू धर्म, तीनों से है।
●मथुरा कला शैली की दीर्घजीविता प्रथम शताब्दी ईस्वी सन् से चतुर्थ शताब्दी ईस्वी सन् तक रही है।
●मथुरा कला के मुख्य केन्द्र- मथुरा, तक्षशिला, अहिच्छत्र, श्रावस्ती, वाराणसी, कौशाम्बी आदि हैं।
●मथुरा शैली में सीकरी रूपबल (मध्यकालीन फतेहपुर सीकरी) के लाल चित्तीदार पत्थर या श्वेत चित्तीदार पत्थर का इस्तेमाल होता था।
●मथुरा मूर्तिकला शैली में भी बुद्ध आसन (बैठे हुए) और स्थानक (खड़े हुए) दोनों स्थितियों में प्रदर्शित किये गए हैं।
●मथुरा शैली में बुद्ध प्राय: वस्त्ररहित, बालविहीन, मूँछविहीन, अलंकरणविहीन किंतु पीछे प्रभामंडल युक्त प्रदर्शित किये गए हैं।
●मथुरा कला में बुद्ध समस्त प्रसिद्ध मुद्राओं में प्रदर्शित किये गए हैं, यथा- वरदहस्त मुद्रा, अभय मुद्रा, धर्मचक्र प्रवर्तन मुद्रा तथा भूमि स्पर्श मुद्रा में।
➖➖➖➖ *चोल* ➖➖➖➖
1. चोल-वंश की स्थापना किसने की थी ?
✅ उत्तर-विजयालय ने।।
2. चोल वंश की राजधानी कहाँ थी ?
✅ उत्तर-तन्जावुर (तंजौर)।
3. विजयालय ने कब से कब तक शासन किया ?
✅ उत्तर-550 ई० से 875 ई० तक।।
4. विजयालय के बाद राजसिंहासन पर कौन बैठा?
✅ उत्तर-विजयालय का पुत्र आदित्य प्रथम् ।
5. आदित्य प्रथम ने कब से कब तक शासन किया?
✅ उत्तर-875 ई० से 907 ई० तक।।
6. आदित्य प्रथम के बाद चोल-राजगद्दी पर कौन बैठा ?
✅ उत्तर-परान्तक प्रथम ।
7. ‘भदुरैकोण्ड’ की उपाधि किस चोल शासक ने धारण की थी ?
✅ उत्तर-परान्तक प्रथम ने ।।
आंग्ल_मराठा_युद्ध...
भारत के इतिहास में तीन आंग्ल-मराठा युद्ध हुए हैं। प्रथम आंग्ल-मराठा युद्ध (1775-1782), द्वितीय आंग्ल-मराठा युद्ध (1803-1806) और तृतीय आंग्ल-मराठा युद्ध (1817-1818) के मध्य हुए। यह युद्ध अंग्रेजों और मराठा साम्राज्य के मध्य हुए।
▪️भारत के इतिहास में तीन आंग्ल-मराठा युद्ध हुए हैं।
▪️ये तीनों युद्ध 1775 से 1818 के मध्य हुए।
▪️ये युद्ध ब्रिटिश सेनाओं और मराठा महासंघ के बीच हुए थे।
▪️इन युद्धों का परिणाम यह हुआ कि मराठा महासंघ का पूरी तरह से विनाश हो गया।
#युद्ध_की_पृष्ठभूमि
▪️1773 ई० में रघुनाथ राव अपने भतिजे नारायण राव की हत्या कर पेशवा बन गया।
▪️परन्तु वह कुछ ही समय तक पेशवा रहा बाद में नारायण राव की विधवा ने अपने छोटे बेटे माधवराव नारायण राव द्वितीय(सवाई माधवराव) को नाना फड़नवीस की मदद से पेशवा की गद्दी पर बैठाया।
▪️रघुनाथ राव की पेशवा की गद्दी छिन गयी। जिसे पुनः प्राप्त करने के लिए वो अंग्रेजों से मदद लेने पहुँचा।
▪️रघुनाथ राव ने अंग्रेजों की सहायता से पेशवा बनने के सपने को लेकर “सूरत की संधि” कर ली।
सूरत की संधि (1775)
— अंग्रेजों रघुनाथ राव को पेशवा की गद्दी वापस दिलवाने हेतु 2500 सैनिकों की टुकड़ी देने को तैयार हुए।
— रघुनाथ राव ने बाजीराव द्वारा 1739 में पुर्तगालियों से विजित साल्सेट और बसीन के क्षेत्र अंग्रेजों को देने का वादा किया।
#प्रथम_आंग्ल_मराठा_युद्ध (1775-1782)
▪️अंग्रेजों ने रघुनाथ राव को वापस पेशवा बनाने के लिए इस युद्ध को प्रारम्भ किया।
▪️इस युद्ध के दौरान 1776 ई० में पुरंदर की संधि हुई ।
▪️परन्तु पुरंदर की संधि करने उपरान्त अंग्रेज इस संधि को मानने से मुकर गए, और कहा कि हम पहले ही 1775 में सूरत की संधि कर चुके है। अतः युद्ध फिर जारी रहा।
▪️इस युद्ध में कर्नल कीटिंग, कर्नल अप्टन, कर्नल एगटस तथा उसके बाद कर्नल काकबर्क ने अग्रेजों की अगुवाई की। इस समय काल में वारेन हेस्टिंग बंगाल का गवर्नर था।
▪️मराठाओं की तरफ से महादजी सिंधिया व मल्हारराव होल्कर नेतृत्व कर रहें थे।
▪️अंत में युद्ध 1782 में सालबाई की संधि के साथ समाप्त हुआ।
सालबाई की संधि (1782)
— इस संधि के अन्तर्गत अंग्रेजो ने रघुनाथ राव की मदद करने से इन्कार कर दिया, तथा उसे 25000 मासिक पेंशन देना स्वीकार किया।
— माधवराव नरायण राव द्वितीय को ही अगला पेशवा माना किया।
— यह भी तय हुआ कि अंग्रेजों और मराठाओं के मध्य अगले 20 वर्षों तक कोई भी युद्ध नहीं होगा।
▪️इस युद्ध के परिणाम के रूप में यह कहा जा सकता है कि इस युद्ध में मराठाओं का पलड़ा भारी रहा व अंग्रेजों को मुकी खानी पड़ी।
#द्वितीय_आंग्ल_मराठा_युद्ध (1803-1806)
▪️सन् 1800 ई० में नाना फड़नवीस की मृत्यु हो गयी तथा इसके बाद मराठाओं के अंदर बहुत भेदभाव तथा सत्ता को लेकर षडयंत्रों के खेल शुरू हो गया। मराठा पेशवा, सिंधिया, गायकवाड्, होलकर एवं भोसले में बट चुके थे तथा इनमें सत्ता के अधिकार को लेकर आपसी द्वंद्व चलते रहते थे।
मराठा : राज्य
पेशवा : पूना
सिंधिया : ग्वालियर
गायकवाड़ : बड़ौदा
होलकर : इंदौर
भोसले : नागपुर
▪️होलकर और पेशवा के बीच में लड़ाई होना एक आम बात थी।
▪️होलकर ने बाजीराव द्वितीय को हटाकर विनायकराव को पुणे में पेशवा की गद्दी पर बैठा दिया।
▪️तब बाजीराव द्वितीय अपने पिता रघुनाथ राव की भांति अंग्रेजों से मदद मांगने बसीन गया और 1802 में “बसीन की संधि” हुई।
बसीन की संधि (1802)
— बाजीराव द्वितीय ने लार्ड वैलेजली द्वारा बनायी गयी “सहायक संधि” को स्वीकार कर लिया। सहायक संधि के अन्तर्गत एक अंग्रेजी फौज की टुकड़ी को अपने राज्य में रखने का प्रावधान था जिसका आर्थिक व्यय भी राज्य को ही वहन करना होता था। राज्य को अपनी खुद की सेना रखने की मनाही थी। इसके साथ ही राज्य के सभी बाहरी मामले तथा अन्य राज्यों से सुरक्षा की जिम्मेदारी अंग्रेजी सरकार की होती थी। साथ ही किसी अन्य युरोपीय कंपनी से कोई सम्बन्ध न रखने का भी प्रावधान था।
— साथ ही अंग्रेज कंपनी को सूरत नगर मिलेगा।
— अंग्रेज बाजीराव द्वितीय को पेशवा की गद्दी वापस दिलाने में सहायता करेंगे।
▪️नाना फड़नवीस अपने जीवन काल में ही सहायक संधि के पीछे छिपे अंग्रेजों के कुटिल मकसद को भाप चुके थे अतः उन्होंने इस संधि को पहले ही ठुकरा दिया था। परन्तु जब बाजीराव द्वितीय द्वारा इस संधि को स्वीकार कर लिया गया तब मराठाओं ने अपने अस्तित्व को खतरे में पाया और सभी ने मिलकर एक साथ इसका विरोध किया।
▪️इस युद्ध में अंग्रेजों का की तरफ से लार्ड वेलेजली के नेतृत्व में युद्ध लड़ा गया तथा मराठाओं की तरफ से विभिन्न सरदारों ने अगुआई की।
▪️इस युद्ध के परिणाम के रूप में यह कहा जा सकता है कि इस युद्ध में अंग्रेजों का पलड़ा ही भारी रहा। मराठाओं की हार का मुख्य कारण उनमें एकता का अभाव था। ▪️कहने को तो सभी मराठा साथ थे लेकिन अपनी आंतरिक कलह के कारण एकजुट होकर लड़ न सके।
▪️अंग्रेजों की सहायता से बाजीराव द्वितीय को पेशवा की गद्दी वापस मिल गयी।
▪️यह युद्ध 1806 में “राजापुर घाट की संधि” के साथ समाप्त हुआ।
#तृतीय_आंग्ल_मराठा_युद्ध (1817-1818)
▪️इस समय तक मराठा काफी कमजोर हो चुके थे, और अंग्रेज इस बात का फायदा उठाने के लिए युद्ध का बहाना ढूढ़ रहे थे।
▪️एक घटना के अनुसार पेशवा के एक मंत्री ने गायकवाड़ के दूत की हत्या कर दी जिस कारण अंग्रेजों को बहना मिल गया और आंग्ल-मराठा तृतीय युद्ध की घोषणा कर दी गयी।
▪️इस युद्ध में अंग्रेजों ने लार्ड मार्क्विस हेस्टिंग्स के नेतृत्व में युद्ध लड़ा और मराठों की तरफ से बाजीराव द्वितीय एवं अन्य मराठा सरदारों ने अगवाई की थी।
▪️यह युद्ध “पूना की संधि” से समाप्त हुआ।
पूना की संधि (1818)
— अंग्रेजों द्वारा पेशवा का पद समाप्त कर दिया गया।
— अंतिम पेशवा बाजीराव द्वितीय को कानपुर के निकट बिठूर में पेंशन देकर भेज दिया गया, जहां पर 1853 में उनकी मृत्यु हो गयी।
▪️बाजीराव द्वितीय की मृत्यु के बाद उनके दत्तक पुत्र(गोद लिया) धोधु पंत द्वारा भी अंग्रेजों से पेंशन की मांग की गई, परन्तु अंग्रेजों द्वारा मना कर दिया गया।
▪️धोधु पंत ने 1857 की क्रांति में रानी लक्ष्मी बाई और तात्या टोपे के साथ अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह में भी भाग लिया था।
आधुनिक_भारत_का_इतिहास :
#स्वदेशी_आन्दोलन...
स्वदेशी आन्दोलन की शुरुआत बंगाल विभाजन के विरोध में हुई थी और इस आन्दोलन की औपचारिक शुरुआत कलकत्ता के टाउन हॉल में 7 अगस्त ,1905 को एक बैठक में की गयी थी|इसका विचार सर्वप्रथम कृष्ण कुमार मित्र के पत्र संजीवनी में 1905 ई. में प्रस्तुत किया गया था| इस आन्दोलन में स्वदेशी नेताओं ने भारतियों से अपील की कि वे सरकारी सेवाओं,स्कूलों,न्यायालयों और विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार करें और स्वदेशी वस्तुओं को प्रोत्साहित करें व राष्ट्रीय कोलेजों व स्कूलों की स्थापना के द्वारा राष्ट्रीय शिक्षा को प्रोत्साहित करें |अतः ये केवल राजनीतिक आन्दोलन ही नहीं था बल्कि आर्थिक आन्दोलन भी था|
स्वदेशी आन्दोलन को अपार सफलता प्राप्त हुई थी| बंगाल में जमींदारों तक ने इस आन्दोलन में भाग लिया था| महिलाओं व छात्रों ने पिकेटिंग में भाग लिया |छात्रों ने विदेशी कागज से बनी पुस्तकों का बहिष्कार किया| बाल गंगाधर तिलक,लाला लाजपत राय,बिपिन चन्द्र पाल और अरविन्द घोष जैसे अनेक नेताओं को जेल में बंद कर दिया गया | अनेक भारतीयों ने अपनी नौकरी खो दी और जिन छात्रों ने आन्दोलन में भाग लिया था उन्हें स्कूलों व कालेजों में प्रवेश करने रोक दिया गया | आन्दोलन के दौरान वन्दे मातरम को गाने का मतलब देशद्रोह था| यह प्रथम अवसर था जब देश में निर्मित वस्तुओं के प्रयोग को ध्यान में रखा गया |
#निष्कर्ष
स्वदेशी आन्दोलन का सबसे महत्वपूर्ण पहलू आत्म-विश्वास या आत्मशक्ति (रविंद्रनाथ टैगोर के अनुसार) पर बल देना था| बंगाल केमिकल स्वदेशी स्टोर्स(आचार्य पी.सी.राय द्वारा खोली गयी),लक्ष्मी कॉटन मिल,मोहिनी मिल और नेशनल टैनरी जैसे अनेक भारतीय उद्योगों को इसी समय खोला गया|
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